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द्रव्यास्रवेभ्यः स्वत एव भिन्नः
निरास्रवो ज्ञायक एक एव
[क र्मशरीरेण ] (मात्र) कार्मण शरीरके साथ [बद्धाः ] बँधे हुए हैं
लिये मिट्टीके ढेलेके समान हैं (
भिन्न हैं
द्रव्यास्रवका अभाव है
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चैतन्यस्वरूप है
क र्म [बध्नन्ति ] बाँधते हैं, [तेन ] इसलिये [ज्ञानी तु ] ज्ञानी तो [अबन्धः इति ] अबन्ध है
ज्ञानगुणका परिणमन ही कारण है
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[तेन तु ] इसलिये [सः ] वह (ज्ञानगुण) [बन्धक : ] क र्मोंका बंधक [भणितः ] क हा गया है
परिणमन होता है
प्राप्त होता है
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जानात्यनुचरति च तावत्तस्यापि, जघन्यभावान्यथानुपपत्त्याऽनुमीयमानाबुद्धिपूर्वककलंविपाक-
सद्भावात्, पुद्गलकर्मबन्धः स्यात्
अनेक प्रकारके [पुद्गलक र्मणा ] पुद्गलक र्मसे [बध्यते ] बँधता है
जघन्य भावसे ही ज्ञानको देखता जानता और आचरण करता है तब तक उसे भी, जघन्यभावकी
अन्यथा अनुपपत्तिके द्वारा (जघन्य भाव अन्य प्रकारसे नहीं बनता इसलिये) जिसका अनुमान हो
सकता है ऐसे अबुद्धिपूर्वक कर्मकलंकके विपाकका सद्भाव होनेसे, पुद्गलकर्मका बन्ध होता है,
इसलिये तबतक ज्ञानको देखना, जानना और आचरण करना चाहिये जब तक ज्ञानका जितना पूर्ण
भाव है उतना देखने, जानने और आचरणमें भलीभाँति आ जाये
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वारंवारमबुद्धिपूर्वमपि तं जेतुं स्वशक्तिं स्पृशन्
न्नात्मा नित्यनिरास्रवो भवति हि ज्ञानी यदा स्यात्तदा
है, जान सकता है और आचरण कर सकता है; इससे यह ज्ञात होता है कि उस ज्ञानीके अभी
अबुद्धिपूर्वक कर्मकलंकका विपाक (चारित्रमोहसम्बन्धी रागद्वेष) विद्यमान है और इससे उसके
बन्ध भी होता है
ज्ञानका ही आचरण करना चाहिये
होने पर तथा केवलज्ञान प्रगट होने पर सर्वथा निरास्रवत्व कहा है
छोड़ता हुआ अर्थात् न क रता हुआ, [अबुद्धिपूर्वम् ] और जो अबुद्धिपूर्वक राग है [तं अपि ] उसे
भी [जेतुं ] जीतनेके लिये [वारम्वारम् ] बारम्बार [स्वशक्तिं स्पृशन् ] (ज्ञानानुभवनरूप)
स्वशक्तिको स्पर्श करता हुआ और (इसप्रकार) [सक लां परवृत्तिम् एव उच्छिन्दन् ] समस्त
परवृत्तिको
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शक्तिको बारम्बार स्पर्श करता है अर्थात् परिणतिको स्वरूपके प्रति बारम्बार उन्मुख किया करता
है
होते हैं
बुद्धिपूर्वक हैं; और जो रागादिपरिणाम इन्द्रिय-मनके व्यापारके अतिरिक्त मात्र मोहोदयके निमित्तसे
होते हैं तथा जीवको ज्ञात नहीं होते वे अबुद्धिपूर्वक हैं
ही [निरास्रवः ] निरास्रव है ?’
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प्रयोगानुसार, [क र्मभावेन ] क र्मभावके द्वारा (
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कार्यजीवभावसद्भावादेव बध्नन्ति, ततो ज्ञानिनो यदि द्रव्यप्रत्ययाः पूर्वबद्धाः सन्ति सन्तु, तथापि
स तु निरास्रव एव कर्मोदयकार्यस्य रागद्वेषमोहरूपस्यास्रवभावस्याभावे द्रव्यप्रत्ययानामबन्ध-
हेतुत्वात्
[सप्ताष्टविधानि भूतानि ] सात-आठ प्रकारसे होनेवाले कर्मोंको [बध्नाति ] बाँधते हैं
[तानि ] वे [उपभोग्यानि ] उपभोग्य अर्थात् भोगने योग्य होने पर बन्धन करते हैं [एतेन तु
कारणेन ] इस कारणसे [सम्यग्दृष्टिः ] सम्यग्दृष्टिको [अबन्धक : ] अबन्धक [भणितः ] क हा है,
क्योंकि [आस्रवभावाभावे ] आस्रवभावके अभावमें [प्रत्ययाः ] प्रत्ययोंको [बन्धकाः ]
(क र्मोंका) बन्धक [न भणिताः ] नहीं कहा है
वह, पुरुषके रागभावके कारण ही, पुरुषको बन्धन करती है
द्रव्यप्रत्यय होने पर भी वे उपयोगके प्रयोग अनुसार (अर्थात् द्रव्यप्रत्ययोंके उपभोगमें उपयोग प्रयुक्त
हो तदनुसार), कर्मोदयके कार्यरूप जीवभावके सद्भावके कारण ही, बन्धन करते हैं
क्योंकि कर्मोदयका कार्य जो रागद्वेषमोहरूप आस्रवभाव है उसके अभावमें द्रव्यप्रत्यय बन्धके
कारण नहीं हैं
द्रव्यास्रव नवीन बन्धके कारण होते हैं
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समयमनुसरन्तो यद्यपि द्रव्यरूपाः
दवतरति न जातु ज्ञानिनः कर्मबन्धः
तत्सम्बन्धी अविरति और योगभावका भी क्षय हो गया होता है, इसलिये उसे उसप्रकारका बन्ध
नहीं होता; औपशमिक सम्यग्दृष्टिके मिथ्यात्व तथा अनन्तानुबंधी कषाय मात्र उपशममें
क्षायोपशमिक सम्यग्दृष्टिको भी सम्यक्त्वमोहनीयके अतिरिक्त छह प्रकृतियाँ विपाक-उदयमें नहीं
आती, इसलिये उसप्रकारका बन्ध नहीं होता
गुणस्थानोंमें अमुक अमुक प्रकृतियोंका बन्ध कहा है, किन्तु वह बन्ध अल्प है, इसलिये उसे
सामान्य संसारकी अपेक्षासे बन्धमें नहीं गिना जाता
युक्तता ही नहीं है
ज्ञातादृष्टा होकर परके निमित्तसे मात्र अस्थिरतारूप परिणमित होता है तब कर्ता नहीं; किन्तु ज्ञाता
ही है
जाता है यह पहले कहा जा चुका है
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अवस्थामें बँधे हुवे) [द्रव्यरूपाः प्रत्ययाः ] द्रव्यरूप प्रत्यय [सत्तां ] अपनी सत्ताको [न हि
विजहति ] नहीं छोड़ते (वे सत्तामें रहते हैं ), [तदपि ] तथापि [सक लरागद्वेषमोहव्युदासात् ] सर्व
रागद्वेषमोहका अभाव होनेसे [ज्ञानिनः ] ज्ञानीके [क र्मबन्धः ] क र्मबन्ध [जातु ] क दापि
[अवतरति न ] अवतार नहीं धरता
कारण कि [ते बन्धस्य कारणम् ] वे (रागद्वेषमोह) ही बंधका कारण है
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आस्रवभावके बिना [प्रत्ययाः ] द्रव्यप्रत्यय [हेतवः ] क र्मबन्धके कारण [न भवन्ति ] नहीं होते
[रागादयः ] (जीवके) रागादि भाव कारण हैं; [तेषाम् अभावे ] इसलिये उनके अभावमें
[न बध्यन्ते ] क र्म नहीं बँधते
(सम्यग्दृष्टिको) द्रव्यप्रत्यय पुद्गलकर्मका (अर्थात् पुद्गलकर्मके बन्धका) हेतुत्व धारण नहीं
करते, क्योंकि द्रव्यप्रत्ययोंके पुद्गलकर्मके हेतुत्वके हेतु रागादिक हैं; इसलिये हेतुके अभावमें
हेतुमान्का (अर्थात् कारणका जो कारण है उसके अभावमें कार्यका) अभाव प्रसिद्ध है, इसलिये
ज्ञानीके बन्ध कारण नहीं है
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मैकाग्य्रमेव कलयन्ति सदैव ये ते
पश्यन्ति बन्धविधुरं समयस्य सारम्
वह ज्ञानी है, और मिथ्यादृष्टि अज्ञानी है
कथन करने पर बारहवें गुणस्थान तक अज्ञानभाव कहा है
शुद्धनयका आश्रय लेकर [ये ] जो [सदा एव ] सदा ही [ऐकाग्य्राम् एव ] एकाग्रताका ही
[क लयन्ति ] अभ्यास क रते हैं [ते ] वे, [सततं ] निरन्तर [रागादिमुक्तमनसः भवन्तः ] रागादिसे
रहित चित्तवाले वर्तते हुए, [बन्धविधुरं समयस्य सारम् ] बंधरहित समयके सारको (अपने शुद्ध
आत्मस्वरूपको) [पश्यन्ति ] देखते हैं
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रागादियोगमुपयान्ति विमुक्तबोधाः
द्रव्यास्रवैः कृतविचित्रविकल्पजालम्
ऐसे जीव, [विमुक्तबोधाः ] जिन्होंने ज्ञानको छोड़ा है ऐसे होते हुए, [पूर्वबद्धद्रव्यास्रवैः ]
पूर्वबद्ध द्रव्यास्रवोंके द्वारा [क र्मबन्धम् ] क र्मबंधको [विभ्रति ] धारण क रते हैं (
अनेक प्रकारके कर्म बंधते हैं
शुद्धोपयोगरूप रहनेका समय अल्प रहता है, इसलिये मात्र अल्प काल शुद्धोपयोगरूप रहकर
और फि र उससे छूटकर ज्ञान अन्य ज्ञेयोंमें उपयुक्त हो तो भी मिथ्यात्वके बिना जो रागका
अंश है वह अभिप्रायपूर्वक नहीं है, इसलिये ज्ञानीके मात्र अल्प बन्ध होता है और अल्प
बन्ध संसारका कारण नहीं है
रागसे कुछ बन्ध होता है
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[अनेक विधम् ] अनेक प्रकार [मांसवसारुधिरादीन् ] मांस, चर्बी, रुधिर आदि [भावान् ] भावरूप
[परिणमति ] परिणमन करता है, [तथा तु ] इसीप्रकार [ज्ञानिनः ] ज्ञानीके [पूर्वं बद्धाः ] पूर्वबद्ध
[ये प्रत्ययाः ] जो द्रव्यास्रव हैं [ते ] वे [बहुविक ल्पम् ] अनेक प्रकारके [क र्म ] क र्म [बध्नन्ति ]
बांधते हैं;
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त्याज्यः शुद्धनयो न जातु कृतिभिः सर्वंक षः कर्मणाम्
पूर्ण ज्ञानघनौघमेकमचलं पश्यन्ति शान्तं महः
बन्धरूप परिणमित होती है
अत्यागसे (क र्मका) बन्ध नहीं होता और [तत्-त्यागात् बन्धः एव ] उसके त्यागसे बन्ध ही होता
है
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नित्योद्योतं किमपि परमं वस्तु सम्पश्यतोऽन्तः
नालोकान्तादचलमतुलं ज्ञानमुन्मग्नमेतत्
हुई अपनी ज्ञानकि रणोंके समूहको (अर्थात् क र्मके निमित्तसे परोन्मुख जानेवाली ज्ञानकी विशेष
व्यक्तियोंको) अल्पकालमें ही समेटकर, [पूर्णं ज्ञान-घन-ओघम् एक म् अचलं शान्तं महः ]
पूर्ण, ज्ञानघनके पुञ्जरूप, एक , अचल, शान्त तेजको
इसलिये परिणति शुद्धनयके विषयस्वरूप चैतन्यमात्र शुद्ध आत्मामें एकाग्र
अल्पकालमें ही समेटकर, शुद्धनयमें (आत्माकी शुद्धताके अनुभवमें) निर्विकल्पतया स्थिर होने पर
अपने आत्माको सर्व कर्मोंसे भिन्न, केवल ज्ञानस्वरूप, अमूर्तिक पुरुषाकार, वीतराग ज्ञानमूर्तिस्वरूप
देखते हैं और शुक्लध्यानमें प्रवृत्ति करके अन्तर्मुहूर्तमें केवलज्ञान प्रगट करते हैं
आस्रवाणां ] रागादि आस्रवोंका [झगिति ] शीघ्र ही [सर्वतः अपि ] सर्व प्रकार [विगमात् ] नाश
होनेसे, [एतत् ज्ञानम् ] यह ज्ञान [उन्मग्नम् ] प्रगट हुआ
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सर्व पदार्थोंको जानता है, [अचलम् ] वह ज्ञान प्रगट हुआ तभीसे सदाकाल अचल है अर्थात् प्रगट
होनेके पश्चात् सदा ज्योंका त्यों ही बना रहता है
सर्वथा अभाव होकर, सर्व अतीत, अनागत और वर्तमान पदार्थोंको जाननेवाला निश्चल, अतुल
केवलज्ञान प्रगट होता है
राग विरोध विमोह विभाव अज्ञानमयी यह भाव जताये;
जे मुनिराज करैं इनि पाल सुरिद्धि समाज लये सिव थाये,
काय नवाय नमूँ चित लाय कहूँ जय पाय लहूँ मन भाये
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हुआ है ऐसे आस्रवका तिरस्कार क रनेसे [प्रतिलब्ध-नित्य-विजयं संवरम् ] जिसनेे सदा विजय
प्राप्त की है ऐसे संवरको [सम्पादयत् ] उत्पन्न क रती हुई, [पररूपतः व्यावृत्तं ] पररूपसे भिन्न
(अर्थात् परद्रव्य और परद्रव्यके निमित्तसे होनेवाले भावोंसे भिन्न), [सम्यक्-स्वरूपे नियमितं
स्फु रत् ] अपने सम्यक् स्वरूपमें निश्चलतासे प्रकाश करती हुई, [चिन्मयम् ] चिन्मय, [उज्ज्वलं ]
उज्ज्वल (
न्यक्कारात्प्रतिलब्धनित्यविजयं सम्पादयत्संवरम्
ज्ज्योतिश्चिन्मयमुज्ज्वलं निजरसप्राग्भारमुज्जृम्भते
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चैतन्यप्रकाश निजरसकी अतिशयतापूर्वक निर्मलतासे उदयको प्राप्त हुआ है
हि ] क्रोधमें ही है, [उपयोगे ] उपयोगमें [खलु ] निश्चयसे [क्रोधः ] क्रोध [नास्ति ] नहीं है
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उपयोग [नास्ति ] नहीं है [च ] और [उपयोगे ] उपयोगमें [क र्म ] क र्म [च अपि ] तथा
[नोक र्म ] नोक र्म [नो अस्ति ] नहीं है
उपयोगस्वरूप शुद्धात्मा [कि ञ्चित् भावम् ] उपयोगके अतिरिक्त अन्य किसी भी भावको [न
क रोति ] नहीं क रता
अनुपपत्ति है (अर्थात् दोनोंकी सत्ताऐं भिन्न-भिन्न हैं); और इसप्रकार जब कि एक वस्तुकी दूसरी
वस्तु नहीं है तब एकके साथ दूसरीको आधारआधेयसम्बन्ध भी है ही नहीं
होनेसे, ज्ञानमें ही है; क्रोधादिक जो कि क्रोधादिक्रियारूप अपने स्वरूपमें प्रतिष्ठित है वह,
क्रोधादिक्रियाका क्रोधादिसे अभिन्नत्व होनेके कारण, क्रोधादिकमें ही है
विपरीतता होनेसे (अर्थात् ज्ञानका स्वरूप और क्रोधादिक तथा कर्म-नोकर्मका स्वरूप अत्यन्त