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प्रतिज्ञायापि, दुरन्तकर्मचक्रोत्तरणक्लीबतया परमार्थभूतज्ञानभवनमात्रं सामायिकमात्मस्वभाव-
मलभमानाः, प्रतिनिवृत्तस्थूलतमसंक्लेशपरिणामकर्मतया प्रवृत्तमानस्थूलतमविशुद्धपरिणामकर्माणः,
कर्मानुभवगुरुलाघवप्रतिपत्तिमात्रसन्तुष्टचेतसः, स्थूललक्ष्यतया सकलं कर्मकाण्डमनुन्मूलयन्तः,
स्वयमज्ञानादशुभकर्म केवलं बन्धहेतुमध्यास्य च, व्रतनियमशीलतपःप्रभृतिशुभकर्म बन्धहेतुमप्य-
जानन्तो, मोक्षहेतुमभ्युपगच्छन्ति
मोक्षके कारणभूत सामायिककी
भवनमात्र जो सामायिक उस सामायिकस्वरूप आत्मस्वभावको न प्राप्त होते हुए, जिनके अत्यन्त
स्थूल संक्लेशपरिणामरूप कर्म निवृत्त हुए हैं और अत्यन्त स्थूल विशुद्धपरिणामरूप कर्म प्रवर्त रहे
हैं ऐसे वे, कर्मके अनुभवके गुरुत्व-लघुत्वकी प्राप्तिमात्रसे ही सन्तुष्ट चित्त होते हुए भी (स्वयं)
स्थूल लक्ष्यवाले होकर (संक्लेशपरिणामको छोड़ते हुए भी) समस्त कर्मकाण्डको मूलसे नहीं
उखाड़ते
जानते हुए, मोक्षके कारणरूपमें अंगीकार करते हैं
स्थूल संक्लेशपरिणामोंको छोड़कर ऐसे ही स्थूल विशुद्धपरिणामोंमें (शुभ परिणामोंमें) राचते हैं
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त्याग [चरणं ] चारित्र है;
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हेतोरेवैकद्रव्यस्वभावत्वात् तत्स्वभावेन ज्ञानभवनस्य भवनात्
(
स्वभाववाला (पुद्गलस्वभाववाला) है, इसलिये उसके स्व-भावसे ज्ञानका भवन (होना) नहीं
बनता,
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[तत् ] इसलिये [तद् एव मोक्षहेतुः ] ज्ञान ही मोक्षका कारण है
[तत् ] इसलिये [क र्म मोक्षहेतुः न ] क र्म मोक्षका कारण नहीं है
वह मोक्षके कारणका तिरोधायिभावस्वरूप (तिरोधानकर्ता) है, इसीलिये [तत् निषिध्यते ] उसका
निषेध किया गया है
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[यथा ] जैसे [वस्त्रस्य ] वस्त्रका [श्वेतभावः ] श्वेतभाव [मलमेलनासक्तः ] मैलके मिलनसे लिप्त
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वस्त्रस्वभावभूतश्वेतस्वभाववत्
होता है
तिरोभूत हो जाता है
ज्ञानका चारित्ररूप परिणमन कषायकर्मसे तिरोभूत होता है
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मवतिष्ठते; ततो नियतं स्वयमेव कर्मैव बन्धः
[न विजानाति ] नहीं जानता
प्रवर्तमान कर्ममलके द्वारा लिप्त या व्याप्त होनेसे ही, बन्ध-अवस्थामें सर्व प्रकारसे सम्पूर्ण अपनेको
अर्थात् सर्व प्रकारसे सर्व ज्ञेयोंको जाननेवाले अपनेको न जानता हुआ, इसप्रकार प्रत्यक्ष
अज्ञानभावसे (
है
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[तस्य उदयेन ] उसके उदयसे [जीवः ] जीव [अज्ञानी ] अज्ञानी [भवति ] होता है [ज्ञातव्यः ]
ऐसा जानना चाहिए [चारित्रप्रतिनिबद्धः ] चारित्रको रोक नेवाला [क षायः ] क षाय है ऐसा
[जिनवरैः ] जिनवरोंने [परिक थितः ] क हा है; [तस्य उदयेन ] उसके उदयसे [जीवः ] जीव
[अचारित्रः ] अचारित्रवान [भवति ] होता है [ज्ञातव्यः ] ऐसा जानना चाहिए
उदयसे ही ज्ञानके अज्ञानीपना होता है
है ऐसा समझना चाहिए
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संन्यस्ते सति तत्र का किल कथा पुण्यस्य पापस्य वा
नैष्कर्म्यप्रतिबद्धमुद्धतरसं ज्ञानं स्वयं धावति
कर्मज्ञानसमुच्चयोऽपि विहितस्तावन्न काचित्क्षतिः
मोक्षाय स्थितमेकमेव परमं ज्ञानं विमुक्तं स्वतः
त्याज्य है तब फि र पुण्य अच्छा है और पाप बुरा
[क र्मज्ञानसमुच्चयः अपि विहितः, न काचित् क्षतिः ] क र्म और ज्ञानका एकत्रितपना शास्त्रमें क हा
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मग्ना ज्ञाननयैषिणोऽपि यदतिस्वच्छन्दमन्दोद्यमाः
ये कुर्वन्ति न कर्म जातु न वशं यान्ति प्रमादस्य च
प्रगट होता है [तत् बन्धाय ] वह तो बंधका कारण है, और [मोक्षाय ] मोक्षका कारण तो, [एक म्
एव परमं ज्ञानं स्थितम् ] जो एक परम ज्ञान है वह एक ही है
होता है
जानते
स्वयं निरन्तर ज्ञानरूप होते हुए
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मूलोन्मूलं सकलमपि तत्कर्म कृत्वा बलेन
ज्ञानज्योतिः कवलिततमः प्रोज्जजृम्भे भरेण
करके उसमें पक्षपात करते हैं
हैं
परिणामोंमें वे जीव हेयबुद्धिसे प्रवर्तते हैं, किन्तु शुभ कर्मोंको निरर्थक मानकर तथा छोड़कर
स्वच्छन्दतया अशुभ कर्मोंमें प्रवृत्त होनेकी बुद्धि उन्हें कभी नहीं होती
अपि क र्म ] ऐसे समस्त क र्मको [बलेन ] अपने बल द्वारा [मूलोन्मूलं कृत्वा ] समूल उखाड़कर
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अंधकारका नाश क र दिया है, [हेला-उन्मिलत् ] जो लीलामात्रसे (
क्रीड़ा प्रारम्भ की है (जब तक सम्यग्दृष्टि छद्मस्थ है तब तक ज्ञानज्योति के वलज्ञानके साथ
शुद्धनयके बलसे परोक्ष क्रीड़ा क रती है, के वलज्ञान होने पर साक्षात् होती है
सहित प्रकाशित हुई
है कि ‘ज्ञानज्योतिने केवलज्ञानके साथ क्रीड़ा प्रारंभ की है’
पुण्य रु पाप शुभाशुभभावनि बन्ध भये सुखदुःखकरा रे
बन्धके कारण हैं दोऊ रूप, इन्हें तजि जिनमुनि मोक्ष पधारे
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समररंगपरागतमास्रवम्
जयति दुर्जयबोधधनुर्धरः
दुर्जयबोधधनुर्धरः ] यह दुर्जय ज्ञान-धनुर्धर [जयति ] जीत लेता है
चाहिए उतना वह पूरा करता हैै) और गंभीर है (अर्थात् छद्मस्थ जीव जिसका पार नहीं पा सक ते)
‘ज्ञानरूप धनुर्धर आस्रवको जीतता है’
आस्रवको जीत लेता है अर्थात् अन्तर्मुहूर्तमें कर्मोंका नाश करके केवलज्ञान उत्पन्न करता है
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होते हैं [च ] और [तेषाम् अपि ] उनका भी (असंज्ञ आस्रवोंके भी क र्मबंधका निमित्त होनेमें)
[रागद्वेषादिभावक रः जीवः ] रागद्वेषादि भाव क रनेवाला जीव [भवति ] कारण (निमित्त) होता है
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किलास्रवाः
आस्रवणके निमित्तत्वके निमित्त रागद्वेषमोह हैं
आस्रव हैं
रागद्वेषमोह ही आस्रव हैं
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आस्रवनिरोधः
[तानि ] नवीन क र्मोंको [अबध्नन् ] नहीं बाँधता [सः ] वह, [सन्ति ] सत्तामें रहे हुए
[पूर्वनिबद्धानि ] पूर्वबद्ध कर्मोंको [जानाति ] जानता ही है
भावरूप राग-द्वेष-मोह जो कि आस्रवभूत (आस्रवस्वरूप) हैं उनका निरोध होनेसे, ज्ञानीके
आस्रवका निरोध होता ही है
करता
होता
है
है और अपनी शक्तिके अनुसार उन्हें काटता जाता है
करता, मात्र अल्प स्थिति-अनुभागवाला बन्ध करता है
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इव कालायससूचीं, अकर्मकरणोत्सुकमात्मानं स्वभावेनैव स्थापयति
(आत्मामें) उत्पन्न हुआ अज्ञानमय भाव ही आत्माको कर्म करनेके लिये प्रेरित करता है, और जैसे
लोहचुम्बक-पाषाणके साथ असंसर्गसे (सुईमें) उत्पन्न हुआ भाव लोहेकी सुईको (गति न
करनेरूप) स्वभावमें ही स्थापित करता है उसीप्रकार रागद्वेषमोहके साथ मिश्रित नहीं होनेसे
(आत्मामें) उत्पन्न हुआ ज्ञानमय भाव, जिसे कर्म करनेकी उत्सुकता नहीं है (अर्थात् कर्म करनेका
जिसका स्वभाव नहीं है) ऐसे आत्माको स्वभावमें ही स्थापित करता है; इसलिये रागादिके साथ
मिश्रित अज्ञानमय भाव ही कर्तृत्वमें प्रेरित करता है अतः वह बन्धक है और रागादिके साथ अमिश्रित
भाव स्वभावका प्रकाशक होनेसे मात्र ज्ञायक ही है, किंचित्मात्र भी बन्धक नहीं है
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[जीवस्य ] जीवके [क र्मभावे ] क र्मभाव [पतिते ] खिर जाने पर वह [पुनः ] फि रसे [उदयम्
न उपैति ] उत्पन्न नहीं होता (अर्थात् वह कर्मभाव जीवके साथ पुनः नहीं जुड़ता)
होने पर फि र जीवभावको प्राप्त नहीं होता
ही नहीं; क्योंकि अबद्धस्पृष्टरूपसे परिणमन निरन्तर वर्तता ही रहता है
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जीवस्य स्याद् ज्ञाननिर्वृत्त एव
एषोऽभावः सर्वभावास्रवाणाम्
रुन्धन् ] जो सर्व द्रव्यक र्मके आस्रव-समूहको (-अर्थात् थोकबन्ध द्रव्यक र्मके प्रवाहको) रोक नेवाला
है, [एषः सर्व-भावास्रवाणाम् अभावः ] वह (ज्ञानमय) भाव सर्व भावास्रवके अभावस्वरूप है