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परस्परमत्यन्तं स्वरूपवैपरीत्येन परमार्थाधाराधेयसम्बन्धशून्यत्वात् । न च यथा ज्ञानस्य जानत्ता स्वरूपं तथा क्रुध्यत्तादिरपि, क्रोधादीनां च यथा क्रुध्यत्तादि स्वरूपं तथा जानत्तापि क थंचनापि व्यवस्थापयितुं शक्येत, जानत्तायाः क्रुध्यत्तादेश्च स्वभावभेदेनोद्भासमानत्वात् स्वभावभेदाच्च वस्तुभेद एव इति नास्ति ज्ञानाज्ञानयोराधाराधेयत्वम् । किंच यदा किलैकमेवाकाशं स्वबुद्धिमधिरोप्याधाराधेयभावो विभाव्यते तदा शेषद्रव्यान्तराधिरोपनिरोधादेव बुद्धेर्न भिन्नाधिकरणापेक्षा प्रभवति । तदप्रभवे चैकमाकाशमेवैकस्मिन्नाकाश एव प्रतिष्ठितं विभावयतो न पराधाराधेयत्वं प्रतिभाति । एवं यदैकमेव ज्ञानं स्वबुद्धिमधिरोप्याधाराधेयभावो विभाव्यते तदा शेषद्रव्यान्तराधिरोपनिरोधादेव बुद्धेर्न भिन्नाधिकरणापेक्षा प्रभवति । तदप्रभवे चैकं ज्ञानमेवैकस्मिन् ज्ञान एव प्रतिष्ठितं विभावयतो न पराधाराधेयत्वं प्रतिभाति । ततो ज्ञानमेव ज्ञाने एव, क्रोधादय एव क्रोधादिष्वेवेति साधु सिद्धं भेदविज्ञानम् । विरुद्ध होनेसे) उनके परमार्थभूत आधारआधेयसम्बन्ध नहीं है । और जैसे ज्ञानका स्वरूप जाननक्रिया है उसीप्रकार (ज्ञानका स्वरूप) क्रोधादिक्रिया भी हो, अथवा जैसे क्रोधादिका स्वरूप क्रोधादिक्रिया है उसीप्रकार (क्रोधादिका स्वरूप) जाननक्रिया भी हो ऐसा किसी भी प्रकारसे स्थापित नहीं किया जा सकता; क्योंकि जाननक्रिया और क्रोधादिक्रिया भिन्न-भिन्न स्वभावसे प्रकाशित होती हैं और इस भाँति स्वभावोंके भिन्न होनेसे वस्तुएँ भिन्न ही हैं । इसप्रकार ज्ञान तथा अज्ञानमें (क्रोधादिकमें) आधाराधेयत्व नहीं है ।
इसीको विशेष समझाते हैं : — जब एक ही आकाशको अपनी बुद्धिमें स्थापित करके (आकाशके) आधारआधेयभावका विचार किया जाता है तब आकाशको शेष अन्य द्रव्योंमें आरोपित करनेका निरोध होनेसे (अर्थात् अन्य द्रव्योंमें स्थापित करना अशक्य होनेसे) बुद्धिमें भिन्न आधारकी अपेक्षा ❃
आकाशमें ही प्रतिष्ठित है’ यह भलीभाँति समझ लिया जाता है और इसलिये ऐसा समझ लेनेवालेको पर-आधाराधेयत्व भासित नहीं होता । इसप्रकार जब एक ही ज्ञानको अपनी बुद्धिमें स्थापित करके (ज्ञानके) आधारआधेयभावका विचार किया जाये तब ज्ञानको शेष अन्य द्रव्योंमें आरोपित करनेका निरोध ही होनेसे बुद्धिमें भिन्न आधारकी अपेक्षा प्रभवित नहीं होती; और उसके प्रभवित नहीं होनेसे, ‘एक ज्ञान ही एक ज्ञानमें ही प्रतिष्ठित है’ यह भलीभाँति समझ लिया जाता है और इसलिये ऐसा समझ लेनेवालेको पर-आधाराधेयत्व भासित नहीं होता । इसलिये ज्ञान ही ज्ञानमें ही है, और क्रोधादिक ही क्रोधादिमें ही है । ❃प्रभवित नहीं होती = लागू नहीं होती; लग सकती नहीं; शमन हो जाती है; उद्भूत नहीं होती ।
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रन्तर्दारुणदारणेन परितो ज्ञानस्य रागस्य च ।
शुद्धज्ञानघनौघमेकमधुना सन्तो द्वितीयच्युताः ।।१२६।।
इसप्रकार (ज्ञानका और क्रोधादिक तथा कर्म-नोकर्मका) भेदविज्ञान भलीभाँति सिद्ध हुआ ।
भावार्थ : — उपयोग तो चैतन्यका परिणमन होनेसे ज्ञानस्वरूप है और क्रोधादि भावकर्म, ज्ञानावरणादि द्रव्यकर्म तथा शरीरादि नोकर्म — सभी पुद्गलद्रव्यके परिणाम होनेसे जड़ है; उनमें और ज्ञानमें प्रदेशभेद होनेसे अत्यन्त भेद है । इसलिये उपयोगमें क्रोधादिक, कर्म तथा नोकर्म नहीं है और क्रोधादिमें, कर्ममें तथा नोकर्ममें उपयोग नहीं हैं । इसप्रकार उनमें पारमार्थिक आधाराधेयसम्बन्ध नहीं है; प्रत्येक वस्तुका अपना अपना आधाराधेयत्व अपने-अपनेमें ही है । इसलिये उपयोग उपयोगमें ही है और क्रोध, क्रोधमें ही है । इसप्रकार भेदविज्ञान भलीभाँति सिद्ध हो गया । (भावकर्म इत्यादिका और उपयोगका भेद जानना सो भेदविज्ञान है ।)।१८१-१८३।
श्लोकार्थ : — [चैद्रूप्यं जडरूपतां च दधतोः ज्ञानस्य रागस्य च ] चिद्रूपताको धारण करनेवाला ज्ञान और जड़रूपताको धारण करनेवाला राग — [द्वयोः ] दोनोंका, [अन्तः ] अन्तरंगमें [दारुणदारणेन ] दारुण विदारणके द्वारा (भेद करनेवाला उग्र अभ्यासके द्वारा), [परितः विभागं कृत्वा ] सभी ओरसे विभाग क रके ( — सम्पूर्णतया दोनोंको अलग करके — ), [इदं निर्मलम् भेदज्ञानम् उदेति ] यह निर्मल भेदज्ञान उदयको प्राप्त हुआ है; [अधुना ] इसलिये अब [एक म् शुद्ध-ज्ञानघन-ओघम् अध्यासिताः ] एक शुद्धविज्ञानघनके पुञ्जमें स्थित और [द्वितीय-च्युताः ] अन्यसे अर्थात् रागसे रहित [सन्तः ] हे सत्पुरुषों ! [मोदध्वम् ] मुदित होओ ।
भावार्थ : — ज्ञान तो चेतनास्वरूप है और रागादिक पुद्गलविकार होनेसे जड़ हैं; किन्तु अज्ञानसे ऐसा भासित होता है कि मानों ज्ञान भी रागादिरूप हो गया हो, अर्थात् ज्ञान और रागादिक दोनों एकरूप – जड़रूप – भासित होते हैं । जब अंतरंगमें ज्ञान और रागादिका भेद करनेका तीव्र अभ्यास करनेसे भेदज्ञान प्रगट होता है तब यह ज्ञात होता है कि ज्ञानका स्वभाव तो मात्र जाननेका ही है, ज्ञानमें जो रागादिकी कलुषता – आकुलतारूप सङ्कल्प-विकल्प भासित होते हैं वे सब पुद्गलविकार हैं, जड़ हैं । इसप्रकार ज्ञान और रागादिके भेदका स्वाद आता है अर्थात् अनुभव होता है । जब ऐसा भेदज्ञान होता है तब आत्मा आनन्दित होता है, क्योंकि उसे ज्ञात है कि ‘‘स्वयं
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एवमिदं भेदविज्ञानं यदा ज्ञानस्य वैपरीत्यकणिकामप्यनासादयदविचलितमवतिष्ठते, तदा शुद्धोपयोगमयात्मत्वेन ज्ञानं ज्ञानमेव केवलं सन्न किंचनापि रागद्वेषमोहरूपं भावमारचयति । ततो भेदविज्ञानाच्छुद्धात्मोपलम्भः प्रभवति । शुद्धात्मोपलम्भात् रागद्वेषमोहाभावलक्षणः संवरः प्रभवति ।
टीका : — इसप्रकार जब यह भेदविज्ञान ज्ञानको अणुमात्र भी (रागादिविकाररूप) विपरीतताको न प्राप्त कराता हुआ अविचलरूपसे रहता है, तब शुद्ध-उपयोगमयात्मकताके द्वारा ज्ञान केवल ज्ञानरूप ही रहता हुआ किंचित्मात्र भी रागद्वेषमोहरूप भावको नहीं करता; इसलिये (यह सिद्ध हुआ कि) भेदविज्ञानसे शुद्ध आत्माकी उपलब्धि (अनुभव) होती है और शुद्ध आत्माकी उपलब्धिसे रागद्वेषमोहका (आस्रवभावका) अभाव जिसका लक्षण है ऐसा संवर होता है ।
अब यह प्रश्न होता है कि भेदविज्ञानसे ही शुद्ध आत्माकी उपलब्धि (अनुभव) कैसे होती है ? उसके उत्तरमें गाथा कहते हैं : —
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यतो यस्यैव यथोदितं भेदविज्ञानमस्ति स एव तत्सद्भावात् ज्ञानी सन्नेवं जानाति — यथा प्रचण्डपावकप्रतप्तमपि सुवर्णं न सुवर्णत्वमपोहति तथा प्रचण्डकर्मविपाकोपष्टब्धमपि ज्ञानं न ज्ञानत्वमपोहति, कारणसहस्रेणापि स्वभावस्यापोढुमशक्यत्वात्; तदपोहे तन्मात्रस्य वस्तुन एवोच्छेदात्; न चास्ति वस्तूच्छेदः, सतो नाशासम्भवात् । एवं जानंश्च कर्माक्रान्तोऽपि न रज्यते, न द्वेष्टि, न मुह्यति, किन्तु शुद्धमात्मानमेवोपलभते । यस्य तु यथोदितं भेदविज्ञानं नास्ति स तदभावादज्ञानी सन्नज्ञानतमसाच्छन्नतया चैतन्यचमत्कारमात्रमात्मस्वभावमजानन् रागमेवात्मानं मन्यमानो रज्यते द्वेष्टि मुह्यति च, न जातु शुद्धमात्मानमुपलभते । ततो भेदविज्ञानादेव शुद्धात्मोपलम्भः । हुआ भी [तं ] अपने [क नक भावं ] सुवर्णत्वको [न परित्यजति ] नहीं छोड़ता [तथा ] इसीप्रकार [ज्ञानी ] ज्ञानी [क र्मोदयतप्तः तु ] क र्मके उदयसे तप्त होता हुआ भी [ज्ञानित्वम् ] ज्ञानित्वको [न जहाति ] नहीं छोड़ता — [एवं ] ऐसा [ज्ञानी ] ज्ञानी [जानाति ] जानता है, और [अज्ञानी ] अज्ञानी [अज्ञानतमोऽवच्छन्नः ] अज्ञानांधकारसे आच्छादित होनेसे [आत्मस्वभावम् ] आत्माके स्वभावको [अजानन् ] न जानता हुआ [रागम् एव ] रागको ही [आत्मानम् ] आत्मा [मनुते ] मानता है ।
टीका : — जिसे ऊ पर कहा गया ऐसा भेदविज्ञान है वही उसके (भेदविज्ञानके) सद्भावसे ज्ञानी होता हुआ इसप्रकार जानता है : — जैसे प्रचण्ड अग्निके द्वारा तप्त होता हुआ सुवर्ण भी सुवर्णत्वको नहीं छोड़ता उसीप्रकार प्रचण्ड कर्मोदयके द्वारा घिरा हुआ होने पर भी (विघ्न किया जाय तो भी) ज्ञान ज्ञानत्वको नहीं छोड़ता, क्योंकि हजार कारणोंके एकत्रित होने पर भी स्वभावको छोड़ना अशक्य है; उसे छोड़ देने पर स्वभावमात्र वस्तुका ही उच्छेद हो जायेगा, और वस्तुका उच्छेद तो होता नहीं है, क्योंकि सत्का नाश होना असम्भव है । ऐसा जानता हुआ ज्ञानी कर्मसे आक्रान्त ( – घिरा हुआ) होता हुआ भी रागी नहीं होता, द्वेषी नहीं होता, मोही नहीं होता, किन्तु वह शुद्ध आत्माका ही अनुभव करता है । और जिसे उपरोक्त भेदविज्ञान नहीं है वह उसके अभावसे अज्ञानी होता हुआ, अज्ञानांधकार द्वारा आच्छादित होनेसे चैतन्यचमत्कारमात्र आत्मस्वभावको न जानता हुआ, रागको ही आत्मा मानता हुआ, रागी होता है, द्वेषी होता है, मोही होता है, किन्तु शुद्ध आत्माका किंचित्मात्र भी अनुभव नहीं करता । अतः सिद्ध हुआ कि भेदविज्ञानसे ही शुद्ध आत्माकी उपलब्धि (-अनुभव) होती है ।
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यो हि नित्यमेवाच्छिन्नधारावाहिना ज्ञानेन शुद्धमात्मानमुपलभमानोऽवतिष्ठते स ज्ञानमयात् भावात् ज्ञानमय एव भावो भवतीति कृत्वा प्रत्यग्रकर्मास्रवणनिमित्तस्य रागद्वेषमोहसन्तानस्य निरोधाच्छुद्धमेवात्मानं प्राप्नोति; यस्तु नित्यमेवाज्ञानेनाशुद्धमात्मानमुपलभमानोऽवतिष्ठते
भावार्थ : — जिसे भेदविज्ञान हुआ है वह आत्मा जानता है कि ‘आत्मा क भी ज्ञानस्वभावसे छूटता नहीं है’ । ऐसा जानता होनेसे वह, कर्मोदयके द्वारा तप्त होता हुआ भी, रागी, द्वेषी, मोही नहीं होता, परन्तु निरन्तर शुद्ध आत्माका अनुभव करता है । जिसे भेदविज्ञान नहीं है वह आत्मा, आत्माके ज्ञानस्वभावको न जानता हुआ, रागको ही आत्मा मानता है, इसलिये वह रागी, द्वेषी, मोही होता है, किन्तु कभी भी शुद्ध आत्माका अनुभव नहीं करता । इसलिये यह सिद्ध हुआ कि भेदविज्ञानसे ही शुद्ध आत्माकी उपलब्धि होती है ।।१८४-१८५।।
अब यह प्रश्न होता है कि शुद्ध आत्माकी उपलब्धिसे ही संवर कैसे होता है ? इसका उत्तर कहते हैं : —
गाथार्थ : — [शुद्धं तु ] शुद्ध आत्माको [विजानन् ] जानता हुआ – अनुभव करता हुआ [जीवः ] जीव [शुद्धं च एव आत्मानं ] शुद्ध आत्माको ही [लभते ] प्राप्त करता है [तु ] और [अशुद्धम् ] अशुद्ध [आत्मानं ] आत्माको [जानन् ] जानता हुआ – अनुभव करता हुआ जीव [अशुद्धम् एव ] अशुद्ध आत्माको ही [लभते ] प्राप्त करता है ।
टीका : — जो सदा ही अच्छिन्नधारावाही ज्ञानसे शुद्ध आत्माका अनुभव किया करता है वह, ‘ज्ञानमय भावमेंसे ज्ञानमय भाव ही होता है’ इस न्यायके अनुसार नये कर्मोंके आस्रवणका निमित्त जो रागद्वेषमोहकी संतति (परम्परा) उसका निरोध होनेसे, शुद्ध आत्माको ही प्राप्त करता है; और जो सदा ही अज्ञानसे अशुद्ध आत्माका अनुभव किया करता है वह, ‘अज्ञानमय भावमेंसे
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सोऽज्ञानमयाद्भावादज्ञानमय एव भावो भवतीति कृत्वा प्रत्यग्रकर्मास्रवणनिमित्तस्य रागद्वेष- मोहसन्तानस्यानिरोधादशुद्धमेवात्मानं प्राप्नोति । अतः शुद्धात्मोपलम्भादेव संवरः ।
ध्रुवमुपलभमानः शुद्धमात्मानमास्ते ।
परपरिणतिरोधाच्छुद्धमेवाभ्युपैति ।।१२७।।
संतति उसका निरोध न होनेसे, अशुद्ध आत्माको ही प्राप्त करता है । अतः शुद्ध आत्माकी
भावार्थ : — जो जीव अखण्डधारावाही ज्ञानसे आत्माको निरन्तर शुद्ध अनुभव किया करता है उसके रागद्वेषमोहरूप भावास्रव रुकते हैं, इसलिये वह शुद्ध आत्माको प्राप्त करता है; और जो जीव अज्ञानसे आत्माका अशुद्ध अनुभव करता है उसके रागद्वेषमोहरूप भावास्रव नहीं रुकते, इसलिये वह अशुद्ध आत्माको ही प्राप्त करता है । इसप्रकार सिद्ध हुआ कि शुद्ध आत्माकी उपलब्धिसे (अनुभवसे) ही संवर होता है ।।१८६।।
श्लोकार्थ : — [यदि ] यदिे [क थम् अपि ] किसी भी प्रकारसे (तीव्र पुरुषार्थ करके) [धारावाहिना बोधनेन ] धारावाही ज्ञानसे [शुद्धम् आत्मानम् ] शुद्ध आत्माको [ध्रुवम् उपलभमानः आस्ते ] निश्चलतया अनुभव किया क रे [तत् ] तो [अयम् आत्मा ] यह आत्मा, [उदयत्-आत्म- आरामम् आत्मानम् ] जिसका आत्मानंद प्रगट होता जाता है (अर्थात् जिसकी आत्मस्थिरता बढ़ती जाती है) ऐसे आत्माको [पर-परिणति-रोधात् ] परपरिणतिके निरोधसे [शुद्धम् एव अभ्युपैति ] शुद्ध ही प्राप्त क रता है
भावार्थ : — धारावाही ज्ञानके द्वारा शुद्ध आत्माका अनुभव करनेसे रागद्वेषमोहरूप परपरिणतिका (भावास्रवोंका) निरोध होता है और उससे शुद्ध आत्माकी प्राप्ति होती है ।
धारावाही ज्ञानका अर्थ है प्रवाहरूपज्ञान – अखण्ड रहनेवाला ज्ञान । वह दो प्रकारसे कहा जाता है : — एक तो, जिसमें बीचमें मिथ्याज्ञान न आये ऐसा सम्यग्ज्ञान धारावाही ज्ञान है । दूसरा, एक ही ज्ञेयमें उपयोगके उपयुक्त रहनेकी अपेक्षासे ज्ञानकी धारावाहिकता कही जाती है, अर्थात् जहाँ तक उपयोग एक ज्ञेयमें उपयुक्त रहता है वहाँ तक धारावाही ज्ञान कहलाता है; इसकी स्थिति
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होगी, क्योंकि उसका उपयोग शुद्ध आत्मामें ही उपयुक्त है ।१२७।
गाथार्थ : — [आत्मानम् ] आत्माको [आत्मना ] आत्माके द्वारा [द्विपुण्यपापयोगयोः ] दो पुण्य-पापरूप शुभाशुभयोगोंसे [रुन्ध्वा ] रोक कर [दर्शनज्ञाने ] दर्शनज्ञानमें [स्थितः ] स्थित होता हुआ [च ] और [अन्यस्मिन् ] अन्य (वस्तु)की [इच्छाविरतः ] इच्छासे विरत होता हुआ, [यः
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यो हि नाम रागद्वेषमोहमूले शुभाशुभयोगे प्रवर्तमानं दृढतरभेदविज्ञानावष्टम्भेन आत्मानं आत्मनैवात्यन्तं रुन्ध्वा शुद्धदर्शनज्ञानात्मन्यात्मद्रव्ये सुष्ठु प्रतिष्ठितं कृत्वा समस्तपरद्रव्येच्छापरिहारेण समस्तसंगविमुक्तो भूत्वा नित्यमेवातिनिष्प्रकम्पः सन् मनागपि कर्मनोकर्मणोरसंस्पर्शेन आत्मीयमात्मानमेवात्मना ध्यायन् स्वयं सहजचेतयितृत्वादेकत्वमेव चेतयते, स खल्वेकत्व- चेतनेनात्यन्तविविक्तं चैतन्यचमत्कारमात्रमात्मानं ध्यायन् शुद्धदर्शनज्ञानमयमात्मद्रव्यमवाप्तः, शुद्धात्मोपलम्भे सति समस्तपरद्रव्यमयत्वमतिक्रान्तः सन् अचिरेणैव सकलकर्म- आत्मा ] जो आत्मा, [सर्वसङ्गमुक्तः ] (इच्छारहित होनेसे) सर्व संगसे रहित होता हुआ, [आत्मानम् ] (अपने) आत्माको [आत्मना ] आत्माके द्वारा [ध्यायति ] ध्याता है, [क र्म नोक र्म ] क र्म तथा नोक र्मको [न अपि ] नहीं ध्याता, एवं [चेतयिता ] (स्वयं) १चेतयिता (होनेसे) [एक त्वम् ] एकत्वको ही [चिन्तयति ] चिन्तवन करता है — चेतता है — अनुभव करता है, [सः ] वह (आत्मा), [आत्मानं ध्यायन् ] आत्माको ध्याता हुआ, [दर्शनज्ञानमयः ] दर्शनज्ञानमय और [अनन्यमयः ] अनन्यमय होता हुआ [अचिरेण एव ] अल्प कालमें ही [क र्मप्रविमुक्तम् ] क र्मोंसे रहित [आत्मानम् ] आत्माको [लभते ] प्राप्त करता है ।
टीका : — जो जीव रागद्वेषमोह जिसका मूल है ऐसे शुभाशुभ योगमें प्रवर्तमान आत्माको दृढ़तर भेदविज्ञानके आलम्बनसे आत्माके द्वारा ही अत्यन्त रोककर, शुद्धदर्शनज्ञानरूप आत्मद्रव्यमें भली भाँति प्रतिष्ठित (स्थिर) करके, समस्त परद्रव्योंकी इच्छाके त्यागसे सर्व संगसे रहित होकर, निरन्तर अति निष्कम्प वर्तता हुआ, कर्म-नोकर्मका किंचित्मात्र भी स्पर्श किये बिना अपने आत्माको ही आत्माके द्वारा ध्याता हुआ, स्वयंको सहज चेतयितापन होनेसे एकत्वको ही चेतता है (ज्ञानचेतनारूप रहता है), वह जीव वास्तवमें, एकत्व-चेतन द्वारा अर्थात् एकत्वके अनुभवन द्वारा (परद्रव्यसे) अत्यन्त भिन्न चैतन्यचमत्कारमात्र आत्माको ध्याता हुआ, शुद्धदर्शनज्ञानमय आत्मद्रव्यको प्राप्त होता हुआ, शुद्ध आत्माकी उपलब्धि (प्राप्ति) होने पर समस्त परद्रव्यमयतासे अतिक्रान्त होता हुआ, अल्प १चेतयिता = ज्ञाता-द्रष्टा
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विमुक्तमात्मानमवाप्नोति । एष संवरप्रकारः ।
भवति नियतमेषां शुद्धतत्त्वोपलम्भः ।
भवति सति च तस्मिन्नक्षयः कर्ममोक्षः ।।१२८।।
कालमें ही सर्व कर्मोंसे रहित आत्माको प्राप्त करता है । यह संवरका प्रकार (विधि) है ।
भावार्थ : — जो जीव पहले तो रागद्वेषमोहके साथ मिले हुए मनवचनकायके शुभाशुभ योगोंसे अपने आत्माको भेदज्ञानके बलसे चलायमान नहीं होने दे, और फि र उसको शुद्धदर्शनज्ञानमय आत्मस्वरूपमें निश्चल करे तथा समस्त बाह्याभ्यन्तर परिग्रहसे रहित होकर कर्म- नोकर्मसे भिन्न अपने स्वरूपमें एकाग्र होकर उसीका ही अनुभव किया करे अर्थात् उसीके ध्यानमें रहे, वह जीव आत्माका ध्यान करनेसे दर्शनज्ञानमय होता हुआ और परद्रव्यमयताका उल्लंघन करता हुआ अल्प कालमें समस्त कर्मोंसे मुक्त हो जाता है । यह संवर होनेकी रीति है ।।१८७ से १८९।।
श्लोकार्थ : — [भेदविज्ञानशक्त्या निजमहिमरतानां एषां ] जो भेदविज्ञानकी शक्तिके द्वारा निज (स्वरूपकी) महिमामें लीन रहते हैं उन्हेें [नियतम् ] नियमसे [शुद्धतत्त्वोपलम्भः ] शुद्ध तत्त्वकी उपलब्धि [भवति ] होती है; [तस्मिन् सति च ] शुद्ध तत्त्वकी उपलब्धि होने पर, [अचलितम् अखिल-अन्यद्रव्य-दूरे-स्थितानां ] अचलितरूपसे समस्त अन्यद्रव्योंसे दूर वर्तते हुए ऐसे उनके, [अक्षयः क र्ममोक्षः भवति ] अक्षय क र्ममोक्ष होता है (अर्थात् उनका कर्मोंसे छुटकारा हो जाता है कि पुनः कभी कर्मबन्ध नहीं होता) ।१२८।
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गाथार्थ : — [तेषां ] उनके (पूर्व क थित रागद्वेषमोहरूप आस्रवोंके) [हेतवः ] हेतु [सर्वदर्शिभिः ] सर्वदर्शियोंने [मिथ्यात्वम् ] मिथ्यात्व, [अज्ञानम् ] अज्ञान, [अविरतभावः च ] और अविरतभाव [योगः च ] तथा योग — [अध्यवसानानि ] यह (चार) अध्यवसान [भणिताः ] क हे हैं । [ज्ञानिनः ] ज्ञानीके [हेत्वभावे ] हेतुओंके अभावमें [नियमात् ] नियमसे [आस्रवनिरोधः ] आस्रवका निरोध [जायते ] होता है, [आस्रवभावेन विना ] आस्रवभावके बिना [क र्मणः अपि ] क र्मका भी [निरोधः ] निरोध [जायते ] होता है, [च ] और [क र्मणः अभावेन ] क र्मके अभावसे [नोक र्मणाम् अपि ] नोक र्मोंका भी [निरोधः ] निरोध [जायते ] होता है, [च ] और [नोक र्मनिरोधेन ] नोक र्मके निरोधसे [संसारनिरोधनं ] संसारका निरोध [भवति ] होता है
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सन्ति तावज्जीवस्य आत्मकर्मैकत्वाध्यासमूलानि मिथ्यात्वाज्ञानाविरतियोगलक्षणानि अध्यवसानानि । तानि रागद्वेषमोहलक्षणस्यास्रवभावस्य हेतवः । आस्रवभावः कर्महेतुः । कर्म नोकर्महेतुः । नोकर्म संसारहेतुः इति । ततो नित्यमेवायमात्मा आत्मकर्मणोरेकत्वाध्यासेन मिथ्यात्वाज्ञानाविरतियोगमयमात्मानमध्यवस्यति । ततो रागद्वेषमोहरूपमास्रवभावं भावयति । ततः कर्म आस्रवति । ततो नोकर्म भवति । ततः संसारः प्रभवति । यदा तु आत्मकर्मणोर्भेदविज्ञानेन शुद्धचैतन्यचमत्कारमात्रमात्मानं उपलभते तदा मिथ्यात्वाज्ञानाविरतियोगलक्षणानां अध्यवसानानां आस्रवभावहेतूनां भवत्यभावः । तदभावे रागद्वेषमोहरूपास्रवभावस्य भवत्यभावः । तदभावे भवति कर्माभावः । तदभावेऽपि भवति नोकर्माभावः । तदभावेऽपि भवति संसाराभावः । इत्येष संवरक्रमः ।
टीका : — पहले तो जीवके, आत्मा और कर्मके एकत्वका अध्यास (अभिप्राय) जिनका मूल है ऐसे मिथ्यात्व-अज्ञान-अविरति-योगस्वरूप अध्यवसान विद्यमान हैं, वे रागद्वेषमोहस्वरूप आस्रवभावके कारण हैं; आस्रवभाव कर्मका कारण है; कर्म-नोकर्मका कारण है; और नोकर्म संसारका कारण है । इसलिये — सदा ही यह आत्मा, आत्मा और कर्मके एकत्वके अध्याससे मिथ्यात्व-अज्ञान-अविरति-योगमय आत्माको मानता है (अर्थात् मिथ्यात्वादि अध्यवसान करता है); ततः रागद्वेषमोहरूप आस्रवभावको भाता है, उससे कर्मास्रव होता है; उससे नोकर्म होता है; और उससे संसार उत्पन्न होता है । किन्तु जब (वह आत्मा), आत्मा और कर्मके भेदविज्ञानके द्वारा शुद्ध चैतन्यचमत्कारमात्र आत्माको उपलब्ध करता है — अनुभव करता है तब मिथ्यात्व, अज्ञान, अविरति और योगस्वरूप अध्यवसान, जो कि आस्रवभावके कारण हैं उनका अभाव होता है; अध्यवसानोंका अभाव होने पर रागद्वेषमोहरूप आस्रवभावका अभाव होता है; आस्रवभावका अभाव होने पर कर्मका अभाव होता है; कर्मका अभाव होने पर नोकर्मका अभाव होता है; और नोकर्मका अभाव होने पर संवरका अभाव होता है । इसप्रकार यह संवरका क्रम है ।
भावार्थ : — जीवके जब तक आत्मा और कर्मके एकत्वका आशय है — भेदविज्ञान नहीं है तब तक मिथ्यात्व, अज्ञान, अविरति और योगस्वरूप अध्यवसान वर्तते हैं, अध्यवसानसे रागद्वेषमोहरूप आस्रवभाव होता है, आस्रवभावसे कर्म बँधता है, कर्मसे शरीरादि नोकर्म उत्पन्न होता है और नोकर्मसे संसार है । परन्तु जब उसे आत्मा और कर्मका भेदविज्ञान होता है तब शुद्ध आत्माकी उपलब्धि होनेसे मिथ्यात्वादि अध्यवसानोंका अभाव होता है, और अध्यवसानके अभावसे रागद्वेषमोहरूप आस्रवका अभाव होता है, आस्रवके अभावसे कर्म नहीं बँधता, कर्मके अभावसे शरीरादि नोकर्म उत्पन्न नहीं होते और नोकर्मके अभावसे संसारका अभाव होता है । — इसप्रकार संवरका अनुक्रम जानना चाहिये ।।१९० से १९२।।
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च्छुद्धात्मतत्त्वस्य किलोपलम्भात् ।
तद्भेदविज्ञानमतीव भाव्यम् ।।१२९।।
संवर होनेके क्रममें संवरका पहला ही कारण भेदविज्ञान कहा है उसकी भावनाके उपदेशका काव्य कहते हैं : —
श्लोकार्थ : — [एषः साक्षात् संवरः ] यह साक्षात् (सर्व प्रकारसे) संवर [कि ल ] वास्तवमें [शुद्ध-आत्म-तत्त्वस्य उपलम्भात् ] शुद्ध आत्मतत्त्वकी उपलब्धिसे [सम्पद्यते ] होता है; और [सः ] वह शुद्ध आत्मतत्त्वकी उपलब्धि [भेदविज्ञानतः एव ] भेदविज्ञानसे ही होती है । [तस्मात् ] इसलिये [तत् भेदविज्ञानम् ] वह भेदविज्ञान [अतीव ] अत्यंत [भाव्यम् ] भाने योग्य है ।
भावार्थ : — जब जीवको भेदविज्ञान होता है अर्थात् जब जीव आत्मा और कर्मको यथार्थतया भिन्न जानता है तब वह शुद्ध आत्माका अनुभव करता है, शुद्ध आत्माके अनुभवसे आस्रवभाव रुकता है और अनुक्रमसे सर्व प्रकारसे संवर होता है । इसलिये भेदविज्ञानको अत्यन्त भानेका उपदेश किया है ।१२९।
श्लोकार्थ : — [इदम् भेदविज्ञानम् ] यह भेदविज्ञान [अच्छिन्न-धारया ] अच्छिन्न-धारासे (जिसमें विच्छेद न पडे़ ऐसे अखण्ड प्रवाहरूपसे) [तावत् ] तब तक [भावयेत् ] भाना चाहिये [यावत् ] जब तक [परात् च्युत्वा ] परभावोंसे छूटकर [ज्ञानं ] ज्ञान [ज्ञाने ] ज्ञानमें ही (अपने स्वरूपमें ही) [प्रतिष्ठते ] स्थिर हो जाये ।
भावार्थ : — यहाँ ज्ञानका ज्ञानमें स्थिर होना दो प्रकारसे जानना चाहिये । एक तो, मिथ्यात्वका अभाव होकर सम्यग्ज्ञान हो और फि र मिथ्यात्व न आये तब ज्ञान ज्ञानमें स्थिर हुआ कहलाता है; दूसरे, जब ज्ञान शुद्धोपयोगरूपसे स्थिर हो जाये और फि र अन्यविकाररूप परिणमित न हो तब वह ज्ञानमें स्थिर हुआ कहलाता है । जब तक ज्ञान दोनों प्रकारसे ज्ञानमें स्थिर न हो जाये तब तक भेदविज्ञानको भाते रहना चाहिये ।१३०।
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ज्ञानं ज्ञाने नियतमुदितं शाश्वतोद्योतमेतत् ।।१३२।।
श्लोकार्थ : — [ये केचन किल सिद्धाः ] जो कोई सिद्ध हुए हैं [भेदविज्ञानतः सिद्धाः ] वे भेदविज्ञानसे सिद्ध हुए हैं; और [ये केचन किल बद्धाः ] जो कोई बँधे हैं [अस्य एव अभावतः बद्धाः ] वे उसीके ( – भेदविज्ञानके ही) अभावसे बँधे हैं ।
भावार्थ : — अनादिकालसे लेकर जब तक जीवको भेदविज्ञान नहीं हो तब तक वह कर्मसे बँधता ही रहता है — संसारमें परिभ्रमण ही करता रहता है; जिस जीवको भेदविज्ञान होता है वह कर्मोंसे छूट जाता है — मोक्षको प्राप्त कर ही लेता है । इसलिये कर्मबन्धका – संसारका – मूल भेदविज्ञानका अभाव ही है और मोक्षका प्रथम कारण भेदविज्ञान ही है । भेदविज्ञानके बिना कोई सिद्धिको प्राप्त नहीं कर सकता ।
यहाँ ऐसा भी समझना चाहिये कि — विज्ञानाद्वैतवादी बौद्ध और वेदान्ती जो कि वस्तुको अद्वैत कहते हैं और अद्वैतके अनुभवसे ही सिद्धि कहते हैं उनका, भेदविज्ञानसे ही सिद्धि कहनेसे, निषेध हो गया; क्योंकि वस्तुका स्वरूप सर्वथा अद्वैत न होने पर भी जो सर्वथा अद्वैत मानते हैं उनके किसी भी प्रकारसे भेदविज्ञान कहा ही नहीं जा सकता; जहाँ द्वैत (दो वस्तुएँ) ही नहीं मानते वहाँ भेदविज्ञान कैसा ? यदि जीव और अजीव — दो वस्तुएँ मानी जाये और उनका संयोग माना जाये तभी भेदविज्ञान हो सकता है, और सिद्धि हो सकती है । इसलिये स्याद्वादियोंको ही सब कु छ निर्बाधतया सिद्ध होता है ।१३१।
अब, संवर अधिकार पूर्ण करते हुए, संवर होनेसे जो ज्ञान हुआ उस ज्ञानकी महिमाका काव्य कहते हैं : —
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[शुद्धतत्त्वउपलम्भात् ] शुद्ध तत्त्वकी उपलब्धि हुई, शुद्ध तत्त्वकी उपलब्धिसे [रागग्रामप्रलयकरणात् ] राग-समूहका विलय हुआ, राग-समूहके विलय क रनेसे [कर्मणां संवरेण ] क र्मोंका संवर हुआ और क र्मोंका संवर होनेसे, [ज्ञाने नियतम् एतत् ज्ञानं उदितं ] ज्ञानमें ही निश्चल हुआ ऐसा यह ज्ञान उदयको प्राप्त हुआ — [बिभ्रत् परमम् तोषं ] कि जो ज्ञान परम संतोषको (परम अतीन्द्रिय आनंदको) धारण क रता है, [अमल-आलोकम् ] जिसका प्रकाश निर्मल है (अर्थात् रागादिक के कारण मलिनता थी वह अब नहीं है), [अम्लानम् ] जो अम्लान है (अर्थात् क्षायोपशमिक ज्ञानकी भाँति कुम्हलाया हुआ – निर्बल नहीं है, सर्व लोकालोक के जाननेवाला है), [एकं ] जो एक है (अर्थात् क्षयोपशमसे जो भेद थे वह अब नहीं है) और [शाश्वत-उद्योतम् ] जिसका उद्योेत शाश्वत है (अर्थात् जिसका प्रकाश अविनश्वर है)।१३२।
करके बाहर निकल गया ।
राग-द्वेष-विमोह सबहि गलि जाय, इमै दुठ कर्म रुकाही;
उज्ज्वल ज्ञान प्रकाश करै बहु तोष धरै परमातममाहीं,
यों मुनिराज भली विधि धारत, केवल पाय सुखी शिव जाहीं ।।
इसप्रकार श्री समयसारकी (श्रीमद्भगवत्कुन्दकुन्दाचार्यदेवप्रणीत श्री समयसार परमागमकी) श्रीमद् अमृतचन्द्राचार्चदेवविरचित आत्मख्याति नामक टीकामें संवरका प्ररूपक पाँचवाँ अंक समाप्त हुआ ।
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कर्मागामि समस्तमेव भरतो दूरान्निरुन्धन् स्थितः ।
ज्ञानज्योतिरपावृतं न हि यतो रागादिभिर्मूर्छति ।।१३३।।
प्रथम टीकाकार आचार्यदेव कहते हैं कि ‘‘अब निर्जरा प्रवेश करती है’’ । यहाँ तत्त्वोंका नृत्य है; अतः जैसे नृत्यमंच पर नृत्य करनेवाला स्वाँग धारण कर प्रवेश करता है उसीप्रकार यहाँ रंगभूमिमें निर्जराका स्वाँग प्रवेश करता है ।
अब, सर्व स्वाँगको यथार्थ जाननेवाले सम्यग्ज्ञानको मंगलरूप जानकर आचार्यदेव मंगलके लिये प्रथम उसीको — निर्मल ज्ञानज्योतिको ही — प्रगट करते हैं : —
श्लोकार्थ : — [परः संवरः ] परम संवर, [रागादि-आस्रव-रोधतः ] रागादि आस्रवोंको रोकनेसे [निज-धुरां धृत्वा ] अपनी कार्य-धुराको धारण करके ( – अपने कार्यको यथार्थतया सँभालकर), [समस्तम् आगामि कर्म ] समस्त आगामी क र्मको [भरतः दूरात् एव ] अत्यंततया दूरसे ही [निरुन्धन् स्थितः ] रोक ता हुआ खड़ा है; [तु ] और [प्राग्बद्धं ] पूर्वबद्ध (संवर होनेके पहेले बँधे हुए) [तत् एव दग्धुम् ] कर्मको जलानेके लिये [अधुना ] अब [निर्जरा व्याजृम्भते ] निर्जरा ( – निर्जरारूप अग्नि – ) फै ल रही है [यतः ] जिससे [ज्ञानज्योतिः ] ज्ञानज्योति [अपावृतं ] निरावरण होती हुई (पुनः) [रागादिभिः न हि मूर्छति ] रागादिभावोंके द्वारा मूर्छित नहीं होती — सदा अमूर्छित रहती है ।
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विरागस्योपभोगो निर्जरायै एव । रागादिभावानां सद्भावेन मिथ्यादृष्टेरचेतनान्यद्रव्योपभोगो बन्धनिमित्तमेव स्यात् । स एव रागादिभावानामभावेन सम्यग्दृष्टेर्निर्जरानिमित्तमेव स्यात् । एतेन द्रव्यनिर्जरास्वरूपमावेदितम् ।
भावार्थ : — संवर होनेके बाद नवीन कर्म तो नहीं बंधते । और जो कर्म पहले बँधे हुये थे उनकी जब निर्जरा होती है तब ज्ञानका आवरण दूर होनेसे वह (ज्ञान) ऐसा हो जाता है कि पुनः रागादिरूप परिणमित नहीं होता — सदा प्रकाशरूप ही रहता है ।१३३।
गाथार्थ : — [सम्यग्दृष्टिः ] सम्यग्दृष्टि जीव [यत् ] जो [इन्द्रियैः ] इन्द्रियोंके द्वारा [अचेतनानाम् ] अचेतन तथा [इतरेषाम् ] चेतन [द्रव्याणाम् ] द्रव्योंका [उपभोगम् ] उपभोग [करोति ] करता है [तत् सर्वं ] वह सर्व [निर्जरानिमित्तम् ] निर्जराका निमित्त है ।
टीका : — विरागीका उपभोग निर्जराके लिये है (अर्थात् निर्जराका कारण होता है) । रागादिभावोंके सद्भावसे मिथ्यादृष्टिके अचेतन तथा चेतन द्रव्योंका उपभोग बंधका निमित्त ही होता है; वही (उपभोग), रागादिभावोंके अभावसे सम्यग्दृष्टिके लिए निर्जराका निमित्त ही होता है । इसप्रकार द्रव्यनिर्जराका स्वरूप कहा ।
भावार्थ : — सम्यग्दृष्टिको ज्ञानी कहा है और ज्ञानीके रागद्वेषमोहका अभाव कहा है; इसलिये सम्यग्दृष्टि विरागी है । यद्यपि उसके इन्द्रियोंके द्वारा भोग दिखाई देता हो तथापि उसे भोगकी सामग्रीके प्रति राग नहीं है । वह जानता है कि ‘‘वह (भोगकी सामग्री) परद्रव्य है, मेरा और इसका कोई सम्बन्ध नहीं है; कर्मोदयके निमित्तसे इसका और मेरा संयोग-वियोग है’’ । जब तक उसे चारित्रमोहका उदय आकर पीड़ा करता है और स्वयं बलहीन होनेसे पीड़ाको सहन नहीं
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उपभुज्यमाने सति हि परद्रव्ये, तन्निमित्तः सातासातविकल्पानतिक्रमणेन कर सकता तब तक — जैसे रोगी रोगकी पीड़ाको सहन नहीं कर सकता तब उसका औषधि इत्यादिके द्वारा उपचार करता है इसीप्रकार — भोगोपभोगसामग्रीके द्वारा विषयरूप उपचार करता हुआ दिखाई देता है; किन्तु जैसे रोगी रोगको या औषधिको अच्छा नहीं मानता उसीप्रकार सम्यग्दृष्टि चारित्रमोहके उदयको या भोगोपभोगसामग्रीको अच्छा नहीं मानता । और निश्चयसे तो, ज्ञातृत्वके कारण सम्यग्दृष्टि विरागी उदयागत कर्मोंको मात्र जान ही लेता है, उनके प्रति उसे रागद्वेषमोह नहीं है । इसप्रकार रागद्वेषमोहके बिना ही उनके फलको भोगता हुआ दिखाई देता है, तो भी उसके कर्मका आस्रव नहीं होता, कर्मास्रवके बिना आगामी बन्ध नहीं होता और उदयागतकर्म तो अपना रस देकर खिर जाते हैं, क्योंकि उदयमें आनेके बाद कर्मकी सत्ता रह ही नहीं सकती । इसप्रकार उसके नवीन बन्ध नहीं होता और उदयागत कर्मकी निर्जरा हो जानेसे उसके केवल निर्जरा ही हुई । इसलिए सम्यग्दृष्टि विरागीके भोगोपभोगको निर्जराका ही निमित्त कहा गया है । पूर्व कर्म उदयमें आकर उसका द्रव्य खिर गया सो वह द्रव्यनिर्जरा है ।।१९३।।
गाथार्थ : — [द्रव्ये उपभुज्यमाने ] वस्तु भोगनेमें आने पर, [सुखं वा दुःखं वा ] सुख अथवा दुःख [नियमात् ] नियमसे [जायते ] उत्पन्न होता है; [उदीर्णं ] उदयको प्राप्त (उत्पन्न हुए) [तत् सुखदुःखम् ] उस सुख-दुःखका [वेदयते ] वेदन करता है — अनुभव करता है, [अथ ] पश्चात् [निर्जरां याति ] वह (सुख-दुःखरूप भाव) निर्जराको प्राप्त होता है ।
टीका : — परद्रव्य भोगनेमें आने पर, उसके निमित्तसे जीवका सुखरूप अथवा दुःखरूप भाव नियमसे ही उदय होता है अर्थात् उत्पन्न होता है, क्योंकि वेदन साता और असाता — इन दो
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वेदनायाः सुखरूपो वा दुःखरूपो वा नियमादेव जीवस्य भाव उदेति । स तु यदा वेद्यते तदा मिथ्यादृष्टेः रागादिभावानां सद्भावेन बन्धनिमित्तं भूत्वा निर्जीर्यमाणोऽप्यनिर्जीर्णः सन् बन्ध एव स्यात्; सम्यग्दृष्टेस्तु रागादिभावानामभावेन बन्धनिमित्तमभूत्वा केवलमेव निर्जीर्यमाणो निर्जीर्णः सन्निर्जर्रैव स्यात् ।
अथ ज्ञानसामर्थ्यं दर्शयति — प्रकारोंका अतिक्रम नहीं करता (अर्थात् वेदन दो प्रकारका ही है — सातारूप और असातारूप) । जब उस (सुखरूप अथवा दुःखरूप) भावका वेदन होता है तब मिथ्यादृष्टिको, रागादिभावोंके सद्भावसे बंधका निमित्त होकर (वह भाव) निर्जराको प्राप्त होता हुआ भी (वास्तवमें) निर्जरित न होता हुआ, बन्ध ही होता है; किन्तु सम्यग्दृष्टिके, रागादिभावोंके अभावसे बन्धका निमित्त हुए बिना केवलमात्र निर्जरित होनेसे (वास्तवमें) निर्जरित होता हुआ, निर्जरा ही होती है ।
भावार्थ : — परद्रव्य भोगनेमें आने पर, कर्मोदयके निमित्तसे जीवके सुखरूप अथवा दुःखरूप भाव नियमसे उत्पन्न होता है । मिथ्यादृष्टिके रागादिके कारण वह भाव आगामी बन्ध करके निर्जरित होता है, इसलिये उसे निर्जरित नहीं कहा जा सकता; अतः मिथ्यादृष्टिको परद्रव्यके भोगते हुए बन्ध ही होता है । सम्यग्दृष्टिके रागादिक न होनेसे आगामी बन्ध किये बिना ही वह भाव निर्जरित हो जाता है, इसलिये उसे निर्जरित कहा जा सकता है; अतः सम्यग्दृष्टिके परद्रव्य भोगनेमें आने पर निर्जरा ही होती है । इसप्रकार सम्यग्दृष्टिके भावनिर्जरा होती है ।।१९४।।
श्लोकार्थ : — [किल ] वास्तवमें [तत् सामर्थ्यं ] वह (आश्चर्यकारक ) सामर्थ्य [ज्ञानस्य एव ] ज्ञानका ही है [वा ] अथवा [विरागस्य एव ] विरागका ही है [यत् ] कि [कः अपि ] कोई (सम्यग्दृष्टि जीव) [कर्म भुञ्जानः अपि ] क र्मको भोगता हुआ भी [कर्मभिः न बध्यते ] क र्मोंसे नहीं बन्धता ! (वह अज्ञानीको आश्चर्य उत्पन्न करता है और ज्ञानी उसे यथार्थ जानता है ।) ।१३४।
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यथा कश्चिद्विषवैद्यः परेषां मरणकारणं विषमुपभुञ्जानोऽपि अमोघविद्यासामर्थ्येन निरुद्धतच्छक्ति त्वान्न म्रियते, तथा अज्ञानिनां रागादिभावसद्भावेन बन्धकारणं पुद्गलकर्मोदयमुप- भुञ्जानोऽपि अमोघज्ञानसामर्थ्यात् रागादिभावानामभावे सति निरुद्धतच्छक्ति त्वान्न बध्यते ज्ञानी ।
गाथार्थ : — [यथा ] जिसप्रकार [वैद्यः पुरुषः ] वैद्य पुरुष [विषम् उपभुञ्जानः ] विषको भोगता अर्थात् खाता हुआ भी [मरणम् न उपयाति ] मरणको प्राप्त नहीं होता, [तथा ] उसप्रकार [ज्ञानी ] ज्ञानी पुरुष [पुद्गलकर्मणः ] पुद्गलकर्मके [उदयं ] उदयको [भुंक्ते ] भोगता है तथापि [न एव बध्यते ] बन्धता नहीं है ।
टीका : — जिसप्रकार कोई विषवैद्य, दूसरोंके मरणके कारणभूत विषको भोगता हुआ भी, अमोघ (रामबाण) विद्याके सामर्थ्यसे विषकी — शक्ति रुक गई होनेसे, नहीं मरता, उसीप्रकार अज्ञानियोंको, रागादिभावोंका सद्भाव होनेसे बन्धका कारण जो पुद्गलकर्मका उदय उसको ज्ञानी भोगता हुआ भी, अमोघ ज्ञानके सामर्थ्यके द्वारा रागादिभावोंका अभाव होनेसे — कर्मोदयकी शक्ति रुक गई होनेसे, बन्धको प्राप्त नहीं होता ।
भावार्थ : — जैसे वैद्य मन्त्र, तन्त्र, औषधि इत्यादि अपनी विद्याके सामर्थ्यसे विषकी घातकशक्तिका अभाव कर देता है जिससे विषके खा लेने पर भी उसका मरण नहीं होता, उसीप्रकार ज्ञानीके ज्ञानका ऐसा सामर्थ्य है कि वह कर्मोदयकी बन्ध करनेकी शक्तिका अभाव करता है और ऐसा होनेसे कर्मोदयको भोगते हुए भी ज्ञानीके आगामी कर्मबन्ध नहीं होता । इसप्रकार सम्यग्ज्ञानका सामर्थ्य कहा गया है ।।१९५।।
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यथा कश्चित्पुरुषो मैरेयं प्रति प्रवृत्ततीव्रारतिभावः सन् मैरेयं पिबन्नपि तीव्रारति- भावसामर्थ्यान्न माद्यति, तथा रागादिभावानामभावेन सर्वद्रव्योपभोगं प्रति प्रवृत्ततीव्रविरागभावः सन् विषयानुपभुञ्जानोऽपि तीव्रविरागभावसामर्थ्यान्न बध्यते ज्ञानी ।
स्वं फलं विषयसेवनस्य ना ।
सेवकोऽपि तदसावसेवकः ।।१३५।।
गाथार्थ : — [यथा ] जैसे [पुरुषः ] कोई पुरुष [मद्यं ] मदिराको [अरतिभावेन ] अरतिभावसे (अप्रीतिसे) [पिबन् ] पीता हुआ [न माद्यति ] मतवाला नहीं होता, [तथा एव ] इसीप्रकार [ज्ञानी अपि ] ज्ञानी भी [द्रव्योपभोगे ] द्रव्यके उपभोगके प्रति [अरतः ] अरत (वैराग्यभावसे) वर्तता हुआ [न बध्यते ] (कर्मोंसे) बन्धको प्राप्त नहीं होता ।
टीका : — जैसे कोई पुरुष मदिराके प्रति जिसको तीव्र अरतिभाव प्रवर्ता है ऐसा वर्तता हुआ, मदिराको पीने पर भी, तीव्र अरतिभावके सामर्थ्यके कारण मतवाला नहीं होता, उसीप्रकार ज्ञानी भी, रागादिभावोंके अभावसे सर्व द्रव्योंके उपभोगके प्रति जिसको तीव्र वैराग्यभाव प्रवर्ता है ऐसा वर्तता हुआ, विषयोंको भोगता हुआ भी, तीव्र वैराग्यभावके सामर्थ्यके कारण (कर्मोंसे) बन्धको प्राप्त नहीं होता ।
भावार्थ : — यह वैराग्यका सामर्थ्य है कि ज्ञानी विषयोंका सेवन करता हुआ भी कर्मोंसे नहीं बँधता ।।१९६।।