Samaysar (Hindi). Gatha: 259-275 ; Kalash: 171-173.

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एसा दु जा मदी दे दुक्खिदसुहिदे करेमि सत्ते त्ति
एसा दे मूढमदी सुहासुहं बंधदे कम्मं ।।२५९।।
एषा तु या मतिस्ते दुःखितसुखितान् करोमि सत्त्वानिति
एषा ते मूढमतिः शुभाशुभं बध्नाति कर्म ।।२५९।।
परजीवानहं हिनस्मि, न हिनस्मि, दुःखयामि, सुखयामि इति य एवायमज्ञानमयो-
ऽध्यवसायो मिथ्याद्रष्टेः, स एव स्वयं रागादिरूपत्वात्तस्य शुभाशुभबन्धहेतुः
अथाध्यवसायं बन्धहेतुत्वेनावधारयति
दृश्यते ] जो यह अज्ञानस्वरूप अध्यवसाय दिखाई देता है [सः एव] वह अध्यवसाय ही, [विपर्ययात् ]
विपर्ययस्वरूप (मिथ्या) होनेसे, [अस्य बन्धहेतुः ] उस मिथ्यादृष्टिके बन्धका कारण है
भावार्थ :मिथ्या अभिप्राय ही मिथ्यात्व है और वही बन्धका कारण हैऐसा जानना
चाहिए ।१७०।
अब, यह कहते हैं कि यह अज्ञानमय अध्यवसाय ही बन्धका कारण है :
यह बुद्धि तेरी‘दुखित अवरु सुखी करूँ हूँ जीवको’
वह मूढमति तेरी अरे ! शुभ अशुभ बांधे कर्मको ।।२५९।।
गाथार्थ :[ते ] तेरी [या एषा मतिः तु ] यह जो बुद्धि है कि मैं [सत्त्वान् ] जीवोंको
[दुःखितसुखितान् ] दुःखी-सुखी [करोमि इति ] करता हूँं, [एषा ते मूढमतिः ] यही तेरी मूढबुद्धि
ही (मोहस्वरूप बुद्धि ही) [शुभाशुभं कर्म ] शुभाशुभ क र्मको [बध्नाति ] बाँधती है
टीका :‘मैं पर जीवोंको मारता हूँ, नहीं मारता, दुःखी करता हूँ, सुखी करता हूँ’ ऐसा
जो यह अज्ञानमय अध्यवसाय मिथ्यादृष्टिके है, वही (अर्थात् वह अध्यवसाय ही) स्वयं रागादिरूप
होनेसे उसे (
मिथ्यादृष्टिको) शुभाशुभ बन्धका कारण है
भावार्थ :मिथ्या अध्यवसाय बन्धका कारण है ।।२५९।।
अब, अध्यवसायको बन्धके कारणके रूपमें भलीभाँति निश्चित करते हैं (अर्थात् मिथ्या
जो परिणाम मिथ्या अभिप्राय सहित हो (स्वपरके एकत्वके अभिप्रायसे युक्त हो) अथवा वैभाविक
हो, उस परिणामके लिये अध्यवसाय शब्द प्रयुक्त किया जाता है (मिथ्या) निश्चय अथवा (मिथ्या)
अभिप्रायके अर्थमें भी अध्यवसाय शब्द प्रयुक्त होता है

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दुक्खिदसुहिदे सत्ते करेमि जं एवमज्झवसिदं ते
तं पावबंधगं वा पुण्णस्स व बंधगं होदि ।।२६०।।
मारिमि जीवावेमि य सत्ते जं एवमज्झवसिदं ते
तं पावबंधगं वा पुण्णस्स व बंधगं होदि ।।२६१।।
दुःखितसुखितान् सत्त्वान् करोमि यदेवमध्यवसितं ते
तत्पापबन्धकं वा पुण्यस्य वा बन्धकं भवति ।।२६०।।
मारयामि जीवयामि च सत्त्वान् यदेवमध्यवसितं ते
तत्पापबन्धकं वा पुण्यस्य वा बन्धकं भवति ।।२६१।।
य एवायं मिथ्याद्रष्टेरज्ञानजन्मा रागमयोऽध्यवसायः स एव बन्धहेतुः इत्यव-
अध्यवसाय ही बन्धका कारण है ऐसा नियमसे कहते हैं ) :
करता तु अध्यवसान‘दुःखित-सुखी करूँ हूँ जीवको’
वह बाँधता है पापको वा बाँधता है पुण्यको ।।२६०।।
करता तु अध्यवसान‘मैं मारूँ जिवाऊँ जीवको’
वह बाँधता है पापको वा बाँधता है पुण्यको ।।२६१।।
गाथार्थ :[सत्त्वान् ] जीवोंको मैं [दुःखितसुखितान् ] दुःखी-सुखी [करोमि ] करता
हूँ’ [एवम् ] ऐसा [यत् ते अध्यवसितं ] जो तेरा अध्यवसान, [तत् ] वही [पापबन्धकं वा ]
पापका बन्धक [ पुण्यस्य बन्धकं वा ] अथवा पुण्यका बन्धक [भवति ] होता है
[ सत्त्वान् ] जीवोंको मैं [मारयामि च जीवयामि ] मारता हूँ और जिलाता हूँ ’ [एवम् ]
ऐसा [यत् ते अध्यवसितं ] जो तेरा अध्यवसान, [तत् ] वही [पापबन्धकं वा ] पापका बन्धक
[पुण्यस्य बन्धकं वा ] अथवा पुण्यका बन्धक [भवति ] होता है
टीका :मिथ्यादृष्टिके अज्ञानसे उत्पन्न होनेवाला जो यह रागमय अध्यवसाय है वही
जो परिणमन मिथ्या अभिप्राय सहित हो (स्वपरके एकत्वके अभिप्रायसे युक्त हो) अथवा वैभाविक
हो, उस परिणमनके लिए ‘अध्यवसान’ शब्द प्रयुक्त होता है (मिथ्या) निश्चय अथवा (मिथ्या) अभिप्राय
करनेके अर्थमें भी ‘अध्यवसान’ शब्द प्रयुक्त होता है

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धारणीयम् न च पुण्यपापत्वेन द्वित्वाद्बन्धस्य तद्धेत्वन्तरमन्वेष्टव्यं; एकेनैवानेनाध्यवसायेन
दुःखयामि मारयामीति, सुखयामि जीवयामीति च द्विधा शुभाशुभाहंकाररसनिर्भरतया द्वयोरपि
पुण्यपापयोर्बन्धहेतुत्वस्याविरोधात्
एवं हि हिंसाध्यवसाय एव हिंसेत्यायातम्
अज्झवसिदेण बंधो सत्ते मारेउ मा व मारेउ
एसो बंधसमासो जीवाणं णिच्छयणयस्स ।।२६२।।
अध्यवसितेन बन्धः सत्त्वान् मारयतु मा वा मारयतु
एष बन्धसमासो जीवानां निश्चयनयस्य ।।२६२।।
बन्धका कारण है यह भलीभाँति निश्चित करना चाहिए और पुण्य-पापरूपसे बन्धका द्वित्व (दो-
पनाँ) होनेसे बन्धके कारणका भेद नहीं ढूँढ़ना चाहिए (अर्थात् यह नहीं मानना चाहिए कि
पुण्यबन्धका कारण दूसरा है और पापबन्धका कारण कोई दूसरा है); क्योंकि यह एक ही
अध्यवसाय ‘दुःखी करता हूँ, मारता हूँ’ इसप्रकार और ‘सुखी करता हूँ, जिलाता हूँ’ यों दो प्रकारसे
शुभ-अशुभ अहंकारसे भरा हुआ होनेसे पुण्य और पाप
दोनोंके बन्धका कारण होनेमें अविरोध
है (अर्थात् एक ही अध्यवसायसे पुण्य और पापदोनोंका बन्ध होनेमें कोई विरोध नहीं है)
भावार्थ :यह अज्ञानमय अध्यवसाय ही बन्धका कारण है उसमें, ‘मैं जिलाता हूँ, सुखी
करता हूँ’ ऐसे शुभ अहंकारसे भरा हुआ वह शुभ अध्यवसाय है और ‘मैं मारता हूँ, दुःखी करता
हूँ’ ऐसे अशुभ अहंकारसे भरा हुआ वह अशुभ अध्यवसाय है
अहंकाररूप मिथ्याभाव दोनोंमें है;
इसलिये अज्ञानमयतासे दोनों अध्यवसाय एक ही हैं अतः यह न मानना चाहिये कि पुण्यका कारण
दूसरा है और पापका कारण कोई अन्य अज्ञानमय अध्यवसाय ही दोनोंका कारण है २६०-२६१
‘इसप्रकार वास्तवमें हिंसाका अध्यवसाय ही हिंसा है यह फलित हुआ’यह कहते
हैं :
मारोन मारो जीवको, है बन्ध अध्यवसानसे
यह आतमाके बन्धका, संक्षेप निश्चयनय विषे ।।२६२।।
गाथार्थ :[सत्त्वान् ] जीवोंको [मारयतु ] मारो [वा मा मारयतु ] अथवा न मारो
[बन्धः ] क र्मबन्ध [अध्यवसितेन ] अध्यवसानसे ही होता है [एषः ] यह, [निश्चयनयस्य ]
निश्चयनयसे, [जीवानां ] जीवोंके [बन्धसमासः ] बन्धका संक्षेप है

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परजीवानां स्वकर्मोदयवैचित्र्यवशेन प्राणव्यपरोपः कदाचिद्भवतु, कदाचिन्मा भवतु, य एव
हिनस्मीत्यहंकाररसनिर्भरो हिंसायामध्यवसायः स एव निश्चयतस्तस्य बन्धहेतुः, निश्चयेन परभावस्य
प्राणव्यपरोपस्य परेण कर्तुमशक्यत्वात्
अथाध्यवसायं पापपुण्ययोर्बन्धहेतुत्वेन दर्शयति
एवमलिए अदत्ते अबंभचेरे परिग्गहे चेव
कीरदि अज्झवसाणं जं तेण दु बज्झदे पावं ।।२६३।।
तह वि य सच्चे दत्ते बंभे अप्परिग्गहत्तणे चेव
कीरदि अज्झवसाणं जं तेण दु बज्झदे पुण्णं ।।२६४।।
टीका :परजीवोंको अपने कर्मोदयकी विचित्रतावश प्राणोंका व्यपरोप (उच्छेद,
वियोग) कदाचित् हो, कदाचित् न हो,किन्तु ‘मैं मारता हूँ’ ऐसा अहंकाररससे भरा हुआ
हिंसाका अध्यवसाय ही निश्चयसे उसके (हिंसाका अध्यवसाय करनेवाले जीवको) बन्धका कारण
है, क्योंकि निश्चयसे परका भाव जो प्राणोंका व्यपरोप वह दूसरेसे किया जाना अशक्य है (अर्थात्
वह परसे नहीं किया जा सकता)
भावार्थ :निश्चयनयसे दूसरेके प्राणोंका वियोग दूसरेसे नहीं किया जा सकता; वह उसके
अपने कर्मोंके उदयकी विचित्रताके कारण कदाचित् होता है और कदाचित् नहीं होता इसलिये
जो यह मानता हैअहंकार करता है कि‘मैं परजीवको मारता हूँ’, उसका यह अहंकाररूप
अध्यवसाय अज्ञानमय है वह अध्यवसाय ही हिंसा हैअपने विशुद्ध चैतन्यप्राणका घात है, और
वही बन्धका कारण है यह निश्चयनयका मत है
यहाँ व्यवहारनयको गौण करके कहा है ऐसा जानना चाहिए इसलिये वह कथन कथंचित्
(अपेक्षापूर्वक) है ऐसा समझना चाहिए; सर्वथा एकान्तपक्ष मिथ्यात्व है ।।२६२।।
अब, (हिंसा-अहिंसाकी भाँति सर्व कार्योंमें) अध्यवसायको ही पाप-पुण्यके बन्धके
कारणरूपसे दिखाते हैं :
यों झूठ मांहिं अदत्तमें, अब्रह्म अरु परिग्रह विषे
जो होय अध्यवसान उससे पापबन्धन होय है ।।२६३।।
इस रीत सत्य रु दत्तमें, त्यों ब्रह्म अनपरिग्रह विषे
जो होय अध्यवसान उससे पुण्यबन्धन होय है ।।२६४।।

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एवमलीकेऽदत्तेऽब्रह्मचर्ये परिग्रहे चैव
क्रियतेऽध्यवसानं यत्तेन तु बध्यते पापम् ।।२६३।।
तथापि च सत्ये दत्ते ब्रह्मणि अपरिग्रहत्वे चैव
क्रियतेऽध्यवसानं यत्तेन तु बध्यते पुण्यम् ।।२६४।।
एवमयमज्ञानात् यो यथा हिंसायां विधीयतेऽध्यवसायः, तथा असत्यादत्ताब्रह्म-
परिग्रहेषु यश्च विधीयते स सर्वोऽपि केवल एव पापबन्धहेतुः यस्तु अहिंसायां यथा
विधीयतेऽध्यवसायः, तथा यश्च सत्यदत्तब्रह्मापरिग्रहेषु विधीयते स सर्वोऽपि केवल एव
पुण्यबन्धहेतुः
गाथार्थ :[एवम् ] इसीप्रकार (जैसा कि पहले हिंसाके अध्यवसायके सम्बन्धमें
कहा गया है उसीप्रकार) [अलीके ] असत्यमें, [अदत्ते ] चोरीमें, [अब्रह्मचर्ये ] अब्रह्मचर्यमें
[च एव ] और [परिग्रहे ] परिग्रहमें [यत् ] जो [अध्यवसानं ] अध्यवसान [क्रियते ] किया
जाता है [तेन तु ] उससे [पापं बध्यते ] पापका बन्ध होता है; [तथापि च ] और इसीप्रकार
[सत्ये ] सत्यमें, [दत्ते ] अचौर्यमें, [ब्रह्मणि ] ब्रह्मचर्यमें [च एव ] और [अपरिग्रहत्वे ]
अपरिग्रहमें [यत् ] जो [अध्यवसानं ] अध्यवसान [क्रियते ] किया जाता है [तेन तु ] उससे
[पुण्यं बध्यते ] पुण्यका बन्ध होता है
टीका :इसप्रकार (पूर्वोक्त प्रकार) अज्ञानसे यह जो हिंसामें अध्यवसाय किया
जाता है उसीप्रकार असत्य, चोरी, अब्रह्मचर्य और परिग्रहमें भी जो (अध्यवसाय) किया जाता
है, वह सब ही पापबन्धका एकमात्र कारण है; और जो अहिंसामें अध्यवसाय किया जाता है
उसीप्रकार सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रहमें भी (अध्यवसाय) किया जाये, वह सब ही
पुण्यबन्धका एकमात्र कारण है
भावार्थ :जैसे हिंसामें अध्यवसाय पापबन्धका कारण कहा है, उसीप्रकार असत्य,
चोरी, अब्रह्मचर्य और परिग्रहमें अध्यवसाय भी पापबन्धका कारण है जैसे अहिंसामें अध्यवसाय
पुण्यबन्धका कारण है; उसीप्रकार सत्य, अचौर्य (दिया हुआ लेना वह), ब्रह्मचर्य और
अपरिग्रहमें अध्यवसाय भी पुण्यबन्धका कारण है इसप्रकार, पाँच पापोंमें (अव्रतोंमें)
अध्यवसाय किया जाये सो पापबन्धका कारण है और पाँच (एकदेश या सर्वदेश) व्रतोंमें
अध्यवसाय किया जाये सो पुण्यबन्धका कारण है
पाप और पुण्य दोनोंके बन्धनमें, अध्यवसाय
ही एकमात्र बन्धका कारण है ।।२६३-२६४।।

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न च बाह्यवस्तु द्वितीयोऽपि बन्धहेतुरिति शंक्यम्
वत्थुं पडुच्च जं पुण अज्झवसाणं तु होदि जीवाणं
ण य वत्थुदो दु बंधो अज्झवसाणेण बंधोत्थि ।।२६५।।
वस्तु प्रतीत्य यत्पुनरध्यवसानं तु भवति जीवानाम्
न च वस्तुतस्तु बन्धोऽध्यवसानेन बन्धोऽस्ति ।।२६५।।
अध्यवसानमेव बन्धहेतुः, न तु बाह्यवस्तु, तस्य बन्धहेतोरध्यवसानस्य हेतुत्वेनैव
चरितार्थत्वात् तर्हि किमर्थो बाह्यवस्तुप्रतिषेधः ? अध्यवसानप्रतिषेधार्थः अध्यवसानस्य हि
बाह्यवस्तु आश्रयभूतं; न हि बाह्यवस्त्वनाश्रित्य अध्यवसानमात्मानं लभते यदि
बाह्यवस्त्वनाश्रित्यापि अध्यवसानं जायेत तदा, यथा वीरसूसुतस्याश्रयभूतस्य सद्भावे
50
और भी ऐसी शंका न करनी कि ‘बाह्यवस्तु वह दूसरा भी बन्धका कारण होगा’
(‘अध्यवसाय बन्धका एक कारण होगा और बाह्यवस्तु बन्धका दूसरा कारण होगा’ ऐसी भी शंका
करने योग्य नहीं है; अध्यवसाय ही एकमात्र बन्धका कारण है, बाह्यवस्तु नहीं
) इसी अर्थकी
गाथा अब कहते हैं :
जो होय अध्यवसान जीवके, वस्तु-आश्रित सो बने
पर वस्तुमें नहिं बन्ध, अध्यवसानसे ही बन्ध है ।।२६५।।
गाथार्थ :[पुनः ] और, [जीवानाम् ] जीवोंके [यत् ] जो [अध्यवसानं तु ]
अध्यवसान [भवति ] होता है वह [वस्तु ] वस्तुको [प्रतीत्य ] अवलम्बकर होता है, [च तु ]
तथापि [वस्तुतः ] वस्तुसे [न बन्धः ] बन्ध नहीं होता, [अध्यवसानेन ] अध्यवसानसे ही [बन्धः
अस्ति ]
बन्ध होता है
टीका :अध्यवसान ही बन्धका कारण है; बाह्य वस्तु नहीं, क्योंकि बन्धका कारण
जो अध्यवसान है उसके कारणत्वसे ही बाह्यवस्तुकी चरितार्थता है (अर्थात् बन्धके कारणभूत
अध्यवसानका कारण होनेमें ही बाह्यवस्तुका कार्यक्षेत्र पूरा हो जाता है, वह वस्तु बन्धका कारण
नहीं होती)
यहाँ प्रश्न होता है कियदि बाह्यवस्तु बन्धका कारण नहीं है तो (‘बाह्यवस्तुका
प्रसंग मत करो, किंतु त्याग करो’ इसप्रकार) बाह्यवस्तुका निषेध किसलिये किया जाता है ?
इसका समाधान इसप्रकार है :
अध्यवसानके निषेधके लिये बाह्यवस्तुका निषेध किया जाता
है अध्यवसानको बाह्यवस्तु आश्रयभूत है; बाह्यवस्तुका आश्रय किये बिना अध्यवसान अपने

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वीरसूसुतं हिनस्मीत्यध्यवसायो जायते तथा वन्ध्यासुतस्याश्रयभूतस्यासद्भावेऽपि वन्ध्यासुतं
हिनस्मीत्यध्यवसायो जायेत
न च जायते ततो निराश्रयं नास्त्यध्यवसानमिति नियमः तत
एव चाध्यवसानाश्रयभूतस्य बाह्यवस्तुनोऽत्यन्तप्रतिषेधः, हेतुप्रतिषेधेनैव हेतुमत्प्रतिषेधात् न च
बन्धहेतुहेतुत्वे सत्यपि बाह्यवस्तु बन्धहेतुः स्यात्, ईर्यासमितिपरिणतयतीन्द्रपदव्यापाद्यमान-
वेगापतत्कालचोदितकुलिंगवत्, बाह्यवस्तुनो बन्धहेतुहेतोरबन्धहेतुत्वेन बन्धहेतुत्वस्यानैकांतिक-
त्वात्
अतो न बाह्यवस्तु जीवस्यातद्भावो बन्धहेतुः, अध्यवसानमेव तस्य तद्भावो बन्धहेतुः
स्वरूपको प्राप्त नहीं होता अर्थात् उत्पन्न नहीं होता यदि बाह्यवस्तुके आश्रयके बिना भी
अध्यवसान उत्पन्न होता हो तो, जैसे आश्रयभूत वीरजननीके पुत्रके सद्भावमें (किसीको) ऐसा
अध्यवसाय उत्पन्न होता है कि ‘मैं वीरजननीके पुत्रको मारता हूँ’ इसीप्रकार आश्रयभूत
बँध्यापुत्रके असद्भावमें भी (किसीको) ऐसा अध्यवसाय उत्पन्न होना चाहिए कि ‘मैं
बँध्यापुत्रको मारता हूँ’
परन्तु ऐसा अध्यवसाय तो (किसीको) उत्पन्न नहीं होता (जहाँ
बँध्याका पुत्र ही नहीं होता वहाँ मारनेका अध्यवसाय कहाँसे उत्पन्न होगा ?) इसलिये यह नियम
है कि (बाह्यवस्तुरूप) आश्रयके बिना अध्यवसान नहीं होता
और इसीलिये अध्यवसानको
आश्रयभूत बाह्यवस्तुका अत्यन्त निषेध किया है, क्योंकि कारणके प्रतिषेधसे ही कार्यका प्रतिषेध
होता है
(बाह्यवस्तु अध्यवसानका कारण है, इसलिये उसके प्रतिषेधसे अध्यवसानका प्रतिषेध
होता है) परन्तु, यद्यपि बाह्यवस्तु बन्धके कारणका (अर्थात् अध्यवसानका) कारण है तथापि
वह (बाह्यवस्तु) बन्धका कारण नहीं है; क्योंकि ईर्यासमितिमें परिणमित मुनीन्द्रके चरणसे मर
जानेवाले
ऐसे किसी वेगसे आपतित कालप्रेरित उड़ते हुए जीवकी भाँति, बाह्यवस्तुजो कि
बन्धके कारणका कारण है वहबन्धका कारण न होनेसे, बाह्यवस्तुको बन्धका कारणत्व
माननेमें अनैकान्तिक हेत्वाभासत्व हैव्यभिचार आता है (इसप्रकार निश्चयसे बाह्यवस्तुको
बन्धका कारणत्व निर्बाधतया सिद्ध नहीं होता ) इसलिये बाह्यवस्तु जो कि जीवको
अतद्भावरूप है वह बन्धका कारण नहीं है; किन्तु अध्यवसान जो कि जीवको तद्भावरूप है
वहीं बन्धका कारण है
भावार्थ :बन्धका कारण निश्चयसे अध्यवसान ही है; और बाह्यवस्तुएँ हैं वे
अध्यवसानका आलम्बन हैंउनको अवलम्बकर अध्यवसान उत्पन्न होता है, इसलिये उन्हें
अध्यवसानका कारण कहा जाता है बाह्यवस्तुके बिना निराश्रयतया अध्यवसान उत्पन्न नहीं होते,
इसलिये बाह्यवस्तुओंका त्याग कराया जाता है यदि बाह्यवस्तुओंको बन्धका कारण कहा जाये
तो उसमें व्यभिचार (दोष) आता है (कारण होने पर भी कहीं कार्य दिखाई देता है और कहीं
नहीं दिखाई देता, उसे व्यभिचार कहते हैं और ऐसे कारणको व्यभिचारीअनैकान्तिक

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एवं बन्धहेतुत्वेन निर्धारितस्याध्यवसानस्य स्वार्थक्रियाकारित्वाभावेन मिथ्यात्वं
दर्शयति
दुक्खिदसुहिदे जीवे करेमि बंधेमि तह विमोचेमि
जा एसा मूढमदी णिरत्थया सा हु दे मिच्छा ।।२६६।।
दुःखितसुखितान् जीवान् करोमि बन्धयामि तथा विमोचयामि
या एषा मूढमतिः निरर्थिका सा खलु ते मिथ्या ।।२६६।।
परान् जीवान् दुःखयामि सुखयामीत्यादि, बन्धयामि मोचयामीत्यादि वा, यदेतदध्यवसानं
तत्सर्वमपि, परभावस्य परस्मिन्नव्याप्रियमाणत्वेन स्वार्थक्रियाकारित्वाभावात्, खकुसुमं
कारणाभास कहते हैं ) कोई मुनि ईर्यासमितिपूर्वक यत्नसे गमन करते हों और उनके पैरके नीचे
कोई उड़ता हुआ जीव वेगपूर्वक आ गिरे तथा मर जाये तो मुनिको हिंसा नहीं लगती यहाँ यदि
बाह्यदृष्टिसे देखा जाये तो हिंसा हुई है, परन्तु मुनिके हिंसाका अध्यवसाय नहीं होनेसे उन्हें बन्ध
नहीं होता
जैसे पैरके नीचे आकर मर जानेवाला जीव मुनिके बन्धका कारण नहीं है, उसीप्रकार
अन्य बाह्यवस्तुओंके सम्बन्धमें भी समझना चाहिए इसप्रकार बाह्यवस्तुको बन्धका कारण माननेमें
व्यभिचार आता है, इसलिये बाह्यवस्तु बन्धका कारण नहीं है यह सिद्ध हुआ और बाह्यवस्तु बिना
निराश्रयसे अध्यवसान नहीं होते, इसलिये बाह्यवस्तुका निषेध भी है ही ।।२६५।।
इसप्रकार बन्धके कारणरूपसे निश्चित किया गया अध्यवसान अपनी अर्थक्रिया करनेवाला
न होनेसे मिथ्या हैयह अब बतलाते हैं :
करता दुखी-सुखि जीवको, अरु बद्ध-मुक्त करूँ अरे !
यह मूढ मति तुझ है निरर्थक, इस हि से मिथ्या हि है
।।२६६।।
गाथार्थ :हे भाई ! ‘[जीवान् ] मैं जीवोंको [दुःखितसुखितान् ] दुःखी-सुखी
[करोमि ] करता हूँ, [बन्धयामि ] बन्धाता हूँ [तथा विमोचयामि ] तथा छुड़ाता हूँ, [या एषा ते
मूढमतिः ]
ऐसी जो यह तेरी मूढ मति (
मोहित बुद्धि) है [सा ] वह [निरर्थिका ] निरर्थक होनेसे
[खलु ] वास्तवमें [मिथ्या ] मिथ्या है
टीका :मैं पर जीवोंको दुःखी करता हूँ, सुखी करता हूँ इत्यादि तथा बँधाता हूँ, छुड़ाता
हूँ इत्यादि जो यह अध्यवसान है वह सब ही, परभावका परमें व्यापार न होनेके कारण अपनी

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लुनामीत्यध्यवसानवन्मिथ्यारूपं, केवलमात्मनोऽनर्थायैव
कुतो नाध्यवसानं स्वार्थक्रियाकारीति चेत्
अज्झवसाणणिमित्तं जीवा बज्झंति कम्मणा जदि हि
मुच्चंति मोक्खमग्गे ठिदा य ता किं करेसि तुमं ।।२६७।।
अध्यवसाननिमित्तं जीवा बध्यन्ते कर्मणा यदि हि
मुच्यन्ते मोक्षमार्गे स्थिताश्च तत् किं करोषि त्वम् ।।२६७।।
यत्किल बन्धयामि मोचयामीत्यध्यवसानं तस्य हि स्वार्थक्रिया यद्बन्धनं मोचनं
जीवानाम् जीवस्त्वस्याध्यवसायस्य सद्भावेऽपि सरागवीतरागयोः स्वपरिणामयोः अभावान्न बध्यते,
अर्थक्रिया करनेवाला नहीं है इसलिए, ‘मैं आकाश-पुष्पको तोड़ता हूँ’ ऐसे अध्यवसानकी भाँति
मिथ्यारूप है, मात्र अपने अनर्थके लिये ही है (अर्थात् मात्र अपने लिये ही हानिका कारण होता
है, परका तो कुछ कर नहीं सकता )
भावार्थ :जो अपनी अर्थक्रिया (प्रयोजनभूत क्रिया) नहीं कर सकता वह निरर्थक
है, अथवा जिसका विषय नहीं है वह निरर्थक है जीव परजीवोंको दुःखी-सुखी आदि करनेकी
बुद्धि करता है, परन्तु परजीव अपने किये दुःखी-सुखी नहीं होते; इसलिए वह बुद्धि निरर्थक है
और निरर्थक होनेसे मिथ्या है
झूँठी है ।।२६६।।
अब यह प्रश्न होता है कि अध्यवसान अपनी अर्थक्रिया करनेवाला कैसे नहीं है ? इसका
उत्तर कहते हैं :
सब जीव अध्यवसानकारण, कर्मसे बँधते जहाँ
अरु मोक्षमग थित जीव छूटें, तू हि क्या करता भला ? ।।२६७।।
गाथार्थ :हे भाई ! [यदि हि ] यदि वास्तवमें [अध्यवसाननिमित्तं ] अध्यवसानके
निमित्तसे [जीवाः ] जीव [कर्मणा बध्यन्ते ] क र्मसे बन्धते हैं [च ] और [मोक्षमार्गे स्थिताः ]
मोक्षमार्गमें स्थित [मुच्यन्ते ] छूटते हैं, [तद् ] तो [त्वम् किं करोषि ] तू क्या करता है ? (तेरा
तो बाँधने-छोड़नेका अभिप्राय व्यर्थ गया
)
टीका :‘मैं बँधाता हूँ, छुड़ाता हूँ’ ऐसा जो अध्यवसान उसकी अपनी अर्थक्रिया
जीवोंको बाँधना, छोड़ना है किन्तु जीव तो, इस अध्यवसायका सद्भाव होने पर भी, अपने
सराग-वीतराग परिणामके अभावसे नहीं बँधता, नहीं मुक्त होता; तथा अपने सराग-वीतराग

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न मुच्यते; सरागवीतरागयोः स्वपरिणामयोः सद्भावात्तस्याध्यवसायस्याभावेऽपि बध्यते, मुच्यते च
ततः परत्राकिंचित्करत्वान्नेदमध्यवसानं स्वार्थक्रियाकारि; ततश्च मिथ्यैवेति भावः
(अनुष्टुभ्)
अनेनाध्यवसायेन निष्फलेन विमोहितः
तत्किञ्चनापि नैवास्ति नात्मात्मानं करोति यत् ।।१७१।।
सव्वे करेदि जीवो अज्झवसाणेण तिरियणेरइए
देवमणुए य सव्वे पुण्णं पावं च णेयविहं ।।२६८।।
परिणामके सद्भावसे, उस अध्यवसायका अभाव होने पर भी, बँधता है, छूटता है इसलिये परमें
अकिंचित्कर होनेसे (अर्थात् कुछ नहीं कर सकता होनेसे) यह अध्यवसान अपनी अर्थक्रिया
करनेवाला नहीं है; और इसलिये मिथ्या ही है
ऐसा भाव (आशय) है
भावार्थ :जो हेतु कुछ भी नहीं करता वह अकिंचित्कर कहलाता है यह बाँधने-
छोड़नेका अध्यवसान भी परमें कुछ नहीं करता; क्योंकि यदि वह अध्यवसान न हो तो भी जीव
अपने सराग-वीतराग परिणामसे बन्ध-मोक्षको प्राप्त होता है, और वह अध्यवसान हो तो भी अपने
सराग-वीतराग परिणामके अभावसे बन्ध-मोक्षको प्राप्त नहीं होता
इसप्रकार अध्यवसान परमें
अकिंचित्कर होनेसे स्व-अर्थक्रिया करनेवाला नहीं है और इसलिये मिथ्या है ।।२६७।।
अब इस अर्थका कलशरूप और आगामी कथनका सूचक श्लोक कहते हैं :
श्लोकार्थ :[अनेन निष्फलेन अध्यवसायेन मोहितः ] इस निष्फल (निरर्थक)
अध्यवसायसे मोहित होता हुआ [आत्मा ] आत्मा [तत् किञ्चन अपि न एव अस्ति यत् आत्मानं
न करोति ]
अपनेको सर्वरूप क रता है,
ऐसा कुछ भी नहीं है जिसरूप अपनेको न करता हो
भावार्थ :यह आत्मा मिथ्या अभिप्रायसे भूला हुआ चतुर्गति-संसारमें जितनी अवस्थाएँ
हैं, जितने पदार्थ हैं उन सर्वरूप अपनेको हुआ मानता है; अपने शुद्ध स्वरूपको नहीं
पहिचानता
।१७१।
अब इस अर्थको स्पष्टतया गाथामें कहते हैं :
तिर्यंच, नारक, देव, मानव, पुण्य-पाप अनेक जे
उन सर्वरूप करै जु निजको, जीव अध्यवसानसे ।।२६८।।

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धम्माधम्मं च तहा जीवाजीवे अलोगलोगं च
सव्वे करेदि जीवो अज्झवसाणेण अप्पाणं ।।२६९।।
सर्वान् करोति जीवोऽध्यवसानेन तिर्यङ्नैरयिकान्
देवमनुजांश्च सर्वान् पुण्यं पापं च नैकविधम् ।।२६८।।
धर्माधर्मं च तथा जीवाजीवौ अलोकलोकं च
सर्वान् करोति जीवः अध्यवसानेन आत्मानम् ।।२६९।।
यथायमेवं क्रियागर्भहिंसाध्यवसानेन हिंसकं, इतराध्यवसानैरितरं च आत्मात्मानं कुर्यात्,
तथा विपच्यमाननारकाध्यवसानेन नारकं, विपच्यमानतिर्यगध्यवसानेन तिर्यंच, विपच्यमान-
मनुष्याध्यवसानेन मनुष्यं, विपच्यमानदेवाध्यवसानेन देवं, विपच्यमानसुखादिपुण्याध्यवसानेन
अरु त्यों ही धर्म-अधर्म, जीव-अजीव, लोक-अलोक जे
उन सर्वरूप करै जु निजको, जीव अध्यवसानसे ।।२६९।।
गाथार्थ :[जीवः ] जीव [अध्यवसानेन ] अध्यवसानसे [तिर्यङ्नैरयिकान् ] तिर्यंच,
नारक , [देवमनुजान् च ] देव और मनुष्य [सर्वान् ] इन सर्व पर्यायों, [च ] तथा [नैकविधम् ]
अनेक प्रकारके [पुण्यं पापं ] पुण्य और पाप
[सर्वान् ] इन सबरूप [करोति ] अपनेको करता
है [तथा च ] और उसीप्रकार [जीवः ] जीव [अध्यवसानेन ] अध्यवसानसे [धर्माधर्मं ] धर्म-
अधर्म, [जीवाजीवौ ] जीव-अजीव [च ] और [अलोकलोकं ] लोक -अलोक [सर्वान् ] इन
सबरूप [आत्मानम् करोति ] अपनेको करता है
टीका :जैसे यह आत्मा पूर्वोक्त प्रकार क्रिया जिसका गर्भ है ऐसे हिंसाके
अध्यवसानसे अपनेको हिंसक करता है, (अहिंसाके अध्यवसानसे अपनेको अहिंसक करता है )
और अन्य अध्यवसानोंसे अपनेको अन्य करता है, इसीप्रकार उदयमें आते हुए नारकके
अध्यवसानसे अपनेको नारकी करता है, उदयमें आते हुए तिर्यंचके अध्यवसानसे अपनेको तिर्यंच
करता है, उदयमें आते हुए मनुष्यके अध्यवसानसे अपनेको मनुष्य करता है, उदयमें आते हुए देवके
अध्यवसानसे अपनेको देव करता है, उदयमें आते हुए सुख आदि पुण्यके अध्यवसानसे अपनेको
हिंसा आदिके अध्यवसान राग-द्वेषके उदयमय हनन आदिकी क्रियाओंसे भरे हुए हैं, अर्थात् उन क्रियाओंके
साथ आत्माकी तन्मयता होनेकी मान्यतारूप हैं

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पुण्यं, विपच्यमानदुःखादिपापाध्यवसानेन पापमात्मानं कुर्यात् तथैव च ज्ञायमानधर्माध्यवसानेन
धर्मं, ज्ञायमानाधर्माध्यवसानेनाधर्मं, ज्ञायमानजीवान्तराध्यवसानेन जीवान्तरं, ज्ञायमानपुद्गलाध्यव-
सानेन पुद्गलं, ज्ञायमानलोकाकाशाध्यवसानेन लोकाकाशं, ज्ञायमानालोकाकाशाध्यवसानेना-
लोकाकाशमात्मानं कुर्यात्
(इन्द्रवज्रा)
विश्वाद्विभक्तोऽपि हि यत्प्रभावा-
दात्मानमात्मा विदधाति विश्वम्
मोहैककन्दोऽध्यवसाय एष
नास्तीह येषां यतयस्त एव
।।१७२।।
पुण्यरूप करता है, और उदयमें आते हुए दुःख आदि पापके अध्यवसानसे अपनेको पापरूप करता
है, और इसीप्रकार जाननेमें आता हुआ जो धर्म (धर्मास्तिकाय) है उसके अध्यवसानसे अपनेको
धर्मरूप करता है, जाननेमें आते हुवे अधर्मके (-अधर्मास्तिकायके) अध्यवसानसे अपनेको
अधर्मरूप करता है, जाननेमें आते हुवे अन्य जीवके अध्यवसानसे अपनेको अन्यजीवरूप करता
है, जाननेमें आते हुवे पुद्गलके अध्यवसानसे अपनेको पुद्गलरूप करता है, जाननेमें आते हुवे
लोकाकाशके अध्यवसानसे अपनेको लोकाकाशरूप करता है, और जाननेमें आते हुवे
अलोकाकाशके अध्यवसानसे अपनेको अलोकाकाशरूप करता है, (इसप्रकार आत्मा
अध्यवसानसे अपनेको सर्वरूप करता है
)
भावार्थ :यह अध्यवसान अज्ञानरूप है, इसलिये उसे अपना परमार्थस्वरूप नहीं
जानना चाहिए उस अध्यवसानसे ही आत्मा अपनेको अनेक अवस्थारूप करता है अर्थात्
उनमें अपनापन मानकर प्रवर्तता है ।।२६८-२६९।।
अब इस अर्थका कलशरूप तथा आगामी कथनका सूचक काव्य कहते हैं :
श्लोकार्थ :[विश्वात् विभक्तः अपि हि ] विश्वसे (समस्त द्रव्योंसे) भिन्न होने
पर भी [आत्मा ] आत्मा [यत्-प्रभावात् आत्मानम् विश्वम् विदधाति ] जिसके प्रभावसे
अपनेको विश्वरूप करता है [एषः अध्यवसायः ] ऐसा यह अध्यवसाय
[मोह-एक-कन्दः ]
कि जिसका मोह ही एक मूल है वह[येषां इह नास्ति ] जिनके नहीं है [ते एव यतयः ]
वे ही मुनिे हैं ।१७२।
यह अध्यवसाय जिनके नहीं हैं वे मुनि कर्मसे लिप्त नहीं होतेयह अब गाथा द्वारा
कहते हैं :

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एदाणि णत्थि जेसिं अज्झवसाणाणि एवमादीणि
ते असुहेण सुहेण व कम्मेण मुणी ण लिप्पंति ।।२७०।।
एतानि न सन्ति येषामध्यवसानान्येवमादीनि
ते अशुभेन शुभेन वा कर्मणा मुनयो न लिप्यन्ते ।।२७०।।
एतानि किल यानि त्रिविधान्यध्यवसानानि तानि समस्तान्यपि शुभाशुभ-
कर्मबन्धनिमित्तानि, स्वयमज्ञानादिरूपत्वात् तथा हियदिदं हिनस्मीत्याद्यध्यवसानं तत्,
ज्ञानमयत्वेनात्मनः सदहेतुकज्ञप्त्येकक्रियस्य रागद्वेषविपाकमयीनां हननादिक्रियाणां च विशेषाज्ञानेन
विविक्तात्माज्ञानादस्ति तावदज्ञानं, विविक्तात्मादर्शनादस्ति च मिथ्यादर्शनं,
इन आदि अध्यवसान विधविध वर्तते नहिं जिनहिको
शुभ-अशुभ कर्म अनेकसे, मुनिराज वे नहिं लिप्त हों ।।२७०।।
गाथार्थ :[एतानि ] यह (पूर्व कथित) [एवमादीनि ] तथा ऐसे और भी
[अध्यवसानानि ] अध्यवसान [येषाम् ] जिनके [न सन्ति ] नहीं हैं, [ते मुनयः ] वे मुनि
[अशुभेन ] अशुभ [वा शुभेन ] या शुभ [कर्मणा ] क र्मसे [न लिप्यन्ते ] लिप्त नहीं होते
टीका :यह जो तीन प्रकारके अध्यवसान हैं वे सभी स्वयं अज्ञानादिरूप (अर्थात्
अज्ञान, मिथ्यादर्शन और अचारित्ररूप) होनेसे शुभाशुभ कर्मबन्धके निमित्त हैं इसे विशेष
समझाते हैं :‘मैं (परजीवोंको) मारता हूँ’ इत्यादि जो यह अध्यवसान है उस अध्यवसानवाले
जीवको, ज्ञानमयपनेके सद्भावसे सत्रूप, अहेतुक, ज्ञप्ति ही जिसकी एक क्रिया है ऐसे
आत्माका और रागद्वेषके उदयमय ऐसी हनन आदि क्रियाओंका विशेष नहीं जाननेके कारण
भिन्न आत्माका अज्ञान होनेसे, वह अध्यवसान प्रथम तो अज्ञान है, भिन्न आत्माका अदर्शन
१. सत्रूप = सत्तास्वरूप; अस्तित्वस्वरूप (आत्मा ज्ञानमय है, इसलिये सत्रूप अहेतुक ज्ञप्ति ही उसकी
एक क्रिया है )
२. अहेतुक = जिसका कोई कारण नहीं है ऐसी; अकारण; स्वयंसिद्ध; सहज
३. ज्ञप्ति = जानना; जाननेरूपक्रिया (ज्ञप्तिक्रिया सत्रूप है, और सत्रूप होनेसे अहेतुक है )
४. हनन = घात करना; घात करनेरूप क्रिया (घात करना आदि क्रियायें राग-द्वेषके उदयमय हैं )
५. विशेष = अन्तर; भिन्न लक्षण

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विविक्तात्मानाचरणादस्ति चाचारित्रम् [यत्पुनः नारकोऽहमित्याद्यध्यवसानं तदपि, ज्ञानमय-
त्वेनात्मनः सदहेतुकज्ञायकैकभावस्य कर्मोदयजनितानां नारकादिभावानां च विशेषाज्ञानेन
विविक्तात्माज्ञानादस्ति तावदज्ञानं, विविक्तात्मादर्शनादस्ति च मिथ्यादर्शनं, विविक्तात्माना-
चरणादस्ति चाचारित्रम्
] यत्पुनरेष धर्मो ज्ञायत इत्याद्यध्यवसानं तदपि, ज्ञानमयत्वेनात्मनः
सदहेतुकज्ञानैकरूपस्य ज्ञेयमयानां धर्मादिरूपाणां च विशेषाज्ञानेन विविक्तात्माज्ञानादस्ति
तावदज्ञानं, विविक्तात्मादर्शनादस्ति च मिथ्यादर्शनं, विविक्तात्मानाचरणादस्ति चाचारित्रम्
ततो
बन्धनिमित्तान्येवैतानि समस्तान्यध्यवसानानि येषामेवैतानि न विद्यन्ते त एव मुनिकुंजराः
केचन, सदहेतुकज्ञप्त्येकक्रियं, सदहेतुकज्ञायकैकभावं, सदहेतुकज्ञानैकरूपं च विविक्त मात्मानं
जानन्तः सम्यक्पश्यन्तोऽनुचरन्तश्च, स्वच्छस्वच्छन्दोद्यदमन्दान्तर्ज्योतिषोऽत्यन्तमज्ञानादिरूपत्वा-
51
(अश्रद्धान) होनेसे (वह अध्यवसान) मिथ्यादर्शन है और भिन्न आत्माका अनाचरण होनेसे
(वह अध्यवसान) अचारित्र है
[और ‘मैं नारक हूँ’ इत्यादि जो अध्यवसान है उस
अध्यवसानवाले जीवको भी, ज्ञानमयपनेके सद्भावसे सत्रूप अहेतुक ज्ञायक ही जिसका एक
भाव है, ऐसे आत्माका और कर्मोदयजनित नारक आदि भावोंका विशेष न जाननेके कारण
भिन्न आत्माका अज्ञान होनेसे, वह अध्यवसान प्रथम जो अज्ञान है, भिन्न आत्माका अदर्शन
होनेसे (वह अध्यवसान) मिथ्यादर्शन है और भिन्न आत्माका अनाचरण होनेसे (वह
अध्यवसान) अचारित्र है
]] और ‘यह धर्मद्रव्य ज्ञात होता है’ इत्यादि जो अध्यवसान है उस
अध्यवसानवाले जीवको भी, ज्ञानमयपनेके सद्भावसे सत्रूप अहेतुक ज्ञान ही जिसका एक
रूप है ऐसे आत्माका और ज्ञेयमय धर्मादिकरूपोंका विशेष न जाननेके कारण भिन्न आत्माका
अज्ञान होनेसे, वह अध्यवसान प्रथम तो अज्ञान है, भिन्न आत्माका अदर्शन होनेसे (वह
अध्यवसान) मिथ्यादर्शन है और भिन्न आत्माका अनाचरण होनेसे (वह अध्यवसान) अचारित्र
है
इसलिये यह समस्त अध्यवसान बन्धके ही निमित्त हैं
मात्र जिनके यह अध्यवसान विद्यमान नहीं है, वे ही कोई (विरल) मुनिकुंजर
(मुनिवर), सत्रूप अहेतुक ज्ञप्ति ही जिनकी एक क्रिया है, सत्रूप अहेतुक ज्ञायक ही
जिसका एक भाव है और सत्रूप अहेतुक ज्ञान ही जिसका एक रूप है ऐसे भिन्न आत्माको
(
सर्व अन्यद्रव्यभावोंसे भिन्न आत्माको) जानते हुए, सम्यक् प्रकारसे देखते (श्रद्धा करते)
हुए और अनुचरण करते हुए, स्वच्छ और स्वच्छन्दतया उदयमान (स्वाधीनतया प्रकाशमान)
ऐसी अमंद अन्तर्ज्योतिको अज्ञानादिरूपताका अत्यंत अभाव होनेसे (अर्थात् अन्तरंगमें प्रकाशित
*१. आत्मा ज्ञानमय है, इसलिये सत्रूप अहेतुक ज्ञान ही उसका एक रूप है

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भावात्, शुभेनाशुभेन वा कर्मणा न खलु लिप्येरन्
किमेतदध्यवसानं नामेति चेत्
बुद्धी ववसाओ वि य अज्झवसाणं मदी य विण्णाणं
एक्कट्ठमेव सव्वं चित्तं भावो य परिणामो ।।२७१।।
बुद्धिर्व्यवसायोऽपि च अध्यवसानं मतिश्च विज्ञानम्
एकार्थमेव सर्वं चित्तं भावश्च परिणामः ।।२७१।।
होती हुई ज्ञानज्योति किंचित् मात्र भी अज्ञानरूप, मिथ्यादर्शनरूप और अचारित्ररूप नहीं होती
इसलिए), शुभ या अशुभ कर्मसे वास्तवमें लिप्त नहीं होते
भावार्थ :यह जो अध्यवसान हैं वे ‘मैं परका हनन करता हूँ’ इसप्रकारके हैं, ‘मैं
नारक हूँ’ इसप्रकारके हैं तथा ‘मैं परद्रव्यको (अपनेरूप) जानता हूँ’ इसप्रकारके हैं वे,
जब तक आत्माका और रागादिका, आत्माका और नारकादि कर्मोदयजनित भावोंका तथा
आत्माका और ज्ञेयरूप अन्यद्रव्योंका भेद न जानता हो, तब तक रहते हैं
वे भेदज्ञानके
अभावके कारण मिथ्याज्ञानरूप हैं, मिथ्यादर्शनरूप हैं और मिथ्याचारित्ररूप हैं; यों तीन
प्रकारके होते हैं
वे अध्यवसान जिनके नहीं हैं वे मुनिकुंजर हैं वे आत्माको सम्यक् जानते
हैं, सम्यक् श्रद्धा करते हैं और सम्यक् आचरण करते हैं, इसलिये अज्ञानके अभावसे
सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्ररूप होते हुए कर्मोंसे लिप्त नहीं होते
।।२७०।।
‘‘यहाँ बारम्बार अध्यवसान शब्द कहा गया है, वह अध्यवसान क्या है ? उसका
स्वरूप भलीभाँति समझमें नहीं आया’’ ऐसा प्रश्न होने पर, अब अध्यवसानका स्वरूप
गाथा द्वारा कहते हैं
जो बुद्धि, मति, व्यवसाय, अध्यवसान, अरु विज्ञान है
परिणाम, चित्त रु भावशब्दहि सर्व ये एकार्थ हैं ।।२७१।।
गाथार्थ :[बुद्धिः ] बुद्धि, [व्यवसायः अपि च ] व्यवसाय, [अध्यवसानं ]
अध्यवसान, [मतिः च ] मति, [विज्ञानम् ] विज्ञान, [चित्तं ] चित्त, [भावः ] भाव [च ] और
[परिणामः ] परिणाम
[सर्वं ] ये सब [एकार्थम् एव ] एकार्थ ही हैं (अर्थात् नाम अलग
अलग हैं, किन्तु अर्थ भिन्न नहीं हैं )

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स्वपरयोरविवेके सति जीवस्याध्यवसितिमात्रमध्यवसानं; तदेव च बोधनमात्रत्वाद्बुद्धिः,
व्यवसानमात्रत्वाद्वयवसायः, मननमात्रत्वान्मतिः, विज्ञप्तिमात्रत्वाद्विज्ञानं, चेतनामात्रत्वाच्चित्तं, चितो
भवनमात्रत्वाद्भावः, चितः परिणमनमात्रत्वात्परिणामः
(शार्दूलविक्रीडित)
सर्वत्राध्यवसानमेवमखिलं त्याज्यं यदुक्तं जिनै-
स्तन्मन्ये व्यवहार एव निखिलोऽप्यन्याश्रयस्त्याजितः
सम्यङ्निश्चयमेकमेव तदमी निष्कम्पमाक्रम्य किं
शुद्धज्ञानघने महिम्नि न निजे बध्नन्ति सन्तो धृतिम्
।।१७३।।
१. अध्यवसिति = (एकमें दूसरेकी मान्यतापूर्वक) परिणति; (मिथ्या) निश्चिति; (मिथ्या) निश्चय होना
२. व्यवसान = काममें लगे रहना; उद्यमी होना; निश्चय होना
३. मनन = मानना; जानना
टीका :स्व-परका अविवेक हो (स्व-परका भेदज्ञान न हो) तब जीवकी
अध्यवसितिमात्र अध्यवसान है; और वही (जिसे अध्यवसान कहा है वही) बोधनमात्रत्वसे बुद्धि
है, व्यवसानमात्रत्वसे व्यवसाय है, मननमात्रत्वसे मति है, विज्ञप्तिमात्रत्वसे विज्ञान है,
चेतनामात्रत्वसे चित्त है, चेतनके भवनमात्रत्वसे भाव है, चेतनके परिणमनमात्रत्वसे परिणाम है
(इसप्रकार यह सब शब्द एकार्थवाची हैं )
भावार्थ :यह तो बुद्धि आदि आठ नाम कहे गये हैं, वे सभी चेतन आत्माके परिणाम
हैं जब तक स्व-परका भेदज्ञान न हो तब तक जीवके जो अपने और परके एकत्वके निश्चयरूप
परिणति पाई जाती है उसे बुद्धि आदि आठ नामोंसे कहा जाता है ।।२७१।।
‘अध्यवसान त्यागने योग्य कहे हैं इससे ऐसा ज्ञात होता है कि व्यवहारका
त्याग और निश्चयका ग्रहण कराया है’इस अर्थका, एवं आगामी कथनका सूचक काव्य
कहते हैं :
श्लोकार्थ :आचार्यदेव कहते हैं कि :[सर्वत्र यद् अध्यवसानम् ] सर्व वस्तुओंमें जो
अध्यवसान होते हैं, [अखिलं ] वे सभी (अध्यवसान) [जिनैः ] जिनेन्द्र भगवानने [एवम् ]
पूर्वाेक्त रीतिसे [त्याज्यं उक्तं ] त्यागने योग्य कहे हैं, [तत् ] इसलिये [मन्ये ] हम यह मानते
हैं कि [अन्य-आश्रयः व्यवहारः एव निखिलः अपि त्याजितः ] ‘पर जिसका आश्रय है ऐसा
व्यवहार ही सम्पूर्ण छुड़ाया है’
[तत् ] तब फि र, [अमी सन्तः ] यह सत्पुरुष [एकम् सम्यक्

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एवं ववहारणओ पडिसिद्धो जाण णिच्छयणएण
णिच्छयणयासिदा पुण मुणिणो पावंति णिव्वाणं ।।२७२।।
एवं व्यवहारनयः प्रतिषिद्धो जानीहि निश्चयनयेन
निश्चयनयाश्रिताः पुनर्मुनयः प्राप्नुवन्ति निर्वाणम् ।।२७२।।
आत्माश्रितो निश्चयनयः, पराश्रितो व्यवहारनयः तत्रैवं निश्चयनयेन पराश्रितं
समस्तमध्यवसानं बन्धहेतुत्वेन मुमुक्षोः प्रतिषेधयता व्यवहारनय एव किल प्रतिषिद्धः, तस्यापि
निश्चयम् एव निष्कम्पम् आक्रम्य ] एक सम्यक् निश्चयको ही निश्चलतया अंगीकार क रके
[शुद्धज्ञानघने निजे महिम्नि ] शुद्धज्ञानघनस्वरूप निज महिमामें (
आत्मस्वरूपमें) [धृतिम् किं न
बध्नन्ति ] स्थिरता क्यों धारण नहीं करते ?
भावार्थ :जिनेन्द्रदेवने अन्य पदार्थोंमें आत्मबुद्धिरूप अध्यवसान छुड़ाये हैं, इससे यह
समझना चाहिए कि यह समस्त पराश्रित व्यवहार ही छुड़ाया है इसलिये आचार्यदेवने शुद्धनिश्चयके
ग्रहणका ऐसा उपदेश दिया है कि‘शुद्धज्ञानस्वरूप अपने आत्मामें स्थिरता रखो’ और, ‘‘जब
कि भगवानने अध्यवसान छुड़ाये हैं तब फि र सत्पुरुष निश्चयको निश्चलतापूर्वक अंगीकार करके
स्वरूपमें स्थिर क्यों नहीं होते ?
यह हमें आश्चर्य होता है’’ यह कहकर आचार्यदेवने आश्चर्य प्रगट
किया है ।१७३।
अब इसी अर्थको गाथा द्वारा कहते हैं :
व्यवहारनय इस रीत जान, निषिद्ध निश्चयनयहिसे
मुनिराज जो निश्चयनयाश्रित, मोक्षकी प्राप्ती करे ।।२७२।।
गाथार्थ :[एवं ] इसप्रकार [व्यवहारनयः ] (पराश्रित) व्यवहारनय [निश्चयनयेन ]
निश्चयनयके द्वारा [प्रतिषिद्धः जानीहि ] निषिद्ध जान; [पुनः निश्चयनयाश्रिताः ] निश्चयनयके आश्रित
[मुनयः ] मुनिे [निर्वाणम् ] निर्वाणको [प्राप्नुवन्ति ] प्राप्त होते हैं
टीका :आत्माश्रित (अर्थात् स्व-आश्रित) निश्चयनय है, पराश्रित (अर्थात् परके
आश्रित) व्यवहारनय है वहाँ, पूर्वोक्त प्रकारसे पराश्रित समस्त अध्यवसान (अर्थात् अपने और
परके एकत्वकी मान्यतापूर्वक परिणमन) बन्धका कारण होनेसे मुमुक्षुओंको उसका
(
अध्यवसानका) निषेध करते हुए ऐसे निश्चयनयके द्वारा वास्तवमें व्यवहारनयका ही निषेध
किया गया है, क्योंकि व्यवहारनयके भी पराश्रितता समान ही है (जैसे अध्यवसान पराश्रित

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पराश्रितत्वाविशेषात् प्रतिषेध्य एव चायं, आत्माश्रितनिश्चयनयाश्रितानामेव मुच्यमानत्वात्,
पराश्रितव्यवहारनयस्यैकान्तेनामुच्यमानेनाभव्येनाप्याश्रीयमाणत्वाच्च
कथमभव्येनाप्याश्रीयते व्यवहारनयः इति चेत्
वदसमिदीगुत्तीओ सीलतवं जिणवरेहि पण्णत्तं
कुव्वंतो वि अभव्वो अण्णाणी मिच्छदिट्ठी दु ।।२७३।।
व्रतसमितिगुप्तयः शीलतपो जिनवरैः प्रज्ञप्तम्
कुर्वन्नप्यभव्योऽज्ञानी मिथ्याद्रष्टिस्तु ।।२७३।।
है उसीप्रकार व्यवहारनय भी पराश्रित है, उसमें अन्तर नहीं है) और इसप्रकार यह व्यवहारनय
निषेध करने योग्य ही है; क्योंकि आत्माश्रित निश्चयनयका आश्रय करनेवाले ही (कर्मसे) मुक्त
होते हैं और पराश्रित व्यवहारनयका आश्रय तो एकान्ततः मुक्त नहीं होनेवाला अभव्य भी
करता है
भावार्थ :आत्माके परके निमित्तसे जो अनेक भाव होते हैं वे सब व्यवहारनयके
विषय हैं, इसलिये व्यवहारनय पराश्रित है, और जो एक अपना स्वाभाविक भाव है वही
निश्चयनयका ही विषय है इसलिये निश्चयनय आत्माश्रित है
अध्यवसान भी व्यवहारनयका ही
विषय है, इसलिये अध्यवसानका त्याग व्यवहारनयका ही त्याग है, और जो पूर्वोक्त गाथाओंमें
अध्यवसानके त्यागका उपदेश है वह व्यवहारनयके ही त्यागका उपदेश है
इसप्रकार
निश्चयनयको प्रधान करके व्यवहारनयके त्यागका उपदेश किया है उसका कारण यह है कि
जो निश्चयनयके आश्रयसे प्रवर्तते हैं, वे ही कर्मसे मुक्त होते हैं और जो एकान्तमें व्यवहारनयके
ही आश्रयसे प्रवर्तते हैं, वे कर्मसे कभी मुक्त नहीं होते
।।२७२।।
अब प्रश्न होता है कि अभव्य जीव भी व्यवहारनयका आश्रय कैसे करता है ? उसका
उत्तर गाथा द्वारा कहते हैं :
जिनवरप्ररूपित व्रत, समिति, गुप्ती अवरु तप शीलको
करता हुआ भी अभव्य जीव, अज्ञानी मिथ्यादृष्टि है ।।२७३।।
गाथार्थ :[जिनवरैः ] जिनवरोंके द्वारा [प्रज्ञप्तम् ] कथित [व्रतसमितिगुप्तयः ] व्रत,
समिति, गुप्ति, [शीलतपः ] शील और तप [कुर्वन् अपि ] क रता हुआ भी [अभव्यः ] अभव्य

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शीलतपःपरिपूर्णं त्रिगुप्तिपंचसमितिपरिकलितमहिंसादिपंचमहाव्रतरूपं व्यवहारचारित्रं
अभव्योऽपि कुर्यात्, तथापि च निश्चारित्रोऽज्ञानी मिथ्याद्रष्टिरेव, निश्चयचारित्रहेतुभूतज्ञानश्रद्धान-
शून्यत्वात्
तस्यैकादशांगज्ञानमस्ति इति चेत्
मोक्खं असद्दहंतो अभवियसत्तो दु जो अधीएज्ज
पाठो ण करेदि गुणं असद्दहंतस्स णाणं तु ।।२७४।।
मोक्षमश्रद्दधानोऽभव्यसत्त्वस्तु योऽधीयीत
पाठो न करोति गुणमश्रद्दधानस्य ज्ञानं तु ।।२७४।।
मोक्षं हि न तावदभव्यः श्रद्धत्ते, शुद्धज्ञानमयात्मज्ञानशून्यत्वात् ततो ज्ञानमपि नासौ
जीव [अज्ञानी ] अज्ञानी [मिथ्यादृष्टिः तु ] और मिथ्यादृष्टि है
टीका :शील और तपसे परिपूर्ण, तीन गुप्ति और पाँच समितियोंके प्रति सावधानीसे
युक्त, अहिंसादि पाँच महाव्रतरूप व्यवहारचारित्र (का पालन) अभव्य भी करता है; तथापि वह
(अभव्य) निश्चारित्र (-चारित्ररहित), अज्ञानी और मिथ्यादृष्टि ही है, क्योंकि (वह) निश्चयचारित्रके
कारणरूप ज्ञान
श्रद्धानसे शून्य है
भावार्थ :अभव्य जीव महाव्रत-समिति-गुप्तिरूप व्यवहार चारित्रका पालन करे तथापि
निश्चय सम्यग्ज्ञानश्रद्धानके बिना वह चारित्र ‘सम्यक् चारित्र’ नामको प्राप्त नहीं होता; इसलिये वह
अज्ञानी, मिथ्यादृष्टि और निश्चारित्र ही है
।।२७३।।
अब शिष्य पूछता है किउसे (अभव्यको) ग्यारह अंगका ज्ञान तो होता है; फि र भी
उसको अज्ञानी क्यों कहा है ? इसका उत्तर कहते हैं :
मोक्षकी श्रद्धाविहीन, अभव्य जीव शास्त्रों पढ़ै
पर ज्ञानकी श्रद्धारहितको, पठन ये नहिं गुण करै ।।२७४।।
गाथार्थ :[मोक्षम् अश्रद्दधानः ] मोक्षकी श्रद्धा न करता हुआ [यः अभव्यसत्त्वः ] जो
अभव्य जीव है वह [तु अधीयीत ] शास्त्र तो पढ़ता है, [तु ] परन्तु [ज्ञानं अश्रद्दधानस्य ] ज्ञानकी
श्रद्धा न करनेवाले उसकोे [पाठः ] शास्त्रपठन [गुणम् न करोति ] गुण नहीं करता
टीका :प्रथम तो अभव्य जीव, (स्वयं) शुद्धज्ञानमय आत्माके ज्ञानसे शून्य होनेके

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श्रद्धत्ते ज्ञानमश्रद्दधानश्चाचाराद्येकादशांगंं श्रुतमधीयानोऽपि श्रुताध्ययनगुणाभावान्न ज्ञानी स्यात्
स किल गुणः श्रुताध्ययनस्य यद्विविक्त वस्तुभूतज्ञानमयात्मज्ञानं; तच्च विविक्त वस्तुभूतं ज्ञानम-
श्रद्दधानस्याभव्यस्य श्रुताध्ययनेन न विधातुं शक्येत
ततस्तस्य तद्गुणाभावः ततश्च
ज्ञानश्रद्धानाभावात् सोऽज्ञानीति प्रतिनियतः
तस्य धर्मश्रद्धानमस्तीति चेत्
सद्दहदि य पत्तेदि य रोचेदि य तह पुणो य फासेदि
धम्मं भोगणिमित्तं ण दु सो कम्मक्खयणिमित्तं ।।२७५।।
श्रद्दधाति च प्रत्येति च रोचयति च तथा पुनश्च स्पृशति
धर्मं भोगनिमित्तं न तु स कर्मक्षयनिमित्तम् ।।२७५।।
कारण, मोक्षकी ही श्रद्धा नहीं करता इसलिये वह ज्ञानकी भी श्रद्धा नहीं करता और ज्ञानकी
श्रद्धा न करता हुआ, वह (अभव्य) आचारांग आदि ग्यारह अंगरूप श्रुतको (शास्त्रोंको) पढ़ता
हुआ भी, शास्त्रपठनका जो गुण उसके अभावके कारण ज्ञानी नहीं है
जो भिन्नवस्तुभूत ज्ञानमय
आत्माका ज्ञान वह शास्त्रपठनका गुण है; और वह तो (ऐसा शुद्धात्मज्ञान तो), भिन्नवस्तुभूत
ज्ञानकी श्रद्धा न करनेवाले अभव्यके शास्त्रपठनके द्वारा नहीं किया जा सकता (अर्थात् शास्त्रपठन
उसको शुद्धात्मज्ञान नहीं कर सकता); इसलिये उसके शास्त्रपठनके गुणका अभाव है; और
इसलिये ज्ञान-श्रद्धानके अभावके कारण वह अज्ञानी सिद्ध हुआ
भावार्थ :अभव्य जीव ग्यारह अंगोंको पढ़े तथापि उसे शुद्ध आत्माका ज्ञान-श्रद्धान नहीं
होता; इसलिये उसे शास्त्रपठनने गुण नहीं किया; और इसलिये वह अज्ञानी ही है ।।२७४।।
शिष्य पुनः पूछता है किअभव्यको धर्मका श्रद्धान तो होता है; फि र भी यह क्यों कहा
है कि ‘उसके श्रद्धान नहीं है’ ? इसका उत्तर कहते हैं :
वह धर्मको श्रद्धे, प्रतीत, रुचि अरु स्पर्शन करे
सो भोगहेतू धर्मको, नहिं कर्मक्षयके हेतुको ।।२७५।।
गाथार्थ :[सः ] वह (अभव्य जीव) [ भोगनिमित्तं धर्मं ] भोगके निमित्तरूप धर्मकी
ही [श्रद्दधाति च ] श्रद्धा करता है, [प्रत्येति च ] उसीकी प्रतीति करता है, [रोचयति च ] उसीकी
रुचि करता है [तथा पुनः स्पृशति च ] और उसीका स्पर्श करता है, [न तु कर्मक्षयनिमित्तम् ]