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मेरा नहीं है
अजीव ही होगा
मैं परद्रव्यका परिग्रह नहीं करूँगा
सम्बन्ध है
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स्वं, परद्रव्यमेव परद्रव्यस्य स्वामी, अहमेव मम स्वं, अहमेव मम स्वामी इति जानामि
सामान्यतः स्वपरयोरविवेकहेतुम्
भूयस्तमेव परिहर्तुमयं प्रवृत्तः
गच्छतु ] अथवा चाहेे जिस प्रकारसे चला जाये, [तथापि ] फि र भी [खलु ] वास्तवमें
[परिग्रहः ] परिग्रह [मम न ] मेरा नहीं है
‘परद्रव्य मेरा स्व नहीं है,
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उज्झितुमनाः अयं ] स्व-परके अविवेकके कारणरूप अज्ञानको छोड़नेका जिसका मन है ऐसा यह
[भूयः ] पुनः [तम् एव ] उसीको (
गाथाओंमें) उस परिग्रहको विशेषतः (भिन्न-भिन्न नाम लेकर) छोड़ता है
[सः ] वह [धर्मस्य ] धर्मका [अपरिग्रहः तु ] परिग्रही नहीं है, (किन्तु) [ज्ञायकः ] (धर्मका)
ज्ञायक ही [भवति ] है
छोड़कर [अधुना ] अब, [अज्ञानम् उज्झितुमनाः अयं ] अज्ञानको छोड़नेका जिसका मन है ऐसा यह,
[भूयः ] फि र भी [तम् एव ] उसे ही [विशेषात् ] विशेषतः [परिहर्तुम् ] छोड़नेके लिये [प्रवृत्तः ] प्रवृत्त
हुआ है
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धर्मका परिग्रह नहीं है
इसलिये [सः ] वह [अधर्मस्य ] अधर्मका [अपरिग्रहः ] परिग्रही नहीं है, (कि न्तु) [ज्ञायकः ]
(अधर्मका) ज्ञायक ही [भवति ] है
इसलिये अज्ञानमय भाव जो इच्छा उसके अभावके कारण ज्ञानी अधर्मको नहीं चाहता; इसलिये
ज्ञानीके अधर्मका परिग्रह नहीं है
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वह [अशनस्य ] भोजनका [अपरिग्रहः तु ] परिग्रही नहीं है, (किन्तु) [ज्ञायकः ] (भोजनका)
ज्ञायक ही [भवति ] है
इसलिये अज्ञानमय भाव जो इच्छा उसके अभावके कारण ज्ञानी भोजनको नहीं चाहता; इसलिये
ज्ञानीके भोजनका परिग्रह नहीं है
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जठराग्निरूप क्षुधा उत्पन्न होती है, वीर्यांतरायके उदयसे उसकी वेदना सहन नहीं की जा सकती
और चारित्रमोहके उदयसे आहारग्रहणकी इच्छा उत्पन्न होती है
[सः ] वह [पानस्य ] पानका [अपरिग्रहः तु ] परिग्रही नहीं है, कि न्तु [ज्ञायकः ] (पानका)
ज्ञायक ही [भवति ] है
अज्ञानमयभाव जो इच्छा उसके अभावके कारण ज्ञानी पानको (पानी इत्यादि पेयको) नहीं चाहता;
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(सभीमेंं) निरालम्ब वह [नियतः ज्ञायकभावः ] निश्चित ज्ञायकभाव ही है
ज्ञायकभाव रहता हुआ, साक्षात् विज्ञानघन आत्माका अनुभव करता है
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ज्ञानिनो यदि भवत्युपभोगः
न्नूनमेति न परिग्रहभावम्
भावको छोड़ दिया, और इसप्रकार समस्त अज्ञानको दूर कर दिया तथा ज्ञानस्वरूप आत्माका अनुभव किया
[रागवियोगात् ] रागके वियोग (
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[अनागतस्य उदयस्य ] आगामी उदयकी [ज्ञानी ] ज्ञानी [कांक्षाम् ] वाँछा [न करोति ] नहीं करता
परिग्रहभावको धारण करता है
वह वास्तवमें परिग्रह नहीं है
करेगा ? वर्तमान उपभोगके प्रति राग नहीं है, क्योंकि वह जिसे हेय जानता है उसके प्रति राग कैसे
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उपचार करता है
समय पर [विनश्यति ] नष्ट हो जाते हैं
(अर्थात् वाँछा करनेवाला) वेद्यभाव विनष्ट हो जाता है; उसके विनष्ट हो जाने पर, वेदकभाव
किसका वेदन करेगा ? यदि यह कहा जाये कि कांक्षमाण वेद्यभावके बाद उत्पन्न होनेवाले अन्य
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कस्तं वेदयते ? यदि वेदकभावपृष्ठभावी भावोऽन्यस्तं वेदयते, तदा तद्भवनात्पूर्वं स विनश्यति; किं
स वेदयते ? इति कांक्षमाणभाववेदनानवस्था
वेद्यते न खलु कांक्षितमेव
सर्वतोऽप्यतिविरक्ति मुपैति
वह वेदकभाव नष्ट हो जाता है; तब फि र उस दूसरे वेद्यभावका कौन वेदन करेगा ? यदि यह कहा
जाये कि वेदनभावके बाद उत्पन्न होनेवाला दूसरा वेदकभाव उसका वेदन करता है, तो (वहाँ ऐसा
है कि) इस दूसरे वेदकभावके उत्पन्न होनेसे पूर्व ही वह वेद्यभाव विनष्ट हो जाता है; तब फि र
वह दूसरा वेदकभाव किसका वेदन करेगा ? इसप्रकार कांक्षमाण भावके वेदनकी अनवस्था है
आता है तब वेदकभाव विनष्ट हो चुकता है; तब फि र वेदकभावके बिना वेद्यका कौन वेदन
करेगा ? ऐसी अव्यवस्थाको जानकर ज्ञानी स्वयं ज्ञाता ही रहता है, वाँछा नहीं करता
है; इसप्रकार वाँछित भोग तो नहीं होता
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अतिविरक्तिम् उपैति ] सबके प्रति अत्यन्त विरक्तताको (वैराग्यभावको) प्राप्त होता है
वाँछा क्यों करे ?
[रागः ] राग [न एव उत्पद्यते ] उत्पन्न ही नहीं होता
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कर्म रागरसरिक्त तयैति
ऽस्वीकृतैव हि बहिर्लुठतीह
सर्वरागरसवर्जनशीलः
कर्ममध्यपतितोऽपि ततो न
सुख, दुःख इत्यादि हैं
न किया जानेसे, [बहिः एव हि लुठति ] ऊ पर ही लौटता है (रह जाता है)
रहित है, इसलिये कर्मोदयका भोग उसे परिग्रहत्वको प्राप्त नहीं होता
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[न लिप्यते ] लिप्त नहीं होता
क र्मरूप रजसे [नो लिप्यते ] लिप्त नहीं होता
हुआ [कर्मरजसा ] क र्मरजसे [लिप्यते तु ] लिप्त होता है
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स्वभावत्वात्
ज्ञानिन् भुंक्ष्व परापराधजनितो नास्तीह बन्धस्तव
वास्तवमें ज्ञानी कर्मके मध्य रहा हुआ हो तथापि वह कर्मसे लिप्त नहीं होता, क्योंकि सर्व परद्रव्यके
प्रति किये जानेवाला राग उसका त्यागरूप स्वभावपना होनेसे ज्ञानी कर्मसे अलिप्त रहनेके
स्वभाववाला है
कर्मके मध्य रहा हुआ कर्मसे लिप्त हो जाता है, क्योंकि सर्व परद्रव्यके प्रति किये जानेवाला राग
उसका ग्रहणरूप स्वभावपना होनेसे अज्ञानी कर्मसे लिप्त होनेके स्वभाववाला है
आधीन ही) होता है
अज्ञानं न भवेत् ] क भी भी अज्ञान नहीं होता; [ज्ञानिन् ] इसलिये हे ज्ञानी ! [भुंक्ष्व ] तू
(क र्मोदयजनित) उपभोगको भोग, [इह ] इस जगतमें [पर-अपराध-जनितः बन्धः तव नास्ति ]
परके अपराधसे उत्पन्न होनेवाला बन्ध तुझे नहीं है (अर्थात् परके अपराधसे तुझे बन्ध नहीं होता)
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प्रेरणा करके स्वच्छंद कर दिया है
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कर्तुं शक्येत, परस्य परभावत्वनिमित्तत्वानुपपत्तेः
भोगता है
[विविधानि ] अनेक प्रकारके [सचित्ताचित्तमिश्रितानि ] सचित्त, अचित्त और मिश्र [द्रव्याणि ]
द्रव्योंको [भुञ्जानस्य अपि ] भोगे तथापि उसके [ज्ञानं ] ज्ञानको [अज्ञानतां नेतुम् न शक्यम् ]
(किसीके द्वारा) अज्ञानरूप नहीं किया जा सकता
[तदा ] तब [शुक्लत्वं प्रजह्यात् ] शुक्लत्वको छोड़ देता है (अर्थात् काला हो जाता है), [तथा ]
इसीप्रकार [खलु ] वास्तवमें [ज्ञानी अपि ] ज्ञानी भी (स्वयं) [यदा ] जब [तकं ज्ञानस्वभावं ]
उस ज्ञानस्वभावको [प्रहाय ] छोड़कर [अज्ञानेन ] अज्ञानरूप [परिणतः ] परिणमित होता है
[तदा ] तब [अज्ञानतां ] अज्ञानताको [गच्छेत् ] प्राप्त होता है
(अर्थात् कारण) नहीं हो सकता, इसीप्रकार यदि ज्ञानी परद्रव्यको भोगे तो भी उसका ज्ञान परके
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परिणमते तदास्य श्वेतभावः स्वयंकृतः कृष्णभावः स्यात्, तथा यदा स एव ज्ञानी
परद्रव्यमुपभुंजानोऽनुपभुंजानो वा ज्ञानं प्रहाय स्वयमेवाज्ञानेन परिणमते तदास्य ज्ञानं
स्वयंकृतमज्ञानं स्यात्
भुंक्षे हन्त न जातु मे यदि परं दुर्भुक्त एवासि भोः
ज्ञानं सन्वस बन्धमेष्यपरथा स्वस्यापराधाद् ध्रुवम्
करनेका निमित्त नहीं हो सकता
स्वयमेव किये गये कृष्णभावरूप होता है), इसीप्रकार जब वह ज्ञानी, परद्रव्यको भोगता हुआ
अथवा न भोगता हुआ, ज्ञानको छोड़कर स्वयमेव अज्ञानरूप परिणमित होता है तब उसका ज्ञान
स्वयंकृत अज्ञान होता है
नहीं होता, किन्तु जब स्वयं ही अज्ञानरूप परिणमित होता है तब अज्ञानी होता है और तब बन्ध
करता है
मे जातु न, भुंक्षे ] परद्रव्य मेरा क भी भी नहीं है और मैं उसे भोगता हूँं’’, [भोः दुर्भुक्तः एव असि ]
तो तुझसे क हा जाता है कि हे भाई, तू खराब प्रकारसे भोगनेवाला है; [हन्त ] जो तेरा नहीं है
उसे तू भोगता है यह महा खेदकी बात है ! [यदि उपभोगतः बन्धः न स्यात् ] यदि तू क हे कि
‘सिद्धान्तमें यह कहा है कि परद्रव्यके उपभोगसे बन्ध नहीं होता, इसलिये भोगता हूँ ’, [तत् किं
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कुर्वाणः फललिप्सुरेव हि फलं प्राप्नोति यत्कर्मणः
कुर्वाणोऽपि हि कर्म तत्फलपरित्यागैकशीलो मुनिः
(
बन्धको प्राप्त होगा
हि कुर्वाणः कर्मणः यत् फलं प्राप्नोति ]़
क र्मके प्रति रागकी रचना दूर की है ऐसा [मुनिः ] मुनि, [तत्-फल-परित्याग-एक-शीलः ]
क र्मफलके परित्यागरूप ही एक स्वभाववाला होनेसे, [कर्म कुर्वाणः अपि हि ] क र्म क रता हुआ
भी [कर्मणा नो बध्यते ] क र्मसे नहीं बन्धता
नहीं है
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