Samaysar (Hindi). Kalash: 115-125 ; Gatha: 170-183 ; Sanvar adhikar.

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ये खलु पूर्वमज्ञानेन बद्धा मिथ्यात्वाविरतिकषाययोगा द्रव्यास्रवभूताः प्रत्ययाः,
ते ज्ञानिनो द्रव्यान्तरभूता अचेतनपुद्गलपरिणामत्वात् पृथ्वीपिण्डसमानाः ते तु सर्वेऽपि-
स्वभावत एव कार्माणशरीरेणैव सम्बद्धाः, न तु जीवेन अतः स्वभावसिद्ध एव द्रव्यास्रवाभावो
ज्ञानिनः
(उपजाति)
भावास्रवाभावमयं प्रपन्नो
द्रव्यास्रवेभ्यः स्वत एव भिन्नः
ज्ञानी सदा ज्ञानमयैकभावो
निरास्रवो ज्ञायक एक एव
।।११५।।
समस्त [प्रत्ययाः ] प्रत्यय [पृथ्वीपिण्डसमानाः ] मिट्टीके ढेलेके समान हैं [तु ] और [ते ] वे
[क र्मशरीरेण ] (मात्र) कार्मण शरीरके साथ [बद्धाः ] बँधे हुए हैं
टीका :जो पहले अज्ञानसे बँधे हुए मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योगरूप
द्रव्यास्रवभूत प्रत्यय हैं, वे अन्यद्रव्यस्वरूप प्रत्यय अचेतन पुद्गलपरिणामवाले हैं, इसलिये ज्ञानीके
लिये मिट्टीके ढेलेके समान हैं (
जैसे मिट्टी आदि पुद्गलस्कन्ध हैं वैसे ही यह प्रत्यय हैं); वे
तो समस्त ही, स्वभावसे ही मात्र कार्मण शरीरके साथ बँधे हुए हैंसम्बन्धयुक्त हैं, जीवके साथ
नहीं; इसलिये ज्ञानीके स्वभावसे ही द्रव्यास्रवका अभाव सिद्ध है
भावार्थ :ज्ञानीके जो पहले अज्ञानदशामें बँधे हुए मिथ्यात्वादि द्रव्यास्रवभूत प्रत्यय हैं
वे तो मिट्टीके ढेलेकी भाँति पुद्गलमय हैं, इसलिये वे स्वभावसे ही अमूर्तिक चैतन्यस्वरूप जीवसे
भिन्न हैं
उनका बन्ध अथवा सम्बन्ध पुद्गलमय कार्मणशरीरके साथ ही है, चिन्मय जीवके साथ
नहीं इसलिये ज्ञानीके द्रव्यास्रवका अभाव तो स्वभावसे ही है (और ज्ञानीके भावास्रवका अभाव
होनेसे, द्रव्यास्रव नवीन कर्मोंके आस्रवणके कारण नहीं होते, इसलिये इस दृष्टिसे भी ज्ञानीके
द्रव्यास्रवका अभाव है
)।।१६९।।
अब इसी अर्थका कलशरूप काव्य कहते हैं :
श्लोकार्थ :[भावास्रव-अभावम् प्रपन्नः ] भावास्रवोंके अभावको प्राप्त और
[द्रव्यास्रवेभ्यः स्वतः एव भिन्नः ] द्रव्यास्रवोंसे तो स्वभावसे ही भिन्न [अयं ज्ञानी ] यह ज्ञानी
[सदा ज्ञानमय-एक -भावः ] जो कि सदा एक ज्ञानमय भाववाला है[निरास्रवः ] निरास्रव ही
है, [एक : ज्ञायक : एव ] मात्र एक ज्ञायक ही है

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कथं ज्ञानी निरास्रव इति चेत्
चउविह अणेयभेयं बंधंते णाणदंसणगुणेहिं
समए समए जम्हा तेण अबंधो त्ति णाणी दु ।।१७०।।
चतुर्विधा अनेकभेदं बध्नन्ति ज्ञानदर्शनगुणाभ्याम्
समये समये यस्मात् तेनाबन्ध इति ज्ञानी तु ।।१७०।।
ज्ञानी हि तावदास्रवभावभावनाभिप्रायाभावान्निरास्रव एव यत्तु तस्यापि द्रव्यप्रत्ययाः
प्रतिसमयमनेक प्रकारं पुद्गलकर्म बध्नन्ति, तत्र ज्ञानगुणपरिणाम एव हेतुः
कथं ज्ञानगुणपरिणामो बन्धहेतुरिति चेत्
भावार्थ :ज्ञानीके रागद्वेषमोहस्वरूप भावास्रवका अभाव हुआ है और वह द्रव्यास्रवसे
तो सदा ही स्वयमेव भिन्न ही है, क्योंकि द्रव्यास्रव पुद्गलपरिणामस्वरूप है और ज्ञानी
चैतन्यस्वरूप है
इसप्रकार ज्ञानीके भावास्रव तथा द्रव्यास्रवका अभाव होनेसे वह निरास्रव ही
है ।११५।
अब यह प्रश्न होता है कि ज्ञानी निरास्रव कैसे हैैं? उसके उत्तरस्वरूप गाथा कहते
हैं :
चउविधास्रव समय समय जु, ज्ञानदर्शन गुणहिसे
बहुभेद बाँधे कर्म, इससे ज्ञानि बन्धक नाहिं है ।।१७०।।
गाथार्थ :[यस्मात् ] क्योंकि [चतुर्विधाः ] चार प्रकारके द्रव्यास्रव [ज्ञानदर्शन-
गुणाभ्याम् ] ज्ञानदर्शनगुणोंके द्वारा [समये समये ] समय समय पर [अनेक भेदं ] अनेक प्रकारका
क र्म [बध्नन्ति ] बाँधते हैं, [तेन ] इसलिये [ज्ञानी तु ] ज्ञानी तो [अबन्धः इति ] अबन्ध है
टीका :पहले, ज्ञानी तो आस्रवभावकी भावनाके अभिप्रायके अभावके कारण निरास्रव
ही है; परन्तु जो उसे भी द्रव्यप्रत्यय प्रति समय अनेक प्रकारका पुद्गलकर्म बाँधते हैं, वहाँ
ज्ञानगुणका परिणमन ही कारण है
।।१७०।।
अब यह प्रश्न होता है कि ज्ञानगुणका परिणमन बन्धका कारण कैसे है ? उसके उत्तरकी
गाथा कहते हैं :

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जम्हा दु जहण्णादो णाणगुणादो पुणो वि परिणमदि
अण्णत्तं णाणगुणो तेण दु सो बंधगो भणिदो ।।१७१।।
यस्मात्तु जघन्यात् ज्ञानगुणात् पुनरपि परिणमते
अन्यत्वं ज्ञानगुणः तेन तु स बन्धको भणितः ।।१७१।।
ज्ञानगुणस्य हि यावज्जघन्यो भावः तावत् तस्यान्तर्मुहूर्तविपरिणामित्वात् पुनः पुनरन्य-
तयास्ति परिणामः स तु, यथाख्यातचारित्रावस्थाया अधस्तादवश्यम्भाविरागसद्भावात्, बन्धहेतुरेव
स्यात्
एवं सति कथं ज्ञानी निरास्रव इति चेत्
जो ज्ञानगुणकी जघनतामें, वर्तता गुण ज्ञानका
फि र फि र प्रणमता अन्यरूप जु, उसहिसे बन्धक कहा ।।१७१।।
गाथार्थ :[यस्मात् तु ] क्योंकि [ज्ञानगुणः ] ज्ञानगुण, [जघन्यात् ज्ञानगुणात् ] जघन्य
ज्ञानगुणके कारण [पुनरपि ] फि रसे भी [अन्यत्वं ] अन्यरूपसे [परिणमते ] परिणमन करता है,
[तेन तु ] इसलिये [सः ] वह (ज्ञानगुण) [बन्धक : ] क र्मोंका बंधक [भणितः ] क हा गया है
टीका :जब तक ज्ञानगुणका जघन्य भाव है (क्षायोपशमिक भाव है) तब तक
वह (ज्ञानगुण) अन्तर्मुहूर्तमें विपरिणामको प्राप्त होता है, इसलिये पुनः पुनः उसका अन्यरूप
परिणमन होता है
वह (ज्ञानगुणका जघन्य भावसे परिणमन), यथाख्यातचारित्र-अवस्थाके नीचे
अवश्यम्भावी रागका सद्भाव होनेसे, बन्धका कारण ही है
भावार्थ :क्षायोपशमिकज्ञान एक ज्ञेय पर अन्तर्मुहूर्त ही ठहरता है, फि र वह अवश्य ही
अन्य ज्ञेयको अवलम्बता है; स्वरूपमें भी वह अन्तर्मुहूर्त ही टिक सकता है, फि र वह विपरिणामको
प्राप्त होता है
इसलिये ऐसा अनुमान भी हो सकता है कि सम्यग्दृष्टि आत्मा सविकल्प दशामें
हो या निर्विकल्प अनुभवदशामें होउसे यथाख्यातचारित्र-अवस्था होनेके पूर्व अवश्य ही
रागभावका सद्भाव होता है; और राग होनेसे बन्ध भी होता है इसलिये ज्ञानगुणके जघन्य भावको
बन्धका हेतु कहा गया है ।।१७१।।
अब पुनः प्रश्न होता है कियदि ऐसा है (अर्थात् ज्ञानगुणका जघन्य भाव बन्धका कारण
है) तो फि र ज्ञानी निरास्रव कैसे है ? उसके उत्तरस्वरूप गाथा कहते हैं :

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दंसणणाणचरित्तं जं परिणमदे जहण्णभावेण
णाणी तेण दु बज्झदि पोग्गलकम्मेण विविहेण ।।१७२।।
दर्शनज्ञानचारित्रं यत्परिणमते जघन्यभावेन
ज्ञानी तेन तु बध्यते पुद्गलकर्मणा विविधेन ।।१७२।।
यो हि ज्ञानी स बुद्धिपूर्वकरागद्वेषमोहरूपास्रवभावाभावात् निरास्रव एव किन्तु सोऽपि
यावज्ज्ञानं सर्वोत्कृष्टभावेन द्रष्टुं ज्ञातुमनुचरितुं वाऽशक्तः सन् जघन्यभावेनैव ज्ञानं पश्यति
जानात्यनुचरति च तावत्तस्यापि, जघन्यभावान्यथानुपपत्त्याऽनुमीयमानाबुद्धिपूर्वककलंविपाक-
सद्भावात्, पुद्गलकर्मबन्धः स्यात्
अतस्तावज्ज्ञानं द्रष्टव्यं ज्ञातव्यमनुचरितव्यं च यावज्ज्ञानस्य
यावान् पूर्णो भावस्तावान् दृष्टो ज्ञातोऽनुचरितश्च सम्यग्भवति ततः साक्षात् ज्ञानीभूतः सर्वथा
निरास्रव एव स्यात्
चारित्र, दर्शन, ज्ञान तीन, जघन्य भाव जु परिणमे
उससे हि ज्ञानी विविध पुद्गलकर्मसे बन्धात है ।।१७२।।
गाथार्थ :[यत् ] क्योंकि [दर्शनज्ञानचारित्रं ] दर्शन-ज्ञान-चारित्र [जघन्यभावेन ]
जघन्य भावसे [परिणमते ] परिणमन करते हैं, [तेन तु ] इसलिये [ज्ञानी ] ज्ञानी [विविधेन ]
अनेक प्रकारके [पुद्गलक र्मणा ] पुद्गलक र्मसे [बध्यते ] बँधता है
टीका :जो वास्तवमें ज्ञानी है, उसके बुद्धिपूर्वक (इच्छापूर्वक) रागद्वेषमोहरूप
आस्रवभावोंका अभाव है इसलिये, वह निरास्रव ही है परन्तु वहाँ इतना विशेष है किवह
ज्ञानी जब तक ज्ञानको सर्वोत्कृष्ट भावसे देखने, जानने और आचरण करनेमें अशक्त वर्तता हुआ
जघन्य भावसे ही ज्ञानको देखता जानता और आचरण करता है तब तक उसे भी, जघन्यभावकी
अन्यथा अनुपपत्तिके द्वारा (जघन्य भाव अन्य प्रकारसे नहीं बनता इसलिये) जिसका अनुमान हो
सकता है ऐसे अबुद्धिपूर्वक कर्मकलंकके विपाकका सद्भाव होनेसे, पुद्गलकर्मका बन्ध होता है,
इसलिये तबतक ज्ञानको देखना, जानना और आचरण करना चाहिये जब तक ज्ञानका जितना पूर्ण
भाव है उतना देखने, जानने और आचरणमें भलीभाँति आ जाये
तबसे लेकर साक्षात् ज्ञानी होता
हुआ (वह आत्मा) सर्वथा निरास्रव ही होता है
भावार्थ :ज्ञानीके बुद्धिपूर्वक (अज्ञानमय) रागद्वेषमोहका अभाव होनेसे वह निरास्रव
ही है परन्तु जब तक क्षायोपशमिक ज्ञान है तब तक वह ज्ञानी ज्ञानको सर्वोत्कृष्ट भावसे न तो

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(शार्दूलविक्रीडित)
संन्यस्यन्निजबुद्धिपूर्वमनिशं रागं समग्रं स्वयं
वारंवारमबुद्धिपूर्वमपि तं जेतुं स्वशक्तिं स्पृशन्
उच्छिन्दन्परवृत्तिमेव सकलां ज्ञानस्य पूर्णो भव-
न्नात्मा नित्यनिरास्रवो भवति हि ज्ञानी यदा स्यात्तदा
।।११६।।
देख सकता है, न जान सकता है और न आचरण कर सकता है, किन्तु जघन्य भावसे देख सकता
है, जान सकता है और आचरण कर सकता है; इससे यह ज्ञात होता है कि उस ज्ञानीके अभी
अबुद्धिपूर्वक कर्मकलंकका विपाक (चारित्रमोहसम्बन्धी रागद्वेष) विद्यमान है और इससे उसके
बन्ध भी होता है
इसलिये उसे यह उपदेश है किजब तक केवलज्ञान उत्पन्न न हो तब तक
निरन्तर ज्ञानका ही ध्यान करना चाहिये, ज्ञानको ही देखना चाहिये, ज्ञानको ही जानना चाहिये और
ज्ञानका ही आचरण करना चाहिये
इसी मार्गसे दर्शन-ज्ञान-चारित्रका परिणमन बढ़ता जाता है और
ऐसा करते करते केवलज्ञान प्रगट होता है जब केवलज्ञान प्रगटता है तबसे आत्मा साक्षात् ज्ञानी
है और सर्व प्रकारसे निरास्रव है
जब तक क्षायोपशमिक ज्ञान है तब तक अबुद्धिपूर्वक (चारित्रमोहका) राग होने पर भी,
बुद्धिपूर्वक रागके अभावकी अपेक्षासे ज्ञानीके निरास्रवत्व कहा है और अबुद्धिपूर्वक रागका अभाव
होने पर तथा केवलज्ञान प्रगट होने पर सर्वथा निरास्रवत्व कहा है
यह, विवक्षाकी विचित्रता है
अपेक्षासे समझने पर यह सर्व कथन यथार्थ है ।।१७२।।
अब इसी अर्थका कलशरूप काव्य कहते हैं :
श्लोकार्थ :[आत्मा यदा ज्ञानी स्यात् तदा ] आत्मा जब ज्ञानी होता है तब, [स्वयं ]
स्वयं [निजबुद्धिपूर्वम् समग्रं रागं ] अपने समस्त बुद्धिपूर्वक रागको [अनिशं ] निरन्तर [संन्यस्यन् ]
छोड़ता हुआ अर्थात् न क रता हुआ, [अबुद्धिपूर्वम् ] और जो अबुद्धिपूर्वक राग है [तं अपि ] उसे
भी [जेतुं ] जीतनेके लिये [वारम्वारम् ] बारम्बार [स्वशक्तिं स्पृशन् ] (ज्ञानानुभवनरूप)
स्वशक्तिको स्पर्श करता हुआ और (इसप्रकार) [सक लां परवृत्तिम् एव उच्छिन्दन् ] समस्त
परवृत्तिको
परपरिणतिकोउखाड़ता हुआ [ज्ञानस्य पूर्णः भवन् ] ज्ञानके पूर्णभावरूप होता हुआ,
[हि ] वास्तवमें [नित्यनिरास्रवः भवति ] सदा निरास्रव है
भावार्थ :ज्ञानीने समस्त रागको हेय जाना है वह रागको मिटानेके लिये उद्यम करता
है; उसके आस्रवभावकी भावनाका अभिप्राय नहीं है; इसलिये वह सदा निरास्रव ही कहलाता है
परवृत्ति (परपरिणति) दो प्रकारकी हैअश्रद्धारूप और अस्थिरतारूप ज्ञानीने

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(अनुष्टुभ्)
सर्वस्यामेव जीवन्त्यां द्रव्यप्रत्ययसन्ततौ
कुतो निरास्रवो ज्ञानी नित्यमेवेति चेन्मतिः ।।११७।।
सव्वे पुव्वणिबद्धा दु पच्चया अत्थि सम्मदिट्ठिस्स
उवओगप्पाओगं बंधंते कम्मभावेण ।।१७३।।
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अश्रद्धारूप परवृत्तिको छोड़ दिया है और वह अस्थिरतारूप परवृत्तिको जीतनेके लिये निज
शक्तिको बारम्बार स्पर्श करता है अर्थात् परिणतिको स्वरूपके प्रति बारम्बार उन्मुख किया करता
है
इसप्रकार सकल परवृत्तिको उखाड़ करके केवलज्ञान प्रगट करता है
‘बुद्धिपूर्वक’ और ‘अबुद्धिपूर्वक’ का अर्थ इसप्रकार है :जो रागादिपरिणाम इच्छा
सहित होते हैं सो बुद्धिपूर्वक हैं और जो इच्छा रहितपरनिमित्तकी बलवत्तासे होते हैं सो
अबुद्धिपूर्वक हैं ज्ञानीके जो रागादिपरिणाम होते हैं वे सभी अबुद्धिपूर्वक ही हैं; सविकल्प दशामें
होनेवाले रागादिपरिणाम ज्ञानीको ज्ञात तो हैं तथापि वे अबुद्धिपूर्वक हैं, क्योंकि वे बिना ही इच्छाके
होते हैं
(पण्डित राजमलजीने इस कलशकी टीका करते हुए ‘बुद्धिपूर्वक’ और ‘अबुद्धिपूर्वक’
का अर्थ इसप्रकार किया है :जो रागादिपरिणाम मनके द्वारा, बाह्य विषयोंका अवलम्बन लेकर
प्रवर्तते हुए जीवको स्वयंको ज्ञात होते हैं तथा दूसरोंको भी अनुमानसे ज्ञात होते हैं वे परिणाम
बुद्धिपूर्वक हैं; और जो रागादिपरिणाम इन्द्रिय-मनके व्यापारके अतिरिक्त मात्र मोहोदयके निमित्तसे
होते हैं तथा जीवको ज्ञात नहीं होते वे अबुद्धिपूर्वक हैं
इन अबुद्धिपूर्वक परिणामोंको प्रत्यक्ष ज्ञानी
जानता है और उनके अविनाभावी चिह्नोंसे वे अनुमानसे भी ज्ञात होते हैं ) ।११६।
अब शिष्यकी आशंकाका श्लोक कहते हैं :
श्लोकार्थ :[सर्वस्याम् एव द्रव्यप्रत्ययसंततौ जीवन्त्यां ] ज्ञानीके समस्त द्रव्यास्रवकी
सन्तति विद्यमान होने पर भी [कुतः ] यह क्यों कहा है कि [ज्ञानी ] ज्ञानी [नित्यम् एव ] सदा
ही [निरास्रवः ] निरास्रव है ?’
[इति चेत् मतिः ] यदि तेरी यह मति (आशंका) है तो अब
उसका उत्तर कहा जाता है ।११७।
अब, पूर्वोक्त आशंकाके समाधानार्थ गाथा कहते हैं :
जो सर्व पूर्वनिबद्ध प्रत्यय, वर्तते सद्दृष्टिके
उपयोगके प्रायोग्य बन्धन, कर्मभावोंसे करे ।।१७३।।

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होदूण णिरुवभोज्जा तह बंधदि जह हवंति उवभोज्जा
सत्तट्ठविहा भूदा णाणावरणादिभावेहिं ।।१७४।।
संता दु णिरुवभोज्जा बाला इत्थी जहेह पुरिसस्स
बंधदि ते उवभोज्जे तरुणी इत्थी जह णरस्स ।।१७५।।
एदेण कारणेण दु सम्मादिट्ठी अबंधगो भणिदो
आसवभावाभावे ण पच्चया बंधगा भणिदा ।।१७६।।
सर्वे पूर्वनिबद्धास्तु प्रत्ययाः सन्ति सम्यग्दृष्टेः
उपयोगप्रायोग्यं बध्नन्ति कर्मभावेन ।।१७३।।
भूत्वा निरुपभोग्यानि तथा बध्नाति यथा भवन्त्युपभोग्यानि
सप्ताष्टविधानि भूतानि ज्ञानावरणादिभावैः ।।१७४।।
सन्ति तु निरुपभोग्यानि बाला स्त्री यथेह पुरुषस्य
बध्नाति तानि उपभोग्यानि तरुणी स्त्री यथा नरस्य ।।१७५।।
एतेन कारणेन तु सम्यग्दृष्टिरबन्धको भणितः
आस्रवभावाभावे न प्रत्यया बन्धका भणिताः ।।१७६।।
अनभोग्य रह उपभोग्य जिस विध होय उस विध बाँधते
ज्ञानावरण इत्यादि कर्म जु सप्त-अष्ट प्रकारके ।।१७४।।
सत्ता विषैं वे निरुपभोग्य हि, बालिका ज्यों पुरुषको
उपभोग्य बनते वे हि बाँधें, यौवना ज्यों पुरुषको ।।१७५।।
इस हेतुसे सम्यक्त्वसंयुत, जीव अनबन्धक कहे
आसरवभावअभावमें प्रत्यय नहीं बन्धक कहे ।।१७६।।
गाथार्थ :[सम्यग्दृष्टेः ] सम्यग्दृष्टिके [सर्वे ] समस्त [पूर्वनिबद्धाः तु ] पूर्वबद्ध
[प्रत्ययाः ] प्रत्यय (द्रव्यास्रव) [सन्ति ] सत्तारूपमें विद्यमान हैं वे [उपयोगप्रायोग्यं ] उपयोगके
प्रयोगानुसार, [क र्मभावेन ] क र्मभावके द्वारा (
रागादिके द्वारा) [बध्नन्ति ] नवीन बन्ध क रते हैं
ते प्रत्यय, [निरुपभोग्यानि ] निरुपभोग्य [भूत्वा ] होकर फि र [यथा ] जैसे [उपभोग्यानि ]

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यतः सदवस्थायां तदात्वपरिणीतबालस्त्रीवत् पूर्वमनुपभोग्यत्वेऽपि विपाकावस्थायां प्राप्त-
यौवनपूर्वपरिणीतस्त्रीवत् उपभोग्यत्वात् उपयोगप्रायोग्यं पुद्गलकर्मद्रव्यप्रत्ययाः सन्तोऽपि कर्मोदय-
कार्यजीवभावसद्भावादेव बध्नन्ति, ततो ज्ञानिनो यदि द्रव्यप्रत्ययाः पूर्वबद्धाः सन्ति सन्तु, तथापि
स तु निरास्रव एव कर्मोदयकार्यस्य रागद्वेषमोहरूपस्यास्रवभावस्याभावे द्रव्यप्रत्ययानामबन्ध-
हेतुत्वात्
उपभोग्य [भवन्ति ] होते हैं [तथा ] उसीप्रकार, [ज्ञानावरणादिभावैः ] ज्ञानावरणादि भावसे
[सप्ताष्टविधानि भूतानि ] सात-आठ प्रकारसे होनेवाले कर्मोंको [बध्नाति ] बाँधते हैं
[सन्ति तु ]
सत्ता-अवस्थामें वे [निरुपभोग्यानि ] निरूपभोग्य हैं अर्थात् भोगनेयोग्य नहीं हैं[यथा ] जैसे
[इह ] इस जगतमें [बाला स्त्री ] बाल स्त्री [पुरुषस्य ] पुरुषके लिये निरुपभोग्य है [यथा ]
जैसे [तरुणी स्त्री ] तरुण स्त्री (युवती) [नरस्य ] पुरुषको [बध्नाति ] बाँध लेती है, उसीप्रकार
[तानि ] वे [उपभोग्यानि ] उपभोग्य अर्थात् भोगने योग्य होने पर बन्धन करते हैं [एतेन तु
कारणेन ]
इस कारणसे [सम्यग्दृष्टिः ] सम्यग्दृष्टिको [अबन्धक : ] अबन्धक [भणितः ] क हा है,
क्योंकि [आस्रवभावाभावे ] आस्रवभावके अभावमें [प्रत्ययाः ] प्रत्ययोंको [बन्धकाः ]
(क र्मोंका) बन्धक [न भणिताः ] नहीं कहा है
टीका :जैसे पहले तो तत्कालकी परिणीत बाल स्त्री अनुपभोग्य है, किन्तु यौवनको
प्राप्त वह पहलेकी परिणीत स्त्री यौवनावस्थामें उपभोग्य होती है और जिसप्रकार उपभोग्य हो तदनुसार
वह, पुरुषके रागभावके कारण ही, पुरुषको बन्धन करती है
वशमें करती है, इसीप्रकार जो पहले
तो सत्तावस्थामें अनुपभोग्य हैं, किन्तु विपाक-अवस्थामें उपभोगयोग्य होते हैं ऐसे पुद्गलकर्मरूप
द्रव्यप्रत्यय होने पर भी वे उपयोगके प्रयोग अनुसार (अर्थात् द्रव्यप्रत्ययोंके उपभोगमें उपयोग प्रयुक्त
हो तदनुसार), कर्मोदयके कार्यरूप जीवभावके सद्भावके कारण ही, बन्धन करते हैं
इसलिये
ज्ञानीके यदि पूर्वबद्ध द्रव्यप्रत्यय विद्यमान हैं, तो भले रहें; तथापि वह (ज्ञानी) तो निरास्रव ही है,
क्योंकि कर्मोदयका कार्य जो रागद्वेषमोहरूप आस्रवभाव है उसके अभावमें द्रव्यप्रत्यय बन्धके
कारण नहीं हैं
(जैसे यदि पुरुषको रागभाव हो तो ही यौवनावस्थाको प्राप्त स्त्री उसे वश कर सकती
है इसीप्रकार जीवके आस्रवभाव हो तब ही उदयप्राप्त द्रव्यप्रत्यय नवीन बन्ध कर सकते हैं )
भावार्थ :द्रव्यास्रवोंके उदय और जीवके रागद्वेषमोहभावका निमित्त-नैमित्तिकभाव है
द्रव्यास्रवोंके उदय बिना जीवके भावास्रव नहीं हो सकता और इसलिये बन्ध भी नहीं हो सकता
द्रव्यास्रवोंका उदय होने पर जीव जैसे उसमें युक्त हो अर्थात् जिसप्रकार उसे भावास्रव हो उसीप्रकार
द्रव्यास्रव नवीन बन्धके कारण होते हैं
यदि जीव भावास्रव न करे तो उसके नवीन बन्ध नहीं
होता

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(मालिनी)
विजहति न हि सत्तां प्रत्ययाः पूर्वबद्धाः
समयमनुसरन्तो यद्यपि द्रव्यरूपाः
तदपि सकलरागद्वेषमोहव्युदासा-
दवतरति न जातु ज्ञानिनः कर्मबन्धः
।।११८।।
सम्यग्दृष्टिके मिथ्यात्वका और अनन्तानुबंधी कषायका उदय न होनेसे उसे उसप्रकारके
भावास्रव तो होते ही नहीं और मिथ्यात्व तथा अनन्तानुबंधी कषाय संबंधी बन्ध भी नहीं होता
(क्षायिक सम्यग्दृष्टिके सत्तामेंसे मिथ्यात्वका क्षय होते समय ही अनन्तानुबंधी कषायका तथा
तत्सम्बन्धी अविरति और योगभावका भी क्षय हो गया होता है, इसलिये उसे उसप्रकारका बन्ध
नहीं होता; औपशमिक सम्यग्दृष्टिके मिथ्यात्व तथा अनन्तानुबंधी कषाय मात्र उपशममें
सत्तामें
ही होनेसे सत्तामें रहा हुआ द्रव्य उदयमें आये बिना उसप्रकारके बन्धका कारण नहीं होता; और
क्षायोपशमिक सम्यग्दृष्टिको भी सम्यक्त्वमोहनीयके अतिरिक्त छह प्रकृतियाँ विपाक-उदयमें नहीं
आती, इसलिये उसप्रकारका बन्ध नहीं होता
)
अविरतसम्यग्दृष्टि इत्यादिके जो चारित्रमोहका उदय विद्यमान है उसमें जिसप्रकार जीव युक्त
होता है उसीप्रकार उसे नवीन बन्ध होता है; इसलिये गुणस्थानोंके वर्णनमें अविरत-सम्यग्दृष्टि आदि
गुणस्थानोंमें अमुक अमुक प्रकृतियोंका बन्ध कहा है, किन्तु वह बन्ध अल्प है, इसलिये उसे
सामान्य संसारकी अपेक्षासे बन्धमें नहीं गिना जाता
सम्यग्दृष्टि चारित्रमोहके उदयमें स्वामित्वभावसे
युक्त नहीं होता, वह मात्र अस्थिरतारूपसे युक्त होता है; और अस्थिरतारूप युक्तता निश्चयदृष्टिमें
युक्तता ही नहीं है
इसलिये सम्यग्दृष्टिके रागद्वेषमोहका अभाव कहा गया है जब तक जीव
कर्मका स्वामित्व रखकर कर्मोदयमें परिणमित होता है तब तक ही वह कर्मका कर्ता है; उदयका
ज्ञातादृष्टा होकर परके निमित्तसे मात्र अस्थिरतारूप परिणमित होता है तब कर्ता नहीं; किन्तु ज्ञाता
ही है
इस अपेक्षासे, सम्यग्दृष्टि होनेके बाद चारित्रमोहके उदयरूप परिणमित होते हुए भी उसे
ज्ञानी और अबन्धक कहा गया है जब तक मिथ्यात्वका उदय है और उसमें युक्त होकर जीव
रागद्वेषमोहभावसे परिणमित होता है तब तक ही उसे अज्ञानी और बन्धक कहा जाता है इसप्रकार
ज्ञानी-अज्ञानी और बन्ध-अबन्धका यह भेद जानना और शुद्ध स्वरूपमें लीन रहनेके अभ्यास
द्वारा केवलज्ञान प्रगट होनेसे जब जीव साक्षात् सम्पूर्णज्ञानी होता है तब वह सर्वथा निरास्रव हो
जाता है यह पहले कहा जा चुका है
।।१७३ से १७६।।
अब इस अर्थका कलशरूप काव्य कहते हैं :
श्लोकार्थ :[यद्यपि ] यद्यपि [समयम् अनुसरन्तः ] अपने अपने समयका अनुसरण

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(अनुष्टुभ्)
रागद्वेषविमोहानां ज्ञानिनो यदसम्भवः
तत एव न बन्धोऽस्य ते हि बन्धस्य कारणम् ।।११९।।
रागो दोसो मोहो य आसवा णत्थि सम्मदिट्ठिस्स
तम्हा आसवभावेण विणा हेदू ण पच्चया होंति ।।१७७।।
हेदू चदुव्वियप्पो अट्ठवियप्पस्स कारणं भणिदं
तेसिं पि य रागादी तेसिमभावे ण बज्झंति ।।१७८।।
करनेवाला (अपने अपने समयमें उदयमें आनेवाले) [पूर्वबद्धाः ] पूर्वबद्ध (पहले अज्ञान-
अवस्थामें बँधे हुवे) [द्रव्यरूपाः प्रत्ययाः ] द्रव्यरूप प्रत्यय [सत्तां ] अपनी सत्ताको [न हि
विजहति ]
नहीं छोड़ते (वे सत्तामें रहते हैं ), [तदपि ] तथापि [सक लरागद्वेषमोहव्युदासात् ] सर्व
रागद्वेषमोहका अभाव होनेसे [ज्ञानिनः ] ज्ञानीके [क र्मबन्धः ] क र्मबन्ध [जातु ] क दापि
[अवतरति न ] अवतार नहीं धरता
नहीं होता
भावार्थ :ज्ञानीके भी पहले अज्ञान-अवस्थामें बाँधे हुए द्रव्यास्रव सत्ताअवस्थामें
विद्यमान हैं और वे अपने उदयकालमें उदयमें आते रहते हैं किन्तु वे द्रव्यास्रव ज्ञानीके कर्मबन्धके
कारण नहीं होते, क्योंकि ज्ञानीके समस्त रागद्वेषमोहभावोंका अभाव है यहाँ समस्त रागद्वेषमोहका
अभाव बुद्धिपूर्वक रागद्वेषमोहकी अपेक्षासे समझना चाहिये ।११८।
अब इसी अर्थको दृढ़ करनेवाली आगामी दो गाथाओंका सूचक श्लोक कहते हैं :
श्लोकार्थ :[यत् ] क्योंकि [ज्ञानिनः रागद्वेषविमोहानां असम्भवः ] ज्ञानीके
रागद्वेषमोहका असम्भव है, [ततः एव ] इसलिये [अस्य बन्धः न ] उसको बन्ध नहीं है; [हि ]
कारण कि [ते बन्धस्य कारणम् ] वे (रागद्वेषमोह) ही बंधका कारण है
।११९।
अब इस अर्थकी समर्थक दो गाथाएँ कहते हैं :
नहिं रागद्वेष, न मोहवे आस्रव नहीं सद्दृष्टिके
इससे हि आस्रवभाव बिन, प्रत्यय नहीं हेतु बने ।।१७७।।
हेतू चतुर्विध कर्म अष्ट प्रकारका कारण कहा
उनका हि रागादिक कहा, रागादि नहिं वहाँ बंध ना ।।१७८।।

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रागो द्वेषो मोहश्च आस्रवा न सन्ति सम्यग्दृष्टेः
तस्मादास्रवभावेन विना हेतवो न प्रत्यया भवन्ति ।।१७७।।
हेतुश्चतुर्विकल्पः अष्टविकल्पस्य कारणं भणितम्
तेषामपि च रागादयस्तेषामभावे न बध्यन्ते ।।१७८।।
रागद्वेषमोहा न सन्ति सम्यग्दृष्टेः, सम्यग्दृष्टित्वान्यथानुपपत्तेः तदभावे न तस्य द्रव्य-
प्रत्ययाः पुद्गलकर्महेतुत्वं बिभ्रति, द्रव्यप्रत्ययानां पुद्गलकर्महेतुत्वस्य रागादिहेतुत्वात् ततो
हेतुहेत्वभावे हेतुमदभावस्य प्रसिद्धत्वात् ज्ञानिनो नास्ति बन्धः
गाथार्थ :[रागः ] राग, [द्वेषः ] द्वेष [च मोहः ] और मोह[आस्रवाः ] यह आस्रव
[सम्यग्दृष्टेः ] सम्यग्दृष्टिके [न सन्ति ] नहीं होते, [तस्मात् ] इसलिये [आस्रवभावेन विना ]
आस्रवभावके बिना [प्रत्ययाः ] द्रव्यप्रत्यय [हेतवः ] क र्मबन्धके कारण [न भवन्ति ] नहीं होते
[चतुर्विक ल्प हेतुः ] (मिथ्यात्वादि) चार प्रकारके हेतु [अष्टविक ल्पस्य ] आठ प्रकारके
क र्मोंको [कारणं ] कारण [भणितम् ] क हे गये हैं, [च ] और [तेषाम् अपि ] उनके भी
[रागादयः ] (जीवके) रागादि भाव कारण हैं; [तेषाम् अभावे ] इसलिये उनके अभावमें
[न बध्यन्ते ] क र्म नहीं बँधते
(इसलिये सम्यग्दृष्टिके बन्ध नहीं है )
टीका :सम्यग्दृष्टिके रागद्वेषमोह नहीं हैं, क्योंकि सम्यग्दृष्टिकी अन्यथा अनुपपत्ति है
(अर्थात् रागद्वेषमोहके अभावके बिना सम्यग्दृष्टित्व नहीं हो सकता); रागद्वेषमोहके अभावमें उसे
(सम्यग्दृष्टिको) द्रव्यप्रत्यय पुद्गलकर्मका (अर्थात् पुद्गलकर्मके बन्धका) हेतुत्व धारण नहीं
करते, क्योंकि द्रव्यप्रत्ययोंके पुद्गलकर्मके हेतुत्वके हेतु रागादिक हैं; इसलिये हेतुके अभावमें
हेतुमान्का (अर्थात् कारणका जो कारण है उसके अभावमें कार्यका) अभाव प्रसिद्ध है, इसलिये
ज्ञानीके बन्ध कारण नहीं है
भावार्थ :यहाँ, रागद्वेषमोहके अभावके बिना सम्यग्दृष्टित्व नहीं हो सकता ऐसा
अविनाभावी नियम बताया है सो यहाँ मिथ्यात्वसम्बन्धी रागादिका अभाव समझना चाहिये यहाँ
मिथ्यात्वसंबंधी रागादिको ही राग माना गया है सम्यग्दृष्टि होनेके बाद जो कुछ चारित्रमोहसम्बन्धी
राग रह जाता है उसे यहाँ नहीं लिया है; वह गौण है इसप्रकार सम्यग्दृष्टिके भावास्रवका अर्थात्
रागद्वेषमोहका अभाव है द्रव्यास्रवोंको बन्धका हेतु होनेमें जो रागद्वेषमोह हैं उनका सम्यग्दृष्टिके
अभाव होनेसे बन्धके हेतु नहीं होते, और द्रव्यास्रव बन्धके हेतु नहीं होते, इसलिये सम्यग्दृष्टिके
ज्ञानीकेबन्ध नहीं होता

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(वसन्ततिलका)
अध्यास्य शुद्धनयमुद्धतबोधचिह्न-
मैकाग्य्रमेव कलयन्ति सदैव ये ते
रागादिमुक्तमनसः सततं भवन्तः
पश्यन्ति बन्धविधुरं समयस्य सारम्
।।१२०।।
सम्यग्दृष्टिको ज्ञानी कहा जाता है वह योग्य ही है ‘ज्ञानी’ शब्द मुख्यतया तीन
अपेक्षाओंको लेकर प्रयुक्त होता है :(१) प्रथम तो, जिसे ज्ञान हो वह ज्ञानी कहलाता है;
इसप्रकार सामान्य ज्ञानकी अपेक्षासे सभी जीव ज्ञानी है (२) यदि सम्यक् ज्ञान और मिथ्या
ज्ञानकी अपेक्षासे विचार किया जाये तो सम्यग्दृष्टिको सम्यग्ज्ञान होता है, इसलिए उस अपेक्षासे
वह ज्ञानी है, और मिथ्यादृष्टि अज्ञानी है
(३) सम्पूर्ण ज्ञान और अपूर्ण ज्ञानकी अपेक्षासे विचार
किया जाये तो केवली भगवान ज्ञानी हैं और छद्मस्थ अज्ञानी हैं, क्योंकि सिद्धान्तमें पाँच भावोंका
कथन करने पर बारहवें गुणस्थान तक अज्ञानभाव कहा है
इसप्रकार अनेकान्तसे अपेक्षाके द्वारा
विधिनिषेधनिर्बाधरूपसे सिद्ध होता है; सर्वथा एकान्तसे कुछ भी सिद्ध नहीं होता ।।१७७-१७८।।
अब, ज्ञानीको बन्ध नहीं होता यह शुद्धनयका माहात्म्य है, इसलिये शुद्धनयकी महिमा
दर्शक काव्य कहते हैं :
श्लोकार्थ :[उद्धतबोधचिह्नम् शुद्धनयम् अध्यास्य ] उद्धत ज्ञान (जो कि किसीके
दबाये नहीं दब सक ता ऐसा उन्नत ज्ञान) जिसका लक्षण है ऐसे शुद्धनयमें रहकर अर्थात्
शुद्धनयका आश्रय लेकर [ये ] जो [सदा एव ] सदा ही [ऐकाग्य्राम् एव ] एकाग्रताका ही
[क लयन्ति ] अभ्यास क रते हैं [ते ] वे, [सततं ] निरन्तर [रागादिमुक्तमनसः भवन्तः ] रागादिसे
रहित चित्तवाले वर्तते हुए, [बन्धविधुरं समयस्य सारम् ] बंधरहित समयके सारको (अपने शुद्ध
आत्मस्वरूपको) [पश्यन्ति ] देखते हैं
अनुभव करते हैं
भावार्थ :यहाँ शुद्धनयके द्वारा एकाग्रताका अभ्यास करनेको कहा है ‘मैं केवल
ज्ञानस्वरूप हूँ, शुद्ध हूँ’ऐसा जो आत्मद्रव्यका परिणमन वह शुद्धनय ऐसे परिणमनके कारण
वृत्ति ज्ञानकी ओर उन्मुख होती रहे और स्थिरता बढ़ती जाये सो एकाग्रताका अभ्यास
शुद्धनय श्रुतज्ञानका अंश है और श्रुतज्ञान तो परोक्ष है, इसलिये इस अपेक्षासे शुद्धनयके
द्वारा होनेवाला शुद्ध स्वरूपका अनुभव भी परोक्ष है और वह अनुभव एकदेश शुद्ध है इस
अपेक्षासे उसे व्यवहारसे प्रत्यक्ष भी कहा जाता है साक्षात् शुद्धनय तो केवलज्ञान होने पर होता
है ।१२०।

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(वसन्ततिलका)
प्रच्युत्य शुद्धनयतः पुनरेव ये तु
रागादियोगमुपयान्ति विमुक्तबोधाः
ते कर्मबन्धमिह बिभ्रति पूर्वबद्ध-
द्रव्यास्रवैः कृतविचित्रविकल्पजालम्
।।१२१।।
अब यह कहते हैं कि जो शुद्धनयसे च्युत होते हैं वे कर्म बांधते हैं :
श्लोकार्थ :[इह ] जगत्में [ये ] जो [शुद्धनयतः प्रच्युत्य ] शुद्धनयसे च्युत होकर
[पुनः एव तु ] पुनः [रागादियोगम् ] रागादिके सम्बन्धको [उपयान्ति ] प्राप्त होते हैं [ते ]
ऐसे जीव, [विमुक्तबोधाः ] जिन्होंने ज्ञानको छोड़ा है ऐसे होते हुए, [पूर्वबद्धद्रव्यास्रवैः ]
पूर्वबद्ध द्रव्यास्रवोंके द्वारा [क र्मबन्धम् ] क र्मबंधको [विभ्रति ] धारण क रते हैं (
क र्मोंको
बाँधते हैं)[कृत-विचित्र-विक ल्प-जालम् ] जो कि क र्मबन्ध अनेक प्रकारके विकल्प
जालको करता है (अर्थात् जो क र्मबन्ध अनेक प्रकारका है)
भावार्थ :शुद्धनयसे च्युत होना अर्थात् ‘मैं शुद्ध हूँ’ ऐसे परिणमनसे छूटकर
अशुद्धरूप परिणमित होना अर्थात् मिथ्यादृष्टि हो जाना ऐसा होने पर, जीवके मिथ्यात्व
सम्बन्धी रागादिक उत्पन्न होते हैं, जिससे द्रव्यास्रव कर्मबन्धके कारण होते हैं और इसलिये
अनेक प्रकारके कर्म बंधते हैं
इसप्रकार यहाँ शुद्धनयसे च्युत होनेका अर्थ शुद्धताकी
प्रतीतिसे (सम्यक्त्वसे) च्युत होना समझना चाहिए यहाँ उपयोगकी अपेक्षा गौण है,
शुद्धनयसे च्युत होना अर्थात् शुद्ध उपयोगसे च्युत होना ऐसा अर्थ यहाँ मुख्य नहीं है; क्योंकि
शुद्धोपयोगरूप रहनेका समय अल्प रहता है, इसलिये मात्र अल्प काल शुद्धोपयोगरूप रहकर
और फि र उससे छूटकर ज्ञान अन्य ज्ञेयोंमें उपयुक्त हो तो भी मिथ्यात्वके बिना जो रागका
अंश है वह अभिप्रायपूर्वक नहीं है, इसलिये ज्ञानीके मात्र अल्प बन्ध होता है और अल्प
बन्ध संसारका कारण नहीं है
इसलिये यहाँ उपयोगकी अपेक्षा मुख्य नहीं है
अब यदि उपयोगकी अपेक्षा ली जाये तो इसप्रकार अर्थ घटित होता है :यदि
जीव शुद्धस्वरूपके निर्विकल्प अनुभवसे छूटे, परन्तु सम्यक्त्वसे न छूटे तो उसे चारित्रमोहके
रागसे कुछ बन्ध होता है
यद्यपि वह बन्ध अज्ञानके पक्षमें नहीं है तथापि वह बन्ध तो
है ही इसलिये उसे मिटानेके लिये सम्यदृष्टि ज्ञानिको शुद्धनयसे न छूटनेका अर्थात्
शुद्धोपयोगमें लीन रहनेका उपदेश है केवलज्ञान होने पर साक्षात् शुद्धनय होता है ।१२१।

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जह पुरिसेणाहारो गहिदो परिणमदि सो अणेयविहं
मंसवसारुहिरादी भावे उदरग्गिसंजुत्तो ।।१७९।।
तह णाणिस्स दु पुव्वं जे बद्धा पच्चया बहुवियप्पं
बज्झंते कम्मं ते णयपरिहीणा दु ते जीवा ।।१८०।।
यथा पुरुषेणाहारो गृहीतः परिणमति सोऽनेकविधम्
मांसवसारुधिरादीन् भावान् उदराग्निसंयुक्तः ।।१७९।।
तथा ज्ञानिनस्तु पूर्वं ये बद्धाः प्रत्यया बहुविकल्पम्
बध्नन्ति कर्म ते नयपरिहीनास्तु ते जीवाः ।।१८०।।
यदा तु शुद्धनयात् परिहीणो भवति ज्ञानी तदा तस्य रागादिसद्भावात्,
पूर्वबद्धाः द्रव्यप्रत्ययाः, स्वस्य हेतुत्वहेतुसद्भावे हेतुमद्भावस्यानिवार्यत्वात्, ज्ञानावरणादिभावैः
36
अब इसी अर्थको दृष्टान्त द्वारा दृढ़ करते हैं :
जनसे ग्रहित आहार ज्यों, उदराग्निके संयोगसे
बहुभेद मांस, वसा अरु, रुधिरादि भावों परिणमे ।।१७९।।
त्यों ज्ञानीके भी पूर्वकालनिबद्ध जो प्रत्यय रहे
बहुभेद बांधे कर्म, जो जीव शुद्धनयपरिच्युत बने ।।१८०।।
गाथार्थ :[यथा ] जैसे [पुरुषेण ] पुरुषके द्वारा [गृहीतः ] ग्रहाण किया हुआ
[आहारः ] जो आहार है [सः ] वह [उदराग्निसंयुक्तः ] उदराग्निसे संयुक्त होता हुआ
[अनेक विधम् ] अनेक प्रकार [मांसवसारुधिरादीन् ] मांस, चर्बी, रुधिर आदि [भावान् ] भावरूप
[परिणमति ] परिणमन करता है, [तथा तु ] इसीप्रकार [ज्ञानिनः ] ज्ञानीके [पूर्वं बद्धाः ] पूर्वबद्ध
[ये प्रत्ययाः ] जो द्रव्यास्रव हैं [ते ] वे [बहुविक ल्पम् ] अनेक प्रकारके [क र्म ] क र्म [बध्नन्ति ]
बांधते हैं;
[ते जीवाः ] ऐसे जीव [नयपरिहीनाः तु ] शुद्धनयसे च्युत हैं (ज्ञानी शुद्धनयसे च्युत
होवे तो उसके क र्म बँधते हैं )
टीका :जब ज्ञानी शुद्धनयसे च्युत हो तब उसके रागादिभावोंका सद्भाव होता है
इसलिये, पूर्वबद्ध द्रव्यप्रत्यय, अपने (द्रव्यप्रत्ययोंके) कर्मबन्धके हेतुत्वके हेतुका सद्भाव होने
रागादिसद्भावे

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पुद्गलकर्म बन्धं परिणमयन्ति न चैतदप्रसिद्धं, पुरुषगृहीताहारस्योदराग्निना रसरुधिरमांसादिभावैः
परिणामकरणस्य दर्शनात्
(अनुष्टुभ्)
इदमेवात्र तात्पर्यं हेयः शुद्धनयो न हि
नास्ति बन्धस्तदत्यागात्तत्त्यागाद्बन्ध एव हि ।।१२२।।
(शार्दूलविक्रीडित)
धीरोदारमहिम्न्यनादिनिधने बोधे निबध्नन् न्धृतिं
त्याज्यः शुद्धनयो न जातु कृतिभिः सर्वंक षः कर्मणाम्
तत्रस्थाः स्वमरीचिचक्रमचिरात्संहृत्य निर्यद्बहिः
पूर्ण ज्ञानघनौघमेकमचलं पश्यन्ति शान्तं महः
।।१२३।।
पर हेतुमान भावका (कार्यभावका) अनिवार्यत्व होनेसे, ज्ञानावरणादि भावसे पुद्गलकर्मको
बन्धरूप परिणमित करते हैं और यह अप्रसिद्ध भी नहीं है (अर्थात् इसका दृष्टान्त जगतमें प्रसिद्ध
हैसर्व ज्ञात है); क्योंकि मनुष्यके द्वारा ग्रहण किये गये आहारका जठराग्नि रस, रुधिर, माँस
इत्यादिरूपमें परिणमित करती है यह देखा जाता है
भावार्थ :जब ज्ञानी शुद्धनयसे च्युत हो तब उसके रागादिभावोंका सद्भाव होता है,
रागादिभावोंके निमित्तसे द्रव्यास्रव अवश्य कर्मबन्धके कारण होते हैं और इसलिये कार्मणवर्गणा
बन्धरूप परिणमित होती है
टीकामें जो यह कहा है कि ‘‘द्रव्यप्रत्यय पुद्गलकर्मको बन्धरूप
परिणमित कराते हैं ’’, सो निमित्तकी अपेक्षासे कहा है वहाँ यह समझना चाहिए कि
‘‘द्रव्यप्रत्ययोंके निमित्तभूत होने पर कार्मणवर्गणा स्वयं बन्धरूप परिणमित होती है’’ १७९-१८०
अब इस सर्व कथनका तात्पर्यरूप श्लोक कहते हैं :
श्लोकार्थ :[अत्र ] यहाँ [इदम् एव तात्पर्यं ] यही तात्पर्य है कि [शुद्धनयः न हि
हेयः ] शुद्धनय त्यागने योग्य नहीं है; [हि ] क्योंकि [तत्-अत्यागात् बन्धः नास्ति ] उसके
अत्यागसे (क र्मका) बन्ध नहीं होता और [तत्-त्यागात् बन्धः एव ] उसके त्यागसे बन्ध ही होता
है
।१२२।
‘शुद्धनय त्याग करने योग्य नहीं है’ इस अर्थको दृढ करनेवाला काव्य पुनः कहते हैं :
श्लोकार्थ :[धीर-उदार-महिम्नि अनादिनिधने बोधे धृतिं निबध्नन् शुद्धनयः ] धीर
(चलाचलता रहित) और उदार (सर्व पदार्थोंमें विस्तारयुक्त) जिसकी महिमा है ऐसे अनादिनिधन

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(मन्दाक्रान्ता)
रागादीनां झगिति विगमात्सर्वतोऽप्यास्रवाणां
नित्योद्योतं किमपि परमं वस्तु सम्पश्यतोऽन्तः
स्फारस्फारैः स्वरसविसरैः प्लावयत्सर्वभावा-
नालोकान्तादचलमतुलं ज्ञानमुन्मग्नमेतत्
।।१२४।।
ज्ञानमें स्थिरताको बाँधता हुआ (अर्थात् ज्ञानमें परिणतिको स्थिर रखता हुआ) शुद्धनय
[क र्मणाम् सर्वंक षः ] जो कि क र्मोंका समूल नाश क रनेवाला है[कृतिभिः ] पवित्र धमरत्मा
(सम्यग्दृष्टि) पुरुषोंके द्वारा [जातु ] क भी भी [न त्याज्यः ] छोड़ने योग्य नहीं है [तत्रस्थाः ]
शुद्धनयमें स्थित वे पुरुष, [बहिः निर्यत् स्व-मरीचि-चक्रम् अचिरात् संहृत्य ] बाहार निक लती
हुई अपनी ज्ञानकि रणोंके समूहको (अर्थात् क र्मके निमित्तसे परोन्मुख जानेवाली ज्ञानकी विशेष
व्यक्तियोंको) अल्पकालमें ही समेटकर, [पूर्णं ज्ञान-घन-ओघम् एक म् अचलं शान्तं महः ]
पूर्ण, ज्ञानघनके पुञ्जरूप, एक , अचल, शान्त तेजको
तेजःपुंजको[पश्यन्ति ] देखते हैं अर्थात्
अनुभव करते हैं
भावार्थ :शुद्धनय, ज्ञानके समस्त विशेषोंको गौण करके तथा परनिमित्तसे होनेवाले
समस्त भावोंको गौण करके, आत्माको शुद्ध, नित्य, अभेदरूप, एक चैतन्यमात्र ग्रहण करता है और
इसलिये परिणति शुद्धनयके विषयस्वरूप चैतन्यमात्र शुद्ध आत्मामें एकाग्र
स्थिरहोती जाती है
इसप्रकार शुद्धनयका आश्रय लेनेवाले जीव बाहर निकलती हुई ज्ञानकी विशेष व्यक्तताओंको
अल्पकालमें ही समेटकर, शुद्धनयमें (आत्माकी शुद्धताके अनुभवमें) निर्विकल्पतया स्थिर होने पर
अपने आत्माको सर्व कर्मोंसे भिन्न, केवल ज्ञानस्वरूप, अमूर्तिक पुरुषाकार, वीतराग ज्ञानमूर्तिस्वरूप
देखते हैं और शुक्लध्यानमें प्रवृत्ति करके अन्तर्मुहूर्तमें केवलज्ञान प्रगट करते हैं
शुद्धनयका ऐसा
माहात्म्य है इसलिये श्री गुरुओंका यह उपदेश है कि जब तक शुद्धनयके अवलम्बनसे केवलज्ञान
उत्पन्न न हो तब तक सम्यग्दृष्टि जीवोंको शुद्धनयका त्याग नहीं करना चाहिये १२३
अब, आस्रवोंका सर्वथा नाश करनेसे जो ज्ञान प्रगट हुआ उस ज्ञानकी महिमाका सूचक
काव्य कहते हैं :
श्लोकार्थ :[नित्य-उद्योतं ] जिसका उद्योत (प्रकाश) नित्य है ऐसी [कि म् अपि परमं
वस्तु ] किसी परम वस्तुको [अन्तः सम्पश्यतः ] अन्तरंगमें देखनेवाले पुरुषको, [रागादीनां
आस्रवाणां ]
रागादि आस्रवोंका [झगिति ] शीघ्र ही [सर्वतः अपि ] सर्व प्रकार [विगमात् ] नाश
होनेसे, [एतत् ज्ञानम् ] यह ज्ञान [उन्मग्नम् ] प्रगट हुआ
[स्फारस्फारैः ] कि जो ज्ञान
अत्यन्तात्यन्त (अनन्तानन्त) विस्तारको प्राप्त [स्वरसविसरैः ] निजरसके प्रसारसे [आ-लोक -

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इति आस्रवो निष्क्रान्तः
इति श्रीमदमृतचन्द्रसूरिविरचितायां समयसारव्याख्यायामात्मख्यातौ आस्रवप्ररूपकः चतुर्थोऽङ्कः ।।
अन्तात् ] लोक के अन्त तकके [सर्वभावान् ] सर्व भावोंको [प्लावयत् ] व्याप्त क र देता है अर्थात्
सर्व पदार्थोंको जानता है, [अचलम् ] वह ज्ञान प्रगट हुआ तभीसे सदाकाल अचल है अर्थात् प्रगट
होनेके पश्चात् सदा ज्योंका त्यों ही बना रहता है
चलायमान नहीं होता, और [अतुलं ] वह ज्ञान
अतुल है अर्थात् उसके समान दूसरा कोई नहीं है
भावार्थ :जो पुरुष अंतरंगमें चैतन्यमात्र परम वस्तुको देखता है और शुद्धनयके
आलम्बन द्वारा उसमें एकाग्र होता जाता है उस पुरुषको, तत्काल सर्व रागादिक आस्रवभावोंका
सर्वथा अभाव होकर, सर्व अतीत, अनागत और वर्तमान पदार्थोंको जाननेवाला निश्चल, अतुल
केवलज्ञान प्रगट होता है
वह ज्ञान सबसे महान है उसके समान दूसरा कोई नहीं है ।१२४।
टीका :इसप्रकार आस्रव (रंगभूमिमेंसे) बाहर निकल गया
भावार्थ :रंगभूमिमें आस्रवका स्वाँग आया था उसे ज्ञानने उसके यथार्थ स्वरूपमें जान
लिया, इसलिये वह बाहर निकल गया
योग कषाय मिथ्यात्व असंयम आस्रव द्रव्यत आगम गाये,
राग विरोध विमोह विभाव अज्ञानमयी यह भाव जताये;
जे मुनिराज करैं इनि पाल सुरिद्धि समाज लये सिव थाये,
काय नवाय नमूँ चित लाय कहूँ जय पाय लहूँ मन भाये
इसप्रकार श्री समयसारकी (श्रीमद्भगवत्कुन्दकुन्दाचार्यदेवप्रणीत श्री समयसार
परमागमकी) श्रीमद् अमृतचन्द्राचार्यदेवविरचित आत्मख्याति नामक टीकामें आस्रवका प्ररूपक
चौथा अंक समाप्त हुआ

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(दोहा)
मोहरागरूप दूरि करि, समिति गुप्ति व्रत पारि
संवरमय आतम कियो, नमूँ ताहि, मन धारि ।।
प्रथम टीकाकार आचार्यदेव कहते हैं कि ‘‘अब संवर प्रवेश करता है’’ आस्रवके
रंगभूमिमेंसे बाहर निकल जानेके बाद अब संवर रंगभूमिमें प्रवेश करता है
यहाँ पहले टीकाकार आचार्यदेव सर्व स्वाँगको जाननेवाले सम्यग्ज्ञानकी महिमादर्शक
मंगलाचरण करते हैं :
श्लोकार्थ :[आसंसार-विरोधि-संवर-जय-एकान्त-अवलिप्त-आस्रव-न्यक्कारात् ]
अनादि संसारसे लेकर अपने विरोधी संवरको जीतनेसे जो एकान्त-गर्वित (अत्यन्त अहंकारयुक्त)
हुआ है ऐसे आस्रवका तिरस्कार क रनेसे [प्रतिलब्ध-नित्य-विजयं संवरम् ] जिसनेे सदा विजय
प्राप्त की है ऐसे संवरको [सम्पादयत् ] उत्पन्न क रती हुई, [पररूपतः व्यावृत्तं ] पररूपसे भिन्न
(अर्थात् परद्रव्य और परद्रव्यके निमित्तसे होनेवाले भावोंसे भिन्न), [सम्यक्-स्वरूपे नियमितं
स्फु रत् ]
अपने सम्यक् स्वरूपमें निश्चलतासे प्रकाश करती हुई, [चिन्मयम् ] चिन्मय, [उज्ज्वलं ]
उज्ज्वल (
निराबाध, निर्मल, दैदीप्यमान) और [निज-रस-प्राग्भारम् ] निजरसके (अपने
चैतन्यरसके) भारसे युक्तअतिशयतासे युक्त [ज्योतिः ] ज्योति [उज्जृम्भते ] प्रगट होती है,
प्रसारित होती है
अथ प्रविशति संवरः
(शार्दूलविक्रीडित)
आसंसारविरोधिसंवरजयैकान्तावलिप्तास्रव-
न्यक्कारात्प्रतिलब्धनित्यविजयं सम्पादयत्संवरम्
व्यावृत्तं पररूपतो नियमितं सम्यक्स्वरूपे स्फु र-
ज्ज्योतिश्चिन्मयमुज्ज्वलं निजरसप्राग्भारमुज्जृम्भते
।।१२५।।
- -
संवर अधिकार

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तत्रादावेव सकलकर्मसंवरणस्य परमोपायं भेदविज्ञानमभिनन्दति
उवओगे उवओगो कोहादिसु णत्थि को वि उवओगो
कोहो कोहे चेव हि उवओगे णत्थि खलु कोहो ।।१८१।।
अट्ठवियप्पे कम्मे णोकम्मे चावि णत्थि उवओगो
उवओगम्हि य कम्मं णोकम्मं चावि णो अत्थि ।।१८२।।
एदं तु अविवरीदं णाणं जइया दु होदि जीवस्स
तइया ण किंचि कुव्वदि भावं उवओगसुद्धप्पा ।।१८३।।
उपयोगे उपयोगः क्रोधादिषु नास्ति कोऽप्युपयोगः
क्रोधः क्रोधे चैव हि उपयोगे नास्ति खलु क्रोधः ।।१८१।।
भावार्थ :अनादि कालसे जो आस्रवका विरोधी है ऐसे संवरको जीतकर आस्रव मदसे
गर्वित हुआ है उस आस्रवका तिरस्कार करके उस पर जिसने सदाके लिये विजय प्राप्त की है
ऐसे संवरको उत्पन्न करता हुआ, समस्त पररूपसे भिन्न और अपने स्वरूपमें निश्चल यह
चैतन्यप्रकाश निजरसकी अतिशयतापूर्वक निर्मलतासे उदयको प्राप्त हुआ है
।१२५।
संवर अधिकारके प्रारम्भमें ही, श्री कुन्दकुन्दाचार्य सकल कर्मका संवर करनेका उत्कृष्ट
उपाय जो भेदविज्ञान है उसकी प्रशंसा करते हैं :
उपयोगमें उपयोग, को उपयोग नहिं क्रोधादिमें
है क्रोध क्रोधविषै हि निश्चय, क्रोध नहिं उपयोगमें ।।१८१।।
उपयोग है नहिं अष्टविध, कर्मों अवरु नोकर्ममें
ये कर्म अरु नोकर्म भी कुछ हैं नहीं उपयोगमें ।।१८२।।
ऐसा अविपरीत ज्ञान जब ही प्रगटता है जीवके
तब अन्य नहिं कुछ भाव वह उपयोगशुद्धात्मा करे ।।१८३।।
गाथार्थ :[उपयोगः ] उपयोग [उपयोगे ] उपयोगमें है, [क्रोधादिषु ] क्रोधादिमें
[कोऽपि उपयोगः ] कोई भी उपयोग [नास्ति ] नहीं है; [च ] और [क्रोधः ] क्रोध [क्रोधे एव
हि ]
क्रोधमें ही है, [उपयोगे ] उपयोगमें [खलु ] निश्चयसे [क्रोधः ] क्रोध [नास्ति ] नहीं है

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अष्टविकल्पे कर्मणि नोकर्मणि चापि नास्त्युपयोगः
उपयोगे च कर्म नोकर्म चापि नो अस्ति ।।१८२।।
एतत्त्वविपरीतं ज्ञानं यदा तु भवति जीवस्य
तदा न किञ्चित्करोति भावमुपयोगशुद्धात्मा ।।१८३।।
न खल्वेकस्य द्वितीयमस्ति, द्वयोर्भिन्नप्रदेशत्वेनैकसत्तानुपपत्तेः तदसत्त्वे च तेन
सहाधाराधेयसम्बन्धोऽपि नास्त्येव ततः स्वरूपप्रतिष्ठत्वलक्षण एवाधाराधेयसम्बन्धोऽवतिष्ठते तेन
ज्ञानं जानत्तायां स्वरूपे प्रतिष्ठितं, जानत्ताया ज्ञानादपृथग्भूतत्वात्, ज्ञाने एव स्यात् क्रोधादीनि
क्रुध्यत्तादौ स्वरूपे प्रतिष्ठितानि, क्रुध्यत्तादेः क्रोधादिभ्योऽपृथग्भूतत्वात्, क्रोधादिष्वेव स्युः
पुनः क्रोधादिषु कर्मणि नोकर्मणि वा ज्ञानमस्ति, न च ज्ञाने क्रोधादयः कर्म नोकर्म वा सन्ति,
[अष्टविक ल्पे क र्मणि ] आठ प्रकारके क र्मोंमें [च अपि ] और [नोक र्मणि ] नोक र्ममें [उपयोगः ]
उपयोग [नास्ति ] नहीं है [च ] और [उपयोगे ] उपयोगमें [क र्म ] क र्म [च अपि ] तथा
[नोक र्म ] नोक र्म [नो अस्ति ] नहीं है
[एतत् तु ] ऐसा [अविपरीतं ] अविपरीत [ज्ञानं ] ज्ञान
[यदा तु ] जब [जीवस्य ] जीवके [भवति ] होता है, [तदा ] तब [उपयोगशुद्धात्मा ] वह
उपयोगस्वरूप शुद्धात्मा [कि ञ्चित् भावम् ] उपयोगके अतिरिक्त अन्य किसी भी भावको [न
क रोति ]
नहीं क रता
टीका :वास्तवमें एक वस्तुकी दूसरी वस्तु नहीं है, (अर्थात् एक वस्तु दूसरी वस्तुके
साथ कोई सम्बन्ध नहीं रखती) क्योंकि दोनोंके प्रदेश भिन्न हैं, इसलिये उनमें एक सत्ताकी
अनुपपत्ति है (अर्थात् दोनोंकी सत्ताऐं भिन्न-भिन्न हैं); और इसप्रकार जब कि एक वस्तुकी दूसरी
वस्तु नहीं है तब एकके साथ दूसरीको आधारआधेयसम्बन्ध भी है ही नहीं
इसलिये (प्रत्येक
वस्तुका) अपने स्वरूपमें प्रतिष्ठारूप (दृढ़तापूर्वक रहनेरूप) ही आधारआधेयसम्बन्ध है इसलिये
ज्ञान जो कि जाननक्रियारूप अपने स्वरूपमें प्रतिष्ठित है वह, जाननक्रियाका ज्ञानसे अभिन्नत्व
होनेसे, ज्ञानमें ही है; क्रोधादिक जो कि क्रोधादिक्रियारूप अपने स्वरूपमें प्रतिष्ठित है वह,
क्रोधादिक्रियाका क्रोधादिसे अभिन्नत्व होनेके कारण, क्रोधादिकमें ही है
(ज्ञानका स्वरूप
जाननक्रिया है, इसलिये ज्ञान आधेय है और जाननक्रिया आधार है जाननक्रिया आधार होनेसे
यह सिद्ध हुआ कि ज्ञान ही आधार है, क्योंकि जाननक्रिया और ज्ञान भिन्न नहीं हैं तात्पर्य यह
है कि ज्ञान ज्ञानमें ही है इसीप्रकार क्रोध क्रोधमें ही है ) और क्रोधादिकमें, कर्ममें या नोकर्ममें
ज्ञान नहीं है तथा ज्ञानमें क्रोधादिक, कर्म या नोकर्म नहीं हैं, क्योंकि उनके परस्पर अत्यन्त स्वरूप-
विपरीतता होनेसे (अर्थात् ज्ञानका स्वरूप और क्रोधादिक तथा कर्म-नोकर्मका स्वरूप अत्यन्त