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है, [दर्शन-ज्ञान-चारित्रैः त्रिभिः परिणतत्वतः ] क्योंकि वह दर्शन, ज्ञान और चारित्र
सो व्यवहार हुआ, असत्यार्थ भी हुआ
क्योंकि शुद्धद्रव्यार्थिक नयसे सर्व अन्यद्रव्यके स्वभाव तथा अन्यके निमित्तसे होनेवाले विभावोंको
दूर करनेरूप उसका स्वभाव है, इसलिये वह [अमेचकः ] ‘अमेचक’ है
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दर्शन अर्थात् शुद्ध स्वभावका अवलोकन, ज्ञान अर्थात् शुद्ध स्वभावका प्रत्यक्ष जानना और चारित्र
अर्थात् शुद्ध स्वभावमें स्थिरतासे ही साध्यकी सिद्धि होती है
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स एवानुचरितव्यश्च, साध्यसिद्धेस्तथान्यथोपपत्त्यनुपपत्तिभ्याम
श्रद्धानमुत्प्लवते तदा समस्तभावान्तरविवेकेन निःशंक मवस्थातुं शक्यत्वादात्मानुचरण-
मुत्प्लवमानमात्मानं साधयतीति साध्यसिद्धेस्तथोपपत्तिः
[तं प्रयत्नेन अनुचरति ] उसका प्रयत्नपूर्वक अनुचरण करता है अर्थात् उसकी सुन्दर रीतिसे सेवा
करता है, [एवं हि ] इसीप्रकार [मोक्षकामेन ] मोक्षके इच्छुकको [जीवराजः ] जीवरूपी राजाको
[ज्ञातव्यः ] जानना चाहिए, [पुनः च ] और फि र [तथा एव ] इसीप्रकार [श्रद्धातव्यः ] उसका
श्रद्धान करना चाहिए [तु च ] और तत्पश्चात् [ स एव अनुचरितव्यः ] उसीका अनुसरण करना
चाहिए अर्थात् अनुभवके द्वारा तन्मय हो जाना चाहिये
करनेसे अवश्य धनकी प्राप्ति होगी’ और तत्पश्चात् उसीका अनुचरण करे, सेवा करे, आज्ञामें
रहे, उसे प्रसन्न करे; इसीप्रकार मोक्षार्थी पुरुषको पहले तो आत्माको जानना चाहिए, और
फि र उसीका श्रद्धान करना चाहिये कि ‘यही आत्मा है, इसका आचरण करनेसे अवश्य
कर्मोंसे छूटा जा सकेगा’ और तत्पश्चात् उसीका अनुचरण करना चाहिए
सिद्धिकी इसीप्रकार उपपत्ति है, अन्यथा अनुपपत्ति है (अर्थात् इसीप्रकारसे साध्यकी सिद्धि
होती है, अन्य प्रकारसे नहीं)
अनुभूति है सो ही मैं हूँ’ ऐसे आत्मज्ञानसे प्राप्त होनेवाला, यह आत्मा जैसा जाना वैसा ही
है इसप्रकारकी प्रतीति जिसका लक्षण है ऐसा, श्रद्धान उदित होता है तब समस्त
अन्यभावोंका भेद होनेसे निःशंक स्थिर होनेमें समर्थ होनेसे आत्माका आचरण उदय होता
हुआ आत्माको साधता है
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नात्मानं साधयतीति साध्यसिद्धेरन्यथानुपपत्तिः
अपतितमिदमात्मज्योतिरुद्गच्छदच्छम
न खलु न खलु यस्मादन्यथा साध्यसिद्धिः
अज्ञातका श्रद्धान गधेके सींगके श्रद्धान समान है इसलिए, श्रद्धान भी उदित नहीं होता तब
समस्त अन्यभावोंके भेदसे आत्मामें निःशंक स्थिर होनेकी असमर्थताके कारण आत्माका आचरण
उदित न होनेसे आत्माको नहीं साध सकता
तत्पश्चात् समस्त अन्यभावोंसे भेद करके अपनेमें स्थिर हो
इसलिये यह निश्चय है कि अन्य प्रकारसे सिद्धि नहीं होती
निरन्तर अनुभव करते हैं, [यस्मात् ] क्योंकि [अन्यथा साध्यसिद्धिः न खलु न खलु ] उसके
अनुभवके बिना अन्य प्रकारसे साध्य आत्माकी सिद्धि नहीं होती
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पूर्वकत्वेन ज्ञानस्योत्पत्तेः
प्राप्त हो रही है
हो रही है ऐसी आत्मज्योतिका हम निरन्तर अनुभव करते हैं
शिक्षा क्यों दी जाती है ? उसका समाधान यह है :
(स्वयं स्वतः जानना) अथवा बोधितबुद्धत्व (दूसरेके बतानेसे जानना)
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भूतिस्तथा कर्मणि मोहादिष्वन्तरंगेषु नोकर्मणि शरीरादिषु बहिरङ्गेषु चात्मतिरस्कारिषु पुद्गल-
परिणामेष्वहमित्यात्मनि च कर्म मोहादयोऽन्तरंगा नोकर्म शरीरादयो बहिरङ्गाश्चात्मतिरस्कारिणः
पुद्गलपरिणामा अमी इति वस्त्वभेदेन यावन्तं कालमनुभूतिस्तावन्तं कालमात्मा भवत्यप्रतिबुद्धः
नीरूपस्यात्मनः स्वपराकारावभासिनी ज्ञातृतैव पुद्गलानां कर्म नोकर्म चेति स्वतः परतो वा
भेदविज्ञानमूलानुभूतिरुत्पत्स्यते तदैव प्रतिबुद्धो भविष्यति
कर्म नोकर्म इति ] मुझमें (-आत्मामें) ‘यह कर्म-नोकर्म हैं’
स्पर्श, रस, गंध, वर्ण आदि भाव तथा चौड़ा तल, बड़ा उदर आदिके आकाररूप परिणत
पुद्गल-स्कंध हैं ’ इसप्रकार वस्तुके अभेदसे अनुभूति होती है, इसीप्रकार कर्म
तक आत्मा अप्रतिबुद्ध है; और जब कभी, जैसे रूपी दर्पणकी स्व-परके आकारका प्रतिभास
करनेवाली स्वच्छता ही है और उष्णता तथा ज्वाला अग्निकी है इसीप्रकार अरूपी आत्माकी
तो अपनेको और परको जाननेवाली ज्ञातृता ही है और कर्म तथा नोकर्म पुद्गलके हैं,
इसप्रकार स्वतः अथवा परोपदेशसे जिसका मूल भेदविज्ञान है ऐसी अनुभूति उत्पन्न होगी तब
ही (आत्मा) प्रतिबुद्ध होगा
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मचलितमनुभूतिं ये स्वतो वान्यतो वा
र्मुकुरवदविकाराः सन्ततं स्युस्त एव
आत्माकी और आत्मामें कर्म-नोकर्मकी भ्रान्ति होती है अर्थात् दोनों एकरूप भासित होते
हैं, तब तक तो वह अप्रतिबुद्ध है : और जब वह यह जानता है कि आत्मा तो ज्ञाता
ही है और कर्म-नोकर्म पुद्गलके ही हैं तभी वह प्रतिबुद्ध होता है
प्रविष्ट नहीं है, और जो दर्पणमें दिखाई दे रही है वह दर्पणकी स्वच्छता ही है’’; इसीप्रकार
‘‘कर्म-नोकर्म अपने आत्मामें प्रविष्ट नहीं हैं; आत्माकी ज्ञान-स्वच्छता ऐसी ही है कि जिसमें
ज्ञेयका प्रतिबिम्ब दिखाई दे; इसीप्रकार कर्म-नोकर्म ज्ञेय हैं, इसलिये वे प्रतिभासित होते
हैं’’
उत्पत्तिकारण है ऐसी अपने आत्माकी [अचलितम् ] अविचल [अनुभूतिम् ] अनुभूतिको
[लभन्ते ] प्राप्त करते हैं, [ते एव ] वे ही पुरुष [मुकुरवत् ] दर्पणकी भांति [प्रतिफलन-
निमग्न-अनन्त-भाव-स्वभावैः ] अपनेमें प्रतिबिम्बित हुए अनन्त भावोंके स्वभावोंसे [सन्ततं ]
निरन्तर [अविकाराः ] विकाररहित [स्युः ] होते हैं,
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हैं
यह मेरा पहले था, [एतस्य अहम् अपि पूर्वम् आसम् ] इसका मैं भी पहले था, [एतत् मम पुनः
भविष्यति] यह मेरा भविष्यमें होगा, [अहम् अपि एतस्य भविष्यामि ] मैं भी इसका भविष्यमें
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ममैतत्पूर्वमासीदेतस्याहं पूर्वमासं, ममैतत्पुनर्भविष्यत्येतस्याहं पुनर्भविष्यामीति परद्रव्य
एवासद्भूतात्मविकल्पत्वेनाप्रतिबुद्धो लक्ष्येतात्मा
नाग्नेरिन्धनं पूर्वमासीन्नेन्धनस्याग्निः पूर्वमासीदग्नेरग्निः पूर्वमासीदिन्धनस्येन्धनं पूर्वमासीत
पुनर्भविष्यतीति कस्यचिदग्नावेव सद्भूताग्निविकल्पवन्नाहमेतदस्मि नैतदहमस्त्य-
हमहमस्म्येतदेतदस्ति, न ममैतदस्ति नैतस्याहमस्मि ममाहमस्म्येतस्यैतदस्ति, न
[जानन् ] जानता हुआ [तम् ] वैसा झूठा विकल्प [न करोति ] नहीं करता वह [असम्मूढः ] मूढ
नहीं, ज्ञानी है
ईंधन है, ईंधनकी अग्नि है; अग्निका ईंधन पहले था, ईंधनकी अग्नि पहले थी; अग्निका ईंधन
भविष्यमें होगा, ईंधनकी अग्नि भविष्यमें होगी;’’
ही असत्यार्थ आत्मविकल्प (आत्माका विकल्प) करे कि ‘‘मैं यह परद्रव्य हूँ, यह परद्रव्य
मुझस्वरूप है; यह मेरा परद्रव्य है, इस परद्रव्यका मैं हूँ; मेरा यह पहले था, मैं इसका पहले था;
मेरा यह भविष्यमें होगा; मैं इसका भविष्यमें होऊँगा’’;
भविष्यमें नहीं होगी,
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सद्भूतात्मविकल्पस्य प्रतिबुद्धलक्षणस्य भावात
रसयतु रसिकानां रोचनं ज्ञानमुद्यत
किल कलयति काले क्वापि तादात्म्यवृत्तिम
होऊँगा,
[रसिकानां रोचनं ] रसिक जनोंको रुचिकर, [उद्यत् ज्ञानम् ] उदय हुआ जो ज्ञान उसका [रसयतु ]
आस्वादन करो; क्योंकि [इह ] इस लोकमें [आत्मा ] आत्मा [किल ] वास्तवमें [कथम् अपि ]
किसीप्रकार भी [अनात्मना साकम् ] अनात्मा(परद्रव्य)के साथ [क्व अपि काले ] कदापि
[तादात्म्यवृत्तिम् कलयति न ] तादात्म्यवृत्ति (एकत्व)को प्राप्त नहीं होता, क्योंकि [एकः ] आत्मा
एक है वह अन्य द्रव्यके साथ एकतारूप नहीं होता
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आस्वादन करो; मोह वृथा है, झूठा है, दुःखका कारण है
‘ये बद्ध और अबद्ध पुद्गलद्रव्य मेरा’ वो कहै
वो कैसे पुद्गल हो सके जो, तू कहे मेरा अरे !
तू तब हि ऐसा कह सके, ‘है मेरा’ पुद्गलद्रव्यको
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स्वयमज्ञानेन विमोहितहृदयो भेदमकृ त्वा तानेवास्वभावभावान
धनधान्यादिक अबद्ध [पुद्गलं द्रव्यम् ] पुद्गलद्रव्य [मम ] मेरा है
उपयोगलक्षणवाला [जीवः ] जीव है [स: ] वह [पुद्गलद्रव्यीभूतः ] पुद्गलद्रव्यरूप [कथं ]
कैसे हो सकता है [यत् ] जिससे कि [भणसि ] तू कहता है कि [इदं मम ] यह पुद्गलद्रव्य
मेरा है ? [यदि ] यदिे [स: ] जीवद्रव्य [पुद्गलद्रव्यीभूत: ] पुद्गलद्रव्यरूप हो जाय और
[इतरत् ] पुद्गलद्रव्य [जीवत्वम् ] जीवत्वको [आगतम् ] प्राप्त करे [तत् ] तो [वक्तुं शक्त: ]
तू कह सकता है [यत् ] कि [इदं पुद्गलं द्रव्यम् ] यह पुद्गलद्रव्य [मम ] मेरा है
जिसका हृदय स्वयं स्वतः ही विमोहित है-ऐसा अप्रतिबुद्ध (-अज्ञानी) जीव स्व-परका भेद
हुआ, पुद्गलद्रव्यको ‘यह मेरा है’ इसप्रकार अनुभव करता है
दिखाई नहीं देता, इसीप्रकार अप्रतिबुद्धको कर्मकी उपाधिसे आत्माका शुद्ध स्वभाव आच्छादित
हो रहा है
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येन पुद्गलद्रव्यं ममेदमित्यनुभवसि, यतो यदि कथंचनापि जीवद्रव्यं पुद्गलद्रव्यीभूतं स्यात
छोड़
गया जो नित्य उपयोगस्वभावरूप जीवद्रव्य वह पुद्गलद्रव्यरूप कैसे हो गया कि जिससे तू यह
अनुभव करता है कि ‘यह पुद्गलद्रव्य मेरा है’ ? क्योंकि यदि किसी भी प्रकारसे जीवद्रव्य
पुद्गलद्रव्यरूप हो और पुद्गलद्रव्य जीवद्रव्यरूप हो तभी ‘नमकका पानी’ इसप्रकारके अनुभवकी
भांति ऐसी अनुभूति वास्तवमें ठीक हो सकती है कि ‘यह पुद्गलद्रव्य मेरा है’; किन्तु ऐसा तो
किसी भी प्रकारसे नहीं बनता
होता दिखाई देता है, क्योंकि खारेपन और द्रवत्वका एक साथ रहनेमें अविरोध है, अर्थात् उसमें
कोई बाधा नहीं आती, इसप्रकार नित्य उपयोगलक्षणवाला जीवद्रव्य पुद्गलद्रव्य होता हुआ दिखाई
नहीं देता और नित्य अनुपयोग (जड़) लक्षणवाला पुद्गलद्रव्य जीवद्रव्य होता हुआ देखनेमें नहीं
आता, क्योंकि प्रकाश और अन्धकारकी भाँति उपयोग और अनुपयोगका एक ही साथ रहनेमें
विरोध है; जड़ और चेतन कभी भी एक नहीं हो सकते
छोड़ दे; व्यर्थकी मान्यतासे बस कर
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त्यजसि झगिति मूर्त्या साकमेकत्वमोहम
कष्टसे अथवा [मृत्वा ] मरकर भी [तत्त्वकौतूहली सन् ] तत्त्वोंका कौतूहली होकर [मूर्तेः
मुहूर्तम् पार्श्ववर्ती भव ] इस शरीरादि मूर्त द्रव्यका एक मुहूर्त (दो घड़ी) पड़ौसी होकर
[अनुभव ] आत्माका अनुभव कर [अथ येन ] कि जिससे [स्वं विलसन्तं ] अपने आत्माको
विलासरूप, [पृथक् ] सर्व परद्रव्योंसे भिन्न [समालोक्य ] देखकर [मूर्त्या साकम् ] इस
शरीरादि मूर्तिक पुद्गलद्रव्यके साथ [एकत्वमोहम् ] एकत्वके मोहको [झगिति त्यजसि ] तू
शीघ्र ही छोड़ देगा
करके, केवलज्ञान उत्पन्न करके, मोक्षको प्राप्त हो
प्रधानतासे यही उपदेश दिया है
मिथ्या बने स्तवना सभी, सो एकता जीवदेहकी !
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धामोद्दाममहस्विनां जनमनो मुष्णन्ति रूपेण ये
वन्द्यास्तेऽष्टसहस्रलक्षणधरास्तीर्थेश्वराः सूरयः
अपि ] सभी [मिथ्या भवति ] मिथ्या (झूठी) होती है; [तेन तु ] इसलिये हम समझते हैं कि
[आत्मा ] जो आत्मा है वह [देहः च एव ] देह ही [भवति ] है
सूर्यादिके तेजको ढक देते हैं, [ये रूपेण जनमनः मुष्णन्ति ] अपने रूपसे लोगोंके मनको हर लेते
हैं, [दिव्येन ध्वनिना श्रवणयोः साक्षात् सुखं अमृतं क्षरन्तः ] दिव्यध्वनिसे (भव्योंके) कानोंमें
साक्षात् सुखामृत बरसाते हैं और वे [अष्टसहस्रलक्षणधराः ] एक हजार आठ लक्षणोंके धारक
हैं
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स्वभावयोः कनककलधौतयोः पीतपाण्डुरत्वादिस्वभावयोरिवात्यन्तव्यतिरिक्तत्वेनैकार्थत्वानुपपत्तेः
नानात्वमेवेति
अभिप्रायसे [जीवः देहः च ] जीव और शरीर [कदा अपि ] कभी भी [एकार्थः ] एक पदार्थ
[न ] नहीं हैं
एकपनेका व्यवहार होता है
स्वभाव है ऐसे सोने और चांदीमें अत्यन्त भिन्नता होनेसे उनमें एकपदार्थपनेकी असिद्धि है, इसलिए
अनेकत्व ही है, इसीप्रकार उपयोग और अनुपयोग जिनका स्वभाव है ऐसे आत्मा और शरीरमें
अत्यन्त भिन्नता होनेसे उनमें एकपदार्थपनेकी असिद्धि है, इसलिये अनेकत्व ही है
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परमार्थतोऽतत्स्वभावस्यापि तीर्थकरकेवलिपुरुषस्य व्यवहारमात्रेणैव शुक्ललोहितस्तीर्थकरकेवलि-
माने मुनी जो केवली वन्दन हुआ, स्तवना हुई
मैंने [केवली भगवान् ] केवली भगवानकी [स्तुतः ] स्तुति की और [वन्दितः ] वन्दना की
जाता है; इसीप्रकार, परमार्थसे शुक्ल-रक्तता तीर्थंकर-केवलीपुरुषका स्वभाव न होने पर भी,
शरीरके गुण जो शुक्ल-रक्तता इत्यादि हैं, उनके स्तवनसे तीर्थंकर-केवलीपुरुषका
‘शुक्ल-रक्त तीर्थंकर-केवलीपुरुष’ के रूपमें स्तवन किया जाता है वह व्यवहारमात्रसे
ही किया जाता है
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भी शान्त भाव होते हैं
जो केवलीगुणको स्तवे परमार्थ केवलि वो स्तवे
[केवलिगुणान् ] केवलीके गुणोंकी [स्तौति ] स्तुति करता है [सः ] वह [तत्त्वं ] परमार्थसे
[केवलिनं ] केवलीकी [स्तौति ] स्तुति करता है
सुवर्णका नाम होता है; इसीप्रकार शरीरके गुण जो शुक्ल-रक्तता इत्यादि हैं उनका तीर्थंकर-
केवलीपुरुषमें अभाव है, इसलिये निश्चयसे शरीरके शुक्ल-रक्तता आदि गुणोंका स्तवन करनेसे
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तीर्थकरकेवलिपुरुषस्य स्तवनात
तीर्थंकर-केवलीपुरुषका स्तवन होता है
कहते हैं :
त्यों देहगुणके स्तवनसे नहिं केवलीगुण स्तवन हो
शरीरके गुणका स्तवन करने पर [केवलिगुणाः ] केवलीके गुणोंका [स्तुताः न भवन्ति ] स्तवन
नहीं होता
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[उपवन-राजी-निर्गीर्ण-भूमितलम् ] बगीचोंकी पंक्तियोंसे जिसने भूमितलको निगल लिया है
(अर्थात् चारों ओर बगीचोंसे पृथ्वी ढक गई है) और [परिखावलयेन पातालम् पिबति इव ] कोटके
चारों ओरकी खाईके घेरेसे मानों पातालको पी रहा है (अर्थात् खाई बहुत गहरी है)
-सहज-लावण्यम् ] जिसमें (जन्मसे ही) अपूर्व और स्वाभाविक लावण्य है (जो सर्वप्रिय है)
और [समुद्रं इव अक्षोभम् ] जो समुद्रकी भांति क्षोभरहित है, चलाचल नहीं है