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तत्त्वतः समस्तमपि वस्तुजातं परिच्छिन्दतः क्षीयत एवातत्त्वाभिनिवेशसंस्कारकारी मोहो- पचयः । अतो हि मोहक्षपणे परमं शब्दब्रह्मोपासनं भावज्ञानावष्टम्भदृढीकृतपरिणामेन सम्यगधीयमानमुपायान्तरम् ।।८६।।
परमसमाधिकाले रागादिविकल्परहितमानसप्रत्यक्षेण च तमेवात्मानं परिच्छिनत्ति, तथैवानुमानेन वा ।
सो उपायान्तर है । (जो परिणाम भावज्ञानके अवलम्बनसे दृढ़ीकृत हो ऐसे परिणामसे द्रव्य
अब, जिनेन्द्रके शब्द ब्रह्ममें अर्थोंकी व्यवस्था (-पदार्थोंकी स्थिति) किस प्रकार है सो विचार करते हैं : —
अन्वयार्थ : — [द्रव्याणि ] द्रव्य, [गुणाः] गुण [तेषां पर्यायाः ] और उनकी पर्यायें [अर्थसंज्ञया ] ‘अर्थ’ नामसे [भणिताः ] कही गई हैं । [तेषु ] उनमें, [गुणपर्यायाणाम् आत्मा द्रव्यम् ] गुण -पर्यायोंका आत्मा द्रव्य है (गुण और पर्यायोंका स्वरूप -सत्त्व द्रव्य ही है, वे भिन्न वस्तु नहीं हैं) [ इति उपदेशः ] इसप्रकार (जिनेन्द्रका) उपदेश है ।।८७।। १. तत्त्वतः = यथार्थ स्वरूपसे । २. अतत्त्व – अभिनिवेश = यथार्थ वस्तुस्वरूपसे विपरीत अभिप्राय ।
द्रव्यो, गुणो ने पर्ययो सौ ‘अर्थ’ संज्ञाथी कह्यां; गुण -पर्ययोनो आतमा छे द्रव्य जिन – उपदेशमां. ८७.
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द्रव्याणि च गुणाश्च पर्यायाश्च अभिधेयभेदेऽप्यभिधानाभेदेन अर्थाः । तत्र गुण- पर्यायानिय्रति गुणपर्यायैरर्यन्त इति वा अर्था द्रव्याणि, द्रव्याण्याश्रयत्वेनेय्रति द्रव्यैराश्रय- भूतैरर्यन्त इति वा अर्था गुणाः, द्रव्याणि क्रमपरिणामेनेय्रति द्रव्यैः क्रमपरिणामेनार्यन्त इति वा अर्थाः पर्यायाः । यथा हि सुवर्णं पीततादीन् गुणान् कुण्डलादींश्च पर्यायानियर्ति तैरर्यमाणं वा अर्थो द्रव्यस्थानीयं, यथा च सुवर्णमाश्रयत्वेनेय्रति तेनाश्रयभूतेनार्यमाणा वा अर्थाः तथाहि — अत्रैव देहे निश्चयनयेन शुद्धबुद्धैकस्वभावः परमात्मास्ति । कस्माद्धेतोः । निर्विकारस्वसंवेदन- प्रत्यक्षत्वात् सुखादिवत् इति, तथैवान्येऽपि पदार्था यथासंभवमागमाभ्यासबलोत्पन्नप्रत्यक्षेणानुमानेन वा ज्ञायन्ते । ततो मोक्षार्थिना भव्येनागमाभ्यासः कर्तव्य इति तात्पर्यम् ।।८६।। अथ द्रव्यगुणपर्याया- णामर्थसंज्ञां कथयति — दव्वाणि गुणा तेसिं पज्जाया अट्ठसण्णया भणिया द्रव्याणि गुणास्तेषां द्रव्याणां पर्यायाश्च त्रयोऽप्यर्थसंज्ञया भणिताः कथिता अर्थसंज्ञा भवन्तीत्यर्थः । तेसु तेषु त्रिषु द्रव्यगुणपर्यायेषु मध्ये गुणपज्जयाणं अप्पा गुणपर्यायाणां संबंधी आत्मा स्वभावः । कः इति पृष्टे । दव्व त्ति उवदेसो द्रव्यमेव स्वभाव इत्युपदेशः, अथवा द्रव्यस्य कः स्वभाव इति पृष्टे गुणपर्यायाणामात्मा
टीका : — द्रव्य, गुण और पर्यायोंमें अभिधेयभेद होने पर भी अभिधानका अभेद होनेसे वे ‘अर्थ’ हैं [अर्थात् द्रव्यों, गुणों और पर्यायोंमें वाच्यका भेद होने पर भी वाचकमें भेद न दंखें तो ‘अर्थ’ ऐसे एक ही वाचक (-शब्द) से ये तीनों पहिचाने जाते हैं ] । उसमें (इन द्रव्यों, गुणों और पर्यायोंमेंसे), जो गुणोंको और पर्यायोंको प्राप्त करते हैं — पहुँचते हैं अथवा जो गुणों और पर्यायोंके द्वारा प्राप्त किये जाते है — पहुँचे जाते हैं ऐसे १‘अर्थ’ वे द्रव्य हैं, जो द्रव्योंको आश्रयके रूपमें प्राप्त करते हैं — पहुँचते हैं – अथवा जो आश्रयभूत द्रव्योंके द्वारा प्राप्त किये जाते हैं — पहुँचे जाते हैं ऐसे ‘अर्थ’ वे गुण हैं, जो द्रव्योंको क्रमपरिणामसे प्राप्त करते
प्राप्त किये जाते हैं — पहुँचे जाते हैं ऐसे ‘अर्थ’ वे पर्याय है ।
जैसे द्रव्यस्थानीय (-द्रव्यके समान, द्रव्यके दृष्टान्तरूप) सुवर्ण, पीलापन इत्यादि गुणोंको और कुण्डल इत्यादि पर्यायोंको प्राप्त करता है – पहुँचता है अथवा (सुवर्ण) उनके द्वारा (-पीलापनादि गुणों और कुण्डलादि पर्यायों द्वारा) प्राप्त किया जाता है — पहुँचा जाता है इसलिये द्रव्यस्थानीय सुवर्ण ‘अर्थ’ है, जैसे पीलापन इत्यादि गुण सुवर्णको आश्रयके रूपमें प्राप्त करते हैं — पहुँचते हैं अथवा (वे) आश्रयभूत सुवर्णके द्वारा प्राप्त किये जाते हैं — पहुँचे जाते हैं इसलिये पीलापन इत्यादि गुण ‘अर्थ’ हैं; और जैसे कुण्डल इत्यादि पर्यायें सुवर्णको १. ‘ऋ’ धातुमेंसे ‘अर्थ’ शब्द बना है । ‘ऋ’ अर्थात् पाना, प्राप्त करना, पहुँचना, जाना । ‘अर्थ’ अर्थात्
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पीततादयो गुणाः, यथा च सुवर्णं क्रमपरिणामेनेय्रति तेन क्रमपरिणामेनार्यमाणा वा अर्थाः कुण्डलादयः पर्यायाः । एवमन्यत्रापि । यथा चैतेषु सुवर्णपीततादिगुणकुण्डलादिपर्यायेषु पीततादिगुणकुण्डलादिपर्यायाणां सुवर्णादपृथग्भावात् सुवर्णमेवात्मा तथा च तेषु द्रव्यगुणपर्यायेषु गुणपर्यायाणां द्रव्यादपृथग्भावाद्द्रव्यमेवात्मा ।।८७।। एव स्वभाव इति । अथ विस्तरः — अनन्तज्ञानसुखादिगुणान् तथैवामूर्तत्वातीन्द्रियत्वसिद्धत्वादिपर्यायांश्च इयर्ति गच्छति परिणमत्याश्रयति येन कारणेन तस्मादर्थो भण्यते । किम् । शुद्धात्मद्रव्यम् । तच्छुद्धात्मद्रव्यमाधारभूतमिय्रति गच्छन्ति परिणमन्त्याश्रयन्ति येन कारणेन ततोऽर्था भण्यन्ते । के ते । ज्ञानत्वसिद्धत्वादिगुणपर्यायाः । ज्ञानत्वसिद्धत्वादिगुणपर्यायाणामात्मा स्वभावः क इति पृष्टे शुद्धात्म- क्रमपरिणामसे प्राप्त करती हैं — पहुँचती हैं अथवा (वे) सुवर्णके द्वारा क्रमपरिणामसे प्राप्त की जाती हैं — पहुँची जाती हैं इसलिये कुण्डल इत्यादि पर्यायें ‘अर्थ’ हैं; इसीप्रकार १अन्यत्र भी है, (इस दृष्टान्तकी भाँति सर्व द्रव्य -गुण -पर्यायोंमें भी समझना चाहिये) ।
और जैसे इन सुवर्ण, पीलापन इत्यादि गुण और कुण्डल इत्यादि पर्यायोंमें (-इन तीनोंमें, पीलापन इत्यादि गुणोंका और कुण्डल पर्यायोंका) सुवर्णसे अपृथक्त्व होनेसे उनका (-पीलापन इत्यादि गुणोंका और कुण्डल इत्यादि पर्यायोंका) सुवर्ण ही आत्मा है, उसीप्रकार उन द्रव्य -गुण -पर्यायोंमें गुण -पर्यायोंका द्रव्यसे अपृथक्त्व होनेसे उनका द्रव्य ही आत्मा है (अर्थात् द्रव्य ही गुण और पर्यायोंका आत्मा -स्वरूप -सर्वस्व -सत्य है) ।
भावार्थ : — ८६वीं गाथामें कहा है कि जिनशास्त्रोंका सम्यक् अभ्यास मोहक्षयका उपाय है । यहाँ संक्षेपमें यह बताया है कि उन जिनशास्त्रोंमें पदार्थोंकी व्यवस्था किसप्रकार कही गई है । जिनेन्द्रदेवने कहा कि — अर्थ (पदार्थ) अर्थात् द्रव्य, गुण और पर्याय । इसके अतिरिक्त विश्वमें दूसरा कुछ नहीं है, और इन तीनोंमें गुण और पर्यायोंका आत्मा (-उसका सर्वस्व) द्रव्य ही है । ऐसा होनेसे किसी द्रव्यके गुण और पर्याय अन्य द्रव्यके गुण और पर्यायरूप किंचित् मात्र नहीं होते, समस्त द्रव्य अपने -अपने गुण और पर्यायोंमें रहते हैं । — ऐसी पदार्थोंकी स्थिति मोहक्षयके निमित्तभूत पवित्र जिनशास्त्रोंमें कही है ।।८७।। १ जैसे सुवर्ण, पीलापन आदिको और कुण्डल आदिको प्राप्त करता है अथवा पीलापन आदि और कुण्डल
हैं) इसलिये सुवर्ण ‘अर्थ’ है, वैसे द्रव्य ‘अर्थ’; जैसे पीलापन आदि आश्रयभूत सुवर्णको प्राप्त करता
है अथवा आश्रयभूत सुवर्णद्वारा प्राप्त किये जाते है (अर्थात् आश्रयभूत सुवर्ण पीलापन आदिको प्राप्त करता
है) इसलिये पीलापन आदि ‘अर्थ’ हैं, वैसे गुण ‘अर्थ’ हैं; जैसे कुण्डल आदि सुवर्णको क्रमपरिणामसे
प्राप्त करते हैं अथवा सुवर्ण द्वारा क्रमपरिणामसे प्राप्त किया जाता है (अर्थात् सुवर्ण कुण्डल आदिको
क्रमपरिणामसे प्राप्त करता है) इसलिये कुण्डल आदि ‘अर्थ’ हैं, वैसे पर्यायें ‘अर्थ’ हैं
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अथैवं मोहक्षपणोपायभूतजिनेश्वरोपदेशलाभेऽपि पुरुषकारोऽर्थक्रियाकारीति पौरुषं व्यापारयति —
इह हि द्राघीयसि सदाजवंजवपथे कथमप्यमुं समुपलभ्यापि जैनेश्वरं निशिततर- वारिधारापथस्थानीयमुपदेशं य एव मोहरागद्वेषाणामुपरि दृढतरं निपातयति स एव निखिल- द्रव्यमेव स्वभावः, अथवा शुद्धात्मद्रव्यस्य कः स्वभाव इति पृष्टे पूर्वोक्तगुणपर्याया एव । एवं शेषद्रव्यगुणपर्यायाणामप्यर्थसंज्ञा बोद्धव्येत्यर्थः ।।८७।। अथ दुर्लभजैनोपदेशं लब्ध्वापि य एव मोहराग- द्वेषान्निहन्ति स एवाशेषदुःखक्षयं प्राप्नोतीत्यावेदयति — जो मोहरागदोसे णिहणदि य एव मोहराग- द्वेषान्निहन्ति । किं कृत्वा । उपलब्भ उपलभ्य प्राप्य । कम् । जोण्हमुवदेसं जैनोपदेशम् । सो सव्वदुक्खमोक्खं पावदि स सर्वदुःखमोक्षं प्राप्नोति । केन । अचिरेण कालेण स्तोक कालेनेति । तद्यथा – एकेन्द्रियविकलेन्द्रिय- पञ्चेन्द्रियादिदुर्लभपरंपरया जैनोपदेशं प्राप्य मोहरागद्वेषविलक्षणं निजशुद्धात्मनिश्चलानुभूतिलक्षणं
अब, इसप्रकार मोहक्षयके उपायभूत जिनेश्वरके उपदेशकी प्राप्ति होने पर भी पुरुषार्थ १अर्थक्रियाकारी है इसलिये पुरुषार्थ करता हैं : —
अन्वयार्थ : — [यः ] जो [जैनं उपदेशं ] जिनेन्द्रके उपदेशको [उपलभ्य ] प्राप्त करके [मोहरागद्वेषान् ] मोह -राग -द्वेषको [निहंति ] हनता है, [सः ] वह [अचिरेण कालेन ] अल्प कालमें [सर्वदुःखमोक्षं प्राप्नोति ] सर्व दुःखोंसे मुक्त हो जाता है ।।८८।।
टीका : — इस अति दीर्ध, सदा उत्पातमय संसारमार्गमें किसी भी प्रकारसे जिनेन्द्रदेवके इस तीक्ष्ण असिधारा समान उपदेशको प्राप्त करके भी जो मोह -राग -द्वेष पर अति दृढता पूर्वक उसका प्रहार करता है वही हाथमें तलवार लिये हुए मनुष्यकी भाँति शीघ्र ही समस्त दुःखोंसे परिमुक्त होता है; अन्य (कोई) व्यापार (प्रयत्न; क्रिया) समस्त दुःखोंसे १. अर्थक्रियाकारी = प्रयोजनभूत क्रियाका (सर्वदुःखपरिमोक्षका) करनेवाला ।
जे पामी जिन -उपदेश हणतो राग -द्वेष -विमोहने, ते जीव पामे अल्प काले सर्वदुःखविमोक्षने. ८८.
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दुःखपरिमोक्षं क्षिप्रमेवाप्नोति, नापरो व्यापारः करवालपाणिरिव । अत एव सर्वारम्भेण मोह- क्षपणाय पुरुषकारे निषीदामि ।।८८।।
पातयति स एव पारमार्थिकानाकुलत्वलक्षणसुखविलक्षणानां दुःखानां क्षयं करोतीत्यर्थः ।।८८।। एवं
इस अनादि संसारमें महाभाग्यसे जिनेश्वरदेवके उपदेशरूपी तीक्ष्ण तलवारको प्राप्त करके भी जो
जीव मोह -राग -द्वेषरूपी शत्रुओं पर अतिदृढ़ता पूर्वक उसका प्रहार करता है वही सर्व दुःखोंसे
मुक्त होता है अन्यथा नहीं) इसीलिये सम्पूर्ण आरम्भसे (-प्रयत्नपूर्वक) मोहका क्षय करनेके
लिये मैं पुरुषार्थका आश्रय ग्रहण करता हूँ ।।८८।।
अब, स्व -परके विवेककी (-भेदज्ञानकी) सिद्धिसे ही मोहका क्षय हो सकता है, इसलिये स्व -परके विभागकी सिद्धिके लिये प्रयत्न करते हैं : —
अन्वयार्थ : — [यः ] जो [निश्चयतः ] निश्चयसे [ज्ञानात्मकं आत्मानं ] ज्ञानात्मक ऐसे अपनेको [च ] और [परं ] परको [द्रव्यत्वेन अभिसंबद्धम् ] निज निज द्रव्यत्वसे संबद्ध (-संयुक्त) [यदि जानाति ] जानता है, [सः ] वह [मोह क्षयं करोति ] मोहका क्षय करता है ।।८९।।
जे ज्ञानरूप निज आत्मने, परने वळी निश्चय वडे द्रव्यत्वथी संबद्ध जाणे, मोहनो क्षय ते करे. ८९.
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य एव स्वकीयेन चैतन्यात्मकेन द्रव्यत्वेनाभिसंबद्धमात्मानं परं च परकीयेन यथोचितेन द्रव्यत्वेनाभिसंबद्धमेव निश्चयतः परिच्छिनत्ति, स एव सम्यगवाप्तस्वपरविवेकः सकलं मोहं क्षपयति । अतः स्वपरविवेकाय प्रयतोऽस्मि ।।८९।।
मात्मानं जानाति यदि । कथंभूतम् । स्वकीयशुद्धचैतन्यद्रव्यत्वेनाभिसंबद्धं, न केवलमात्मानम्, परं च यथोचितचेतनाचेतनपरकीयद्रव्यत्वेनाभिसंबद्धम् । कस्मात् । णिच्छयदो निश्चयतः निश्चयनयानुकूलं
टीका : — जो निश्चयसे अपनेको स्वकीय (अपने) चैतन्यात्मक द्रव्यत्वसे संबद्ध (-संयुक्त) और परको परकीय (दूसरेके) १यथोचित द्रव्यत्वसे संबद्ध जानता है, वही (जीव), जिसने कि सम्यक्त्वरूपसे स्व -परके विवेकको प्राप्त किया है, सम्पूर्ण मोहका क्षय करता है । इसलिये मैं स्व -परके विवेकके लिये प्रयत्नशील हूँ ।।८९।।
अब, सब प्रकारसे स्वपरके विवेककी सिद्धि आगमसे करने योग्य है, ऐसा उपसंहार करते हैं : —
अन्वयार्थ : — [तस्मात् ] इसलिये (स्व -परके विवेकसे मोहका क्षय किया जा सकता है इसलिये) [यदि ] यदि [आत्मा ] आत्मा [आत्मनः ] अपनी [निर्मोहं ] निर्मोहता [इच्छति ] चाहता हो तो [जिनमार्गात् ] जिनमार्गसे [गुणैः ] गुणोंके द्वारा [द्रव्येषु ] द्रव्योंमें [ आत्मानं परं च ] स्व और परको [अभिगच्छतु ] जानो (अर्थात् जिनागमके द्वारा विशेष गुणोंसे ऐसा विवेक करो कि – अनन्त द्रव्योंमेंसे यह स्व है और यह पर है) ।।९०।। १. यथोचित = यथायोग्य – चेतन या अचेतन (पुद्गलादि द्रव्य परकीय अचेतन द्रव्यत्वसे और अन्य आत्मा
जिनमार्गथी द्रव्यो महीं जाणो स्व -परने गुण वडे. ९०.
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इह खल्वागमनिगदितेष्वनन्तेषु गुणेषु कैश्चिद् गुणैरन्ययोगव्यवच्छेदकतयासाधारण- तामुपादाय विशेषणतामुपगतैरनन्तायां द्रव्यसंततौ स्वपरविवेकमुपगच्छन्तु मोहप्रहाणप्रवणबुद्धयो लब्धवर्णाः । तथाहि – यदिदं सदकारणतया स्वतःसिद्धमन्तर्बहिर्मुखप्रकाशशालितया स्वपर- परिच्छेदकं मदीयं मम नाम चैतन्यमहमनेन तेन समानजातीयमसमानजातीयं वा द्रव्यमन्यद- पहाय ममात्मन्येव वर्तमानेनात्मीयमात्मानं सकलत्रिकालकलितध्रौव्यं द्रव्यं जानामि । एवं भेदज्ञानमाश्रित्य । जो यः कर्ता सो स मोहक्खयं कुणदि निर्मोहपरमानन्दैकस्वभावशुद्धात्मनो विपरीतस्य मोहस्य क्षयं करोतीति सूत्रार्थः ।।८९।। अथ पूर्वसूत्रे यदुक्तं स्वपरभेदविज्ञानं तदागमतः सिद्धयतीति प्रतिपादयति — तम्हा जिणमग्गादो यस्मादेवं भणितं पूर्वं स्वपरभेदविज्ञानाद् मोहक्षयो भवति, तस्मात्कारणाज्जिनमार्गाज्जिनागमात् गुणेहिं गुणैः आदं आत्मानं, न केवलमात्मानं परं च परद्रव्यं च । केषु मध्ये । दव्वेसु शुद्धात्मादिषड्द्रव्येषु अभिगच्छदु अभिगच्छतु जानातु । यदि किम् । णिम्मोहं इच्छदि जदि निर्मोहभावमिच्छति यदि चेत् । स कः । अप्पा आत्मा । कस्य संबन्धित्वेन ।
टीका : — मोहका क्षय करनेके प्रति १प्रवण बुद्धिवाले बुधजन इस जगतमें आगममें कथित अनन्त गुणोंमेंसे किन्हीं गुणोंके द्वारा — जो गुण २अन्यके साथ योग रहित होनेसे असाधारणता धारण करके विशेषत्वको प्राप्त हुए हैं उनके द्वारा — अनन्त द्रव्यपरम्परामें स्व- परके विवेकको प्राप्त करो । (अर्थात् मोहका क्षय करनेके इच्छुक पंडितजन आगम कथित अनन्त गुणोंमेंसे असाधारण और भिन्नलक्षणभूत गुणोंके द्वारा अनन्त द्रव्य परम्परामें ‘यह स्वद्रव्य हैं और यह परद्रव्य हैं’ ऐसा विवेक करो), जोकि इसप्रकार हैं : —
३सत् और ४अकारण होनेसे स्वतःसिद्ध, अन्तर्मुख और बहिर्मुख प्रकाशवाला होनेसे स्व -परका ज्ञायक – ऐसा जो यह, मेरे साथ सम्बन्धवाला, मेरा चैतन्य है उसके द्वारा — जो (चैतन्य) समानजातीय अथवा असमानजातीय अन्य द्रव्यको छोड़कर मेरे आत्मामें ही वर्तता है उसके द्वारा — मैं अपने आत्माको ५सकल -त्रिकालमें ध्रुवत्वका धारक द्रव्य जानता हूँ । इसप्रकार पृथक्रूपसे वर्तमान स्वलक्षणोंके द्वारा — जो अन्य द्रव्यको छोड़कर उसी द्रव्यमें १. प्रवण = ढलती हुई; अभिमुख; रत । २. कितने ही गुण अन्य द्रव्योंके साथ सम्बन्ध रहित होनेसे अर्थात् अन्य द्रव्योंमें न होनेसे असाधारण हैं और
इसलिये विशेषणभूत – भिन्न लक्षणभूत है; उसके द्वारा द्रव्योंकी भिन्नता निश्चित की जा सकती है । ३. सत् = अस्तित्ववाला; सत्रूप; सत्तावाला । ४. अकारण = जिसका कोई कारण न हो ऐसा अहेतुक, (चैतन्य सत् और अहेतुक होनेसे स्वयंसे सिद्ध है ।) ५. सकल = पूर्ण, समस्त, निरवशेष (आत्मा कोई कालको बाकी रखे बिना संपूर्ण तीनों काल ध्रुव रहता
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पृथक्त्ववृत्तस्वलक्षणैर्द्रव्यमन्यदपहाय तस्मिन्नेव च वर्तमानैः सकलत्रिकालकलितध्रौव्यं द्रव्यमाकाशं धर्ममधर्मं कालं पुद्गलमात्मान्तरं च निश्चिनोमि । ततो नाहमाकाशं न धर्मो नाधर्मो न च कालो न पुद्गलो नात्मान्तरं च भवामि; यतोऽमीष्वेकापवरकप्रबोधितानेक- दीपप्रकाशेष्विव संभूयावस्थितेष्वपि मच्चैतन्यं स्वरूपादप्रच्युतमेव मां पृथगवगमयति । एवमस्य निश्चितस्वपरविवेकस्यात्मनो न खलु विकारकारिणो मोहांकु रस्य प्रादुर्भूतिः स्यात् ।।९०।। अप्पणो आत्मन इति । तथाहि — यदिदं मम चैतन्यं स्वपरप्रकाशकं तेनाहं कर्ता विशुद्धज्ञानदर्शन- स्वभावं स्वकीयमात्मानं जानामि, परं च पुद्गलादिपञ्चद्रव्यरूपं शेषजीवान्तरं च पररूपेण जानामि, ततः कारणादेकापवरक प्रबोधितानेकप्रदीपप्रकाशेष्विव संभूयावस्थितेष्वपि सर्वद्रव्येषु मम सहजशुद्ध- चिदानन्दैकस्वभावस्य केनापि सह मोहो नास्तीत्यभिप्रायः ।।९०।। एवं स्वपरपरिज्ञानविषये मूढत्व- निरासार्थं गाथाद्वयेन चतुर्थज्ञानकण्डिका गता । इति पञ्चविंशतिगाथाभिर्ज्ञानकण्डिकाचतुष्टयाभिधानो द्वितीयोऽधिकारः समाप्तः । अथ निर्दोषिपरमात्मप्रणीतपदार्थश्रद्धानमन्तरेण श्रमणो न भवति, वर्तते हैं उनके द्वारा — आकाश, धर्म, अधर्म, काल, पुद्गल और अन्य आत्माको सकल त्रिकालमें ध्रुवत्व धारक द्रव्यके रूपमें निश्चित करता हूँ (जैसे चैतन्य लक्षणके द्वारा आत्माको ध्रुव द्रव्यके रूपमें जाना, उसीप्रकार अवगाहहेतुत्व, गतिहेतुत्व इत्यादि लक्षणोंसे – जो कि स्व- लक्ष्यभूत द्रव्यके अतिरिक्त अन्य द्रव्योंमें नहीं पाये जाते उनके द्वारा — आकाश धर्मास्तिकाय इत्यादिको भिन्न -भिन्न ध्रुव द्रव्योंके रूपमें जानता हूँ) इसलिये मैं आकाश नहीं हूँ, मैं धर्म नहीं हूँ, अधर्म नहीं हूँ, काल नहीं हूँ, पुद्गल नहीं हूँ, और आत्मान्तर नहीं हूँ; क्योंकि — मकानके १एक कमरेमें जलाये गये अनेक दीपकोंके प्रकाशोंकी भाँति यह द्रव्य इकट्ठे होकर रहते हुए भी मेरा चैतन्य निजस्वरूपसे अच्युत ही रहता हुआ मुझे पृथक् बतलाता है ।
इसप्रकार जिसने स्व -परका विवेक निश्चित किया है ऐसे इस आत्माको विकारकारी मोहांकुरका प्रादुर्भाव नहीं होता ।
भावार्थ : — स्व -परके विवेकसे मोहका नाश किया जा सकता है । वह स्व- परका विवेक, जिनागमके द्वारा स्व -परके लक्षणोंको यथार्थतया जानकर किया जा सकता है ।।९०।। १. जैसे किसी एक कमरेमें अनेक दीपक जलाये जायें तो स्थूलदृष्टिसे देखने पर उनका प्रकाश एक दूसरेमें
(क्योंकि उनमेंसे एक दीपक बुझ जाने पर उसी दीपकका प्रकाश नष्ट होता है; अन्य दीपकोंके प्रकाश
नष्ट नहीं होते) उसीप्रकार जीवादिक अनेक द्रव्य एक ही क्षेत्रमें रहते हैं फि र भी सूक्ष्मदृष्टिसे देखने पर
वे सब भिन्न -भिन्न ही हैं, एकमेक नहीं होते ।
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यो हि नामैतानि सादृश्यास्तित्वेन सामान्यमनुव्रजन्त्यपि स्वरूपास्तित्वेनाश्लिष्ट- विशेषाणि द्रव्याणि स्वपरावच्छेदेनापरिच्छिन्दन्नश्रद्दधानो वा एवमेव श्रामण्येनात्मानं दमयति तस्माच्छुद्धोपयोगलक्षणधर्मोऽपि न संभवतीति निश्चिनोति – सत्तासंबद्धे महासत्तासंबन्धेन सहितान् एदे एतान् पूर्वोक्तशुद्धजीवादिपदार्थान् । पुनरपि किंविशिष्टान् । सविसेसे विशेषसत्तावान्तरसत्ता स्वकीय- स्वकीयस्वरूपसत्ता तया सहितान् जो हि णेव सामण्णे सद्दहदि यः कर्ता द्रव्यश्रामण्ये स्थितोऽपि न श्रद्धत्ते
अब, न्यायपूर्वक ऐसा विचार करते हैं कि – जिनेन्द्रोक्त अर्थोंके श्रद्धान बिना धर्मलाभ (शुद्धात्मअनुभवरूप धर्मप्राप्ति) नहीं होता —
अन्वयार्थ : — [यः हि ] जो (जीव) [श्रामण्ये ] श्रमणावस्थामें [एतान् सत्ता- संबद्धान् सविशेषतान् ] इन १सत्तासंयुक्त २सविशेष पदार्थोंकी [न एव श्रद्दधाति ] श्रद्धा नहीं करता, [सः ] वह [श्रमणः न ] श्रमण नहीं है; [ततः धर्मः न संभवति ] उससे धर्मका उद्भव नहीं होता (अर्थात् उस श्रमणाभासके धर्म नहीं होता ।) ।।९१।।
टीका : — जो (जीव) इन द्रव्योंको — कि जो (द्रव्य) ३सादृश्य -अस्तित्वके द्वारा समानताको धारण करते हुए स्वरूप – अस्तित्वके द्वारा विशेषयुक्त हैं उन्हें — स्व -परके भेदपूर्वक न जानता हुआ और श्रद्धा न करता हुआ यों ही (ज्ञान -श्रद्धाके बिना) मात्र श्रमणतासे (द्रव्यमुनित्वसे) आत्माका दमन करता है वह वास्तवमें श्रमण नहीं है; इसलिये, जैसे जिसे १. सत्तासंयुक्त = अस्तित्ववाले । २. सविशेष = विशेषसहित; भेदवाले; भिन्न -भिन्न । ३. अस्तित्व दो प्रकारका है : — सादृश्य – अस्तित्व और स्वरूप – अस्तित्व । सादृश्य -अस्तित्वकी अपेक्षासे
श्रामण्यमां सत्तामयी सविशेष आ द्रव्यो तणी श्रद्धा नहि, ते श्रमण ना; तेमांथी धर्मोद्भव नहीं. ९१.
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स खलु न नाम श्रमणः । यतस्ततोऽपरिच्छिन्नरेणुकनककणिकाविशेषाद्धूलिधावकात्कनकलाभ इव निरुपरागात्मतत्त्वोपलम्भलक्षणो धर्मोपलम्भो न संभूतिमनुभवति ।।९१।।
अथ ‘उवसंपयामि सम्मं जत्तो णिव्वाणसंपत्ती’ इति प्रतिज्ञाय ‘चारित्तं खलु धम्मो धम्मो जो सो समो त्ति णिद्दिट्ठो’ इति साम्यस्य धर्मत्वं निश्चित्य ‘परिणमदि जेण दव्वं तक्कालं तम्मयं ति पण्णत्तं, तम्हा धम्मपरिणदो आदा धम्मो मुणेयव्वो’ इति यदात्मनो हि स्फु टं ण सो समणो निजशुद्धात्मरुचिरूपनिश्चयसम्यक्त्वपूर्वकपरमसामायिकसंयमलक्षणश्रामण्या- भावात्स श्रमणो न भवति । इत्थंभूतभावश्रामण्याभावात् तत्तो धम्मो ण संभवदि तस्मात्पूर्वोक्तद्रव्य- श्रमणात्सकाशान्निरुपरागशुद्धात्मानुभूतिलक्षणधर्मोऽपि न संभवतीति सूत्रार्थः ।।९१।। अथ ‘उव- संपयामि सम्मं’ इत्यादि नमस्कारगाथायां यत्प्रतिज्ञातं, तदनन्तरं ‘चारित्तं खलु धम्मो’ इत्यादिसूत्रेण चारित्रस्य धर्मत्वं व्यवस्थापितम् । अथ ‘परिणमदि जेण दव्वं’ इत्यादिसूत्रेणात्मनो धर्मत्वं भणित- रेती और स्वर्णकणोंका अन्तर ज्ञात नहीं है, उसे धूलधोयेको – उसमेंसे स्वर्णलाभ नहीं होता, इसीप्रकार उसमेंसे (-श्रमणाभासमेंसे) १निरुपराग आत्मतत्त्वकी उपलब्धि (प्राप्ति) लक्षणवाले धर्मलाभका उद्भव नहीं होता ।
भावार्थ : — जो जीव द्रव्यमुनित्वका पालन करता हुआ भी स्व -परके भेद सहित पदार्थोंकी श्रद्धा नहीं करता, वह निश्चय सम्यक्त्वपूर्वक परमसामायिकसंयमरूप मुनित्वके अभावके कारण मुनि नहीं है; इसलिये जैसे जिसे रेती और स्वर्णकणका विवेक नहीं है ऐसे धूलको धोनेवालेको, चाहे जितना परिश्रम करने पर भी, स्वर्णकी प्राप्ति नहीं होती, उसीप्रकार जिसे स्व और परका विवेक नहीं है ऐसे उस द्रव्यमुनिको, चाहे जितनी द्रव्यमुनित्वकी क्रियाओंका कष्ट उठाने पर भी, धर्मकी प्राप्ति नहीं होती ।।९१।।
२‘उवसंपयामि सम्मं जत्तो णिव्वाणसंपत्ती’ इसप्रकार (पाँचवीं गाथामें) प्रतिज्ञा करके, ३‘चारित्तं खलु धम्मो धम्मो जो सो समो त्ति णिद्दिट्ठो’ इसप्रकार (७वीं गाथामें) साम्यका धर्मत्व (साम्य ही धर्म है) निश्चित करके ४‘परिणमदि जेण दव्वं तक्कालं तम्मयं ति पण्णत्तं, तम्हा धम्मपरिणदो आदा धम्मो मुणेयव्वो’ इसप्रकार (८वीं गाथामें) जो आत्माका धर्मत्व १. निरुपराग = उपराग (-मलिनता, विकार) रहित । २. अर्थ – मैं साम्यको प्राप्त करता हूँ, जिससे निर्वाणकी प्राप्ति होती है । ३. अर्थ – चारित्र वास्तवमें धर्म है जो धर्म है वह साम्य है ऐसा (शास्त्रोंमें) कहा है । ४. अर्थ – द्रव्य जिस कालमें जिस भावरूप परिणमित होता है उस कालमें उस -मय है ऐसा (जिनेन्द्रदेवने)
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धर्मत्वमासूत्रयितुमुपक्रान्तं, यत्प्रसिद्धये च ‘धम्मेण परिणदप्पा अप्पा जदि सुद्धसंपओगजुदो पावदि णिव्वाणसुहं’ इति निर्वाणसुखसाधनशुद्धोपयोगोऽधिकर्तुमारब्धः, शुभाशुभोपयोगौ च विरोधिनौ निर्ध्वस्तौ, शुद्धोपयोगस्वरूपं चोपवर्णितं, तत्प्रसादजौ चात्मनो ज्ञानानन्दौ सहजौ समुद्योतयता संवेदनस्वरूपं सुखस्वरूपं च प्रपंचितम्, तदधुना कथं कथमपि शुद्धो- पयोगप्रसादेन प्रसाध्य परमनिस्पृहामात्मतृप्तां पारमेश्वरीप्रवृत्तिमभ्युपगतः कृतकृत्यतामवाप्य नितान्तमनाकुलो भूत्वा प्रलीनभेदवासनोन्मेषः स्वयं साक्षाद्धर्म एवास्मीत्यवतिष्ठते — मित्यादि । तत्सर्वं शुद्धोपयोगप्रसादात्प्रसाध्येदानीं निश्चयरत्नत्रयपरिणत आत्मैव धर्म इत्यवतिष्ठते । अथवा द्वितीयपातनिका — सम्यक्त्वाभावे श्रमणो न भवति, तस्मात् श्रमणाद्धर्मोऽपि न भवति । तर्हि कथं श्रमणो भवति, इति पृष्टे प्रत्युत्तरं प्रयच्छन् ज्ञानाधिकारमुपसंहरति — जो णिहदमोहदिट्ठी तत्त्वार्थ- श्रद्धानलक्षणव्यवहारसम्यक्त्वोत्पन्नेन निजशुद्धात्मरुचिरूपेण निश्चयसम्यक्त्वेन परिणतत्वान्निहतमोह- दृष्टिर्विध्वंसितदर्शनमोहो यः । पुनश्च किंरूपः । आगमकुसलो निर्दोषिपरमात्मप्रणीतपरमागमाभ्यासेन निरुपाधिस्वसंवेदनज्ञानकुशलत्वादागमकुशल आगमप्रवीणः । पुनश्च किंरूपः । विरागचरियम्हि अब्भुट्ठिदो व्रतसमितिगु प्त्यादिबहिरङ्गचारित्रानुष्ठानवशेन स्वशुद्धात्मनिश्चलपरिणतिरूपवीतरागचारित्र- कहना प्रारम्भ किया और १जिसकी सिद्धिके लिये २‘धम्मेण परिणदप्पा अप्पा जदि सुद्धसंपओगजुदो, पावदि णिव्वाणसुहं’ इसप्रकार (११वीं गाथामें) निर्वाणसुखके साधनभूत शुद्धोपयोगका अधिकार प्रारम्भ किया, विरोधी शुभाशुभ उपयोगको नष्ट किया (-हेय बताया), शुद्धोपयोगका स्वरूप वर्णन किया, शुद्धोपयोगके प्रसादसे उत्पन्न होनेवाले ऐसे आत्माके सहज ज्ञान और आनन्दको समझाते हुए ज्ञानके स्वरूपका और सुखके स्वरूपका विस्तार किया, उसे (-आत्माके धर्मत्वको) अब किसी भी प्रकार शुद्धोपयोगके प्रसादसे ३सिद्ध करके, ४परम निस्पृह, आत्मतृप्त (ऐसी) पारमेश्वरी प्रवृत्तिको प्राप्त होते हुये, कृतकृत्यताको प्राप्त करके अत्यन्त अनाकुल होकर, जिनके ५भेदवासना की प्रगटताका प्रलय हुआ है, ऐसे होते हुए, (आचार्य भगवान) ‘मैं स्वयं साक्षात् धर्म ही हूँ’ इसप्रकार रहते हैं, (-ऐसे भावमें निश्चल स्थित होते हैं) : — १. जिसकी सिद्धिके लिये = आत्माको धर्मरूप बनवानेका जो कार्य साधनाके लिये । २. अर्थ – धर्मपरिणत स्वरूपवाला आत्मा यदि शुद्ध उपयोगमें युक्त हो तो मोक्षके सुखको पाता है । ३. सिद्ध करके = साधकर । (आत्माको धर्मरूप रचनेका जो कार्य साधना था उस कार्यको, महापुरुषार्थ
करके शुद्धोपयोग द्वारा आचार्य भगवानने सिद्ध किया ।) । ४. परकी स्पृहासे रहित और आत्मामें ही तृप्त, निश्चयरत्नत्रयमें लीनतारूप प्रवृत्ति । ५. भेदवासना = भेदरूप वृत्ति; विकल्प – परिणाम ।
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यदयं स्वयमात्मा धर्मो भवति स खलु मनोरथ एव । तस्य त्वेका बहिर्मोहद्रष्टिरेव विहन्त्री । सा चागमकौशलेनात्मज्ञानेन च निहता, नात्र मम पुनर्भावमापत्स्यते । ततो वीतरागचारित्रसूत्रितावतारो ममायमात्मा स्वयं धर्मो भूत्वा निरस्तसमस्तप्रत्यूहतया नित्यमेव परिणतत्वात् परमवीतरागचारित्रे सम्यगभ्युत्थितः उद्यतः । पुनरपि कथंभूतः । महप्पा मोक्षलक्षण- महार्थसाधकत्वेन महात्मा धम्मो त्ति विसेसिदो समणो जीवितमरणलाभालाभादिसमताभावनापरिणतात्मा स श्रमण एवाभेदनयेन धर्म इति विशेषितो मोहक्षोभविहीनात्मपरिणामरूपो निश्चयधर्मो भणित इत्यर्थः ।।९२।। अथैवंभूतनिश्चयरत्नत्रयपरिणतमहातपोधनस्य योऽसौ भक्तिं करोति तस्य फलं दर्शयति —
अन्वयार्थ : — [यः आगमकुशलः ] जो आगममें कुशल हैं, [निहतमोहदृष्टिः ] जिसकी मोहदृष्टि हत हो गई है और [विरागचरिते अभ्युत्थितः ] जो वीतरागचारित्रमें आरूढ़ है, [महात्मा श्रमणः ] उस महात्मा श्रमणको [धर्मः इति विशेषितः ] (शास्त्रमें) ‘धर्म’ कहा हैं ।।९२।।
टीका : — यह आत्मा स्वयं धर्म हो, यह वास्तवमें मनोरथ है । उसमें विघ्न डालनेवाली एक १बहिर्मोहदृष्टि ही है । और वह (बहिर्मोहदृष्टि) तो २आगमकौशल्य तथा आत्मज्ञानसे नष्ट हो जानेके कारण अब मुझमें पुनः उत्पन्न नहीं होगी । इसलिये वीतरागचारित्ररूपसे प्रगटताको प्राप्त (-वीतरागचारित्ररूप पर्यायमें परिणत) मेरा यह आत्मा १. बहिर्मोहदृष्टि = बहिर्मुख ऐसी मोहदृष्टि । (आत्माको धर्मरूप होनेमें विघ्न डालनेवाली एक बहिर्मोहदृष्टि
आगम विषे कौशल्य छे ने मोहदृष्टि विनष्ट छे वीतराग – चरितारूढ छे, ते मुनि -महात्मा ‘धर्म’ छे. ९२.
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निष्कम्प एवावतिष्ठते । अलमतिविस्तरेण । स्वस्ति स्याद्वादमुद्रिताय जैनेन्द्राय शब्दब्रह्मणे । स्वस्ति तन्मूलायात्मतत्त्वोपलम्भाय च, यत्प्रसादादुद्ग्रन्थितो झगित्येवासंसारबद्धो मोहग्रन्थिः । स्वस्ति च परमवीतरागचारित्रात्मने शुद्धोपयोगाय, यत्प्रसादादयमात्मा स्वयमेव धर्मो भूतः ।।९२।।
नित्यानन्दप्रसरसरसे ज्ञानतत्त्वे निलीय ।
स्फू र्जज्ज्योतिःसहजविलसद्रत्नदीपस्य लक्ष्मीम् ।।५।।
पूर्वसूत्रोक्तं मुनीश्वरं दृष्ट्वा तुष्टो निर्भरगुणानुरागेण संतुष्टः सन् । किं करोति । अब्भुट्ठित्ता करेदि सक्कारं अभ्युत्थानं कृत्वा मोक्षसाधकसम्यक्त्वादिगुणानां सत्कारं प्रशंसां करोति वंदणणमंसणादिहिं तत्तो सो धम्ममादियदि ‘तवसिद्धे णयसिद्धे’ इत्यादि वन्दना भण्यते, नमोऽस्त्विति नमस्कारो भण्यते, तत्प्रभृतिभक्तिविशेषैः तस्माद्यतिवरात्स भव्यः पुण्यमादत्ते पुण्यं गृह्णाति इत्यर्थः ।।“ “ “ “ “
भवान्तरे किं फलं भवतीति प्रतिपादयति —
स्वयमेव धर्म हुआ है ।।९२।।
अर्थ : — इसप्रकार शुद्धोपयोगको प्राप्त करके आत्मा स्वयं धर्म होता हुआ अर्थात् स्वयं धर्मरूप परिणमित होता हुआ नित्य आनन्दके प्रसारसे सरस (अर्थात् जो शाश्वत आनन्दके प्रसारसे रसयुक्त) ऐसे ज्ञानतत्त्वमें लीन होकर, अत्यन्त अविचलताके कारण, दैदीप्यमान ज्योतिमय और सहजरूपसे विलसित (-स्वभावसे ही प्रकाशित) रत्नदीपककी निष्कंप- प्रकाशमय शोभाको पाता है । (अर्थात् रत्नदीपककी भाँति स्वभावसे ही निष्कंपतया अत्यन्त प्रकाशित होता — जानता — रहता है) । १. स्याद्वादमुद्रित जैनेन्द्र शब्दब्रह्म = स्याद्वादकी छापवाला जिनेन्द्रका द्रव्यश्रुत । २. शब्दब्रह्ममूलक = शब्दब्रह्म जिसका मूल कारण है ।
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प्रादुर्भूतिर्न भवति यथा जातु मोहांकु रस्य ।।६।।
इति प्रवचनसारवृत्तौ तत्त्वदीपिकायां श्रीमदमृतचन्द्रसूरिविरचितायां ज्ञानतत्त्वप्रज्ञापनो नाम प्रथमः श्रुतस्कन्धः समाप्तः ।।
तेण णरा व तिरिच्छा तेन पूर्वोक्तपुण्येनात्र वर्तमानभवे नरा वा तिर्यञ्चो वा देविं वा माणुसिं गदिं पप्पा भवान्तरे दैवीं वा मानुषीं वा गतिं प्राप्य विहविस्सरियेहिं सया संपुण्णमणोरहा होंति राजाधिराजरूपलावण्यसौभाग्यपुत्रकलत्रादिपरिपूर्णविभूतिर्विभवो भण्यते, आज्ञाफलमैश्वर्यं भण्यते, ताभ्यां विभवैश्वर्याभ्यां संपूर्णमनोरथा भवन्तीति । तदेव पुण्यं भोगादिनिदानरहितत्वेन यदि सम्यक्त्वपूर्वकं भवति तर्हि तेन परंपरया मोक्षं च लभन्ते इति भावार्थः ।।✽९।।
इति श्रीजयसेनाचार्यकृतायां तात्पर्यवृत्तौ पूर्वोक्तप्रकारेण ‘एस सुरासुरमणुसिंदवंदिदं’ इतीमां गाथामादिं कृत्वा द्वासप्ततिगाथाभिः शुद्धोपयोगाधिकारः, तदनन्तरं ‘देवदजदिगुरुपूजासु’ इत्यादि पञ्चविंशतिगाथाभिर्ज्ञानकण्डिकाचतुष्टयाभिधानो द्वितीयोऽधिकारः, ततश्च ‘सत्तासंबद्धेदे’ इत्यादि सम्यकत्वकथनरूपेण प्रथमा गाथा, रत्नत्रयाधारपुरुषस्य धर्मः संभवतीति ‘जो णिहदमोदिट्ठी’ इत्यादि द्वितीया चेति स्वतन्त्रगाथाद्वयम्, तस्य निश्चयधर्मसंज्ञतपोधनस्य योऽसौ भक्तिं करोति तत्फलकथनेन ‘जो तं दिट्ठा’ इत्यादि गाथाद्वयम् । इत्यधिकारद्वयेन पृथग्भूतगाथाचतुष्टयसहितेनैकोत्तरशतगाथाभिः ज्ञानतत्त्वप्रतिपादकनामा प्रथमो महाधिकारः समाप्तः ।।१।।
[अब श्लोक द्वारा ज्ञानतत्त्व -प्रज्ञापन नामक प्रथम अधिकारकी और ज्ञेयतत्त्व -प्रज्ञापन नामक दूसरे अधिकारकी संधि बतायी जाती है । ]
अर्थ : — आत्मारूपी अधिकरणमें रहनेवाले अर्थात् आत्माके आश्रित रहनेवाले ज्ञानतत्त्वका इसप्रकार यथार्थतया निश्चय करके, उसकी सिद्धिके लिये ( – केवलज्ञान प्रगट करनेके लिये) प्रशमके लक्षसे ( – उपशम प्राप्त करनेके हेतुसे) ज्ञेयतत्त्वको जाननेका इच्छुक (जीव) सर्व पदार्थोंको द्रव्य -गुण -पर्याय सहित जानता है, जिससे कभी मोहांकुरकी किंचित् मात्र भी उत्पत्ति न हो ।
इस प्रकार (श्रीमद्भगवत्कुन्दकुन्दाचार्यदेवप्रणीत) श्रीप्रवचनसार शास्त्रकी श्रीमद्अमृतचंद्राचार्यदेवविरचित तत्त्वदीपिका नामक टीकामें ज्ञानतत्त्व – प्रज्ञापन नामक प्रथम श्रुतस्कन्ध समाप्त हुआ ।
प्र. २१
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इतः ऊर्द्ध्वं ‘सत्तासंबद्धेदे’ इत्यादिगाथासूत्रेण पूर्वं संक्षेपेण यद्वयाख्यातं सम्यग्दर्शनं तस्येदानीं विषयभूतपदार्थव्याख्यानद्वारेण त्रयोदशाधिकशतप्रमितगाथापर्यन्तं विस्तरव्याख्यानं करोति । अथवा द्वितीयपातनिका – पूर्वं यद्वयाख्यातं ज्ञानं तस्य ज्ञेयभूतपदार्थान् कथयति । तत्र त्रयोदशाधिक - शतगाथासु मध्ये प्रथमतस्तावत् ‘तम्हा तस्स णमाइं’ इमां गाथामादिं कृत्वा पाठक्रमेण पञ्चत्रिंशद्- गाथापर्यन्तं सामान्यज्ञेयव्याख्यानं, तदनन्तरं ‘दव्वं जीवमजीवं’ इत्याद्येकोनविंशतिगाथापर्यन्तं विशेषज्ञेयव्याख्यानं, अथानन्तरं ‘सपदेसेहिं समग्गो लोगो’ इत्यादिगाथाष्टकपर्यन्तं सामान्यभेदभावना,
अब, ज्ञेयतत्त्वका प्रज्ञापन करते हैं अर्थात् ज्ञेयतत्त्व बतलाते हैं । उसमें (प्रथम) पदार्थका सम्यक् ( — यथार्थ) द्रव्यगुणपर्यायस्वरूप वर्णन करते हैं : —
अन्वयार्थ : — [अर्थः खलु ] पदार्थ [द्रव्यमयः ] द्रव्यस्वरूप है; [द्रव्याणि ] द्रव्य [गुणात्मकानि ] गुणात्मक [भणितानि ] कहे गये हैं; [तैः तु पुनः ] और द्रव्य तथा गुणोंसे [पर्यायाः ] पर्यायें होती हैं । [पर्ययमूढा हि ] पर्यायमूढ़ जीव [परसमयाः ] परसमय (अर्थात् मिथ्यादृष्टि) हैं ।।९३।।
छे अर्थ द्रव्यस्वरूप, गुण -आत्मक कह्यां छे द्रव्यने, वळी द्रव्य -गुणथी पर्ययो; पर्यायमूढ परसमय छे. ९३.
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समुदायात्मना द्रव्येणाभिनिर्वृत्तत्वाद् द्रव्यमयः । द्रव्याणि तु पुनरेकाश्रयविस्तारविशेषात्मकै- र्गुणैरभिनिर्वृत्तत्वाद्गुणात्मकानि । पर्यायास्तु पुनरायतविशेषात्मका उक्तलक्षणैर्द्रव्यैरपि गुणैरप्य- भिनिर्वृत्तत्वाद् द्रव्यात्मका अपि गुणात्मका अपि । तत्रानेकद्रव्यात्मकैक्यप्रतिपत्तिनिबन्धनो द्रव्यपर्यायः । स द्विविधः, समानजातीयोऽसमानजातीयश्च । तत्र समानजातीयो नाम यथा अनेकपुद्गलात्मको द्वयणुकस्त्र्यणुक इत्यादि; असमानजातीयो नाम यथा जीवपुद्गलात्मको देवो ततश्च ‘अत्थित्तणिच्छिदस्स हि’ इत्याद्येकपञ्चाशद्गाथापर्यन्तं विशेषभेदभावना चेति द्वितीयमहाधिकारे समुदायपातनिका । अथेदानीं सामान्यज्ञेयव्याख्यानमध्ये प्रथमा नमस्कारगाथा, द्वितीया द्रव्यगुण- पर्यायव्याख्यानगाथा, तृतीया स्वसमयपरसमयनिरूपणगाथा, चतुर्थी द्रव्यस्य सत्तादिलक्षणत्रय- सूचनगाथा चेति पीठिकाभिधाने प्रथमस्थले स्वतन्त्रगाथाचतुष्टयम् । तदनन्तरं ‘सब्भावो हि सहावो’ इत्यादिगाथाचतुष्टयपर्यन्तं सत्तालक्षणव्याख्यानमुख्यत्वं, तदनन्तरं ‘ण भवो भंगविहीणो’ इत्यादि- गाथात्रयपर्यन्तमुत्पादव्ययध्रौव्यलक्षणकथनमुख्यता, ततश्च ‘पाडुब्भवदि य अण्णो’ इत्यादिगाथाद्वयेन १विस्तारसामान्यसमुदायात्मक और २आयतसामान्यसमुदायात्मक द्रव्यसे रचित होनेसे द्रव्यमय (-द्रव्यस्वरूप) है । और ३द्रव्य एक जिनका आश्रय है ऐसे विस्तारविशेषस्वरूप गुणोंसे रचित (-गुणोंसे बने हुवे) होनेसे गुणात्मक है । और पर्यायें — जो कि आयत -विशेषस्वरूप हैं वे — जिनके लक्षण (ऊ पर) कहे गये हैं ऐसे द्रव्योंसे तथा गुणोंसे रचित होनेसे द्रव्यात्मक भी हैं गुणात्मक भी हैं । उसमें, अनेकद्रव्यात्मक एकताकी ४प्रतिपत्तिकी कारणभूत द्रव्यपर्याय है । वह दो प्रकार है । (१) समानजातीय और (२) असमानजातीय । उसमें (१) समानजातीय वह है — जैसे कि अनेकपुद्गलात्मक ५द्विअणुक, त्रिअणुक इत्यादि; (२) असमानजातीय वह १. विस्तारसामान्य समुदाय = विस्तारसामान्यरूप समुदाय । विस्तारका अर्थ है कि चौड़ाई । द्रव्यकी
ज्ञान, दर्शन, चारित्र इत्यादि जीवद्रव्यके विस्तारविशेष अर्थात् गुण हैं । उन विस्तारविशेषोंमें रहनेवाले
२. आयतसामान्यसमुदाय = आयतसामान्यरूप समुदाय । आयतका अर्थ है लम्बाई अर्थात्
३. अनन्तगुणोंका आश्रय एक द्रव्य है । ४. प्रतिपत्ति = प्राप्ति; ज्ञान; स्वीकार । ५. द्विअणुक = दो अणुओंसे बना हुआ स्कंध ।
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मनुष्य इत्यादि । गुणद्वारेणायतानैक्यप्रतिपत्तिनिबन्धनो गुणपर्यायः । सोऽपि द्विविधः, स्वभावपर्यायो विभावपर्यायश्च । तत्र स्वभावपर्यायो नाम समस्तद्रव्याणामात्मीयात्मीयागुरुलघु- गुणद्वारेण प्रतिसमयसमुदीयमानषट्स्थानपतितवृद्धिहानिनानात्वानुभूतिः, विभावपर्यायो नाम रूपादीनां ज्ञानादीनां वा स्वपरप्रत्ययप्रवर्तमानपूर्वोत्तरावस्थावतीर्णतारतम्योपदर्शितस्वभाव- विशेषानेकत्वापत्तिः । अथेदं दृष्टान्तेन द्रढयति — यथैव हि सर्व एव पटोऽवस्थायिना विस्तार- सामान्यसमुदायेनाभिधावताऽऽयतसामान्यसमुदायेन चाभिनिर्वर्त्यमानस्तन्मय एव, तथैव हि सर्व एव पदार्थोऽवस्थायिना विस्तारसामान्यसमुदायेनाभिधावताऽऽयतसामान्यसमुदायेन च द्रव्यपर्यायगुणपर्यायनिरूपणमुख्यता । अथानन्तरं ‘ण हवदि जदि सद्दव्वं’ इत्यादिगाथाचतुष्टयेन सत्ता- द्रव्ययोरभेदविषये युक्तिं कथयति, तदनन्तरं ‘जो खलु दव्वसहावो’ इत्यादि सत्ताद्रव्ययोर्गुणगुणिकथनेन प्रथमगाथा, द्रव्येण सह गुणपर्याययोरभेदमुख्यत्वेन ‘णत्थि गुणो त्ति व कोई’ इत्यादि द्वितीया चेति स्वतन्त्रगाथाद्वयं, तदनन्तरं द्रव्यस्य द्रव्यार्थिकनयेन सदुत्पादो भवति, पर्यायार्थिकनयेनासदित्यादि- कथनरूपेण ‘एवंविहं’ इतिप्रभृति गाथाचतुष्टयं, ततश्च ‘अत्थि त्ति य’ इत्याद्येकसूत्रेण नयसप्तभङ्गीव्याख्यानमिति समुदायेन चतुर्विंशतिगाथाभिरष्टभिः स्थलैर्द्रव्यनिर्णयं करोति । तद्यथा – अथ सम्यक्त्वं कथयति — है — जैसे कि जीवपुद्गलात्मक देव, मनुष्य इत्यादि । गुण द्वारा आयतकी अनेकताकी प्रतिपत्तिकी कारणभूत गुणपर्याय है । वह भी दो प्रकार है । (१) स्वभावपर्याय और (२) विभावपर्याय । उसमें समस्त द्रव्योंके अपने -अपने अगुरुलघुगुण द्वारा प्रतिसमय प्रगट होनेवाली षट्स्थानपतित हानि -वृद्धिरूप अनेकत्वकी अनुभूति वह स्वभावपर्याय है; (२) रूपादिके या ज्ञानादिके १स्व -परके कारण प्रवर्तमान २पूर्वोत्तर अवस्थामें होनेवाले तारतम्यके कारण देखनेमें आनेवाले स्वभावविशेषरूप अनेकत्वकी ३आपत्ति विभावपर्याय है ।
(-बहते, प्रवाहरूप) हुये ऐसे आयतसामान्यसमुदायसे रचित होता हुआ तन्मय ही है, उसीप्रकार सम्पूर्ण पदार्थ ‘द्रव्य’ नामक अवस्थायी विस्तारसामान्यसमुदायसे और दौड़ते हुये आयतसामान्यसमुदायसे रचित होता हुआ द्रव्यमय ही है । और जैसे पटमें, अवस्थायी विस्तारसामान्यसमुदाय या दौड़ते हुये आयतसामान्यसमुदाय गुणोंसे रचित होता हुआ गुणोंसे १. स्व उपादान और पर निमित्त है । २. पूर्वोत्तर = पहलेकी और बादकी । ३. आपत्ति = आपतित, आपड़ना । ४. पट = वस्त्र
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द्रव्यनाम्नाभिनिर्वर्त्यमानो द्रव्यमय एव । यथैव च पटेऽवस्थायी विस्तारसामान्य- समुदायोऽभिधावन्नायतसामान्यसमुदायो वा गुणैरभिनिर्वर्त्यमानो गुणेभ्यः पृथगनुपलम्भाद् गुणात्मक एव, तथैव च पदार्थेष्ववस्थायी विस्तारसामान्यसमुदायोऽभिधावन्नायत- सामान्यसमुदायो वा द्रव्यनामा गुणैरभिनिर्वर्त्यमानो गुणेभ्यः पृथगनुपलम्भाद् गुणात्मक एव । यथैव चानेकपटात्मको द्विपटिका त्रिपटिकेति समानजातीयो द्रव्यपर्यायः, तथैव चानेकपुद्गलात्मको द्वयणुकस्त्र्यणुक इति समानजातीयो द्रव्यपर्यायः । यथैव चानेककौशेयककार्पासमयपटात्मको द्विपटिका त्रिपटिकेत्यसमानजातीयो द्रव्यपर्यायः, तथैव चानेकजीवपुद्गलात्मको देवो मनुष्य इत्यसमानजातीयो द्रव्यपर्यायः । यथैव च क्वचित्पटे स्थूलात्मीयागुरुलघुगुणद्वारेण कालक्रमप्रवृत्तेन नानाविधेन परिणमनान्नानात्व- प्रतिपत्तिर्गुणात्मकः स्वभावपर्यायः, तथैव च समस्तेष्वपि द्रव्येषु सूक्ष्मात्मीयात्मीयागुरु-
तम्हा तस्स णमाइं किच्चा यस्मात्सम्यक्त्वं विना श्रमणो न भवति तस्मात्कारणात्तस्य सम्यक्चारित्रयुक्तस्य पूर्वोक्ततपोधनस्य नमस्यां नमस्क्रियां नमस्कारं कृत्वा णिच्चं पि तम्मणो होज्ज नित्यमपि तद्गतमना भूत्वा वोच्छामि वक्ष्याम्यहं कर्ता संगहादो संग्रहात्संक्षेपात् सकाशात् । किम् । परमट्ठ- पृथक् अप्राप्त होनेसे गुणात्मक ही है, उसीप्रकार पदार्थोंमें, अवस्थायी विस्तारसामान्यसमुदाय या दौड़ता हुआ आयतसामान्यसमुदाय — जिसका नाम ‘द्रव्य’ है वह — गुणोंसे रचित होता हुआ गुणोंसे पृथक् अप्राप्त होनेसे गुणात्मक ही है । और जैसे अनेकपटात्मक (-एकसे अधिक वस्त्रोंसे निर्मित) १द्विपटिक, त्रिपटिक ऐसे समानजातीय द्रव्यपर्याय है, उसीप्रकार अनेक पुद्गलात्मक द्वि -अणुक, त्रि -अणुक ऐसी समानजातीय द्रव्यपर्याय है; और जैसे अनेक रेशमी और सूती पटोंके बने हुए द्विपटिक, त्रिपटिक ऐसी असमानजातीय द्रव्यपर्याय है, उसीप्रकार अनेक जीवपुद्गलात्मक देव, मनुष्य ऐसी असमानजातीय द्रव्यपर्याय है । और जैसे कभी पटमें अपने स्थूल अगुरुलघुगुण द्वारा कालक्रमसे प्रवर्तमान अनेक प्रकाररूपसे परिणमित होनेके कारण अनेकत्वकी प्रतिपत्ति गुणात्मक स्वभावपर्याय है, उसीप्रकार समस्त द्रव्योंमें अपने -अपने सूक्ष्म अगुरुलघुगुण द्वारा प्रतिसमय प्रगट होनेवाली षट्स्थानपतित हानिवृद्धिरूप अनेकत्वकी अनुभूति वह गुणात्मक स्वभावपर्याय है; और जैसे पटमें, १. द्विपटिक = दो थानोंको जोड़कर (सींकर) बनाया गया एक वस्त्र [यदि दोनों थान एक ही जातिके
सूती) तो असमानजातीय द्रव्यपर्याय कहलाता है । ]
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लघुगुणद्वारेण प्रतिसमयसमुदीयमानषट्स्थानपतितवृद्धिहानिनानात्वानुभूतिः गुणात्मकः स्वभावपर्यायः । यथैव च पटे रूपादीनां स्वपरप्रत्ययप्रवर्तमानपूर्वोत्तरावस्थावतीर्णतारतम्यो- पदर्शितस्वभावविशेषानेकत्वापत्तिः गुणात्मको विभावपर्यायः, तथैव च समस्तेष्वपि द्रव्येषु रूपादीनां ज्ञानादीनां वा स्वपरप्रत्ययप्रवर्तमानपूर्वोत्तरावस्थावतीर्णतारतम्योपदर्शितस्वभाव- विशेषानेकत्वापत्तिः गुणात्मको विभावपर्यायः । इयं हि सर्वपदार्थानां द्रव्यगुणपर्यायस्वभाव- प्रकाशिका पारमेश्वरी व्यवस्था साधीयसी, न पुनरितरा । यतो हि बहवोऽपि पर्याय- विणिच्छयाधिगमं परमार्थविनिश्चयाधिगमं सम्यक्त्वमिति । परमार्थविनिश्चयाधिगमशब्देन सम्यक्त्वं कथं भण्यत इति चेत् – परमोऽर्थः परमार्थः शुद्धबुद्धैकस्वभावः परमात्मा, परमार्थस्य विशेषेण संशयादिरहितत्वेन निश्चयः परमार्थविनिश्चयरूपोऽधिगमः शङ्काद्यष्टदोषरहितश्च यः परमार्थतोऽर्थावबोधो यस्मात्सम्यक्त्वात्तत् परमार्थविनिश्चयाधिगमम् । अथवा परमार्थविनिश्चयोऽनेकान्तात्मकपदार्थसमूह- स्तस्याधिगमो यस्मादिति ।।✽१०।। अथ पदार्थस्य द्रव्यगुणपर्यायस्वरूपं निरूपयति — अत्थो खलु दव्वमओ अर्थो ज्ञानविषयभूतः पदार्थः खलु स्फु टं द्रव्यमयो भवति । कस्मात् । तिर्यक्- सामान्योद्धर्वतासामान्यलक्षणेन द्रव्येण निष्पन्नत्वात् । तिर्यक्सामान्योर्द्ध्वतासामान्यलक्षणं कथ्यते – एककाले नानाव्यक्तिगतोऽन्वयस्तिर्यक्सामान्यं भण्यते । तत्र दृष्टान्तो यथा – नानासिद्धजीवेषु सिद्धोऽयं सिद्धोऽयमित्यनुगताकारः सिद्धजातिप्रत्ययः । नानाकालेष्वेकव्यक्तिगतोन्वय ऊर्ध्वतासामान्यं भण्यते । तत्र दृष्टांतः यथा – य एव केवलज्ञानोत्पत्तिक्षणे मुक्तात्मा द्वितीयादिक्षणेष्वपि स एवेति प्रतीतिः । अथवा नानागोशरीरेषु गौरयं गौरयमिति गोजातिप्रतीतिस्तिर्यक्सामान्यम् । यथैव चैकस्मिन् पुरुषे बालकुमाराद्यवस्थासु स एवायं देवदत्त इति प्रत्यय ऊर्ध्वतासामान्यम् । दव्वाणि गुणप्पगाणि भणिदाणि द्रव्याणि गुणात्मकानि भणितानि । अन्वयिनो गुणा अथवा सहभुवो गुणा इति गुणलक्षणम् । यथा अनन्तज्ञानसुखादिविशेषगुणेभ्यस्तथैवागुरुलघुकादिसामान्यगुणेभ्यश्चाभिन्नत्वाद्गुणात्मकं भवति सिद्धजीवद्रव्यं, तथैव स्वकीयस्वकीयविशेषसामान्यगुणेभ्यः सकाशादभिन्नत्वात् सर्वद्रव्याणि गुणात्मकानि भवन्ति । तेहिं पुणो पज्जाया तैः पूर्वोक्तलक्षणैर्द्रव्यैर्गुणैश्च पर्याया भवन्ति । व्यतिरेकिणः पर्याया अथवा क्रमभुवः पर्याया इति पर्यायलक्षणम् । यथैकस्मिन् मुक्तात्मद्रव्ये किंचिदूनचरम- रूपादिकके स्व -परके कारण प्रवर्तमान पूर्वोत्तर अवस्थामें होनेवाले तारतम्यके कारण देखनेमें आनेवाले स्वभावविशेषरूप अनेकत्वकी आपत्ति वह गुणात्मक विभावपर्याय है, उसीप्रकार समस्त द्रव्योंमें, रूपादिकके या ज्ञानादिके स्व -परके कारण प्रवर्तमान पूर्वोत्तर अवस्थामें होनेवाले तारतम्यके कारण देखनेमें आनेवाले स्वभावविशेषरूप अनेकत्वकी आपत्ति वह गुणात्मक विभावपर्याय है ।
वास्तवमें यह, सर्व पदार्थोंके द्रव्यगुणपर्यायस्वभावकी प्रकाशक १पारमेश्वरी व्यवस्था भली -उत्तम -पूर्ण -योग्य है, दूसरी कोई नहीं; क्योंकि बहुतसे (जीव) पर्यायमात्रका ही अवलम्बन १. परमेश्वरकी कही हुई ।
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मात्रमेवावलम्ब्य तत्त्वाप्रतिपत्तिलक्षणं मोहमुपगच्छन्तः परसमया भवन्ति ।।९३।।
गुणपर्यायाश्च, तथा सर्वद्रव्येषु स्वभावद्रव्यपर्यायाः स्वजातीयविजातीयविभावद्रव्यपर्यायाश्च, तथैव
स्वभावविभावगुणपर्यायाश्च ‘जेसिं अत्थि सहाओ’ इत्यादिगाथायां, तथैव ‘भावा जीवादीया’ इत्यादि-
गाथायां च पञ्चास्तिकाये पूर्वं कथितक्रमेण यथासंभवं ज्ञातव्याः । पज्जयमूढा हि परसमया यस्मादित्थंभूत-
भावार्थ : — पदार्थ द्रव्यस्वरूप है । द्रव्य अनन्तगुणमय है । द्रव्यों और गुणोंसे पर्यायें होती हैं । पर्यायोंके दो प्रकार हैं : — १ – द्रव्यपर्याय, २ – गुणपर्याय । इनमेंसे द्रव्यपर्यायके दो भेद हैं : — १ – समानजातीय — जैसे द्वि – अणुक, त्रि -अणुक, इत्यादि स्कन्ध; २ – असमानजातीय — जैसे मनुष्य देव इत्यादि । गुणपर्यायके भी दो भेद हैं : — १ – स्वभाव- पर्याय — जैसे सिद्धके गुणपर्याय २ – विभावपर्याय — जैसे स्वपरहेतुक मतिज्ञानपर्याय ।
ऐसा जिनेन्द्र भगवानकी वाणीसे कथित सर्व पदार्थोंका द्रव्य -गुण -पर्यायस्वरूप ही यथार्थ है । जो जीव द्रव्य -गुणको न जानते हुये मात्र पर्यायका ही आलम्बन लेते हैं वे निज स्वभावको न जानते हुये परसमय हैं ।।९३।।
अब १आनुषंगिक ऐसी यह ही स्वसमय -परसमयकी व्यवस्था (अर्थात् स्वसमय और परसमयका भेद) निश्चित करके (उसका) उपसंहार करते हैं : —
अन्वयार्थ : — [ये जीवाः ] जो जीव [पर्यायेषु निरताः ] पर्यायोंमें लीन हैं [परसमयिकाः इति निर्दिष्टाः ] उन्हें परसमय कहा गया है [आत्मस्वभावे स्थिताः ] जो जीव आत्मस्वभावमें स्थित हैं [ते ] वे [स्वकसमयाः ज्ञातव्याः ] स्वसमय जानने ।।९४।। १. आनुषंगिक = पूर्व गाथाके कथनके साथ सम्बन्धवाली ।
पर्यायमां रत जीव जे ते ‘परसमय’ निर्दिष्ट छे; आत्मस्वभावे स्थित जे ते ‘स्वकसमय’ ज्ञातव्य छे . ९४.