Page 208 of 642
PDF/HTML Page 241 of 675
single page version
कालायसवलयादय एव भवेयुः, न पुनर्जाम्बूनदकुण्डलादयः; तथा जीवस्य स्वयं परिणाम-
स्वभावत्वे सत्यपि, कारणानुविधायित्वादेव कार्याणां, अज्ञानिनः स्वयमज्ञानमयाद्भावादज्ञान-
जातिमनतिवर्तमाना विविधा अप्यज्ञानमया एव भावा भवेयुः, न पुनर्ज्ञानमयाः, ज्ञानिनश्च
स्वयं ज्ञानमयाद्भावाज्ज्ञानजातिमनतिवर्तमानाः सर्वे ज्ञानमया एव भावा भवेयुः, न
पुनरज्ञानमयाः
स्वयं अज्ञानमय भाव होनेसे उसके (अज्ञानमय भावमेंसे) अज्ञानमय भाव ही होते हैं और ज्ञानी
स्वयं ज्ञानमय भाव होनेसे उसके (ज्ञानमय भावमेंसे) ज्ञानमय भाव ही होते हैं
है
नहीं है, और यद्यपि उदयकी
भाँति ज्ञाता ही है, कर्ता नहीं
ही होते हैं, फि र भी वे रुचिपूर्वक नहीं होते इस कारण उन भावोंको ‘कर्मकी बलवत्तासे होनेवाले भाव’
कहनेमें आते हैं
भी कमी नहीं है, मात्र चारित्रादि सम्बन्धी निर्बलता है
Page 209 of 642
PDF/HTML Page 242 of 675
single page version
निमित्त जो (अज्ञानादि) भाव उनके [हेतुताम् एति ] हेतुत्वको प्राप्त होता है (अर्थात् द्रव्यक र्मके
निमित्तरूप भावोंका हेतु बनता है)
Page 210 of 642
PDF/HTML Page 243 of 675
single page version
मिथ्यात्वका [उदयः ] उदय है; [तु ] और [जीवानां ] जीवोंके [यद् ] जो [अविरमणम् ]
अविरमण अर्थात् अत्यागभाव है वह [असंयमस्य ] असंयमका [उदयः ] उदय [भवेत् ] है [तु ]
और [जीवानां ] जीवोंके [यः ] जो [कलुषोपयोगः ] मलिन (ज्ञातृत्वकी स्वच्छतासे रहित)
उपयोग है [सः ] वह [कषायोदयः ] क षायका उदय है; [तु ] तथा [जीवानां ] जीवोंके [यः ]
जो [शोभनः अशोभनः वा ] शुभ या अशुभ [कर्तव्यः विरतिभावः वा ] प्रवृत्ति या निवृत्तिरूप
[चेष्टोत्साहः ] (मनवचनकाया-आश्रित) चेष्टाका उत्साह है [तं ] उसे [योगोदयं ] योगका उदय
[जानीहि ] जानो
भावरूपसे आठ प्रकार [परिणमते ] परिणमता है, [तत् कार्मणवर्गणागतं ] वह कार्मणवर्गणागत
पुद्गलद्रव्य [यदा ] जब [खलु ] वास्तवमें [जीवनिबद्धं ] जीवमें बँधता है [तदा तु ] तब [जीवः ]
Page 211 of 642
PDF/HTML Page 244 of 675
single page version
निवृत्तिव्यापाररूपेण ज्ञाने स्वदमानो योगोदयः
जीवनिबद्धं यदा स्यात्तदा जीवः स्वयमेवाज्ञानात्परात्मनोरेकत्वाध्यासेनाज्ञानमयानां तत्त्वाश्रद्धानादीनां
स्वस्य परिणामभावानां हेतुर्भवति
असंयमका उदय है; कलुष (मलिन) उपयोगरूप ज्ञानमें स्वादरूप होता हुआ कषायका उदय है;
शुभाशुभ प्रवृत्ति या निवृत्तिके व्यापाररूपसे ज्ञानमें स्वादरूप होता हुआ योगका उदय है
ज्ञानावरणादिभावसे आठ प्रकार स्वयमेव परिणमता है, वह कार्मणवर्गणागत पुद्गलद्रव्य जब जीवमें
निबद्ध होवे तब जीव स्वयमेव अज्ञानसे स्व-परके एकत्वके अध्यासके कारण तत्त्व-अश्रद्धान
आदि अपने अज्ञानमय परिणामभावोंका हेतु होता है
साथ बँधते हैं; और उस समय जीव भी स्वयमेव अपने अज्ञानभावसे अतत्त्वश्रद्धानादि भावरूप
परिणमता है और इसप्रकार अपने अज्ञानमय भावोंका कारण स्वयं ही होता है
Page 212 of 642
PDF/HTML Page 245 of 675
single page version
होते हैं )
[तत् ] इसलिये [जीवभावहेतुभिः विना ] जीवभावरूप निमित्तसे रहित ही अर्थात् भिन्न ही
[कर्मणः ] क र्मका [परिणामः ] परिणाम है
Page 213 of 642
PDF/HTML Page 246 of 675
single page version
एव पुद्गलकर्मणः परिणामः
जो कि कर्मका निमित्त है उससे भिन्न ही पुद्गलकर्मका परिणाम है
पुद्गलद्रव्यका कर्मपरिणाम है
हैं) ऐसा माना जाये [एवं ] तो इसप्रकार [जीवः कर्म च ] जीव और क र्म [द्वे अपि ] दोनों
Page 214 of 642
PDF/HTML Page 247 of 675
single page version
परिणामः
[कर्मोदयहेतुभिः विना ] क र्मोदयरूप निमित्तसे रहित ही अर्थात् भिन्न ही [जीवस्य ] जीवका
[परिणामः ] परिणाम है
अज्ञानपरिणामका निमित्त है उससे भिन्न ही जीवका परिणाम है
भिन्न ही जीवका परिणाम है
Page 215 of 642
PDF/HTML Page 248 of 675
single page version
[तु ] और [जीवे ] जीवमें [कर्म ] कर्म [अबद्धस्पृष्टं ] अबद्ध और अस्पर्शित [भवति ] है ऐसा
[शुद्धनयस्य ] शुद्धनयका कथन है
है ऐसा निश्चयनयका पक्ष है
[समयसारः ] समयसार (अर्थात् निर्विक ल्प शुद्ध आत्मतत्त्व) है
Page 216 of 642
PDF/HTML Page 249 of 675
single page version
बद्धं कर्मेत्येकं पक्षमतिक्रामन्नपि न विकल्पमतिक्रामति; यः पुनर्जीवे बद्धमबद्धं च कर्मेति
विकल्पयति स तु तं द्वितयमपि पक्षमनतिक्रामन् न विकल्पमतिक्रामति
विज्ञानघनस्वभावरूप होकर साक्षात् समयसार होता है
अतिक्रम करता हुआ भी विकल्पका अतिक्रम नहीं करता, और जो ‘जीवमें कर्म अबद्ध है ऐसा
विकल्प करता है वह भी ‘जीवमें कर्म बद्ध है’ ऐसे एक पक्षका अतिक्रम करता हुआ भी
विकल्पका अतिक्रम नहीं करता; और जो यह विकल्प करता है कि ‘जीवमें कर्म बद्ध है और
अबद्ध भी है’ वह उन दोनों पक्षका अतिक्रम न करता हुआ, विकल्पका अतिक्रम नहीं करता
जो समस्त विकल्पका अतिक्रम करता है वही समयसारको प्राप्त करता है
तो उसने विकल्प ही ग्रहण किया; और किसीने दोनों पक्ष लिये, तो उसने भी पक्षरूप विकल्पका
ही ग्रहण किया
Page 217 of 642
PDF/HTML Page 250 of 675
single page version
स्वरूपगुप्ता निवसन्ति नित्यम्
स्त एव साक्षादमृतं पिबन्ति
चिति द्वयोर्द्वाविति पक्षपातौ
स्तस्यास्ति नित्यं खलु चिच्चिदेव
कहते हैं :
एव ] वे ही, [विकल्पजालच्युतशान्तचित्ताः ] जिनका चित्त विकल्पजालसे रहित शान्त हो गया
है ऐसे होते हुए, [साक्षात् अमृतं पिबन्ति ] साक्षात् अमृतको पीते हैं
है, स्वरूपमें प्रवृत्ति होती है और अतीन्द्रिय सुखका अनुभव होता है
इसप्रकार [चिति ] चित्स्वरूप जीवके सम्बन्धमें [द्वयोः ] दो नयोंके [द्वौ पक्षपातौ ] दो पक्षपात
हैं
उसे चित्स्वरूप जीव जैसा है वैसा निरन्तर अनुभवमें आता है)
Page 218 of 642
PDF/HTML Page 251 of 675
single page version
चिति द्वयोर्द्वाविति पक्षपातौ
स्तस्यास्ति नित्यं खलु चिच्चिदेव
चिति द्वयोर्द्वाविति पक्षपातौ
स्तस्यास्ति नित्यं खलु चिच्चिदेव
है
स्वरूपमें प्रवृत्तिरूप चारित्र प्राप्त करके, वीतराग दशा प्राप्त करनी चाहिये
इसप्रकार [चिति ] चित्स्वरूप जीवके सम्बन्धमें [द्वयोः ] दो नयोंके [द्वौ पक्षपातौ ] दो
पक्षपात हैं
(अर्थात् उसे चित्स्वरूप जीव जैसा है वैसा निरन्तर अनुभवमें आता है)
Page 219 of 642
PDF/HTML Page 252 of 675
single page version
चिति द्वयोर्द्वाविति पक्षपातौ
स्तस्यास्ति नित्यं खलु चिच्चिदेव
चिति द्वयोर्द्वाविति पक्षपातौ
स्तस्यास्ति नित्यं खलु चिच्चिदेव
चित्स्वरूप जीवके सम्बन्धमें [द्वयोः ] दो नयोंके [द्वौ पक्षपातौ ] दो पक्षपात हैं
चित्स्वरूप जीव [खलु चित् एव अस्ति ] चित्स्वरूप ही है
चित्स्वरूप जीवके सम्बन्धमें [द्वयोः ] दो नयोंके [द्वौ पक्षपातौ ] दो पक्षपात हैं
चित्स्वरूप जीव [खलु चित् एव अस्ति ] चित्स्वरूप ही है
चित्स्वरूप जीवके सम्बन्धमें [द्वयोः ] दो नयोंके [द्वौ पक्षपातौ ] दो पक्षपात हैं
चित्स्वरूप जीव [खलु चित् एव अस्ति ] चित्स्वरूप ही है
Page 220 of 642
PDF/HTML Page 253 of 675
single page version
चिति द्वयोर्द्वाविति पक्षपातौ
स्तस्यास्ति नित्यं खलु चिच्चिदेव
चिति द्वयोर्द्वाविति पक्षपातौ
स्तस्यास्ति नित्यं खलु चिच्चिदेव
चिति द्वयोर्द्वाविति पक्षपातौ
स्तस्यास्ति नित्यं खलु चिच्चिदेव
चित्स्वरूप जीवके सम्बन्धमें [द्वयोः ] दो नयोंके [द्वौ पक्षपातौ ] दो पक्षपात हैं
जीव [खलु चित् एव अस्ति ] चित्स्वरूप ही है
जीवके सम्बन्धमें [द्वयोः ] दो नयोंके [द्वौ पक्षपातौ ] दो पक्षपात हैं
जीव [खलु चित् एव अस्ति ] चित्स्वरूप ही है
चित्स्वरूप जीवके सम्बन्धमें [द्वयोः ] दो नयोंके [द्वौ पक्षपातौ ] दो पक्षपात हैं
Page 221 of 642
PDF/HTML Page 254 of 675
single page version
चिति द्वयोर्द्वाविति पक्षपातौ
स्तस्यास्ति नित्यं खलु चिच्चिदेव
चिति द्वयोर्द्वाविति पक्षपातौ
स्तस्यास्ति नित्यं खलु चिच्चिदेव
चिति द्वयोर्द्वाविति पक्षपातौ
स्तस्यास्ति नित्यं खलु चिच्चिदेव
[चिति ] चित्स्वरूप जीवके सम्बन्धमें [द्वयोः ] दो नयोंके [द्वौ पक्षपातौ ] दो पक्षपात हैं
चित्स्वरूप जीव [खलु चित् एव अस्ति ] चित्स्वरूप ही है
चित्स्वरूप जीवके सम्बन्धमें [द्वयोः ] दो नयोंके [द्वौ पक्षपातौ ] दो पक्षपात हैं
जीव [खलु चित् एव अस्ति ] चित्स्वरूप ही है
Page 222 of 642
PDF/HTML Page 255 of 675
single page version
चिति द्वयोर्द्वाविति पक्षपातौ
स्तस्यास्ति नित्यं खलु चिच्चिदेव
चिति द्वयोर्द्वाविति पक्षपातौ
स्तस्यास्ति नित्यं खलु चिच्चिदेव
चिति द्वयोर्द्वाविति पक्षपातौ
[चिति ] चित्स्वरूप जीवके सम्बन्धमें [द्वयोः ] दो नयोंके [द्वौ पक्षपातौ ] दो पक्षपात हैं
चित्स्वरूप जीव [खलु चित् एव अस्ति ] चित्स्वरूप ही है
जीवके सम्बन्धमें [द्वयोः ] दो नयोंके [द्वौ पक्षपातौ ] दो पक्षपात हैं
जीव [खलु चित् एव अस्ति ] चित्स्वरूप ही है
[चिति ] चित्स्वरूप जीवके सम्बन्धमें [द्वयोः ] दो नयोंके [द्वौ पक्षपातौ ] दो पक्षपात हैं
चित्स्वरूप जीव [खलु चित् एव अस्ति ] चित्स्वरूप ही है
Page 223 of 642
PDF/HTML Page 256 of 675
single page version
स्तस्यास्ति नित्यं खलु चिच्चिदेव
चिति द्वयोर्द्वाविति पक्षपातौ
स्तस्यास्ति नित्यं खलु चिच्चिदेव
चिति द्वयोर्द्वाविति पक्षपातौ
स्तस्यास्ति नित्यं खलु चिच्चिदेव
चित्स्वरूप जीवके सम्बन्धमें [द्वयोः ] दो नयोंके [द्वौ पक्षपातौ ] दो पक्षपात हैं
जीव [खलु चित् एव अस्ति ] चित्स्वरूप ही है
[परस्य ] ऐसा दूसरे नयका पक्ष हैे; [इति ] इसप्रकार [चिति ] चित्स्वरूप जीवके सम्बन्धमें
[द्वयोः ] दो नयोंके [द्वौ पक्षपातौ ] दो पक्षपात हैं
अस्ति ] चित्स्वरूप ही है
[चिति ] चित्स्वरूप जीवके सम्बन्धमें [द्वयोः ] दो नयोंके [द्वौ पक्षपातौ ] दो पक्षपात हैं
[चित् ] चित्स्वरूप जीव [खलु चित् एव अस्ति ] चित्स्वरूप ही है
Page 224 of 642
PDF/HTML Page 257 of 675
single page version
चिति द्वयोर्द्वाविति पक्षपातौ
स्तस्यास्ति नित्यं खलु चिच्चिदेव
चिति द्वयोर्द्वाविति पक्षपातौ
स्तस्यास्ति नित्यं खलु चिच्चिदेव
चिति द्वयोर्द्वाविति पक्षपातौ
स्तस्यास्ति नित्यं खलु चिच्चिदेव
[चिति ] चित्स्वरूप जीवके सम्बन्धमें [द्वयोः ] दो नयोंके [द्वौ पक्षपातौ ] दो पक्षपात हैं
चित्स्वरूप जीव [खलु चित् एव अस्ति ] चित्स्वरूप ही है
[चिति ] चित्स्वरूप जीवके सम्बन्धमें [द्वयोः ] दो नयोंके [द्वौ पक्षपातौ ] दो पक्षपात हैं
चित्स्वरूप जीव [खलु चित् एव अस्ति ] चित्स्वरूप ही है
[इति ] इसप्रकार [चिति ] चित्स्वरूप जीवके सम्बन्धमें [द्वयोः ] दो नयोंके [द्वौ पक्षपातौ ] दो
पक्षपात हैं
Page 225 of 642
PDF/HTML Page 258 of 675
single page version
चिति द्वयोर्द्वाविति पक्षपातौ
स्तस्यास्ति नित्यं खलु चिच्चिदेव
मेवं व्यतीत्य महतीं नयपक्षकक्षाम्
स्वं भावमेकमुपयात्यनुभूतिमात्रम्
हैे; [इति ] इसप्रकार [चिति ] चित्स्वरूप जीवके सम्बन्धमें [द्वयोः ] दो नयोंके [द्वौ पक्षपातौ ]
दो पक्षपात हैं
चित्स्वरूप जीव जैसा है वैसा निरन्तर अनुभूत होता है)
अनन्त, नित्य अनित्य, वाच्य अवाच्य, नाना अनाना, चेत्य अचेत्य, दृश्य अदृश्य, वेद्य अवेद्य, भात
अभात इत्यादि नयोंके पक्षपात हैं
अनुभव होता है
Page 226 of 642
PDF/HTML Page 259 of 675
single page version
पुष्कलोच्चलविकल्पवीचिभिः
कृत्स्नमस्यति तदस्मि चिन्महः
भीतर और बाहर [समरसैकरसस्वभावं ] समता-रसरूपी एक रस ही जिसका स्वभाव है ऐसे
[अनुभूतिमात्रम् एकम् स्वं भावम् ] अनुभूतिमात्र एक अपने भावको (
[यस्य विस्फु रणम् एव ] जिसका स्फु रण मात्र ही [तत्क्षणं ] तत्क्षण [अस्यति ] उड़ा देता है [तत्
चिन्महः अस्मि ] वह चिन्मात्र तेजःपुञ्ज मैं हूँ
Page 227 of 642
PDF/HTML Page 260 of 675
single page version
विज्ञानघनभूतत्वात् श्रुतज्ञानभूमिकातिक्रान्ततया समस्तनयपक्षपरिग्रहदूरीभूतत्वात् कंचनापि
नयपक्षं परिगृह्णाति, तथा किल यः श्रुतज्ञानावयवभूतयोर्व्यवहारनिश्चयनयपक्षयोः क्षयोपशम-
विजृम्भितश्रुतज्ञानात्मकविकल्पप्रत्युद्गमनेऽपि परपरिग्रहप्रतिनिवृत्तौत्सुक्यतया स्वरूपमेव केवलं
जानाति, न तु खरतरदृष्टिगृहीतसुनिस्तुषनित्योदितचिन्मयसमयप्रतिबद्धतया तदात्वे स्वयमेव
विज्ञानघनभूतत्वात् श्रुतज्ञानात्मकसमस्तान्तर्बहिर्जल्परूपविकल्पभूमिकातिक्रान्ततया समस्तनय-
पक्षपरिग्रहदूरीभूतत्वात्कंचनापि नयपक्षं परिगृह्णाति, स खलु निखिलविकल्पेभ्यः परतरः परमात्मा
ज्ञानात्मा प्रत्यग्ज्योतिरात्मख्यातिरूपोऽनुभूतिमात्रः समयसारः
नयोंके [भणितं ] कथनको [केवलं तु ] मात्र [जानाति ] जानता ही है, [तु ] परन्तु [नयपक्षं ]
नयपक्षको [किञ्चित् अपि ] किंचित्मात्र भी [न गृह्णाति ] ग्रहण नहीं करता
सकल केवलज्ञानके द्वारा सदा स्वयं ही विज्ञानघन हुए होनेसे, श्रुतज्ञानकी भूमिकाकी
अतिक्रान्तताके द्वारा (अर्थात् श्रुतज्ञानकी भूमिकाको पार कर चुकनेके कारण) समस्त नयपक्षके
ग्रहणसे दूर हुए होनेसे, किसी भी नयपक्षको ग्रहण नहीं करते, इसीप्रकार जो (श्रुतज्ञानी आत्मा),
क्षयोपशमसे जो उत्पन्न होते हैं ऐसे श्रुतज्ञानात्मक विकल्प उत्पन्न होने पर भी परका ग्रहण करनेके
प्रति उत्साह निवृत्त हुआ होनेसे, श्रुतज्ञानके अवयवभूत व्यवहारनिश्चयनयपक्षोंके स्वरूपको ही
केवल जानता है परन्तु, अति तीक्ष्ण ज्ञानदृष्टिसे ग्रहण किये गये, निर्मल नित्य-उदित, चिन्मय
समयसे प्रतिबद्धताके द्वारा (अर्थात् चैतन्यमय आत्माके अनुभवन द्वारा) अनुभवके समय स्वयं
ही विज्ञानघन हुआ होनेसे, श्रुतज्ञानात्मक समस्त अन्तर्जल्परूप तथा बहिर्जल्परूप विकल्पोंकी
भूमिकाकी अतिक्रान्तताके द्वारा समस्त नयपक्षके ग्रहणसे दूर होता हुआ होनेसे, किसी भी
नयपक्षको ग्रहण नहीं करता, वह (आत्मा) वास्तवमें समस्त विकल्पोंसे अति पर, परमात्मा,
ज्ञानात्मा, प्रत्यग्ज्योति, आत्मख्यातिरूप, अनुभूतिमात्र समयसार है
है तब वह नयपक्षके स्वरूपका ज्ञाता ही है