Samaysar (Hindi). Gatha: 106-131 ; Kalash: 63-67.

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कथमिति चेत्
जोधेहिं कदे जुद्धे राएण कदं ति जंपदे लोगो
ववहारेण तह कदं णाणावरणादि जीवेण ।।१०६।।
योधैः कृते युद्धे राज्ञा कृतमिति जल्पते लोकः
व्यवहारेण तथा कृतं ज्ञानावरणादि जीवेन ।।१०६।।
यथा युद्धपरिणामेन स्वयं परिणममानैः योधैः कृते युद्धे युद्धपरिणामेन स्वयमपरिणम-
मानस्य राज्ञो राज्ञा किल कृतं युद्धमित्युपचारो, न परमार्थः, तथा ज्ञानावरणादिकर्मपरिणामेन
स्वयं परिणममानेन पुद्गलद्रव्येण कृते ज्ञानावरणादिकर्मणि ज्ञानावरणादिकर्मपरिणामेन
स्वयमपरिणममानस्यात्मनः किलात्मना कृतं ज्ञानावरणादिकर्मेत्युपचारो, न परमार्थः
भावार्थ :कदाचित् होनेवाले निमित्तनैमित्तिकभावमें कर्ताकर्मभाव कहना सो उपचार है ।१०५।
अब, यह उपचार कैसे है सो दृष्टान्त द्वारा कहते हैं :
योद्धा करें जहँ युद्ध, वहाँ वह भूपकृत जनगण कहैं
त्यों जीवने ज्ञानावरण आदिक किये व्यवहारसे ।।१०६।।
गाथार्थ :[योधैः ] योद्धाओंके द्वारा [युद्धे कृते ] युद्ध किये जाने पर, ‘[राज्ञा कृतम् ]
राजाने युद्ध किया’ [इति ] इसप्रकार [लोकः ] लोक [जल्पते ] (व्यवहारसे) कहते हैं [तथा ]
उसीप्रकार ‘[ज्ञानावरणादि ] ज्ञानावरणादि कर्म [जीवेन कृतं ] जीवने किया’ [व्यवहारेण ] ऐसा
व्यवहारसे कहा जाता है
टीका :जैसे युद्धपरिणामरूप स्वयं परिणमते हुए योद्धाओंके द्वारा युद्ध किये जाने पर,
युद्धपरिणामरूप स्वयं परिणमित नहीं होनेवाले राजामें ‘राजाने युद्ध किया’ ऐसा उपचार है, परमार्थ
नहीं हैं; इसीप्रकार ज्ञानावरणादिकर्मपरिणामरूप स्वयं परिणमते हुए पुद्गलद्रव्यके द्वारा ज्ञानावरणादि
कर्म किये जाने पर, ज्ञानावरणादि कर्मपरिणामरूप स्वयं परिणमित नहीं होनेवाले ऐसे ‘आत्मामें
‘आत्माने ज्ञानावरणादि कर्म किया’ ऐसा उपचार है, परमार्थ नहीं है
भावार्थ :योद्धाओंके द्वारा युद्ध किये जाने पर भी उपचारसे यह कहा जाता है कि
‘राजाने युद्ध किया’, इसीप्रकार ज्ञानावरणादि कर्म पुद्गलद्रव्यके द्वारा किये जाने पर भी उपचारसे
यह कहा जाता है कि ‘जीवने कर्म किया’
।।१०६।।

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अत एतत्स्थितम्
उप्पादेदि करेदि य बंधदि परिणामएदि गिण्हदि य
आदा पोग्गलदव्वं ववहारणयस्स वत्तव्वं ।।१०७।।
उत्पादयति करोति च बध्नाति परिणामयति गृह्णाति च
आत्मा पुद्गलद्रव्यं व्यवहारनयस्य वक्तव्यम् ।।१०७।।
अयं खल्वात्मा न गृह्णाति, न परिणमयति, नोत्पादयति, न करोति, न बध्नाति, व्याप्य-
व्यापकभावाभावात्, प्राप्यं विकार्यं निर्वर्त्यं च पुद्गलद्रव्यात्मकं कर्म यत्तु व्याप्यव्यापक-
भावाभावेऽपि प्राप्यं विकार्यं निर्वर्त्यं च पुद्गलद्रव्यात्मकं कर्म गृह्णाति, परिणमयति, उत्पादयति,
करोति, बध्नाति चात्मेति विकल्पः स किलोपचारः
कथमिति चेत्
अब क हते हैं कि उपरोक्त हेतुसे यह सिद्ध हुआ कि :
उपजावता, प्रणमावता, ग्रहता, अवरु बांधे, करे ।
पुद्गलदरवको आतमा
व्यवहारनयवक्तव्य है ।।१०७।।
गाथार्थ : :[आत्मा ] आत्मा [पुद्गलद्रव्यम् ] पुद्गलद्रव्यको [उत्पादयति ] उत्पन्न करता
है, [करोति च ] करता है, [बध्नाति ] बाँधता है, [परिणामयति ] परिणमित करता है [च ] और
[गृह्णाति ] ग्रहण करता है
यह [व्यवहारनयस्य ] व्यवहारनयका [वक्तव्यम् ] कथन है
टीका :यह आत्मा वास्तवमें व्याप्यव्यापकभावके अभावके कारण, प्राप्य, विकार्य और
निर्वर्त्यऐसे पुद्गलद्रव्यात्मक (पुद्गलद्रव्यस्वरूप) कर्मको ग्रहण नहीं करता, परिणमित नहीं
करता, उत्पन्न नहीं करता और न उसे करता है, न बाँधता है; तथा व्याप्यव्यापकभावका अभाव होने पर
भी, ‘‘प्राप्य, विकार्य और निर्वर्त्य
ऐसे पुद्गलद्रव्यात्मक कर्मको आत्मा ग्रहण करता है, परिणमित
करता है, उत्पन्न करता है, करता है और बाँधता है’’ ऐसा जो विकल्प वह वास्तवमें उपचार है
भावार्थ :व्याप्यव्यापकभावके बिना कर्तृकर्मत्व कहना सो उपचार है; इसलिये आत्मा पुद्गल-
द्रव्यको ग्रहण करता है परिणमित करता है, उत्पन्न करता है, इत्यादि कहना सो उपचार है ।।१०७।।
अब यहाँ प्रश्न करता है कि यह उपचार कैसे है ? उसका उत्तर दृष्टान्तपूर्वक
कहते हैं :

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जह राया ववहारा दोसगुणुप्पादगो त्ति आलविदो
तह जीवो ववहारा दव्वगुणुप्पादगो भणिदो ।।१०८।।
यथा राजा व्यवहारात् दोषगुणोत्पादक इत्यालपितः
तथा जीवो व्यवहारात् द्रव्यगुणोत्पादको भणितः ।।१०८।।
यथा लोकस्य व्याप्यव्यापकभावेन स्वभावत एवोत्पद्यमानेषु गुणदोषेषु व्याप्यव्यापक-
भावाभावेऽपि तदुत्पादको राजेत्युपचारः, तथा पुद्गलद्रव्यस्य व्याप्यव्यापकभावेन स्वभावत
एवोत्पद्यमानेषु गुणदोषेषु व्याप्यव्यापकभावाभावेऽपि तदुत्पादको जीव इत्युपचारः
गुणदोषउत्पादक कहा ज्यों भूपको व्यवहारसे
त्यों द्रव्यगुणउत्पन्नकर्ता, जीव कहा व्यवहारसे ।।१०८।।
गाथार्थ :[यथा ] जैसे [राजा ] राजाको [दोषगुणोत्पादकः इति ] प्रजाके दोष और
गुणोंको उत्पन्न करनेवाला [व्यवहारात् ] व्यवहारसे [आलपितः ] कहा है, [तथा ] उसीप्रकार
[जीवः ] जीवको [द्रव्यगुणोत्पादक ] पुद्गलद्रव्यके द्रव्य-गुणको उत्पन्न करनेवाला
[व्यवहारात् ] व्यवहारसे [भणितः ] कहा गया है
टीका :जैसे प्रजाके गुणदोषोंमें और प्रजामें व्याप्यव्यापकभाव होनेसे स्व-भावसे ही
(प्रजाके अपने भावसे ही) उन गुण-दोषोंकी उत्पत्ति होने पर भीयद्यपि उन गुण-दोषोंमें
और राजामें व्याप्यव्यापकभावका अभाव है तथापि यह उपचारसे कहा जाता है कि ‘उनका
उत्पादक राजा है’; इसीप्रकार पुद्गलद्रव्यके गुणदोषोंमें और पुद्गलद्रव्यमें व्याप्यव्यापकभाव
होनेसे स्व-भावसे ही (पुद्गलद्रव्यके अपने भावसे ही) उन गुणदोषोंकी उत्पत्ति होने पर भी
यद्यपि उन गुणदोषोंमें और जीवमें व्याप्यव्यापकभावका अभाव है तथापि‘उनका उत्पादक
जीव है’ ऐसा उपचार किया जाता है
भावार्थ :जगत्में कहा जाता है कि ‘यथा राजा तथा प्रजा’ इस कहावतसे प्रजाके
गुणदोषोंको उत्पन्न करनेवाला राजा कहा जाता है इसीप्रकार पुद्गलद्रव्यके गुणदोषोंको
उत्पन्न करनेवाला जीव कहा जाता है परमार्थदृष्टिसे देखा जाय तो यह यथार्थ नहीं, किन्तु
उपचार है ।।१०८।।
अब आगेकी गाथाका सूचक काव्य कहते हैं :

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(वसन्ततिलका)
जीवः करोति यदि पुद्गलकर्म नैव
कस्तर्हि तत्कुरुत इत्यभिशंक यैव
एतर्हि तीव्ररयमोहनिवर्हणाय
संकीर्त्यते शृणुत पुद्गलकर्मकर्तृ
।।६३।।
सामण्णपच्चया खलु चउरो भण्णंति बंधकत्तारो
मिच्छत्तं अविरमणं कसायजोगा य बोद्धव्वा ।।१०९।।
तेसिं पुणो वि य इमो भणिदो भेदो दु तेरसवियप्पो
मिच्छादिट्ठीआदी जाव सजोगिस्स चरमंतं ।।११०।।
एदे अचेदणा खलु पोग्गलकम्मुदयसंभवा जम्हा
ते जदि करेंति कम्मं ण वि तेसिं वेदगो आदा ।।१११।।
श्लोकार्थ :[यदि पुद्गलकर्म जीवः न एव करोति ] यदि पुद्गलकर्मको जीव नहीं
करता [तर्हि ] तो फि र [तत् कः कुरुते ] उसे कौन करता है ?’ [इति अभिशंक या एव ] ऐसी
आशंका करके, [एतर्हि ] अब [तीव्र-रय-मोह-निवर्हणाय ] तीव्र वेगवाले मोहका (कर्तृकर्मत्वके
अज्ञानका) नाश करनेके लिये, यह कहते हैं कि
[पुद्गलकर्मकर्तृ संकीर्त्यते ] ‘पुद्गलकर्मका
कर्ता कौन है’; [शृणुत ] इसलिये (हे ज्ञानके इच्छुक पुरुषों !) इसे सुनो ।६३।
अब यह कहते हैं कि पुद्गलकर्मका कर्ता कौन है :
सामान्य प्रत्यय चार, निश्चय बन्धके कर्ता कहे
मिथ्यात्व अरु अविरमण, योगकषाय ये ही जानने ।।१०९।।
फि र उनहिका दर्शा दिया, यह भेद तेर प्रकारका
मिथ्यात्व गुणस्थानादि ले, जो चरमभेद सयोगिका ।।११०।।
पुद्गलकरमके उदयसे, उत्पन्न इससे अजीव वे
वे जो करें कर्मों भले, भोक्ता भि नहिं जीवद्रव्य है ।।१११।।

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गुणसण्णिदा दु एदे कम्मं कुव्वंति पच्चया जम्हा
तम्हा जीवोऽकत्ता गुणा य कुव्वंति कम्माणि ।।११२।।
सामान्यप्रत्ययाः खलु चत्वारो भण्यन्ते बन्धकर्तारः
मिथ्यात्वमविरमणं कषाययोगौ च बोद्धव्याः ।।१०९।।
तेषां पुनरपि चायं भणितो भेदस्तु त्रयोदशविकल्पः
मिथ्यादृष्टयादिः यावत् सयोगिनश्चरमान्तः ।।११०।।
एते अचेतनाः खलु पुद्गलकर्मोदयसम्भवा यस्मात्
ते यदि कुर्वन्ति कर्म नापि तेषां वेदक आत्मा ।।१११।।
गुणसंज्ञितास्तु एते कर्म कुर्वन्ति प्रत्यया यस्मात्
तस्माज्जीवोऽकर्ता गुणाश्च कुर्वन्ति कर्माणि ।।११२।।
१. प्रत्यय = कर्मबन्धके कारण अर्थात् आस्रव
परमार्थसे ‘गुण’ नामके, प्रत्यय करे इन कर्मको
तिससे अकर्ता जीव है, गुणस्थान करते कर्मको ।।११२।।
गाथार्थ :[चत्वारः ] चार [सामान्यप्रत्ययाः ] सामान्य प्रत्यय [खलु ] निश्चयसे
[बन्धकर्तारः ] बन्धके कर्ता [भण्यन्ते ] कहे जाते हैं, वे[मिथ्यात्वम् ] मिथ्यात्व, [अविरमणं ]
अविरमण [च ] तथा [कषाययोगौ ] कषाय और योग [बोद्धव्याः ] जानना [पुनः अपि च ]
और फि र [तेषां ] उनका, [अयं ] यह [त्रयोदशविकल्पः ] तेरह प्रकारका [भेदः तु ] भेद
[भणितः ] कहा गया है
[मिथ्यादृष्टयादिः ] मिथ्यादृष्टि(गुणस्थान)से लेकर [सयोगिनः
चरमान्तः यावत् ] सयोगकेवली(गुणस्थान)के चरम समय पर्यन्तका, [एते ] यह (प्रत्यय अथवा
गुणस्थान) [खलु ] जो कि निश्चयसे [अचेतनाः ] अचेतन हैं, [यस्मात् ] क्योंकि
[पुद्गलकर्मोदयसम्भवाः ] पुद्गलकर्मके उदयसे उत्पन्न होते हैं [ते ] वे [यदि ] यदि [कर्म ] कर्म
[कुर्वन्ति ] करते हैं तो भले करें; [तेषां ] उनका (कर्मोंका) [वेदकः अपि ] भोक्ता भी [आत्मा
न ]
आत्मा नहीं है
[यस्मात् ] क्योंकि [एते ] यह [गुणसंज्ञिताः तु ] ‘गुण’ नामक [प्रत्ययाः ]
प्रत्यय [कर्म ] कर्म [कुर्वन्ति ] करते हैं, [तस्मात् ] इसलिये [जीवः ] जीव तो [अकर्ता ]
कर्मोंका अकर्ता है [च ] और [गुणाः ] ‘गुण’ ही [कर्माणि ] कर्मोंको [कुर्वन्ति ] करते हैं

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पुद्गलकर्मणः किल पुद्गलद्रव्यमेवैकं कर्तृ; तद्विशेषाः मिथ्यात्वाविरतिकषाययोगा बन्धस्य
सामान्यहेतुतया चत्वारः कर्तारः ते एव विकल्प्यमाना मिथ्यादृष्टयादिसयोगकेवल्यन्तास्त्रयोदश
कर्तारः अथैते पुद्गलकर्मविपाकविकल्पत्वादत्यन्तमचेतनाः सन्तस्त्रयोदश कर्तारः केवला एव
यदि व्याप्यव्यापकभावेन किंचनापि पुद्गलकर्म कुर्युस्तदा कुर्युरेव; किं जीवस्यात्रापतितम् ?
अथायं तर्कः
पुद्गलमयमिथ्यात्वादीन् वेदयमानो जीवः स्वयमेव मिथ्यादृष्टिर्भूत्वा पुद्गलकर्म
करोति स किलाविवेकः, यतो न खल्वात्मा भाव्यभावकभावाभावात् पुद्गलद्रव्यमयमिथ्यात्वादि-
वेदकोऽपि, कथं पुनः पुद्गलकर्मणः कर्ता नाम ? अथैतदायातम्यतः पुद्गलद्रव्यमयानां चतुर्णां
सामान्यप्रत्ययानां विकल्पास्त्रयोदश विशेषप्रत्यया गुणशब्दवाच्याः केवला एव कुर्वन्ति कर्माणि,
ततः पुद्गलकर्मणामकर्ता जीवो, गुणा एव तत्कर्तारः
ते तु पुद्गलद्रव्यमेव ततः स्थितं
पुद्गलकर्मणः पुद्गलद्रव्यमेवैकं कर्तृ
25
टीका :वास्तवमें पुद्गलकर्मका, पुद्गलद्रव्य ही एक कर्ता है; उसके विशेष
मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग बन्धके सामान्य हेतु होनेसे चार कर्ता हैं; वे ही भेदरूप
किये जाने पर (अर्थात् उन्हीं के भेद करने पर), मिथ्यादृष्टिसे लेकर सयोगकेवली पर्यंत तेरह
कर्ता है
अब, जो पुद्गलकर्मके विपाकके प्रकार होनेसे अत्यन्त अचेतन हैं ऐसे तेरह कर्ता ही
केवल व्याप्यव्यापकभावसे यदि कुछ भी पुद्गलकर्मको करें तो भले करें; इसमें जीवका क्या
आया ? (कुछ भी नहीं
) यहाँ यह तर्क है कि ‘‘पुद्गलमय मिथ्यात्वादिको भोगता हुआ जीव
स्वयं ही मिथ्यादृष्टि होकर पुद्गलकर्मको करता है’’ (इसका समाधान यह है कि :) यह
तर्क वास्तवमें अविवेक है, क्योंकि भाव्यभावकभावका अभाव होनेसे आत्मा निश्चयसे
पुद्गलद्रव्यमय मिथ्यात्वादिका भोक्ता भी नहीं है, तब फि र पुद्गलकर्मका कर्ता कैसे हो सकता
है ? इसलिये यह सिद्ध हुआ कि
जो पुद्गलद्रव्यमय चार सामान्यप्रत्ययोंके भेदरूप तेरह
विशेषप्रत्यय हैं जो कि ‘गुण’ शब्दसे (गुणस्थान नामसे) कहे जाते हैं वे ही मात्र कर्मोंको करते
हैं, इसलिये जीव पुदगलकर्मोंका अकर्ता है, किन्तु ‘गुण’ ही उनके कर्ता हैं; और वे ‘गुण’ तो
पुद्गलद्रव्य ही हैं; इससे यह सिद्ध हुआ कि पुद्गलकर्मका, पुद्गलद्रव्य ही एक कर्ता है
भावार्थ :शास्त्रोंमें प्रत्ययोंको बन्धका कर्ता कहा गया है गुणस्थान भी विशेष प्रत्यय
ही हैं, इसलिये ये गुणस्थान बन्धके कर्ता हैं अर्थात् पुद्गलकर्मके कर्ता हैं और मिथ्यात्वादि
सामान्य प्रत्यय या गुणस्थानरूप विशेष प्रत्यय अचेतन पुद्गलद्रव्यमय ही हैं; इससे यह सिद्ध
हुआ कि पुद्गलद्रव्य ही पुद्गलकर्मका कर्ता है, जीव नहीं
जीवको पुद्गलकर्मका कर्ता मानना
अज्ञान है ।।१०९ से ११२।।

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न च जीवप्रत्यययोरेकत्वम्
जह जीवस्स अणण्णुवओगो कोहो वि तह जदि अणण्णो
जीवस्साजीवस्स य एवमणण्णत्तमावण्णं ।।११३।।
एवमिह जो दु जीवो सो चेव दु णियमदो तहाऽजीवो
अयमेयत्ते दोसो पच्चयणोकम्मकम्माणं ।।११४।।
अह दे अण्णो कोहो अण्णुवओगप्पगो हवदि चेदा
जह कोहो तह पच्चय कम्मं णोकम्ममवि अण्णं ।।११५।।
यथा जीवस्यानन्य उपयोगः क्रोधोऽपि तथा यद्यनन्यः
जीवस्याजीवस्य चैवमनन्यत्वमापन्नम् ।।११३।।
एवमिह यस्तु जीवः स चैव तु नियमतस्तथाऽजीवः
अयमेकत्वे दोषः प्रत्ययनोकर्मकर्मणाम् ।।११४।।
अथ ते अन्यः क्रोधोऽन्यः उपयोगात्मको भवति चेतयिता
यथा क्रोधस्तथा प्रत्ययाः कर्म नोकर्माप्यन्यत् ।।११५।।
अब यह कहते हैं किजीव और उन प्रत्ययोंमें एकत्व नहीं है :
उपयोग ज्योंहि अनन्य जीवका, क्रोध त्योंही जीवका,
तो दोष आये जीव त्योंहि अजीवके एकत्वका
।।११३।।
यों जगतमें जो जीव वे हि अजीव भी निश्चय हुए
नोकर्म, प्रत्यय, कर्मके एकत्वमें भी दोष ये ।।११४।।
जो क्रोध यों है अन्य, जीव उपयोगआत्मक अन्य है,
तो क्रोधवत् नोकर्म, प्रत्यय, कर्म भी सब अन्य हैं
।।११५।।
गाथार्थ :[यथा ] जैसे [जीवस्य ] जीवके [उपयोगः ] उपयोग [अनन्यः ] अनन्य
अर्थात् एकरूप है [तथा ] उसीप्रकार [यदि ] यदि [क्रोधः अपि ] क्रोध भी [अनन्यः ] अनन्य
हो तो [एवम् ] इसप्रकार [जीवस्य ] जीवके [च ] और [अजीवस्य ] अजीवके [अनन्यत्वम् ]

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यदि यथा जीवस्य तन्मयत्वाज्जीवादनन्य उपयोगस्तथा जडः क्रोधोऽप्यनन्य एवेति
प्रतिपत्तिस्तदा चिद्रूपजडयोरनन्यत्वाज्जीवस्योपयोगमयत्ववज्जडक्रोधमयत्वापत्तिः तथा सति तु य एव
जीवः स एवाजीव इति द्रव्यान्तरलुप्तिः एवं प्रत्ययनोकर्मकर्मणामपि जीवादनन्यत्वप्रतिपत्तावयमेव
दोषः अथैतद्दोषभयादन्य एवोपयोगात्मा जीवोऽन्य एव जडस्वभावः क्रोधः इत्यभ्युपगमः, तर्हि
यथोपयोगात्मनो जीवादन्यो जडस्वभावः क्रोधः तथा प्रत्ययनोकर्मकर्माण्यप्यन्यान्येव, जड-
स्वभावत्वाविशेषात्
नास्ति जीवप्रत्यययोरेकत्वम्
१ प्रतिपत्ति = प्रतीति; प्रतिपादन २ चिद्रूप = जीव
अनन्यत्व [आपन्नम् ] आ गया [एवम् च ] और ऐसा होने पर, [इह ] इस जगतमें [यः तु ]
जो [जीवः ] जीव है [सः एव तु ] वही [नियमतः ] नियमसे [तथा ] उसीप्रकार [अजीवः ]
अजीव सिद्ध हुआ; (दोनोंके अनन्यत्व होनेमें यह दोष आया;) [प्रत्ययनोकर्मकर्मणाम् ] प्रत्यय,
नोकर्म और कर्मके [एकत्वे ] एकत्वमें अर्थात् अनन्यत्वमें भी [अयम् दोषः ] यही दोष आता
है
[अथ ] अब यदि (इस दोषके भयसे) [ते ] तेरे मतमें [क्रोधः ] क्रोध [अन्यः ] अन्य है
और [उपयोगात्मकः ] उपयोगस्वरूप [चेतयिता ] आत्मा [अन्यः ] अन्य [भवति ] है, तो [यथा
क्रोधः ]
जैसे क्रोध है [तथा ] वैसे ही [प्रत्ययाः ] प्रत्यय, [कर्म ] कर्म और [नोकर्म अपि ]
नोकर्म भी [अन्यत् ] आत्मासे अन्य ही हैं
टीका :जैसे जीवके उपयोगमयत्वके कारण जीवसे उपयोग अनन्य (अभिन्न) है
उसीप्रकार जड़ क्रोध भी अनन्य ही है यदि ऐसी प्रतिपत्ति की जाये, तो चिद्रूप और जड़के
अनन्यत्वके कारण जीवको उपयोगमयताकी भाँति जड़ क्रोधमयता भी आ जायेगी और ऐसा
होनेसे तो जो जीव है वही अजीव सिद्ध होगा,इसप्रकार अन्य द्रव्यका लोप हो जायेगा
इसीप्रकार प्रत्यय, नोकर्म और कर्म भी जीवसे अनन्य हैं ऐसी प्रतिपत्तिमें भी यही दोष आता है
अब यदि इस दोषके भयसे यह स्वीकार किया जाये कि उपयोगात्मक जीव अन्य ही है और
जड़स्वभाव क्रोध अन्य ही है, तो जैसे उपयोगात्मक जीवसे जड़स्वभाव क्रोध अन्य है उसीप्रकार
प्रत्यय, नोकर्म और कर्म भी अन्य ही हैं, क्योंकि उनके जड़ स्वभावत्वमें अन्तर नहीं है (अर्थात्
जैसे क्रोध जड़ है उसीप्रकार प्रत्यय, नोकर्म और कर्म भी जड़ हैं)
इसप्रकार जीव और प्रत्ययमें
एकत्व नहीं है
भावार्थ :मिथ्यात्वादि आस्रव तो जड़स्वभाव हैं और जीव चेतनस्वभाव है यदि जड़
और चेतन एक हो जायें तो भिन्न द्रव्योंके लोप होनेका महा दोष आता है इसलिये निश्चयनयका
यह सिद्धान्त है कि आस्रव और आत्मामें एकत्व नहीं है ।।११३ से ११५।।

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अथ पुद्गलद्रव्यस्य परिणामस्वभावत्वं साधयति सांख्यमतानुयायिशिष्यं प्रति
जीवे ण सयं बद्धं ण सयं परिणमदि कम्मभावेण
जदि पोग्गलदव्वमिणं अप्परिणामी तदा होदि ।।११६।।
कम्मइयवग्गणासु य अपरिणमंतीसु कम्मभावेण
संसारस्स अभावो पसज्जदे संखसमओ वा ।।११७।।
जीवो परिणामयदे पोग्गलदव्वाणि कम्मभावेण
ते सयमपरिणमंते कहं णु परिणामयदि चेदा ।।११८।।
अह सयमेव हि परिणमदि कम्मभावेण पोग्गलं दव्वं
जीवो परिणामयदे कम्मं कम्मत्तमिदि मिच्छा ।।११९।।
णियमा कम्मपरिणदं कम्मं चिय होदि पोग्गलं दव्वं
तह तं णाणावरणाइपरिणदं मुणसु तच्चेव ।।१२०।।
अब सांख्यमतानुयायी शिष्यके प्रति पुद्गलद्रव्यका परिणामस्वभावत्व सिद्ध करते हैं
(अर्थात् सांख्यमतवाले प्रकृति और पुरुषको अपरिणामी मानते हैं उन्हें समझाते हैं) :
जीवमें स्वयं नहिं बद्ध, अरु नहिं कर्मभावों परिणमे
तो वो हि पुद्गलद्रव्य भी, परिणमनहीन बने अरे ! ११६।।
जो वर्गणा कार्माणकी, नहिं कर्मभावों परिणमे
संसारका हि अभाव अथवा सांख्यमत निश्चित हुवे ! ११७।।
जो कर्मभावों परिणमाये जीव पुद्गलद्रव्यको
क्यों जीव उसको परिणमाये, स्वयं नहिं परिणमत जो ? ११८।।
स्वयमेव पुद्गलद्रव्य अरु, जो कर्मभावों परिणमे
जीव परिणमाये कर्मको, कर्मत्वमेंमिथ्या बने ।।११९।।
पुद्गलदरव जो कर्मपरिणत, नियमसे कर्म हि बने
ज्ञानावरणइत्यादिपरिणत, वो हि तुम जानो उसे ।।१२०।।

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जीवे न स्वयं बद्धं न स्वयं परिणमते कर्मभावेन
यदि पुद्गलद्रव्यमिदमपरिणामि तदा भवति ।।११६।।
कार्मणवर्गणासु चापरिणममानासु कर्मभावेन
संसारस्याभावः प्रसजति सांख्यसमयो वा ।।११७।।
जीवः परिणामयति पुद्गलद्रव्याणि कर्मभावेन
तानि स्वयमपरिणममानानि कथं नु परिणामयति चेतयिता ।।११८।।
अथ स्वयमेव हि परिणमते कर्मभावेन पुद्गलं द्रव्यम्
जीवः परिणामयति कर्म कर्मत्वमिति मिथ्या ।।११९।।
नियमात्कर्मपरिणतं कर्म चैव भवति पुद्गलं द्रव्यम्
तथा तद्ज्ञानावरणादिपरिणतं जानीत तच्चैव ।।१२०।।
गाथार्थ :[इदम् पुद्गलद्रव्यम् ] यह पुद्गलद्रव्य [जीवे ] जीवमें [स्वयं ] स्वयं [बद्धं
न ] नहीं बँधा [कर्मभावेन ] और कर्मभावसे [स्वयं ] स्वयं [न परिणमते ] नहीं परिणमता [यदि ]
यदि ऐसा माना जाये [तदा ] तो वह [अपरिणामी ] अपरिणामी [भवति ] सिद्ध होता है; [च ]
और [कार्मणवर्गणासु ] कार्मणवर्गणाएँ [कर्मभावेन ] क र्मभावसे [अपरिणममानासु ] नहीं
परिणमती होनेसे, [संसारस्य ] संसारका [अभावः ] अभाव [प्रसजति ] सिद्ध होता है [वा ]
अथवा [सांख्यसमयः ] सांख्यमतका प्रसंग आता है
और [जीवः ] जीव [पुद्गलद्रव्याणि ] पुद्गलद्रव्योंको [कर्मभावेन ] क र्मभावसे
[परिणामयति ] परिणमाता है ऐसा माना जाये तो यह प्रश्न होता है कि [स्वयम् अपरिणममानानि ]
स्वयं नहीं परिणमती हुई [तानि ] उन वर्गणाओंको [चेतयिता ] चेतन आत्मा [कथं नु ] कैसे
[परिणामयति ] परिणमन करा सक ता है ? [अथ ] अथवा यदि [पुद्गलम् द्रव्यम् ] पुद्गलद्रव्य
[स्वयमेव हि ] अपने आप ही [कर्मभावेन ] क र्मभावसे [परिणमते ] परिणमन करता है ऐसा
माना जाये, तो [जीवः ] जीव [कर्म ] क र्मको अर्थात् पुद्गलद्रव्यको [कर्मत्वम् ] क र्मरूप
[परिणामयति ] परिणमन कराता है [इति ] यह कथन [मिथ्या ] मिथ्या सिद्ध होता है
[नियमात् ] इसलिये जैसे नियमसे [कर्मपरिणतं ] क र्मरूप (कर्ताके कार्यरूपसे)
परिणमित [पुद्गलम् द्रव्यम् ] पुद्गलद्रव्य [कर्म चैव ] क र्म ही [भवति ] है [तथा ] इसीप्रकार
[ज्ञानावरणादिपरिणतं ] ज्ञानावरणादिरूप परिणमित [तत् ] पुद्गलद्रव्य [तत् च एव ] ज्ञानावरणादि
ही है [जानीत ] ऐसा जानो

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यदि पुद्गलद्रव्यं जीवे स्वयमबद्धं सत्कर्मभावेन स्वयमेव न परिणमेत, तदा तदपरिणाम्येव
स्यात् तथा सति संसाराभावः अथ जीवः पुद्गलद्रव्यं कर्मभावेन परिणामयति ततो न
संसाराभावः इति तर्कः किं स्वयमपरिणममानं परिणममानं वा जीवः पुद्गलद्रव्यं कर्मभावेन
परिणामयेत् ? न तावत्तत्स्वयमपरिणममानं परेण परिणमयितुं पार्येत; न हि स्वतोऽसती शक्तिः
कर्तुमन्येन पार्यते
स्वयं परिणममानं तु न परं परिणमयितारमपेक्षेत; न हि वस्तुशक्तयः
परमपेक्षन्ते ततः पुद्गलद्रव्यं परिणामस्वभावं स्वयमेवास्तु तथा सति कलशपरिणता मृत्तिका स्वयं
कलश इव जडस्वभावज्ञानावरणादिकर्मपरिणतं तदेव स्वयं ज्ञानावरणादिकर्म स्यात् इति सिद्धं
पुद्गलद्रव्यस्य परिणामस्वभावत्वम्
(उपजाति)
स्थितेत्यविघ्ना खलु पुद्गलस्य
स्वभावभूता परिणामशक्तिः
तस्यां स्थितायां स करोति भावं
यमात्मनस्तस्य स एव कर्ता
।।६४।।
टीका :यदि पुद्गलद्रव्य जीवमें स्वयं न बन्धता हुआ कर्मभावसे स्वयमेव नहीं
परिणमता हो, तो वह अपरिणामी ही सिद्ध होगा ऐसा होने पर, संसारका अभाव होगा (क्योंकि
यदि पुद्गलद्रव्य कर्मरूप नहीं परिणमे तो जीव कर्मरहित सिद्ध होवे; तब फि र संसार किसका ?)
यदि यहाँ यह तर्क उपस्थित किया जाये कि ‘‘जीव पुद्गलद्रव्यको कर्मभावसे परिणमाता है,
इसलिये संसारका अभाव नहीं होगा’’, तो उसका निराकरण दो पक्षोंको लेकर इसप्रकार किया
जाता है किः
क्या जीव स्वयं अपरिणमते हुए पुद्गलद्रव्यको कर्म भावरूप परिणमाता है या स्वयं
परिणमते हुएको ? प्रथम, स्वयं अपरिणमते हुएको दूसरेके द्वारा नहीं परिणमाया जा सकता; क्योंकि
(वस्तुमें) जो शक्ति स्वतः न हो उसे अन्य कोई नहीं कर सकता
(इसलिये प्रथम पक्ष असत्य
है ) और स्वयं परिणमते हुएको अन्य परिणमानेवालेकी अपेक्षा नहीं होती; क्योंकि वस्तुकी
शक्तियाँ परकी अपेक्षा नहीं रखतीं (इसलिये दूसरा पक्ष भी असत्य है ) अतः पुद्गलद्रव्य
परिणमनस्वभाववाला स्वयमेव हो ऐसा होनेसे, जैसे घटरूप परिणमित मिट्टी ही स्वयं घट है उसी
प्रकार, जड़ स्वभाववाले ज्ञानावरणादिकर्मरूप परिणमित पुद्गलद्रव्य ही स्वयं ज्ञानावरणादिकर्म है
इसप्रकार पुद्गलद्रव्यका परिणामस्वभावत्व सिद्ध हुआ ।।११६ से १२०।।
अब इसी अर्थका कलशरूप काव्य कहते हैं :
श्लोकार्थ :[इति ] इसप्रकार [पुद्गलस्य ] पुद्गलद्रव्यकी [स्वभावभूता

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जीवस्य परिणामित्वं साधयति
ण सयं बद्धो कम्मे ण सयं परिणमदि कोहमादीहिं
जदि एस तुज्झ जीवो अप्परिणामी तदा होदि ।।१२१।।
अपरिणमंतम्हि सयं जीवे कोहादिएहिं भावेहिं
संसारस्स अभावो पसज्जदे संखसमओ वा ।।१२२।।
पोग्गलकम्मं कोहो जीवं परिणामएदि कोहत्तं
तं सयमपरिणमंतं कहं णु परिणामयदि कोहो ।।१२३।।
अह सयमप्पा परिणमदि कोहभावेण एस दे बुद्धी
कोहो परिणामयदे जीवं कोहत्तमिदि मिच्छा ।।१२४।।
परिणामशक्तिः ] स्वभावभूत परिणमनशक्ति [खलु अविघ्ना स्थिता ] निर्विघ्न सिद्ध हुई [तस्यां
स्थितायां ] उसके सिद्ध होने पर, [सः आत्मनः यम् भावं करोति ] पुद्गलद्रव्य अपने जिस भावको
क रता है [तस्य सः एव कर्ता ] उसका वह पुद्गलद्रव्य ही क र्ता है
भावार्थ :सर्व द्रव्य परिणमनस्वभाववाले हैं, इसलिये वे अपने अपने भावके स्वयं ही
कर्ता हैं पुद्गलद्रव्य भी अपने जिस भावको करता है उसका वह स्वयं ही कर्ता है ।।६४।।
अब जीवका परिणामित्व सिद्ध करते हैं :
नहिं बद्धकर्म, स्वयं नहीं जो क्रोधभावों परिणमे
तो जीव यह तुझ मतविषैं परिणमनहीन बने अरे ! १२१।।
क्रोधादिभावों जो स्वयं नहिं जीव आप हि परिणमे
संसारका हि अभाव अथवा सांख्यमत निश्चित हुवे ! १२२।।
जो क्रोधपुद्गलकर्मजीवको, परिणमाये क्रोधमें
क्यों क्रोध उसको परिणमाये जो स्वयं नहिं परिणमे ? १२३।।
अथवा स्वयं जीव क्रोधभावों परिणमेतुझ बुद्धि है
तो क्रोध जीवको परिणमाये क्रोधमेंमिथ्या बने ।।१२४।।

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कोहुवजुत्तो कोहो माणुवजुत्तो य माणमेवादा
माउवजुत्तो माया लोहुवजुत्तो हवदि लोहो ।।१२५।।
न स्वयं बद्धः कर्मणि न स्वयं परिणमते क्रोधादिभिः
यद्येषः तव जीवोऽपरिणामी तदा भवति ।।१२१।।
अपरिणममाने स्वयं जीवे क्रोधादिभिः भावैः
संसारस्याभावः प्रसजति सांख्यसमयो वा ।।१२२।।
पुद्गलकर्म क्रोधो जीवं परिणामयति क्रोधत्वम्
तं स्वयमपरिणममानं कथं नु परिणामयति क्रोधः ।।१२३।।
अथ स्वयमात्मा परिणमते क्रोधभावेन एषा ते बुद्धिः
क्रोधः परिणामयति जीवं क्रोधत्वमिति मिथ्या ।।१२४।।
क्रोधोपयुक्तः क्रोधो मानोपयुक्तश्च मान एवात्मा
मायोपयुक्तो माया लोभोपयुक्तो भवति लोभः ।।१२५।।
क्रोधोपयोगी क्रोध, जीव मानोपयोगी मान है
मायोपयुक्त माया अरु लोभोपयुत लोभ हि बने ।।१२५।।
गाथार्थ :सांख्यमतानुयायी शिष्यके प्रति आचार्य क हते हैं कि भाई ! [एषः ] यह
[जीवः ] जीव [कर्मणि ] क र्ममें [स्वयं ] स्वयं [बद्धः न ] नहीं बँधा और [क्रोधादिभिः ]
क्रोधादिभावसे [स्वयं ] स्वयं [न परिणमते ] नहीं परिणमता [यदि तव ] यदि तेरा यह मत है
[तदा ] तो वह (जीव) [अपरिणामी ] अपरिणामी [भवति ] सिद्ध होता है; और [जीवे ] जीव
[स्वयं ] स्वयं [क्रोधादिभिः भावैः ] क्रोधादिभावरूप [अपरिणममाने ] नहीं परिणमता होनेसे,
[संसारस्य ] संसारका [अभावः ] अभाव [प्रसजति ] सिद्ध होता है [वा ] अथवा
[सांख्यसमयः ] सांख्यमतका प्रसंग आता है
[पुद्गलकर्म क्रोधः ] और पुद्गलक र्म जो क्रोध है वह [जीवं ] जीवको [क्रोधत्वम् ]
क्रोधरूप [परिणामयति ] परिणमन कराता है ऐसा तू माने तो यह प्रश्न होता है कि [स्वयम्
अपरिणममानं ]
स्वयं नहीं परिणमते हुए [तं ] उस जीवको [क्रोधः ] क्रोध [कथं नु ] कैसे
[परिणामयति ] परिणमन करा सकता है ? [अथ ] अथवा यदि [आत्मा ] आत्मा [स्वयम् ]

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यदि कर्मणि स्वयमबद्धः सन् जीवः क्रोधादिभावेन स्वयमेव न परिणमेत तदा स
किलापरिणाम्येव स्यात् तथा सति संसाराभावः अथ पुद्गलकर्म क्रोधादि जीवं क्रोधादिभावेन
परिणामयति ततो न संसाराभाव इति तर्कः किं स्वयमपरिणममानं परिणममानं वा पुद्गलकर्म
क्रोधादि जीवं क्रोधादिभावेन परिणामयेत् ? न तावत्स्वयमपरिणममानः परेण परिणमयितुं पार्येत;
न हि स्वतोऽसती शक्तिः कर्तुमन्येन पार्यते
स्वयं परिणममानस्तु न परं परिणमयितारमपेक्षेत;
न हि वस्तुशक्तयः परमपेक्षन्ते ततो जीवः परिणामस्वभावः स्वयमेवास्तु तथा सति गरुड-
ध्यानपरिणतः साधकः स्वयं गरुड इवाज्ञानस्वभावक्रोधादिपरिणतोपयोगः स एव स्वयं क्रोधादिः
स्यात्
इति सिद्धं जीवस्य परिणामस्वभावत्वम्
26
अपने आप [क्रोधभावेन ] क्रोधभावसे [परिणमते ] परिणमता है [एषा ते बुद्धिः ] ऐसी तेरी बुद्धि
हो, तो [क्रोधः ] क्रोध [जीवं ] जीवको [क्रोधत्वम् ] क्रोधरूप [परिणामयति ] परिणमन कराता
है [इति ] यह कथन [मिथ्या ] मिथ्या सिद्ध होता है
इसलिये यह सिद्धान्त है कि [क्रोधोपयुक्तः ] क्रोधमें उपयुक्त (अर्थात् जिसका उपयोग
क्रोधाकार परिणमित हुआ है ऐसा) [आत्मा ] आत्मा [क्रोधः ] क्रोध ही है, [मानोपयुक्तः ] मानमें
उपयुक्त आत्मा [मानः एव ] मान ही है, [मायोपयुक्तः ] मायामें उपयुक्त आत्मा [माया ] माया
है [च ] और [लोभोपयुक्तः ] लोभमें उपयुक्त आत्मा [लोभः ] लोभ [भवति ] है
टीका :यदि जीव कर्ममें स्वयं न बँधता हुआ क्रोधादिभावसे स्वयमेव नहीं परिणमता
हो, तो वह वास्तवमें अपरिणामी ही सिद्ध होगा ऐसा होनेसे संसारका अभाव होगा यदि यहाँ
यह तर्क उपस्थित किया जाये कि ‘‘पुद्गलकर्म जो क्रोधादिक है वह जीवको क्रोधादिभावरूप
परिणमाता है, इसलिये संसारका अभाव नहीं होता’’, तो उसका निराकरण दो पक्ष लेकर इसप्रकार
किया जाता है कि
पुद्गलकर्म क्रोधादिक है वह स्वयं अपरिणमते हुए जीवको क्रोधादिभावरूप
परिणमाता है, या स्वयं परिणते हुएको ? प्रथम, स्वयं अपरिणमते हुएको परके द्वारा नहीं परिणमाया
जा सकता; क्योंकि (वस्तुमें) जो शक्ति स्वतः न हो उसे अन्य कोई नहीं कर सकता
और स्वयं
परिणमते हुएको तो अन्य परिणमानेवालेकी अपेक्षा नहीं होती; क्योंकि वस्तुकी शक्तियाँ परकी
अपेक्षा नहीं रखती
(इसप्रकार दोनों पक्ष असत्य हैं ) इसलिये जीव परिणमनस्वभाववाला
स्वयमेव हो ऐसा होनेसे, जैसे गरुड़के ध्यानरूप परिणमित मंत्रसाधक स्वयं गरुड़ है उसीप्रकार,
अज्ञानस्वभाववाले क्रोधादिरूप जिसका उपयोग परिणमित हुआ है ऐसा जीव ही स्वयं क्रोधादि
है
इसप्रकार जीवका परिणामस्वभावत्व सिद्ध हुआ
भावार्थ :जीव परिणामस्वभाव है जब अपना उपयोग क्रोधादिरूप परिणमता है तब
स्वयं क्रोधादिरूप ही होता है ऐसा जानना ।।१२१ से १२५।।

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(उपजाति)
स्थितेति जीवस्य निरन्तराया
स्वभावभूता परिणामशक्तिः
तस्यां स्थितायां स करोति भावं
यं स्वस्य तस्यैव भवेत्स कर्ता
।।६५।।
तथा हि
जं कुणदि भावमादा कत्ता सो होदि तस्स कम्मस्स
णाणिस्स स णाणमओ अण्णाणमओ अणाणिस्स ।।१२६।।
यं करोति भावमात्मा कर्ता स भवति तस्य कर्मणः
ज्ञानिनः स ज्ञानमयोऽज्ञानमयोऽज्ञानिनः ।।१२६।।
एवमयमात्मा स्वयमेव परिणामस्वभावोऽपि यमेव भावमात्मनः करोति तस्यैव
अब इसी अर्थका कलशरूप काव्य कहते हैं :
श्लोकार्थ :[इति ] इसप्रकार [जीवस्य ] जीवकी [स्वभावभूता परिणामशक्तिः ]
स्वभावभूत परिणमनशक्ति [निरन्तराया स्थिता ] निर्विघ्न सिद्ध हुई [तस्यां स्थितायां ] यह सिद्ध
होने पर, [सः स्वस्य यं भावं करोति ] जीव अपने जिस भावको क रता है [तस्य एव सः कर्ता
भवेत् ]
उसका वह क र्ता होता है
भावार्थ :जीव भी परिणामी है; इसलिये स्वयं जिस भावरूप परिणमता है उसका कर्ता
होता है ।६५।
अब यह कहते हैं कि ज्ञानी ज्ञानमय भावका और अज्ञानी अज्ञानमय भावका कर्ता है :
जिस भावको आत्मा करे, कर्ता बने उस कर्मका
वह ज्ञानमय है ज्ञानिका, अज्ञानमय अज्ञानिका ।।१२६।।
गाथार्थ :[आत्मा ] आत्मा [यं भावम् ] जिस भावको [करोति ] करता है [तस्य
कर्मणः ] उस भावरूप क र्मका [सः ] वह [कर्ता ] क र्ता [भवति ] होता है; [ज्ञानिनः ] ज्ञानीको
तो [सः ] वह भाव [ज्ञानमयः ] ज्ञानमय है और [अज्ञानिनः ] अज्ञानीको [अज्ञानमयः ]
अज्ञानमय है
टीका :इसप्रकार यह आत्मा स्वयमेव परिणामस्वभाववाला है तथापि अपने जिस

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कर्मतामापद्यमानस्य कर्तृत्वमापद्येत स तु ज्ञानिनः सम्यक्स्वपरविवेकेनात्यन्तोदितविविक्तात्म-
ख्यातित्वात् ज्ञानमय एव स्यात् अज्ञानिनः तु सम्यक्स्वपरविवेकाभावेनात्यन्तप्रत्यस्तमित-
विविक्तात्मख्यातित्वादज्ञानमय एव स्यात्
किं ज्ञानमयभावात्किमज्ञानमयाद्भवतीत्याह
अण्णाणमओ भावो अणाणिणो कुणदि तेण कम्माणि
णाणमओ णाणिस्स दु ण कुणदि तम्हा दु कम्माणि ।।१२७।।
अज्ञानमयो भावोऽज्ञानिनः करोति तेन कर्माणि
ज्ञानमयो ज्ञानिनस्तु न करोति तस्मात्तु कर्माणि ।।१२७।।
अज्ञानिनो हि सम्यक्स्वपरविवेकाभावेनात्यन्तप्रत्यस्तमितविविक्तात्मख्यातित्वाद्यस्मादज्ञानमय
भावको करता है उस भावका हीकर्मत्वको प्राप्त हुएका हीकर्ता वह होता है (अर्थात् वह
भाव आत्माका कर्म है और आत्मा उसका कर्ता है) वह भाव ज्ञानीको ज्ञानमय ही है, क्योंकि
उसे सम्यक् प्रकारसे स्व-परके विवेकसे (सर्व परद्रव्यभावोंसे) भिन्न आत्माकी ख्याति अत्यन्त
उदयको प्राप्त हुई है
और वह भाव अज्ञानीको तो अज्ञानमय ही है, क्योंकि उसे सम्यक् प्रकारसे
स्व-परका विवेक न होनेसे भिन्न आत्माकी ख्याति अत्यन्त अस्त हो गई है
भावार्थ :ज्ञानीको तो स्व-परका भेदज्ञान हुआ है, इसलिये उसके अपने ज्ञानमय
भावका ही कर्तृत्व है; और अज्ञानीको स्व-परका भेदज्ञान नहीं है, इसलिये उसके अज्ञानमय
भावका ही कर्तृत्व है
।।१२६।।
अब यह कहते हैं कि ज्ञानमय भावसे क्या होता है और अज्ञानमय भावसे क्या होता है :
अज्ञानमय अज्ञानिका, जिससे करे वह कर्मको
पर ज्ञानमय है ज्ञानिका, जिससे करे नहिं कर्मको ।।१२७।।
गाथार्थ :[अज्ञानिनः ] अज्ञानीके [अज्ञानमयः ] अज्ञानमय [भावः ] भाव है, [तेन ]
इसलिये अज्ञानी [कर्माणि ] क र्मोंको [करोति ] क रता है, [ज्ञानिनः तु ] और ज्ञानीके तो
[ज्ञानमयः ] ज्ञानमय (भाव) है, [तस्मात् तु ] इसलिये ज्ञानी [कर्माणि ] क र्मोंको [न करोति ]
नहीं क रता
टीका :अज्ञानीके, सम्यक् प्रकारसे स्व-परका विवेक न होनेके कारण भिन्न

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एव भावः स्यात्, तस्मिंस्तु सति स्वपरयोरेकत्वाध्यासेन ज्ञानमात्रात्स्वस्मात्प्रभ्रष्टः पराभ्यां
रागद्वेषाभ्यां सममेकीभूय प्रवर्तिताहंकारः स्वयं किलैषोऽहं रज्ये रुष्यामीति रज्यते रुष्यति च;
तस्मादज्ञानमयभावादज्ञानी परौ रागद्वेषावात्मानं कुर्वन् करोति कर्माणि
ज्ञानिनस्तु सम्यक्स्वपरविवेकेनात्यन्तोदितविविक्तात्मख्यातित्वाद्यस्मात् ज्ञानमय एव भावः
स्यात्, तस्मिंस्तु सति स्वपरयोर्नानात्वविज्ञानेन ज्ञानमात्रे स्वस्मिन्सुनिविष्टः पराभ्यां रागद्वेषाभ्यां
पृथग्भूततया स्वरसत एव निवृत्ताहंकारः स्वयं किल केवलं जानात्येव, न रज्यते, न च रुष्यति,
तस्मात् ज्ञानमयभावात् ज्ञानी परौ रागद्वेषावात्मानमकुर्वन्न करोति कर्माणि
आत्माकी ख्याति अत्यन्त अस्त हो गई होनेसे, अज्ञानमय भाव ही होता है, और उसके होनेसे,
स्व-परके एकत्वके अध्यासके कारण ज्ञानमात्र ऐसे निजमेंसे (आत्मस्वरूपमेंसे) भ्रष्ट हुआ, पर
ऐसे रागद्वेषके साथ एक होकर जिसके अहंकार प्रवर्त रहा है ऐसा स्वयं ‘यह मैं वास्तवमें
रागी हूँ, द्वेषी हूँ (अर्थात् यह मैं राग करता हूँ, द्वेष करता हूँ )’ इसप्रकार (मानता हुआ) रागी
और द्वेषी होता है; इसलिये अज्ञानमय भावके कारण अज्ञानी अपनेको पर ऐसे रागद्वेषरूप करता
हुआ कर्मोंको करता है
ज्ञानीके तो, सम्यक् प्रकारसे स्वपरविवेकके द्वारा भिन्न आत्माकी ख्याति अत्यन्त उदयको
प्राप्त हुई होनेसे, ज्ञानमय भाव ही होता है, और उसके होनेसे, स्व-परके भिन्नत्वके विज्ञानके
कारण ज्ञानमात्र ऐसे निजमें सुनिविष्ट (सम्यक् प्रकारसे स्थित) हुआ, पर ऐसे रागद्वेषसे
पृथग्भूतताके (भिन्नत्वके) कारण निजरससे ही जिसके अहंकार निवृत्त हुआ है ऐसा स्वयं
वास्तवमें मात्र जानता ही है, रागी और द्वेषी नहीं होता (अर्थात् रागद्वेष नहीं करता); इसलिये
ज्ञानमय भावके कारण ज्ञानी अपनेको पर ऐसे रागद्वेषरूप न करता हुआ कर्मोंको नहीं करता
भावार्थ :इस आत्माके क्रोधादिक मोहनीय कर्मकी प्रकृतिका (अर्थात् रागद्वेषका)
उदय आने पर, अपने उपयोगमें उसका रागद्वेषरूप मलिन स्वाद आता है अज्ञानीके स्व-परका
भेदज्ञान न होनेसे वह यह मानता है कि ‘‘यह रागद्वेषरूप मलिन उपयोग ही मेरा स्वरूप है
वही मैं हूँ’’ इसप्रकार रागद्वेषमें अहंबुद्धि करता हुआ अज्ञानी अपनेको रागीद्वेषी करता है;
इसलिये वह कर्मोंको करता है इसप्रकार अज्ञानमय भावसे कर्मबन्ध होता है
ज्ञानीके भेदज्ञान होनेसे वह ऐसा जानता है कि ‘‘ज्ञानमात्र शुद्ध उपयोग है वही मेरा
स्वरूप हैवही मैं हूँ; रागद्वेष कर्मोंका रस है, वह मेरा स्वरूप नहीं है’’ इसप्रकार रागद्वेषमें
अहंबुद्धि न करता हुआ ज्ञानी अपनेको रागीद्वेषी नहीं करता, केवल ज्ञाता ही रहता है; इसलिये

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(आर्या)
ज्ञानमय एव भावः कुतो भवेत् ज्ञानिनो न पुनरन्यः
अज्ञानमयः सर्वः कुतोऽयमज्ञानिनो नान्यः ।।६६।।
णाणमया भावाओ णाणमओ चेव जायदे भावो
जम्हा तम्हा णाणिस्स सव्वे भावा हु णाणमया ।।१२८।।
अण्णाणमया भावा अण्णाणो चेव जायदे भावो
जम्हा तम्हा भावा अण्णाणमया अणाणिस्स ।।१२९।।
ज्ञानमयाद्भावात् ज्ञानमयश्चैव जायते भावः
यस्मात्तस्माज्ज्ञानिनः सर्वे भावाः खलु ज्ञानमयाः ।।१२८।।
वह कर्मोंको नहीं करता इसप्रकार ज्ञानमय भावसे कर्मबन्ध नहीं होता ।।१२७।।
अब आगेकी गाथाके अर्थका सूचक काव्य कहते हैं :
श्लोकार्थ :[ज्ञानिनः कुतः ज्ञानमयः एव भावः भवेत् ] यहाँ प्रश्न यह है कि ज्ञानीको
ज्ञानमय भाव ही क्यों होता है [पुनः ] और [अन्यः न ] अन्य (अज्ञानमय भाव) क्यों नहीं होता ?
[अज्ञानिनः कुतः सर्वः अयम् अज्ञानमयः ] तथा अज्ञानीके सभी भाव अज्ञानमय ही क्यों होते हैं
तथा [अन्यः न ] अन्य (ज्ञानमय भाव) क्यों नहीं होते ?
।६६।
इसी प्रश्नके उत्तररूप गाथा कहते हैं :
ज्यों ज्ञानमय को भावमेंसे ज्ञानभाव हि उपजते
यों नियत ज्ञानीजीवके सब भाव ज्ञानमयी बने ।।१२८।।
अज्ञानमय को भावसे अज्ञानभाव हि ऊपजे
इस हेतुसे अज्ञानिके अज्ञानमय भाव हि बने ।।१२९।।
गाथार्थ :[यस्मात् ] क्योंकि [ज्ञानमयात् भावात् च ] ज्ञानमय भावमेंसे [ज्ञानमयः
एव ] ज्ञानमय ही [भावः ] भाव [जायते ] उत्पन्न होता है, [तस्मात् ] इसलिये [ज्ञानिनः ] ज्ञानीके
[सर्वे भावाः ] समस्त भाव [खलु ] वास्तवमें [ज्ञानमयाः ] ज्ञानमय ही होते हैं
[च ] और,
[यस्मात् ] क्योंकि [अज्ञानमयात् भावात् ] अज्ञानमय भावमेंसे [अज्ञानः एव ] अज्ञानमय ही

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अज्ञानमयाद्भावादज्ञानश्चैव जायते भावः
यस्मात्तस्माद्भावा अज्ञानमया अज्ञानिनः ।।१२९।।
यतो ह्यज्ञानमयाद्भावाद्यः कश्चनापि भावो भवति स सर्वोऽप्यज्ञानमयत्वमनति-
वर्तमानोऽज्ञानमय एव स्यात्, ततः सर्वे एवाज्ञानमया अज्ञानिनो भावाः यतश्च ज्ञानमयाद्भावाद्यः
कश्चनापि भावो भवति स सर्वोऽपि ज्ञानमयत्वमनतिवर्तमानो ज्ञानमय एव स्यात्, ततः सर्वे
एव ज्ञानमया ज्ञानिनो भावाः
(अनुष्टुभ्)
ज्ञानिनो ज्ञाननिर्वृत्ताः सर्वे भावा भवन्ति हि
सर्वेऽप्यज्ञाननिर्वृत्ता भवन्त्यज्ञानिनस्तु ते ।।६७।।
अथैतदेव दृष्टान्तेन समर्थयते
[भावः ] भाव [जायते ] उत्पन्न होता है, [तस्मात् ] इसलिये [अज्ञानिनः ] अज्ञानीके [भावाः ]
भाव [अज्ञानमयाः ] अज्ञानमय ही होते हैं
टीका :वास्तवमें अज्ञानमय भावमेंसे जो कोई भाव होता है वह सब ही
अज्ञानमयताका उल्लंघन न करता हुआ अज्ञानमय ही होता है, इसलिये अज्ञानीके सभी भाव
अज्ञानमय होते हैं
और ज्ञानमय भावमेंसे जो कोई भी भाव होता है वह सब ही ज्ञानमयताका
उल्लंघन न करता हुआ ज्ञानमय ही होता है, इसलिये ज्ञानीके सभी भाव ज्ञानमय होते हैं
भावार्थ :ज्ञानीका परिणमन अज्ञानीके परिणमनसे भिन्न ही प्रकारका है अज्ञानीका
परिणमन अज्ञानमय और ज्ञानीका ज्ञानमय है; इसलिये अज्ञानीके क्रोध, मान, व्रत, तप
इत्यादि समस्त भाव अज्ञानजातिका उल्लंघन न करनेसे अज्ञानमय ही हैं और ज्ञानीके समस्त
भाव ज्ञानजातिका उल्लंघन न करनेसे ज्ञानमय ही हैं
।।१२८-१२९।।
अब इसी अर्थका कलशरूप काव्य कहते हैं :
श्लोकार्थ :[ज्ञानिनः ] ज्ञानीके [सर्वे भावाः ] समस्त भाव [ज्ञाननिर्वृत्ताः हि ]
ज्ञानसे रचित [भवन्ति ] होते हैं [तु ] और [अज्ञानिनः ] अज्ञानीके [सर्वे अपि ते ] समस्त
भाव [अज्ञाननिर्वृत्ताः ] अज्ञानसे रचित [भवन्ति ] होते हैं
।६७।
अब इसी अर्थको दृष्टान्तसे दृढ़ करते हैं :

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कणयमया भावादो जायंते कुंडलादओ भावा
अयमयया भावादो जह जायंते दु कडयादी ।।१३०।।
अण्णाणमया भावा अणाणिणो बहुविहा वि जायंते
णाणिस्स दु णाणमया सव्वे भावा तहा होंति ।।१३१।।
कनकमयाद्भावाज्जायन्ते कुण्डलादयो भावाः
अयोमयकाद्भावाद्यथा जायन्ते तु कटकादयः ।।१३०।।
अज्ञानमया भावा अज्ञानिनो बहुविधा अपि जायन्ते
ज्ञानिनस्तु ज्ञानमयाः सर्वे भावास्तथा भवन्ति ।।१३१।।
यथा खलु पुद्गलस्य स्वयं परिणामस्वभावत्वे सत्यपि, कारणानुविधायित्वात्
कार्याणां, जाम्बूनदमयाद्भावाज्जाम्बूनदजातिमनतिवर्तमाना जाम्बूनदकुण्डलादय एव भावा
ज्यों कनकमय को भावमेंसे कुण्डलादिक ऊपजे,
पर लोहमय को भावसे कटकादि भावों नीपजे;
।।१३०।।
त्यों भाव बहुविध ऊपजे अज्ञानमय अज्ञानिके,
पर ज्ञानिके तो सर्व भावहि ज्ञानमय निश्चय बने
।।१३१।।
गाथार्थ :[यथा ] जैसे [कनकमयात् भावात् ] स्वर्णमय भावमेंसे [कुण्डलादयः
भावाः ] स्वर्णमय कुण्डल इत्यादिे भाव [जायन्ते ] होते हैं [तु ] और [अयोमयकात् भावात् ]
लोहमय भावमेंसे [कटकादयः ] लोहमय क ड़ा इत्यादिे भाव [जायन्ते ] होते हैं, [तथा ]
उसीप्रकार [अज्ञानिनः ] अज्ञानीके (अज्ञानमय भावमेंसे) [बहुविधाः अपि ] अनेक प्रकारके
[अज्ञानमयाः भावाः ] अज्ञानमय भाव [जायन्ते ] होते हैं [तु ] और [ज्ञानिनः ] ज्ञानीके (ज्ञानमय
भावमेंसे) [सर्वे ] सभी [ज्ञानमयाः भावाः ] ज्ञानमय भाव [भवन्ति ] होते हैं
टीका :जैसे पुद्गल स्वयं परिणामस्वभावी होने पर भी, कारण जैसे कार्य होनेसे,
सुवर्णमय भावमेंसे सुवर्णजातिका उल्लंघन न करते हुए सुवर्णमय कुण्डल आदि भाव ही होते हैं,
किन्तु लौहमय कड़ा इत्यादि भाव नहीं होते, और लौहमय भावमेंसे, लौहजातिका उल्लंघन न करते
हुए लौहमय कड़ा इत्यादि भाव ही होते हैं, किन्तु सुवर्णमय कुण्डल आदि भाव नहीं होते;
इसीप्रकार जीव स्वयं परिणामस्वभावी होने पर भी, कारण जैसे ही कार्य होनेसे, अज्ञानीके
जो