Samaysar (Hindi). Bandh adhikar; Kalash: 163-170 ; Gatha: 237-258.

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अथ प्रविशति बन्धः
(शार्दूलविक्रीडित)
रागोद्गारमहारसेन सक लं कृत्वा प्रमत्तं जगत्
क्रीडन्तं रसभावनिर्भरमहानाटयेन बन्धं धुनत्
आनन्दामृतनित्यभोजि सहजावस्थां स्फु टं नाटयद्
धीरोदारमनाकुलं निरुपधि ज्ञानं समुन्मज्जति
।।१६३।।
- -
बन्ध अधिकार
(दोहा)
रागादिकतैं कर्मकौ, बन्ध जानि मुनिराय
तजैं तिनहिं समभाव करि, नमूँ सदा तिन पाँय ।।
प्रथम टीकाकार कहते हैं कि ‘अब बन्ध प्रवेश करता है’ जैसे नृत्यमंच पर स्वाँग प्रवेश
करता है उसीप्रकार रंगभूमिमें बन्धतत्त्वका स्वाँग प्रवेश करता है
उसमें प्रथम ही, सर्व तत्त्वोंको यथार्थ जाननेवाला सम्यग्ज्ञान बन्धको दूर करता हुआ प्रगट
होता है, इस अर्थका मंगलरूप काव्य कहते हैं :
श्लोकार्थ :[राग-उद्गार-महारसेन सकलं जगत् प्रमत्तं कृत्वा ] जो (बन्ध) रागके
उदयरूप महारस(मदिरा)के द्वारा समस्त जगतको प्रमत्त (मतवाला) क रके, [रस-भाव-निर्भर-
महानाटयेन क्रीडन्तं बन्धं ] रसके भावसे (रागरूप मतवालेपनसे) भरे हुए महा नृत्यके द्वारा खेल
(नाच) रहा है ऐसे बन्धको [धुनत् ] उड़ाता
दूर क रता हुआ, [ज्ञानं ] ज्ञान [समुन्मज्जति ]
उदयको प्राप्त होता है वह ज्ञान [आनन्द-अमृत-नित्य-भोजि ] आनंदरूप अमृतका नित्य भोजन
क रनेवाला है, [सहज-अवस्थां स्फु टं नाटयत् ] अपनी ज्ञातृक्रियारूप सहज अवस्थाको प्रगट नचा
रहा है, [धीर-उदारम् ] धीर है, उदार (अर्थात् महान विस्तारवाला, निश्चल) है, [अनाकुलं ]
अनाकु ल है (अर्थात् जिसमें किंचित् भी आकु लताका कारण नहीं है), [निरूपधि ] उपाधि रहित
(अर्थात् परिग्रह रहित या जिसमें किञ्चित् भी परद्रव्य सम्बन्धी ग्रहण-त्याग नहीं है ऐसा) है

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जह णाम को वि पुरिसो णेहब्भत्तो दु रेणुबहुलम्मि
ठाणम्मि ठाइदूण य करेदि सत्थेहिं वायामं ।।२३७।।
छिंददि भिंददि य तहा तालीतलकयलिवंसपिंडीओ
सच्चित्ताचित्ताणं करेदि दव्वाणमुवघादं ।।२३८।।
उवघादं कुव्वंतस्स तस्स णाणाविहेहिं करणेहिं
णिच्छयदो चिंतेज्ज हु किंपच्चयगो दु रयबंधो ।।२३९।।
जो सो दु णेहभावो तम्हि णरे तेण तस्स रयबंधो
णिच्छयदो विण्णेयं ण कायचेट्ठाहिं सेसाहिं ।।२४०।।
एवं मिच्छादिट्ठी वट्टंतो बहुविहासु चिट्ठासु
रागादी उवओगे कुव्वंतो लिप्पदि रएण ।।२४१।।
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भावार्थ :बन्धतत्त्वने ‘रंगभूमिमें’ प्रवेश किया है, उसे दूर करके जो ज्ञान स्वयं प्रगट
होकर नृत्य करेगा, उस ज्ञानकी महिमा इस काव्यमें प्रगट की गई है ऐसे अनन्त ज्ञानस्वरूप
जो आत्मा वह सदा प्रगट रहो ।१६३।
अब बन्धतत्त्वके स्वरूपका विचार करते हैं; उसमें पहिले बन्धके कारणको स्पष्टतया
बतलाते हैं :
जिस रीत कोई पुरुष मर्दन आप करके तेलका
व्यायाम करता शस्त्रसे, बहु रजभरे स्थानक खड़ा ।।२३७।।
अरु ताड़, कदली, बाँस आदिक छिन्नभिन्न बहू करे
उपघात आप सचित्त अवरु अचित्त द्रव्योंका करे ।।२३८।।
बहु भाँतिके करणादिसे उपघात करते उसहिको
निश्चयपने चिंतन करो, रजबन्ध है किन कारणों ? ।।२३९।।
यों जानना निश्चयपनेचिकनाइ जो उस नर विषैं
रजबन्धकारण सो हि है, नहिं कायचेष्टा शेष है ।।२४०।।
चेष्टा विविधमें वर्तता, इस भाँति मिथ्यादृष्टि जो
उपयोगमें रागादि करता, रजहिसे लेपाय सो ।।२४१।।

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यथा नाम कोऽपि पुरुषः स्नेहाभ्यक्तस्तु रेणुबहुले
स्थाने स्थित्वा च करोति शस्त्रैर्व्यायामम् ।।२३७।।
छिनत्ति भिनत्ति च तथा तालीतलकदलीवंशपिण्डीः
सचित्ताचित्तानां करोति द्रव्याणामुपघातम् ।।२३८।।
उपघातं कुर्वतस्तस्य नानाविधैः करणैः
निश्चयतश्चिन्त्यतां खलु किम्प्रत्ययिकस्तु रजोबन्धः ।।२३९।।
यः स तु स्नेहभावस्तस्मिन्नरे तेन तस्य रजोबन्धः
निश्चयतो विज्ञेयं न कायचेष्टाभिः शेषाभिः ।।२४०।।
एवं मिथ्याद्रष्टिर्वर्तमानो बहुविधासु चेष्टासु
रागादीनुपयोगे कुर्वाणो लिप्यते रजसा ।।२४१।।
इह खलु यथा कश्चित् पुरुषः स्नेहाभ्यक्त :, स्वभावत एव रजोबहुलायां
गाथार्थ :[यथा नाम ] जैसे[कः अपि पुरुषः ] कोई पुरुष [स्नेहाभ्यक्तः तु ]
(अपने शरीरमें) तेल आदि स्निग्ध पदार्थ लगाकर [च ] और [रेणुबहुले ] बहुतसे रजवाले
(धूलिवाले) [स्थाने ] स्थानमें [स्थित्वा ] रहकर [शस्त्रैः ] शस्त्रोंके द्वारा [व्यायामम् करोति ]
व्यायाम क रता है, [तथा ] तथा [तालीतलकदलीवंशपिण्डीः ] ताड़, तमाल, के ल, बाँस, अशोक
इत्यादि वृक्षोंको [छिनत्ति ] छेदता है, [भिनत्ति च ] भेदता है, [सचित्ताचित्तानां ] सचित्त तथा
अचित्त [द्रव्याणाम् ] द्रव्योंका [उपघातम् ] उपघात (नाश) [करोति ] क रता है; [नानाविधैः
करणैः ]
इसप्रकार नाना प्रकारके क रणों द्वारा [उपघातं कुर्वतः ] उपघात क रते हुए [तस्य ] उस
पुरुषके [रजोबन्धः तु ] रजका बन्ध (धूलिका चिपकना) [खलु ] वास्तवमें [किम्प्रत्ययिकः ]
किस कारणसे होता है, [निश्चयतः ] यह निश्चयसे [चिन्त्यतां ] विचार करो
[तस्मिन् नरे ] उस
पुरुषमें [यः सः स्नेहभावः तु ] जो वह तेल आदिकी चिकनाहट है [तेन ] उससे [तस्य ] उसे
[रजोबन्धः ] रजका बन्ध होता है, [निश्चयतः विज्ञेयं ] ऐसा निश्चयसे जानना चाहिए, [शेषाभिः
कायचेष्टाभिः ]
शेष शारीरिक चेष्टाओंसे [न ] नहीं होता
[एवं ] इसीप्रकार[बहुविधासु
चेष्टासु ] बहुत प्रकारकी चेष्टाओंमें [वर्तमानः ] वर्तता हुआ [मिथ्यादृष्टिः ] मिथ्यादृष्टि [उपयोगे ]
(अपने) उपयोगमें [रागादीन् कुर्वाणः ] रागादि भावोंको करता हुआ [रजसा ] क र्मरूप रजसे
[लिप्यते ] लिप्त होता है
बँधता है
टीका :जैसे
इस जगतमें वास्तवमें कोई पुरुष स्नेह (तेल आदि चिकने

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भूमौ स्थितः, शस्त्रव्यायामकर्म कुर्वाणः, अनेकप्रकारकरणैः सचिताचित्तवस्तूनि निघ्नन्,
रजसा बध्यते
तस्य कतमो बन्धहेतुः? न तावत्स्वभावत एव रजोबहुला भूमिः,
स्नेहानभ्यक्तानामपि तत्रस्थानां तत्प्रसंगात् न शस्त्रव्यायामकर्म, स्नेहानभ्यक्तानामपि तस्मात्
तत्प्रसंगात् नानेकप्रकारकरणानि, स्नेहानभ्यक्तानामपि तैस्तत्प्रसंगात् न सचित्ता-
चित्तवस्तूपघातः, स्नेहानभ्यक्तानामपि तस्मिंस्तत्प्रसंगात् ततो न्यायबलेनैवैतदायातं, यत्तस्मिन्
पुरुषे स्नेहाभ्यंगकरणं स बन्धहेतुः एवं मिथ्याद्रष्टिः आत्मनि रागादीन् कुर्वाणः, स्वभावत
एव कर्मयोग्यपुद्गलबहुले लोके कायवाङ्मनःकर्म कुर्वाणः, अनेकप्रकारकरणैः सचित्ता-
चित्तवस्तूनि निघ्नन्, कर्मरजसा बध्यते
तस्य कतमो बन्धहेतुः ? न तावत्स्वभावत एव
पदार्थ)से मर्दनयुक्त हुआ, स्वभावतः ही बहुतसी धूलिमय भूमिमें रहा हुआ, शस्त्रोंके
व्यायामरूप कर्म(क्रिया)को करता हुआ, अनेक प्रकारके करणोंके द्वारा सचित्त तथा अचित्त
वस्तुओंका घात करता हुआ, (उस भूमिकी) धूलिसे बद्ध होता है
लिप्त होता है (यहाँ
विचार करो कि) इनमेंसे उस पुरुषके बन्धका कारण कौन है ? पहले, जो स्वभावसे ही
बहुतसी धूलिसे भरी हुई भूमि है वह धूलिबन्धका कारण नहीं है; क्योंकि यदि ऐसा हो
तो जिन्होंने तैलादिका मर्दन नहीं किया है ऐसे उस भूमिमें रहे हुए पुरुषोंको भी धूलिबन्धका
प्रसंग आ जाएगा
शस्त्रोंका व्यायामरूप कर्म भी धूलिबन्धका कारण नहीं है; क्योंकि यदि
ऐसा हो तो जिन्होंने तेलादिका मर्दन नहीं किया है उनके भी शस्त्रव्यायामरूप क्रियाके
करनेसे धूलिबन्धका प्रसंग आ जाएगा
अनेक प्रकारके कारण भी धूलिबन्धका कारण नहीं
हैं; क्योंकि यदि ऐसा हो तो जिन्होंने तैलादिका मर्दन नहीं किया है उनके भी अनेक प्रकारके
कारणोंसे धूलिबन्धका प्रसंग आ जाएगा
सचित्त तथा अचित्त वस्तुओंका घात भी
धूलिबन्धका कारण नहीं है; क्योंकि यदि ऐसा हो तो जिन्होंने तैलादिका मर्दन नहीं किया
उन्हें भी सचित्त तथा अचित्त वस्तुओंका घात करनेसे धूलिबन्धका प्रसंग आ जाएगा
इसलिए न्यायके बलसे ही यह फलित (सिद्ध) हुआ कि, उस पुरुषमें तैलादिका मर्दन
करना बन्धका कारण है इसीप्रकारमिथ्यादृष्टि अपनेमें रागादिक करता हुआ, स्वभावसे
ही जो बहुतसे कर्मयोग्य पुद्गलोंसे भरा हुआ है ऐसे लोकमें काय-वचन-मनका कर्म
(क्रिया) करता हुआ, अनेक प्रकारके करणोंके द्वारा सचित्त तथा अचित्त वस्तुओंका घात
करता हुआ, कर्मरूप रजसे बँधता है
(यहाँ विचार करो कि) इनमेंसे उस पुरुषके बन्धका
कारण कौन है ? प्रथम, स्वभावसे ही जो बहुतसे कर्मयोग्य पुद्गलोंसे भरा हुआ है ऐसा
लोक बन्धका कारण नहीं है; क्योंकि यदि ऐसा हो तो सिद्धोंको भी, जो कि लोकमें रह

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कर्मयोग्यपुद्गलबहुलो लोकः, सिद्धानामपि तत्रस्थानां तत्प्रसंगात् न कायवाङ्मनःकर्म,
यथाख्यातसंयतानामपि तत्प्रसंगात् नानेकप्रकारकरणानि, केवलज्ञानिनामपि तत्प्रसंगात्
सचित्ताचित्तवस्तूपघातः, समितितत्पराणामपि तत्प्रसंगात् ततो न्यायबलेनैवैतदायातं, यदुपयोगे
रागादिकरणं स बन्धहेतुः
रहे हैं उनके भी, बन्धका प्रसंग आ जाएगा काय-वचन-मनका कर्म (अर्थात् काय-वचन-
मनकी क्रियास्वरूप योग) भी बन्धका कारण नहीं है; क्योंकि यदि ऐसा हो तो यथाख्यात-
संयमियोंके भी (काय-वचन-मनकी क्रिया होनेसे) बन्धका प्रसंग आ जाएगा
अनेक
प्रकारके करण भी बन्धका कारण नहीं हैं; क्योंकि यदि ऐसा हो तो केवलज्ञानियोंके भी
(उन करणोंसे) बन्धका प्रसंग आ जाएगा सचित्त तथा अचित्त वस्तुओंका घात भी बन्धका
कारण नहीं है; क्योंकि यदि ऐसा हो तो जो समितिमें तत्पर हैं उनके (अर्थात् जो यत्नपूर्वक
प्रवृत्ति करते हैं ऐसे साधुओंके) भी (सचित्त तथा अचित्त वस्तुओंके घातसे) बन्धका प्रसंग
आ जाएगा
इसलिये न्यायबलसे ही यह फलित हुआ कि, उपयोगमें रागादिकरण (अर्थात्
उपयोगमें रागादिकका करना), बन्धका कारण है
भावार्थ :यहाँ निश्चयनयको प्रधान करके कथन है जहाँ निर्बाध हेतुसे सिद्धि होती
है वही निश्चय है बन्धका कारण विचार करने पर निर्बाधतया यही सिद्ध हुआ कि
मिथ्यादृष्टि पुरुष जिन रागद्वेषमोहभावोंको अपने उपयोगमें करता है वे रागादिक ही बन्धका
कारण हैं
उनके अतिरिक्त अन्यबहु कर्मयोग्य पुद्गलोंसे परिपूर्ण लोक, काय-वचन-मनके
योग, अनेक करण तथा चेतन-अचेतनका घातबन्धके कारण नहीं हैं; यदि उनसे बन्ध होता
हो तो सिद्धोंके, यथाख्यात चारित्रवानोंके, केवलज्ञानियोंके और समितिरूप प्रवृत्ति करनेवाले
मुनियोंके बन्धका प्रसंग आ जाएगा
परन्तु उनके तो बन्ध होता नहीं है इसलिए इन हेतुओंमें
(कारणोंमें) व्यभिचार (दोष) आया इसलिए यह निश्चय है कि बन्धका कारण रागादिक
ही हैं
यहाँ समितिरूप प्रवृत्ति करनेवाले मुनियोंका नाम लिया गया है और अविरत,
देशविरतका नाम नहीं लिया; इसका यह कारण है किअविरत तथा देशविरतके
बाह्यसमितिरूप प्रवृत्ति नहीं होती, इसलिए चारित्रमोह सम्बन्धी रागसे किंचित् बन्ध होता है;
इसलिए सर्वथा बन्धके अभावकी अपेक्षामें उनका नाम नहीं लिया
वैसे अन्तरङ्गकी अपेक्षासे
तो उन्हें भी निर्बन्ध ही जानना चाहिए ।।२३७ से २४१।।
करण = इन्द्रियाँ

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(पृथ्वी)
न कर्मबहुलं जगन्न चलनात्मकं कर्म वा
न नैककरणानि वा न चिदचिद्वधो बन्धकृत्
यदैक्यमुपयोगभूः समुपयाति रागादिभिः
स एव किल केवलं भवति बन्धहेतुर्नृणाम्
।।१६४।।
जह पुण सो चेव णरो णेहे सव्वम्हि अवणिदे संते
रेणुबहुलम्मि ठाणे करेदि सत्थेहिं वायामं ।।२४२।।
छिंददि भिंददि य तहा तालीतलकयलिवंसपिंडीओ
सच्चित्ताचित्ताणं करेदि दव्वाणमुवघादं ।।२४३।।
अब इस अर्थका कलशरूप काव्य कहते हैं :
श्लोकार्थ :[बन्धकृत् ] क र्मबन्धको क रनेवाला कारण, [न कर्मबहुलं जगत् ] न तो
बहुत क र्मयोग्य पुद्गलोंसे भरा हुआ लोक है, [न चलनात्मकं कर्म वा ] न चलनस्वरूप क र्म
(अर्थात् काय-वचन-मनकी क्रियारूप योग) है, [न नैककरणानि ] न अनेक प्रकारके क रण हैं
[वा न चिद्-अचिद्-वधः ] और न चेतन-अचेतनका घात है
किन्तु [उपयोगभूः रागादिभिः यद्-
ऐक्यम् समुपयाति ] ‘उपयोगभू’ अर्थात् आत्मा रागादिक के साथ जो ऐक्यको प्राप्त होता है [सः
एव केवलं ]
वही एक (
मात्र रागादिक के साथ एक त्व प्राप्त करना वही) [किल ] वास्तवमें
[नृणाम् बन्धहेतुः भवति ] पुरुषोंके बन्धका कारण है
भावार्थ :यहाँ निश्चयनयसे एकमात्र रागादिकको ही बन्धका कारण कहा है ।१६४।
सम्यग्दृष्टि उपयोगमें रागादिक नहीं करता, उपयोगका और रागादिका भेद जानकर
रागादिक का स्वामी नहीं होता, इसलिए उसे पूर्वोक्त चेष्टासे बन्ध नहीं होतायह कहते हैं :
जिस रीत फि र वह ही पुरुष, उस तेल सबको दूर कर
व्यायाम करता शस्त्रसे, बहु रजभरे स्थानक ठहर ।।२४२।।
अरु ताड़, कदली, बाँस, आदिक, छिन्नभिन्न बहू करे
उपघात आप सचित्त अवरु, अचित्त द्रव्योंका करे ।।२४३।।

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उवघादं कुव्वंतस्स तस्स णाणाविहेहिं करणेहिं
णिच्छयदो चिंतेज्ज हु किंपच्चयगो ण रयबंधो ।।२४४।।
जो सो दु णेहभावो तम्हि णरे तेण तस्स रयबंधो
णिच्छयदो विण्णेयं ण कायचेट्ठाहिं सेसाहिं ।।२४५।।
एवं सम्मादिट्ठी वट्टंतो बहुविहेसु जोगेसु
अकरंतो उवओगे रागादी ण लिप्पदि रएण ।।२४६।।
यथा पुनः स चैव नरः स्नेहे सर्वस्मिन्नपनीते सति
रेणुबहुले स्थाने करोति शस्त्रैर्व्यायामम् ।।२४२।।
छिनत्ति भिनत्ति च तथा तालीतलकदलीवंश पिण्डीः
सचित्ताचित्तानां करोति द्रव्याणामुपघातम् ।।२४३।।
उपघातं कुर्वतस्तस्य नानाविधैः करणैः
निश्चयतश्चिन्त्यतां खलु किम्प्रत्ययिको न रजोबन्धः ।।२४४।।
यः स तु स्नेहभावस्तस्मिन्नरे तेन तस्य रजोबन्धः
निश्चयतो विज्ञेयं न कायचेष्टाभिः शेषाभिः ।।२४५।।
एवं सम्यग्द्रष्टिर्वर्तमानो बहुविधेषु योगेषु
अकुर्वन्नुपयोगे रागादीन् न लिप्यते रजसा ।।२४६।।
बहु भाँतिके करणादिसे, उपघात करते उसहिको
निश्चयपने चिंतन करो, रजबन्ध नहिं किन कारणों ।।२४४।।
यों जानना निश्चयपणेचिकनाइ जो उस नर विषैं
रजबन्धकारण सो हि है, नहीं कायचेष्टा शेष है ।।२४५।।
योगों विविधमें वर्तता, इस भाँति सम्यग्दृष्टि जो
उपयोगमें रागादि न करे, रजहि नहिं लेपाय सो ।।२४६।।
गाथार्थ :[यथा पुनः ] और जैसे[सः च एव नरः ] वही पुरुष, [सर्वस्मिन् स्नेहे ]
समस्त तेल आदि स्निग्ध पदार्थको [अपनीते सति ] दूर किए जाने पर, [रेणुबहुले ] बहुत

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यथा स एव पुरुषः, स्नेहे सर्वस्मिन्नपनीते सति, तस्यामेव स्वभावत एव रजोबहुलायां
भूमौ तदेव शस्त्रव्यायामकर्म कुर्वाणः, तैरेवानेकप्रकारकरणैस्तान्येव सचित्ताचित्तवस्तूनि निघ्नन्,
रजसा न बध्यते, स्नेहाभ्यंगस्य बन्धहेतोरभावात्; तथा सम्यग्
द्रष्टिः, आत्मनि रागादीनकुर्वाणः
सन्, तस्मिन्नेव स्वभावत एव कर्मयोग्यपुद्गलबहुले लोके तदेव कायवाङ्मनःकर्म कुर्वाणः,
तैरेवानेकप्रकारकरणैस्तान्येव सचित्ताचित्तवस्तूनि निघ्नन्, कर्मरजसा न बध्यते, रागयोगस्य
बन्धहेतोरभावात्
धूलिवाले [स्थाने ] स्थानमें [शस्त्रैः ] शस्त्रोंके द्वारा [व्यायामम् करोति ] व्यायाम क रता है,
[तथा ] और [तालीतलकदलीवंशपिण्डीः ] ताड़, तमाल, के ल, बाँस और अशोक इत्यादि वृक्षोंको
[छिनत्ति ] छेदता है, [भिनत्ति च ] भेदता है, [सचित्ताचित्तानां ] सचित्त तथा अचित्त [द्रव्याणाम् ]
द्रव्योंका [उपघातम् ] उपघात [करोति ] क रता है; [नानाविधैः करणैः ] ऐसे नाना प्रकारके
क रणोंके द्वारा [उपघातं कुर्वतः ] उपघात क रते हुए [तस्य ] उस पुरुषको [रजोबन्धः ] धूलिका
बन्ध [खलु ] वास्तवमें [किम्प्रत्ययिकः ] किस कारणसे [न ] नहीं होता [निश्चयतः ] यह
निश्चयसे [चिन्त्यताम् ] विचार करो
[तस्मिन् नरे ] उस पुरुषको [यः सः स्नेहभावः तु ] जो वह
तेल आदिकी चिकनाई है [तेन ] उससे [तस्य ] उसके [रजोबन्धः ] धूलिका बन्ध होना
[निश्चयतः विज्ञेयं ] निश्चयसे जानना चाहिए, [शेषाभिः कायचेष्टाभिः ] शेष क ायाकी चेष्टाओंसे
[न ] नहीं होता
(इसलिए उस पुरुषमें तेल आदिकी चिकनाहटका अभाव होनेसे ही धूलि इत्यादि
नहीं चिपकती ) [एवं ] इसप्रकार[बहुविधेसु योगेषु ] बहुत प्रकारके योगोमें [वर्तमानः ]
वर्तता हुआ [सम्यग्दृष्टिः ] सम्यग्दृष्टि [उपयोगे ] उपयोगमें [रागादीन् अकुर्वन् ] रागादिको न क रता
हुआ [रजसा ] क र्मरजसे [न लिप्यते ] लिप्त नहीं होता
टीका :जैसे वही पुरुष, सम्पूर्ण चिकनाहटको दूर कर देने पर, उसी स्वभावसे ही
अत्यधिक धूलिसे भरी हुई उसी भूमिमें वही शस्त्रव्यायामरूप कर्मको (क्रियाको) करता हुआ,
उन्हीं अनेक प्रकारके करणोंके द्वारा उन्हीं सचित्ताचित्त वस्तुओंका घात करता हुआ, धूलिसे लिप्त
नहीं होता, क्योंकि उसके धूलिके लिप्त होनेका कारण जो तैलादिका मर्दन है उसका अभाव है;
इसीप्रकार सम्यग्दृष्टि, अपनेमें रागादिको न करता हुआ, उसी स्वभावसे ही बहुत कर्मयोग्य
पुद्गलोंसे भरे हुए लोकमें वही काय-वचन-मनकी क्रिया करता हुआ, उन्हीं अनेक प्रकारके
करणोंके द्वारा उन्हीं सचित्ताचित्त वस्तुओंका घात करता हुआ, कर्मरूप रजसे नहीं बँधता, क्योंकि
उसके बन्धके कारणभूत रागके योगका (
रागमें जुड़नेका) अभाव है
भावार्थ :सम्यग्दृष्टिके पूर्वोक्त सर्व सम्बन्ध होने पर भी रागके सम्बन्धका अभाव

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(शार्दूलविक्रीडित)
लोकः कर्म ततोऽस्तु सोऽस्तु च परिस्पन्दात्मकं कर्म तत्
तान्यस्मिन्करणानि सन्तु चिदचिद्व्यापादनं चास्तु तत्
रागादीनुपयोगभूमिमनयन् ज्ञानं भवन्केवलं
बन्धं नैव कुतोऽप्युपैत्ययमहो सम्यग्
द्रगात्मा ध्रुवम् ।।१६५।।
होनेसे कर्मबन्ध नहीं होता इसके समर्थनमें पहले कहा जा चुका है ।।२४२ से २४६।।
अब इसी अर्थका कलशरूप काव्य कहते हैं :
श्लोकार्थ :[कर्मततः लोकः सः अस्तु ] इसलिए वह (पूर्वोक्त) बहुत क र्मोंसे
(क र्मयोग्य पुद्गलोंसे) भरा हुआ लोक है सो भले रहो, [परिस्पन्दात्मकं कर्म तत् च अस्तु ]
वह काय-वचन-मनका चलनस्वरूप क र्म (योग) है सो भी भले रहो, [तानि करणानि
अस्मिन् सन्तु ]
वे (पूर्वोक्त) क रण भी उसके भले रहें [च ] और [तत् चिद्-अचिद्-
व्यापादनं अस्तु ]
वह चेतन-अचेतनका घात भी भले हो, परंतु [अहो ] अहो! [अयम्
सम्यग्
दृग्-आत्मा ] यह सम्यग्दृष्टि आत्मा, [रागादीन् उपयोगभूमिम् अनयन् ] रागादिक को
उपयोगभूमिमें न लाता हुआ, [केवलं ज्ञानं भवन् ] के वल (एक) ज्ञानरूप परिणमित होता
हुआ, [कुतः अपि बन्धम् ध्रुवम् न एव उपैति ] किसी भी कारणसे निश्चयतः बन्धको प्राप्त
नहीं होता
(अहो ! देखो ! यह सम्यग्दर्शनकी अद्भुत महिमा है )
भावार्थ :यहाँ सम्यग्दृष्टिकी अद्भुत महिमा बताई है, और यह कहा है कि
लोक, योग, करण, चैतन्य-अचैतन्यका घातवे बन्धके कारण नहीं हैं इसका अर्थ यह
नहीं है कि परजीवकी हिंसासे बन्धका होना नहीं कहा, इसलिए स्वच्छन्द होकर हिंसा
करनी
किन्तु यहाँ यह आशय है कि अबुद्धिपूर्वक कदाचित् परजीवका घात भी हो जाये
तो उससे बन्ध नहीं होता किन्तु जहाँ बुद्धिपूर्वक जीवोंको मारनेके भाव होंगे वहाँ तो अपने
उपयोगमें रागादिका अस्तित्व होगा और उससे वहाँ हिंसाजन्य बन्ध होगा ही जहाँ जीवको
जिलानेका अभिप्राय हो वहाँ भी अर्थात् उस अभिप्रायको भी निश्चयनयमें मिथ्यात्व कहा है,
तब फि र जीवको मारनेका अभिप्राय मिथ्यात्व क्यों न होगा ? अवश्य होगा
इसलिये
कथनको नयविभागसे यथार्थ समझकर श्रद्धान करना चाहिए सर्वथा एकान्त मानना मिथ्यात्व
है ।१६५।

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(पृथ्वी)
तथापि न निरर्गलं चरितुमिष्यते ज्ञानिनां
तदायतनमेव सा किल निरर्गला व्यापृतिः
अकामकृतकर्म तन्मतमकारणं ज्ञानिनां
द्वयं न हि विरुध्यते किमु करोति जानाति च
।।१६६।।
(वसन्ततिलका)
जानाति यः स न करोति करोति यस्तु
जानात्ययं न खलु तत्किल कर्मरागः
रागं त्वबोधमयमध्यवसायमाहु-
र्मिथ्या
द्रशः स नियतं स च बन्धहेतुः ।।१६७।।
48
अब उपरोक्त भावार्थमें कथित आशयको प्रगट करनेके लिए, काव्य कहते हैं :
श्लोकार्थ :[तथापि ] तथापि (अर्थात् लोक आदि कारणोंसे बन्ध नहीं कहा और
रागादिक से ही बन्ध क हा है तथापि) [ज्ञानिनां निरर्गलं चरितुम् न इष्यते ] ज्ञानियोंको निरर्गल
(स्वच्छन्दतापूर्वक) प्रवर्तना योग्य नहीं है, [सा निरर्गला व्यापृतिः किल तद्-आयतनम् एव ]
क्योंकि वह निरर्गल प्रवर्तन वास्तवमें बन्धका ही स्थान है
[ज्ञानिनां अकाम-कृत-कर्म तत्
अकारणम् मतम् ] ज्ञानियोंके वाँछारहित कर्म (कार्य) होता है वह बन्धका कारण नहीं क हा, क्योंकि
[जानाति च करोति ] जानता भी है और (क र्मको ) क रता भी है
[द्वयं किमु न हि विरुध्यते ]
यह दोनों क्रियाएँ क्या विरोधरूप नहीं हैं ? (क रना और जानना निश्चयसे विरोधरूप ही है )
भावार्थ :पहले काव्यमें लोक आदिको बन्धका कारण नहीं कहा, इसलिए वहाँ यह
नहीं समझना चाहिए कि बाह्यव्यवहारप्रवृत्तिका बन्धके कारणोंमें सर्वथा ही निषेध किया है;
बाह्यव्यवहारप्रवृत्ति रागादि परिणामकी
बन्धके कारणकीनिमित्तभूत है, उस निमित्तका यहाँ
निषेध नहीं समझना चाहिए ज्ञानियोंके अबुद्धिपूर्वकवाँछा रहितप्रवृत्ति होती है, इसलिये
बन्ध नहीं कहा है, उन्हें कहीं स्वच्छन्द होकर प्रवर्तनेको नहीं क हा है; क्योंकि मर्यादा रहित
(निरंकुश) प्रवर्तना तो बन्धका ही कारण है
जाननेमें और करनेमें तो परस्पर विरोध है; ज्ञाता
रहेगा तो बन्ध नहीं होगा, कर्ता होगा तो अवश्य बन्ध होगा ।१६६।
‘‘जो जानता है सो करता नहीं और जो करता है सो जानता नहीं; करना तो कर्मका राग
है, और जो राग है सो अज्ञान है तथा अज्ञान बन्धका कारण है
’’इस अर्थका काव्य कहते
हैं :

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जो मण्णदि हिंसामि य हिंसिज्जामि य परेहिं सत्तेहिं
सो मूढो अण्णाणी णाणी एत्तो दु विवरीदो ।।२४७।।
यो मन्यते हिनस्मि च हिंस्ये च परैः सत्त्वैः
स मूढोऽज्ञानी ज्ञान्यतस्तु विपरीतः ।।२४७।।
परजीवानहं हिनस्मि, परजीवैर्हिंस्ये चाहमित्यध्यवसायो ध्रुवमज्ञानम् स तु यस्यास्ति
सोऽज्ञानित्वान्मिथ्यादृष्टिः, यस्य तु नास्ति स ज्ञानित्वात्सम्यग्द्रष्टिः
श्लोकार्थ :[यः जानाति सः न करोति ] जो जानता है सो क रता नहीं [तु ] और [यः
करोति अयं खलु जानाति न ] जो क रता है सो जानता नहीं [तत् किल कर्मरागः ] क रना तो
वास्तवमें क र्मराग है [तु ] और [रागं अबोधमयम् अध्यवसायम् आहुः ] रागको (मुनियोंने)
अज्ञानमय अध्यवसाय क हा है; [सः नियतं मिथ्यादृशः ] जो कि वह (अज्ञानमय अध्यवसाय)
नियमसे मिथ्यादृष्टिके होता है [च ] और [सः बन्धहेतुः ] वह बन्धका कारण है
।१६७।
अब मिथ्यादृष्टिके आशयको गाथामें स्पष्ट कहते हैं :
जो मानतामैं मारुँ पर अरु घात पर मेरा करे
सो मूढ है, अज्ञानि है, विपरीत इससे ज्ञानि है ।।२४७।।
गाथार्थ :[यः ] जो [मन्यते ] यह मानता है कि [हिनस्मि च ] ‘मैं पर जीवोंको मारता
हूँ [परैः सत्त्वैः हिंस्ये च ] और पर जीव मुझे मारते हैं ’, [सः ] वह [मूढः ] मूढ (मोही) है,
[अज्ञानी ] अज्ञानी है, [तु ] और [अतः विपरीतः ] इससे विपरीत (जो ऐसा नहीं मानता वह)
[ज्ञानी ] ज्ञानी है
टीका :‘मैं पर जीवोंको मारता हूँ और पर जीव मुझे मारते हैं ’ऐसा अध्यवसाय
ध्रुवरूपसे (नियमसे, निश्चयतः) अज्ञान है वह अध्यवसाय जिसके है वह अज्ञानीपनेके कारण
मिथ्यादृष्टि है; और जिसके वह अध्यवसाय नहीं है वह ज्ञानीपनेके कारण सम्यग्दृष्टि है
भावार्थ :‘परजीवोंको मैं मारता हूँ और परजीव मुझे मारते हैं’ ऐसा आशय अज्ञान है,
इसलिए जिसका ऐसा आशय है वह अज्ञानी हैमिथ्यादृष्टि है और जिसका ऐसा आशय नहीं
है वह ज्ञानी हैसम्यग्दृष्टि है
निश्चयनयसे कर्ताका स्वरूप यह है :स्वयं स्वाधीनतया जिस भावरूप परिणमित हो उस
अध्यवसाय = मिथ्या अभिप्राय; आशय

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कथमयमध्यवसायोऽज्ञानमिति चेत्
आउक्खयेण मरणं जीवाणं जिणवरेहिं पण्णत्तं
आउं ण हरेसि तुमं कह ते मरणं कदं तेसिं ।।२४८।।
आउक्खयेण मरणं जीवाणं जिणवरेहिं पण्णत्तं
आउं ण हरंति तुहं कह ते मरणं कदं तेहिं ।।२४९।।
आयुःक्षयेण मरणं जीवानां जिनवरैः प्रज्ञप्तम्
आयुर्न हरसि त्वं कथं त्वया मरणं कृतं तेषाम् ।।२४८।।
आयुःक्षयेण मरणं जीवानां जिनवरैः प्रज्ञप्तम्
आयुर्न हरन्ति तव कथं ते मरणं कृतं तैः ।।२४९।।
भावका स्वयं कर्ता कहलाता है इसलिए परमार्थतः कोई किसीका मरण नहीं करता जो परसे
परका मरण मानता है, वह अज्ञानी है निमित्त-नैमित्तिकभावसे कर्ता कहना सो व्यवहारनयका
कथन है; उसे यथार्थतया (अपेक्षाको समझ कर) मानना सो सम्यग्ज्ञान है ।।२४७।।
अब यह प्रश्न होता है कि यह अध्यवसाय अज्ञान कैसे है ? उसके उत्तर स्वरूप गाथा
कहते हैं :
है आयुक्षयसे मरण जीवका, ये हि जिनवरने कहा
तू आयु तो हरता नहीं, तैंने मरण कैसे किया ? ।।२४८।।
है आयुक्षयसे मरण जीवका, ये हि जिनवरने कहा
वे आयु तुझ हरते नहीं, तो मरण तुझ कैसे किया ? ।।२४९।।
गाथार्थ :(हे भाई ! तू जो यह मानता है कि ‘मैं पर जीवोंको मारता हूँ ’ सो यह तेरा
अज्ञान है ) [जीवानां ] जीवोंका [मरणं ] मरण [आयुःक्षयेण ] आयुक र्मके क्षयसे होता है ऐसा
[जिनवरैः ] जिनवरोंने [प्रज्ञप्तम् ] क हा है; [त्वं ] तू [आयुः ] पर जीवोंके आयुक र्मको तो [न
हरसि ]
हरता नहीं है, [त्वया ] तो तूने [तेषाम् मरणं ] उनका मरण [कथं ] कैसे [कृतं ] किया ?
(हे भाई ! तू जो यह मानता है कि ‘पर जीव मुझे मारते हैं ’ सो यह तेरा अज्ञान
है ) [जीवानां ] जीवोंका [मरणं ] मरण [आयुःक्षयेण ] आयुक र्मके क्षयसे होता है ऐसा

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मरणं हि तावज्जीवानां स्वायुःकर्मक्षयेणैव, तदभावे तस्य भावयितुमशक्यत्वात्; स्वायुःकर्म
च नान्येनान्यस्य हर्तुं शक्यं, तस्य स्वोपभोगेनैव क्षीयमाणत्वात्; ततो न कथंचनापि अन्योऽन्यस्य
मरणं कुर्यात्
ततो हिनस्मि, हिंस्ये चेत्यध्यवसायो ध्रुवमज्ञानम्
जीवनाध्यवसायस्य तद्विपक्षस्य का वार्तेति चेत्
[जिनवरैः ] जिनवरोंने [प्रज्ञप्तम् ] क हा है; पर जीव [तव आयुः ] तेरे आयुक र्मको तो
[न हरन्ति ] हरते नहीं हैं, [तैः ] तो उन्होंने [ते मरणं ] तेरा मरण [कथं ] कैसे [कृतं ]
किया ?
टीका :प्रथम तो, जीवोंका मरण वास्तवमें अपने आयुकर्मके क्षयसे ही होता है,
क्योंकि अपने आयुकर्मके क्षयके अभावमें मरण होना अशक्य है; और दूसरेसे दूसरेका स्व-
आयुकर्म हरण नहीं किया जा सकता, क्योंकि वह (स्व-आयुकर्म) अपने उपभोगसे ही
क्षयको प्राप्त होता है; इसलिये किसी भी प्रकारसे कोई दूसरा किसी दूसरेका मरण नहीं कर
सकता
इसलिये ‘मैं पर जीवोंको मारता हूँ, और पर जीव मुझे मारते हैं’ ऐसा अध्यवसाय
ध्रुवरूपसे (नियमसे) अज्ञान है
भावार्थ :जीवकी जो मान्यता हो तदनुसार जगतमें नहीं बनता हो, तो वह मान्यता
अज्ञान है अपने द्वारा दूसरेका तथा दूसरेसे अपना मरण नहीं किया जा सकता, तथापि यह
प्राणी व्यर्थ ही ऐसा मानता है सो अज्ञान है यह कथन निश्चयनयकी प्रधानतासे है
व्यवहार इसप्रकार है :परस्पर निमित्त-नैमित्तिकभावसे पर्यायका जो उत्पाद-व्यय हो
उसे जन्म-मरण कहा जाता है; वहाँ जिसके निमित्तसे मरण (पर्यायका व्यय) हो उसके
सम्बन्धमें यह कहा जाता है कि ‘इसने इसे मारा’, यह व्यवहार है
यहाँ ऐसा नहीं समझना कि व्यवहारका सर्वथा निषेध है जो निश्चयको नहीं जानते,
उनका अज्ञान मिटानेके लिए यहाँ कथन किया है उसे जाननेके बाद दोनों नयोंको
अविरोधरूपसे जानकर यथायोग्य नय मानना चाहिए ।।२४८ से २४९।।
अब पुनः प्रश्न होता है कि ‘‘(मरणका अध्यवसाय अज्ञान है यह कहा सो जान
लिया; किन्तु अब) मरणके अध्यवसायका प्रतिपक्षी जो जीवनका अध्यवसाय है उसका क्या
हाल है ?’’ उसका उत्तर कहते हैं :

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जो मण्णदि जीवेमि य जीविज्जामि य परेहिं सत्तेहिं
सो मूढो अण्णाणी णाणी एत्तो दु विवरीदो ।।२५०।।
यो मन्यते जीवयामि च जीव्ये च परैः सत्त्वैः
स मूढोऽज्ञानी ज्ञान्यतस्तु विपरीतः ।।२५०।।
परजीवानहं जीवयामि, परजीवैर्जीव्ये चाहमित्यध्यवसायो ध्रुवमज्ञानम् स तु यस्यास्ति
सोऽज्ञानित्वान्मिथ्याद्रष्टिः, यस्य तु नास्ति स ज्ञानित्वात् सम्यग्द्रष्टिः
कथमयमध्यवसायोऽज्ञानमिति चेत्
आऊदयेण जीवदि जीवो एवं भणंति सव्वण्हू
आउं च ण देसि तुमं कहं तए जीविदं कदं तेसिं ।।२५१।।
जो मानतामैं पर जिलावूँ, मुझ जीवन परसे रहे
सो मूढ है, अज्ञानि है, विपरीत इससे ज्ञानि है ।।२५०।।
गाथार्थ :[यः ] जो जीव [मन्यते ] यह मानता है कि [जीवयामि ] मैं पर जीवोंको
जिलाता हूँ [च ] और [परैः सत्त्वैः ] पर जीव [जीव्ये च ] मुझे जिलाते हैं, [सः ] वह [मूढः ]
मूढ (
मोही) है, [अज्ञानी ] अज्ञानी है, [तु ] और [अतः विपरीतः ] इससे विपरीत (जो ऐसा
नहीं मानता, किन्तु इससे उल्टा मानता है) वह [ज्ञानी ] ज्ञानी है
टीका :‘पर जीवोंको मैं जिलाता हूँ, और पर जीव मुझे जिलाते हैं ’ इसप्रकारका
अध्यवसाय ध्रुवरूपसे (अत्यन्त निश्चितरूपसे) अज्ञान है यह अध्यवसाय जिसके है वह जीव
अज्ञानीपनेके कारण मिथ्यादृष्टि है; और जिसके यह अध्यवसाय नहीं है वह जीव ज्ञानीपनेके कारण
सम्यग्दृष्टि है
भावार्थ :यह मानना अज्ञान है कि ‘पर जीव मुझे जिलाता है और मैं परको जिलाता हूँ’
जिसके यह अज्ञान है वह मिथ्यादृष्टि है; तथा जिसके यह अज्ञान नहीं है वह सम्यग्दृष्टि है ।।२५०।।
अब यह प्रश्न होता है कि यह (जीवनका) अध्यवसाय अज्ञान कैसे है ? इसका उत्तर कहते
हैं :
जीतव्य जीवका आयुदयसे, ये हि जिनवरने कहा
तू आयु तो देता नहीं, तैंने जीवन कैसे किया ? ।।२५१।।

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आऊदयेण जीवदि जीवो एवं भणंति सव्वण्हू
आउं च ण दिंति तुहं कहं णु ते जीविदं कदं तेहिं ।।२५२।।
आयुरुदयेन जीवति जीव एवं भणन्ति सर्वज्ञाः
आयुश्च न ददासि त्वं कथं त्वया जीवितं कृतं तेषाम् ।।२५१।।
आयुरुदयेन जीवति जीव एवं भणन्ति सर्वज्ञाः
आयुश्च न ददति तव कथं नु ते जीवितं कृतं तैः ।।२५२।।
जीवितं हि तावज्जीवानां स्वायुःकर्मोदयेनैव, तदभावे तस्य भावयितुमशक्यत्वात्;
स्वायुःकर्म च नान्येनान्यस्य दातुं शक्यं, तस्य स्वपरिणामेनैव उपार्ज्यमाणत्वात्; ततो न
कथंचनापि अन्योऽन्यस्य जीवितं कुर्यात्
अतो जीवयामि, जीव्ये चेत्यध्यवसायो ध्रुवमज्ञानम्
जीतव्य जीवका आयुदयसे, ये हि जिनवरने कहा
वे आयु तुझ देते नहीं, तो जीवन तुझ कैसे किया ? ।।२५२।।
गाथार्थ :[जीवः ] जीव [आयुरुदयेन ] आयुक र्मके उदयसे [जीवति ] जीता है
[एवं ] ऐसा [सर्वज्ञाः ] सर्वज्ञदेव [भणन्ति ] क हते हैं; [त्वं ] तू [आयुः च ] पर जीवोंको
आयुक र्म तो [न ददासि ] नहीं देता [त्वया ] तो (हे भाई !) तूने [तेषाम् जीवितं ] उनका जीवन
(जीवित रहना) [कथं कृतं ] कैसे किया ?
[जीवः ] जीव [आयुरुदयेन ] आयुक र्मके उदयसे [जीवति ] जीता है [एवं ] ऐसा
[सर्वज्ञाः ] सर्वज्ञदेव [भणन्ति ] क हते हैं; पर जीव [तव ] तुझे [आयुः च ] आयुक र्म तो [न
ददति ]
देते नहीं हैं [तैः ] तो (हे भाई !) उन्होंने [ते जीवितं ] तेरा जीवन (जीवित रहना) [कथं
नु कृतं ]
कैसे किया ?
टीका :प्रथम तो, जीवोंका जीवित (जीवन) वास्तवमें अपने आयुकर्मके उदयसे ही
है, क्योंकि अपने आयुकर्मके उदयके अभावमें जीवित रहना अशक्य है; और अपना आयुकर्म दूसरेसे
दूसरेको नहीं दिया जा सकता, क्योंकि वह (अपना आयुकर्म) अपने परिणामसे ही उपार्जित होता
है; इसलिए किसी भी प्रकारसे दूसरा दूसरेका जीवन नहीं कर सकता
इसलिये ‘मैं परको जिलाता
हूँ और पर मुझे जिलाता है’ इसप्रकारका अध्यवसाय ध्रुवरूपसे (नियतरूपसे) अज्ञान है
भावार्थ :पहले मरणके अध्यवसायके सम्बन्धमें कहा था, इसीप्रकार यहाँ भी
जानना ।।२५१ से २५२।।

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दुःखसुखकरणाध्यवसायस्यापि एषैव गतिः
जो अप्पणा दु मण्णदि दुक्खिदसुहिदे करेमि सत्ते त्ति
सो मूढो अण्णाणी णाणी एत्तो दु विवरीदो ।।२५३।।
य आत्मना तु मन्यते दुःखितसुखितान् करोमि सत्त्वानिति
स मूढोऽज्ञानी ज्ञान्यतस्तु विपरीतः ।।२५३।।
परजीवानहं दुःखितान् सुखितांश्च करोमि, परजीवैर्दुःखितः सुखितश्च क्रियेऽहमित्य-
ध्यवसायो ध्रुवमज्ञानम् स तु यस्यास्ति सोऽज्ञानित्वान्मिथ्याद्रष्टिः, यस्य तु नास्ति स ज्ञानित्वात्
सम्यग्द्रष्टिः
कथमयमध्यवसायोऽज्ञानमिति चेत्
अब यह कहते हैं कि दुःख-सुख करनेके अध्यवसायकी भी यही गति है :
जो आपसे माने दुःखीसुखी, मैं करूँ पर जीवको
सो मूढ है, अज्ञानि है, विपरीत इससे ज्ञानि है ।।२५३।।
गाथार्थ :[यः ] जो [इति मन्यते ] यह मानता है कि [आत्मना तु ] अपने द्वारा
[सत्त्वान् ] मैंं (पर) जीवोंको [दुःखितसुखितान् ] दुःखी-सुखी [करोमि ] करता हूँ, [सः ] वह
[मूढः ] मूढ (
मोही) है, [अज्ञानी ] अज्ञानी है, [तु ] और [अतः विपरीतः ] जो इससे विपरीत
है वह [ज्ञानी ] ज्ञानी है
टीका :‘पर जीवोंको मैं दुःखी तथा सुखी करता हूँ और पर जीव मुझे दुःखी तथा
सुखी करते हैं ’ इसप्रकारका अध्यवसाय ध्रुवरूपसे अज्ञान है वह अध्यवसाय जिसके है वह
जीव अज्ञानीपनेके कारण मिथ्यादृष्टि है; और जिसके वह अध्यवसाय नहीं है वह जीव ज्ञानीपनेके
कारण सम्यग्दृष्टि है
भावार्थ :यह मानना अज्ञान है कि‘मैं पर जीवोंको दुःखी या सुखी करता हूँ और
परजीव मुझे दुःखी या सुखी करते हैं’ जिसके यह अज्ञान है वह मिथ्यादृष्टि है; और जिसके
यह अज्ञान नहीं है वह ज्ञानी हैसम्यग्दृष्टि है ।।२५३।।
अब यह प्रश्न होता है कि यह अध्यवसाय अज्ञान कैसे है ? इसका उत्तर कहते हैं :

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कम्मोदएण जीवा दुक्खिदसुहिदा हवंति जदि सव्वे
कम्मं च ण देसि तुमं दुक्खिदसुहिदा कह कया ते ।।२५४।।
कम्मोदएण जीवा दुक्खिदसुहिदा हवंति जदि सव्वे
कम्मं च ण दिंति तुहं कदोसि कहं दुक्खिदो तेहिं ।।२५५।।
कम्मोदएण जीवा दुक्खिदसुहिदा हवंति जदि सव्वे
कम्मं च ण दिंति तुहं कह तं सुहिदो कदो तेहिं ।।२५६।।
कर्मोदयेन जीवा दुःखितसुखिता भवन्ति यदि सर्वे
कर्म च न ददासि त्वं दुःखितसुखिताः कथं कृतास्ते ।।२५४।।
कर्मोदयेन जीवा दुःखितसुखिता भवन्ति यदि सर्वे
कर्म च न ददति तव कृतोऽसि कथं दुःखितस्तैः ।।२५५।।
कर्मोदयेन जीवा दुःखितसुखिता भवन्ति यदि सर्वे
कर्म च न ददति तव कथं त्वं सुखितः कृतस्तैः ।।२५६।।
जहँ उदयकर्म जु जीव सब ही, दुःखित अवरु सुखी बने
तू कर्म तो देता नहीं, कैसे तू दुखित-सुखी करे ? ।।२५४।।
जहँ उदयकर्म जु जीव सब ही, दुःखित अवरु सुखी बनें
वे कर्म तुझ देते नहीं, तो दुखित तुझ कैसे करें ? ।।२५५।।
जहँ उदयकर्म जु जीव सब ही, दुःखित अवरु सुखी बनें
वे कर्म तुझ देते नहीं, तो सुखित तुझ कैसे करें ? ।।२५६।।
गाथार्थ :[यदि ] यदि [सर्वे जीवाः ] सभी जीव [कर्मोदयेन ] क र्मके उदयसे
[दुःखितसुखिताः ] दुःखी-सुखी [भवन्ति ] होते हैं, [च ] और [त्वं ] तू [कर्म ] उन्हें क र्म तो
[न ददासि ] देता नहीं है, तो (हे भाई !) तूने [ते ] उन्हें [दुःखितसुखिताः ] दुःखी-सुखी [कथं
कृताः ]
कैसे किया ?
[यदि ] यदि [सर्वे जीवाः ] सभी जीव [कर्मोदयेन ] क र्मके उदयसे [दुःखितसुखिताः ]
दुःखी-सुखी [भवन्ति ] होते हैं, [च ] और वे [तव ] तुझे [कर्म ] क र्म तो [न ददति ] नहीं देते,

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सुखदुःखे हि तावज्जीवानां स्वकर्मोदयेनैव, तदभावे तयोर्भवितुमशक्यत्वात्; स्वकर्म च नान्ये-
नान्यस्य दातुं शक्यं, तस्य स्वपरिणामेनैवोपार्ज्यमाणत्वात्; ततो न कथंचनापि अन्योऽन्यस्य सुख-
दुःखे कुर्यात्
अतः सुखितदुःखितान् करोमि, सुखितदुःखितः क्रिये चेत्यध्यवसायो ध्रुवमज्ञानम्
(वसन्ततिलका)
सर्वं सदैव नियतं भवति स्वकीय-
कर्मोदयान्मरणजीवितदुःखसौख्यम्
अज्ञानमेतदिह यत्तु परः परस्य
कुर्यात्पुमान्मरणजीवितदुःखसौख्यम्
।।१६८।।
49
तो (हे भाई !) [तैः ] उन्होंने [दुःखितः ] तुझको दुःखी [कथं कृतः असि ] कैसे किया ?
[यदि ] यदि [सर्वे जीवाः ] सभी जीव [कर्मोदयेन ] क र्मके उदयसे [दुःखितसुखिताः ]
दुःखी-सुखी [भवन्ति ] होते हैं, [च ] और वे [तव ] तुझे [कर्म ] क र्म तो [न ददति ] नहीं
देते, तो (हे भाई !) [तैः ] उन्होंने [त्वं ] तुझको [सुखितः ] सुखी [कथं कृतः ] कैसे किया ?
टीका :प्रथम तो, जीवोंको सुख-दुःख वास्तवमें अपने कर्मोदयसे ही होता है, क्योंकि
अपने कर्मोदयके अभावमें सुख-दुःख होना अशक्य है; और अपना कर्म दूसरे द्वारा दूसरेको नहीं
दिया जा सकता, क्योंकि वह (अपना कर्म) अपने परिणामसे ही उपार्जित होता है; इसलिये किसी
भी प्रकारसे दूसरा दूसरेको सुख-दुःख नहीं कर सकता
इसलिये यह अध्यवसाय ध्रुवरूपसे अज्ञान
है कि ‘मैं पर जीवोंको सुखी-दुःखी करता हूँ और पर जीव मुझे सुखी-दुःखी करते हैं’
भावार्थ :जीवका जैसा आशय हो तदनुसार जगतमें कार्य न होते हों तो वह आशय
अज्ञान है इसलिये, सभी जीव अपने अपने कर्मोदयसे सुखी-दुःखी होते हैं, वहाँ यह मानना कि
‘मैं परको सुखी-दुःखी करता हूँ और पर मुझे सुखी-दुःखी करता है’, सो अज्ञान है निमित्त
-नैमित्तिकभावके आश्रयसे (किसीको किसीके) सुख-दुःखका करनेवाला कहना सो व्यवहार है;
जो कि निश्चयकी दृष्टिमें गौण है
।।२५४ से २५६।।
अब इस अर्थका कलशरूप काव्य कहते हैं :
श्लोकार्थ :[इह ] इस जगतमें [मरण-जीवित-दुःख-सौख्यम् ] जीवोंके मरण,
जीवित, दुःख, सुख[सर्वं सदैव नियतं स्वकीय-कर्मोदयात् भवति ] सब सदैव नियमसे
(निश्चितरूपसे) अपने क र्मोदयसे होता है; [परः पुमान् परस्य मरण-जीवित-दुःख-सौख्यम्
कुर्यात् ] ‘दूसरा पुरुष दूसरेके मरण, जीवन, दुःख, सुखको करता है’ [यत् तु ] ऐसा जो मानना,
[एतत् अज्ञानम् ] वह तो अज्ञान है
।१६८।

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(वसन्ततिलका)
अज्ञानमेतदधिगम्य परात्परस्य
पश्यन्ति ये मरणजीवितदुःखसौख्यम्
कर्माण्यहंकृतिरसेन चिकीर्षवस्ते
मिथ्या
द्रशो नियतमात्महनो भवन्ति ।।१६९।।
जो मरदि जो य दुहिदो जायदि कम्मोदएण सो सव्वो
तम्हा दु मारिदो दे दुहाविदो चेदि ण हु मिच्छा ।।२५७।।
जो ण मरदि ण य दुहिदो सो वि य कम्मोदएण चेव खलु
तम्हा ण मारिदो णो दुहाविदो चेदि ण हु मिच्छा ।।२५८।।
पुनः इसी अर्थको दृढ़ करनेवाला और आगामी कथनका सूचक काव्य कहते हैं :
श्लोकार्थ :[एतत् अज्ञानम् अधिगम्य ] इस (पूर्वकथित मान्यतारूप) अज्ञानको प्राप्त
करके [ये परात् परस्य मरण-जीवित-दुःख-सौख्यम् पश्यन्ति ] जो पुरुष परसे परके मरण,
जीवन, दुःख, सुखको देखते हैं अर्थात् मानते हैं, [ते ] वे पुरुष
[अहंकृतिरसेन क र्माणि
चिकीर्षवः ] जो कि इसप्रकार अहंकाररससे क र्मोंको करनेके इच्छुक हैं (अर्थात् ‘मैं इन कर्मोंको
करता हूँ’ ऐसे अहंकाररूप रससे जो क र्म क रनेकी
मारने-जिलानेकी, सुखी-दुःखी क रनेकी
वाँछा क रनेवाले हैं) वे[नियतम् ] नियमसे [मिथ्यादृशः आत्महनः भवन्ति ] मिथ्यादृष्टि है,
अपने आत्माका घात क रनेवाले हैं
भावार्थ :जो परको मारने-जिलानेका तथा सुख-दुःख करनेका अभिप्राय रखते हैं वे
मिथ्यादृष्टि हैं वे अपने स्वरूपसे च्युत होते हुए रागी, द्वेषी, मोही होकर स्वतः ही अपना घात
करते हैं, इसलिये वे हिंसक हैं ।१६९।
अब इसी अर्थको गाथाओं द्वारा कहते हैं :
मरता दुखी होता जु जीवसब कर्म-उदयोंसे बने
‘मुझसे मरा अरु दुखि हुआ’क्या मत न तुझ मिथ्या अरे ? ।।२५७।।
अरु नहिं मरे, नहिं दुखि बने, वे कर्म-उदयोंसे बने
‘मैंने न मारा दुखि करा’क्या मत न तुझ मिथ्या अरे ? ।।२५८।।

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यो म्रियते यश्च दुःखितो जायते कर्मोदयेन स सर्वः
तस्मात्तु मारितस्ते दुःखितश्चेति न खलु मिथ्या ।।२५७।।
यो न म्रियते न च दुःखितः सोऽपि च कर्मोदयेन चैव खलु
तस्मान्न मारितो नो दुःखितश्चेति न खलु मिथ्या ।।२५८।।
यो हि म्रियते जीवति वा, दुःखितो भवति सुखितो भवति वा, स खलु स्वकर्मोदयेनैव,
तदभावे तस्य तथा भवितुमशक्यत्वात् ततः मयायं मारितः, अयं जीवितः, अयं दुःखितः
कृतः, अयं सुखितः कृतः इति पश्यन् मिथ्याद्रष्टिः
(अनुष्टुभ्)
मिथ्याद्रष्टेः स एवास्य बन्धहेतुर्विपर्ययात्
य एवाध्यवसायोऽयमज्ञानात्माऽस्य द्रश्यते ।।१७०।।
गाथार्थ :[यः म्रियते ] जो मरता है [च ] और [यः दुःखितः जायते ] जो दुःखी होता
है [सः सर्वः ] वह सब [कर्मोदयेन ] क र्मोदयसे होता है; [तस्मात् तु ] इसलिये [मारितः च
दुःखितः ]
‘मैंने मारा, मैंने दुःखी किया’ [इति ] ऐसा [ते ] तेरा अभिप्राय [न खलु मिथ्या ] क्या
वास्तवमें मिथ्या नहीं है ?
[च ] और [यः न म्रियते ] जो न मरता है [च ] और [न दुःखितः ] न दुःखी होता है
[सः अपि ] वह भी [खलु ] वास्तवमें [कर्मोदयेन च एव ] क र्मोदयसे ही होता है; [तस्मात् ]
इसलिये [न मारितः च न दुःखितः ] ‘मैंने नहीं मारा, मैंने दुःखी नहीं किया’ [इति ] ऐसा तेरा
अभिप्राय [न खलु मिथ्या ] क्या वास्तवमें मिथ्या नहीं है ?
टीका :जो मरता है या जीता है, दुःखी होता है या सुखी होता है, यह वास्तवमें अपने
कर्मोदयसे ही होता है, क्योंकि अपने कर्मोदयके अभावमें उसका वैसा होना (मरना, जीना, दुःखी
या सुखी होना) अशक्य है
इसलिये ऐसा देखनेवाला अर्थात् माननेवाला मिथ्यादृष्टि है कि
‘मैंने इसे मारा, इसे जिलाया, इसे दुःखी किया, इसे सुखी किया’
भावार्थ :कोई किसीके मारे नहीं मरता और जिलाए नहीं जीता तथा किसीके सुखी-
दुःखी किये सुखी-दुःखी नहीं होता; इसलिये जो मारने, जिलाने आदिका अभिप्राय करता है वह
मिथ्यादृष्टि ही है
यह निश्चयका वचन है यहाँ व्यवहारनय गौण है ।।२५७ से २५८।।
अब आगेके कथनका सूचक श्लोक कहते हैं :
श्लोकार्थ :[अस्य मिथ्यादृष्टेः ] मिथ्यादृष्टिके [यः एव अयम् अज्ञानात्मा अध्यवसायः