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रयमिह परमार्थश्चेत्यतां नित्यमेकः
न्न खलु समयसारादुत्तरं किंचिदस्ति
मानकर प्रवर्तन करते हैं वे ही समयसारका अनुभव करते हैं (इसलिये वे ही मोक्षको प्राप्त करते
हैं)
एकः नित्यम् चेत्यताम् ] इस एकमात्र परमार्थका ही निरन्तर अनुभव करो; [स्वरस-विसर-पूर्ण-
ज्ञान-विस्फू र्ति-मात्रात् समयसारात् उत्तरं खलु किञ्चित् न अस्ति ] क्योंकि निजरसके प्रसारसे पूर्ण
जो ज्ञान उसके स्फु रायमान होनेमात्र जो समयसार (
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परमार्थभूतचित्प्रकाशरूपमात्मानं निश्चिन्वन् अर्थतस्तत्त्वतश्च परिच्छिद्य, अस्यैवार्थभूते भगवति
एकस्मिन् पूर्णविज्ञानघने परमब्रह्मणि सर्वारम्भेण स्थास्यति चेतयिता, स साक्षात्तत्क्षण-
प्रत्यक्ष दिखलाता है, उसीप्रकार समयप्राभृत आत्माके शुद्ध स्वरूपको प्रत्यक्ष अनुभवगोचर
दिखलाता है
उसके अर्थमें स्थित होगा, [सः ] वह [उत्तमं सौख्यम् भविष्यति ] उत्तम सौख्यस्वरूप होगा
प्रकाशरूप आत्माका निश्चय करता हुआ (इस शास्त्रको) अर्थसे और तत्त्वसे जानकर, उसीके
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लक्षणं सौख्यं स्वयमेव भविष्यतीति
प्रगट होनेवाले एक चैतन्यरससे परिपूर्ण स्वभावमें सुस्थित और निराकुल (
सौख्यस्वरूप स्वयं ही हो जायेगा
समस्त पदार्थोंका कहनेवाला होता है उसे शब्दब्रह्म कहा जाता है
उत्तम, स्वात्मिक, स्वाधीन, बाधारहित, अविनाशी सुखको प्राप्त करेगा
ध्यान करो, कि जिससे अविनाशी सुखकी प्राप्ति हो
दिखाई देता है तथापि ज्ञानमात्रमें खण्ड नहीं है), [एकम् ] एक है (अर्थात् अखण्ड होनेसे
एकरूप है), [अचलं ] अचल है (अर्थात् ज्ञानरूपसे चलित नहीं होता
है (अर्थात् किसी मिथ्यायुक्तिसे बाधा नहीं पाता)
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पहिचाना नहीं जा सकता; और कुछ (धर्म) पर्यायाश्रित हैं
अदृष्ट है; उसकी व्यक्ति दर्शन और ज्ञान है
तो मिथ्यादृष्टित्व आ जाता है, विज्ञानाद्वैतवादी बौद्धोंका और वेदान्तियोंका मत आ जाता है; इसलिये
ऐसा एकान्त बाधासहित है
मूरत अमूरत जे आनद्रव्य लोकमांहि वे भी ज्ञानरूप नाहीं न्यारे न अभावको;
यहै जानि ज्ञानी जीव आपकूं भजै सदीव ज्ञानरूप सुखतूप आन न लगावको,
कर्म-कर्मफलरूप चेतनाकूं दूरि टारि ज्ञानचेतना अभ्यास करे शुद्ध भावको
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काव्य कहे हैं
साथ विरोध नहीं आता ? और एक ही ज्ञानमें उपायतत्त्व तथा उपेयतत्त्व
‘आत्मख्याति’ टीकाके अन्तमें परिशिष्ट रूपसे कुछ कहते हैं
उपाय
विचार किया जाता है
साधकसाध्यभावका भी इस परिशिष्टमें विचार किया जायेगा
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त्वात्
रिक्तपररूपेणातत्त्वात्, सहक्रमप्रवृत्तानन्तचिदंशसमुदयरूपाविभागद्रव्येणैकत्वात्, अविभागैक-
द्रव्यव्याप्तसहक्रमप्रवृत्तानन्तचिदंशरूपपर्यायैरनेकत्वात्, स्वद्रव्यक्षेत्रकालभावभवनशक्ति स्वभाववत्त्वेन
सत्त्वात्, परद्रव्यक्षेत्रकालभावाभवनशक्ति स्वभाववत्त्वेनासत्त्वात्, अनादिनिधनाविभागैक-
है वैसा ही कहता है
असत् है, जो नित्य है वही अनित्य है
अनित्यत्वपना प्रकाशता ही है; क्योंकि
स्वरूपसे भिन्न ऐसे पररूपके द्वारा (
स्वभाव है उस स्वभाववानपनेके द्वारा (अर्थात् ऐसे स्वभाववाली होनेसे) सत्त्व है, और परके
द्रव्य-क्षेत्र-काल-भावरूप न होनेकी शक्तिरूप जो स्वभाव है उस स्वभाववानपनेके द्वारा
असत्त्व है; अनादिनिधन अविभाग एक वृत्तिरूपसे परिणतपनेके द्वारा नित्यत्व है, और क्रमशः
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तदतत्त्वमेकानेकत्वं सदसत्त्वं नित्यानित्यत्वं च प्रकाशत एव
ब्रूमः
स्वपररूपप्रवृत्तिव्यावृत्तिभ्यामुभयभावाध्यासितमेव
नाशमुपैति, तदा स्वरूपेण तत्त्वं द्योतयित्वा ज्ञातृत्वेन परिणमनाज्ज्ञानी कुर्वन्ननेकान्त एव
तमुद्गमयति १
प्रकाशित होती हैं, इसलिये अनेकान्त स्वयमेव प्रकाशित होता है
देते हैं ?
व्यावृत्तिके द्वारा दोनों भावोंसे अध्यासित है (अर्थात् समस्त वस्तु स्वरूपमें प्रवर्तमान होनेसे
और पररूपसे भिन्न रहनेसे प्रत्येक वस्तुमें दोनों भाव रह रहे हैं)
(अर्थात् ज्ञेयरूपसे अंगीकार करके) अज्ञानी होता हुआ नाशको प्राप्त होता है, तब (उसे
ज्ञानमात्र भावका) स्व-रूपसे (
(
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ददाति २
सत्त्वं द्योतयन्ननेकान्त एव तमुज्जीवयति ५
न ददाति ६
प्रगट करके) विश्वसे भिन्न ज्ञानको दिखाता हुआ, अनेकान्त ही उसे अपना (
जीवित रखता है
करके अपनेको नष्ट करता है), तब (उस ज्ञानमात्र भावका) पर्यायोंसे अनेकत्व प्रकाशित करता
हुआ, अनेकान्त ही उसे अपना नाश नहीं करने देता
इसप्रकार प्रगट करता हुआ) अनेकान्त ही उसे अपना नाश नहीं करने देता
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एव ज्ञानस्य परक्षेत्रगतज्ञेयाकारपरिणमनस्वभावत्वात्परक्षेत्रेण नास्तित्वं द्योतयन्ननेकान्त
एव नाशयितुं न ददाति ८
एव नाशयितुं न ददाति १०
है उनका त्याग करके) ज्ञानको तुच्छ करता हुआ अपना नाश करता है, तब स्वक्षेत्रमें रहकर ही
परक्षेत्रगत ज्ञेयोंके आकाररूपसे परिणमन करनेका ज्ञानका स्वभाव होनेसे (उस ज्ञानमात्र भावका)
परक्षेत्रसे नास्तित्व प्रकाशित करता हुआ, अनेकान्त ही उसे अपना नाश नहीं करने देता
प्रकाशित करता हुआ अनेकान्त ही उसे जिलाता है
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एव तमुज्जीवयति १३
विश्रान्तं पररूप एव परितो ज्ञानं पशोः सीदति
र्दूरोन्मग्नघनस्वभावभरतः पूर्णं समुन्मज्जति
करता हुआ, अनेकान्त ही उसे जिलाता है
है), तब (उस ज्ञानमात्र भावका) ज्ञानविशेषरूपसे अनित्यत्व प्रकाशित करता हुआ, अनेकान्त ही
उसे अपना नाश नहीं करने देता
परिणमित नहीं होता, और अनेकान्तसे वह वास्तविक स्वरूपसे समझा जाता है, स्वरूपमें परिणमित
होता है
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र्विश्वाद्भिन्नमविश्वविश्वघटितं तस्य स्वतत्त्वं स्पृशेत्
आधार रखता हुआ) ऐसे [पशोः ज्ञानं ] पशुका ज्ञान (
स्वरूपतः तत्’ इति ] ‘जो तत् है वह स्वरूपसे तत् है (अर्थात् प्रत्येक तत्त्वको
ज्ञानघनरूप स्वभावके भारसे, [पूर्णं समुन्मज्जति ] सम्पूर्ण उदित (प्रगट) होता है
आशया दृष्टवा ] सबको (
[विश्वात् भिन्नम् अविश्वविश्वघटितं ] विश्वसे भिन्न ऐसे तथा विश्वसे (
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ज्ज्ञेयाकारविशीर्णशक्ति रभितस्त्रुटयन्पशुर्नश्यति
न्नेकं ज्ञानमबाधितानुभवनं पश्यत्यनेकान्तवित्
भी समस्त ज्ञेय वस्तुसे भिन्न ऐसे) [तस्य स्वतत्त्वं स्पृशेत् ] अपने स्वतत्त्वका स्पर्श
है अर्थात् पर ज्ञेयोंके आकाररूप होने पर भी उनसे भिन्न है
[विष्वग्-विचित्र-उल्लसत्-ज्ञेयाकार-विशीर्ण-शक्तिः ] चारों ओर (सर्वत्र) प्रगट होनेवाले अनेक
प्रकारके ज्ञेयाकारोंसे जिसकी शक्ति विशीर्ण (
भेद पड़ जाता है ऐसे भ्रमको नाश करता हुआ), [एकम् अबाधित-अनुभवनं ज्ञानम् ] जो एक
है (
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न्नेकाकारचिकीर्षया स्फु टमपि ज्ञानं पशुर्नेच्छति
पर्यायैस्तदनेकतां परिमृशन् पश्यत्यनेकान्तवित्
द्रव्यत्वके द्वारा एक देखता है
प्रक्षालनकी कल्पना करता हुआ (अर्थात् चेतनकी अनेकाकाररूप मलिनताको धो डालनेकी
कल्पना करता हुआ), [एकाकार-चिकीर्षया स्फु टम् अपि ज्ञानं न इच्छति ] एकाकार करनेकी
इच्छासे ज्ञानको
जाननेवाला तो, [पर्यायैः तद्-अनेकतां परिमृशन् ] पर्यायोंसे ज्ञानकी अनेकताको जानता
(अनुभवता) हुआ, [वैचित्र्ये अपि अविचित्रताम् उपगतं ज्ञानम् ] विचित्र होने पर भी अविचित्रताको
प्राप्त (अर्थात् अनेकरूप होने पर भी एकरूप) ऐसे ज्ञानके [स्वतः क्षालितं ] स्वतः क्षालित
(स्वयमेव धोया हुआ शुद्ध) [पश्यति ] अनुभव करता है
ज्ञानका स्वरूपसे ही अनेकाकारपना मानता है
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स्वद्रव्यानवलोकनेन परितः शून्यः पशुर्नश्यति
स्याद्वादी तु विशुद्धबोधमहसा पूर्णो भवन् जीवति
स्वद्रव्यभ्रमतः पशुः किल परद्रव्येषु विश्राम्यति
जानन्निर्मलशुद्धबोधमहिमा स्वद्रव्यमेवाश्रयेत्
स्वद्रव्यरूपसे अस्तिपनेसे निपुणतया देखता है, इसलिये [सद्यः समुन्मज्जता विशुद्ध-बोध-महसा
पूर्णः भवन् ] तत्काल प्रगट विशुद्ध ज्ञानप्रकाशके द्वारा पूर्ण होता हुआ [जीवति ] जीता है
है
सर्वद्रव्यमय मानकर, [स्वद्रव्य-भ्रमतः परद्रव्येषु किल विश्राम्यति ] (परद्रव्योंमें) स्वद्रव्यके भ्रमसे
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सीदत्येव बहिः पतन्तमभितः पश्यन्पुमांसं पशुः
स्तिष्ठत्यात्मनिखातबोध्यनियतव्यापारशक्ति र्भवन्
जानन् ] समस्त वस्तुओंमें परद्रव्यस्वरूपसे नास्तित्वको जानता हुआ, [निर्मल-शुद्ध-बोध-महिमा ]
जिसकी शुद्धज्ञानमहिमा निर्मल है ऐसा वर्तता हुआ, [स्वद्रव्यम् एव आश्रयेत् ] स्वद्रव्यका ही
आश्रय करता है
मानकर निज द्रव्यमें रमता है
व्यापार है उसमें प्रवर्तता हुआ, [पुमांसम् अभितः बहिः पतन्तम् पश्यन् ] आत्माको सम्पूर्णतया
बाहर (परक्षेत्रमें) पड़ता देखकर (
निरुद्ध-रभसः ] स्वक्षेत्रसे अस्तित्वके कारण जिसका वेग रुका हुआ है ऐसा होता हुआ (अर्थात्
स्वक्षेत्रमें वर्तता हुआ), [आत्म-निखात-बोध्य-नियत-व्यापार-शक्तिः भवन् ] आत्मामें ही
आकाररूप हुए ज्ञेयोंमें निश्चित व्यापारकी शक्तिवाला होकर, [तिष्ठति ] टिकता है
और स्याद्वादी तो, ‘परक्षेत्रमें रहे हुए ज्ञेयोंको जानता हुआ अपने क्षेत्रमें रहा हुआ आत्मा स्वक्षेत्रसे
अस्तित्व धारण करता है’ ऐसा मानता हुआ टिकता है
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तुच्छीभूय पशुः प्रणश्यति चिदाकारान् सहार्थैर्वमन्
त्यक्तार्थोऽपि न तुच्छतामनुभवत्याकारकर्षी परान्
सीदत्येव न किंचनापि कलयन्नत्यन्ततुच्छः पशुः
पूर्णस्तिष्ठति बाह्यवस्तुषु मुहुर्भूत्वा विनश्यत्स्वपि
पदार्थोंको छोड़नेसे, [अर्थैः सह चिद् आकारान् वमन् ] ज्ञेय पदार्थोंके साथ चैतन्यके आकारोंका
भी वमन करता हुआ (अर्थात् ज्ञेय पदार्थोंके निमित्तसे चैतन्यमें जो आकार होता है उनको भी
छोड़ता हुआ) [तुच्छीभूय ] तुच्छ होकर [प्रणश्यति ] नाशको प्राप्त होता है; [स्याद्वादी तु ] और
स्याद्वादी तो [स्वधामनि वसन् ] स्वक्षेत्रमें रहता हुआ, [परक्षेत्रे नास्तितां विदन् ] परक्षेत्रमें अपना
नास्तित्व जानता हुआ [त्यक्त-अर्थः अपि ] (परक्षेत्रमें रहे हुए) ज्ञेय पदार्थोंको छोड़ता हुआ भी
[परान् आकारकर्षी ] वह पर पदार्थोंमेंसे चैतन्यके आकारोंको खींचता है (अर्थात् ज्ञेयपदार्थोंके
निमित्तसे होनेवाले चैतन्यके आकारोंको नहीं छोड़ता) [तुच्छताम् अनुभवति न ] इसलिये
तुच्छताको प्राप्त नहीं होता
मानकर अज्ञानी एकान्तवादी परक्षेत्रमें रहे हुए ज्ञेय पदार्थोंके साथ ही साथ चैतन्यके आकारोंको
भी छोड़ देता है; इसप्रकार स्वयं चैतन्यके आकारोंसे रहित तुच्छ होता है, नाशको प्राप्त होता है
छोड़कर भी चैतन्यके आकारोंको नहीं छोड़ता; इसलिये वह तुच्छ नहीं होता, नष्ट नहीं होता
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र्ज्ञेयालम्बनलालसेन मनसा भ्राम्यन् पशुर्नश्यति
स्तिष्ठत्यात्मनिखातनित्यसहजज्ञानैकपुंजीभवन्
जानता हुआ, [न किञ्चन अपि कलयन् ] और इसप्रकार ज्ञानको कुछ भी (वस्तु) न जानता
हुआ (अर्थात् ज्ञानवस्तुका अस्तित्व ही नहीं मानता हुआ), [अत्यन्ततुच्छः ] अत्यन्त तुच्छ होता
हुआ [सीदति एव ] नाशको प्राप्त होता है; [स्याद्वादवेदी पुनः ] और स्याद्वादका ज्ञाता तो [अस्य
निज-कालतः अस्तित्वं कलयन् ] आत्माका निज कालसे अस्तित्व जानता हुआ, [बाह्यवस्तुषु मुहुः
भूत्वा विनश्यत्सु अपि ] बाह्य वस्तुएं बारम्बार होकर नाशको प्राप्त होती हैं, फि र भी [पूर्णः तिष्ठति ]
स्वयं पूर्ण रहता है
नहीं होता
ज्ञेय-आलम्बन-लालसेन-मनसा भ्राम्यन् ] बाह्य ज्ञेयोंके आलम्बनकी लालसावाले चित्तसे (बाहर)
भ्रमण करता हुआ [नश्यति ] नाशको प्राप्त होता है; [स्याद्वादवेदी पुनः ] और स्याद्वादका ज्ञाता
तो [परकालतः अस्य नास्तित्वं कलयन् ] पर कालसे आत्माका नास्तित्व जानता हुआ, [आत्म-
निखात-नित्य-सहज-ज्ञान-एक-पुञ्जीभवन् ] आत्मामें दृढ़तया रहा हुआ नित्य सहज ज्ञानके
पुंजरूप वर्तता हुआ [तिष्ठति ] टिकता है
इसलिये ज्ञेयोंसे भिन्न ऐसा ज्ञानके पुंजरूप वर्तता हुआ नाशको प्राप्त नहीं होता
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नश्यत्येव पशुः स्वभावमहिमन्येकान्तनिश्चेतनः
सर्वस्मान्नियतस्वभावभवनज्ञानाद्विभक्तो भवन्
स्याद्वादी तु न नाशमेति सहजस्पष्टीकृतप्रत्ययः
सर्वत्राप्यनिवारितो गतभयः स्वैरं पशुः क्रीडति
दारूढः परभावभावविरहव्यालोकनिष्कम्पितः
महिमनि एकान्त-निश्चेतनः ] (अपने) स्वभावकी महिमामें अत्यन्त निश्चेतन (जड़) वर्तता
हुआ, [नश्यति एव ] नाशको प्राप्त होता है; [स्याद्वादी तु ] और स्याद्वादी तो [नियत-स्वभाव-
भवन-ज्ञानात् सर्वस्मात् विभक्तः भवन् ] (अपने) नियत स्वभावके भवनस्वरूप ज्ञानके कारण
सब (परभावों) से भिन्न वर्तता हुआ, [सहज-स्पष्टीकृत-प्रत्ययः ] जिसने सहज स्वभावका
प्रतीतिरूप ज्ञातृत्व स्पष्ट
होने पर भी ज्ञानभावका स्वभावसे अस्तित्व जानता हुआ, आत्माका नाश नहीं करता
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निर्ज्ञानात्क्षणभंगसंगपतितः प्रायः पशुर्नश्यति
टंकोत्कीर्णघनस्वभावमहिम ज्ञानं भवन् जीवति
ज्ञेय पदार्थोंके भावरूप है, ऐसा मानकर) शुद्ध स्वभावसे च्युत होता हुआ, [अनिवारितः सर्वत्र अपि
स्वैरं गतभयः क्रीडति ] किसी परभावको शेष रखे बिना सर्व परभावोंमें स्वच्छन्दतापूर्वक निर्भयतासे
(निःशंकतया) क्रीड़ा करता है; [स्याद्वादी तु ] और स्याद्वादी तो [स्वस्य स्वभावं भरात् आरूढः ]
अपने स्वभावमें अत्यन्त आरूढ़ होता हुआ, [परभाव-भाव-विरह-व्यालोक-निष्कम्पितः ]
परभावरूप भवनके अभावकी दृष्टिके कारण (अर्थात् आत्मा परद्रव्योंके भावरूपसे नहीं है
परभावोंको जानता हुआ भी, अपने शुद्ध ज्ञानस्वभावको सर्व परभावोंसे भिन्न अनुभव करता हुआ,
शोभित होता है
[क्षणभङ्ग-संग-पतितः ]
चैतन्यात्मकताके द्वारा चैतन्यवस्तुको नित्य-उदित अनुभव करता हुआ, [टंकोत्कीर्ण-घन-स्वभाव-
महिम ज्ञानं भवन् ] टंकोत्कीर्णघनस्वभाव (टंकोत्कीर्ण पिंडरूप स्वभाव) जिसकी महिमा है ऐसे
ज्ञानरूप वर्तता हुआ, [जीवति ] जीता है
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वांछत्युच्छलदच्छचित्परिणतेर्भिन्नं पशुः किंचन
स्याद्वादी तदनित्यतां परिमृशंश्चिद्वस्तुवृत्तिक्रमात्
तो, यद्यपि ज्ञान ज्ञेयानुसार उत्पन्न-विनष्ट होता है फि र भी, चैतन्यभावका नित्य उदय अनुभव करता
हुआ जीता है
(सर्वथा नित्य) आत्मतत्त्वकी आशासे, [उच्छलत्-अच्छ-चित्परिणतेः भिन्नं किञ्चन
वाञ्छति ] उछलती हुई निर्मल चैतन्यपरिणतिसे भिन्न कुछ (आत्मतत्त्वको) चाहता है (किन्तु
ऐसा कोई आत्मतत्त्व है नहीं); [स्याद्वादी ] और स्याद्वादी तो, [चिद्-वस्तु-वृत्ति-क्रमात् तद्-
अनित्यतां परिमृशन् ] चैतन्यवस्तुकी वृत्तिके (
नित्य ऐसे ज्ञानको अनित्यतासे व्याप्त होने पर भी उज्ज्वल (
परिणामके अतिरिक्त कोई पृथक् परिणामी तो नहीं होता
चैतन्यपरिणतिके क्रमके कारण ज्ञान अनित्य भी है; ऐसा ही वस्तुस्वभाव है