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कु न्द-प्रभा-प्रणयि-कीर्ति-विभूषिताशः
श्चक्रे श्रुतस्य भरते प्रयतः प्रतिष्ठाम्
इस पृथ्वी पर किससे वन्द्य नहीं हैं ?
र्बाह्येपि संव्यञ्जयितुं यतीशः
चचार मन्ये चतुरङ्गुलं सः
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कि
तो मुनिजन सच्चे मार्गको कैसे जानते ?
शंका नहीं है
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कि, ‘मैं जो यह भाव कहना
चाहता हूँ, वह अन्तरके
आत्मसाक्षीके प्रमाण द्वारा प्रमाण
करना क्योंकि यह अनुभवप्रधान
ग्रंथ है, उसमें मुझे वर्तते स्व-
आत्मवैभव द्वारा कहा जा रहा
है’ ऐसा कहकर गाथा ६ में
आचार्य भगवान कहते हैं कि,
‘आत्मद्रव्य अप्रमत्त नहीं और
प्रमत्त नहीं है अर्थात् उन दो
अवस्थाओंका निषेध करता मैं
एक जाननहार अखंड हूँ
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ज्ञानी सुकानी मळ्या विना ए नाव पण तारे नहीं;
आ काळमां शुद्धात्मज्ञानी सुकानी बहु बहु दोह्यलो,
मुज पुण्यराशि फळ्यो अहो ! गुरु क् हान तुं नाविक मळ्यो.
बाह्यांतर विभवो तारा, तारे नाव मुमुक्षुनां.
निजालंबीभावे परिणति स्वरूपे जई भळे,
निमित्तो वहेवारो चिदघन विषे कांई न मळे.
जे वज्रे सुमुमुक्षु सत्त्व झळके ; परद्रव्य नातो तूटे;
क रुणा अकारण समुद्र ! तने नमुं हुं;
हे ज्ञानपोषक सुमेघ ! तने नमुं हुं,
आ दासना जीवनशिल्पी ! तने नमुं हुं.
वाणी चिन्मूर्ति ! तारी उर-अनुभवना सूक्ष्म भावे भरेली;
भावो ऊंडा विचारी, अभिनव महिमा चित्तमां लावी लावी,
खोयेलुं रत्न पामुं,
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उसमें जीव नामके पदार्थका स्वरूप कहा है
यह जीव-अजीवरूप छह द्रव्यात्मक लोक है,
द्रव्य तो स्वभावपरिणतिस्वरूप ही हैं और
जीव-पुद्गलद्रव्यके अनादिकालके संयोगसे
विभावपरिणति भी है, क्योंकि स्पर्श, रस, गंध,
वर्ण और शब्दरूप मूर्तिक पुद्गलोंको देखकर
यह जीव रागद्वेषमोहरूप परिणमता है और
इसके निमित्तसे पुद्गल कर्मरूप होकर जीवके
साथ बँधता है
कर्म नहीं बंधते, पुराने कर्म झड़ जाते हैं,
इसलिये मोक्ष होती है; ऐसे जीवकी स्वसमय-
परसमयरूप प्रवृत्ति है
भावरूप परिणमता है तब स्वसमय होता है
और जब तक मिथ्या-दर्शनज्ञान-चारित्ररूप
परिणमता है तब तक वह पुद्गलकर्ममें ठहरा
हुआ परसमय है, ऐसा कथन
इसमें जीव संसारमें भ्रमता अनेक तरहके दुःख
पाता है; इसलिये स्वभावमें स्थिर हो
एकत्वकी कथा विरले जानते हैं जो कि
दुर्लभ है, उस सम्बन्धी कथन
कर ग्रहण करना
जाननेवाला है वही जीव है, उस सम्बन्धी
है वह ज्ञायक ही है
साधक अवस्थामें हैं उनके व्यवहारनय भी
प्रयोजनवान है, ऐसा कथन
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कथन
प्रत्याख्यान ज्ञान ही है
गाथाओंमें) पूर्ण
करते हैं, इस प्रकारका वर्णन
कथन
दृष्टांतपूर्वक कथन
आस्रवोंसे निवृत्त होनेका विधान
होता
सकता
कर्तृकर्मभाव और भोक्तृ भोग्यभाव हैं
२३-२५
७२
७३
७५
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उसका हेतु
निमित्तसे पुद्गलका कर्मरूप होना
वे निमित्त-नैमित्तिकभावसे कर्ता हैं और योग-
उपयोगका आत्मा कर्ता है
नहीं है, क्योंकि परद्रव्योंके परस्पर कर्तृकर्म-
भाव नहीं हैं
कर्म जीवने किया
इनका जीव कर्ताभोक्ता नहीं है
पुद्गलको परिणामी कहा है
उत्तर
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१०१
१४६
१४७
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और तीसरा अधिकार पूर्ण
बन्धके कारण हैं, ऐसा कथन
नहीं है; इसलिये ज्ञानीके कर्मबंध भी नहीं
है
सम्बन्धी कथन
एक वीतराग ज्ञायकभावपदमें स्थिर
होनेका उपदेश
क्षयोपशमके निमित्तसे हैं
१६९
१९४
१९५
१९६
१९७
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होनेसे वह कर्मसे लिप्त नहीं होता है,
उसका दृष्टांत द्वारा कथन
रहित है, ऐसा कथन
अज्ञान है, ऐसा सिद्ध किया है
है, ऐसा कथन
अवलंबन अभव्य भी करता है, व्रत, समिति,
गुप्ति पालता है, ग्यारह अंग पढ़ता है, तो भी
उसे मोक्ष नहीं है
स्वरूपको जानकर ही संतुष्ट है वह मोक्ष नहीं
पाता है
करण है
करना, बन्धको छोड़ना
२०८
२७४
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करेगा ? अर्थात् कोई नहीं करेगा
वह बन्धनमें नहीं पड़ता
‘शुद्ध आत्माके ग्रहणसे मोक्ष कहा; परन्तु आत्मा
है; तो फि र शुद्ध आत्माके ग्रहणका क्या काम
है ?’ ऐसे शिष्यके प्रश्नका उत्तर यह दिया है
कि प्रतिक्रमण-अप्रतिक्रमणसे रहित
अप्रतिक्रमणादि-स्वरूप तीसरी भूमिकासे ही
वह कर्ता होता है
ऐसा कथन
किया हैं
युक्तिपूर्वक निषेध
नहीं होता; वे मात्र अज्ञानदशामें प्रवर्तमान
जीवके परिणाम हैं
आत्मा भी अपने स्थानसे छूटकर उनको
जानने नही जाता; परन्तु अज्ञानी जीव उनसे
वृथा राग-द्वेष करता है
बंध करता है
३०४-३०५
३१८-३१९
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कर्मके त्यागका उनचास उनचास भङ्ग द्वारा
कथन करके कर्मचेतनाके त्यागका विधान
दिखाया है तथा एक सौ अड़तालीस
प्रकृतियोंके फलके त्यागका कथन करके
कर्मफलचेतनाके त्यागका विधान दिखाया
है
दर्शनज्ञानचारित्र ही मोक्षमार्ग है, ऐसा
कथन
उपदेश किया है
लिंगको मोक्षमार्ग नहीं कहता
आता है ? इसको बताते हुए, तथा एक ही
ज्ञानमें उपायभाव और उपेयभाव दोनों किस
तरह बनते हैं ? यह बताते हुए टीकाकार
आचार्यदेव इस ‘आत्मख्याति’ टीकाके
अन्तमें परिशिष्टरूपसे स्याद्वाद और उपाय-
उपेय-भावके विषयमें थोड़ा कहनेकी
प्रतिज्ञा करते हैं
इन भावोंके चौदह भेद कर उनके १४
काव्य कहे हैं
इसलिये आत्माको ज्ञानमात्र कहा है
शक्तियोंके नाम तथा लक्षणोंका कथन
ऐसा कथन
सम्पूर्ण
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पुण्यप्रकाशकं, पापप्रणाशकमिदं शास्त्रं श्रीसमयसारनामधेयं, अस्य मूलग्रन्थकर्तारः
श्रीसर्वज्ञदेवास्तदुत्तरग्रन्थकर्तारः श्रीगणधरदेवाः प्रतिगणधरदेवास्तेषां वचनानुसारमासाद्य
आचार्यश्रीकुन्दकुन्दाचार्यदेवविरचितं, श्रोतारः सावधानतया शृणवन्तु
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अर्थसमयमें जीव नाम है सार, सुनहु सहु;
तातैं जु सार बिनकर्ममल शुद्ध जीव शुद्ध नय कहै,
इस ग्रन्थ माँहि कथनी सबै समयसार बुधजन गहै
ही जानता है
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दविरतमनुभाव्यव्याप्तिकल्माषितायाः
है :
विशेषणोंसे किया है
शुद्ध आत्मा ही इष्ट है
अच्छेद्य, अभेद्य, परमपुरुष, निराबाध, सिद्ध, सत्यात्मा, चिदानंद, सर्वज्ञ, वीतराग, अर्हत्, जिन,
आप्त, भगवान, समयसार इत्यादि हजारो नामोंसे कहो; वे सब नाम कथंचित् सत्यार्थ हैं
गुणपर्यायोंसे भिन्न एवं परद्रव्यके निमित्तसे होनेवाले अपने विकारोंसे कथंचित् भिन्न एकाकार है
ऐसे आत्माके तत्त्वको, अर्थात् असाधारण
है
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र्भवतु समयसारव्याख्ययैवानुभूतेः
है
कहे जाते हैं
कालमें समय-समयवर्ती परिणमन होना पर्याय है, जो कि अनन्त हैं
नहीं हैं, किन्तु वे ज्ञानगम्य हैं
भिन्न भिन्न कहा है, क्योंकि प्रत्येक द्रव्यके प्रदेशभेद होनेसे वह किसीका किसीमें नहीं
मिलता
कहा
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रहित उत्कृष्ट निर्मलता) [भवतु ] हो
से [अविरतम् अनुभाव्य-व्याप्ति-कल्माषितायाः ] जो अनुभाव्य (रागादि परिणामों) की व्याप्ति है
उससे निरन्तर कल्माषित अर्थात् मैली है
मैं वंद श्रुतकेवलिकथित कहूँ समयप्राभृतको अहो
नमस्कार करके [अहो ] अहो ! [श्रुतकेवलिभणितम् ] श्रुतकेवलियोंके द्वारा कथित [इदं ] यह
[समयप्राभृतम् ] समयसार नामक प्राभृत [वक्ष्यामि ] कहूँगा
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गतिमापन्नान
त्वेन श्रुतकेवलिभिः स्वयमनुभवद्भिरभिहितत्वेन च प्रमाणतामुपगतस्यास्य समयप्रकाशक स्य प्राभृता-
ह्वयस्यार्हत्प्रवचनावयवस्य स्वपरयोरनादिमोहप्रहाणाय भाववाचा द्रव्यवाचा च परिभाषणमुपक्रम्यते
नामक प्राभृतका भाववचन और द्रव्यवचनसे परिभाषण (व्याख्यान) प्रारम्भ करते हैं
हुए अपने और परके मोहका नाश करनेके लिए परिभाषण करता हूँ
भगवान् सर्वज्ञदेव द्वारा प्रणीत होनेसे और केवलियोंके निकटवर्ती साक्षात् सुननेवाले तथा स्वयं
अनुभव करनेवाले श्रुतकेवली गणधरदेवोंके द्वारा कथित होनेसे प्रमाणताको प्राप्त है
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अधिकार हैं
कुन्दकुन्दाचार्यदेवको भी था
भी समझ लेना चाहिए
सर्वज्ञदेव कहे गये हैं, तथा (२) श्रुत-अपेक्षासे केवली समान ऐसे गणधरदेवादि विशिष्ट श्रुतज्ञानधर
कहे गये हैं; उनसे समयप्राभृतकी उत्पत्ति बताई गई है
स्थित कर्मपुद्गलके प्रदेशों, परसमय जीव जानना