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स्वयं परिणममानेन पुद्गलद्रव्येण कृते ज्ञानावरणादिकर्मणि ज्ञानावरणादिकर्मपरिणामेन
स्वयमपरिणममानस्यात्मनः किलात्मना कृतं ज्ञानावरणादिकर्मेत्युपचारो, न परमार्थः
उसीप्रकार ‘[ज्ञानावरणादि ] ज्ञानावरणादि कर्म [जीवेन कृतं ] जीवने किया’ [व्यवहारेण ] ऐसा
व्यवहारसे कहा जाता है
नहीं हैं; इसीप्रकार ज्ञानावरणादिकर्मपरिणामरूप स्वयं परिणमते हुए पुद्गलद्रव्यके द्वारा ज्ञानावरणादि
कर्म किये जाने पर, ज्ञानावरणादि कर्मपरिणामरूप स्वयं परिणमित नहीं होनेवाले ऐसे ‘आत्मामें
‘आत्माने ज्ञानावरणादि कर्म किया’ ऐसा उपचार है, परमार्थ नहीं है
यह कहा जाता है कि ‘जीवने कर्म किया’
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करोति, बध्नाति चात्मेति विकल्पः स किलोपचारः
पुद्गलदरवको आतमा
[गृह्णाति ] ग्रहण करता है
भी, ‘‘प्राप्य, विकार्य और निर्वर्त्य
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एवोत्पद्यमानेषु गुणदोषेषु व्याप्यव्यापकभावाभावेऽपि तदुत्पादको जीव इत्युपचारः
[जीवः ] जीवको [द्रव्यगुणोत्पादक ] पुद्गलद्रव्यके द्रव्य-गुणको उत्पन्न करनेवाला
[व्यवहारात् ] व्यवहारसे [भणितः ] कहा गया है
उत्पादक राजा है’; इसीप्रकार पुद्गलद्रव्यके गुणदोषोंमें और पुद्गलद्रव्यमें व्याप्यव्यापकभाव
होनेसे स्व-भावसे ही (पुद्गलद्रव्यके अपने भावसे ही) उन गुणदोषोंकी उत्पत्ति होने पर भी
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कस्तर्हि तत्कुरुत इत्यभिशंक यैव
संकीर्त्यते शृणुत पुद्गलकर्मकर्तृ
आशंका करके, [एतर्हि ] अब [तीव्र-रय-मोह-निवर्हणाय ] तीव्र वेगवाले मोहका (कर्तृकर्मत्वके
अज्ञानका) नाश करनेके लिये, यह कहते हैं कि
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[भणितः ] कहा गया है
गुणस्थान) [खलु ] जो कि निश्चयसे [अचेतनाः ] अचेतन हैं, [यस्मात् ] क्योंकि
[पुद्गलकर्मोदयसम्भवाः ] पुद्गलकर्मके उदयसे उत्पन्न होते हैं [ते ] वे [यदि ] यदि [कर्म ] कर्म
[कुर्वन्ति ] करते हैं तो भले करें; [तेषां ] उनका (कर्मोंका) [वेदकः अपि ] भोक्ता भी [आत्मा
न ] आत्मा नहीं है
कर्मोंका अकर्ता है [च ] और [गुणाः ] ‘गुण’ ही [कर्माणि ] कर्मोंको [कुर्वन्ति ] करते हैं
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अथायं तर्कः
ततः पुद्गलकर्मणामकर्ता जीवो, गुणा एव तत्कर्तारः
किये जाने पर (अर्थात् उन्हीं के भेद करने पर), मिथ्यादृष्टिसे लेकर सयोगकेवली पर्यंत तेरह
कर्ता है
आया ? (कुछ भी नहीं
पुद्गलद्रव्यमय मिथ्यात्वादिका भोक्ता भी नहीं है, तब फि र पुद्गलकर्मका कर्ता कैसे हो सकता
है ? इसलिये यह सिद्ध हुआ कि
हैं, इसलिये जीव पुदगलकर्मोंका अकर्ता है, किन्तु ‘गुण’ ही उनके कर्ता हैं; और वे ‘गुण’ तो
पुद्गलद्रव्य ही हैं; इससे यह सिद्ध हुआ कि पुद्गलकर्मका, पुद्गलद्रव्य ही एक कर्ता है
हुआ कि पुद्गलद्रव्य ही पुद्गलकर्मका कर्ता है, जीव नहीं
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तो दोष आये जीव त्योंहि अजीवके एकत्वका
तो क्रोधवत् नोकर्म, प्रत्यय, कर्म भी सब अन्य हैं
हो तो [एवम् ] इसप्रकार [जीवस्य ] जीवके [च ] और [अजीवस्य ] अजीवके [अनन्यत्वम् ]
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स्वभावत्वाविशेषात्
अजीव सिद्ध हुआ; (दोनोंके अनन्यत्व होनेमें यह दोष आया;) [प्रत्ययनोकर्मकर्मणाम् ] प्रत्यय,
नोकर्म और कर्मके [एकत्वे ] एकत्वमें अर्थात् अनन्यत्वमें भी [अयम् दोषः ] यही दोष आता
है
क्रोधः ] जैसे क्रोध है [तथा ] वैसे ही [प्रत्ययाः ] प्रत्यय, [कर्म ] कर्म और [नोकर्म अपि ]
नोकर्म भी [अन्यत् ] आत्मासे अन्य ही हैं
जड़स्वभाव क्रोध अन्य ही है, तो जैसे उपयोगात्मक जीवसे जड़स्वभाव क्रोध अन्य है उसीप्रकार
प्रत्यय, नोकर्म और कर्म भी अन्य ही हैं, क्योंकि उनके जड़ स्वभावत्वमें अन्तर नहीं है (अर्थात्
जैसे क्रोध जड़ है उसीप्रकार प्रत्यय, नोकर्म और कर्म भी जड़ हैं)
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यदि ऐसा माना जाये [तदा ] तो वह [अपरिणामी ] अपरिणामी [भवति ] सिद्ध होता है; [च ]
और [कार्मणवर्गणासु ] कार्मणवर्गणाएँ [कर्मभावेन ] क र्मभावसे [अपरिणममानासु ] नहीं
परिणमती होनेसे, [संसारस्य ] संसारका [अभावः ] अभाव [प्रसजति ] सिद्ध होता है [वा ]
अथवा [सांख्यसमयः ] सांख्यमतका प्रसंग आता है
स्वयं नहीं परिणमती हुई [तानि ] उन वर्गणाओंको [चेतयिता ] चेतन आत्मा [कथं नु ] कैसे
[परिणामयति ] परिणमन करा सक ता है ? [अथ ] अथवा यदि [पुद्गलम् द्रव्यम् ] पुद्गलद्रव्य
[स्वयमेव हि ] अपने आप ही [कर्मभावेन ] क र्मभावसे [परिणमते ] परिणमन करता है ऐसा
माना जाये, तो [जीवः ] जीव [कर्म ] क र्मको अर्थात् पुद्गलद्रव्यको [कर्मत्वम् ] क र्मरूप
[परिणामयति ] परिणमन कराता है [इति ] यह कथन [मिथ्या ] मिथ्या सिद्ध होता है
[ज्ञानावरणादिपरिणतं ] ज्ञानावरणादिरूप परिणमित [तत् ] पुद्गलद्रव्य [तत् च एव ] ज्ञानावरणादि
ही है [जानीत ] ऐसा जानो
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कर्तुमन्येन पार्यते
स्वभावभूता परिणामशक्तिः
यमात्मनस्तस्य स एव कर्ता
यदि यहाँ यह तर्क उपस्थित किया जाये कि ‘‘जीव पुद्गलद्रव्यको कर्मभावसे परिणमाता है,
इसलिये संसारका अभाव नहीं होगा’’, तो उसका निराकरण दो पक्षोंको लेकर इसप्रकार किया
जाता है किः
(वस्तुमें) जो शक्ति स्वतः न हो उसे अन्य कोई नहीं कर सकता
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क रता है [तस्य सः एव कर्ता ] उसका वह पुद्गलद्रव्य ही क र्ता है
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क्रोधादिभावसे [स्वयं ] स्वयं [न परिणमते ] नहीं परिणमता [यदि तव ] यदि तेरा यह मत है
[तदा ] तो वह (जीव) [अपरिणामी ] अपरिणामी [भवति ] सिद्ध होता है; और [जीवे ] जीव
[स्वयं ] स्वयं [क्रोधादिभिः भावैः ] क्रोधादिभावरूप [अपरिणममाने ] नहीं परिणमता होनेसे,
[संसारस्य ] संसारका [अभावः ] अभाव [प्रसजति ] सिद्ध होता है [वा ] अथवा
[सांख्यसमयः ] सांख्यमतका प्रसंग आता है
अपरिणममानं ] स्वयं नहीं परिणमते हुए [तं ] उस जीवको [क्रोधः ] क्रोध [कथं नु ] कैसे
[परिणामयति ] परिणमन करा सकता है ? [अथ ] अथवा यदि [आत्मा ] आत्मा [स्वयम् ]
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न हि स्वतोऽसती शक्तिः कर्तुमन्येन पार्यते
स्यात्
हो, तो [क्रोधः ] क्रोध [जीवं ] जीवको [क्रोधत्वम् ] क्रोधरूप [परिणामयति ] परिणमन कराता
है [इति ] यह कथन [मिथ्या ] मिथ्या सिद्ध होता है
उपयुक्त आत्मा [मानः एव ] मान ही है, [मायोपयुक्तः ] मायामें उपयुक्त आत्मा [माया ] माया
है [च ] और [लोभोपयुक्तः ] लोभमें उपयुक्त आत्मा [लोभः ] लोभ [भवति ] है
परिणमाता है, इसलिये संसारका अभाव नहीं होता’’, तो उसका निराकरण दो पक्ष लेकर इसप्रकार
किया जाता है कि
जा सकता; क्योंकि (वस्तुमें) जो शक्ति स्वतः न हो उसे अन्य कोई नहीं कर सकता
अपेक्षा नहीं रखती
है
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स्वभावभूता परिणामशक्तिः
यं स्वस्य तस्यैव भवेत्स कर्ता
भवेत् ] उसका वह क र्ता होता है
तो [सः ] वह भाव [ज्ञानमयः ] ज्ञानमय है और [अज्ञानिनः ] अज्ञानीको [अज्ञानमयः ]
अज्ञानमय है
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उदयको प्राप्त हुई है
भावका ही कर्तृत्व है
[ज्ञानमयः ] ज्ञानमय (भाव) है, [तस्मात् तु ] इसलिये ज्ञानी [कर्माणि ] क र्मोंको [न करोति ]
नहीं क रता
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रागद्वेषाभ्यां सममेकीभूय प्रवर्तिताहंकारः स्वयं किलैषोऽहं रज्ये रुष्यामीति रज्यते रुष्यति च;
तस्मादज्ञानमयभावादज्ञानी परौ रागद्वेषावात्मानं कुर्वन् करोति कर्माणि
पृथग्भूततया स्वरसत एव निवृत्ताहंकारः स्वयं किल केवलं जानात्येव, न रज्यते, न च रुष्यति,
तस्मात् ज्ञानमयभावात् ज्ञानी परौ रागद्वेषावात्मानमकुर्वन्न करोति कर्माणि
स्व-परके एकत्वके अध्यासके कारण ज्ञानमात्र ऐसे निजमेंसे (आत्मस्वरूपमेंसे) भ्रष्ट हुआ, पर
ऐसे रागद्वेषके साथ एक होकर जिसके अहंकार प्रवर्त रहा है ऐसा स्वयं ‘यह मैं वास्तवमें
रागी हूँ, द्वेषी हूँ (अर्थात् यह मैं राग करता हूँ, द्वेष करता हूँ )’ इसप्रकार (मानता हुआ) रागी
और द्वेषी होता है; इसलिये अज्ञानमय भावके कारण अज्ञानी अपनेको पर ऐसे रागद्वेषरूप करता
हुआ कर्मोंको करता है
कारण ज्ञानमात्र ऐसे निजमें सुनिविष्ट (सम्यक् प्रकारसे स्थित) हुआ, पर ऐसे रागद्वेषसे
पृथग्भूतताके (भिन्नत्वके) कारण निजरससे ही जिसके अहंकार निवृत्त हुआ है ऐसा स्वयं
वास्तवमें मात्र जानता ही है, रागी और द्वेषी नहीं होता (अर्थात् रागद्वेष नहीं करता); इसलिये
ज्ञानमय भावके कारण ज्ञानी अपनेको पर ऐसे रागद्वेषरूप न करता हुआ कर्मोंको नहीं करता
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[अज्ञानिनः कुतः सर्वः अयम् अज्ञानमयः ] तथा अज्ञानीके सभी भाव अज्ञानमय ही क्यों होते हैं
तथा [अन्यः न ] अन्य (ज्ञानमय भाव) क्यों नहीं होते ?
[सर्वे भावाः ] समस्त भाव [खलु ] वास्तवमें [ज्ञानमयाः ] ज्ञानमय ही होते हैं
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एव ज्ञानमया ज्ञानिनो भावाः
भाव [अज्ञानमयाः ] अज्ञानमय ही होते हैं
अज्ञानमय होते हैं
इत्यादि समस्त भाव अज्ञानजातिका उल्लंघन न करनेसे अज्ञानमय ही हैं और ज्ञानीके समस्त
भाव ज्ञानजातिका उल्लंघन न करनेसे ज्ञानमय ही हैं
भाव [अज्ञाननिर्वृत्ताः ] अज्ञानसे रचित [भवन्ति ] होते हैं
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पर लोहमय को भावसे कटकादि भावों नीपजे;
पर ज्ञानिके तो सर्व भावहि ज्ञानमय निश्चय बने
लोहमय भावमेंसे [कटकादयः ] लोहमय क ड़ा इत्यादिे भाव [जायन्ते ] होते हैं, [तथा ]
उसीप्रकार [अज्ञानिनः ] अज्ञानीके (अज्ञानमय भावमेंसे) [बहुविधाः अपि ] अनेक प्रकारके
[अज्ञानमयाः भावाः ] अज्ञानमय भाव [जायन्ते ] होते हैं [तु ] और [ज्ञानिनः ] ज्ञानीके (ज्ञानमय
भावमेंसे) [सर्वे ] सभी [ज्ञानमयाः भावाः ] ज्ञानमय भाव [भवन्ति ] होते हैं
किन्तु लौहमय कड़ा इत्यादि भाव नहीं होते, और लौहमय भावमेंसे, लौहजातिका उल्लंघन न करते
हुए लौहमय कड़ा इत्यादि भाव ही होते हैं, किन्तु सुवर्णमय कुण्डल आदि भाव नहीं होते;
इसीप्रकार जीव स्वयं परिणामस्वभावी होने पर भी, कारण जैसे ही कार्य होनेसे, अज्ञानीके