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अभव्यो हि नित्यकर्मफलचेतनारूपं वस्तु श्रद्धत्ते, नित्यज्ञानचेतनामात्रं न तु श्रद्धत्ते, नित्यमेव भेदविज्ञानानर्हत्वात् । ततः स कर्ममोक्षनिमित्तं ज्ञानमात्रं भूतार्थं धर्मं न श्रद्धत्ते, भोग- निमित्तं शुभकर्ममात्रमभूतार्थमेव श्रद्धत्ते । तत एवासौ अभूतार्थधर्मश्रद्धानप्रत्ययनरोचनस्पर्शनै- रुपरितनग्रैवेयकभोगमात्रमास्कन्देत्, न पुनः कदाचनापि विमुच्येत । ततोऽस्य भूतार्थधर्म- श्रद्धानाभावात् श्रद्धानमपि नास्ति । एवं सति तु निश्चयनयस्य व्यवहारनयप्रतिषेधो युज्यत एव । परन्तु क र्मक्षयके निमित्तरूप धर्मकी नहीं । (अर्थात् क र्मक्षयके निमित्तरूप धर्मकी न तो श्रद्धा करता है, न उसकी प्रतीति करता है, न उसकी रुचि करता है और न उसका स्पर्श करता है ।)
टीका : — अभव्य जीव नित्यकर्मफलचेतनारूप वस्तुकी श्रद्धा करता है, किन्तु नित्यज्ञानचेतनामात्र वस्तुकी श्रद्धा नहीं करता, क्योंकि वह सदा ही (स्व-परके) भेदविज्ञानके अयोग्य है । इसिलये वह कर्मोंसे छूटनेके निमित्तरूप, ज्ञानमात्र, भूतार्थ (सत्यार्थ) धर्मकी श्रद्धा नहीं करता, (किन्तु) भोगके निमित्तरूप, शुभकर्ममात्र, अभूतार्थ धर्मकी ही श्रद्धा करता है; इसीलिये वह अभूतार्थ धर्मकी श्रद्धा, प्रतीति, रुचि और स्पर्शनसे ऊ परके ग्रैवेयक तकके भोगमात्रको प्राप्त होता है, किन्तु कभी भी कर्मसे मुक्त नहीं होता । इसलिये उसे भूतार्थ धर्मके श्रद्धानका अभाव होनेसे (यथार्थ) श्रद्धान भी नहीं है ।
भावार्थ : — अभव्य जीवके भेदज्ञान होनेकी योग्यता न होनेसे वह कर्मफलचेतनाको जानता है, किन्तु ज्ञानचेतनाको नहीं जानता; इसलिये उसे शुद्ध आत्मिक धर्मकी श्रद्धा नहीं है । वह शुभ कर्मको ही धर्म समझकर उसकी श्रद्धा करता है, इसलिये उसके फलस्वरूप ग्रैवेयक तकके भोगको प्राप्त होता है, किन्तु कर्मका क्षय नहीं होता । इसप्रकार सत्यार्थ धर्मका श्रद्धान न होनेसे उसके श्रद्धान ही नहीं कहा जा सकता ।
इसप्रकार व्यवहारनयके आश्रित अभव्य जीवको ज्ञान-श्रद्धान न होनेसे निश्चयनय द्वारा किया जानेवाला व्यवहारका निषेध योग्य ही है ।
यहाँ इतना विशेष जानना चाहिए कि — यह हेतुवादरूप अनुभवप्रधान ग्रन्थ है, इसलिये इसमें अनुभवकी अपेक्षासे भव्य-अभव्यका निर्णय है । अब यदि इसे अहेतुवाद आगमके साथ मिलायें तो — अभव्यको व्यवहारनयके पक्षका सूक्ष्म, केवलीगम्य आशय रह जाता है जो कि छद्मस्थको अनुभवगोचर नहीं भी होता, मात्र सर्वज्ञदेव जानते हैं; इसप्रकार केवल व्यवहारका पक्ष रहनेसे उसके सर्वथा एकान्तरूप मिथ्यात्व रहता है । इस व्यवहारनयके पक्षका आशय अभव्यके सर्वथा कभी भी मिटता ही नहीं है ।।२७५।।
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अब यह प्रश्न होता है कि ‘‘निश्चयनयके द्वारा निषेध्य व्यवहारनय, और व्यवहारनयका निषेधक निश्चयनय वे दोनों नय कैसे हैं ?’’ अतः व्यवहार और निश्चयका स्वरूप कहते हैं —
गाथार्थ : — [आचारादि ] आचाराँगादि शास्त्र [ज्ञानं ] ज्ञान है, [जीवादि ] जीवादि तत्त्व [दर्शनं विज्ञेयम् च ] दर्शन जानना चाहिए [च ] तथा [षड्जीवनिकायं ] छ जीव-निकाय [चरित्रं ] चारित्र है — [तथा तु ] ऐसा तो [व्यवहारः भणति ] व्यवहारनय कहता है ।
[खलु ] निश्चयसे [मम आत्मा ] मेरा आत्मा ही [ज्ञानम् ] ज्ञान है, [मे आत्मा ] मेरा आत्मा ही [दर्शनं चरित्रं च ] दर्शन और चारित्र है, [आत्मा ] मेरा आत्मा ही [प्रत्याख्यानम् ] प्रत्याख्यान है, [मे आत्मा ] मेरा आत्मा ही [संवरः योगः ] संवर और योग ( – समाधि, ध्यान) है ।
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त्वाद्दर्शनं, षड्जीवनिकायश्चारित्रस्याश्रयत्वाच्चारित्रमिति व्यवहारः । शुद्ध आत्मा ज्ञानाश्रयत्वाज्झानं, शुद्ध आत्मा दर्शनाश्रयत्वाद्दर्शनं, शुद्ध आत्मा चारित्राश्रयत्वाच्चारित्रमिति निश्चयः । तत्राचारादीनां ज्ञानाद्याश्रयत्वस्यानैकान्तिकत्वाद्वयवहारनयः प्रतिषेध्यः । निश्चयनयस्तु शुद्धस्यात्मनो ज्ञानाद्या- श्रयत्वस्यैकान्तिकत्वात्तत्प्रतिषेधकः । तथा हि — नाचारादिशब्दश्रुतमेकान्तेन ज्ञानस्याश्रयः, तत्सद्भावेऽप्यभव्यानां शुद्धात्माभावेन ज्ञानस्याभावात्; न च जीवादयः पदार्था दर्शनस्याश्रयः, तत्सद्भावेऽप्यभव्यानां शुद्धात्माभावेन दर्शनस्याभावात्; न च षड्जीवनिकायः चारित्रस्याश्रयः, तत्सद्भावेऽप्यभव्यानां शुद्धात्माभावेन चारित्रस्याभावात् । शुद्ध आत्मैव ज्ञानस्याश्रयः, आचारादिशब्दश्रुतसद्भावेऽसद्भावे वा तत्सद्भावेनैव ज्ञानस्य सद्भावात्; शुद्ध आत्मैव दर्शनस्याश्रयः, जीवादिपदार्थसद्भावेऽसद्भावे वा तत्सद्भावेनैव दर्शनस्य सद्भावात्; शुद्ध आत्मैव चारित्रस्याश्रयः, जीवादि नव पदार्थ दर्शन हैं, क्योंकि वे (नव पदार्थ) दर्शनके आश्रय और छह जीव-निकाय चारित्र है, क्योंकि वह (छह जीवनिकाय) चारित्रका आश्रय है; इसप्रकार व्यवहार है । शुद्ध आत्मा ज्ञान है, क्योंकि वह (शुद्ध आत्मा) ज्ञानका आश्रय है, शुद्ध आत्मा दर्शन है; क्योंकि वह दर्शनका आश्रय है और शुद्ध आत्मा चारित्र है, क्योंकि वह चारित्रका आश्रय है; इसप्रकार निश्चय है । इनमें, व्यवहारनय प्रतिषेध्य अर्थात् निषेध्य है, क्योंकि आचारांगादिको ज्ञानादिका आश्रयत्व अनैकान्तिक है — व्यभिचारयुक्त है; (शब्दश्रुतादिको ज्ञानादिका आश्रयस्वरूप माननेमें व्यभिचार आता है, क्योंकि शब्दश्रुतादिक होने पर भी ज्ञानादि नहीं भी होते, इसलिये व्यवहारनय प्रतिषेध्य है;) और निश्चयनय व्यवहारनयका प्रतिषेधक है, क्योंकि शुद्ध आत्माके ज्ञानादिका आश्रयत्व ऐकान्तिक है । (शुद्ध आत्माको ज्ञानादिका आश्रय माननेमें व्यभिचार नहीं है, क्योंकि जहाँ शुद्ध आत्मा होता है वहाँ ज्ञान-दर्शन-चारित्र होते ही हैं ।) यही बात हेतुपूर्वक समझाई जाती है : —
आचारांगादि शब्दश्रुत एकान्तसे ज्ञानका आश्रय नहीं है, क्योंकि उसके (अर्थात् शब्दश्रुतके) सद्भावमें भी अभव्योंको शुद्ध आत्माके अभावके कारण ज्ञानका अभाव है; जीवादि नवपदार्थ दर्शनके आश्रय नहीं हैं, क्योंकि उनके सद्भावमें भी अभव्योंको शुद्ध आत्माके अभावके कारण दर्शनका अभाव है; छह जीव-निकाय चारित्रके आश्रय नहीं हैं, क्योंकि उनके सद्भावमें भी अभव्योंको शुद्ध आत्माके अभावके कारण चारित्रका अभाव है । शुद्ध आत्मा ही ज्ञानका आश्रय है, क्योंकि आचारांगादि शब्दश्रुतके सद्भावमें या असद्भावमें उसके ( – शुद्ध आत्माके) सद्भावसे ही ज्ञानका सद्भाव है; शुद्ध आत्मा ही दर्शनका आश्रय है, क्योंकि जीवादि नवपदार्थोंके सद्भावमें या असद्भावमें उसके (-शुद्ध आत्माके) सद्भावसे ही दर्शनका
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षड्जीवनिकायसद्भावेऽसद्भावे वा तत्सद्भावेनैव चारित्रस्य सद्भावात् ।
स्ते शुद्धचिन्मात्रमहोऽतिरिक्ताः ।
मिति प्रणुन्नाः पुनरेवमाहुः ।।१७४।।
असद्भावमें उसके ( – शुद्ध आत्माके) सद्भावसे ही चारित्रका सद्भाव है ।
भावार्थ : — आचारांगादि शब्दश्रुतका ज्ञान, जीवादि नव पदार्थोंका श्रद्धान तथा छहकायके जीवोंकी रक्षा — इन सबके होते हुए भी अभव्यके ज्ञान, दर्शन, चारित्र नहीं होते, इसलिये व्यवहारनय तो निषेध्य है; और जहाँ शुद्धात्मा होता है वहाँ ज्ञान, दर्शन, चारित्र होते ही हैं, इसलिये निश्चयनय व्यवहारका निषेधक है । अतः शुद्धनय उपादेय कहा गया है ।।२७६-२७७।।
श्लोकार्थ : — ‘‘[रागादयः बन्धनिदानम् उक्ताः ] रागादिको बन्धका कारण क हा और [ते शुद्ध-चिन्मात्र-महः-अतिरिक्ताः ] उन्हें शुद्धचैतन्यमात्र ज्योतिसे ( – अर्थात् आत्मासे) भिन्न क हा; [तद्-निमित्तम् ] तब फि र उस रागादिका निमित्त [किमु आत्मा वा परः ] आत्मा है या कोई अन्य ?’’ [इति प्रणुन्नाः पुनः एवम् आहुः ] इसप्रकार (शिष्यके) प्रश्नसे प्रेरित होते हुए आचार्यभगवान पुनः इसप्रकार (निम्नप्रकारसे) क हते हैं ।१७४।
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एवं णाणी सुद्धो ण सयं परिणमदि रागमादीहिं । राइज्जदि अण्णेहिं दु सो रागादीहिं दोसेहिं ।।२७९।।
यथा खलु केवलः स्फ टिकोपलः, परिणामस्वभावत्वे सत्यपि, स्वस्य शुद्धस्वभावत्वेन रागादिनिमित्तत्वाभावात् रागादिभिः स्वयं न परिणमते, परद्रव्येणैव स्वयं रागादिभावापन्नतया स्वस्य रागादिनिमित्तभूतेन, शुद्धस्वभावात्प्रच्यवमान एव, रागादिभिः परिणम्यते; तथा केवलः किलात्मा, परिणामस्वभावत्वे सत्यपि, स्वस्य शुद्धस्वभावत्वेन रागादिनिमित्तत्वाभावात् रागादिभिः
गाथार्थ : — [यथा ] जैसे [स्फ टिकमणिः ] स्फ टिक मणि [शुद्धः ] शुद्ध होनेसे [रागाद्यैः ] रागादिरूपसे (ललाई-आदिरूपसे) [स्वयं ] अपने आप [न परिणमते ] परिणमता नहीं है, [तु ] परंतु [अन्यैः रक्तादिभिः द्रव्यैः ] अन्य रक्तादि द्रव्योंसे [सः ] वह [रज्यते ] रक्त ( – लाल) आदि किया जाता है, [एवं ] इसीप्रकार [ज्ञानी ] ज्ञानी अर्थात् आत्मा [शुद्धः ] शुद्ध होनेसे [रागाद्यैः ] रागादिरूप [स्वयं ] अपने आप [न परिणमते ] परिणमता नहीं है, [तु ] परंतु [अन्यैः रागादिभिः दोषैः ] अन्य रागादि दोषोंसे [सः ] वह [रज्यते ] रागी आदि किया जाता है ।
टीका : — जैसे वास्तवमें केवल ( – अकेला) स्फ टिकमणि, स्वयं परिणमनस्वभाववाला होने पर भी, अपनेको शुद्धस्वभावत्वके कारण रागादिका निमित्तत्व न होनेसे (स्वयं अपनेको ललाई-आदिरूप परिणमनका निमित्त न होनेसे) अपने आप रागादिरूप नहीं परिणमता, किन्तु जो अपने आप रागादिभावको प्राप्त होनेसे स्फ टिकमणिको रागादिका निमित्त होता है ऐसे परद्रव्यके द्वारा ही, शुद्धस्वभावसे च्युत होता हुआ ही, रागादिरूप परिणमित किया जाता है; इसीप्रकार वास्तवमें केवल ( – अकेला) आत्मा, स्वयं परिणमन-स्वभाववाला होने पर भी, अपनेको
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स्वयं न परिणमते, परद्रव्येणैव स्वयं रागादिभावापन्नतया स्वस्य रागादिनिमित्तभूतेन, शुद्धस्वभावात्प्रच्यवमान एव, रागादिभिः परिणम्यते । इति तावद्वस्तुस्वभावः ।
मात्मात्मनो याति यथार्ककान्तः ।
वस्तुस्वभावोऽयमुदेति तावत् ।।१७५।।
निमित्त न होनेसे) अपने आप ही रागादिरूप नहीं परिणमता, परन्तु जो अपने आप रागादिभावको
प्राप्त होनेसे आत्माको रागादिका निमित्त होता है ऐसे परद्रव्यके द्वारा ही, शुद्धस्वभावसे च्युत होता
हुआ ही, रागादिरूप परिणमित किया जाता है । — ऐसा वस्तुस्वभाव है ।
भावार्थ : — स्फ टिकमणि स्वयं तो मात्र एकाकार शुद्ध ही है; वह परिणमनस्वभाववाला होने पर भी अकेला अपने आप ललाई-आदिरूप नहीं परिणमता, किन्तु लाल आदि परद्रव्यके निमित्तसे (स्वयं ललाई-आदिरूप परिणमते ऐसे परद्रव्यके निमित्तसे) ललाई-आदिरूप परिणमता है । इसीप्रकार आत्मा स्वयं तो शुद्ध ही है; वह परिणमनस्वभाववाला होने पर भी अकेला अपने आप रागादिरूप नहीं परिणमता, परन्तु रागादिरूप परद्रव्यके निमित्तसे ( – अर्थात् स्वयं रागादिरूप परिणमन करनेवाले परद्रव्यके निमित्तसे) रागादिरूप परिणमता है । ऐसा वस्तुका ही स्वभाव है, उसमें अन्य किसी तर्कको अवकाश नहीं है ।।२७८-२७९।।
श्लोकार्थ : — [यथा अर्ककान्तः ] सूर्यकान्तमणिकी भाँति (-जैसे सूर्यकान्तमणि स्वतः ही अग्निरूप परिणमित नहीं होता, उसके अग्निरूप परिणमनमें सूर्यबिम्ब निमित्त है, उसीप्रकार) [आत्मा आत्मनः रागादिनिमित्तभावम् जातु न याति ] आत्मा अपनेको रागादिका निमित्त क भी भी नहीं होता, [तस्मिन् निमित्तं परसंगः एव ] उसमें निमित्त परसंग ही ( – परद्रव्यका संग ही) है — [अयम् वस्तुस्वभावः उदेति तावत् ] ऐसा वस्तुस्वभाव प्रकाशमान है । (सदैव वस्तुका ऐसा ही स्वभाव है, इसे किसीने बनाया नहीं है ।) ।१७५।
‘ऐसे वस्तुस्वभावको जानता हुआ ज्ञानी रागादिको निजरूप नहीं करता’ इस अर्थका, तथा आगामी गाथाका सूचक श्लोक कहते हैं : —
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यथोक्तं वस्तुस्वभावं जानन् ज्ञानी शुद्धस्वभावादेव न प्रच्यवते, ततो रागद्वेषमोहादि- भावैः स्वयं न परिणमते, न परेणापि परिणम्यते, ततष्टंकोत्कीर्णैकज्ञायकभावो ज्ञानी रागद्वेषमोहादिभावानामकर्तैवेति प्रतिनियमः ।
श्लोकार्थ : — [इति स्वं वस्तुस्वभावं ज्ञानी जानाति ] ज्ञानी ऐसे अपने वस्तुस्वभावको जानता है, [तेन सः रागादीन् आत्मनः न कुर्यात् ] इसलिये वह रागादिको निजरूप नहीं करता, [अतः कारकः न भवति ] अतः वह (रागादिका) क र्ता नहीं है ।१७६।
गाथार्थ : — [ज्ञानी ] ज्ञानी [रागद्वेषमोहं ] राग-द्वेष-मोहको [वा कषायभावं ] अथवा क षायभावको [स्वयम् ] अपने आप [आत्मनः ] अपनेमें [न च करोति ] नहीं करता, [तेन ] इसलिये [सः ] वह, [तेषां भावानाम् ] उन भावोंका [कारकः न ] कारक अर्थात् क र्ता नहीं है ।
टीका : — यथोक्त (अर्थात् जैसा कहा वैसे) वस्तुस्वभावको जानता हुआ ज्ञानी (अपने) शुद्धस्वभावसे ही च्युत नहीं होता, इसलिये वह राग-द्वेष-मोह आदि भावोंरूप स्वतः परिणमित नहीं होता और दूसरेके द्वारा भी परिणमित नहीं किया जाता, इसलिये टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायकभावस्वरूप ज्ञानी राग-द्वेष-मोह आदि भावोंका अकर्ता ही है — ऐसा नियम है ।
भावार्थ : — आत्मा जब ज्ञानी हुआ तब उसने वस्तुका ऐसा स्वभाव जाना कि ‘आत्मा स्वयं तो शुद्ध ही है — द्रव्यदृष्टिसे अपरिणमनस्वरूप है, पर्यायदृष्टिसे परद्रव्यके निमित्तसे रागादिरूप परिणमित होता है’; इसलिये अब ज्ञानी स्वयं उन भावोंका कर्ता नहीं
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यथोक्तं वस्तुस्वभावमजानंस्त्वज्ञानी शुद्धस्वभावादासंसारं प्रच्युत एव, ततः कर्म- विपाकप्रभवै रागद्वेषमोहादिभावैः परिणममानोऽज्ञानी रागद्वेषमोहादिभावानां कर्ता भवन् बध्यत एवेति प्रतिनियमः । होता, जो उदय आते हैं उनका ज्ञाता ही होता है ।।२८०।।
‘अज्ञानी ऐसे वस्तुस्वभावको नहीं जानता, इसलिये वह रागादि भावोंका कर्ता होता है’ इस अर्थका, आगामी गाथाका सूचक श्लोक कहते हैं : —
श्लोकार्थ : — [इति स्वं वस्तुस्वभावं अज्ञानी न वेत्ति ] अज्ञानी अपने ऐसे वस्तुस्वभावको नहीं जानता, [तेन सः रागादीन् आत्मनः कुर्यात् ] इसलिये वह रागादिको ( – रागादिभावोंको) अपना करता है, [अतः कारकः भवति ] अतः वह उनका क र्ता होता है ।१७७।
गाथार्थ : — [रागे च द्वेषे च कषायकर्मसु च एव ] राग, द्वेष और क षायक र्मों होने पर (अर्थात् उनके उदय होने पर) [ये भावाः ] जो भाव होते हैं, [तैः तु ] उन रूप [परिणममानः ] परिणमित होता हुआ अज्ञानी [रागादीन् ] रागादिको [पुनः अपि ] पुनः पुनः [बध्नाति ] बाँधता है ।
टीका : — यथोक्त वस्तुस्वभावको न जानता हुआ अज्ञानी अनादि संसारसे लेकर (अपने) शुद्धस्वभावसे च्युत ही है, इसलिये कर्मोदयसे उत्पन्न रागद्वेषमोहादि भावोंरूप परिणमता हुआ अज्ञानी रागद्वेषमोहादि भावोंका कर्ता होता हुआ (कर्मोंसे) बद्ध होता ही है — ऐसा नियम है ।
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य इमे किलाज्ञानिनः पुद्गलकर्मनिमित्ता रागद्वेषमोहादिपरिणामास्त एव भूयो रागद्वेषमोहादिपरिणामनिमित्तस्य पुद्गलकर्मणो बन्धहेतुरिति ।
भावार्थ : — अज्ञानी वस्तुस्वभावको तो यथार्थ नहीं जानता और कर्मोदयसे दो भाव होते हैं उन्हें अपना समझकर परिणमता है, इसलिये वह उनका कर्ता होता हुआ पुनः पुनः आगामी कर्मोंको बाँधता है — ऐसा नियम है ।।२८१।।
‘‘अतः यह सिद्ध हुआ (अर्थात् पूर्वोक्त कारणसे निम्नप्रकार निश्चित हुआ)’’ ऐसा अब कहते हैं : —
गाथार्थ : — [रागे च द्वेषे च कषायकर्मसु च एव ] राग, द्वेष और क षायक र्मोंके होने पर (अर्थात् उनके उदय होने पर) [ये भावाः ] जो भाव होते हैं, [तैः तु ] उन-रूप [परिणममानः ] परिणमता हुआ [चेतयिता ] आत्मा [रागादीन् ] रागादिको [बध्नाति ] बाँधता है ।
टीका : — निश्चयसे अज्ञानीको, पुद्गलकर्म जिनका निमित्त है ऐसे जो यह रागद्वेषमोहादि परिणाम हैं, वे ही पुनः रागद्वेषमोहादि परिणामका निमित्त जो पुद्गलकर्म उसके बन्धके कारण है ।
भावार्थ : — अज्ञानीके कर्मके निमित्तसे रागद्वेषमोहादि परिणाम होते हैं वे ही पुनः आगामी कर्मबन्धके कारण होते हैं ।।२८२।।
अब प्रश्न होता है कि आत्मा रागादिका अकारक ही कैसे है ? इसका समाधान (आगमका प्रमाण देकर ) करते हैं : —
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अप्पडिकमणं दुविहं अपच्चखाणं तहेव विण्णेयं । एदेणुवदेसेण य अकारगो वण्णिदो चेदा ।।२८३।। अप्पडिकमणं दुविहं दव्वे भावे अपच्चखाणं पि । एदेणुवदेसेण य अकारगो वण्णिदो चेदा ।।२८४।। जावं अप्पडिकमणं अपच्चखाणं च दव्वभावाणं । कुव्वदि आदा तावं कत्ता सो होदि णादव्वो ।।२८५।।
गाथार्थ : — [अप्रतिक्रमणं ] अप्रतिक्र मण [द्विविधम् ] दो प्रकारका है, [तथा एव ] उसी तरह [अप्रत्याख्यानं ] अप्रत्याख्यान दो प्रकारका [विज्ञेयम् ] जानना चाहिए; — [एतेन उपदेशेन च ] इस उपदेशसे [चेतयिता ] आत्मा [अकारकः वर्णितः ] अकारक कहा गया है ।
[अप्रतिक्रमणं ] अप्रतिक्र मण [द्विविधं ] दो प्रकारका है — [द्रव्ये भावे ] द्रव्य सम्बन्धी और भाव सम्बन्धी; [अप्रत्याख्यानम् अपि ] इसीप्रकार अप्रत्याख्यान भी दो प्रकारका है — द्रव्य सम्बन्धी और भाव सम्बन्धी; — [एतेन उपदेशेन च ] इस उपदेशसे [चेतयिता ] आत्मा [अकारकः वर्णितः ] अकारक कहा गया है ।
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आत्मात्मना रागादीनामकारक एव, अप्रतिक्रमणाप्रत्याख्यानयोर्द्वैविध्योपदेशान्यथानुपपत्तेः । यः खलु अप्रतिक्रमणाप्रत्याख्यानयोर्द्रव्यभावभेदेन द्विविधोपदेशः स, द्रव्यभावयोर्निमित्त- नैमित्तिकभावं प्रथयन्, अकर्तृत्वमात्मनो ज्ञापयति । तत एतत् स्थितं — परद्रव्यं निमित्तं, नैमित्तिका आत्मनो रागादिभावाः । यद्येवं नेष्येत तदा द्रव्याप्रतिक्रमणाप्रत्याख्यानयोः कर्तृत्वनिमित्तत्वोपदेशोऽनर्थक एव स्यात्, तदनर्थकत्वे त्वेकस्यैवात्मनो रागादिभावनिमित्तत्वापत्तौ नित्यकर्तृत्वानुषंगान्मोक्षाभावः प्रसजेच्च । ततः परद्रव्यमेवात्मनो रागादिभावनिमित्तमस्तु । तथा सति तु रागादीनामकारक एवात्मा । तथापि यावन्निमित्तभूतं द्रव्यं न प्रतिक्रामति न प्रत्याचष्टे च तावन्नैमित्तिकभूतं भावं न प्रतिक्रामति न प्रत्याचष्टे च, यावत्तु भावं न प्रतिक्रामति न प्रत्याचष्टे
[यावत् ] जब तक [आत्मा ] आत्मा [द्रव्यभावयोः ] द्रव्यका और भावका [अप्रतिक्रमणम् च अप्रत्याख्यानं ] अप्रतिक्र मण तथा अप्रत्याख्यान [करोति ] क रता है [तावत् ] तब तक [सः ] वह [कर्ता भवति ] क र्ता होता है, [ज्ञातव्यः ] ऐसा जानना चाहिए ।
टीका : — आत्मा स्वतः रागादिका अकारक ही है; क्योंकि यदि ऐसा न हो तो (अर्थात् यदि आत्मा स्वतः ही रागादिभावोंका कारक हो तो) अप्रतिक्रमण और अप्रत्याख्यानकी द्विविधताका उपदेश नहीं हो सकता । अप्रतिक्रमण और अप्रत्याख्यानका जो वास्तवमें द्रव्य और भावके भेदसे द्विविध (दो प्रकारका) उपदेश है वह, द्रव्य और भावके निमित्त-नैमित्तिकत्वको प्रगट करता हुआ, आत्माके अकर्तृत्वको ही बतलाता है । इसलिये यह निश्चित हुआ कि परद्रव्य निमित्त है और आत्माके रागादिभाव नैमित्तिक हैं । यदि ऐसा न माना जाये तो द्रव्य-अप्रतिक्रमण और द्रव्य-अप्रत्याख्यान कर्तृत्वके निमित्तरूप उपदेश निरर्थक ही होगा, और वह निरर्थक होने पर एक ही आत्माको रागादिभावोंका निमित्तत्व आ जायेगा, जिससे नित्य-कर्तृत्वका प्रसंग आ जायेगा, जिससे मोक्षका अभाव सिद्ध होगा । इसलिये परद्रव्य ही आत्माके रागादिभावोंका निमित्त हो । और ऐसा होने पर, यह सिद्ध हुआ कि आत्मा रागादिका अकारक ही है । (इसप्रकार यद्यपि आत्मा रागादिका अकारक ही है) तथापि जब तक वह निमित्तभूत द्रव्यका ( – परद्रव्यका) प्रतिक्रमण तथा प्रत्याख्यान नहीं करता तब तक नैमित्तिकभूत भावका ( – रागादिभावका) प्रतिक्रमण तथा प्रत्याख्यान नहीं करता, और जब तक भावका प्रतिक्रमण तथा प्रत्याख्यान नहीं करता तब तक वह उनका कर्ता ही है; जब वह निमित्तभूत द्रव्यका प्रतिक्रमण तथा प्रत्याख्यान करता है तभी नैमित्तिकभूत भावका
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च तावत्कर्तैव स्यात् । यदैव निमित्तभूतं द्रव्यं प्रतिक्रामति प्रत्याचष्टे च तदैव नैमित्तिकभूतं भावं प्रतिक्रामति प्रत्याचष्टे च, यदा तु भावं प्रतिक्रामति प्रत्याचष्टे च तदा साक्षादकर्तैव स्यात् ।
प्रतिक्रमण तथा प्रत्याख्यान करता है, और जब भावका प्रतिक्रमण तथा प्रत्याख्यान करता है तब वह साक्षात् अकर्ता ही है ।
भावार्थ : — अतीत कालमें जिन परद्रव्योंका ग्रहण किया था उन्हें वर्तमानमें अच्छा समझना, उनके संस्कार रहना, उनके प्रति ममत्व रहना, वह द्रव्य-अप्रतिक्रमण है और उन परद्रव्योंके निमित्तसे जो रागादिभाव हुए थे उन्हें वर्तमानमें अच्छा जानना, उनके संस्कार रहना, उनके प्रति ममत्व रहना, भाव-अप्रतिक्रमण है । इसी प्रकार आगामी काल सम्बन्धी परद्रव्योंकी इच्छा रखना, ममत्व रखना, द्रव्य अप्रत्याख्यान है और उन परद्रव्योंके निमित्तसे आगामी कालमें होनेवाले रागादिभावोंकी इच्छा रखना, ममत्व रखना, भाव अप्रत्याख्यान है । इसप्रकार द्रव्य- अप्रतिक्रमण और भाव-अप्रतिक्रमण तथा द्रव्य-अप्रत्याख्यान और भाव-अप्रत्याख्यान — ऐसा जो अप्रतिक्रमण और अप्रत्याख्यानका दो प्रकारसे उपदेश है, वह द्रव्यभावके निमित्त-नैमित्तिकभावको बतलाता है । इससे यह सिद्ध हुआ कि — परद्रव्य तो निमित्त है और रागादिभाव नैमित्तिक हैं । इसप्रकार आत्मा रागादिभावोंको स्वयमेव न करनेसे रागादिभावोंका अकर्ता ही है ऐसा सिद्ध हुआ । इसप्रकार यद्यपि यह आत्मा रागादिभावोंका अकर्ता ही है तथापि जब तक उसके निमित्तभूत परद्रव्यके अप्रतिक्रमण-अप्रत्याख्यान हैं तब तक उसके रागादिभावोंके अप्रतिक्रमण-अप्रत्याख्यान हैं, और जब तक रागादिभावोंके अप्रतिक्रमण-अप्रत्याख्यान हैं तब तक वह रागादिभावोंका कर्ता ही है; जब वह निमित्तभूत परद्रव्यके प्रतिक्रमण-प्रत्याख्यान करता है तब उसके नैमित्तिक रागादिभावोंके भी प्रतिक्रमण-प्रत्याख्यान हो जाते हैं, और जब रागादिभावोंके प्रतिक्रमण- प्रत्याख्यान हो जाते हैं तब वह साक्षात् अकर्ता ही है ।।२८३ से २८५।।
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यथाधःकर्मनिष्पन्नमुद्देशनिष्पन्नं च पुद्गलद्रव्यं निमित्तभूतमप्रत्याचक्षाणो नैमित्तिकभूतं बन्धसाधकं भावं न प्रत्याचष्टे, तथा समस्तमपि परद्रव्यमप्रत्याचक्षाणस्तन्निमित्तकं भावं न प्रत्याचष्टे । यथा चाधःकर्मादीन् पुद्गलद्रव्यदोषान्न नाम करोत्यात्मा परद्रव्यपरिणामत्वे सति आत्मकार्यत्वाभावात्, ततोऽधःकर्मोद्देशिकं च पुद्गलद्रव्यं न मम कार्यं नित्यमचेतनत्वे सति
गाथार्थ : — [अधःकर्माद्याः ये इमे ] अधःक र्म आदि जो यह [पुद्गलद्रव्यस्य दोषाः ] पुद्गलद्रव्यके दोष हैं (उनको ज्ञानी अर्थात् आत्मा क रता नहीं है;) [तान् ] उनको [ज्ञानी ] ज्ञानी अर्थात् आत्मा [कथं करोति ] कैसे क रे [ये तु ] कि जो [नित्यम् ] सदा [परद्रव्यगुणाः ] परद्रव्यके गुण है ?
इसलिये [अधःकर्म उद्देशिकं च ] अधःक र्म और उद्देशिक [इदं ] ऐसा [पुद्गलमयम् द्रव्यं ] पुद्गलमय द्रव्य है (वह मेरा किया नहीं होता;) [तत् ] वह [मम कृ तं ] मेरा किया [कथं भवति ] कैसे हो [यत् ] कि जो [नित्यम् ] सदा [अचेतनम् उक्त म् ] अचेतन क हा गया है ?
टीका : — जैसे अधःकर्मसे निष्पन्न और उद्देशसे निष्पन्न हुए निमित्तभूत (आहारादि) पुद्गलद्रव्यका प्रत्याख्यान न करता हुआ आत्मा ( – मुनि) नैमित्तिकभूत बन्धसाधक भावका प्रत्याख्यान (त्याग) नहीं करता, इसीप्रकार समस्त परद्रव्यका प्रत्याख्यान न करता हुआ आत्मा उसके निमित्तसे होनेवाले भावको नहीं त्यागता । और ‘‘अधःकर्म आदि पुद्गलद्रव्यके दोषोंको आत्मा वास्तवमें नहीं करता, क्योंकि वे परद्रव्यके परिणाम हैं, इसलिये उन्हें आत्माके कार्यत्वका अभाव है; अतः अधःकर्म और उद्देशिक पुद्गलद्रव्य मेरा कार्य नहीं है, क्योंकि वह नित्य अचेतन
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मत्कार्यत्वाभावात्, — इति तत्त्वज्ञानपूर्वकं पुद्गलद्रव्यं निमित्तभूतं प्रत्याचक्षाणो नैमित्तिकभूतं बन्धसाधकं भावं प्रत्याचष्टे, तथा समस्तमपि परद्रव्यं प्रत्याचक्षाणस्तन्निमित्तं भावं प्रत्याचष्टे । एवं द्रव्यभावयोरस्ति निमित्तनैमित्तिकभावः ।
तन्मूलां बहुभावसन्ततिमिमामुद्धर्तुकामः समम् ।
येनोन्मूलितबन्ध एष भगवानात्मात्मनि स्फू र्जति ।।१७८।।
है, इसलिए उसको मेरे कार्यत्वका अभाव है;’’ — इसप्रकार तत्त्वज्ञानपूर्वक निमित्तभूत पुद्गलद्रव्यका प्रत्याख्यान करता हुआ आत्मा ( – मुनि) जैसे नैमित्तिकभूत बन्धसाधक भावका प्रत्याख्यान करता है, उसीप्रकार समस्त परद्रव्यका प्रत्याख्यान करता हुआ ( – त्याग करता हुआ) आत्मा उसके निमित्तसे होनेवाले भावका प्रत्याख्यान करता है । इसप्रकार द्रव्य और भावको निमित्त-नैमित्तिकता है ।
भावार्थ : — यहाँ अधःकर्म और उद्देशिक आहारके दृष्टान्तसे द्रव्य और भावकी निमित्त- नैमित्तिकता दृढ़ की है ।
जिस पापकर्मसे आहार निष्पन्न हो उस पापकर्मको अधःकर्म कहते हैं, तथा उस आहारको भी अधःकर्म कहते हैं । जो आहार, ग्रहण करनेवालेके निमित्तसे ही बनाया गया हो उसे उद्देशिक कहते हैं । ऐसे (अधःकर्म और उद्देशिक) आहारका जिसने प्रत्याख्यान नहीं किया उसने उसके निमित्तसे होनेवाले भावका प्रत्याख्यान नहीं किया और जिसने तत्त्वज्ञानपूर्वक उस आहारका प्रत्याख्यान किया है उसने उसके निमित्तसे होनेवाले भावका प्रत्याख्यान किया है । इसप्रकार समस्त द्रव्यको और भावको निमित्त-नैमित्तिकभाव जानना चाहिये । जो परद्रव्यको ग्रहण करता है उसे रागादिभाव भी होते हैं, वह उनका कर्ता भी होता है और इसलिये कर्मका बन्ध भी करता है; जब आत्मा ज्ञानी होता है तब उसे कुछ ग्रहण करनेका राग नहीं होता, इसलिये रागादिरूप परिणमन भी नहीं होता और इसलिये आगामी बन्ध भी नहीं होता । (इसप्रकार ज्ञानी परद्रव्यका कर्ता नहीं है ।)।।२८६-२८७।।
श्लोकार्थ : — [इति ] इसप्रकार (परद्रव्य और अपने भावकी निमित्त-नैमित्तिक ताको) [आलोच्य ] विचार करके, [तद्-मूलां इमाम् बहुभावसन्ततिम् समम् उद्धर्तुकामः ]
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कार्यं बन्धं विविधमधुना सद्य एव प्रणुद्य ।
तद्वद्यद्वत्प्रसरमपरः कोऽपि नास्यावृणोति ।।१७९।।
परद्रव्यमूलक बहुभावोंकी सन्ततिको एक ही साथ उखाड़ फें कनेका इच्छुक पुरुष, [तत् किल समग्रं परद्रव्यं बलात् विवेच्य ] उस समस्त परद्रव्यको बलपूर्वक ( – उद्यमपूर्वक, पराक्रमपूर्वक) भिन्न क रके ( – त्याग करके), [निर्भरवहत्-पूर्ण-एक-संविद्-युतं आत्मानं ] अतिशयतासे बहते हुए ( – धारावाही) पूर्ण एक संवेदनसे युक्त अपने आत्माको [समुपैति ] प्राप्त करता है, [येन ] कि जिससे [उन्मूलितबन्धः एषः भगवान् आत्मा ] जिसने क र्मबन्धनको मूलसे उखाड़ फें का है, ऐसा यह भगवान आत्मा [आत्मनि ] अपनेमें ही ( – आत्मामें ही) [स्फू र्जति ] स्फु रायमान होता है ।
भावार्थ : — जब परद्रव्यकी और अपने भावकी निमित्त-नैमित्तिकता जानकर समस्त परद्रव्यको भिन्न करनेमें-त्यागनेमें आते हैं, तब समस्त रागादिभावोंकी सन्तति कट जाती है और तब आत्मा अपना ही अनुभव करता हुआ कर्मबन्धनको काटकर अपनेमें ही प्रकाशित होता है । इसलिये जो अपना हित चाहते हैं वे ऐसा ही करें ।१७८।
अब बन्ध अधिकारको पूर्ण करते हुए उसके अन्तिम मंगलके रूपमें ज्ञानकी महिमाके अर्थका कलशरूप काव्य कहते हैं : —
श्लोकार्थ : — [कारणानां रागादीनाम् उदयं ] बन्धके कारणरूप रागादिके उदयको [अदयम् ] निर्दयता पूर्वक (उग्र पुरुषार्थसे) [दारयत् ] विदारण करती हुई, [कार्यं विविधम् बन्धं ] उस रागादिके कार्यरूप (ज्ञानावरणादि) अनेक प्रकारके बन्धको [अधुना ] अब [सद्यः एव ] तत्काल ही [प्रणुद्य ] दूर क रके, [एतत् ज्ञानज्योतिः ] यह ज्ञानज्योति — [क्षपिततिमिरं ] कि जिसने अज्ञानरूप अन्धकारका नाश किया है वह — [साधु ] भलीभाँति [सन्नद्धम् ] सज्ज हुई, — [तद्-वत् यद्-वत् ] ऐसी सज्ज हुई कि [अस्य प्रसरम् अपरः कः अपि न आवृणोति ] उसके विस्तारको अन्य कोई आवृत नहीं कर सकता ।
भावार्थ : — जब ज्ञान प्रगट होता है, रागादिक नहीं रहते, उनका कार्य जो बन्ध वह भी नहीं रहता, तब फि र उस ज्ञानको आवृत करनेवाला कोई नहीं रहता, वह सदा प्रकाशमान ही रहता है ।१७९।
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बन्ध स्वाँगको अलग करके बाहर निकल गया ।
त्यों मतिहीन जु रागविरोध लिये विचरे तब बन्धन बाढै;
पाय समै उपदेश यथारथ रागविरोध तजै निज चाटै,
नाहिं बँधै तब कर्मसमूह जु आप गहै परभावनि काटै ।
इसप्रकार श्री समयसारकी (श्रीमद्भगवत्कुन्दकुन्दाचार्यदेवप्रणीत श्री समयसार परमागमकी) श्रीमद् अमृतचन्द्राचार्यदेवविरचित आत्मख्याति नामक टीकामें बन्धका प्ररूपक ७वाँ अंक समाप्त हुआ ।
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नयन्मोक्षं साक्षात्पुरुषमुपलम्भैकनियतम् ।
परं पूर्णं ज्ञानं कृतसकलकृत्यं विजयते ।।१८०।।
है । वहाँ ज्ञान सर्व स्वाँगका ज्ञाता है, इसलिये अधिकारके प्रारम्भमें आचार्यदेव सम्यग्ज्ञानकी महिमाके रूपमें मंगलाचरण कहते हैं : —
श्लोकार्थ : — [इदानीम् ] अब (बन्ध पदार्थके पश्चात्), [प्रज्ञा-क्रकच-दलनात् बन्ध- पुरुषौ द्विधाकृत्य ] प्रज्ञारूपी क रवतसे विदारण द्वारा बन्ध और पुरुषको द्विधा (भिन्न भिन्न – दो) करके, [पुरुषम् उपलम्भ-एक-नियतम् ] पुरुषको — कि जो पुरुष मात्र १अनुभूति द्वारा ही निश्चित है उसे — [साक्षात् मोक्षं नयत् ] साक्षात् मोक्ष प्राप्त कराता हुआ, [पूर्णं ज्ञानं विजयते ] पूर्ण ज्ञान जयवंत प्रवर्तता है । वह ज्ञान [उन्मज्जत्-सहज-परम-आनन्द-सरसं ] प्रगट होनेवाले सहज परमानंदके द्वारा सरस अर्थात् रसयुक्त है, [परं ] उत्कृ ष्ट है, और [कृत-सकल-कृत्यं ] जिसने क रने योग्य समस्त कार्य क र लिये हैं ( – जिसे कुछ भी क रना शेष नहीं है) ऐसा है । १जितना स्वरूप-अनुभवन है इतना ही आत्मा है ।
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भावार्थ : — ज्ञान बन्ध और पुरुषको पृथक् करके, पुरुषको मोक्ष पहुँचाता हुआ, अपना सम्पूर्ण स्वरूप प्रगट करके जयवन्त प्रवर्तता है । इसप्रकार ज्ञानकी सर्वोत्कृष्टताका कथन ही मंगलवचन है ।१८०।
अब, मोक्षकी प्राप्ति कैसे होती है सो कहते हैं । उसमें प्रथम तो, यह कहते हैं कि, जो जीव बन्धका छेद नहीं करता, किन्तु मात्र बन्धके स्वरूपको जाननेसे ही सन्तुष्ट है वह मोक्ष प्राप्त नहीं करता : —
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आत्मबन्धयोर्द्विधाकरणं मोक्षः । बन्धस्वरूपज्ञानमात्रं तद्धेतुरित्येके, तदसत्; न कर्मबद्धस्य बन्धस्वरूपज्ञानमात्रं मोक्षहेतुः, अहेतुत्वात्, निगडादिबद्धस्य बन्धस्वरूपज्ञानमात्रवत् । एतेन कर्मबन्धप्रपंचरचनापरिज्ञानमात्रसन्तुष्टा उत्थाप्यन्ते ।
गाथार्थ : — [यथा नाम ] जैसे [बन्धनके ] बन्धनमें [चिरकालप्रतिबद्धः ] बहुत समयसे बँधा हुआ [कश्चित् पुरुषः ] कोई पुरुष [तस्य ] उस बन्धनके [तीव्रमन्दस्वभावं ] तीव्र-मन्द स्वभावको [कालं च ] और कालको (अर्थात् यह बन्धन इतने कालसे है इसप्रकार) [विजानाति ] जानता है, [यदि ] किन्तु यदि [न अपि छेदं करोति ] उस बन्धनको स्वयं नहीं काटता [तेन न मुच्यते ] तो वह उससे मुक्त नहीं होता [तु ] और [बन्धनवशः सन् ] बन्धनवश रहता हुआ [बहुकेन अपि कालेन ] बहुत कालमें भी [सः नरः ] वह पुरुष [विमोक्षम् न प्राप्नोति ] बन्धनसे छूटनेरूप मुक्तिको प्राप्त नहीं करता; [इति ] इसीप्रकार जीव [कर्मबन्धनानां ] क र्म-बन्धनोंके [प्रदेशस्थितिप्रकृतिम् एवम् अनुभागम् ] प्रदेश, स्थिति, प्रकृ ति और अनुभागको [जानन् अपि ] जानता हुआ भी [न मुच्यते ] (क र्मबन्धसे) नहीं छूटता, [च यदि सः एव शुद्धः ] किन्तु यदि वह स्वयं (रागादिको दूर क रके) शुद्ध होता है [मुच्यते ] तभी छूटता है-मुक्त होता है ।
टीका : — आत्मा और बन्धका द्विधाकरण (अर्थात् आत्मा और बन्धको अलग अलग कर देना) सो मोक्ष है । कितने ही लोग कहते हैं कि ‘बन्धके स्वरूपका ज्ञानमात्र मोक्षका कारण है (अर्थात् बन्धके स्वरूपको जाननेमात्रसे ही मोक्ष होता है)’, किन्तु यह असत् है; कर्मसे बँधे हुए (जीव)को बन्धके स्वरूपका ज्ञानमात्र मोक्षका कारण नहीं है, क्योंकि जैसे बेड़ी आदिसे बँधे हुए (जीव)को बन्धके स्वरूपका ज्ञानमात्र बन्धसे मुक्त होनेका कारण नहीं है । उसीप्रकार कर्मसे बँधे हुए (जीव)को कर्मबन्धके स्वरूपका ज्ञानमात्र कर्मबन्धसे मुक्त होनेका कारण नहीं है । इस कथनसे उनका उत्थापन (खण्डन) किया गया है जो कर्मबन्धके प्रपंचकी (-विस्तारकी) रचनाके ज्ञानमात्रसे सन्तुष्ट हो रहे हैं ।
भावार्थ : — कोई अन्यमती यह मानते हैं कि बन्धके स्वरूपको जान लेनेसे ही मोक्ष हो जाता है । उनकी इस मान्यताका इस कथनसे निराकरण कर दिया गया है । जाननेमात्रसे ही बन्ध नहीं कट जाता, किन्तु वह काटनेसे ही कटता है ।।२८८ से २९०।।
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बन्धचिन्ताप्रबन्धो मोक्षहेतुरित्यन्ये, तदप्यसत्; न कर्मबद्धस्य बन्धचिन्ताप्रबन्धो मोक्षहेतुः, अहेतुत्वात्, निगडादिबद्धस्य बन्धचिन्ताप्रबन्धवत् । एतेन कर्मबन्धविषयचिन्ताप्रबन्धात्मक- विशुद्धधर्मध्यानान्धबुद्धयो बोध्यन्ते ।
गाथार्थ : — [यथा ] जैसे [बन्धनबद्धः ] बन्धनोंसे बँधा हुआ पुरुष [बन्धान् चिन्तयन् ] बन्धोंके विचार क रनेसे [विमोक्षम् न प्राप्नोति ] मुक्तिको प्राप्त नहीं करता (अर्थात् बन्धसे नहीं छूटता), [तथा ] इसीप्रकार [जीवः अपि ] जीव भी [बन्धान् चिन्तयन् ] बन्धोंके विचार क रनेसे [विमोक्षम् न प्राप्नोति ] मोक्षको प्राप्त नहीं करता ।
टीका : — अन्य कितने ही लोग यह कहते हैं कि ‘बन्ध सम्बन्धी विचार श्रृङ्खला मोक्षका कारण है’, किन्तु यह भी असत् है; कर्मसे बँधे हुए (जीव) को बन्ध सम्बन्धी विचारकी श्रृङ्खला मोक्षका कारण नहीं है, क्योंकि जैसे बेड़ी आदिसे बँधे हुए (पुरुष)को उस बन्ध सम्बन्धी विचारश्रृङ्खला ( – विचारकी परंपरा) बन्धसे छूटनेका कारण नहीं है, उसीप्रकार कर्मसे बँधे हुए (पुरुष)को कर्मबन्ध सम्बन्धी विचारश्रृङ्खला कर्मबन्धसे मुक्त होनेका कारण नहीं है । इस (कथन)से, कर्मबन्ध सम्बन्धी विचारश्रृङ्खलात्मक विशुद्ध ( – शुभ) धर्मध्यानसे जिनकी बुद्धि अन्ध है, उन्हें समझाया जाता है ।
भावार्थ : — कर्मबन्धकी चिन्तामें मन लगा रहे तो भी मोक्ष नहीं होता । यह तो धर्मध्यानरूप शुभ परिणाम है । जो केवल (मात्र) शुभ परिणामसे ही मोक्ष मानते हैं, उन्हें यहाँ उपदेश दिया गया है कि — शुभ परिणामसे मोक्ष नहीं होता ।।२९१।।
‘‘(यदि बन्धके स्वरूपके ज्ञानमात्रसे भी मोक्ष नहीं होता और बन्धके विचार करनेसे भी मोक्ष नहीं होता) तब फि र मोक्षका कारण क्या है ?’’ ऐसा प्रश्न होने पर अब मोक्षका उपाय बताते हैं : —