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कर्मबद्धस्य बन्धच्छेदो मोक्षहेतुः, हेतुत्वात्, निगडादिबद्धस्य बन्धच्छेदवत् । एतेन उभयेऽपि पूर्वे आत्मबन्धयोर्द्विधाकरणे व्यापार्येते ।
गाथार्थ : — [यथा च ] जैसे [बन्धनबद्धः तु ] बन्धनबद्ध पुरुष [बन्धान् छित्वा ] बन्धनोंको छेद कर [विमोक्षम् प्राप्नोति ] मुक्तिको प्राप्त हो जाता है, [तथा च ] इसीप्रकार [जीवः ] जीव [बन्धान् छित्वा ] बन्धोंको छेदकर [विमोक्षम् सम्प्राप्नोति ] मोक्षको प्राप्त करता है ।
टीका : — कर्मसे बँधे हुए (पुरुष) को बन्धका छेद मोक्षका कारण है, क्योंकि जैसे बेड़ी आदिसे बन्धका छेद बन्धसे छूटनेका कारण है, उसीप्रकार कर्मसे बँधे हुएको कर्मबन्धका छेद कर्मबन्धसे छूटनेका कारण है । इस(कथन)से, पूर्वकथित दोनोंको ( – जो बन्धके स्वरूपके ज्ञानमात्रसे सन्तुष्ट हैं तथा जो बन्धके विचार किया करते हैं उनको – ) आत्मा और बन्धके द्विधाकरणमें व्यापार कराया जाता है (अर्थात् आत्मा और बन्धको भिन्न-भिन्न करनेके प्रति लगाया जाता है — उद्यम कराया जाता है) ।।२९२।।
‘मात्र यही (बन्धच्छेद ही) मोक्षका कारण क्यों है ?’ ऐसा प्रश्न होने पर अब उसका उत्तर देते हैं : —
गाथार्थ : — [बन्धानां स्वभावं च ] बन्धोंके स्वभावको [आत्मनः स्वभावं च ] और आत्माके स्वभावको [विज्ञाय ] जानकर [बन्धेषु ] बन्धोंके प्रति [यः ] जो [विरज्यते ] विरक्त होता है, [सः ] वह [कर्मविमोक्षणं करोति ] क र्मोंसे मुक्त होता है ।
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य एव निर्विकारचैतन्यचमत्कारमात्रमात्मस्वभावं तद्विकारकारकं बन्धानां च स्वभावं विज्ञाय बन्धेभ्यो विरमति, स एव सकलकर्ममोक्षं कुर्यात् । एतेनात्मबन्धयोर्द्विधाकरणस्य मोक्षहेतुत्वं नियम्यते ।
टीका : — जो, निर्विकारचैतन्यचमत्कारमात्र आत्मस्वभावको और उस (आत्मा) के विकार करनेवाले बन्धोंके स्वभावको जानकर, बन्धोंसे विरक्त होता है, वही समस्त कर्मोंसे मुक्त होता है । इस(कथन)से ऐसा नियम किया जाता है कि आत्मा और बन्धका द्विधाकरण (पृथक्करण) ही मोक्षका कारण है (अर्थात् आत्मा और बन्धको भिन्न-भिन्न करना ही मोक्षका कारण है ऐसा निर्णीत किया जाता है) ।।२९३।।
‘आत्मा और बन्ध किस(साधन)के द्वारा द्विधा (अलग) किये जाते हैं ?’ ऐसा प्रश्न होने पर उत्तर देते हैं : —
गाथार्थ : — [जीवः च तथा बन्धः ] जीव तथा बन्ध [नियताभ्याम् स्वलक्षणाभ्यां ] नियत स्वलक्षणोंसे (अपने-अपने निश्चित लक्षणोंसे) [छिद्येते ] छेदे जाते हैं; [प्रज्ञाछेदनकेन ] प्रज्ञारूप छेनीके द्वारा [छिन्नौ तु ] छेदे जाने पर [नानात्वम् आपन्नौ ] वे नानापनको प्राप्त होते हैं अर्थात् अलग हो जाते हैं ।
टीका : — आत्मा और बन्धको द्विधा करनेरूप कार्यमें कर्ता जो आत्मा उसके १करण सम्बन्धी २मीसांसा करने पर, निश्चयतः (निश्चयनयसे) अपनेसे भिन्न करणका अभाव होनेसे १करण = साधन; करण नामका कारक । २मीमांसा = गहरी विचारणा; तपास; समालोचना ।
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भिन्नकरणासम्भवात्, भगवती प्रज्ञैव छेदनात्मकं करणम् । तया हि तौ छिन्नौ नानात्वम- वश्यमेवापद्येते; ततः प्रज्ञयैवात्मबन्धयोर्द्विधाकरणम् । ननु कथमात्मबन्धौ चेत्यचेतकभावेनात्यन्त- प्रत्यासत्तेरेकीभूतौ भेदविज्ञानाभावादेकचेतकवद्वयवह्रियमाणौ प्रज्ञया छेत्तुं शक्येते ? नियतस्व- लक्षणसूक्ष्मान्तःसन्धिसावधाननिपातनादिति बुध्येमहि । आत्मनो हि समस्तशेषद्रव्यासाधारणत्वा- च्चैतन्यं स्वलक्षणम् । तत्तु प्रवर्तमानं यद्यदभिव्याप्य प्रवर्तते निवर्तमानं च यद्यदुपादाय निवर्तते तत्तत्समस्तमपि सहप्रवृत्तं क्रमप्रवृत्तं वा पर्यायजातमात्मेति लक्षणीयः, तदेकलक्षणलक्ष्यत्वात्; समस्तसहक्रमप्रवृत्तानन्तपर्यायाविनाभावित्वाच्चैतन्यस्य चिन्मात्र एवात्मा निश्चेतव्यः, इति यावत् । भगवती प्रज्ञा ही ( – ज्ञानस्वरूप बुद्धि ही) छेदनात्मक ( – छेदनके स्वभाववाला) करण है । उस प्रज्ञाके द्वारा उनका छेद करने पर वे अवश्य ही नानात्वको प्राप्त होते हैं; इसलिये प्रज्ञा द्वारा ही आत्मा और बन्धको द्विधा किया जाता है (अर्थात् प्रज्ञारूप करण द्वारा ही आत्मा और बन्ध जुदे किये जाते हैं) ।
(यहाँ प्रश्न होता है कि – ) आत्मा और बन्ध जो कि १चेत्यचेतकभावके द्वारा अत्यन्त निकटताके कारण एक ( – एक जैसे – ) हो रहे हैं, और भेदविज्ञानके अभावके कारण, मानो वे एक चेतक ही हों ऐसा जिनका व्यवहार किया जाता है (अर्थात् जिन्हें एक आत्माके रूपमें ही व्यवहारमें माना जाता है) उन्हें प्रज्ञाके द्वारा वास्तवमें कैसे छेदा जा सकता है ?
(इसका समाधान करते हुए आचार्यदेव कहते हैं : — ) आत्मा और बन्धके नियत स्वलक्षणोंकी सूक्ष्म अन्तःसंधिमें (अन्तरंगकी संधिमें) प्रज्ञाछेनीको सावधान होकर पटकनेसे ( – डालनेसे, मारनेसे) उनको छेदा जा सकता है अर्थात् उन्हें अलग किया जा सकता है, ऐसा हम जानते हैं ।
आत्माका स्वलक्षण चैतन्य है, क्योंकि वह समस्त शेष द्रव्योंसे असाधारण है ( – वह अन्य द्रव्योंमें नहीं है) । वह (चैतन्य) प्रवर्तमान होता हुआ जिस-जिस पर्यायको व्याप्त होकर प्रवर्तता है और निवर्तमान होता हुआ जिस-जिस पर्यायको ग्रहण करके निवर्तता है वे समस्त सहवर्ती या क्रमवर्ती पर्यायें आत्मा हैं, इसप्रकार लक्षित करना ( – लक्षणसे पहचानना) चाहिये, (अर्थात् जिन -जिन गुणपर्यायोंमें चैतन्यलक्षण व्याप्त होता है; वे सब गुणपर्यायें आत्मा हैं ऐसा जानना चाहिए) क्योंकि आत्मा उसी एक लक्षणसे लक्ष्य है (अर्थात् चैतन्यलक्षणसे ही पहिचाना जाता है) । और समस्त सहवर्ती तथा क्रमवर्ती अनन्त पर्यायोंके साथ चैतन्यका अविनाभावीपना होनेसे चिन्मात्र ही आत्मा है ऐसा निश्चय करना चाहिए । इतना आत्माके स्वलक्षणके सम्बन्धमें है । १आत्मा चेतक है और बन्ध चैत्य है; वे दोनों अज्ञानदशामें एकसे अनुभवमें आते हैं ।
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बन्धस्य तु आत्मद्रव्यासाधारणा रागादयः स्वलक्षणम् । न च रागादय आत्मद्रव्यसाधारणतां बिभ्राणाः प्रतिभासन्ते, नित्यमेव चैतन्यचमत्कारादतिरिक्तत्वेन प्रतिभासमानत्वात् । न च यावदेव समस्तस्वपर्यायव्यापि चैतन्यं प्रतिभाति तावन्त एव रागादयः प्रतिभान्ति, रागादीनन्तरेणापि चैतन्यस्यात्मलाभसम्भावनात् । यत्तु रागादीनां चैतन्येन सहैवोत्प्लवनं तच्चेत्यचेतकभावप्रत्यासत्तेरेव, नैकद्रव्यत्वात्; चेत्यमानस्तु रागादिरात्मनः, प्रदीप्यमानो घटादिः प्रदीपस्य प्रदीपकतामिव, चेतकतामेव प्रथयेत्, न पुना रागादिताम् । एवमपि तयोरत्यन्तप्रत्यासत्त्या भेदसम्भावना- भावादनादिरस्त्येकत्वव्यामोहः, स तु प्रज्ञयैव छिद्यत एव ।
(अब बन्धके स्वलक्षणके सम्बन्धमें कहते हैं : — ) बन्धका स्वलक्षण तो आत्मद्रव्यसे असाधारण ऐसे रागादिक हैं । यह रागादिक आत्मद्रव्यके साथ साधारणता धारण करते हुए प्रतिभासित नहीं होते, क्योंकि वे सदा चैतन्यचमत्कारसे भिन्नरूप प्रतिभासित होते हैं । और जितना, चैतन्य आत्माकी समस्त पर्यायोंमें व्याप्त होता हुआ प्रतिभासित होता है, उतने ही, रागादिक प्रतिभासित नहीं होते, क्योंकि रागादिके बिना भी चैतन्यका आत्मलाभ संभव है (अर्थात् जहाँ रागादि न हों वहाँ भी चैतन्य होता है) । और जो, रागादिकी चैतन्यके साथ ही उत्पत्ति होती है वह चैत्यचेतकभाव (-ज्ञेयज्ञायकभाव)की अति निकटताके कारण ही है, एकद्रव्यत्वके कारण नहीं; जैसे (दीपकके द्वारा) प्रकाशित किये जानेवाले घटादिक (पदार्थ) दीपकके प्रकाशकत्वको ही प्रसिद्ध करते हैं — घटादित्वको नहीं, इसप्रकार (आत्माके द्वारा) चेतित होनेवाले रागादिक (अर्थात् ज्ञानमें ज्ञेयरूपसे ज्ञात होनेवाले रागादिक भाव) आत्माके चेतकत्वको ही प्रसिद्ध करते हैं — रागादिकत्वको नहीं ।
ऐसा होने पर भी उन दोनों (-आत्मा और बन्ध)की अत्यन्त निकटताके कारण भेदसंभावनाका अभाव होनेसे अर्थात् भेद दिखाई न देनेसे (अज्ञानीको) अनादिकालसे एकत्वका व्यामोह (भ्रम) है; वह व्यामोह प्रज्ञा द्वारा ही अवश्य छेदा जाता है ।
भावार्थ : — आत्मा और बन्ध दोनोंको लक्षणभेदसे पहचान कर बुद्धिरूप छेनीसे छेदकर भिन्न-भिन्न करना चाहिए ।
आत्मा तो अमूर्तिक है और बन्ध सूक्ष्म पुद्गलपरमाणुओंका स्कन्ध है, इसलिये छद्मस्थके ज्ञानमें दोनों भिन्न प्रतीत नहीं होते, मात्र एक स्कन्ध ही दिखाई देता है; (अर्थात् दोनों एक पिण्डरूप दिखाई देते हैं ) इसलिये अनादि अज्ञान है । श्री गुरुओंका उपदेश प्राप्त करके उनके लक्षण भिन्न-भिन्न अनुभव करके जानना चाहिए कि चैतन्यमात्र तो आत्माका लक्षण है और रागादिक बन्धका लक्षण है, तथापि मात्र ज्ञेयज्ञायकभावकी अति निकटतासे वे एक जैसे ही
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सूक्ष्मेऽन्तःसन्धिबन्धे निपतति रभसादात्मकर्मोभयस्य ।
बन्धं चाज्ञानभावे नियमितमभितः कुर्वती भिन्नभिन्नौ ।।१८१।।
श्लोकार्थ : — [इयं शिता प्रज्ञाछेत्री ] यह प्रज्ञारूप तीक्ष्ण छैनी [निपुणैः ] प्रवीण पुरुषोंके द्वारा [कथम् अपि ] किसी भी प्रकारसे ( – यत्नपूर्वक ) [सावधानैः ] सावधानतया (निष्प्रमादतया) [पातिता ] पटक ने पर, [आत्म-कर्म-उभयस्य सूक्ष्मे अन्तःसन्धिबन्धे ] आत्मा और क र्म — दोनोंके सूक्ष्म अन्तरंगमें सन्धिके बन्धमें [रभसात् ] शीघ्र [निपतति ] पड़ती है । किस प्रकार पड़ती है? [आत्मानम् अन्तः-स्थिर-विशद-लसद्-धाम्नि चैतन्यपूरे मग्नम् ] वह आत्माको तो जिसका तेज अन्तरंगमें स्थिर और निर्मलतया देदीप्यमान है, ऐसे चैतन्यप्रवाहमें मग्न क रती हुई [च ] और [बन्धम् अज्ञानभावे नियमितम् ] बन्धको अज्ञानभावमें निश्चल (नियत) क रती हुई — [अभितः भिन्नभिन्नौ कुर्वती ] इसप्रकार आत्मा और बन्धको सर्वतः भिन्न-भिन्न क रती हुई पड़ती है ।
भावार्थ : — यहाँ आत्मा और बन्धको भिन्न-भिन्न करनेरूप कार्य है । उसका कर्ता आत्मा है । वहाँ करणके बिना कर्ता किसके द्वारा कार्य करेगा ? इसलिये करण भी आवश्यक है । निश्चयनयसे कर्तासे करण भिन्न नहीं होता; इसलिये आत्मासे अभिन्न ऐसी यह बुद्धि ही इस कार्यमें करण है । आत्माके अनादि बन्ध ज्ञानावरणादि कर्म है, इसका कार्य भावबन्ध तो रागादिक है तथा नोकर्म शरीरादिक है । इसलिये बुद्धिके द्वारा आत्माको शरीरसे, ज्ञानावरणादिक द्रव्यकर्मसे तथा रागादिक भावकर्मसे भिन्न एक चैतन्यभावमात्र अनुभव कर ज्ञानमें ही लीन रखना सो यही (आत्मा और बन्धको) भिन्न करना है । इसीसे सर्व कर्मोंका नाश होता है, सिद्धपदकी प्राप्ति होती है, ऐसा जानना चाहिए ।१८१।
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आत्मबन्धौ हि तावन्नियतस्वलक्षणविज्ञानेन सर्वथैव छेत्तव्यौ; ततो रागादिलक्षणः समस्त एव बन्धो निर्मोक्त व्यः, उपयोगलक्षणः शुद्ध आत्मैव गृहीतव्यः । एतदेव किलात्म- बन्धयोर्द्विधाकरणस्य प्रयोजनं यद्बन्धत्यागेन शुद्धात्मोपादानम् ।
‘आत्मा और बन्धको द्विधा करके क्या करना चाहिए’ ऐसा प्रश्न होने पर उत्तर देते हैं : —
गाथार्थ : — [तथा ] इसप्रकार [जीवः बन्धः च ] जीव और बन्ध [नियताभ्याम् स्वलक्षणाभ्यां ] अपने निश्चित स्वलक्षणोंसे [छिद्येते ] छेदे जाते हैं । [बन्धः ] वहाँ, बन्धको [छेत्तव्यः ] छेदना चाहिए अर्थात् छोड़ना चाहिए [च ] और [शुद्धः आत्मा ] शुद्ध आत्माको [गृहीतव्यः ] ग्रहण क रना चाहिए ।
टीका : — आत्मा और बन्धको प्रथम तो उनके नियत स्वलक्षणोंके विज्ञानसे सर्वथा ही छेद अर्थात् भिन्न करना चाहिए; तत्पश्चात्, रागादिक जिसका लक्षण हैं ऐसे समस्त बन्धको तो छोड़ना चाहिए तथा उपयोग जिसका लक्षण है ऐसे शुद्ध आत्माको ही ग्रहण करना चाहिए । वास्तवमें यही आत्मा और बन्धको द्विधा करनेका प्रयोजन है कि बन्धके त्यागसे ( – अर्थात् बन्धका त्याग करके) शुद्ध आत्माको ग्रहण करना ।।२९५।।
भावार्थ : — शिष्यने प्रश्न किया था कि आत्मा और बन्धको द्विधा करके क्या करना चाहिए ? उसका यह उत्तर दिया है कि बन्धका तो त्याग करना और शुद्ध आत्माका ग्रहण करना ।
(‘आत्मा और बन्धको प्रज्ञाके द्वारा भिन्न तो किया, परन्तु आत्माको किसके द्वारा ग्रहण किया जाये ?’ — इस प्रश्नकी तथा उसके उत्तरकी गाथा कहते हैं : — )
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ननु केन शुद्धोऽयमात्मा गृहीतव्यः ? प्रज्ञयैव शुद्धोऽयमात्मा गृहीतव्यः, शुद्धस्यात्मनः स्वय- मात्मानं गृह्णतो, विभजत इव, प्रज्ञैककरणत्वात् । अतो यथा प्रज्ञया विभक्त स्तथा प्रज्ञयैव गृहीतव्यः ।
गाथार्थ : — (शिष्य पूछता है कि — ) [सः आत्मा ] वह (शुद्ध) आत्मा [कथं ] कैसे [गृह्यते ] ग्रहण किया जाय ? (आचार्य उत्तर देते हैं कि – ) [प्रज्ञया तु ] प्रज्ञाके द्वारा [सः आत्मा ] वह (शुद्ध) आत्मा [गृह्यते ] ग्रहण किया जाता है । [यथा ] जैसे [प्रज्ञया ] प्रज्ञा द्वारा [विभक्तः ] भिन्न किया, [तथा ] उसीप्रकार [प्रज्ञया एव ] प्रज्ञाके द्वारा ही [गृहीतव्यः ] ग्रहण करना चाहिए ।
टीका : — यह शुद्ध आत्मा किसके द्वारा ग्रहण करना चाहिए ? प्रज्ञाके द्वारा ही यह शुद्ध आत्मा ग्रहण करना चाहिए; क्योंकि शुद्ध आत्माको, स्वयं निजको ग्रहण करनेमें प्रज्ञा ही एक करण है — जैसे भिन्न करनेमें प्रज्ञा ही एक करण था । इसलिये जैसे प्रज्ञाके द्वारा भिन्न किया था, उसीप्रकार प्रज्ञाके द्वारा ही ग्रहण करना चाहिए ।
भावार्थ : — भिन्न करनेमें और ग्रहण करनेमें करण अलग-अलग नहीं हैं; इसलिये प्रज्ञाके द्वारा ही आत्माको भिन्न किया और प्रज्ञाके द्वारा ही ग्रहण करना चाहिए ।।२९६।।
अब प्रश्न होता है कि — इस आत्माको प्रज्ञाके द्वारा कैसे ग्रहण करना चाहिए ? इसका उत्तर कहते हैं : —
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यो हि नियतस्वलक्षणावलम्बिन्या प्रज्ञया प्रविभक्त श्चेतयिता, सोऽयमहं; ये त्वमी अवशिष्टा अन्यस्वलक्षणलक्ष्या व्यवह्रियमाणा भावाः, ते सर्वेऽपि चेतयितृत्वस्य व्यापकस्य व्याप्यत्वमनायान्तोऽत्यंतं मत्तो भिन्नाः । ततोऽहमेव मयैव मह्यमेव मत्त एव मय्येव मामेव गृह्णामि । यत्किल गृह्णामि तच्चेतनैकक्रियत्वादात्मनश्चेतय एव; चेतयमान एव चेतये, चेतयमानेनैव चेतये, चेतयमानायैव चेतये, चेतयमानादेव चेतये, चेतयमाने एव चेतये, चेतयमानमेव चेतये । अथवा — न चेतये; न चेतयमानश्चेतये, न चेतयमानेन चेतये, न चेतयमानाय चेतये, न चेतयमानाच्चेतये, न चेतयमाने चेतये, न चेतयमानं चेतये; किन्तु सर्वविशुद्धचिन्मात्रो भावोऽस्मि ।
गाथार्थ : — [प्रज्ञया ] प्रज्ञाके द्वारा [गृहीतव्यः ] (आत्माको) इसप्रकार ग्रहण क रना चाहिए कि — [यः चेतयिता ] जो चेतनेवाला है [सः तु ] वह [निश्चयतः ] निश्चयसे [अहं ] मैं हूँ, [अवशेषाः ] शेष [ये भावाः ] जो भाव हैं [ते ] वे [मम पराः ] मुझसे पर हैं, [इति ज्ञातव्यः ] ऐसा जानना चाहिए ।
टीका : — नियत स्वलक्षणका अवलम्बन करनेवाली प्रज्ञाके द्वारा भिन्न किया गया जो चेतक (-चेतनेवाला) है सो यह मैं हूँ; और अन्य स्वलक्षणोंसे लक्ष्य (अर्थात् चैतन्यलक्षणके अतिरिक्त अन्य लक्षणोंसे जानने योग्य) जो यह शेष व्यवहाररूप भाव हैं, वे सभी, चेतकत्वरूप व्यापकके व्याप्य नहीं होते इसलिये, मुझसे अत्यन्त भिन्न हैं । इसलिये मैं ही, अपने द्वारा ही, अपने लिये ही, अपनेमेंसे ही, अपनेमें ही, अपनेको ही ग्रहण करता हूँ । आत्माकी, चेतना ही एक क्रिया है इसलिये, ‘मैं ग्रहण करता हूँ’ अर्थात् ‘मैं चेतता ही हूँ’; चेतता हुआ ही चेतता हूँ, चेतते द्वारा ही चेतता हूँ, चेतते हुएके लिए ही चेतता हूँ, चेतते हुयेसे चेतता हूँ, चेततेमें ही चेतता हूँ, चेततेको ही चेतता हूँ । अथवा — नहीं चेतता, न चेतता हुआ चेतता हूँ, न चेतते हुयेके द्वारा चेतता हूँ, न चेतते हुएके लिए चेतता हूँ, न चेतते हुएसे चेतता हूँ, न चेतते हुएमें चेतता हूँ, न चेतते हुएको चेतता हूँ; किन्तु सर्वविशुद्ध चिन्मात्र ( – चैतन्यमात्र) भाव हूँ ।
भावार्थ : — प्रज्ञाके द्वारा भिन्न किया गया जो चेतक वह मैं हूँ और शेष भाव मुझसे पर हैं; इसलिये (अभिन्न छह कारकोंसे) मैं ही, मेरे द्वारा ही, मेरे लिये ही, मुझसे ही, मुझमें ही, मुझे ही ग्रहण करता हूँ । ‘ग्रहण करता हूँ’ अर्थात् ‘चेतता हूँ’, क्योंकि चेतना ही आत्माकी एक
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चिन्मुद्रांकि तनिर्विभागमहिमा शुद्धश्चिदेवास्म्यहम् ।
भिद्यन्तां न भिदास्ति काचन विभौ भावे विशुद्धे चिति ।।१८२।।
श्लोकार्थ : — [यत् भेत्तुं हि शक्यते सर्वम् अपि स्वलक्षणबलात् भित्त्वा ] जो कुछ भी भेदा जा सकता है उस सबको स्वलक्षणके बलसे भेदकर, [चिन्मुद्रा-अंकि त-निर्विभाग-महिमा शुद्धः चिद् एव अहम् अस्मि ] जिसकी चिन्मुड्डद्रासे अंकि त निर्विभाग महिमा है (अर्थात् चैतन्यकी मुद्रासे अंकित विभाग रहित जिसकी महिमा है) ऐसा शुद्ध चैतन्य ही मैं हूँ । [यदि कारकाणि वा यदि धर्माः वा यदि गुणाः भिद्यन्ते, भिद्यन्ताम् ] यदि क ारक ोंके, अथवा धर्मोंके, या गुणोंके भेद हों तो भले हों; [विभौ विशुद्धे चिति भावे काचन भिदा न अस्ति ] किन्तु १विभु ऐसे शुद्ध ( – समस्त विभावोंसे रहित – ) चैतन्यभावमें तो कोई भेद नहीं है । (इसप्रकार प्रज्ञाके द्वारा आत्माको ग्रहण किया जाता है ।)
भावार्थ : — जिनका स्वलक्षण चैतन्य नहीं है ऐसे परभाव तो मुझसे भिन्न हैं, मैं तो मात्र शुद्ध चैतन्य ही हूँ । कर्ता, कर्म, करण, संप्रदान, अपादान और अधिकरणरूप कारकभेद, सत्त्व, असत्त्व, नित्यत्व, अनित्यत्व, एकत्व, अनेकत्व आदि धर्मभेद और ज्ञान, दर्शन आदि गुणभेद यदि कथंचित् हों तो भले हों, परन्तु शुद्ध चैतन्यमात्र भावमें तो कोई भेद नहीं है । — इसप्रकार शुद्धनयसे आत्माको अभेदरूप ग्रहण करना चाहिए ।१८२।
(आत्माको शुद्ध चैतन्यमात्र तो ग्रहण कराया; अब सामान्य चेतना दर्शनज्ञानसामान्यमय है, इसलिये अनुभवमें दर्शनज्ञानस्वरूप आत्माको इसप्रकार अनुभव करना चाहिए — सो कहते हैं : — ) १विभु = दृढ़; अचल; नित्य; समर्थ; सर्व गुणपर्यायोंमें व्यापक ।
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चेतनाया दर्शनज्ञानविकल्पानतिक्रमणाच्चेतयितृत्वमिव द्रष्टृत्वं ज्ञातृत्वं चात्मनः स्वलक्षणमेव । ततोऽहं द्रष्टारमात्मानं गृह्णामि । यत्किल गृह्णामि तत्पश्याम्येव; पश्यन्नेव पश्यामि,
गाथार्थ : — [प्रज्ञया ] प्रज्ञाके द्वारा [गृहीतव्यः ] इसप्रकार ग्रहण करना चाहिए कि — [यः द्रष्टा ] जो देखनेवाला है [सः तु ] वह [निश्चयतः ] निश्चयसे [अहम् ] मैं हूँ, [अवशेषाः ] शेष [ये भावाः ] जो भाव हैं [ते ] वे [मम पराः ] मुझसे पर हैं, [इति ज्ञातव्याः ] ऐसा जानना चाहिए ।
[प्रज्ञया ] प्रज्ञाके द्वारा [गृहीतव्यः ] इसप्रकार ग्रहण करना चाहिए कि — [यः ज्ञाता ] जो जाननेवाला है [सः तु ] वह [निश्चयतः ] निश्चयसे [अहम् ] मैं हूँ, [अवशेषाः ] शेष [ये भावाः ] जो भाव हैं [ते ] वे [मम पराः ] मुझसे पर हैं, [इति ज्ञातव्याः ] ऐसा जानना चाहिए ।
टीका : — चेतना दर्शनज्ञानरूप भेदोंका उल्लंघन नहीं करती है इसलिये, चेतकत्वकी भाँति दर्शकत्व और ज्ञातृत्व आत्माका स्वलक्षण ही है । इसलिये मैं देखनेवाले आत्माको ग्रहण करता हूँ । ‘ग्रहण करता हूँ’ अर्थात् ‘देखता ही हूँ’; देखता हुआ ही देखता हूँ, देखते हुएके द्वारा
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पश्यतैव पश्यामि, पश्यते एव पश्यामि, पश्यत एव पश्यामि, पश्यत्येव पश्यामि, पश्यन्तमेव पश्यामि । अथवा — न पश्यामि; न पश्यन् पश्यामि, न पश्यता पश्यामि, न पश्यते पश्यामि, न पश्यतः पश्यामि, न पश्यति पश्यामि, न पश्यन्तं पश्यामि; किन्तु सर्वविशुद्धो द्रङ्मात्रो भावोऽस्मि । अपि च — ज्ञातारमात्मानं गृह्णामि । यत्किल गृह्णामि तज्जानाम्येव; जानन्नेव जानामि, जानतैव जानामि, जानते एव जानामि, जानत एव जानामि, जानत्येव जानामि, जानन्तमेव जानामि । अथवा — न जानामि; न जानन् जानामि, न जानता जानामि, न जानते जानामि, न जानतो जानामि, न जानति जानामि, न जानन्तं जानामि; किन्तु सर्वविशुद्धो ज्ञप्तिमात्रो भावोऽस्मि । ही देखता हूँ, देखते हुएके लिए ही देखता हूँ, देखते हुएसे ही देखता हूँ, देखते हुएमें ही देखता हूँ, देखते हुयेको ही देखता हूँ । अथवा — नहीं देखता; न देखता हुआ देखता हूँ, न देखते हुएके द्वारा देखता हूँ, न देखते हुएके लिए देखता हूँ, न देखते हुएसे देखता हूँ, न देखते हुएमें देखता हूँ, न देखते हुएको देखता हूँ; किन्तु मैं सर्वविशुद्ध दर्शनमात्र भाव हूँ । और इसीप्रकार — मैं जाननेवाले आत्माको ग्रहण करता हूँ । ‘ग्रहण करता हूँ’ अर्थात् ‘जानता ही हूँ’; जानता हुआ ही जानता हूँ, जानते हुएके द्वारा ही जानता हूँ, जानते हुएके लिए ही जानता हूँ, जानते हुएसे ही जानता हूँ, जानते हुएमें ही जानता हूँ, जानते हुएको ही जानता हूँ । अथवा — नहीं जानता; न जानता हुआ जानता हूँ, नहीं जानते हुएके द्वारा जानता हूँ, न जानते हुएके लिये जानता हूँ, न जानते हुएसे जानता हूँ, न जानते हुएमें जानता हूँ, न जानते हुएको जानता हूँ; किन्तु मैं सर्वविशुद्ध ज्ञप्ति ( – जाननक्रिया) – मात्र भाव हूँ । (इसप्रकार देखनेवाले आत्माको तथा जाननेवाले आत्माको कर्ता, कर्म, करण, सम्प्रदान, अपादान और अधिकरणरूप कारकोंके भेदपूर्वक ग्रहण करके, तत्पश्चात् कारकभेदोंका निषेध करके आत्माको अर्थात् अपनेको दर्शनमात्र भावरूप तथा ज्ञानमात्र भावरूप करना चाहिये अर्थात् अभेदरूपसे अनुभव करना चाहिये ।)।।२९८-२९९।।
(भावार्थ : — इन तीन गाथाओंमें, प्रज्ञाके द्वारा आत्माको ग्रहण करनेको कहा गया है । ‘ग्रहण करना’ अर्थात् किसी अन्य वस्तुको ग्रहण करना अथवा लेना नहीं है; किन्तु चेतनाका अनुभव करना ही आत्माका ‘ग्रहण करना’ है ।
पहली गाथामें सामान्य चेतनाका अनुभव कराया गया है । वहाँ, अनुभव करनेवाला, जिसका अनुभव किया जाता है वह, और जिसके द्वारा अनुभव किया जाता है वह — इत्यादि कारकभेदरूपसे आत्माको कहकर, अभेदविवक्षामें कारकभेदका निषेध करके, आत्माको एक शुद्ध चैतन्यमात्र कहा गया है ।
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ननु कथं चेतना दर्शनज्ञानविकल्पौ नातिक्रामति येन चेतयिता द्रष्टा ज्ञाता च स्यात् ? उच्यते — चेतना तावत्प्रतिभासरूपा; सा तु, सर्वेषामेव वस्तूनां सामान्यविशेषात्मकत्वात्, द्वैरूप्यं नातिक्रामति । ये तु तस्या द्वे रूपे ते दर्शनज्ञाने । ततः सा ते नातिक्रामति । यद्यतिक्रामति, सामान्यविशेषातिक्रान्तत्वाच्चेतनैव न भवति । तदभावे द्वौ दोषौ — स्वगुणोच्छेदाच्चेतनस्या- चेतनतापत्तिः, व्यापकाभावे व्याप्यस्य चेतनस्याभावो वा । ततस्तद्दोषभयाद्दर्शनज्ञानात्मिकैव चेतनाभ्युपगन्तव्या ।
दात्मा चान्तमुपैति तेन नियतं द्रग्ज्ञप्तिरूपाऽस्तु चित् ।।१८३।।
अब इन दो गाथाओंमें द्रष्टा तथा ज्ञाताका अनुभव कराया है, क्योंकि चेतनासामान्य दर्शन- ज्ञानविशेषोंका उल्लंघन नहीं करती । यहाँ भी, छह कारकरूप भेद-अनुभवन कराके, और तत्पश्चात् अभेद-अनुभवनकी अपेक्षासे कारकभेदको दूर कराके, द्रष्टाज्ञातामात्रका अनुभव कराया है ।)
टीका : — यहाँ प्रश्न होता है कि — चेतना दर्शनज्ञानभेदोंका उल्लंघन क्यों नहीं करती कि जिससे चेतयिता द्रष्ट तथा ज्ञाता होता है ? इसका उत्तर कहते हैं : — प्रथम तो चेतना प्रतिभासरूप है । वह चेतना द्विरूपताका उल्लंघन नहीं करती, क्योंकि समस्त वस्तुऐं सामान्यविशेषात्मक हैं । (सभी वस्तुऐं सामान्यविशेषस्वरूप हैं, इसलिये उन्हें प्रतिभासनेवाली चेतना भी द्विरूपताका उल्लंघन नहीं करती ।) उसके जो दो रूप हैं वे दर्शन और ज्ञान हैं । इसलिये वह उनका ( – दर्शनज्ञानका) उल्लंघन नहीं करती । यदि चेतना दर्शनज्ञानका उल्लंघन करे तो सामान्य विशेषका उल्लंघन करनेसे चेतना ही न रहे (अर्थात् चेतनाका अभाव हो जायेगा) । उसके अभावमें दो दोष आते हैं — (१) अपने गुणका नाश होनेसे चेतनको अचेतनत्व आ जायेगा, अथवा (२) व्यापक(-चेतना-)के अभावमें व्याप्य ऐसे चेतन(आत्मा)का अभाव हो जायेगा । इसलिये उन दोषोंके भयसे चेतनाको दर्शनज्ञानस्वरूप ही अंगीकार करना चाहिए ।
श्लोकार्थ : — [जगति हि चेतना अद्वैता ] जगतमें निश्चयतः चेतना अद्वैत है [अपि चेत् सा दृग्ज्ञप्तिरूपं त्यजेत् ] तथापि यदि वह दर्शनज्ञानरूपको छोड़ दे [तत्सामान्यविशेषरूपविरहात् ]
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भावाः परे ये किल ते परेषाम् ।
भावाः परे सर्वत एव हेयाः ।।१८४।।
छोड़ देगी; और [तत्-त्यागे ] इसप्रकार चेतना अपने अस्तित्वको छोड़ने पर, (१) [चितः अपि
जडता भवति ] चेतनके जड़त्व आ जायेगा अर्थात् आत्मा जड़ हो जाय, [च ] और (२)
[व्यापकात् विना व्याप्यः आत्मा अन्तम् उपैति ] व्यापक (चेताना)के बिना व्याप्य जो आत्मा
वह नष्ट हो जायेगा ( – इसप्रकार दो दोष आते हैं)
भावार्थ : — समस्त वस्तुऐं सामान्यविशेषात्मक हैं । इसलिए उन्हें प्रतिभासनेवाली चेतना भी सामान्यप्रतिभासरूप ( – दर्शनरूप) और विशेषप्रतिभासरूप ( – ज्ञानरूप) होनी चाहिए । यदि चेतना अपनी दर्शनज्ञानरूपताको छोड़ दे तो चेतनाका ही अभाव होने पर, या चेतन आत्माको (अपने चेतना गुणका अभाव होने पर) जड़त्व आ जायगा, अथवा तो व्यापकके अभावसे व्याप्य ऐसे आत्माका अभाव हो जायेगा । (चेतना आत्माकी सर्व अवस्थाओंमें व्याप्त होनेसे व्यापक है और आत्मा चेतन होनेसे चेतनाका व्याप्य है । इसलिए चेतनाका अभाव होने पर आत्माका भी अभाव हो जायेगा ।) इसलिये चेतनाको दर्शनज्ञानस्वरूप ही मानना चाहिए ।
यहाँ तात्पर्य यह है कि — सांख्यमतावलम्बी आदि कितने ही लोग सामान्य चेतनाको ही मानकर एकान्त कथन करते हैं, उनका निषेध करनेके लिए यहाँ यह बताया गया है कि ‘वस्तुका स्वरूप सामान्यविशेषरूप है, इसलिए चेतनाको सामान्यविशेषरूप अंगीकार करना चाहिए’ ।१८३।
श्लोकार्थ : — [चितः ] चैतन्यका (आत्माका) तो [एकः चिन्मयः एव भावः ] एक चिन्मय ही भाव है, और [ये परे भावाः ] जो अन्य भाव हैं [ते किल परेषाम् ] वे वास्तवमें दूसरोंके भाव हैं; [तत : ] इसलिए [चिन्मयः भावः एव ग्राह्यः ] (एक) चिन्मय भाव ही ग्रहण क रने योग्य है, [परे भावाः सर्वतः एव हेयाः ] अन्य भाव सर्वथा त्याज्य हैं ।१८४।
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को णाम भणिज्ज बुहो णादुं सव्वे पराइए भावे । मज्झमिणं ति य वयणं जाणंतो अप्पयं सुद्धं ।।३००।।
यो हि परात्मनोर्नियतस्वलक्षणविभागपातिन्या प्रज्ञया ज्ञानी स्यात्, स खल्वेकं चिन्मात्रं भावमात्मीयं जानाति, शेषांश्च सर्वानेव भावान् परकीयान् जानाति । एवं च जानन् कथं परभावान्ममामी इति ब्रूयात् ? परात्मनोर्निश्चयेन स्वस्वामिसम्बन्धस्यासम्भवात् । अतः सर्वथा चिद्भाव एव गृहीतव्यः, शेषाः सर्वे एव भावाः प्रहातव्या इति सिद्धान्तः ।
गाथार्थ : — [सर्वान् भावान् ] सर्व भावोंको [परकीयान् ] दूसरोंके [ज्ञात्वा ] जानकर [कः नाम बुधः ] कौन ज्ञानी, [आत्मानम् ] अपनेको [शुद्धम् ] शुद्ध [जानन् ] जानता हुआ, [इदम् मम ] ‘यह मेरा है’ ( – ‘यह भाव मेरे हैं’) [इति च वचनम् ] ऐसा वचन [भणेत् ] बोलेगा ?
टीका : — जो (पुरुष) परके और आत्माके नियत स्वलक्षणोंके विभागमें पड़नेवाली प्रज्ञाके द्वारा ज्ञानी होता है, वह वास्तवमें एक चिन्मात्र भावको अपना जानता है और शेष सर्व भावोंको दूसरोंके जानता है । ऐसा जानता हुआ (वह पुरुष) परभावोंको ‘यह मेरे हैं’ ऐसा क्यों कहेगा ? (नहीं कहेगा;) क्योंकि परमें और अपनेमें निश्चयसे स्वस्वामिसम्बन्धका असम्भव है । इसलिये, सर्वथा चिद्भाव ही (एकमात्र) ग्रहण करने योग्य है, शेष समस्त भाव छोड़ने योग्य हैं — ऐसा सिद्धान्त है ।
भावार्थ : — लोकमें भी यह न्याय है कि — जो सुबुद्धि और न्यायवान होता है वह दूसरेके धनादिको अपना नहीं कहता । इसीप्रकार जो सम्यग्ज्ञानी है, वह समस्त परद्रव्योंको अपना नहीं मानता । किन्तु अपने निजभावको ही अपना जानकर ग्रहण करता है ।।३००।।
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शुद्धं चिन्मयमेकमेव परमं ज्योतिः सदैवास्म्यहम् ।
स्तेऽहं नास्मि यतोऽत्र ते मम परद्रव्यं समग्रा अपि ।।१८५।।
श्लोकार्थ : — [उदात्तचित्तचरितैः मोक्षार्थिभिः ] जिनके चित्तका चरित्र उदात्त ( – उदार, उच्च, उज्ज्वल) है ऐसे मोक्षार्थी [अयम् सिद्धान्तः ] इस सिद्धांतका [सेव्यताम् ] सेवन करें कि — ‘[अहम् शुद्धं चिन्मयम् एकम् परमं ज्योतिः एव सदा एव अस्मि ] मैं तो सदा ही शुद्ध चैतन्यमय एक परम ज्योति ही हूँ; [तु] और [एते ये पृथग्लक्षणाः विविधाः भावाः समुल्लसन्ति ते अहं न अस्मि ] जो यह भिन्न लक्षणवाले विविध प्रकारके भाव प्रगट होते हैं वे मैं नहीं हूँ, [यतः अत्र ते समग्राः अपि मम परद्रव्यम् ] क्योंकि वे सभी मेरे लिए परद्रव्य हैं ’ ।१८५।
श्लोकार्थ : — [परद्रव्यग्रहं कुर्वन् ] जो परद्रव्यको ग्रहण क रता है [अपराधवान् ] वह अपराधी है, [बध्येत एव] इसलिये बन्धमें पड़ता है, और [स्वद्रव्ये संवृतः यतिः ] जो स्वद्रव्यमें ही संवृत है (अर्थात् जो अपने द्रव्यमें ही गुप्त है — मग्न है — संतुष्ट है, परद्रव्यका ग्रहण नहीं करता) ऐसा यति [अनपराधः ] निरपराधी है, [न बध्येत ] इसलिये बँधता नहीं है ।१८६।
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गाथार्थ : — [यः ] जो पुरुष [स्तेयादीन् अपराधान् ] चोरी आदिके अपराध [करोति ] करता है, [सः तु ] वह ‘[जने विचरन् ] लोक में घूमता हुआ [केन अपि ] मुझे कोई [चौरः इति ] चोर समझकर [मा बध्ये ] पकड़ न ले’, इसप्रकार [शङ्कितः भ्रमति ] शंकि त होता हुआ घूमता है; [यः ] जो पुरुष [अपराधान् ] अपराध [न करोति ] नहीं क रता [सः तु ] वह [जनपदे ] लोक में [निश्शङ्कः भ्रमति ] निःशंक घूमता है, [यद् ] क्योंकि [तस्य ] उसे [बद्धुं चिन्ता ] बँधनेकी चिन्ता [कदाचित् अपि ] क भी भी [न उत्पद्यते ] उत्पन्न नहीं होती । [एवम् ] इसीप्रकार [चेतयिता ] अपराधी आत्मा ‘[सापराधः अस्मि ] मैं अपराधी हूँ, [बध्ये तु अहम् ] इसलिये मैं बँधूँगा’ इसप्रकार [शङ्कितः ] शंकि त होता है, [यदि पुनः ] और यदि [निरपराधः ] अपराध रहित (आत्मा) हो तो ‘[अहं न बध्ये ] मैं नहीं बँधूँगा’ इसप्रकार [निश्शंङ्कः ] निःशंक होता है ।
टीका : — जैसे इस जगतमें जो पुरुष, परद्रव्यका ग्रहण जिसका लक्षण है ऐसा अपराध करता है उसीको बन्धकी शंका होती है, और जो अपराध नहीं करता उसे बन्धकी शंका नहीं होती;
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तं न करोति तस्य सा न सम्भवति; तथात्मापि य एवाशुद्धः सन् परद्रव्यग्रहणलक्षणमपराधं करोति तस्यैव बन्धशंका सम्भवति, यस्तु शुद्धः संस्तं न करोति तस्य सा न सम्भवतीति नियमः । अतः सर्वथा सर्वपरकीयभावपरिहारेण शुद्ध आत्मा गृहीतव्यः, तथा सत्येव निरपराधत्वात् ।
इसीप्रकार आत्मा भी जो अशुद्ध वर्तता हुआ, परद्रव्यका ग्रहण जिसका लक्षण है ऐसा अपराध करता है उसीको बन्धकी शँका होती है, तथा जो शुद्ध वर्तता हुआ अपराध नहीं करता उसे बन्धकी शँका नहीं होती — ऐसा नियम है । इसलिए सर्वथा समस्त परकीय भावोंके परिहार द्वारा (अर्थात् परद्रव्यके सर्व भावोंको छोड़कर) शुद्ध आत्माको ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि ऐसा होने पर ही निरपराधता होती है ।।३०० से ३०३।।
भावार्थ : — यदि मनुष्य चोरी आदि अपराध करे तो उसे बन्धनकी शँका हो; निरपराधको शँका क्यों होगी ? इसीप्रकार यदि आत्मा परद्रव्यके ग्रहणरूप अपराध करे तो उसे बन्धकी शँका अवश्य होगी; यदि अपनेको शुद्ध अनुभव करे, परका ग्रहण न करे, तो बन्धकी शँका क्यों होगी ? इसलिए परद्रव्यको छोड़कर शुद्ध आत्माका ग्रहण करना चाहिए । तभी निरपराध हुआ जाता है ।
अब प्रश्न होता है कि यह ‘अपराध’ क्या है ? उसके उत्तरमें अपराधका स्वरूप कहते हैं : —
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परद्रव्यपरिहारेण शुद्धस्यात्मनः सिद्धिः साधनं वा राधः । अपगतो राधो यस्य चेतयितुः सोऽपराधः । अथवा अपगतो राधो यस्य भावस्य सोऽपराधः, तेन सह यश्चेतयिता वर्तते स सापराधः । स तु परद्रव्यग्रहणसद्भावेन शुद्धात्मसिद्धयभावाद्बन्धशंकासम्भवे सति स्वयमशुद्धत्वादनाराधक एव स्यात् । यस्तु निरपराधः स समग्रपरद्रव्यपरिहारेण शुद्धात्मसिद्धिसद्भावाद्बन्धशंकाया असम्भवे सति उपयोगैकलक्षणशुद्ध आत्मैक एवाहमिति
गाथार्थ : — [संसिद्धिराधसिद्धम् ] संसिद्धि, १राध, सिद्ध, [साधितम् आराधितं च ] साधित और आराधित — [एकार्थम् ] ये एकार्थवाची शब्द हैं; [यः खलु चेतयिता ] जो आत्मा [अपगतराधः ] ‘अपगतराध’ अर्थात् राधसे रहित है, [सः ] वह आत्मा [अपराधः ] अपराध [भवति ] है ।
[पुनः ] और [यः चेतयिता ] जो आत्मा [निरपराधः ] निरपराध है [सः तु ] वह [निश्शङ्कितः भवति ] निःशंक होता है; [अहम् इति जानन् ] ‘जो शुद्ध आत्मा है सो ही मैं हूँ ’ ऐसा जानता हुआ [आराधनया ] आराधनासे [नित्यं वर्तते ] सदा वर्तता है ।
टीका : — परद्रव्यके परिहारसे शुद्ध आत्माकी सिद्धि अथवा साधन सो राध है । जो आत्मा ‘अपगतराध’ अर्थात् राध रहित हो वह आत्मा अपराध है । अथवा (दूसरा समासविग्रह इसप्रकार है :) जो भाव राध रहित हो वह भाव अपराध है; उस अपराधसे युक्त जो आत्मा वर्तता हो वह आत्मा सापराध है । वह आत्मा, परद्रव्यके ग्रहणके सद्भाव द्वारा शुद्ध आत्माकी सिद्धिके अभावके कारण बन्धकी शंका होती है, इसलिये स्वयं अशुद्ध होनेसे, अनाराधक ही है । और जो आत्मा निरपराध है वह, समग्र परद्रव्यके परिहारसे शुद्ध आत्माकी सिद्धिके सद्भावके कारण बन्धकी शंका नहीं होती, इसलिये ‘उपयोग ही जिसका एक लक्षण है ऐसा एक शुद्ध आत्मा ही मैं हूँ’ इसप्रकार निश्चय करता हुआ शुद्ध आत्माकी सिद्धि १राध = आराधना; प्रसन्नता; कृपा; सिद्धि; पूर्णता; सिद्धि करना; पूर्ण करना ।
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निश्चिन्वन् नित्यमेव शुद्धात्मसिद्धिलक्षणयाराधनया वर्तमानत्वादाराधक एव स्यात् ।
स्पृशति निरपराधो बन्धनं नैव जातु ।
भवति निरपराधः साधु शुद्धात्मसेवी ।।१८७।।
ननु किमनेन शुद्धात्मोपासनप्रयासेन ? यतः प्रतिक्रमणादिनैव निरपराधो भवत्यात्मा; सापराधस्याप्रतिक्रमणादेस्तदनपोहकत्वेन विषकुम्भत्वे सति प्रतिक्रमणा- जिसका लक्षण है ऐसी आराधना पूर्वक सदा ही वर्तता है इसलिये, आराधक ही है ।
भावार्थ : — संसिद्धि, राध, सिद्धि, साधित और आराधित — इन शब्दोंका एक ही अर्थ है । यहाँ शुद्ध आत्माकी सिद्धि अथवा साधनका नाम ‘राध’ है । जिनके वह राध नहीं है वह आत्मा सापराध है और जिसके वह राध है वह आत्मा निरपराध है । जो सापराध है उसे बन्धकी शंका होती है, इसलिये वह स्वयं अशुद्ध होनेसे अनाराधक है; और जो निरपराध है वह निःशंक होता हुआ अपने उपयोगमें लीन होता है, इसलिये उसे बन्धकी शंका नहीं होती, इसलिये ‘जो शुद्ध आत्मा है वही मैं हूँ’ ऐसे निश्चयपूर्वक वर्तता हुआ सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तपके एक भावरूप निश्चय आराधनाका आराधक ही है ।।३०४-३०५।।
श्लोकार्थ : — [सापराधः ] सापराध आत्मा [अनवरतम् ] निरन्तर [अनन्तैः ] अनंत पुद्गलपरमाणुरूप क र्मोंसे [बध्यते ] बँधता है; [निरपराधः ] निरपराध आत्मा [बन्धनम् ] बन्धनको [जातु ] क दापि [स्पृशति न एव ] स्पर्श नहीं करता । [अयम् ] जो सापराध आत्मा है वह तो [नियतम् ] नियमसे [स्वम् अशुद्धं भजन् ] अपनेको अशुद्ध सेवन करता हुआ [सापराधः ] सापराध है; [निरपराधः ] निरपराध आत्मा तो [साधु ] भलीभाँति [शुद्धात्मसेवी भवति ] शुद्ध आत्माका सेवन करनेवाला होता है ।१८७।
(यहाँ व्यवहारनयावलम्बी अर्थात् व्यवहारनयको अवलम्बन करनेवाला तर्क करता है कि : — ) ‘‘शुद्ध आत्माकी उपासनाका यह प्रयास करनेका क्या काम है ? क्योंकि प्रतिक्रमण आदिसे ही आत्मा निरपराध होता है; क्योंकि सापराधके, जो अप्रतिक्रमण आदि हैं वे, अपराधको दूर करनेवाले न होनेसे, विषकुम्भ हैं, इसलिये जो प्रतिक्रमणादि हैं वे,
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देस्तदपोहकत्वेनामृतकुम्भत्वात् । उक्तं च व्यवहाराचारसूत्रे — ‘‘अप्पडिकमणमप्पडिसरणं अप्परिहारो अधारणा चेव । अणियत्ती य अणिंदागरहासोही य विसकुंभो ।।१।। पडिकमणं पडिसरणं परिहारो धारणा णियत्ती य । णिंदा गरहा सोही अट्ठविहो अमयकुंभो दु ।।२।।’’
अत्रोच्यते — अपराधको दूर करनेवाले होनेसे, अमृतकुम्भ हैं । व्यवहारका कथन करनेवाले आचारसूत्रमें भी कहा है कि : —
[अर्थ : — अप्रतिक्रमण, अप्रतिसरण, अपरिहार, अधारणा, अनिवृत्ति, अनिन्दा, अगर्हा और अशुद्धि — यह (आठ प्रकारका) विषकुम्भ है ।१।
१प्रतिक्रमण, २प्रतिसरण, ३परिहार, ४धारणा, ५निवृत्ति, ६निन्दा, ७गर्हा और ८शुद्धि — यह आठ प्रकारका अमृतकुम्भ है ।२।]
उपरोक्त तर्कका समाधान करते हुए आचार्यदेव (निश्चयनयकी प्रधानतासे) गाथा द्वारा कहते हैं : — १. प्रतिक्रमण = कृत दोषोंका निराकरण । २. प्रतिसरण = सम्यक्त्वादि गुणोंमें प्रेरणा । ३. परिहार = मिथ्यात्वादि दोषोंका निवारण । ४. धारणा = पंचनमस्कारादि मंत्र, प्रतिमा इत्यादि बाह्य द्रव्योंके आलम्बन द्वारा चित्तको स्थिर करना । ५. निवृत्ति = बाह्य विषयकषायादि इच्छामें प्रवर्तमान चित्तको हटा लेना । ६. निन्दा = आत्मसाक्षीपूर्वक दोषोंका प्रगट करना । ७. गर्हा = गुरुसाक्षीसे दोषोंका प्रगट करना । ८. शुद्धि = दोष होने पर प्रायश्चित्त लेकर विशुद्धि करना ।