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मिह निहितपदानां हन्त हस्तावलम्बः
परविरहितमन्तः पश्यतां नैष किंचित
जो शुद्ध होता है वह अशुद्ध नहीं होता इत्यादि नयोंके विषयमें विरोध है
जिस प्रकार विद्यमान वस्तु है उसी प्रकार कहकर विरोध मिटा देता है, असत् कल्पना नहीं करता
व्यवहार कहता है
एकान्त पक्षका विषय नहीं है तथापि वे एक ही धर्मको ग्रहण करके वस्तुकी असत्य कल्पना
करते हैं
जीवादि तत्त्वोंको शुद्धनयके द्वारा जाननेसे सम्यक्त्व होता है, यह कहते हैं
प्रयोजनवान कहा तथापि वह कुछ वस्तुभूत नहीं है :
पदानां ] जिन्होंने अपना पैर रखा है ऐसे पुरुषोंको, [हन्त ] अरेरे ! [हस्तावलम्बः स्यात् ]
हस्तावलम्बन तुल्य कहा है, [तद्-अपि ] तथापि [चित्-चमत्कार-मात्रं पर-विरहितं परमं अर्थं
अन्तः पश्यतां ] जो पुरुष चैतन्य-चमत्कारमात्र, परद्रव्यभावोंसे रहित (शुद्धनयके विषयभूत) परम
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पूर्णज्ञानघनस्य दर्शनमिह द्रव्यान्तरेभ्यः पृथक्
तन्मुक्त्वा नवतत्त्वसन्ततिमिमामात्मायमेकोऽस्तु नः
चारित्रभावको प्राप्त होते हैं उन्हें [एषः ] यह व्यवहारनय [किञ्चित् न ] कुछ भी प्रयोजनवान
नहीं है
नियमसे सम्यग्दर्शन है
घनस्य ] पूर्णज्ञानघन है
एक ही हमें प्राप्त हो’’
देखना, श्रद्धान करना सो नियमसे सम्यग्दर्शन है
रहता
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व्याप्त, पूर्ण चैतन्य केवलज्ञानरूप
सम्यग्दर्शन नहीं होता
सबको सम्यक्त्व सिद्ध हो जायगा
[नव-तत्त्व-गतत्वे अपि ] नवतत्त्वोंमें प्राप्त होने पर भी [एकत्वं ] अपने एकत्वको [न
मुंचति ] नहीं छोड़ती
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नवतत्त्वेष्वेकत्वद्योतिना भूतार्थनयेनैकत्वमुपानीय शुद्धनयत्वेन व्यवस्थापितस्यात्मनोऽनुभूतेरात्म-
ख्यातिलक्षणायाः सम्पद्यमानत्वात
बन्ध [च ] और [मोक्षः ] मोक्ष [सम्यक्त्वम् ]
कहे जाते हैं ऐसे ये नवतत्त्व
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जीवद्रव्यस्वभावमुपेत्यानुभूयमानतायामभूतार्थानि
स्वभावके समीप जाकर अनुभव करनेपर वे अभूतार्थ हैं, असत्यार्थ हैं; (वे जीवके एकाकार
स्वरूपमें नहीं हैं;) इसलिये इन नव तत्त्वोंमें भूतार्थ नयसे एक जीव ही प्रकाशमान है
और सर्व कालमें अस्खलित एक जीवद्रव्यके स्वभावके समीप जाकर अनुभव करने पर वे
अभूतार्थ हैं, असत्यार्थ हैं
है सो सम्यग्दर्शन ही है
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कनकमिव निमग्नं वर्णमालाकलापे
प्रतिपदमिदमात्मज्योतिरुद्योतमानम
नव तत्त्वोंको मानता है
सात तत्त्व कुछ भी वस्तु नहीं हैं; वे निमित्त-नैमित्तिक भावसे हुए थे, इसलिए जब वह निमित्त-
नैमित्तिकभाव मिट गया तब जीव-पुद्गल भिन्न भिन्न होनेसे अन्य कोई वस्तु (पदार्थ) सिद्ध नहीं
हो सकती
हो सकती है
की गई है, [वर्णमाला-कलापे निमग्नं कनकम् इव ] जैसे वर्णोके समूहमें छिपे हुए एकाकार
स्वर्णको बाहर निकालते हैं
चित्चमत्कारमात्र उद्योतमान है
पर्यायबुद्धिका एकान्त मत रखो
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भेदरूप होते हैं)
ऐसे एक जीवके स्वभावका अनुभव करनेपर वे अभूतार्थ हैं, असत्यार्थ हैं
सो पर्यायार्थिक नय है
किया हुआ) शुद्धवस्तुमात्र जीवके (चैतन्यमात्र) स्वभावका अनुभव करनेपर वे अभूतार्थ हैं,
असत्यार्थ हैं
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क्वचिदपि च न विद्मो याति निक्षेपचक्रम
न्ननुभवमुपयाते भाति न द्वैतमेव
करनेपर वे चारों ही अभूतार्थ हैं, असत्यार्थ हैं
श्रद्धानके लिए प्रमाणादिकी कोई आवश्यकता नहीं है
यथाख्यात चारित्र प्रगट होता है; उससे केवलज्ञानकी प्राप्ति होती है
चैतन्य-चमत्कारमात्र तेजःपुञ्ज आत्मा है, उसका अनुभव होनेपर [नयश्रीः न उदयति ]
नयोंकी लक्ष्मी उदित नहीं होती, [प्रमाणं अस्तम् एति ] प्रमाण अस्त हो जाता है [अपि
च ] और [निक्षेपचक्रम् क्वचित् याति, न विद्मः ] निक्षेपोंका समूह कहां चाला जाता है सो
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मापूर्णमाद्यन्तविमुक्तमेकम
प्रकाशयन
है
यथार्थ श्रद्धाके बिना जो शुद्ध अनुभव किया जाता है वह भी मिथ्यारूप है; शून्यका प्रसङ्ग होनेसे
तुम्हारा अनुभव भी आकाश-कुसुमके अनुभवके समान है
जो किसीसे उत्पन्न नहीं किया गया, और कभी भी किसीसे जिसका विनाश नही होता, ऐसे
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ज्ञानमें भेद ज्ञात होना सो विकल्प है
विशेष रहित, [असंयुक्तं ] अन्यके संयोगसे रहित
एक ही प्रकाशमान है
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बिसिनीपत्रस्वभावमुपेत्यानुभूयमानतायामभूतार्थम
मुपेत्यानुभूयमानतायामभूतार्थम
भूयमानतायामभूतार्थम
होना अभूतार्थ है
बद्धस्पृष्टता अभूतार्थ है
अभूतार्थ है
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मुपेत्यानुभूयमानतायामभूतार्थम्, तथात्मनो वृद्धिहानिपर्यायेणानुभूयमानतायामनियतत्वं भूतार्थमपि
नित्यव्यवस्थितमात्मस्वभावमुपेत्यानुभूयमानतायामभूतार्थम
कांचनस्वभावमुपेत्यानुभूयमानतायामभूतार्थम
शीतमप्स्वभावमुपेत्यानुभूयमानतायामभूतार्थम
मानतायामभूतार्थम
विशेषता अभूतार्थ है
संयुक्त ता अभूतार्थ है
संयुक्त ता अभूतार्थ है
कर्मके निमित्तसे होनेवाली नर, नारक आदि पर्यायोंमें भिन्न भिन्न स्वरूपसे दिखाई देता है,
(३) शक्ति के अविभाग प्रतिच्छेद (अंश) घटते भी हैं, बढ़ते भी हैं
गुणोंसे विशेषरूप दिखाई देता है और (५) कर्मके निमित्तसे होनेवाले मोह, राग, द्वेष आदि
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आत्माको कैसे जाना जा सकता है ? इसलिए दूसरे नयको
नैमित्तिक भावोंसे रहित देखा जाये तो सर्व (पांच) भावोंसे जो अनेकप्रकारता है वह अभूतार्थ
है
है
परद्रव्यके भावोंस्वरूप परिणमित नहीं होता; इसलिए कर्म बन्ध नहीं होता और संसारसे निवृत्त
हो जाता है
और उससे मिथ्यात्व आ जायेगा, इसप्रकार यह शुद्धनयका आलम्बन भी वेदान्तियोंकी भांति
मिथ्यादृष्टिपना लायेगा
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स्फु टमुपरि तरन्तोऽप्येत्य यत्र प्रतिष्ठाम
बद्धस्पृष्टादिता असत्यार्थ है
होनेसे प्रत्यक्षरूप भी क हलाती है, और सम्पूर्णज्ञान
जानकर श्रद्धान करना चाहिए, पर्यायबुद्धि नहीं रहना चाहिए
स्फु टम् उपरि तरन्तः अपि ] स्पष्टतया उस स्वभावके ऊ पर तरते हैं तथापि वे [प्रतिष्ठाम् न हि
विदधति ] (उसमें) प्रतिष्ठा नहीं पाते, क्योंकि द्रव्यस्वभाव तो नित्य है, एकरूप है और यह भाव
अनित्य हैं, अनेकरूप हैं; पर्यायें द्रव्यस्वभावमें प्रवेश नहीं करती, ऊ पर ही रहती हैं
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र्यद्यन्तः किल कोऽप्यहो कलयति व्याहत्य मोहं हठात
नित्यं कर्मकलंक पंक विकलो देवः स्वयं शाश्वतः
ज्ञानानुभूतिरियमेव किलेति बुद्धवा
मेकोऽस्ति नित्यमवबोधघनः समन्तात
अज्ञान जहां तक रहता है वहां तक यह अनुभव यथार्थ नहीं होता
करके [अन्तः ] अन्तरङ्गमें [किल अहो कलयति ] अभ्यास करे
महिमा है ऐसा [व्यक्त : ] व्यक्त (अनुभवगोचर), [ध्रुवं ] निश्चल, [शाश्वतः ] शाश्वत, [नित्यं
कर्म-कलङ्क-पङ्क-विकलः ] नित्य कर्मकलङ्क-कर्दमसे रहित
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अनुभूति है [इति बुद्ध्वा ] यह जानकर तथा [आत्मनि आत्मानम् सुनिष्प्रकम्पम् निवेश्य ] आत्मामें
आत्माको निश्चल स्थापित करके, [नित्यम् समन्तात् एकः अवबोध-घनः अस्ति ] ‘सदा सर्व ओर
एक ज्ञानघन आत्मा है’ इसप्रकार देखना चाहिये
वो द्रव्य और जु भाव, जिनशासन सकल देखे अहो
देखता है वह [सर्वम् जिनशासनं ] सर्व जिनशासनको [पश्यति ] देखता है,
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भावाभ्याम
लुब्धानां स्वदते, न पुनरन्यसंयोगशून्यतोपजातसामान्यविशेषाविर्भावतिरोभावाभ्याम
ज्ञानमात्रका अनुभव किया जाता है तब ज्ञान प्रगट अनुभवमें आता है तथापि जो अज्ञानी हैं, ज्ञेयोंमें
आसक्त हैं उन्हें वह स्वादमें नहीं आता
शाकादिके स्वादभेदसे भेदरूप
विशेषके तिरोभावसे अनुभवमें आनेवाला जो एकाकार अभेदरूप लवण है उसका स्वाद नहीं
आता; और परमार्थसे देखा जाये तो, विशेषके आविर्भावसे अनुभवमें आनेवाला (क्षाररसरूप)
लवण ही सामान्यके आविर्भावसे अनुभवमें आनेवाला (क्षाररसरूप) लवण है
आविर्भावसे अनुभवमें आनेवाला जो (विशेषभावरूप, भेदरूप, अनेकाकाररूप) ज्ञान है वह
अज्ञानी, ज्ञेय-लुब्ध जीवोंको स्वादमें आता है, किन्तु अन्यज्ञेयाकारकी संयोगरहिततासे उत्पन्न
सामान्यके आविर्भाव और विशेषके तिरोभावसे अनुभवमें आनेवाला जो एकाकार अभेदरूप
ज्ञान वह स्वादमें नहीं आता; और परमार्थसे विचार किया जाये तो, जो ज्ञान विशेषके
आविर्भावसे अनुभवमें आता है वही ज्ञान सामान्यके आविर्भावसे अनुभवमें आता है
ही अनुभव किये जाने पर, सर्वतः एक क्षाररसत्वके कारण क्षाररूपसे स्वादमें आती है
उसीप्रकार आत्मा भी, परद्रव्यके संयोगका व्यवच्छेद करके केवल आत्माका ही अनुभव
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र्महः परममस्तु नः सहजमुद्विलासं सदा
यदेकरसमुल्लसल्लवणखिल्यलीलायितम
आस्वादन नहीं करते
ज्ञान है
अनुभव, ज्ञानका अनुभव है; और यह अनुभवन भावश्रुतज्ञानरूप जिनशासनका अनुभवन है
परिणमनसे परिपूर्ण है, [उल्लसत्-लवण-खिल्य-लीलायितम् ] जैसे नमककी डली एक
क्षाररसकी लीलाका आलम्बन करती है, उसीप्रकार जो तेज [एक-रसम् आलम्बते ] एक
ज्ञानरसस्वरूपका आलम्बन करता है; [अखण्डितम् ] जो तेज अखण्डित है
अविनाशीरूपसे अन्तरङ्गमें और बाहरमें प्रगट दैदीप्यमान है
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[द्विधा ] दो प्रकारसे, [एकः ] एक ही [नित्यम् समुपास्यताम् ] नित्य सेवन करने योग्य है; उसका
सेवन करो
तीनोंको [निश्चयतः ] निश्चयनयसे [आत्मानं च एव ] एक आत्मा ही [जानीहि ] जानो
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ही हैं
दूसरोंको भी यही उपदेश करना चाहिए
अवस्थारूप (‘अमेचक’) भी है, [दर्शन-ज्ञान-चारित्रैः त्रित्वात् ] क्योंकि इसे दर्शन-ज्ञान-
चारित्रसे तो त्रित्व (तीनपना) है और [स्वयम् एकत्वतः ] अपनेसे अपनेको एकत्व है