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भिलषन्ति
भिलषन्तस्तानेवानुभवन्तश्चाप्रलयात
रक्त को चाहती है और उसीको भोगती हुई मरणपर्यन्त क्लेशको पाती है, उसीप्रकार यह
पुण्यशाली जीव भी, पापशाली जीवोंकी भाँति, तृष्णा जिसका बीज है ऐसे विजय प्राप्त
दुःखांकुरोंके द्वारा क्रमशः आक्रांत होनेसे, विषयोंको चाहते हुए और उन्हींको भोगते हुए
विनाशपर्यंत (-मरणपर्यन्त) क्लेश पाते हैं
विषयतृष्णा व्यक्त या अव्यक्तरूपसे अवश्य वर्तती है
विषयोंमें प्रवृत्त होते हैं
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संवित्तिपराङ्मुखा जीवा अपि मृगतृष्णाभ्योऽम्भांसीव विषयानभिलषन्तस्तथैवानुभवन्तश्चामरणं
दुःखिता भवन्ति
व्याबाधम्
[बंधकारणं ] बंधका कारण [विषमं ] और विषम है; [तथा ] इसप्रकार [दुःखम् एव ] वह
दुःख ही है
जे इन्द्रियोथी लब्ध ते सुख ए रीते दुःख ज खरे. ७६.
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पभोगमार्गानुलग्नरागादिदोषसेनानुसारसंगच्छमानघनकर्मपांसुपटलत्वादुदर्कदुःसहतया, विषमं
हि सदभिवृद्धिपरिहाणिपरिणतत्वादत्यन्तविसंष्ठुलतया च दुःखमेव भवति
(-तृष्णाकी प्रगटताओंसे) युक्त होनेसे अत्यन्त आकुल है, (३)‘विच्छिन्न’ होता हुआ
असातावेदनीयका उदय जिसे
हुआ विषयोपभोगके मार्गमें लगी हुई रागादि दोषोंकी सेनाके अनुसार कर्मरजके
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वह मोहाच्छादित होता हुआ [घोर अपारं संसारं ] घोर अपार संसारमें [हिण्डति ] परिभ्रमण
करता है
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रागमवलम्बते स खलूपरक्तचित्तभित्तितया तिरस्कृतशुद्धोपयोगशक्तिरासंसारं शारीरं दुःख-
मेवानुभवति
विपरीतदर्शनचारित्रमोहप्रच्छादितः सुवर्णलोहनिगडद्वयसमानपुण्यपापद्वयबद्धः सन् संसाररहितशुद्धात्मनो
विपरीतं संसारं भ्रमतीत्यर्थः
निर्भरमयरूपसे (-गाढरूपसे) अवलम्बित है, वह जीव वास्तवमें चित्तभूमिके उपरक्त होनेसे
(-चित्तकी भूमि कर्मोपाधिके निमित्तसे रंगी हुई
है तबतक अर्थात् सदाके लिये) शारीरिक दुःखका ही अनुभव करता है
नहीं आता
शुद्धोपयोगमें निवास करता है (-उसे अंगीकार करता है ) :
शुद्धोपयोगी जीव ते क्षय देहगत दुःखनो करे
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परिवर्जयति स किलैकान्तेनोपयोगविशुद्धतया परित्यक्तपरद्रव्यालम्बनोऽग्निरिवायःपिण्डा-
दननुष्ठितायःसारः प्रचण्डघनघातस्थानीयं शारीरं दुःखं क्षपयति
निजशुद्धात्मद्रव्यादन्येषु शुभाशुभसर्वद्रव्येषु रागं द्वेषं वा न गच्छति
घनघातपरंपरास्थानीयदेहरहितो भूत्वा शारीरं दुःखं क्षपयतीत्यभिप्रायः
[उपयोगविशुद्धः ] उपयोगविशुद्धः होता हुआ [देहोद्भवं दुःखं ] दोहोत्पन्न दुःखका [क्षपयति ]
क्षय करता है
पर्यायों सहित समस्त द्रव्योंके प्रति राग और द्वेषको निरवशेषरूपसे छोड़ता है, वह जीव,
एकान्तसे उपयोगविशुद्ध (-सर्वथा शुद्धोपयोगी) होनेसे जिसने परद्रव्यका आलम्बन छोड़ दिया
है ऐसा वर्तता हुआ
होते, उसीप्रकार परद्रव्यका आलम्बन न करनेवाले आत्माको शारीरिक दुःखका वेदन नहीं
होता
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जहाति ] नहीं छोड़ता, तो [सः ] वह [शुद्धं आत्मकं ] शुद्ध आत्माको [ न लभते ] प्राप्त नहीं
होता
जो नव तजे मोहादिने तो नव लहे शुद्धात्मने
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मोहितान्तरङ्गः सन् निर्विकल्पसमाधिलक्षणपूर्वोक्तसामायिकचारित्राभावे सति निर्मोहशुद्धात्मतत्त्वप्रति-
पक्षभूतान् मोहादीन्न त्यजति यदि चेत्तर्हि जिनसिद्धसदृशं निजशुद्धात्मानं न लभत इति सूत्रार्थः
सकता) इसलिये मैंने मोहकी सेना पर विजय प्राप्त करनेको कमर कसी है
[जानाति ] जानता है और [तस्य मोहः ] उसका मोह [खलु ] अवश्य [लयं याति ] लयको
प्राप्त होता है
ते जीव जाणे आत्मने, तसु मोह पामे लय खरे. ८०
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उत्पन्नस्तपःसंयमप्रसिद्धः,
तत्पदाभिलाषिभिरमरासुरेन्द्रैर्महितः पूजितोऽमरासुरेन्द्रमहितः,
यतिवरवृषभस्तं यतिवरवृषभं,
स्वरूप, अन्तिम तावको प्राप्त सोनेके स्वरूपकी भाँति, परिस्पष्ट (-सर्वप्रकारसे स्पष्ट) है,
इसलिये उसका ज्ञान होनेपर सर्व आत्माका ज्ञान होता है
(-द्रव्यगुणपर्यायमय निज आत्माको) अपने मनसे जान लेता है
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मात्रावधृतकालपरिमाणतया परस्परपरावृत्ता अन्वयव्यतिरेकास्ते पर्यायाश्चिद्विवर्तनग्रन्थय इति
यावत
एव चैतन्यमन्तर्हितं विधाय केवलं प्रालम्बमिव केवलमात्मानं परिच्छिन्दतस्त-
षड्वृद्धिहानिरूपेण प्रतिक्षणं प्रवर्तमाना अर्थपर्यायाः, एवंलक्षणगुणपर्यायाधारभूतममूर्तमसंख्यातप्रदेशं
चिद्विवर्तोंका चेतनमें ही संक्षेपण [-अंतर्गत ] करके, तथा
हारको ही जानता है
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मणेरिवाकम्पप्रवृत्तनिर्मलालोकस्यावश्यमेव निराश्रयतया मोहतमः प्रलीयते
संवेदनज्ञानेन तथैवागमभाषयाधःप्रवृत्तिकरणापूर्वकरणानिवृत्तिकरणसंज्ञदर्शनमोहक्षपणसमर्थपरिणाम-
विशेषबलेन पश्चादात्मनि योजयति
दर्शनमोहान्धकारः प्रलीयते
इसलिये निष्क्रिय चिन्मात्र भावको प्राप्त होता है; और इसप्रकार मणिकी भाँति जिसका निर्मल
प्रकाश अकम्परूपसे प्रवर्तमान है ऐसे उस (चिन्मात्र भावको प्राप्त) जीवके मोहान्धकार
निराश्रयताके कारण अवश्यमेव प्रलयको प्राप्त होता है
पर्याय रूपसे उस (अरहंत भगवानके) स्वरूपको मनके द्वारा प्रथम समझ ले तो ‘‘यह
जो आत्मा, आत्माका एकरूप (-कथंचित् सदृश) त्रैकालिक प्रवाह है सो द्रव्य है, उसका
जो एकरूप रहनेवाला चैतन्यरूप विशेषण है सो गुण है और उस प्रवाहमें जो क्षणवर्ती
व्यतिरेक हैं सो पर्यायें हैं’’ इसप्रकार अपना आत्मा भी द्रव्य -गुण -पर्यायरूपसे मनके द्वारा
ज्ञानमें आता है
पर परिणामी -परिणाम -परिणतिके भेदका विकल्प नष्ट हो जाता है, इसलिये जीव निष्क्रिय
चिन्मात्र भावको प्राप्त होता है, और उससे दर्शनमोह निराश्रय होता हुआ नष्ट हो जाता है
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[जीवः ] जीव [यदि ] यदि [रागद्वेषौ ] रागद्वेषको [जहाति ] छोड़ता है, [सः ] तो वह [शुद्धं
आत्मानं ] शुद्ध आत्माको [ लभते ] प्राप्त करता है
निर्मूल करता है, तो शुद्ध आत्माका अनुभव करता है
जो रागद्वेष परिहरे तो पामतो शुद्धात्मने. ८१
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सो अप्पाणं लहदि सुद्धं’ इति भणितम्, उभयत्र मोक्षोऽस्ति
कारणेन शुभाशुभमूढत्वनिरासार्थं ज्ञानकण्डिका भण्यते
छोड़ता है, पुनः -पुनः रागद्वेषभावमें परिणमित नहीं होता, वही अभेदरत्नत्रयपरिणत जीव शुद्ध-
बुद्ध -एकस्वभाव आत्माको प्राप्त करता है
चाहिये
उपदेश पण एम ज करी, निर्वृत थया; नमुं तेमने. ८२
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परेषामप्यायत्यामिदानींत्वे वा मुमुक्षूणां तथैव तदुपदिश्य, निःश्रेयसमध्याश्रिताः
तेभ्य’ इत्यनेन पदेन नमस्कारं कुर्वन्तीत्यभिप्रायः
नमस्कार हो
क्षय स्वयं अनुभव करके (तथा)
(मोक्ष)को प्राप्त हुए हैं; इसलिये निर्वाणका अन्य (कोई) मार्ग नहीं है ऐसा निश्चित होता है
होना ही एक मात्र मोक्षमार्ग है; त्रिकालमें भी कोई दूसरा मोक्षका मार्ग नहीं है
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ज्ञानप्रधानाः
पूजासक्काररिहा द्रव्यभावलक्षणपूजा गुणप्रशंसा सत्कारस्तयोरर्हा योग्या भवन्ति
है
अवच्छन्नः ] उससे आच्छादित वर्तता हुआ जीव [ रागं वा द्वेषं वा प्राप्य ] राग अथवा द्वेषको
प्राप्त करके [क्षुभ्यति ] क्षुब्ध होता है
ते मोहथी आच्छन्न रागी -द्वेषी थई क्षोभित बने. ८३
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मेवाहरहरुपाददानो, दग्धेन्द्रियाणां रुचिवशेनाद्वैतेऽपि प्रवर्तितद्वैतो, रुचितारुचितेषु विषयेषु
रागद्वेषावुपश्लिष्य, प्रचुरतराम्भोभाररयाहतः सेतुबन्ध इव द्वेधा विदार्यमाणो नितरां
क्षोभमुपैति
लक्षणसिद्धत्वादिपर्यायेषु च यथासंभवं पूर्वोपवर्णितेषु वक्ष्यमाणेषु च
इत्थंभूतो भावो जीवस्य दर्शनमोह इति भवति
स्वगुणरूपसे, और पर -पर्यायोंको स्वपर्यायरूप समझकर -अंगीकार करके, अति रूढ
होता हुआ अत्यन्त क्षोभको प्राप्त होता है
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सिन्धुरस्येव, भवति नाम नानाविधो बन्धः
है; [तस्मात् ] इसलिये [ते ] वे (मोह -राग -द्वेष) [संक्षपयितव्याः ] सम्पूर्णतया क्षय करने
योग्य हैं
हाथीको देखकर, उत्तेजित होकर (उसकी ओर) दौड़ते हुए हाथीकी भाँति
भाविकसुखविपरीतस्य नारकादिदुःखस्य कारणभूतो विविधबन्धो जायते
विधविध थाये बंध, तेथी सर्व ते क्षययोग्य छे
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इसप्रकार पकड़ा जाता है
होकर लड़नेके लिये दौड़ता है और इसप्रकार वह पकड़नेवालोंके जालमें फँस जाता है
प्रकारके बन्धनको प्राप्त होता है, इसलिये मोक्षार्थीको मोह -राग -द्वेषका भलीभाँति -सम्पूर्णतया
मूलसे ही क्षय कर देना चाहिये
करुणाभावः ] तिर्यंच -मनुष्योंके प्रति करुणाभाव, [विषयेषु प्रसंगः च ] तथा विषयोंकी संगति
(इष्ट विषयोंमें प्रीति और अनिष्ट विषयोंमें अप्रीति)
मोहा सम्यक् क्षपयितव्या इति तात्पर्यम्
विषयो तणो वळी संग,
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त्रिभूमिकोऽपि मोहो निहन्तव्यः
और अनिष्ट विषयोंकी अप्रीतिसे द्वेषको (जानकर)
है
हैं, इष्ट विषयोंमें प्रीति रागका चिह्न है और अनिष्ट विषयोंमें अप्रीति द्वेषका चिह्न है
तसु मोह पामे नाश निश्चय; शास्त्र समध्ययनीय छे. ८६
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शक्तिसंपदः सहृदयहृदयानंदोद्भेददायिना प्रत्यक्षेणान्येन वा तदविरोधिना प्रमाणजातेन
इस (निम्नलिखित) उपायान्तरकी अपेक्षा रखता है
संस्कारसे विशिष्ट
निहन्तव्या इति सूत्रार्थः