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ही (मोहस्वरूप बुद्धि ही) [शुभाशुभं कर्म ] शुभाशुभ क र्मको [बध्नाति ] बाँधती है
होनेसे उसे (
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[पुण्यस्य बन्धकं वा ] अथवा पुण्यका बन्धक [भवति ] होता है
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पुण्यपापयोर्बन्धहेतुत्वस्याविरोधात्
पुण्यबन्धका कारण दूसरा है और पापबन्धका कारण कोई दूसरा है); क्योंकि यह एक ही
अध्यवसाय ‘दुःखी करता हूँ, मारता हूँ’ इसप्रकार और ‘सुखी करता हूँ, जिलाता हूँ’ यों दो प्रकारसे
शुभ-अशुभ अहंकारसे भरा हुआ होनेसे पुण्य और पाप
हूँ’ ऐसे अशुभ अहंकारसे भरा हुआ वह अशुभ अध्यवसाय है
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प्राणव्यपरोपस्य परेण कर्तुमशक्यत्वात्
है, क्योंकि निश्चयसे परका भाव जो प्राणोंका व्यपरोप वह दूसरेसे किया जाना अशक्य है (अर्थात्
वह परसे नहीं किया जा सकता)
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पुण्यबन्धहेतुः
[च एव ] और [परिग्रहे ] परिग्रहमें [यत् ] जो [अध्यवसानं ] अध्यवसान [क्रियते ] किया
जाता है [तेन तु ] उससे [पापं बध्यते ] पापका बन्ध होता है; [तथापि च ] और इसीप्रकार
[सत्ये ] सत्यमें, [दत्ते ] अचौर्यमें, [ब्रह्मणि ] ब्रह्मचर्यमें [च एव ] और [अपरिग्रहत्वे ]
अपरिग्रहमें [यत् ] जो [अध्यवसानं ] अध्यवसान [क्रियते ] किया जाता है [तेन तु ] उससे
[पुण्यं बध्यते ] पुण्यका बन्ध होता है
है, वह सब ही पापबन्धका एकमात्र कारण है; और जो अहिंसामें अध्यवसाय किया जाता है
उसीप्रकार सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रहमें भी (अध्यवसाय) किया जाये, वह सब ही
पुण्यबन्धका एकमात्र कारण है
अध्यवसाय किया जाये सो पुण्यबन्धका कारण है
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करने योग्य नहीं है; अध्यवसाय ही एकमात्र बन्धका कारण है, बाह्यवस्तु नहीं
तथापि [वस्तुतः ] वस्तुसे [न बन्धः ] बन्ध नहीं होता, [अध्यवसानेन ] अध्यवसानसे ही [बन्धः
अस्ति ] बन्ध होता है
अध्यवसानका कारण होनेमें ही बाह्यवस्तुका कार्यक्षेत्र पूरा हो जाता है, वह वस्तु बन्धका कारण
नहीं होती)
इसका समाधान इसप्रकार है :
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हिनस्मीत्यध्यवसायो जायेत
वेगापतत्कालचोदितकुलिंगवत्, बाह्यवस्तुनो बन्धहेतुहेतोरबन्धहेतुत्वेन बन्धहेतुत्वस्यानैकांतिक-
त्वात्
अध्यवसाय उत्पन्न होता है कि ‘मैं वीरजननीके पुत्रको मारता हूँ’ इसीप्रकार आश्रयभूत
बँध्यापुत्रके असद्भावमें भी (किसीको) ऐसा अध्यवसाय उत्पन्न होना चाहिए कि ‘मैं
बँध्यापुत्रको मारता हूँ’
है कि (बाह्यवस्तुरूप) आश्रयके बिना अध्यवसान नहीं होता
होता है
जानेवाले
वहीं बन्धका कारण है
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नहीं होता
यह मूढ मति तुझ है निरर्थक, इस हि से मिथ्या हि है
मूढमतिः ] ऐसी जो यह तेरी मूढ मति (
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मिथ्यारूप है, मात्र अपने अनर्थके लिये ही है (अर्थात् मात्र अपने लिये ही हानिका कारण होता
है, परका तो कुछ कर नहीं सकता )
और निरर्थक होनेसे मिथ्या है
मोक्षमार्गमें स्थित [मुच्यन्ते ] छूटते हैं, [तद् ] तो [त्वम् किं करोषि ] तू क्या करता है ? (तेरा
तो बाँधने-छोड़नेका अभिप्राय व्यर्थ गया
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करनेवाला नहीं है; और इसलिये मिथ्या ही है
अपने सराग-वीतराग परिणामसे बन्ध-मोक्षको प्राप्त होता है, और वह अध्यवसान हो तो भी अपने
सराग-वीतराग परिणामके अभावसे बन्ध-मोक्षको प्राप्त नहीं होता
न करोति ] अपनेको सर्वरूप क रता है,
पहिचानता
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मनुष्याध्यवसानेन मनुष्यं, विपच्यमानदेवाध्यवसानेन देवं, विपच्यमानसुखादिपुण्याध्यवसानेन
अनेक प्रकारके [पुण्यं पापं ] पुण्य और पाप
और अन्य अध्यवसानोंसे अपनेको अन्य करता है, इसीप्रकार उदयमें आते हुए नारकके
अध्यवसानसे अपनेको नारकी करता है, उदयमें आते हुए तिर्यंचके अध्यवसानसे अपनेको तिर्यंच
करता है, उदयमें आते हुए मनुष्यके अध्यवसानसे अपनेको मनुष्य करता है, उदयमें आते हुए देवके
अध्यवसानसे अपनेको देव करता है, उदयमें आते हुए सुख आदि पुण्यके अध्यवसानसे अपनेको
साथ आत्माकी तन्मयता होनेकी मान्यतारूप हैं
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सानेन पुद्गलं, ज्ञायमानलोकाकाशाध्यवसानेन लोकाकाशं, ज्ञायमानालोकाकाशाध्यवसानेना-
लोकाकाशमात्मानं कुर्यात्
दात्मानमात्मा विदधाति विश्वम्
नास्तीह येषां यतयस्त एव
है, और इसीप्रकार जाननेमें आता हुआ जो धर्म (धर्मास्तिकाय) है उसके अध्यवसानसे अपनेको
धर्मरूप करता है, जाननेमें आते हुवे अधर्मके (-अधर्मास्तिकायके) अध्यवसानसे अपनेको
अधर्मरूप करता है, जाननेमें आते हुवे अन्य जीवके अध्यवसानसे अपनेको अन्यजीवरूप करता
है, जाननेमें आते हुवे पुद्गलके अध्यवसानसे अपनेको पुद्गलरूप करता है, जाननेमें आते हुवे
लोकाकाशके अध्यवसानसे अपनेको लोकाकाशरूप करता है, और जाननेमें आते हुवे
अलोकाकाशके अध्यवसानसे अपनेको अलोकाकाशरूप करता है, (इसप्रकार आत्मा
अध्यवसानसे अपनेको सर्वरूप करता है
अपनेको विश्वरूप करता है [एषः अध्यवसायः ] ऐसा यह अध्यवसाय
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विविक्तात्माज्ञानादस्ति तावदज्ञानं, विविक्तात्मादर्शनादस्ति च मिथ्यादर्शनं,
[अशुभेन ] अशुभ [वा शुभेन ] या शुभ [कर्मणा ] क र्मसे [न लिप्यन्ते ] लिप्त नहीं होते
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विविक्तात्माज्ञानादस्ति तावदज्ञानं, विविक्तात्मादर्शनादस्ति च मिथ्यादर्शनं, विविक्तात्माना-
चरणादस्ति चाचारित्रम्
तावदज्ञानं, विविक्तात्मादर्शनादस्ति च मिथ्यादर्शनं, विविक्तात्मानाचरणादस्ति चाचारित्रम्
जानन्तः सम्यक्पश्यन्तोऽनुचरन्तश्च, स्वच्छस्वच्छन्दोद्यदमन्दान्तर्ज्योतिषोऽत्यन्तमज्ञानादिरूपत्वा-
(वह अध्यवसान) अचारित्र है
भाव है, ऐसे आत्माका और कर्मोदयजनित नारक आदि भावोंका विशेष न जाननेके कारण
भिन्न आत्माका अज्ञान होनेसे, वह अध्यवसान प्रथम जो अज्ञान है, भिन्न आत्माका अदर्शन
होनेसे (वह अध्यवसान) मिथ्यादर्शन है और भिन्न आत्माका अनाचरण होनेसे (वह
अध्यवसान) अचारित्र है
अज्ञान होनेसे, वह अध्यवसान प्रथम तो अज्ञान है, भिन्न आत्माका अदर्शन होनेसे (वह
अध्यवसान) मिथ्यादर्शन है और भिन्न आत्माका अनाचरण होनेसे (वह अध्यवसान) अचारित्र
है
जिसका एक भाव है और सत्रूप अहेतुक ज्ञान ही जिसका एक रूप है ऐसे भिन्न आत्माको
(
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इसलिए), शुभ या अशुभ कर्मसे वास्तवमें लिप्त नहीं होते
आत्माका और ज्ञेयरूप अन्यद्रव्योंका भेद न जानता हो, तब तक रहते हैं
प्रकारके होते हैं
सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्ररूप होते हुए कर्मोंसे लिप्त नहीं होते
[परिणामः ] परिणाम
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भवनमात्रत्वाद्भावः, चितः परिणमनमात्रत्वात्परिणामः
स्तन्मन्ये व्यवहार एव निखिलोऽप्यन्याश्रयस्त्याजितः
शुद्धज्ञानघने महिम्नि न निजे बध्नन्ति सन्तो धृतिम्
पूर्वाेक्त रीतिसे [त्याज्यं उक्तं ] त्यागने योग्य कहे हैं, [तत् ] इसलिये [मन्ये ] हम यह मानते
हैं कि [अन्य-आश्रयः व्यवहारः एव निखिलः अपि त्याजितः ] ‘पर जिसका आश्रय है ऐसा
व्यवहार ही सम्पूर्ण छुड़ाया है’
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[शुद्धज्ञानघने निजे महिम्नि ] शुद्धज्ञानघनस्वरूप निज महिमामें (
स्वरूपमें स्थिर क्यों नहीं होते ?
[मुनयः ] मुनिे [निर्वाणम् ] निर्वाणको [प्राप्नुवन्ति ] प्राप्त होते हैं
(
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होते हैं और पराश्रित व्यवहारनयका आश्रय तो एकान्ततः मुक्त नहीं होनेवाला अभव्य भी
करता है
निश्चयनयका ही विषय है इसलिये निश्चयनय आत्माश्रित है
अध्यवसानके त्यागका उपदेश है वह व्यवहारनयके ही त्यागका उपदेश है
ही आश्रयसे प्रवर्तते हैं, वे कर्मसे कभी मुक्त नहीं होते
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(अभव्य) निश्चारित्र (-चारित्ररहित), अज्ञानी और मिथ्यादृष्टि ही है, क्योंकि (वह) निश्चयचारित्रके
कारणरूप ज्ञान
अज्ञानी, मिथ्यादृष्टि और निश्चारित्र ही है
श्रद्धा न करनेवाले उसकोे [पाठः ] शास्त्रपठन [गुणम् न करोति ] गुण नहीं करता
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श्रद्दधानस्याभव्यस्य श्रुताध्ययनेन न विधातुं शक्येत
हुआ भी, शास्त्रपठनका जो गुण उसके अभावके कारण ज्ञानी नहीं है
ज्ञानकी श्रद्धा न करनेवाले अभव्यके शास्त्रपठनके द्वारा नहीं किया जा सकता (अर्थात् शास्त्रपठन
उसको शुद्धात्मज्ञान नहीं कर सकता); इसलिये उसके शास्त्रपठनके गुणका अभाव है; और
इसलिये ज्ञान-श्रद्धानके अभावके कारण वह अज्ञानी सिद्ध हुआ
रुचि करता है [तथा पुनः स्पृशति च ] और उसीका स्पर्श करता है, [न तु कर्मक्षयनिमित्तम् ]