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दृष्टयो मनुष्य एवाहमेष ममैवैतन्मनुष्यशरीरमित्यहंकारममकाराभ्यां विप्रलभ्यमाना अविचलित-
चेतनाविलासमात्रादात्मव्यवहारात
मिथ्यादृष्टयो भवन्तीति
प्रति ही बलवान हैं ), वे
अविचलितचेतनाविलासमात्र
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समस्तैकान्तदृष्टिपरिग्रहग्रहा मनुष्यादिगतिषु तद्विग्रहेषु चाविहिताहंकारममकारा
अनेकापवरकसंचारितरत्नप्रदीपमिवैकरूपमेवात्मानमुपलभमाना अविचलितचेतनाविलास-
मात्रमात्मव्यवहारमुररीकृत्य क्रोडीकृतसमस्तक्रियाकुटुम्बकं मनुष्यव्यवहारमनाश्रयन्तो विश्रान्त-
रागद्वेषोन्मेषतया परममौदासीन्यमवलंबमाना निरस्तसमस्तपरद्रव्यसंगतितया स्वद्रव्येणैव केवलेन
संगतत्वात्स्वसमया जायन्ते
च ममेति ममकारो भण्यते, ताभ्यां परिणताः ममकाराहङ्काररहितपरमचैतन्यचमत्कारपरिणतेश्च्युता ये ते
क र्मोदयजनितपरपर्यायनिरतत्वात्परसमया मिथ्यादृष्टयो भण्यन्ते
पर्यायपरिणतिरहितत्वात्स्वसमया भवन्तीत्यर्थः
अंगीकार करके, जिसमें समस्त क्रियाकलापसे भेंट की जाती है ऐसे मनुष्यव्यवहारका आश्रय
नहीं करते हुये, रागद्वेषका उन्मेष (प्राकटय) रुक जानेसे परम उदासीनताका आलम्बन लेते
हुये, समस्त परद्रव्योंकी संगति दूर कर देनेसे मात्र स्वद्रव्यके साथ ही संगतता होनेसे वास्तवमें
होनेवाला आत्मा एकरूप ही है, वह किंचित्मात्र भी शरीररूप नहीं होता और न शरीरकी क्रिया करता
है
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है; ‘मात्र अचलित चेतना वह ही मैं हूँ’ ऐसा मानना
परसमय हैं; और जो भगवान आत्मस्वभावमें ही स्थित हैं वे अनेकान्तदृष्टिवाले लोग
मनुष्यव्यवहारका आश्रय नहीं करके आत्मव्यवहारका आश्रय करते हैं, इसलिये रागी -द्वेषी नहीं
होते अर्थात् परम उदासीन रहते हैं और इसप्रकार परद्रव्यरूप कर्मके साथ सम्बन्ध न करके
मात्र स्वद्रव्यके साथ ही सम्बन्ध करते हैं, इसलिये वे स्वसमय हैं
गुणयुक्त और पर्यायसहित है, [तत् ] उसे [द्रव्यम् इति ] ‘द्रव्य’ [ब्रुवन्ति ] कहते हैं
वळी गुण ने पर्यय सहित जे, ‘द्रव्य’ भाख्युं तेहने. ९५.
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सक्रि यत्वमक्रि यत्वं चेतनत्वमचेतनत्वं कर्तृत्वमकर्तृत्वं भोक्तृत्वमभोक्तृत्वमगुरुलघुत्वं चेत्यादयः
सामान्यगुणाः, अवगाहहेतुत्वं गतिनिमित्तता स्थितिकारणत्वं वर्तनायतनत्वं रूपादिमत्ता
चेतनत्वमित्यादयो विशेषगुणाः
शुद्धात्मोपलम्भव्यक्तिरूपकार्यसमयसारस्योत्पादः कारणसमयसारस्य व्ययस्तदुभयाधारभूतपरमात्मद्रव्य-
त्वेन ध्रौव्यं च
अप्रदेशत्व, मूर्तत्व, अमूर्तत्व, सक्रियत्व, अक्रियत्व, चेतनत्व, अचेतनत्व, कर्तृत्व, अकर्तृत्व,
भोक्तृत्व, अभोक्तृत्व, अगुरुलघुत्व, इत्यादि सामान्यगुण हैं; अवगाहहेतुत्व, गतिनिमित्तता,
स्थितिकारणत्व, वर्तनायतनत्व, रूपादिमत्त्व, चेतनत्व इत्यादि विशेष गुण हैं
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समुपात्तप्राक्तनावस्थं समुचितबहिरंगसाधनसन्निधिसद्भावे विचित्रबहुतरावस्थानं स्वरूपकर्तृकरण-
सामर्थ्यस्वभावेनान्तरंगसाधनतामुपागतेनानुगृहीतमुत्तरावस्थयोत्पद्यमानं तेनोत्पादेन लक्ष्यते, न च
तेन सह स्वरूपभेदमुपव्रजति, स्वरूपत एव तथाविधत्वमवलम्बते
संज्ञालक्षणप्रयोजनादिभिर्भेदं कुर्वन्ति तथापि सत्तास्वरूपेण भेदं न कुर्वन्ति, स्वभावत एव
तथाविधत्वमवलम्बन्ते
उस उत्पादके साथ स्वरूप भेद नहीं है, स्वरूपसे ही वैसा है (अर्थात् स्वयं उत्पादरूपसे
ही परिणत है); उसीप्रकार जिसने पूर्व अवस्था प्राप्त की है ऐसा द्रव्य भी
अवस्थायें करता है वह
है; किन्तु उसका उस उत्पादके साथ स्वरूपभेद नहीं है, स्वरूपसे ही वैसा है
हुआ उस व्ययसे लक्षित होता है, परन्तु उसका उस व्ययके साथ स्वरूपभेद नहीं है,
स्वरूपसे ही वैसा है; उसीप्रकार वही द्रव्य भी उत्तर अवस्थासे उत्पन्न होता हुआ और पूर्व
अवस्थासे व्ययको प्राप्त होता हुआ उस व्ययसे लक्षित होता है; परन्तु उसका उस व्ययके
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प्राक्तनावस्थया व्ययमानं तेन व्ययेन लक्ष्यते, न च तेन सह स्वरूपभेदमुपव्रजति, स्वरूपत एव
तथाविधत्वमवलम्बते
स्वरूपभेदमुपव्रजति, स्वरूपत एव तथाविधत्वमवलम्बते, तथैव तदेव द्रव्यमप्येककाल-
मुत्तरावस्थयोत्पद्यमानं प्राक्तनावस्थया व्ययमानमवस्थायिन्या द्रव्यत्वावस्थया ध्रौव्यमालम्बमानं
ध्रौव्येण लक्ष्यते, न च तेन सह स्वरूपभेदमुपव्रजति, स्वरूपत एव तथाविधत्वमवलम्बते
तैः सह स्वरूपभेदमुपव्रजति, स्वरूपत एव तथाविधत्वम -वलम्बते
स्वरूपत एव तथाविधत्वमवलम्बते; तथैव तदेव द्रव्यमप्यायतविशेषात्मकैः पर्यायैर्लक्ष्यते, न च
तैः सह स्वरूपभेदमुपव्रजति, स्वरूपत एव तथाविधत्वमवलम्बते
टिकनेवाली ऐसी वस्त्रत्व -अवस्थासे ध्रुव रहता हुआ ध्रौव्यसे लक्षित होता है; परन्तु उसका
उस ध्रौव्यके साथ स्वरूपभेद नहीं है, स्वरूपसे ही वैसा है; इसीप्रकार वही द्रव्य भी एक
ही समय उत्तर अवस्थासे उत्पन्न होता हुआ, पूर्व अवस्थासे व्यय होता हुआ, और टिकनेवाली
ऐसी द्रव्यत्वअवस्थासे ध्रुव रहता हुआ ध्रौव्यसे लक्षित होता है
भी विस्तारविशेषस्वरूप गुणोंसे लक्षित होता है; किन्तु उसका उन गुणोंके साथ स्वरूपभेद नहीं
है, वह स्वरूपसे ही वैसा है
है, वह स्वरूपसे ही वैसा है
वर्णादिगुणनवजीर्णादिपर्यायसहितं च सत् तैरुत्पादव्ययध्रौव्यैस्तथैव च स्वकीयगुणपर्यायैः सह
संज्ञादिभेदेऽपि सति सत्तारूपेण भेदं न करोति
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सद्भावः ] द्रव्यका जो अस्तित्व है, [हि ] वह वास्तवमें [स्वभावः ] स्वभाव है
अस्तित्व द्रव्यनुं सर्वदा जे, तेह द्रव्यस्वभाव छे
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सिद्धियुक्तत्वात्तेषामस्तित्वमेकमेव, कार्तस्वरवत्
प्रवृत्तियुक्तस्य कार्तस्वरास्तित्वेन निष्पादितनिष्पत्तियुक्तैः पीततादिगुणैः कुण्डलादिपर्यायैश्च
यदस्तित्वं कार्तस्वरस्य स स्वभावः, तथा हि द्रव्येण वा क्षेत्रेण वा कालेन वा भावेन वा
द्रव्यात्पृथगनुपलभ्यमानैः कर्तृकरणाधिकरणरूपेण गुणानां पर्यायाणां च स्वरूपमुपादाय
मोक्षमोक्षमार्गाधारभूतान्वयद्रव्यत्वलक्षणं ध्रौव्यं चेत्युक्तलक्षणोत्पादव्ययध्रौव्यैश्च सह भिन्नं न भवति
स्वभाव ही क्यों न हो ? (अवश्य हो
होते हैं इसलिये
सुवर्णके अस्तित्वसे जिनकी उत्पत्ति होती है,
भावसे जो द्रव्यसे पृथक् दिखाई नहीं देते, कर्ता -करण-
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स्वभावः
प्रवर्तमानप्रवृत्तियुक्तैः पीततादिगुणैः कुण्डलादिपर्यायैश्च निष्पादितनिष्पत्तियुक्तस्य कार्तस्वरस्य
मूलसाधनतया तैर्निष्पादितं यदस्तित्वं स स्वभावः, तथा द्रव्येण वा क्षेत्रेण वा कालेन
वा भावेन वा गुणेभ्यः पर्यायेभ्यश्च पृथगनुपलभ्यमानस्य कर्तृकरणाधिकरणरूपेण
सुवर्णस्य सद्भावः, तथा स्वकीयद्रव्यक्षेत्रकालभावैः परमात्मद्रव्यादभिन्नानां केवलज्ञानादिगुणकिंचिदून-
चरमशरीराकारादिपर्यायाणां संबन्धि यदस्तित्वं स एव मुक्तात्मद्रव्यस्य सद्भावः
है, क्योंकि पीतत्वादिकके और कुण्डलादिकके स्वरूपको सुवर्ण ही धारण करता है, इसलिये
सुवर्णके अस्तित्वसे ही पीतत्वादिककी और कुण्डलादिककी निष्पत्ति
द्रव्यसे भिन्न नहीं दिखाई देनेवाले गुणों और पर्यायोंका अस्तित्व वह द्रव्यका ही अस्तित्व है,
क्योंकि गुणों और पर्यायोंके स्वरूपको द्रव्य ही धारण करता है, इसलिये द्रव्यके अस्तित्वसे
ही गुणोंकी और पर्यायोंकी निष्पत्ति होती है, द्रव्य न हो तो गुण और पर्यायें भी न हों
करके प्रवर्तमान पीतत्वादिगुणों और कुण्डलादिपर्यायोंसे जिसकी निष्पत्ति होती है,
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मूलसाधनतया तैर्निष्पादितं यदस्तित्वं स स्वभावः
ज्ञानादिगुणकिंचिदूनचरमशरीराकारपर्यायेभ्यः सकाशादभिन्नस्य मुक्तात्मद्रव्यस्य संबन्धि यदस्तित्वं स
एव केवलज्ञानादिगुणकिंचिदूनचरमशरीराकारपर्यायाणां स्वभावो ज्ञातव्यः
और कुण्डलादिक ही धारण करते हैं, इसलिये पीतत्वादिक और कुण्डलादिकके अस्तित्वसे
ही सुवर्णकी निष्पत्ति होती है, पीतत्वादिक और कुण्डलादिक न हों तो सुवर्ण भी न हो;
इसीप्रकार गुणोंसे और पर्यायोंसे भिन्न न दिखाई देनेवाले द्रव्यका अस्तित्व वह गुणों और
पर्यायोंका ही अस्तित्व है, क्योंकि द्रव्यके स्वरूपको गुण और पर्यायें ही धारण करती हैं
इसलिये गुणों और पर्यायोंके अस्तित्वसे ही द्रव्यकी निष्पत्ति होती है
और उत्पाद -व्यय -ध्रौव्यका भी एक ही अस्तित्व है
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पीतताद्युत्पादव्ययध्रौव्यैर्यदस्तित्वं कार्तस्वरस्य स स्वभावः, तथा हि द्रव्येण वा क्षेत्रेण वा
कालेन वा भावेन वा द्रव्यात्पृथगनुपलभ्यमानैः कर्तृकरणाधिकरणरूपेणोत्पादव्ययध्रौव्याणां
स्वरूपमुपादाय प्रवर्तमानप्रवृत्तियुक्तस्य द्रव्यास्तित्वेन निष्पादितनिष्पत्तियुक्तैरुत्पादव्यय-
ध्रौव्यैर्यदस्तित्वं द्रव्यस्य स स्वभावः
स्वरूपमुपादाय प्रवर्तमानप्रवृत्तियुक्तैः कुण्डलांगदपीतताद्युत्पादव्ययध्रौव्यैर्निष्पादितनिष्पत्तियुक्तस्य
कार्तस्वरस्य मूलसाधनतया तैर्निष्पादितं यदस्तित्वं स स्वभावः, तथा द्रव्येण वा क्षेत्रेण वा
भूतपरमात्मद्रव्यत्वलक्षणध्रौव्याणां संबन्धि यदस्तित्वं स एव मुक्तात्मद्रव्यसद्भावः
यदस्तित्वं स एव कटकपर्यायोत्पादकङ्कणपर्यायव्ययतदुभयाधारभूतसुवर्णत्वलक्षणध्रौव्याणां स्वभावः,
तथा स्वद्रव्यादिचतुष्टयेन मोक्षपर्यायोत्पादमोक्षमार्गपर्यायव्ययतदुभयाधारभूतमुक्तात्मद्रव्यत्वलक्षण-
ध्रौव्येभ्यः सकाशादभिन्नस्य परमात्मद्रव्यस्य संबन्धि यदस्तित्वं स एव
पृथक् दिखाई नहीं देते, कर्ता -करण -अधिकरणरूपसे उत्पाद -व्यय -ध्रौव्योंके स्वरूपको
धारण करके प्रवर्तमान द्रव्यके अस्तित्वसे जिनकी निष्पत्ति होती है,
अस्तित्व है; क्योंकि उत्पाद, व्यय और ध्रौव्योंके स्वरूपको द्रव्य ही धारण करता है,
इसलिए द्रव्यके अस्तित्वसे ही उत्पाद, व्यय और ध्रौव्योंकी निष्पत्ति होती है
सुवर्णके स्वरूपको धारण करके प्रवर्तमान कुण्डलादि -उत्पादों, बाजूबंधादि व्ययों और
पीतत्वादि ध्रौव्योंसे जिसकी निष्पत्ति होती है,
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द्रव्यस्वरूपमुपादाय प्रवर्तमानप्रवृत्तियुक्तैरुत्पादव्ययध्रौव्यैर्निष्पादितनिष्पत्तियुक्तस्य द्रव्यस्य मूल-
साधनतया तैर्निष्पादितं यदस्तित्वं स स्वभावः
ध्रौव्योंका ही अस्तित्व है; क्योंकि द्रव्यके स्वरूपको उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य ही धारण करते
हैं, इसलिये उत्पाद -व्यय और ध्रौव्योंके अस्तित्वसे ही द्रव्यकी निष्पत्ति होती है
भिन्न प्रकारका है; ऐसा होनेसे अस्तित्व द्रव्यका स्वभाव ही है
उत्पन्न होते हैं, और द्रव्य उत्पाद -व्यय -ध्रौव्योंसे ही उत्पन्न होता है
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वृत्तं प्रतिद्रव्यमासूत्रितं सीमानं भिन्दत्सदिति सर्वगतं सामान्यलक्षणभूतं सादृश्यास्तित्वमेकं
खल्ववबोधव्यम्
स्यात्
विचित्रताके विस्तारको अस्त करता हुआ, सर्व द्रव्योंमें प्रवृत्त होकर रहनेवाला, और प्रत्येक
द्रव्यकी बँधी हुई सीमाकी अवगणना करता हुआ, ‘सत्’ ऐसा जो सर्वगत सामान्यलक्षणभूत
सादृश्यास्तित्व है वह वास्तवमें एक ही जानना चाहिए
और कोई अवाच्य होना चाहिये; किन्तु वह तो विरुद्ध ही है, और यह (‘सत्’ ऐसा कथन
और ज्ञानके सर्वपदार्थपरामर्शी होनेकी बात) तो सिद्ध हो सकती है, वृक्षकी भाँति
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लक्षणभूतेन सादृश्योद्भासिनानोकहत्वेनोत्थापितमेकत्वं तिरियति, तथा बहूनां बहुविधानां
द्रव्याणामात्मीयात्मीयस्य विशेषलक्षणभूतस्य स्वरूपास्तित्वस्यावष्टम्भेनोत्तिष्ठन्नानात्वं सामान्य-
लक्षणभूतेन सादृश्योद्भासिना सदित्यस्य भावेनोत्थापितमेकत्वं तिरियति
विशेषलक्षणभूतस्य स्वरूपास्तित्वस्यावष्टम्भेनोत्तिष्ठन्नानात्वमुच्चकास्ति, तथा सर्वद्रव्याणामपि
सामान्यलक्षणभूतेन सादृश्योद्भासिना सदित्यस्य भावेनोत्थापितेनैकत्वेन तिरोहितमपि विशेष-
लक्षणभूतस्य स्वरूपास्तित्वस्यावष्टम्भेनोत्तिष्ठन्नानात्वमुच्चकास्ति
सामान्यलक्षणभूत सादृश्यदर्शक ‘सत्’ पनेसे (-‘सत्’ ऐसे भावसे, अस्तित्वसे, ‘है’ पनेसे)
उत्पन्न होनेवाला एकत्व तिरोहित कर देता है
विशेषलक्षणभूत स्वरूपास्तित्वके अवलम्बनसे उत्पन्न होनेवाला अनेकत्व स्पष्टतया प्रकाशमान
रहता है, (बना रहता है, नष्ट नहीं होता); उसीप्रकार सर्व द्रव्योंके विषयमें भी सामान्यलक्षणभूत
सादृश्यदर्शक ‘सत्’ पनेसे उत्पन्न होनेवाले एकत्वसे तिरोहित होने पर भी (अपने -अपने)
विशेषलक्षणभूत स्वरूपास्तित्वके अवलम्बनसे उत्पन्न होनेवाला अनेकत्व स्पष्टतया प्रकाशमान
रहता है
अनेकत्व है, परन्तु वृक्षत्व जो कि सर्व वृक्षोंका सामान्यलक्षण है और जो सर्व वृक्षोंमें सादृश्य
बतलाता है, उसकी अपेक्षासे सर्व वृक्षोंमें एकत्व है
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सिद्धजीवानां ग्रहणं भवति, तथा ‘सर्वं सत्’ इत्युक्ते संग्रहनयेन सर्वपदार्थानां ग्रहणं भवति
युगपद्ग्रहणं भवति, तथा सर्वं सदित्युक्ते सति सादृश्यसत्ताभिधानेन महासत्तारूपेण शुद्धसंग्रह-
नयेन सर्वपदार्थानां स्वजात्यविरोधेन ग्रहणं भवतीत्यर्थः
है, परन्तु सत्पना (-अस्तित्वपना, ‘है’ ऐसा भाव) जो कि सर्व द्रव्योंका सामान्य लक्षण है और
जो सर्वद्रव्योंमें सादृश्य बतलाता है उसकी अपेक्षासे सर्वद्रव्योंमें एकत्व है
(समस्त द्रव्योंका स्वरूप -अस्तित्व संबंधी) अनेकत्व स्पष्टतया प्रकाशमान ही रहता है
कहा है; [तथा ] इसप्रकार [आगमतः ] आगमसे [सिद्धं ] सिद्ध है; [यः ] जो [न इच्छति ] इसे
नहीं मानता [सः ] वह [हि ] वास्तवमें [परसमयः ] परसमय है
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युक्तत्वात्
समरसीभावपरिणतसर्वशुद्धात्मप्रदेशभरितावस्थेन शुद्धोपादानभूतेन स्वकीयस्वभावेन निष्पन्नत्वात्
निष्पन्न हुए भाववाला है (
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सत्तामें भेद होनेसे) होती है तो, वह कौनसा भेद है ? प्रादेशिक या अताद्भाविक ?
सत्ताके योगसे द्रव्य ‘सत्तावाला’ (‘सत्’) हुआ है ऐसा नहीं है
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मित्यादिवत्प्रपश्यतः समूल एवाताद्भाविको भेदो निमज्जति
राशेर्जलकल्लोल इव द्रव्यान्न व्यतिरिक्तं स्यात
है;
है
तब भी (वह) द्रव्यके पर्यायरूपसे उन्मग्न होनेसे,
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उत्पादव्ययध्रौव्य सहित [परिणामः ] परिणाम है [सः ] वह [अर्थेषु स्वभावः ] पदार्थोंका
स्वभाव है
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सूक्ष्मांशाः परिणामाः
संहारध्रौव्यात्मकमात्मानं धारयन्ति, तथैव ते परिणामाः स्वावसरे स्वरूपपूर्वरूपाभ्या-
मुत्पन्नोच्छन्नत्वात्सर्वत्र परस्परानुस्यूतिसूत्रितैकप्रवाहतयानुत्पन्नप्रलीनत्वाच्च संभूतिसंहारध्रौव्या-
त्मकमात्मानं धारयन्ति
होनेसे तथा सर्वत्र परस्पर अनुस्यूतिसे रचित एक प्रवाहपने द्वारा अनुत्पन्न -अविनष्ट होनेसे
उत्पत्ति -संहार -ध्रौव्यात्मक हैं
अनुस्यूतिसे रचित एक वास्तुपने द्वारा अनुभय स्वरूप है (अर्थात् दोमेंसे एक भी स्वरूप नहीं
है), इसीप्रकार प्रवाहका जो छोटेसे छोटा अंश पूर्वपरिणामके विनाशस्वरूप है वही उसके