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श्लोकार्थ : — [इति ] इसप्रकार [अनेकान्तः ] अनेकान्त अर्थात् स्याद्वाद [अज्ञान- विमूढानां ज्ञानमात्रं आत्मतत्त्वम् प्रसाधयन् ] अज्ञानमूढ़ प्राणियोंको ज्ञानमात्र आत्मतत्त्व प्रसिद्ध करता हुआ, [स्वयमेव अनुभूयते ] स्वयमेव अनुभवमें आता है।
भावार्थ : — ज्ञानमात्र आत्मवस्तु अनेकान्तमय है। परन्तु अनादि कालसे प्राणी अपने आप अथवा एकान्तवादका उपदेश सुनकर ज्ञानमात्र आत्मतत्त्व सम्बन्धी अनेक प्रकारसे पक्षपात करके ज्ञानमात्र आत्मतत्त्वका नाश करते हैं। उनको (अज्ञानी जीवोंको) स्याद्वाद ज्ञानमात्र आत्मतत्त्वका अनेकान्तस्वरूपपना प्रगट करता है — समझाता है। यदि अपने आत्माकी ओर दृष्टिपात करके — अनुभव करके देखा जाये तो (स्याद्वादके उपदेशानुसार) ज्ञानमात्र आत्मवस्तु अपने आप अनेक धर्मयुक्त प्रत्यक्ष अनुभवगोचर होती है। इसलिये हे प्रवीण पुरुषो ! तुम ज्ञानको तत्स्वरूप, अतत्स्वरूप, एकस्वरूप, अनेकस्वरूप, अपने द्रव्य-क्षेत्र-काल-भावसे सत्स्वरूप, परके द्रव्य-क्षेत्र-काल- भावसे असत्स्वरूप, नित्यस्वरूप, अनित्यस्वरूप इत्यादि अनेक धर्मस्वरूप प्रत्यक्ष अनुभवगोचर करके प्रतीतिमें लाओ। यही सम्यग्ज्ञान है। सर्वथा एकान्त मानना वह मिथ्याज्ञान है।२६२।
‘पूर्वोक्त प्रकारसे वस्तुका स्वरूप अनेकान्तमय होनेसे अनेकान्त अर्थात् स्याद्वाद सिद्ध हुआ’ इस अर्थका काव्य अब कहा जाता है : —
श्लोकार्थ : — [एवं ] इसप्रकार [अनेकान्तः ] अनेकान्त — [जैनम् अलङ्घयं शासनम् ] कि जो जिनदेवका अलंघ्य (किसीसे तोड़ा न जाय ऐसा) शासन है वह — [तत्त्व-व्यवस्थित्या ] वस्तुके यथार्थ स्वरूपकी व्यवस्थिति (व्यवस्था) द्वारा [स्वयम् स्वं व्यवस्थापयन् ] स्वयं अपने आपको स्थापित करता हुआ [व्यवस्थितः ] स्थित हुआ — निश्चित हुआ — सिद्ध हुआ।
भावार्थ : — अनेकान्त अर्थात् स्याद्वाद, वस्तुस्वरूपको यथावत् स्थापित करता हुआ, स्वतः सिद्ध हो गया। वह अनेकान्त ही निर्बाध जिनमत है और यथार्थ वस्तुस्थितिको कहनेवाला है। कहीं किसीने असत् कल्पनासे वचनमात्र प्रलाप नहीं किया है। इसलिये हे निपुण पुरुषों ! भलीभांति विचार करके प्रत्यक्ष अनुमान-प्रमाणसे अनुभव कर देखो।२६३।
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नन्वनेकान्तमयस्यापि किमर्थमत्रात्मनो ज्ञानमात्रतया व्यपदेशः ? लक्षणप्रसिद्धया लक्ष्यप्रसिद्धयर्थम् । आत्मनो हि ज्ञानं लक्षणं, तदसाधारणगुणत्वात् । तेन ज्ञानप्रसिद्धया तल्लक्ष्यस्यात्मनः प्रसिद्धिः ।
ननु किमनया लक्षणप्रसिद्धया, लक्ष्यमेव प्रसाधनीयम् । नाप्रसिद्धलक्षणस्य लक्ष्यप्रसिद्धिः, प्रसिद्धलक्षणस्यैव तत्प्रसिद्धेः ।
ननु किं तल्लक्ष्यं यज्ज्ञानप्रसिद्धया ततो भिन्नं प्रसिध्यति ? न ज्ञानाद्भिन्नं लक्ष्यं, ज्ञानात्मनोर्द्रव्यत्वेनाभेदात् ।
(कथन, नाम) किया जाता है ? (यद्यपि आत्मा अनन्त धर्मयुक्त है तथापि उसे ज्ञानरूपसे क्यों कहा जाता है ? ज्ञानमात्र कहनेसे तो अन्य धर्मोंका निषेध समझा जाता है।)
(उत्तर : — ) लक्षणकी प्रसिद्धिके द्वारा लक्ष्यकी प्रसिद्धि करनेके लिये आत्माका ज्ञानमात्ररूपसे व्यपदेश किया जाता है। आत्माका ज्ञान लक्षण है, क्योंकि ज्ञान आत्माका असाधारण गुण है ( – अन्य द्रव्योंमें ज्ञानगुण नहीं है)। इसलिये ज्ञानकी प्रसिद्धिके द्वारा उसके लक्ष्यकी — आत्माकी — प्रसिद्धि होती है।
प्रश्न : — इस लक्षणकी प्रसिद्धिसे क्या प्रयोजन है ? मात्र लक्ष्य ही प्रसाध्य अर्थात् प्रसिद्धि करने योग्य है। (इसलिये लक्षणको प्रसिद्धि किये बिना मात्र लक्ष्यको ही — आत्माको ही — प्रसिद्ध क्यों नहीं करते ?)
(उत्तर : — ) जिसे लक्षण अप्रसिद्ध हो उसे (अर्थात् जो लक्षणको नहीं जानता ऐसे अज्ञानी जनको) लक्ष्यकी प्रसिद्धि नहीं होती। जिसे लक्षण प्रसिद्ध होता है उसीको लक्ष्यकी प्रसिद्धि होती है। (इसलिये अज्ञानीको पहले लक्षण बतलाते हैं तब वह लक्ष्यको ग्रहण कर सकता है।)
(प्रश्न : — ) ऐसा कौनसा लक्ष्य है कि जो ज्ञानकी प्रसिद्धिके द्वारा उससे ( – ज्ञानसे) भिन्न प्रसिद्ध होता है ?
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ज्ञानमात्रस्य स्वसंवेदनसिद्धत्वात्ः तेन प्रसिद्धेन प्रसाध्यमानस्तदविनाभूतानन्तधर्मसमुदयमूर्तिरात्मा । ततो ज्ञानमात्राचलितनिखातया द्रष्टया क्रमाक्रमप्रवृत्तं तदविनाभूतं अनन्तधर्मजातं यद्यावल्लक्ष्यते तत्तावत्समस्तमेवैकः खल्वात्मा । एतदर्थमेवात्रास्य ज्ञानमात्रतया व्यपदेशः ।
ननु क्रमाक्रमप्रवृत्तानन्तधर्ममयस्यात्मनः कथं ज्ञानमात्रत्वम् ? परस्परव्यतिरिक्तानन्तधर्म- समुदायपरिणतैकज्ञप्तिमात्रभावरूपेण स्वयमेव भवनात् । अत एवास्य ज्ञानमात्रैकभावान्तः-
(उत्तर : — ) प्रसिद्धत्व और १प्रसाध्यमानत्वके कारण लक्षण और लक्ष्यका विभाग किया गया है। ज्ञान प्रसिद्ध है, क्योंकि ज्ञानमात्रको स्वसंवेदनसे सिद्धपना है (अर्थात् ज्ञान सर्व प्राणियोंको स्वसंवेदनरूप अनुभवमें आता है); वह प्रसिद्ध ऐसे ज्ञानके द्वारा प्रसाध्यमान, तद्-अविनाभूत ( – ज्ञानके साथ अविनाभावी सम्बन्धवाला) अनन्त धर्मोंका समुदायरूप मूर्ति आत्मा है। (ज्ञान प्रसिद्ध है; और ज्ञानके साथ जिनका अविनाभावी सम्बन्ध है ऐसे अनन्त धर्मोंका समुदायस्वरूप आत्मा उस ज्ञानके द्वारा प्रसाध्यमान है।) इसलिये ज्ञानमात्रमें अचलितपनेसे स्थापित दृष्टिके द्वारा, क्रमरूप और अक्रमरूप प्रवर्तमान, तद्-अविनाभूत ( – ज्ञानके साथ अविनाभावी सम्बन्धवाला) अनन्तधर्मसमूह जो कुछ जितना लक्षित होता है, वह सब वास्तवमें एक आत्मा है।
किसप्रकार है ?
(उत्तर : — ) परस्पर भिन्न ऐसे अनन्त धर्मोंके समुदायरूपसे परिणत एक ज्ञप्तिमात्र भावरूपसे स्वयं ही है, इसलिये (अर्थात् परस्पर भिन्न ऐसे अनन्त धर्मोंके समुदायरूपसे परिणमित जो एक जाननक्रिया है, उस जाननक्रियामात्र भावरूपसे स्वयं ही है, इसलिये) आत्माके ज्ञानमात्रता है। इसीलिये उसके ज्ञानमात्र एकभावकी अन्तःपातिनी ( – ज्ञानमात्र एक भावके भीतर आ जानेवाली – ) अनंत शक्तियाँ उछलती हैं। (आत्माके जितने धर्म हैं उन सबको, लक्षणभेदसे भेद होने पर भी, प्रदेशभेद नहीं है; आत्माके एक परिणाममें सभी धर्मोंका परिणमन रहता है। इसलिये आत्माके एक ज्ञानमात्र भावके भीतर अनन्त शक्तियाँ रहती हैं। इसलिये ज्ञानमात्र भावमें — ज्ञानमात्र भावस्वरूप आत्मामें — अनन्त शक्तियाँ उछलती हैं।) उनमेंसे कितनी ही शक्तियाँ निम्न प्रकार हैं —
आत्मद्रव्यके कारणभूत ऐसे चैतन्यमात्र भावका धारण जिसका लक्षण अर्थात् स्वरूप है ऐसी जीवत्वशक्ति। (आत्मद्रव्यके कारणभूत ऐसे चैतन्यमात्रभावरूपी भावप्राणका धारण १ प्रसाध्यमान = प्रसिद्ध कि या जाता हो। (ज्ञान प्रसिद्ध है और आत्मा प्रसाध्यमान है।)
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पातिन्योऽनन्ताः शक्त यः उत्प्लवन्ते । — आत्मद्रव्यहेतुभूतचैतन्यमात्रभावधारणलक्षणा जीवत्व- शक्ति : १ । अजडत्वात्मिका चितिशक्ति : २ । अनाकारोपयोगमयी द्रशिशक्ति : ३ । साकारोपयोगमयी ज्ञानशक्ति : ४ । अनाकुलत्वलक्षणा सुखशक्ति : ५ । स्वरूपनिर्वर्तनसामर्थ्यरूपा वीर्यशक्ति : ६ । अखण्डितप्रतापस्वातन्त्र्यशालित्वलक्षणा प्रभुत्वशक्ति : ७। सर्वभावव्यापकैक- भावरूपा विभुत्वशक्ति : ८ । विश्वविश्वसामान्यभावपरिणतात्मदर्शनमयी सर्वदर्शित्वशक्ति : ९ । विश्वविश्वविशेषभावपरिणतात्मज्ञानमयी सर्वज्ञत्वशक्ति : १० । नीरूपात्मप्रदेशप्रकाशमान- लोकालोकाकारमेचकोपयोगलक्षणा स्वच्छत्वशक्ति : ११ । स्वयम्प्रकाशमानविशदस्व- संवित्तिमयी प्रकाशशक्ति : १२ । क्षेत्रकालानवच्छिन्नचिद्विलासात्मिका असंकु चितविकाशत्व- करना जिसका लक्षण है ऐसी जीवत्व नामक शक्ति ज्ञानमात्र भावमें – आत्मामें – उछलती है)।१। अजड़त्वस्वरूप चितिशक्ति (अजड़त्व अर्थात् चेतनत्व जिसका स्वरूप है ऐसी चितिशक्ति।)।२। अनाकार उपयोगमयी दृशिशक्ति। (जिसमें ज्ञेयरूप आकार अर्थात् विशेष नहीं है ऐसे दर्शनोपयोगमयी — सत्तामात्र पदार्थमें उपयुक्त होनेरूप — दृशिशक्ति अर्थात् दर्शनक्रियारूप शक्ति।)।३। साकार उपयोगमयी ज्ञानशक्ति। (जो ज्ञेय पदार्थोंके विशेषरूप आकारोंमें उपयुक्त होती है ऐसी ज्ञानोपयोगमयी ज्ञानशक्ति।)।४। अनाकुलता जिसका लक्षण अर्थात् स्वरूप है ऐसी सुखशक्ति।५। स्वरूपकी ( – आत्मस्वरूपकी) रचनाकी सामर्थ्यरूप वीर्यशक्ति।६। जिसका प्रताप अखण्डित है अर्थात् किसीसे खण्डित की नहीं जा सकती ऐसे स्वातंत्र्यसे (-स्वाधीनतासे) शोभायमानपना जिसका लक्षण है ऐसी प्रभुत्वशक्ति।७। सर्व भावोंमें व्यापक ऐसे एक भावरूप विभुत्वशक्ति। (जैसे, ज्ञानरूपी एक भाव सर्व भावोंमें व्याप्त होता है।)।८। समस्त विश्वके सामान्य भावको देखनेरूपसे (अर्थात् सर्व पदार्थोंके समूहरूप लोकालोकको सत्तामात्र ग्रहण करनेरूपसे) परिणमित ऐसे आत्मदर्शनमयी सर्वदर्शित्वशक्ति।९। समस्त विश्वके विशेष भावोंको जाननेरूपसे परिणमित ऐसे आत्मज्ञानमयी सर्वज्ञत्वशक्ति।१०। अमूर्तिक आत्मप्रदेशोंमें प्रकाशमान लोकालोकके आकारोंसे मेचक (अर्थात् अनेक-आकाररूप) ऐसा उपयोग जिसका लक्षण है ऐसी स्वच्छत्वशक्ति। (जैसे दर्पणकी स्वच्छत्वशक्तिसे उसकी पर्यायमें घटपटादि प्रकाशित होते हैं, उसीप्रकार आत्माकी स्वच्छत्वशक्तिसे उसके उपयोगमें लोकालोकके आकार प्रकाशित होते हैं।)।११। स्वयं प्रकाशमान विशद ( – स्पष्ट) ऐसी स्वसंवेदनमयी ( – स्वानुभवमयी) प्रकाशशक्ति।१२। क्षेत्र और कालसे अमर्यादित ऐसी चिद्विलासस्वरूप ( – चैतन्यके विलासस्वरूप) असंकुचितविकासत्वशक्ति।१३। जो अन्यसे नहीं किया जाता और
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शक्ति : १३ । अन्याक्रियमाणान्याकारकैकद्रव्यात्मिका अकार्यकारणत्वशक्ति : १४ । परात्म- निमित्तकज्ञेयज्ञानाकारग्रहणग्राहणस्वभावरूपा परिणम्यपरिणामकत्वशक्ति : १५ । अन्यूनाति- रिक्त स्वरूपनियतत्वरूपा त्यागोपादानशून्यत्वशक्ति : १६ । षट्स्थानपतितवृद्धिहानि- परिणतस्वरूपप्रतिष्ठत्वकारणविशिष्टगुणात्मिका अगुरुलघुत्वशक्ति : १७ । क्रमाक्रमवृत्त- वृत्तित्वलक्षणा उत्पादव्ययध्रुवत्वशक्ति : १८ । द्रव्यस्वभावभूतध्रौव्यव्ययोत्पादालिंगितसद्रश- विसद्रशरूपैकास्तित्वमात्रमयी परिणामशक्ति : १९ । कर्मबन्धव्यपगमव्यंजितसहजस्पर्शादि- शून्यात्मप्रदेशात्मिका अमूर्तत्वशक्ति : २० । सकलकर्मकृतज्ञातृत्वमात्रातिरिक्त परिणाम- अन्यको नहीं करता ऐसे एक द्रव्यस्वरूप अकार्यकारणत्वशक्ति। (जो अन्यका कार्य नहीं है और अन्यका कारण नहीं है ऐसा जो एक द्रव्य उस-स्वरूप अकार्यकारणत्व- शक्ति।)।१४। पर और स्व जिनके निमित्त हैं ऐसे ज्ञेयाकारों तथा ज्ञानाकारोंको ग्रहण करनेके और ग्रहण करानेके स्वभावरूप परिणम्यपरिणामकत्व शक्ति। ( – पर जिनके कारण हैं ऐसे ज्ञेयाकारोंको ग्रहण करनेके और स्व जिनका कारण है ऐसे ज्ञानाकारोंको ग्रहण करानेके स्वभावरूप परिणम्यपरिणामकत्वशक्ति।)।१५। जो कमबढ़ नहीं होता ऐसे स्वरूपमें नियतत्वरूप ( – निश्चित्तया यथावत् रहनेरूप – ) त्यागोपादानशून्यत्वशक्ति।१६। षट्स्थानपतित वृद्धिहानिरूपसे परिणमित, स्वरूप-प्रतिष्ठत्वके कारणरूप ( – वस्तुके स्वरूपमें रहनेके कारणरूप) ऐसा जो विशिष्ट ( – खास) गुण है उस-स्वरूप अगुरुलघुत्व शक्ति। [इस षट्स्थानपतित वृद्धिहानिका स्वरूप ‘गोम्मटसार’ ग्रन्थसे जानना चाहिये। अविभाग प्रतिच्छेदोंकी संख्यारूप षट्स्थानोंमें पतित — समाविष्ट — वस्तुस्वभावकी वृद्धिहानि जिससे ( – जिस गुणसे) होती है और जो (गुण) वस्तुको स्वरूपमें स्थिर होनेका कारण है ऐसा कोई गुण आत्मामें है; उसे अगुरुलघुत्वगुण कहा जाता है। ऐसी अगुरुलघुत्वशक्ति भी आत्मामें है]।१७। क्रमप्रवृत्तिरूप और अक्रमप्रवृत्तिरूप वर्त्तन जिसका लक्षण है ऐसी उत्पादव्ययध्रुवशक्ति। (क्रमवृत्तिरूप पर्याय उत्पादव्ययरूप है और अक्रमवृत्तिरूप गुण ध्रुवत्वरूप है।)।१८। द्रव्यके स्वभावभूत ध्रौव्य-व्यय-उत्पादसे आलिंगित (-स्पर्शित), सदृश और विसदृश जिसका रूप है ऐसे एक अस्तित्वमात्रमयी परिणामशक्ति।१९। कर्मबन्धके अभावसे व्यक्त किये गये, सहज, स्पर्शादि-शून्य ( – स्पर्श, रस, गंध और वर्णसे रहित) ऐसे आत्मप्रदेशस्वरूप अमूर्तत्वशक्ति।२०। समस्त, कर्मोके द्वारा किये गये, ज्ञातृत्वमात्रसे भिन्न जो परिणाम उन परिणामोंके करणके १उपरमस्वरूप (उन परिणामोंको करनेकी निवृत्तिस्वरूप) अकर्तृत्वशक्ति। (जिस शक्तिसे आत्मा ज्ञातृत्वके अतिरिक्त कर्मोंसे किये गये परिणामोंका कर्ता १उपरम = निवृत्ति; अन्त; अभाव।
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करणोपरमात्मिका अकर्तृत्वशक्ति : २१ । सकलकर्मकृतज्ञातृत्वमात्रातिरिक्त परिणामानुभवो- परमात्मिका अभोक्तृत्वशक्ति : २२ । सकलकर्मोपरमप्रवृत्तात्मप्रदेशनैष्पन्द्यरूपा निष्क्रियत्व- शक्ति : २३ । आसंसारसंहरणविस्तरणलक्षितकिंचिदूनचरमशरीरपरिमाणावस्थितलोकाकाश- सम्मितात्मावयवत्वलक्षणा नियतप्रदेशत्वशक्ति : २४ । सर्वशरीरैकस्वरूपात्मिका स्वधर्म- व्यापकत्वशक्ति : २५ । स्वपरसमानासमानसमानासमानत्रिविधभावधारणात्मिका साधारणा- साधारणसाधारणासाधारणधर्मत्वशक्ति : २६ । विलक्षणानन्तस्वभावभावितैकभावलक्षणा अनन्त- धर्मत्वशक्ति : २७ । तदतद्रूपमयत्वलक्षणा विरुद्धधर्मत्वशक्ति : २८ । तद्रूपभवनरूपा तत्त्व- शक्ति : २९ । अतद्रूपभवनरूपा अतत्त्वशक्ति : ३० । अनेकपर्यायव्यापकैकद्रव्यमयत्वरूपा एकत्व- नहीं होता, ऐसी अकर्तृत्व नामक एक शक्ति आत्मामें है)।२१। समस्त, कर्मोंसे किये गये, ज्ञातृत्वमात्रसे भिन्न परिणामोंके अनुभवके ( – भोक्तृत्वके) उपरमस्वरूप अभोक्तृत्वशक्ति।२२। समस्त कर्मोंके उपरमसे प्रवृत्त आत्मप्रदेशोंकी निष्पन्दतास्वरूप (-अकम्पतास्वरूप) निष्क्रियत्वशक्ति। (जब समस्त कर्मोंका अभाव हो जाता है तब प्रदेशोंका कम्पन मिट जाता है, इसलिये निष्क्रियत्व-शक्ति भी आत्मामें है।)।२३। जो अनादि संसारसे लेकर संकोचविस्तारसे लक्षित है और जो चरम शरीरके परिमाणसे कुछ न्यून परिमाणसे अवस्थित होता है ऐसा लोकाकाशके माप जितना मापवाला आत्म-अवयवत्व जिसका लक्षण है ऐसी नियतप्रदेशत्वशक्ति। (आत्माके लोकपरिमाण असंख्य प्रदेश नियत ही हैं। वे प्रदेश संसार- अवस्थामें संकोचविस्तारको प्राप्त होते हैं और मोक्ष-अवस्थामें चरम शरीरसे कुछ कम परिमाणसे स्थित रहते हैं।)।२४। सर्व शरीरोंमें एकस्वरूपात्मक ऐसी स्वधर्मव्यापकत्वशक्ति। (शरीरके धर्मरूप न होकर अपने धर्मोंमें व्यापनेरूप शक्ति सो स्वधर्मव्यापकत्वशक्ति है।)।२५। स्व-परके समान, असमान और समानासमान ऐसे तीन प्रकारके भावोंके धारणस्वरूप साधारण-असाधारण-साधारणासाधारणधर्मत्वशक्ति।२६। विलक्षण ( – परस्पर भिन्न लक्षणयुक्त) अनन्त स्वभावोंसे भावित ऐसा एक भाव जिसका लक्षण है ऐसी अनन्तधर्मत्वशक्ति।२७। तद्रूपमयता और अतद्रूपमयता जिसका लक्षण है ऐसी विरुद्धधर्मत्वशक्ति।२८। तद्रूप भवनरूप ऐसी तत्त्वशक्ति। (तत्स्वरूप होनेरूप अथवा तत्स्वरूप परिणमनरूप ऐसी तत्त्वशक्ति आत्मामें है। इस शक्तिसे चेतन चेतनरूपसे रहता है – परिणमित होता है।)।२९। अतद्रूप भवनरूप ऐसी अतत्त्वशक्ति। (तत्स्वरूप नहीं होनेरूप अथवा तत्स्वरूप नहीं परिणमनेरूप अतत्त्वशक्ति आत्मामें है। इस शक्तिसे चेतन जड़रूप नहीं होता।)।३०। अनेक पर्यायोंमें व्यापक ऐसी एकद्रव्यमयतारूप एकत्वशक्ति।३१।
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शक्ति : ३१ । एकद्रव्यव्याप्यानेकपर्यायमयत्वरूपा अनेकत्वशक्ति : ३२ । भूतावस्थत्वरूपा भाव- शक्ति : ३३ । शून्यावस्थत्वरूपा अभावशक्ति : ३४ । भवत्पर्यायव्ययरूपा भावाभावशक्ति : ३५ । अभवत्पर्यायोदयरूपा अभावभावशक्ति : ३६ । भवत्पर्यायभवनरूपा भावभावशक्ति : ३७ । अभवत्पर्यायाभवनरूपा अभावाभावशक्ति : ३८ । कारकानुगतक्रियानिष्क्रान्तभवनमात्रमयी भावशक्ति : ३९ । कारकानुगतभवत्तारूपभावमयी क्रियाशक्ति : ४० । प्राप्यमाणसिद्धरूप- भावमयी कर्मशक्ति : ४१ । भवत्तारूपसिद्धरूपभावभावकत्वमयी कर्तृशक्ति : ४२ । भवद्भाव- भवनसाधकतमत्वमयी करणशक्ति : ४३ । स्वयं दीयमानभावोपेयत्वमयी सम्प्रदानशक्ति : ४४ । उत्पादव्ययालिंगितभावापायनिरपायध्रुवत्वमयी अपादानशक्ति : ४५ । भाव्यमानभावाधारत्वमयी अधिकरणशक्ति : ४६ । स्वभावमात्रस्वस्वामित्वमयी सम्बन्धशक्ति : ४७ । एक द्रव्यसे व्याप्य जो अनेक पर्याये उस-मयपनेरूप अनेकत्वशक्ति।३२। विद्यमान- अवस्थायुक्ततारूप भावशक्ति। (अमुक अवस्था जिसमें विद्यमान हो उसरूप भावशक्ति)।३३। शून्य ( – अविद्यमान) अवस्थायुक्ततारूप अभावशक्ति। (अमुक अवस्था जिसमें अविद्यमान हो उसरूप अभावशक्ति)।३४। भवते हुए (प्रवर्त्तमान) पर्यायके व्ययरूप भावाभावशक्ति।३५। नहीं भवते हुए (अप्रवर्त्तमान) पर्यायके उदयरूप अभावभावशक्ति।३६। भवते हुए (प्रवर्तमान) पर्यायके भवनरूप भावभावशक्ति।३७। नहीं भवते हुये (अप्रवर्तमान) पर्यायके अभवनरूप अभावाभाव शक्ति।३८। (कर्त्ता, कर्म आदि) कारकोंके अनुसार जो क्रिया उससे रहित भवनमात्रमयी ( – होनेमात्रमयी) भाव- शक्ति।३९। कारकोंके अनुसार परिणमित होनेरूप भावमयी क्रियाशक्ति।४०। प्राप्त किया जाता जो सिद्धरूप भाव उसमयी कर्मशक्ति।४१। होनेपनरूप और सिद्धरूप भावके भावकत्वमयी कर्तृशक्ति।४२। भवते हुये (प्रवर्तमान) भावके भवनके ( – होनेके) साधक-तमपनेमयी ( – उत्कृष्ट साधकत्वमयी, उग्र साधनत्वमयी) करणशक्ति।४३। अपने द्वारा दिया जाता जो भाव उसके उपेयत्वमय ( – उसे प्राप्त करनेके योग्यपनामय, उसे लेनेके पात्रपनामय) सम्प्रदानशक्ति।४४। उत्पादव्ययसे आलिंगित भावका अपाय ( – हानि, नाश) होनेसे हानिको प्राप्त न होनेवाले ध्रुवत्वमयी अपादानशक्ति।४५। भाव्यमान (अर्थात् भावनेमें आते हुये) भावके आधारत्वमयी अधिकरणशक्ति।४६। स्वभावमात्र स्व-स्वामित्वमयी सम्बन्धशक्ति। (अपना भाव अपना स्व है और स्वयं उसका स्वामी है — ऐसे सम्बन्धमयी सम्बन्ध-शक्ति)।४७।
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यो ज्ञानमात्रमयतां न जहाति भावः ।
तद्द्रव्यपर्ययमयं चिदिहास्ति वस्तु ।।२६४।।
ज्ञानीभवन्ति जिननीतिमलंघयन्तः ।।२६५।।
‘इत्यादि अनेक शक्तियोंसे युक्त आत्मा है तथापि वह ज्ञानमात्रताको नहीं छोड़ता’ — इस अर्थका कलशरूप काव्य कहते हैं : —
श्लोकार्थ : — [इत्यादि-अनेक-निज-शक्ति-सुनिर्भरः अपि ] इत्यादि ( – पूर्व कथित ४७ शक्तियाँ इत्यादि) अनेक निज शक्तियोंसे भलीभाँति परिपूर्ण होने पर भी [यः भावः ज्ञानमात्रमयतां न जहाति ] जो भाव ज्ञानमात्रमयताको नहीं छोड़ता, [तद् ] ऐसा वह, [एवं क्रम-अक्रम-विवर्ति- विवर्त-चित्रम् ] पूर्वोक्त प्रकारसे क्रमरूप और अक्रमरूपसे वर्तमान विवर्त्तसे ( – रूपान्तरसे, परिणमनसे) अनेक प्रकारका, [द्रव्य-पर्ययमयं ] द्रव्यपर्यायमय [चिद् ] चैतन्य (अर्थात् ऐसा वह चैतन्य भाव – आत्मा) [इह ] इस लोकमें [वस्तु अस्ति ] वस्तु है।
भावार्थ : — कोई यह समझ सकता है कि आत्माको ज्ञानमात्र कहा है, इसलिये वह एकस्वरूप ही होगा। किन्तु ऐसा नहीं है। वस्तुका स्वरूप द्रव्यपर्यायमय है। चैतन्य भी वस्तु है, द्रव्यपर्यायमय है। वह चैतन्य अर्थात् आत्मा अनन्त शक्तियोंसे परिपूर्ण है और क्रमरूप तथा अक्रमरूप अनेक प्रकारके परिणामोंके विकारोंके समूहरूप अनेकाकार होता है फि र भी ज्ञानको — जो कि असाधारणभाव है उसे — नहीं छोड़ता, उसकी समस्त अवस्थाएं — परिणाम — पर्याय ज्ञानमय ही हैं।२६४।
‘इस अनेकस्वरूप — अनेकान्तमय — वस्तुको जो जानते हैं, श्रद्धा करते हैं और अनुभव करते हैं, वे ज्ञानस्वरूप होते हैं’ — इस आशयका, स्याद्वादका फल बतलानेवाला काव्य अब कहते हैं —
श्लोकार्थ : — [इति वस्तु-तत्त्व-व्यवस्थितिम् नैकान्त-सङ्गत-दृशा स्वयमेव प्रविलोकयन्तः ] ऐसी (अनेकान्तात्मक) वस्तुतत्त्वकी व्यवस्थितिको अनेकान्त-संगत
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स्वयं साधकसिद्धरूपोभयपरिणामित्वात् । तत्र यत्साधकं रूपं स उपायः, यत्सिद्धं रूपं स उपेयः । अतोऽस्यात्मनोऽनादिमिथ्यादर्शनज्ञानचारित्रैः स्वरूपप्रच्यवनात् संसरतः सुनिश्चल- परिगृहीतव्यवहारसम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रपाकप्रकर्षपरम्परया क्रमेण स्वरूपमारोप्यमाणस्यान्त- र्मग्ननिश्चयसम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रविशेषतया साधकरूपेण तथा परमप्रकर्षमकरिकाधिरूढ- (अनेकान्तके साथ सुसंगत, अनेकान्तके साथ मेलवाली) दृष्टिके द्वारा स्वयमेव देखते हुए, [स्याद्वाद-शुद्धिम् अधिकाम् अधिगम्य ] स्याद्वादकी अत्यन्त शुद्धिको जानकर, [जिन-नीतिम् अलङ्घयन्तः ] जिननीतिका (जिनेश्वरदेवके मार्गका) उल्लंघन न करते हुए, [सन्तः ज्ञानीभवन्ति ] सत्पुरुष ज्ञानस्वरूप होते हैं।
भावार्थ : — जो सत्पुरुष अनेकान्तके साथ सुसंगत दृष्टिके द्वारा अनेकान्तमय वस्तुस्थितिको देखते हैं, वे इसप्रकार स्याद्वादकी शुद्धिको प्राप्त करके — जान करके जिनदेवके मार्गको – स्याद्वादन्यायको — उल्लंघन न करते हुए, ज्ञानस्वरूप होते हैं।२६५।
इसप्रकार स्याद्वादके सम्बन्धमें कहकर, अब आचार्यदेव उपाय-उपेयभावके सम्बन्धमें कुछ कहते हैं : —
अब इसके ( – ज्ञानमात्र आत्मवस्तुके) १उपाय-उपेयभाव विचारा जाता है (अर्थात् आत्मवस्तु ज्ञानमात्र है फि र भी उसमें उपायत्व और उपेयत्व दोनों कैसे घटित होते हैं सो इसका विचार किया जाता है :
आत्मवस्तुको ज्ञानमात्रता होने पर भी उसे उपाय-उपेयभाव (उपाय-उपेयपना) है ही, क्योंकि वह एक होने पर भी २स्वयं साधकरूपसे और सिद्धरूपसे — दोनों प्रकारसे परिणमित होता है। उसमें जो साधक रूप है वह उपाय है और जो सिद्ध रूप है वह उपेय है। इसलिये, अनादि कालसे मिथ्यादर्शनज्ञानचारित्र द्वारा (मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र द्वारा) स्वरूपसे च्युत होनेके कारण संसारमें भ्रमण करते हुए, सुनिश्चलतया ग्रहण किये गये व्यवहारसम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रके पाकके प्रकर्षकी परम्परासे क्रमशः स्वरूपमें आरोहण कराये जानेवाले इस आत्माको, अन्तर्मग्न जो निश्चयसम्यग्दर्शनज्ञानचारित्ररूप भेद हैं उनके साथ तद्रूपताके १उपेय अर्थात् प्राप्त करने योग्य, और उपाय अर्थात् प्राप्त करने योग्य जिसके द्वारा प्राप्त किया जावे। आत्माका
शुद्ध (-सर्व कर्म रहित) स्वरूप अथवा मोक्ष उपेय है, और मोक्षमार्ग उपाय है। २आत्मा परिणामी है और साधकत्व तथा सिद्धत्व ये दोनों उसके परिणाम हैं।
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रत्नत्रयातिशयप्रवृत्तसकलकर्मक्षयप्रज्वलितास्खलितविमलस्वभावभावतया सिद्धरूपेण च स्वयं परिणममानं ज्ञानमात्रमेकमेवोपायोपेयभावं साधयति । एवमुभयत्रापि ज्ञानमात्रस्यानन्यतया नित्यमस्खलितैकवस्तुनो निष्कम्पपरिग्रहणात् तत्क्षण एव मुमुक्षूणामासंसारादलब्धभूमिकानामपि भवति भूमिकालाभः । ततस्तत्र नित्यदुर्ललितास्ते स्वत एव क्रमाक्रमप्रवृत्तानेकान्तमूर्तयः साधकभावसम्भवपरमप्रकर्षकोटिसिद्धिभावभाजनं भवन्ति । ये तु नेमामन्तर्नीतानेकान्त- ज्ञानमात्रैकभावरूपां भूमिमुपलभन्ते ते नित्यमज्ञानिनो भवन्तो ज्ञानमात्रभावस्य स्वरूपेणाभवनं द्वारा स्वयं साधकरूपसे परिणमित होता हुआ, तथा परम प्रकर्षकी पराकाष्ठाको प्राप्त रत्नत्रयकी अतिशयतासे प्रवर्तित जो सकल कर्मका क्षय उससे प्रज्वलित (देदीप्यमान) हुवे जो अस्खलित विमल स्वभावभावत्व द्वारा स्वयं सिद्धरूपसे परिणमता ऐसा एक ही ज्ञानमात्र (भाव) उपाय- उपेयभावको सिद्ध करता है।
(भावार्थ : — यह आत्मा अनादि कालसे मिथ्यादर्शनज्ञानचारित्रके कारण संसारमें भ्रमण करता है। वह सुनिश्चलतया ग्रहण किये गये व्यवहारसम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रकी वृद्धिकी परम्परासे क्रमशः स्वरूपानुभव जबसे करता है तबसे ज्ञान साधकरूपसे परिणमित होता है, क्योंकि ज्ञानमें निश्चयसम्यग्दर्शनज्ञानचारित्ररूप भेद अन्तर्भूत हैं। निश्चय- सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रके प्रारंभसे लेकर, स्वरूपानुभवकी वृद्धि करते करते जब तक निश्चय- सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रकी पूर्णता न हो, तब तक ज्ञानका साधक रूपसे परिणमन है। जब निश्चयसम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रकी पूर्णतासे समस्त कर्मोंका नाश होता है अर्थात् साक्षात् मोक्ष होता है तब ज्ञान सिद्ध रूपसे परिणमित होता है, क्योंकि उसका अस्खलित निर्मल स्वभावभाव प्रगट देदीप्यमान हुआ है। इसप्रकार साधक रूपसे और सिद्ध रूपसे — दोनों रूपसे परिणमित होनेवाला एक ही ज्ञान आत्मवस्तुको उपाय-उपेयपना साधित करता है।)
इसप्रकार दोनोंमें ( – उपाय तथा उपेयमें – ) ज्ञानमात्रकी अनन्यता है अर्थात् अन्यपना नहीं है; इसलिये सदा अस्खलित एक वस्तुका ( – ज्ञानमात्र आत्मवस्तुका – ) निष्कम्प ग्रहण करनेसे, मुमुक्षुओंको, कि जिन्हें अनादि संसारसे भूमिकाकी प्राप्ति न हुई हो उन्हें भी, तत्क्षण ही भूमिकाकी प्राप्ति होती है; फि र उसीमें नित्य मस्ती करते हुए ( – लीन रहते हुए) वे मुमुक्षु — जो कि स्वतः ही, क्रमरूप और अक्रमरूप प्रवर्तमान अनेक अन्तकी (अनेक धर्मकी) मूर्तियाँ हैं वे — साधकभावसे उत्पन्न होनेवाली परम प्रकर्षकी १कोटिरूप सिद्धिभावके भाजन होते हैं। परन्तु जिसमें अनेक अन्त अर्थात् धर्म गर्भित हैं ऐसे एक ज्ञानमात्र भावरूप इस भूमिको जो प्राप्त नहीं करते, वे सदा अज्ञानी रहते हुए, ज्ञानमात्र भावका स्वरूपसे अभवन और पररूपसे भवन देखते ( – श्रद्धा १कोटि = अन्तिमता; उत्कृष्टता; ऊँ चेमें ऊँ चा बिन्दु; हद।
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पररूपेण भवनं पश्यन्तो जानन्तोऽनुचरन्तश्च मिथ्याद्रष्टयो मिथ्याज्ञानिनो मिथ्याचारित्राश्च भवन्तोऽत्यन्तमुपायोपेयभ्रष्टा विभ्रमन्त्येव ।
भूमिं श्रयन्ति कथमप्यपनीतमोहाः ।
मूढास्त्वमूमनुपलभ्य परिभ्रमन्ति ।।२६६।।
यो भावयत्यहरहः स्वमिहोपयुक्त : ।
पात्रीकृतः श्रयति भूमिमिमां स एकः ।।२६७।।
करते) हुए, जानते हुए तथा आचरण करते हुए, मिथ्यादृष्टि, मिथ्याज्ञानी और मिथ्याचारित्री होते हुए, उपाय-उपेयभावसे अत्यन्त भ्रष्ट होते हुए संसारमें परिभ्रमण ही करते हैं।
श्लोकार्थ : — [ये ] जो पुरुष, [कथम् अपि अपनीत-मोहाः ] किसी भी प्रकारसे जिनका मोह दूर हो गया है ऐसा होता हुआ, [ज्ञानमात्र-निज-भावमयीम् अकम्पां भूमिं ] ज्ञानमात्र निज भावमय अकम्प भूमिकाका (अर्थात् ज्ञानमात्र जो अपना भाव उस-मय निश्चल भूमिकाका) [श्रयन्ति ] आश्रय लेते हैं [ते साधकत्वम् अधिगम्य सिद्धाः भवन्ति ] वे साधकत्वको प्राप्त करके सिद्ध हो जाते हैं; [तु ] परन्तु [मूढाः ] जो मूढ़ ( – मोही, अज्ञानी, मिथ्यादृष्टि) है वे [अमूम् अनुपलभ्य ] इस भूमिकाको प्राप्न न करके [परिभ्रमन्ति ] संसारमें परिभ्रमण करते हैं।
भावार्थ : — जो भव्य पुरुष, गुरुके उपदेशसे अथवा स्वयमेव काललब्धिको प्राप्त करके मिथ्यात्वसे रहित होकर, ज्ञानमात्र अपने स्वरूपको प्राप्त करते हैं, उसका आश्रय लेते हैं; वे साधक होते हुए सिद्ध हो जाते हैं; परन्तु जो ज्ञानमात्र – निजको प्राप्त नहीं करते, वे संसारमें परिभ्रमण करते हैं।२६६।
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शुद्धप्रकाशभरनिर्भरसुप्रभातः ।
स्तस्यैव चायमुदयत्यचलार्चिरात्मा ।।२६८।।
प्रवीणता तथा (रागादिक अशुद्ध परिणतिके त्यागरूप) सुनिश्चल संयम — इन दोनोंके द्वारा [इह उपयुक्तः ] अपनेमें उपयुक्त रहता हुआ (अर्थात् अपने ज्ञानस्वरूप आत्मामें उपयोगको लगाता हुआ) [अहः अहः स्वम् भावयति ] प्रतिदिन अपनेको भाता है ( – निरन्तर अपने आत्माकी भावना करता है), [सः एकः ] वही एक (पुरुष); [ज्ञान-क्रिया-नय-परस्पर-तीव्र-मैत्री-पात्रीकृतः ] ज्ञाननय और क्रियानयकी परस्पर तीव्र मैत्रीका पात्ररूप होता हुआ, [इमाम् भूमिम् श्रयति ] इस (ज्ञान मात्र निजभावमय) भूमिकाका आश्रय करता है।
भावार्थ : — जो ज्ञाननयको ही ग्रहण करके क्रियानयको छोड़ता है, उस प्रमादी और स्वच्छन्दी पुरुषको इस भूमिकाकी प्राप्ति नहीं हुई है। जो क्रियानयको ही ग्रहण करके ज्ञाननयको नहीं जानता, उस (व्रत – समिति – गुप्तिरूप) शुभ कर्मसे संतुष्ट पुरुषको भी इस निष्कर्म भूमिकाकी प्राप्ति नहीं हुई है। जो पुरुष अनेकान्तमय आत्माको जानता है ( – अनुभव करता है) तथा सुनिश्चल संयममें प्रवृत्त है ( – रागादिक अशुद्ध परिणतिका त्याग करता है), और इसप्रकार जिसने ज्ञाननय तथा क्रियानयकी परस्पर तीव्र मैत्री सिद्ध की है, वही पुरुष इस ज्ञानमात्र निजभावमय भूमिकाका आश्रय करनेवाला है।
ज्ञाननय और क्रियानयके ग्रहण-त्यागका स्वरूप तथा फल ‘पंचास्तिकायसंग्रह’ ग्रन्थके अन्तमें कहा है, वहाँसे जानना चाहिए।२६७।
इसप्रकार जो पुरुष इस भूमिकाका आश्रय लेता है, वही अनन्त चतुष्टयमय आत्माको प्राप्त करता है — इस अर्थका काव्य कहते हैं : —
श्लोकार्थ : — [तस्य एव ] (पूर्वोक्त प्रकारसे जो पुरुष इस भूमिकाका आश्रय लेता है) उसीके, [चित्-पिण्ड-चण्डिम-विलासि-विकास-हासः ] चैतन्यपिंडके निरर्गल विलसित विकासरूप जिसका खिलना है (अर्थात् चैतन्यपुंजका अत्यन्त विकास होना ही जिसका खिलना है), [शुद्ध-प्रकाश-भर-निर्भर-सुप्रभातः ] शुद्ध प्रकाशकी अतिशयताके कारण जो सुप्रभातके समान है, [आनन्द-सुस्थित-सदा-अस्खलित-एक-रूपः ] आनन्दमें सुस्थित ऐसा जिसका सदा अस्खलित एक रूप है [च ] और [अचल-अर्चिः ] जिसकी ज्योति अचल है ऐसा [अयम् आत्मा उदयति ] यह आत्मा उदयको प्राप्त होता है
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शुद्धस्वभावमहिमन्युदिते मयीति ।
र्नित्योदयः परमयं स्फु रतु स्वभावः ।।२६९।।
सद्यः प्रणश्यति नयेक्षणखण्डयमानः ।
मेकान्तशान्तमचलं चिदहं महोऽस्मि ।।२७०।।
भावार्थ : — यहाँ ‘चित्पिंड’ इत्यादि विशेषणसे अनन्त दर्शनका प्रगट होना, ‘शुद्धप्रकाश’ इत्यादि विशेषणसे अनन्त ज्ञानका प्रगट होना, ‘आनन्दसुस्थित’ इत्यादि विशेषणसे अनन्त सुखका प्रगट होना और ‘अचलार्चि’ विशेषणसे अनन्त वीर्यका प्रगट होना बताया है। पूर्वोक्त भूमिका आश्रय लेनेसे ही ऐसे आत्माका उदय होता है।२६८।
श्लोकार्थ : — [स्याद्वाद-दीपित-लसत्-महसि ] स्याद्वाद द्वारा प्रदीप्त किया गया जगमगाहट करता जिसका तेज है और [शुद्ध-स्वभाव-महिमनि ] जिसमें शुद्धस्वभावरूप महिमा है ऐसा [प्रकाशे उदिते मयि इति ] यह प्रकाश (ज्ञानप्रकाश) जहाँ मुझमें उदयको प्राप्त हुआ है, वहाँ [बन्ध-मोक्ष-पथ-पातिभिः अन्य-भावैः किं ] बंध-मोक्षके मार्गमें पड़नेवाले अन्य भावोंसे मुझे क्या प्रयोजन है ? [नित्य-उदयः परम् अयं स्वभावः स्फु रतु ] मुझे तो मेरा नित्य उदित रहनेवाला केवल यह (अनन्तचतुष्टयरूप) स्वभाव ही स्फु रायमान हो
भावार्थ : — स्याद्वादसे यथार्थ आत्मज्ञान होनेके बाद उसका फल पूर्ण आत्माका प्रगट होना है। इसलिये मोक्षका इच्छुक पुरुष यही प्रार्थना करता है कि — मेरा पूर्णस्वभाव आत्मा मुझे प्रगट हो; बन्धमोक्षमार्गमें पड़नेवाले अन्य भावोंसे मुझे क्या काम है ?।२६९।
‘यद्यपि नयोंके द्वारा आत्मा साधित होता है तथापि यदि नयों पर ही दृष्टि रहे तो नयोंमें तो परस्पर विरोध भी है, इसलिये मैं नयोंका विरोध मिटाकर आत्माका अनुभव करता हूँ’ — इस अर्थका काव्य कहते हैं।
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न द्रव्येण खण्डयामि, न क्षेत्रेण खण्डयामि, न कालेन खण्डयामि, न भावेन खण्डयामि; सुविशुद्ध एको ज्ञानमात्रो भावोऽस्मि ।
ज्ञेयो ज्ञेयज्ञानमात्रः स नैव ।
ज्ञानज्ञेयज्ञातृमद्वस्तुमात्रः ।।२७१।।
किये जाने पर [सद्यः ] तत्काल [प्रणश्यति ] नाशको प्राप्त होता है; [तस्मात् ] इसलिये मैं ऐसा
अनुभव करता हूँ कि — [अनिराकृत-खण्डम् अखण्डम् ] जिसमेंसे खण्डोंको १निराकृत नहीं किया
कर्मोदयका लेशमात्र भी नहीं है ऐसा अत्यन्त शांत भावमय है) और [अचलम् ] अचल है (अर्थात्
कर्मोदयसे चलायमान च्युत नहीं होता) ऐसा [चिद् महः अहम् अस्मि ] चैतन्यमात्र तेज मैं हूँ।
भावार्थ : — आत्मामें अनेक शक्तियाँ हैं और एक एक शक्तिका ग्राहक एक एक नय है; इसलिये यदि नयोंकी एकान्त दृष्टिसे देखा जाये तो आत्माका खण्ड-खण्ड होकर उसका नाश हो जाये। ऐसा होनेसे स्याद्वादी, नयोंका विरोध दूर करके चैतन्यमात्र वस्तुको अनेकशक्तिसमूहरूप, सामान्यविशेषरूप, सर्वशक्तिमय एकज्ञानमात्र अनुभव करता है। ऐसा ही वस्तुका स्वरूप है, इसमें विरोध नहीं है।२७०।
(ज्ञानी शुद्धनयका आलम्बन लेकर ऐसा अनुभव करता है कि – ) मैं अपनेको अर्थात् मेरे शुद्धात्मस्वरूपको न तो द्रव्यसे खण्डित करता हूँ, न क्षेत्रसे खण्डित करता हूँ, न कालसे खण्डित करता हूँ और न भावसे खण्डित करता हूँ; सुविशुद्ध एक ज्ञानमात्र भाव हूँ।
भावार्थ : — यदि शुद्धनयसे देखा जाये तो शुद्ध चैतन्यमात्र भावमें द्रव्य – क्षेत्र – काल – भावसे कुछ भी भेद दिखाई नहीं देता। इसलिये ज्ञानी अभेदज्ञानस्वरूप अनुभवमें भेद नहीं करता।
ज्ञानमात्र भाव स्वयं ही ज्ञान है, स्वयं ही अपना ज्ञेय है और स्वयं ही अपना ज्ञाता है — इस अर्थका काव्य कहते हैं : —
श्लोकार्थ : — [यः अयं ज्ञानमात्रः भावः अहम् अस्मि सः ज्ञेय-ज्ञानमात्रः एव न ज्ञेयः ] १निराकृत = बहिष्कृत; दूर; रद-बातल; नाकबूल।
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क्वचित्पुनरमेचकं सहजमेव तत्त्वं मम ।
परस्परसुसंहतप्रकटशक्ति चक्रं स्फु रत् ।।२७२।।
जो यह ज्ञानमात्र भाव मैं हूँ वह ज्ञेयोंके ज्ञानमात्र ही नहीं जानना चाहिये; [ज्ञेय-ज्ञान-कल्लोल- वल्गन् ] (परन्तु) ज्ञेयोंके आकारसे होनेवाले ज्ञानकी कल्लोलोंके रूपमें परिणमित होता हुआ वह [ज्ञान-ज्ञेय-ज्ञातृमत्-वस्तुमात्रः ज्ञेयः ] ज्ञान-ज्ञेय-ज्ञातामय वस्तुमात्र जानना चाहिये। (अर्थात् स्वयं ही ज्ञान, स्वयं ही ज्ञेय और स्वयं ही ज्ञाता — इसप्रकार ज्ञान-ज्ञेय-ज्ञातारूप तीनों भावयुक्त वस्तुमात्र जानना चाहिये)।
भावार्थ : — ज्ञानमात्र भाव ज्ञातृक्रियारूप होनेसे ज्ञानस्वरूप है। और वह स्वयं ही निम्न प्रकारसे ज्ञेयरूप है। बाह्य ज्ञेय ज्ञानसे भिन्न है, वे ज्ञानमें प्रविष्ट नहीं होते; ज्ञेयोंके आकारकी झलक ज्ञानमें पड़ने पर ज्ञान ज्ञेयाकाररूप दिखाई देता है, परन्तु वे ज्ञानकी ही तरंगें हैं। वे ज्ञान तरंगें ही ज्ञानके द्वारा ज्ञात होती हैं। इसप्रकार स्वयं ही स्वतः जानने योग्य होनेसे ज्ञानमात्र भाव ही ज्ञेयरूप है। और स्वयं ही अपना जाननेवाला होनेसे ज्ञानमात्र भाव ही ज्ञाता है। इसप्रकार ज्ञानमात्र भाव ज्ञान, ज्ञेय और ज्ञाता – इन तीनों भावोंसे युक्त सामान्यविशेषस्वरूप वस्तु है। ‘ऐसा ज्ञानमात्र भाव मैं हूँ इसप्रकार अनुभव करनेवाला पुरुष अनुभव करता है।२७१।
आत्मा मेचक, अमेचक इत्यादि अनेक प्रकारसे दिखाई देता है तथापि यथार्थ ज्ञानी निर्मल ज्ञानको नहीं भूलता — इस अर्थका काव्य कहते हैं : —
श्लोकार्थ : — (ज्ञानी कहता है : — ) [मम तत्त्वं सहजम् एव ] मेरे तत्त्वका ऐसा स्वभाव ही है कि [क्वचित् मेचकं लसति ] कभी तो वह (आत्मतत्त्व) मेचक (अनेकाकार, अशुद्ध) दिखाई देता है, [क्वचित् मेचक-अमेचकं ] कभी मेचक-अमेचक (दोनोंरूप) दिखाई देता है [पुनः क्वचित् अमेचकं ] और कभी अमेचक (-एकाकार शुद्ध) दिखाई देता है; [तथापि ] तथापि [परस्पर-सुसंहत-प्रगट-शक्ति-चक्रं स्फु रत् तत् ] परस्पर सुसंहत (-सुमिलित, सुग्रथित) प्रगट शक्तियोंके समूहरूपसे स्फु रायमान वह आत्मतत्त्व [अमलमेधसां मनः ] निर्मल बुद्धिवालोंके मनको [न विमोहयति ] विमोहित ( – भ्रमित) नहीं करता
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मितः क्षणविभंगुरं ध्रुवमितः सदैवोदयात् ।
रहो सहजमात्मनस्तदिदमद्भुतं वैभवम् ।।२७३।।
अनेकाकार अनुभवमें आता है; किसी अवस्थामें शुद्ध एकाकार अनुभवमें आता है और किसी अवस्थामें शुद्धाशुद्ध अनुभवमें आता है; तथापि यथार्थ ज्ञानी स्याद्वादके बलके कारण भ्रमित नहीं होता, जैसा है वैसा ही मानता है, ज्ञानमात्रसे च्युत नहीं होता।२७२।
आत्माका अनेकान्तस्वरूप (-अनेक धर्मस्वरूप) वैभव अद्भुत (आश्चर्यकारक) है — इस अर्थका काव्य कहते हैं : —
श्लोकार्थ : — [अहो आत्मनः तद् इदम् सहजम् अद्भुतं वैभवम् ] अहो ! आत्माका तो यह सहज अद्भुत वैभव है कि — [इतः अनेकतां गतम् ] एक ओरसे देखने पर वह अनेकताको प्राप्त है और [इतः सदा अपि एकताम् दधत् ] एक ओरसे देखने पर सदा एकताको धारण करता है, [इतः क्षणविभंगुरम् ] एक ओरसे देखने पर क्षणभंगुर है और [इतः सदा एव उदयात् ध्रुवम् ] एक ओरसे देखने पर सदा उसका उदय होनेसे ध्रुव है, [इतः परम-विस्तृतम् ] एक ओरसे देखने पर परम विस्तृत है और [इतः निजैः प्रदेशैः धृतम् ] एक ओरसे देखने पर अपने प्रदेशोंसे ही धारण कर रखा हुआ है
भावार्थ : — पर्यायदृष्टिसे देखने पर आत्मा अनेकरूप दिखाई देता है और द्रव्य- दृष्टिसे देखने पर एकरूप; क्रमभावी पर्यायदृष्टिसे देखने पर क्षणभंगुर दिखाई देता है और सहभावी गुणदृष्टिसे देखने पर ध्रुव; ज्ञानकी अपेक्षावाली सर्वगत दृष्टिसे देखने पर परम विस्तारको प्राप्त दिखाई देता है और प्रदेशोंकी अपेक्षावाली दृष्टिसे देखने पर अपने प्रदेशोंमें ही व्याप्त दिखाई देता है। ऐसा द्रव्यपर्यायात्मक अनन्तधर्मवाला वस्तुका स्वभाव है। वह (स्वभाव) अज्ञानियोंके ज्ञानमें आश्चर्य उत्पन्न करता है कि यह तो असम्भवसी बात है ! यद्यपि ज्ञानियोंको वस्तुस्वभावमें आश्चर्य नहीं होता फि र भी उन्हें कभी नहीं हुआ ऐसा अद्भुत परमानन्द होता है, और इसलिए आश्चर्य भी होता है।२७३।
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भवोपहतिरेकतः स्पृशति मुक्ति रप्येकतः ।
स्वभावमहिमात्मनो विजयतेऽद्भुतादद्भुतः ।।२७४।।
स्खलदखिलविकल्पोऽप्येक एव स्वरूपः ।
प्रसभनियमितार्चिश्चिच्चमत्कार एषः ।।२७५।।
श्लोकार्थ : — [एकतः कषाय-कलिः स्खलति ] एक ओरसे देखने पर कषायोंका क्लेश दिखाई देता है और [एकतः शान्तिः अस्ति ] एक ओरसे देखने पर शांति (कषायोंके अभावरूप शांतभाव) है; [एकतः भव-उपहतिः ] एक ओरसे देखने पर भवकी (-सांसारिक) पीड़ा दिखाई देती है और [एकतः मुक्तिः अपि स्पृशति ] एक ओरसे देखने पर (संसारके अभावरूप) मुक्ति भी स्पर्श करती है; [एकतः त्रितयम् जगत् स्फु रति ] एक ओरसे देखने पर तीनों लोक स्फु रायमान होते हैं ( – प्रकाशित होता है, दिखाई देता है) और [एकतः चित् चकास्ति ] एक ओरसे देखने पर केवल एक चैतन्य ही शोभित होता है। [आत्मनः अद्भुतात् अद्भुतः स्वभाव-महिमा विजयते ] (ऐसी) आत्माकी अद्भुतसे भी अद्भुत स्वभावमहिमा जयवन्त वर्तती है ( – अर्थात् किसीसे बाधित नहीं होती)।
भावार्थ : — यहाँ भी २७३वें श्लोकके भावार्थानुसार ही जानना चाहिये। आत्माका अनेकांतमय स्वभाव सुनकर अन्यवादियोंको भारी आश्चर्य होता है। उन्हें इस बातमें विरोध भासित होता है। वे ऐसे अनेकान्तमय स्वभावकी बातको अपने चित्तमें न तो समाविष्ट कर सकते हैं और न सहन ही कर सकते हैं। यदि कदाचित् उन्हें श्रद्धा हो तो प्रथम अवस्थामें उन्हें भारी अद्भुतता मालूम होती है कि — ‘अहो ! यह जिनवचन महा उपकारी हैं, वस्तुके यथार्थ स्वरूपको बतानेवाले हैं; मैंने अनादिकाल ऐसे यथार्थ स्वरूपके ज्ञान बिना ही खो दिया (गँवा दिया) !’ — वे इसप्रकार आश्चर्यपूर्वक श्रद्धान करते हैं।२७४।
श्लोकार्थ : — [सहज-तेजःपुञ्ज-मज्जत्-त्रिलोकी-स्खलत्-अखिल-विकल्पः अपि एकः एव स्वरूपः ] सहज (-अपने स्वभावरूप) तेजःपुञ्जमें त्रिलोकके पदार्थ मग्न हो जाते हैं,
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न्यनवरतनिमग्नं धारयद् ध्वस्तमोहम् ।
ज्ज्वलतु विमलपूर्णं निःसपत्नस्वभावम् ।।२७६।।
केवलज्ञानमें सर्व पदार्थ झलकते हैं, इसलिये जो अनेक ज्ञेयाकाररूप दिखाई देता है तथापि जो
चैतन्यरूप ज्ञानाकारकी दृष्टिमें एकस्वरूप ही है), [स्व-रस-विसर-पूर्ण-अच्छिन्न-तत्त्व-
उपलम्भः ] जिसमें निज रसके विस्तारसे पूर्ण अच्छिन्न तत्त्वोपलब्धि है (अर्थात् प्रतिपक्षी कर्मका
अभाव हो जानेसे जिसमें स्वरूपानुभवनका अभाव नहीं होता) [प्रसभ-नियमित-अर्चिः ] और
जिसकी ज्योति अत्यन्त नियमित है (अर्थात् जो अनन्तवीर्यसे निष्कम्प रहता है) [एषः चित्-
चमत्कारः जयति ] ऐसा यह (प्रत्यक्ष अनुभवगोचर) चैतन्यचमत्कार जयवन्त वर्तता है
(यहाँ ‘चैतन्यचमत्कार जयवन्त वर्तता है’ इस कथनमें जो चैतन्यचमत्कारका सर्वोत्कृष्टतया होना बताया है, वही मङ्गल है)।२७५।
अब, इस श्लोकमें टीकाकार आचार्यदेव पूर्वोक्त आत्माको आशीर्वाद देते हैं और साथ ही अपना नाम भी प्रगट करते हैं : —
श्लोकार्थ : — [अविचलित-चिदात्मनि आत्मनि आत्मानम् आत्मना अनवरत-निमग्नं धारयत् ] जो अचल चेतनास्वरूप आत्मामें आत्माको अपने आप ही निरन्तर निमग्न रखती है (अर्थात् प्राप्त किये गये स्वभावको कभी नहीं छोड़ती), [ध्वस्त-मोहम् ] जिसने मोहका (अज्ञानांधकारका) नाश किया है, [निःसपत्नस्वभावम् ] जिसका स्वभाव निःसपत्न ( – प्रतिपक्षी कर्मोंसे रहित) है, [विमल-पूर्णं ] जो निर्मल है और पूर्ण है; ऐसी [एतत् उदितम् अमृतचन्द्र- ज्योतिः ] यह उदयको प्राप्त अमृतचन्द्रज्योति (-अमृतमय चन्द्रमाके समान ज्योति, ज्ञान, आत्मा) [समन्तात् ज्वलतु ] सर्वतः जाज्वल्यमान रहो।
भावार्थ : — जिसका न तो मरण होता है और न जिससे दूसरेका मरण होता है वह अमृत है; और जो अत्यन्त स्वादिष्ट (-मीठा) होता है उसे लोग रूढ़िसे अमृत कहते हैं। यहाँ ज्ञानको — आत्माको — अमृतचन्द्रज्योति ( — अमृतमय चन्द्रमाके समान ज्योति) कहा है, जो कि लुप्तोपमालंकार है; क्योंकि ‘अमृतचन्द्रवत् ज्योतिः’ का समास करने पर ‘वत्’ का लोप होकर ‘अमृतचन्द्रज्योतिः’ होता है।
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रागद्वेषपरिग्रहे सति यतो जातं क्रियाकारकैः ।
तद्विज्ञानघनौघमग्नमधुना किंचिन्न किंचित्किल ।।२७७।।
(यदि ‘वत्’ न रखकर ‘अमृतचन्द्ररूप ज्योति’ अर्थ किया जाय तो भेदरूपक अलङ्कार होता है। और ‘अमृतचन्द्रज्योति’ ही आत्माका नाम कहा जाय तो अभेदरूपक अलङ्कार होता है।)
आत्माको अमृतमय चन्द्रमाके समान कहने पर भी, यहाँ कहे गये विशेषणोंके द्वारा आत्माका चन्द्रमाके साथ व्यतिरेक भी है; क्योंकि ‘ध्वस्तमोह’ विशेषण अज्ञानांधकारका दूर होना बतलाता है, ‘विमलपूर्ण’ विशेषण लांछनरहितता तथा पूर्णता बतलाता है, ‘निःसपत्नस्वभाव’ विशेषण राहुबिम्बसे तथा बादल आदिसे आच्छादित न होना बतलाता है, और ‘समन्तात् ज्वलतु’ सर्व क्षेत्र और सर्व कालमें प्रकाश करना बतलाता है; चन्द्रमा ऐसा नहीं है।
इस श्लोकमें टीकाकार आचार्यदेवने अपना ‘अमृतचन्द्र’ नाम भी बताया है। समास बदलकर अर्थ करनेसे ‘अमृतचन्द्र’ के और ‘अमृतचन्द्रज्योति’के अनेक अर्थ होते हैं जो कि यथासंभव जानने चाहिये।२७६।
अब, श्रीमान् अमृतचन्द्राचार्यदेव दो श्लोक कहकर इस समयसारग्रन्थकी ‘आत्मख्याति’ नामक टीका समाप्त करते हैं।
‘अज्ञानदशामें आत्मा स्वरूपको भूलकर रागद्वेषमें प्रवृत्त होता था, परद्रव्यकी क्रियाका कर्ता बनता था, क्रियाके फलका भोक्ता होता था, — इत्यादि भाव करता था; किन्तु अब ज्ञानदशामें वे भाव कुछ भी नहीं हैं ऐसा अनुभव किया जाता है। — इसी अर्थका प्रथम श्लोक कहते हैं : —
श्लोकार्थ : — [यस्मात् ] जिससे (अर्थात् जिस परसंयोगरूप बन्धपर्यायजनित अज्ञानसे) [पूरा ] प्रथम [स्व-परयोः द्वैतम् अभूत् ] अपना और परका द्वैत हुआ (अर्थात् स्वपरके मिश्रितपनारूप भाव हुआ), [यतः अत्र अन्तरं भूतं ] द्वैतभाव होने पर जिससे स्वरूपमें अन्तर पड़ गया (अर्थात् बन्धपर्याय ही निजरूप ज्ञात हुई), [यतः राग-द्वेष-परिग्रहे सति ] स्वरूपमें अन्तर पड़ने पर जिससे रागद्वेषका ग्रहण हुआ, [क्रिया-कारकैः जातं ] रागद्वेषका ग्रहण होने पर जिससे क्रियाके कारक उत्पन्न हुए (अर्थात् क्रिया और कर्त्ता-कर्मादि कारकोंका भेद पड़ गया), [यतः च अनुभूतिः क्रियायाः अखिलं फलं भुञ्जाना खिन्ना ] कारक उत्पन्न होने पर जिससे अनुभूति
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(उपजाति) स्वशक्ति संसूचितवस्तुतत्त्वै- र्व्याख्या कृतेयं समयस्य शब्दैः । स्वरूपगुप्तस्य न किंचिदस्ति कर्तव्यमेवामृतचन्द्रसूरेः ।।२७८।।
अब विज्ञानघनके समूहमें मग्न हुआ (अर्थात् ज्ञानरूपमें परिणमित हुआ) [अधुना किल किञ्चित्
न किञ्चित् ] इसलिए अब वह सब वास्तवमें कुछ भी नहीं है।
भावार्थ : — परसंयोगसे ज्ञान ही अज्ञानरूप परिणमित हुआ था, अज्ञान कहीं पृथक् वस्तु नहीं थी; इसलिए अब वह जहाँ ज्ञानरूप परिणमित हुआ कि वहाँ वह (अज्ञान) कुछ भी नहीं रहा। अज्ञानके निमित्तसे राग, द्वेष, क्रियाका कर्तृत्व, क्रियाके फलका ( – सुखदुःखका) भोक्तृत्व आदि भाव होते थे वे भी विलीन हो गये हैं; एकमात्र ज्ञान ही रह गया है। इसलिये अब आत्मा स्व-परके त्रिकालवर्ती भावोंको ज्ञाताद्रष्टा होकर जानते-देखते ही रहो।२७७।
‘पूर्वोक्त प्रकारसे ज्ञानदशामें परकी क्रिया अपनी भासित न होनेसे, इस समयसारकी व्याख्या करने की क्रिया भी मेरी नहीं है, शब्दोंकी है’ — इस अर्थका, समयसारकी व्याख्या करनेकी अभिमानरूप कषायके त्यागका सूचक श्लोक अब कहते हैं : —
श्लोकार्थ : — [स्व-शक्ति-संसूचित-वस्तु-तत्त्वैः शब्दैः ] जिनने अपनी शक्तिसे वस्तुके तत्त्व (-यथार्थ स्वरूप) को भलीभाँति कहा है ऐसे शब्दोंने [इयं समयस्य व्याख्या ] इस समयकी व्याख्या (आत्मवस्तुका व्याख्यान अथवा समयप्राभृतशास्त्रकी टीका) [कृता ] की है; [स्वरूप- गुप्तस्य अमृतचन्द्रसूरेः ] स्वरूपगुप्त ( – अमूर्तिक ज्ञानमात्र स्वरूपमें गुप्त) अमृतचन्द्रसूरिका (इसमें) [किञ्चित् एव कर्तव्यम् न अस्ति ] कुछ भी कर्तव्य नहीं है।
भावार्थ : — शब्द तो पुद्गल हैं। वे पुरुषके निमित्तसे वर्ण-पद-वाक्यरूपसे परिणमित होते हैं; इसलिये उनमें वस्तुस्वरूपको कहनेकी शक्ति स्वयमेव है, क्योंकि शब्दका और अर्थका वाच्यवाचक सम्बन्ध है। इसप्रकार द्रव्यश्रुतकी रचना शब्दोंने की है यही बात यथार्थ है। आत्मा तो अमूर्तिक है, ज्ञानस्वरूप है; इसलिये वह मूर्तिक पुद्गलकी रचना कैसे कर सकता है ? इसलिये आचार्यदेवने कहा है कि ‘इस समयप्राभृतकी टीका शब्दोंने की है, मैं तो स्वरूपमें लीन हूँ, उसमें ( – टीका करनेमें) मेरा कोई कर्तव्य नहीं है।’ यह कथन आचार्यदेवकी निरभिमानताको भी सूचित करता है। अब यदि निमित्त-नैमित्तिक व्यवहारसे ऐसा ही कहा जाता है कि अमुक पुरुषने यह