Samaysar (Hindi). Gatha: 3-12 ; Kalash: 4.

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जीवः चरित्रदर्शनज्ञानस्थितः तं हि स्वसमयं जानीहि
पुद्गलकर्मप्रदेशस्थितं च तं जानीहि परसमयम।।२।।
योऽयं नित्यमेव परिणामात्मनि स्वभावेऽवतिष्ठमानत्वादुत्पादव्ययध्रौव्यैक्यानुभूतिलक्षणया
सत्तयानुस्यूतश्चैतन्यस्वरूपत्वान्नित्योदितविशददृशिज्ञप्तिज्योतिरनंतधर्माधिरूढैकधर्मित्वादुद्योतमानद्रव्यत्वः
क्रमाक्रमप्रवृत्तविचित्रभावस्वभावत्वादुत्संगितगुणपर्यायः स्वपराकारावभासनसमर्थत्वादुपात्तवैश्व-
रूप्यैकरूपः प्रतिविशिष्टावगाहगतिस्थितिवर्तनानिमित्तत्वरूपित्वाभावादसाधारणचिद्रूपतास्वभाव-
गाथार्थ :हे भव्य ! [जीवः ] जो जीव [चरित्रदर्शनज्ञानस्थितः ] दर्शन, ज्ञान, चारित्रमें
स्थित हो रहा है [तं ] उसे [हि ] निश्चयसे (वास्तवमें) [स्वसमयं ] स्वसमय [जानीहि ] जानो
[च ] और जो जीव [पुद्गलकर्मप्रदेशस्थितं ] पुद्गलकर्मके प्रदेशोंमें स्थित है [तं ] उसे [परसमयं ]
परसमय [जानीहि ] जानो
टीका :‘समय’ शब्दका अर्थ इसप्रकार है :‘सम्’ उपसर्ग है, जिसका अर्थ
‘एकपना’ है और ‘अय् गतौ’ धातु है, जिसका अर्थ गमन भी है और ज्ञान भी है इसलिए एक
साथ ही (युगपद् ) जानना और परिणमन करना
यह दोनों क्रियायें जो एकत्वपूर्वक करे वह
समय है यह जीव नामक पदार्थ एकत्वपूर्वक एक ही समयमें परिणमन भी करता है और
जानता भी है; इसलिये वह समय है यह जीवपदार्थ सदा ही परिणामस्वरूप स्वभावमें रहता
हुआ होनेसे, उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यकी एकतारूप अनुभूति जिसका लक्षण है ऐसी सत्ता सहित है
(इस विशेषणसे जीवकी सत्ताको न माननेवाले नास्तिकवादियोंका मत खण्डन हो गया; तथा
पुरुषको
जीवको अपरिणामी माननेवाले सांख्यवादियोंका मत परिणामस्वरूप कहनेसे खण्डित हो
गया नैयायिक और वैशेषिक सत्ताको नित्य ही मानते हैं, और बौद्ध क्षणिक ही मानते हैं, उनका
निराकरण, सत्ताको उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यरूप कहनेसे हो गया ) और जीव चैतन्यस्वरूपतासे
नित्य-उद्योतरूप निर्मल स्पष्ट दर्शनज्ञान-ज्योतिस्वरूप है (क्योंकि चैतन्यका परिणमन
दर्शनज्ञानस्वरूप है)
(इस विशेषणसे चैतन्यको ज्ञानाकारस्वरूप न माननेवाले सांख्यमतवालोंका
निराकरण हो गया ) और वह जीव, अनन्त धर्मोंमें रहनेवाला जो एकधर्मीपना है उसके कारण
जिसे द्रव्यत्व प्रगट है; (क्योंकि अनन्त धर्मोंकी एकता द्रव्यत्व है) (इस विशेषणसे, वस्तुको
धर्मोंसे रहित माननेवाले बौद्धमतियोंका निषेध हो गया ) और वह क्रमरूप और अक्रमरूप
प्रवर्तमान अनेक भाव जिसका स्वभाव होनेसे जिसने गुणपर्यायोंको अंगीकार किया हैऐसा है
(पर्याय क्रमवर्ती होती है और गुण सहवर्ती होता है; सहवर्तीको अक्रमवर्ती भी कहते हैं ) (इस
विशेषणसे, पुरुषको निर्गुण माननेवाले सांख्यमतवालोंका निरसन हो गया ) और वह, अपने और
परद्रव्योंके आकारोंको प्रकाशित करनेकी सामर्थ्य होनेसे जिसने समस्त रूपको प्रकाशनेवाली

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सद्भावाच्चाकाशधर्माधर्मकालपुद्गलेभ्यो भिन्नोऽत्यन्तमनन्तद्रव्यसंक रेऽपि स्वरूपादप्रच्यवनाट्टंकोत्कीर्ण-
चित्स्वभावो जीवो नाम पदार्थः स समयः, समयत एकत्वेन युगपज्जानाति गच्छति चेति निरुक्तेः
अयं खलु यदा सकलभावस्वभावभासनसमर्थविद्यासमुत्पादकविवेक ज्योतिरुद्गमनात्समस्त-
परद्रव्यात्प्रच्युत्य दृशिज्ञप्तिस्वभावनियतवृत्तिरूपात्मतत्त्वैकत्वगतत्वेन वर्तते तदा दर्शनज्ञान-
चारित्रस्थितत्वात्स्वमेकत्वेन युगपज्जानन
् गच्छंश्च स्वसमय इति, यदा त्वनाद्यविद्याकंदलीमूल-
कंदायमानमोहानुवृत्तितंत्रतया दृशिज्ञप्तिस्वभावनियतवृत्तिरूपादात्मतत्त्वात्प्रच्युत्य परद्रव्यप्रत्यय-
मोहरागद्वेषादिभावैकत्वगतत्वेन वर्तते तदा पुद्गलकर्मप्रदेशस्थितत्वात्परमेकत्वेन युगपज्जानन
् गच्छंश्च
परसमय इति प्रतीयते एवं किल समयस्य द्वैविध्यमुद्धावति
2
एकरूपता प्राप्त की हैऐसा है (अर्थात् जिसमें अनेक वस्तुओंके आकार प्रतिभासित होते हैं,
ऐसे एक ज्ञानके आकाररूप है) (इस विशेषणसे, ज्ञान अपनेको ही जानता है, परको नहीं
इसप्रकार एकाकारको ही माननेवालेका तथा अपनेको नहीं जानता किन्तु परको ही जानता है
इसप्रकार अनेकाकारको ही माननेवालाका, व्यवच्छेद हो गया
) और वह, अन्य द्रव्योंके जो
विशिष्ट गुणअवगाहन-गति स्थिति-वर्तनाहेतुत्व और रूपित्व हैंउनके अभावके कारण और
असाधारण चैतन्यरूपता-स्वभावके सद्भावके कारण आकाश, धर्म, अधर्म, काल और
पुद्गल
इन पाँच द्रव्योंसे भिन्न है (इस विशेषणसे एक ब्रह्मवस्तुको ही माननेवालेका खण्डन
हो गया ) और वह, अनन्त द्रव्योंके साथ अत्यन्त एकक्षेत्रावगाहरूप होने पर भी, अपने
स्वरूपसे न छूटनेसे टंकोत्कीर्ण चैतन्यस्वभावरूप है (इस विशेषणसे वस्तुस्वभावका नियम
बताया है )ऐसा जीव नामक पदार्थ समय है
जब यह (जीव), सर्व पदार्थोंके स्वभावको प्रकाशित करनेमें समर्थ केवलज्ञानको
उत्पन्न करनेवाली भेदज्ञानज्योतिका उदय होनेसे, सर्व परद्रव्योंसे छूटकर दर्शनज्ञानस्वभावमें नियत
वृत्तिरूप (अस्तित्वरूप) आत्मतत्त्वके साथ एकत्वरूपमें लीन होकर प्रवृत्ति करता है तब
दर्शन-ज्ञान-चारित्रमें स्थित होनेसे युगपद् स्वको एकत्वपूर्वक जानता तथा स्व-रूपसे
एकत्वपूर्वक परिणमता हुआ वह ‘स्वसमय’ है, इसप्रकार प्रतीत किया जाता है; किन्तु जब
वह, अनादि अविद्यारूपी केलेके मूलकी गांठकी भाँति जो (पुष्ट हुआ) मोह उसके उदयानुसार
प्रवृत्तिकी आधीनतासे, दर्शन-ज्ञानस्वभावमें नियत वृत्तिरूप आत्मतत्त्वसे छूटकर परद्रव्यके
निमित्तसे उत्पन्न मोहरागद्वेषादि भावोंमें एकतारूपसे लीन होकर प्रवृत्त होता है तब पुद्गलकर्मके
(कार्माणस्कन्धरूप) प्रदेशोंमें स्थित होनेसे युगपद् परको एकत्वपूर्वक जानता और पररूपसे
एकत्वपूर्वक परिणमित होता हुआ ‘परसमय’ है, इसप्रकार प्रतीति की जाती है
इसप्रकार जीव
नामक पदार्थकी स्वसमय और परसमयरूप द्विविधता प्रगट होती है

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अथैतद्बाध्यते
एयत्तणिच्छयगदो समओ सव्वत्थ सुंदरो लोगे
बंधकहा एयत्ते तेण विसंवादिणी होदि ।।३।।
एकत्वनिश्चयगतः समयः सर्वत्र सुन्दरो लोके
बन्धकथैकत्वे तेन विसंवादिनी भवति ।।३।।
समयशब्देनात्र सामान्येन सर्व एवार्थोऽभिधीयते, समयत एकीभावेन स्वगुणपर्यायान
गच्छतीति निरुक्तेः ततः सर्वत्रापि धर्माधर्माकाशकालपुद्गलजीवद्रव्यात्मनि लोके ये यावन्तः
केचनाप्यर्थास्ते सर्व एव स्वकीयद्रव्यान्तर्मग्नानन्तस्वधर्मचक्रचुम्बिनोऽपि परस्परमचुम्बन्तोऽत्यन्त-
भावार्थ :जीव नामक वस्तुको पदार्थ कहा है ‘जीव’ इसप्रकार अक्षरोंका समूह ‘पद’
है और उस पदसे जो द्रव्यपर्यायरूप अनेकान्तस्वरूपता निश्चित की जाये वह पदार्थ है यह
जीवपदार्थ उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यमयी सत्तास्वरूप है, दर्शनज्ञानमयी चेतनास्वरूप है, अनन्तधर्मस्वरूप
द्रव्य है, द्रव्य होनेसे वस्तु है, गुणपर्यायवान है, उसका स्वपरप्रकाशक ज्ञान अनेकाकाररूप एक
है, और वह (जीवपदार्थ) आकाशादिसे भिन्न असाधारण चैतन्यगुणस्वरूप है, तथा अन्य द्रव्योंके
साथ एक क्षेत्रमें रहने पर भी अपने स्वरूपको नहीं छोड़ता
ऐसा जीव नामक पदार्थ समय है
जब वह अपने स्वभावमें स्थित हो तब स्वसमय है, और परस्वभाव-रागद्वेषमोहरूप होकर रहे तब
परसमय है
इसप्रकार जीवके द्विविधता आती है ।।२।।
अब, समयकी द्विविधतामें आचार्य बाधा बतलाते हैं :
एकत्व-निश्चय-गत समय, सर्वत्र सुन्दर लोकमें
उससे बने बंधनकथा, जु विरोधिनी एकत्वमें ।।३।।
गाथार्थ :[एकत्वनिश्चयगतः ] एकत्वनिश्चयको प्राप्त जो [समयः ] समय है वह
[लोके ] लोकमें [सर्वत्र ] सब जगह [सुन्दरः ] सुन्दर है [तेन ] इसलिये [एकत्वे ] एकत्वमें
[बन्धकथा ] दूसरेके साथ बंधकी कथा [विसंवादिनी ] विसंवाद
विरोध करनेवाली [भवति ] है
टीका :यहाँ ‘समय’ शब्दसे सामान्यतया सभी पदार्थ कहे जाते हैं, क्योंकि व्युत्पत्तिके
अनुसार ‘समयते’ अर्थात् एकीभावसे (एकत्वपूर्वक) अपने गुण-पर्यायोंको प्राप्त होकर जो
परिणमन करता है सो समय है
इसलिये धर्म-अधर्म-आकाश-काल-पुद्गल-जीवद्रव्यस्वरूप
लोकमें सर्वत्र जो कुछ जितने जितने पदार्थ हैं वे सभी निश्चयसे (वास्तवमें) एकत्वनिश्चयको प्राप्त

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प्रत्यासत्तावपि नित्यमेव स्वरूपादपतन्तः पररूपेणापरिणमनादविनष्टानंतव्यक्तित्वाट्टंकोत्कीर्णा इव
तिष्ठन्तः समस्तविरुद्धाविरुद्धकार्यहेतुतया शश्वदेव विश्वमनुगृह्णन्तो नियतमेकत्वनिश्चयगतत्वेनैव
सौन्दर्यमापद्यन्ते, प्रकारान्तरेण सर्वसंक रादिदोषापत्तेः
एवमेकत्वे सर्वार्थानां प्रतिष्ठिते सति
जीवाह्वयस्य समयस्य बन्धकथाया एव विसंवादापत्तिः कुतस्तन्मूलपुद्गलकर्मप्रदेश-
स्थितत्वमूलपरसमयत्वोत्पादितमेतस्य द्वैविध्यम अतः समयस्यैकत्वमेवावतिष्ठते
अथैतदसुलभत्वेन विभाव्यते
सुदपरिचिदाणुभूदा सव्वस्स वि कामभोगबंधकहा
एयत्तस्सुवलंभो णवरि ण सुलहो विहत्तस्स ।।४।।
होनेसे ही सुन्दरताको पाते हैं, क्योंकि अन्य प्रकारसे उसमें सर्वसंकर आदि दोष आ जायेंगे वे
सब पदार्थ अपने द्रव्यमें अन्तर्मग्न रहनेवाले अपने अनन्त धर्मोंके चक्रको (समूहको) चुम्बन करते
हैं
स्पर्श करते हैं तथापि वे परस्पर एक दूसरे को स्पर्श नहीं करते, अत्यन्त निकट एक
क्षेत्रावगाहरूपसे तिष्ठ रहे हैं तथापि वे सदाकाल अपने स्वरूपसे च्युत नहीं होते, पररूप परिणमन
न करनेसे अनन्त व्यक्तिता नष्ट नहीं होती, इसलिये वे टंकोत्कीर्णकी भांति (शाश्वत) स्थित रहते
हैं और समस्त विरुद्ध कार्य तथा अविरुद्ध कार्य दोनोंकी हेतुतासे वे सदा विश्वका उपकार करते
हैं
टिकाये रखते हैं इसप्रकार सर्व पदार्थोंका भिन्न भिन्न एकत्व सिद्ध होनेसे जीव नामक
समयको बन्धकी कथासे ही विसंवादकी आपत्ति आती है; तो फि र बन्ध जिसका मूल है ऐसा
जो पुद्गलकर्मके प्रदेशोंमें स्थित होना, वह जिसका मूल है ऐसा परसमयपना, उससे उत्पन्न
होनेवाला (परसमय
स्वसमयरूप) द्विविधपना उसको (जीव नामके समयको) कहाँसे हो ?
इसलिये समयके एकत्वका होना ही सिद्ध होता है
भावार्थ :निश्चयसे सर्व पदार्थ अपने अपने स्वभावमें स्थित रहते हुए ही शोभा पाते हैं
परन्तु जीव नामक पदार्थकी अनादि कालसे पुद्गलकर्मके साथ निमित्तरूप बन्ध-अवस्था है; उससे
इस जीवमें विसंवाद खड़ा होता है, अतः वह शोभाको प्राप्त नहीं होता
इसलिये वास्तवमें विचार
किया जाये तो एकत्व ही सुन्दर है; उससे यह जीव शोभाको प्राप्त होता है ।।३।।
अब, उस एकत्वकी असुलभता बताते हैं :
है सर्व श्रुत-परिचित-अनुभूत, भोगबन्धनकी कथा
परसे जुदा एकत्वकी, उपलब्धि केवल सुलभ ना ।।४।।

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श्रुतपरिचितानुभूता सर्वस्यापि कामभोगबन्धकथा
एकत्वस्योपलम्भः केवलं न सुलभो विभक्तस्य ।।४।।
इह किल सकलस्यापि जीवलोकस्य संसारचक्रक्रोडाधिरोपितस्याश्रांतमनंतद्रव्यक्षेत्र-
कालभवभावपरावर्तैः समुपक्रांतभ्रान्तेरेकच्छत्रीकृतविश्वतया महता मोहग्रहेण गोरिव वाह्यमानस्य
प्रसभोज्जृम्भिततृष्णातंक त्वेन व्यक्तान्तराधेरुत्तम्योत्तम्य मृगतृष्णायमानं विषयग्राममुपरुन्धानस्य
परस्परमाचार्यत्वमाचरतोऽनन्तशः श्रुतपूर्वानन्तशः परिचितपूर्वानन्तशोऽनुभूतपूर्वा चैकत्वविरुद्धत्वेना-
त्यन्तविसंवादिन्यपि कामभोगानुबद्धा कथा
इदं तु नित्यव्यक्ततयान्तःप्रकाशमानमपि कषायचक्रेण
सहैकीक्रियमाणत्वादत्यन्ततिरोभूतं सत् स्वस्यानात्मज्ञतया परेषामात्मज्ञानामनुपासनाच्च न
गाथार्थ :[सर्वस्य अपि ] सर्व लोकको [कामभोगबन्धकथा ] कामभोगसम्बन्धी
बन्धकी कथा तो [श्रुतपरिचितानुभूता ] सुननेमें आ गई है, परिचयमें आ गई है, और अनुभवमें
भी आ गई है, इसलिये सुलभ है; किन्तु [विभक्त स्य ] भिन्न आत्माका [एकत्वस्य उपलम्भः ]
एकत्व होना कभी न तो सुना है, न परिचयमें आया है और न अनुभवमें आया है, इसलिये
[केवलं ] एक वह [न सुलभः ] सुलभ नहीं है
टीका :इस समस्त जीवलोकको, कामभोगसम्बन्धी कथा एकत्वसे विरुद्ध होनेसे
अत्यन्त विसंवाद करानेवाली है (आत्माका अत्यन्त अनिष्ट करनेवाली है) तथापि, पहले अनन्त
बार सुननेमें आई है, अनन्त बार परिचयमें आई है और अनन्त बार अनुभवमें भी आ चुकी
है
वह जीवलोक, संसाररूपी चक्रके मध्यमें स्थित है, निरन्तर द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और
भावरूप अनन्त परावर्तनोंके कारण भ्रमणको प्राप्त हुआ है, समस्त विश्वको एकछत्र राज्यसे वश
करनेवाला महा मोहरूपी भूत जिसके पास बैलकी भांति भार वहन कराता है, जोरसे प्रगट
हुए तृष्णारूपी रोगके दाहसे जिसको अन्तरंगमें पीड़ा प्रगट हुई है, आकुलित हो होकर
मृगजलकी भाँति विषयग्रामको (इन्द्रियविषयोंके समूहको) जिसने घेरा डाल रखा है, और वह
परस्पर आचार्यत्व भी करता है (अर्थात् दूसरोंसे कहकर उसी प्रकार अंगीकार करवाता है)
इसलिये कामभोगकी कथा तो सबके लिये सुलभ है किन्तु निर्मल भेदज्ञानरूपी प्रकाशसे
स्पष्ट भिन्न दिखाई देनेवाला यह मात्र भिन्न आत्माका एकत्व हीजो कि सदा प्रगटरूपसे
अन्तरङ्गमें प्रकाशमान है तथापि कषायचक्र (-कषायसमूह)के साथ एकरूप जैसा किया जाता
है, इसलिये अत्यन्त तिरोभावको प्राप्त हुआ है (
ढक रहा है) वहअपनेमें अनात्मज्ञता
होनेसे (स्वयं आत्माको न जाननेसे) और अन्य आत्माको जाननेवालोंकी संगतिसेवा न
करनेसे, न तो पहले कभी सुना है, न पहले कभी परिचयमें आया है और न पहले कभी

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कदाचिदपि श्रुतपूर्वं, न कदाचिदपि परिचितपूर्वं, न कदाचिदप्यनुभूतपूर्वं च निर्मलविवेकालोक-
विविक्तं केवलमेकत्वम
अत एकत्वस्य न सुलभत्वम
अत एवैतदुपदर्श्यते
तं एयत्तविहत्तं दाएहं अप्पणो सविहवेण
जदि दाएज्ज पमाणं चुक्केज्ज छलं ण घेत्तव्वं ।।५।।
तमेकत्वविभक्तं दर्शयेऽहमात्मनः स्वविभवेन
यदि दर्शयेयं प्रमाणं स्खलेयं छलं न गृहीतव्यम।।५।।
अनुभवमें आया है इसलिये भिन्न आत्माका एकत्व सुलभ नहीं है
भावार्थ :इस लोकमें समस्त जीव संसाररूपी चक्रपर चढ़कर पंच परावर्तनरूप भ्रमण
करते हैं वहाँ उन्हें मोहकर्मोदयरूपी पिशाचके द्वारा जोता जाता है, इसलिये वे विषयोंकी
तृष्णारूपी दाहसे पीड़ित होते हैं और उस दाहका इलाज (उपाय) इन्द्रियोंके रूपादि विषयोंको
जानकर उनकी ओर दौड़ते हैं; तथा परस्पर भी विषयोंका ही उपदेश करते हैं
इसप्रकार काम
तथा भोगकी कथा तो अनन्त बार सुनी, परिचयमें प्राप्त की और उसीका अनुभव किया,
इसलिये वह सुलभ है
किन्तु सर्व परद्रव्योंसे भिन्न एक चैतन्यचमत्कारस्वरूप अपने आत्माकी
कथाका ज्ञान अपनेको तो अपनेसे कभी नहीं हुआ, और जिन्हें वह ज्ञान हुआ है उनकी कभी
सेवा नहीं की; इसलिये उसकी कथा न तो कभी सुनी, न उसका परिचय किया और न उसका
अनुभव किया
इसलिये उनकी प्राप्ति सुलभ नहीं दुर्लभ है ।।४।।
अब आचार्य कहते हैं कि इसीलिये जीवोंको उस भिन्न आत्माका एकत्व बतलाते
हैं :
दर्शाऊँ एक विभक्त को, आत्मातने निज विभवसे
दर्शाऊँ तो करना प्रमाण, न छल ग्रहो स्खलना बने ।।५।।
गाथार्थ :[तम् ] उस [एकत्वविभक्तं ] एकत्वविभक्त आत्माको [अहं ] मैं [आत्मनः
आत्माके [स्वविभवेन ] निज वैभवसे [दर्शये ] दिखाता हूँ; [यदि ] यदि मैं [दर्शयेयं ] दिखाऊँ
तो [प्रमाणं ] प्रमाण (स्वीकार) करना, [स्खलेयं ] और यदि कहीं चूक जाऊँ तो [छलं ] छल
[न ] नहीं [गृहीतव्यम् ] ग्रहण करना

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इह किल सकलोद्भासिस्यात्पदमुद्रितशब्दब्रह्मोपासनजन्मा, समस्तविपक्षक्षोदक्षमाति-
निस्तुषयुक्तयवलम्बनजन्मा, निर्मलविज्ञानघनान्तर्निमग्नपरापरगुरुप्रसादीकृ तशुद्धात्मतत्त्वानुशासन-
जन्मा, अनवरतस्यन्दिसुन्दरानन्दमुद्रितामन्दसंविदात्मकस्वसंवेदनजन्मा च यः कश्चनापि ममात्मनः
स्वो विभवस्तेन समस्तेनाप्ययं तमेकत्वविभक्तमात्मानं दर्शयेऽहमिति बद्धव्यवसायोऽस्मि
किन्तु
यदि दर्शयेयं तदा स्वयमेव स्वानुभवप्रत्यक्षेण परीक्ष्य प्रमाणीकर्तव्यम यदि तु स्खलेयं तदा तु
न छलग्रहणजागरूकैर्भवितव्यम
टीका :आचार्य कहते हैं कि जो कुछ मेरे आत्माका निजवैभव है, उस सबसे मैं इस
एकत्वविभक्त आत्माको दिखाऊँगा, ऐसा मैंने व्यवसाय (उद्यम, निर्णय) किया है कैसा है मेरे
आत्माका निजवैभव ? इस लोकमें प्रगट समस्त वस्तुओंका प्रकाशक और ‘स्यात्’ पदकी
मुद्रावाला जो शब्दब्रह्म
अर्हन्तका परमागमउसकी उपासनासे जिसका जन्म हुआ है
(‘स्यात्’का अर्थ ‘कथंचित्’ है अर्थात् किसी प्रकारसेकिसी अपेक्षासेकहना परमागमको
शब्दब्रह्म कहनेका कारण यह है किअर्हन्तके परमागममें सामान्य धर्मोंकेवचनगोचर समस्त
धर्मोंकेनाम आते हैं और वचनसे अगोचर जो विशेषधर्म हैं उनका अनुमान कराया जाता है;
इसप्रकार वह सर्व वस्तुओंका प्रकाशक है, इसलिये उसे सर्वव्यापी कहा जाता है, और इसीलिए
उसे शब्दब्रह्म कहते हैं
) पुनः वह निजवैभव कैसा है ? समस्त विपक्षअन्यवादियोंके द्वारा
गृहीत सर्वथा एकान्तरूप नयपक्षके निराकरणमें समर्थ अतिनिस्तुष निर्बाध युक्ति के अवलम्बनसे उस
निजवैभवका जन्म हुआ है , पुनः वह कैसा है ? निर्मल विज्ञानघन आत्मामें अन्तर्निमग्न
(अन्तर्लीन) परमगुरु
सर्वज्ञदेव और अपरगुरुगणधरादिकसे लेकर हमारे गुरुपर्यन्त, उनके
प्रसादरूपसे दिया गया जो शुद्धात्मतत्त्वका अनुग्रहपूर्वक उपदेश उससे निजवैभवका जन्म हुआ है
पुनः वह कैसा है ? निरन्तर झरता हुआस्वादमें आता हुआ जो सुन्दर आनन्द है, उसकी मुद्रासे
युक्त प्रचुरसंवेदनरूप स्वसंवेदनसे निजवैभवका जन्म हुआ है यों जिस-जिस प्रकारसे मेरे ज्ञानका
वैभव है उस समस्त वैभवसे दिखाता हूँ मैं जो यह दिखाऊँ तो उसे स्वयमेव अपने अनुभव-
प्रत्यक्षसे परीक्षा करके प्रमाण करना; और यदि कहीं अक्षर, मात्रा, अलंकार, युक्ति आदि प्रकरणोंमें
चूक जाऊँ तो छल (दोष) ग्रहण करनेमें सावधान मत होना
(शास्त्रसमुद्रके बहुतसे प्रकरण हैं,
इसलिए यहाँ स्वसंवेदनरूप अर्थ प्रधान है; इसलिए अर्थकी परीक्षा करनी चाहिए ।)
भावार्थ :आचार्य आगमका सेवन, युक्तिका अवलम्बन, पर और अपर गुरुका उपदेश
और स्वसंवेदनयों चार प्रकारसे उत्पन्न हुए अपने ज्ञानके वैभवसे एकत्व-विभक्त शुद्ध आत्माका
स्वरूप दिखाते हैं हे श्रोताओं ! उसे अपने स्वसंवेदन-प्रत्यक्षसे प्रमाण करो; यदि कहीं किसी
प्रकरणमें भूल जाऊँ तो उतने दोषको ग्रहण मत करना कहनेका आशय यह है कि यहाँ अपना
अनुभव प्रधान है; उससे शुद्ध स्वरूपका निश्चय करो ।।५।।

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कोऽसौ शुद्ध आत्मेति चेत
ण वि होदि अप्पमत्तो ण पमत्तो जाणगो दु जो भावो
एवं भणंति सुद्धं णादो जो सो दु सो चेव ।।६।।
नापि भवत्यप्रमत्तो न प्रमत्तो ज्ञायकस्तु यो भावः
एवं भणन्ति शुद्धं ज्ञातो यः स तु स चैव ।।६।।
यो हि नाम स्वतःसिद्धत्वेनानादिरनन्तो नित्योद्योतो विशदज्योतिर्ज्ञायक एको भावः स
संसारावस्थायामनादिबन्धपर्यायनिरूपणया क्षीरोदकवत्कर्मपुद्गलैः सममेकत्वेऽपि द्रव्यस्वभाव-
निरूपणया दुरन्तकषायचक्रोदयवैचित्र्यवशेन प्रवर्तमानानां पुण्यपापनिर्वर्तकानामुपात्तवैश्वरूप्याणां
शुभाशुभभावानां स्वभावेनापरिणमनात्प्रमत्तोऽप्रमत्तश्च न भवति
एष एवाशेषद्रव्यान्तरभावेभ्यो
भिन्नत्वेनोपास्यमानः शुद्ध इत्यभिलप्यते न चास्य ज्ञेयनिष्ठत्वेन ज्ञायकत्वप्रसिद्धेः
अब यहाँ यह प्रश्न उठता है कि ऐसा शुद्ध आत्मा कौन है कि जिसका स्वरूप जानना
चाहिए ? इसके उत्तरस्वरूप गाथासूत्र कहते हैं :
नहिं अप्रमत्त प्रमत्त नहिं, जो एक ज्ञायक भाव है
इस रीति शुद्ध कहाय अरु, जो ज्ञात वो तो वोहि है ।।६।।
गाथार्थ :[यः तु ] जो [ज्ञायकः भावः ] ज्ञायक भाव है वह [अप्रमत्तः अपि ]
अप्रमत्त भी [न भवति ] नहीं और [न प्रमत्तः ] प्रमत्त भी नहीं है,[एवं ] इसप्रकार [शुद्धं ]
इसे शुद्ध [भणन्ति ] कहते हैं; [च यः ] और जो [ज्ञातः ] ज्ञायकरूपसे ज्ञात हुआ [सः तु ] वह
तो [सः एव ] वही है, अन्य कोई नहीं
टीका :जो स्वयं अपनेसे ही सिद्ध होनेसे (किसीसे उत्पन्न हुआ न होनेसे) अनादि
सत्तारूप है, कभी विनाशको प्राप्त न होनेसे अनन्त है, नित्य-उद्योतरूप होनेसे क्षणिक नहीं है और
स्पष्ट प्रकाशमान ज्योति है ऐसा जो ज्ञायक एक ‘भाव’ है वह संसारकी अवस्थामें अनादि
बन्धपर्यायकी निरूपणासे (अपेक्षासे) क्षीर-नीरकी भांति कर्मपुद्गलोंके साथ एकरूप होने पर भी
द्रव्यके स्वभावकी अपेक्षासे देखा जाय तो दुरन्त कषायचक्रके उदयकी (
कषायसमूहके अपार
उदयोंकी) विचित्रताके वशसे प्रवर्तमान जो पुण्य-पापको उत्पन्न करनेवाले समस्त अनेकरूप
शुभाशुभभाव उनके स्वभावरूप परिणमित नहीं होता (ज्ञायकभावसे जड़भावरूप नहीं होता)
इसलिये प्रमत्त भी नहीं है और अप्रमत्त भी नहीं है; वही समस्त अन्य द्रव्योंके भावोंसे भिन्नरूपसे
उपासित होता हुआ ‘शुद्ध कहलाता है

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दाह्यनिष्ठदहनस्येवाशुद्धत्वं, यतो हि तस्यामवस्थायां ज्ञायकत्वेन यो ज्ञातः स
स्वरूपप्रकाशनदशायां प्रदीपस्येव कर्तृकर्मणोरनन्यत्वात
् ज्ञायक एव
और जैसे दाह्य (जलने योग्य पदार्थ) के आकार होनेसे अग्निको दहन कहते हैं तथापि
उसके दाह्यकृत अशुद्धता नहीं होती, उसी प्रकार ज्ञेयाकार होनेसे उस ‘भाव’के साथ ज्ञायकता
प्रसिद्ध है, तथापि उसके ज्ञेयकृत अशुद्धता नहीं है; क्योंकि ज्ञेयाकार अवस्थामें जो ज्ञायकरूपसे
ज्ञात हुआ वह स्वरूपप्रकाशनकी (स्वरूपको जाननेकी) अवस्थामें भी दीपककी भांति, कर्ता-
कर्मका अनन्यत्व होनेसे ज्ञायक ही है
स्वयं जाननेवाला है, इसलिए स्वयं कर्ता और अपनेको
जाना, इसलिए स्वयं ही कर्म है (जैसे दीपक घटपटादिको प्रकाशित करनेकी अवस्थामें भी
दीपक है और अपनेकोअपनी ज्योतिरूप शिखाकोप्रकाशित करनेकी अवस्थामें भी दीपक
ही है, अन्य कुछ नहीं; उसी प्रकार ज्ञायकका समझना चाहिये )
भावार्थ :अशुद्धता परद्रव्यके संयोगसे आती है उसमें मूल द्रव्य तो अन्य द्रव्यरूप
नहीं होता, मात्र परद्रव्यके निमित्तसे अवस्था मलिन हो जाती है द्रव्यदृष्टिसे तो द्रव्य जो है वही
है और पर्याय(अवस्था)-दृष्टिसे देखा जाये तो मलिन ही दिखाई देता है इसीप्रकार आत्माका
स्वभाव ज्ञायकत्वमात्र है, और उसकी अवस्था पुद्गलकर्मके निमित्तसे रागादिरूप मलिन है वह
पर्याय है
पर्याय-दृष्टिसे देखा जाय तो वह मलिन ही दिखाई देता है और द्रव्यदृष्टिसे देखा जाये
तो ज्ञायकत्व तो ज्ञायकत्व ही है; यह कहीं जड़त्व नहीं हुआ यहाँ द्रव्यदृष्टिको प्रधान करके
कहा है जो प्रमत्त-अप्रमत्तके भेद हैं वे परद्रव्यके संयोगजनित पर्याय हैं यह अशुद्धता
द्रव्यदृष्टिमें गौण है, व्यवहार है, अभूतार्थ है, असत्यार्थ है, उपचार है द्रव्यदृष्टि शुद्ध है, अभेद
है, निश्चय है, भूतार्थ है, सत्यार्थ है, परमार्थ है इसलिये आत्मा ज्ञायक ही है; उसमें भेद नहीं
है इसलिये वह प्रमत्त-अप्रमत्त नहीं है ‘ज्ञायक’ नाम भी उसे ज्ञेयको जाननेसे दिया जाता है;
क्योंकि ज्ञेयका प्रतिबिम्ब जब झलकता है तब ज्ञानमें वैसा ही अनुभव होता है तथापि उसे
ज्ञेयकृत अशुद्धता नहीं है, क्योंकि जैसा ज्ञेय ज्ञानमें प्रतिभासित हुआ वैसा ज्ञायकका ही अनुभव
करने पर ज्ञायक ही है
‘यह जो मैं जाननेवाला हूँ सो मैं ही हूँ, अन्य कोई नहीं’ऐसा
अपनेको अपना अभेदरूप अनुभव हुआ तब इस जाननेरूप क्रियाका कर्ता स्वयं ही है और
जिसे जाना वह कर्म भी स्वयं ही है
ऐसा एक ज्ञायकत्वमात्र स्वयं शुद्ध है यह शुद्धनयका
विषय है अन्य जो परसंयोगजनित भेद हैं वे सब भेदरूप अशुद्धद्रव्यार्थिकनयके विषय हैं
अशुद्धद्रव्यार्थिकनय भी शुद्ध द्रव्यकी दृष्टिमें पर्यायार्थिक ही है, इसलिये व्यवहारनय ही है ऐसा
आशय समझना चाहिए
यहाँ यह भी जानना चाहिए कि जिनमतका कथन स्याद्वादरूप है, इसलिये अशुद्धनयको

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दर्शनज्ञानचारित्रवत्त्वेनास्याशुद्धत्वमिति चेत
ववहारेणुवदिस्सदि णाणिस्स चरित्त दंसणं णाणं
ण वि णाणं ण चरित्तं ण दंसणं जाणगो सुद्धो ।।७।।
व्यवहारेणोपदिश्यते ज्ञानिनश्चरित्रं दर्शनं ज्ञानम
नापि ज्ञानं न चरित्रं न दर्शनं ज्ञायकः शुद्धः ।।७।।
3
सर्वथा असत्यार्थ न माना जाये; क्योंकि स्याद्वादप्रमाणसे शुद्धता और अशुद्धतादोनों वस्तुके धर्म
हैं और वस्तुधर्म वस्तुका सत्त्व है; अन्तर मात्र इतना ही है कि अशुद्धता परद्रव्यके संयोगसे होती
है
अशुद्धनयको यहाँ हेय कहा है, क्योंकि अशुद्धनयका विषय संसार है और संसारमें आत्मा
क्लेश भोगता है; जब स्वयं परद्रव्यसे भिन्न होता है तब संसार छूटता है और क्लेश दूर होता है
इसप्रकार दुःख मिटानेके लिये शुद्धनयका उपदेश प्रधान है अशुद्धनयको असत्यार्थ कहनेसे यह
न समझना चाहिए कि आकाशके फू लकी भाँति वह वस्तुधर्म सर्वथा ही नहीं है ऐसा सर्वथा
एकान्त समझनेसे मिथ्यात्व होता है; इसलिये स्याद्वादकी शरण लेकर शुद्धनयका आलम्बन लेना
चाहिये
स्वरूपकी प्राप्ति होनेके बाद शुद्धनयका भी आलम्बन नहीं रहता जो वस्तुस्वरूप है वह
हैयह प्रमाणदृष्टि है इसका फल वीतरागता है इसप्रकार निश्चय करना योग्य है
यहाँ, (ज्ञायकभाव) प्रमत्त-अप्रमत्त नहीं है ऐसा कहा है वहाँ गुणस्थानोंकी परिपाटीमें छट्ठे
गुणस्थान तक प्रमत्त और सातवेंसे लेकर अप्रमत्त कहलाता है किन्तु यह सब गुणस्थान
अशुद्धनयकी कथनीमें है; शुद्धनयसे तो आत्मा ज्ञायक ही है ।।६।।
अब, प्रश्न यह होता है कि दर्शन, ज्ञान और चारित्रको आत्माका धर्म कहा गया है, किन्तु
यह तो तीन भेद हुए; और इन भेदरूप भावोंसे आत्माको अशुद्धता आती है ! इसके उत्तरस्वरूप
गाथासूत्र कहते हैं :
चारित्र, दर्शन, ज्ञान भी, व्यवहार कहता ज्ञानिके
चारित्र नहिं, दर्शन नहीं, नहिं ज्ञान, ज्ञायक शुद्ध है ।।७।।
गाथार्थ :[ज्ञानिनः ] ज्ञानीके [चरित्रं दर्शनं ज्ञानम् ] चारित्र, दर्शन, ज्ञानयह तीन
भाव [व्यवहारेण ] व्यवहारसे [उपदिश्यते ] कहे जाते हैं; निश्चयसे [ज्ञानं अपि न ] ज्ञान भी नहीं
है, [चरित्रं न ] चारित्र भी नहीं है और [दर्शनं न ] दर्शन भी नहीं है; ज्ञानी तो एक [ज्ञायकः
शुद्धः ]
शुद्ध ज्ञायक ही है

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आस्तां तावद्बन्धप्रत्ययात् ज्ञायकस्याशुद्धत्वं, दर्शनज्ञानचारित्राण्येव न विद्यन्ते; यतो
ह्यनन्तधर्मण्येकस्मिन् धर्मिण्यनिष्णातस्यान्तेवासिजनस्य तदवबोधविधायिभिः कै श्चिद्धर्मैस्तमनुशासतां
सूरिणां धर्मधर्मिणोः स्वभावतोऽभेदेऽपि व्यपदेशतो भेदमुत्पाद्य व्यवहारमात्रेणैव ज्ञानिनो दर्शनं
ज्ञानं चारित्रमित्युपदेशः
परमार्थतस्त्वेकद्रव्यनिष्पीतानन्तपर्यायतयैकं किंचिन्मिलितास्वादम-
भेदमेकस्वभावमनुभवतो न दर्शनं न ज्ञानं न चारित्रं, ज्ञायक एवैकः शुद्धः
टीका :इस ज्ञायक आत्माको बन्धपर्यायके निमित्तसे अशुद्धता तो दूर रहो, किन्तु
उसके दर्शन, ज्ञान, चारित्र भी विद्यमान नहीं हैं; क्योंकि अनन्त धर्मोंवाले एक धर्मीमें जो निष्णात
नहीं हैं ऐसे निकटवर्ती शिष्यजनको, धर्मीको बतलानेवाले कतिपय धर्मोंके द्वारा, उपदेश करते
हुए आचार्योंका
यद्यपि धर्म और धर्मीका स्वभावसे अभेद है तथापि नामसे भेद करके
व्यवहारमात्रसे ही ऐसा उपदेश है कि ज्ञानीके दर्शन है, ज्ञान है, चारित्र है किन्तु परमार्थसे देखा
जाये तो अनन्त पर्यायोंको एक द्रव्य पी गया होनेसे जो एक है ऐसे कुछमिले हुए
आस्वादवाले, अभेद, एकस्वभावी तत्त्वका अनुभव करनेवालेको दर्शन भी नहीं है, ज्ञान भी
नहीं है, चारित्र भी नहीं है, एक शुद्ध ज्ञायक ही है
भावार्थ :इस शुद्ध आत्माके कर्मबन्धके निमित्तसे अशुद्धता होती है, यह बात तो दूर
ही रहो, किन्तु उसके दर्शन, ज्ञान, चारित्रके भी भेद नहीं है क्योंकि वस्तु अनन्तधर्मरूप एकधर्मी
है
परन्तु व्यवहारी जन धर्मोंको ही समझते हैं, धर्मीको नहीं जानते; इसलिये वस्तुके किन्हीं
असाधारण धर्मोंको उपदेशमें लेकर अभेदरूप वस्तुमें भी धर्मोंके नामरूप भेदको उत्पन्न करके
ऐसा उपदेश दिया जाता है कि ज्ञानीके दर्शन है, ज्ञान है, चारित्र है
इसप्रकार अभेदमें भेद किया
जाता है, इसलिये वह व्यवहार है यदि परमार्थसे विचार किया जाये तो एक द्रव्य अनन्त
पर्यायोंको अभेदरूपसे पी कर बैठा है, इसलिये उसमें भेद नहीं है
यहाँ कोई कह सकता है कि पर्याय भी द्रव्यके ही भेद हैं, अवस्तु नहीं; तब फि र उन्हें
व्यवहार कैसे कहा जा सकता है ? उसका समाधान यह है : यह ठीक है, किन्तु यहाँ
द्रव्यदृष्टिसे अभेदको प्रधान करके उपदेश दिया है अभेददृष्टिमें भेदको गौण कहनेसे ही अभेद
भलीभाँति मालूम हो सकता है इसलिये भेदको गौण करके उसे व्यवहार कहा है यहाँ यह
अभिप्राय है कि भेददृष्टिमें निर्विकल्प दशा नहीं होती और सरागीके विकल्प होते रहते हैं;
इसलिये जहाँ तक रागादिक दूर नहीं हो जाते वहाँ तक भेदको गौण करके अभेदरूप निर्विकल्प
अनुभव कराया गया है
वीतराग होनेके बाद भेदाभेदरूप वस्तुका ज्ञाता हो जाता है वहाँ नयका
आलम्बन ही नहीं रहता ।।७।।

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तर्हि परमार्थ एवैको वक्तव्य इति चेत
जह ण वि सक्कमणज्जो अणज्जभासं विणा दु गाहेदुं
तह ववहारेण विणा परमत्थुवदेसणमसक्कं ।।८।।
यथा नापि शक्योऽनार्योऽनार्यभाषां विना तु ग्राहयितुम
तथा व्यवहारेण विना परमार्थोपदेशनमशक्यम।।८।।
यथा खलु म्लेच्छः स्वस्तीत्यभिहिते सति तथाविधवाच्यवाचकसंबंधावबोधबहिष्कृतत्वान्न
किंचिदपि प्रतिपद्यमानो मेष इवानिमेषोन्मेषितचक्षुः प्रेक्षत एव, यदा तु स एव तदेतद्भाषा-
सम्बन्धैकार्थज्ञेनान्येन तेनैव वा म्लेच्छभाषां समुदाय स्वस्तिपदस्याविनाशो भवतो भवत्वित्यभिधेयं
प्रतिपाद्यते तदा सद्य एवोद्यदमन्दानन्दमयाश्रुझलज्झलल्लोचनपात्रस्तत्प्रतिपद्यत एव; तथा किल
लोकोऽप्यात्मेत्यभिहिते सति यथावस्थितात्मस्वरूपपरिज्ञानबहिष्कृतत्वान्न किंचिदपि प्रतिपद्यमानो
अब यहाँ पुनः यह प्रश्न उठा है कियदि ऐसा है तो एक परमार्थका ही उपदेश देना
चाहिये; व्यवहार किसलिये कहा जाता है ? इसके उत्तरस्वरूप गाथासूत्र कहते हैं :
भाषा अनार्य बिना न, समझाना ज्यु शक्य अनार्यको
व्यवहार बिन परमार्थका, उपदेश होय अशक्य यों ।।८।।
गाथार्थ :[यथा ] जैसे [अनार्यः ] अनार्य (म्लेच्छ) जनको [अनार्यभाषां विना तु ]
अनार्यभाषाके बिना [ग्राहयितुम् ] किसी भी वस्तुका स्वरूप ग्रहण करानेके लिये [न अपि
शक्यः ]
कोई समर्थ नहीं है [तथा ] उसीप्रकार [व्यवहारेण विना ] व्यवहारके बिना
[परमार्थोपदेशनम् ] परमार्थका उपदेश देना [अशक्यम् ] अशक्य है
टीका :जैसे किसी म्लेच्छसे यदि कोई ब्राह्मण ‘स्वस्ति’ ऐसा शब्द कहे तो वह
म्लेच्छ उस शब्दके वाच्यवाचक सम्बन्धको न जाननेसे कुछ भी न समझकर उस ब्राह्मणकी ओर
मेंढेकी भांति आँखें फाड़कर टकटकी लगाकर देखता ही रहता है, किन्तु जब ब्राह्मणकी और
म्लेच्छकी भाषाका
दोनोंका अर्थ जाननेवाला कोई दूसरा पुरुष या वही ब्राह्मण म्लेच्छभाषा
बोलकर उसे समझाता है कि ‘स्वस्ति’ शब्दका अर्थ यह है कि ‘‘तेरा अविनाशी कल्याण हो’’,
तब तत्काल ही उत्पन्न होनेवाले अत्यन्त आनन्दमय अश्रुओंसे जिसके नेत्र भर जाते हैं ऐसा वह
म्लेच्छ इस ‘स्वस्ति’ शब्दके अर्थको समझ जाता है; इसीप्रकार व्यवहारीजन भी ‘आत्मा’ शब्दके

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मेष इवानिमेषोन्मेषितचक्षुः प्रेक्षत एव, यदा तु स एव व्यवहारपरमार्थपथप्रस्थापितसम्यग्बोध-
महारथरथिनान्येन तेनैव वा व्यवहारपथमास्थाय दर्शनज्ञानचारित्राण्यततीत्यात्मेत्यात्मपदस्याभिधेयं
प्रतिपाद्यते तदा सद्य एवोद्यदमंदानंदान्तःसुन्दरबन्धुरबोधतरंगस्तत्प्रतिपद्यत एव
एवं म्लेच्छ-
स्थानीयत्वाज्जगतो व्यवहारनयोऽपि म्लेच्छभाषास्थानीयत्वेन परमार्थप्रतिपादकत्वादुपन्यसनीयः अथ
च ब्राह्मणो न म्लेच्छितव्य इति वचनाद्वयवहारनयो नानुसर्तव्यः
कथं व्यवहारस्य प्रतिपादकत्वमिति चेत
जो हि सुदेणहिगच्छदि अप्पाणमिणं तु केवलं सुद्धं
तं सुदकेवलिमिसिणो भणंति लोयप्पदीवयरा ।।९।।
क हने पर ‘आत्मा’ शब्दके अर्थका ज्ञान न होनेसे कुछ भी न समझकर मेंढेकी भांति आँखें
फाड़कर टकटकी लगाकर देखता रहता है, किन्तु जब व्यवहार-परमार्थ मार्ग पर सम्यग्ज्ञानरूपी
महारथको चलानेवाले सारथी समान अन्य कोई आचार्य अथवा ‘आत्मा’ शब्दको कहनेवाला
स्वयं ही व्यवहारमार्गमें रहता हुआ आत्मा शब्दका यह अर्थ बतलाता है कि
‘‘दर्शन, ज्ञान,
चारित्रको जो सदा प्राप्त हो वह आत्मा है’’, तब तत्काल ही उत्पन्न होनेवाले अत्यन्त आनन्दसे
जिसके हृदयमें सुन्दर बोधतरंगें (ज्ञानतरंगें) उछलने लगती हैं ऐसा वह व्यवहारीजन उस ‘आत्मा’
शब्दके अर्थको अच्छी तरह समझ लेता है
इसप्रकार जगत तो म्लेच्छके स्थान पर होनेसे, और
व्यवहारनय भी म्लेच्छभाषाके स्थान पर होनेसे परमार्थका प्रतिपादक (कहनेवाला) है इसलिये,
व्यवहारनय स्थापित करने योग्य है; किन्तु ब्राह्मणको म्लेच्छ नहीं हो जाना चाहिए
इस वचनसे
वह (व्यवहारनय) अनुसरण करने योग्य नहीं है
भावार्थ :लोग शुद्धनयको नहीं जानते, क्योंकि शुद्धनयका विषय अभेद एकरूप वस्तु
है; किन्तु वे अशुद्धनयको ही जानते हैं, क्योंकि उसका विषय भेदरूप अनेक प्रकार है; इसलिये
वे व्यवहारके द्वारा ही परमार्थको समझ सकते हैं
अतः व्यवहारनयको परमार्थका कहनेवाला
जानकर उसका उपदेश किया जाता है इसका अर्थ यह नहीं समझना चाहिए कि यहाँ व्यवहारका
आलम्बन कराते हैं, प्रत्युत व्यवहारका आलम्बन छुड़ाकर परमार्थमें पहुँचाते हैं,यह समझना
चाहिये ।।८।।
अब, प्रश्न यह होता है कि व्यवहारनय परमार्थका प्रतिपादक कैसे है ? इसके उत्तरस्वरूप
गाथासूत्र कहते हैं :

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जो सुदणाणं सव्वं जाणदि सुदकेवलिं तमाहु जिणा
णाणं अप्पा सव्वं जम्हा सुदकेवली तम्हा ।।१०।।
यो हि श्रुतेनाभिगच्छति आत्मानमिमं तु केवलं शुद्धम
तं श्रुतकेवलिनमृषयो भणन्ति लोकप्रदीपकराः ।।९।।
यः श्रुतज्ञानं सर्वं जानाति श्रुतकेवलिनं तमाहुर्जिनाः
ज्ञानमात्मा सर्वं यस्माच्छ्रुतकेवली तस्मात।।१०।। युग्मम
यः श्रुतेन केवलं शुद्धमात्मानं जानाति स श्रुतकेवलीति तावत् परमार्थो; यः श्रुतज्ञानं
सर्वं जानाति स श्रुतकेवलीति तु व्यवहारः तदत्र सर्वमेव तावत् ज्ञानं निरूप्यमाणं किमात्मा
किमनात्मा ? न तावदनात्मा, समस्तस्याप्यनात्मनश्चेतनेतरपदार्थपंचतयस्य ज्ञानतादात्म्यानुपपत्तेः
ततो गत्यन्तराभावात् ज्ञानमात्मेत्यायाति अतः श्रुतज्ञानमप्यात्मैव स्यात एवं सति यः
इस आत्मको श्रुतसे नियत, जो शुद्ध केवल जानते
ऋषिगण प्रकाशक लोकके, श्रुतकेवली उसको कहें ।।९।।
श्रुतज्ञान सब जानें जु, जिन श्रुतकेवली उसको कहे
सब ज्ञान सो आत्मा हि है, श्रुतकेवली उससे बने ।।१०।।
गाथार्थ :[यः ] जो जीव [हि ] निश्चयसे (वास्तवमें) [श्रुतेन तु ] श्रुतज्ञानके द्वारा
[इमं ] इस अनुभवगोचर [केवलं शुद्धम् ] केवल एक शुद्ध [आत्मानन् ] आत्माको
[अभिगच्छति ] सम्मुख होकर जानता है, [तं ] उसे [लोकप्रदीपकराः ] लोकको प्रगट जाननेवाले
[ऋषयः ] ऋषीश्वर [श्रुतकेवलिनम् ] श्रुतकेवली [भणन्ति ] कहते हैं; [यः ] जो जीव [सर्वं ]
सर्व [श्रुतज्ञानं ] श्रुतज्ञानको [जानाति ] जानता है; [तं ] उसे [जिनाः ] जिनदेव [श्रुतकेवलिनं ]
श्रुतकेवली [आहुः ] कहते हैं, [यस्मात् ] क्योंकि [ज्ञानं सर्वं ] ज्ञान सब [आत्मा ] आत्मा ही
है, [तस्मात् ] इसलिये [श्रुतकेवली ] (वह जीव) श्रुतकेवली है
टीका :प्रथम, ‘‘जो श्रुतसे केवल शुद्ध आत्माको जानते हैं वे श्रुतकेवली हैं’’ वह तो
परमार्थ है; और ‘‘जो सर्व श्रुतज्ञानको जानते हैं वे श्रुतकेवली हैं’’ यह व्यवहार है यहाँ दो पक्ष
लेकर परीक्षा करते हैं :उपरोक्त सर्व ज्ञान आत्मा है या अनात्मा ? यदि अनात्माका पक्ष लिया
जाये तो वह ठीक नहीं है, क्योंकि जो समस्त जड़रूप अनात्मा आकाशादिक पांच द्रव्य हैं, उनका

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आत्मानं जानाति स श्रुतकेवलीत्यायाति, स तु परमार्थ एव एवं ज्ञानज्ञानिनोर्भेदेन व्यपदिशता
व्यवहारेणापि परमार्थमात्रमेव प्रतिपाद्यते, न किंचिदप्यतिरिक्तम अथ च यः श्रुतेन केवलं
शुद्धमात्मानं जानाति स श्रुतकेवलीति परमार्थस्य प्रतिपादयितुमशक्यत्वाद्यः श्रुतज्ञानं सर्वं जानाति
स श्रुतकेवलीति व्यवहारः परमार्थप्रतिपादकत्वेनात्मानं प्रतिष्ठापयति
कुतो व्यवहारनयो नानुसर्तव्य इति चेत
ववहारोऽभूदत्थो भूदत्थो देसिदो दु सुद्धणओ
भूदत्थमस्सिदो खलु सम्मादिट्ठी हवदि जीवो ।।११।।
ज्ञानके साथ तादात्म्य बनता ही नहीं (क्योंकि उनमें ज्ञान सिद्ध नहीं है) इसलिये अन्य पक्षका
अभाव होनेसे ‘ज्ञान आत्मा ही है’ यह पक्ष सिद्ध हुआ इसलिये श्रुतज्ञान भी आत्मा ही है ऐसा
होनेसे ‘जो आत्माको जानता है, वह श्रुतकेवली है’ ऐसा ही घटित होता है; और वह तो परमार्थ
ही है
इसप्रकार ज्ञान और ज्ञानीके भेदसे कहनेवाला जो व्यवहार है उससे भी परमार्थ मात्र ही
कहा जाता है, उससे भिन्न कुछ नहीं कहा जाता और ‘‘जो श्रुतसे केवल शुद्ध आत्माको जानते
हैं वे श्रुतकेवली हैं’’ ऐसे परमार्थका प्रतिपादन करना अशक्य होनेसे, ‘‘जो सर्व श्रुतज्ञानको जानते
हैं वे श्रुतकेवली हैं’’ ऐसा व्यवहार परमार्थके प्रतिपादकत्वसे अपनेको दृढ़तापूर्वक स्थापित
करता है
भावार्थ :जो श्रुतज्ञानसे अभेदरूप ज्ञायकमात्र शुद्ध आत्माको जानता है वह श्रुतकेवली
है, यह तो परमार्थ (निश्चय कथन) है और जो सर्व श्रुतज्ञानको जानता है उसने भी ज्ञानको
जाननेसे आत्माको ही जाना है, क्योंकि जो ज्ञान है वह आत्मा ही है; इसलिये ज्ञान-ज्ञानीके भेदको
कहनेवाला जो व्यवहार उसने भी परमार्थ ही कहा है, अन्य कुछ नहीं कहा
और परमार्थका विषय
तो कथंचित् वचनगोचर भी नहीं है, इसलिये व्यवहारनय ही आत्माको प्रगटरूपसे कहता है, ऐसा
जानना चाहिए
।।९-१०।।
अब, यह प्रश्न उपस्थित होता है किपहले यह कहा था कि व्यवहारको अङ्गीकार नहीं
करना चाहिए, किन्तु यदि वह परमार्थको कहनेवाला है तो ऐसे व्यवहारको क्यों अङ्गीकार न किया
जाये ? इसके उत्तररूपमें गाथासूत्र कहते हैं :
व्यवहारनय अभूतार्थ दर्शित, शुद्धनय भूतार्थ है
भूतार्थ आश्रित आत्मा, सद्दृष्टि निश्चय होय है ।।११।।

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व्यवहारोऽभूतार्थो भूतार्थो दर्शितस्तु शुद्धनयः
भूतार्थमाश्रितः खलु सम्यग्दृष्टिर्भवति जीवः ।।११।।
व्यवहारनयो हि सर्व एवाभूतार्थत्वादभूतमर्थं प्रद्योतयति, शुद्धनय एक एव
भूतार्थत्वात् भूतमर्थं प्रद्योतयति तथा हियथा प्रबलपंक संवलनतिरोहितसहजैकाच्छभावस्य
पयसोऽनुभवितारः पुरुषाः पंक पयसोर्विवेकमकुर्वन्तो बहवोऽनच्छमेव तदनुभवन्ति; केचित्तु
स्वकरविकीर्णक तकनिपातमात्रोपजनितपंक पयोविवेकतया स्वपुरुषकाराविर्भावितसहजैकाच्छ-
भावत्वादच्छमेव तदनुभवन्ति; तथा प्रबलकर्मसंवलनतिरोहितसहजैकज्ञायकभावस्यात्मनोऽनुभवितारः
पुरुषा आत्मकर्मणोर्विवेकमकुर्वन्तो व्यवहारविमोहितहृदयाः प्रद्योतमानभाववैश्वरूप्यं तमनुभवन्ति;
भूतार्थदर्शिनस्तु स्वमतिनिपातितशुद्धनयानुबोधमात्रोपजनितात्मकर्मविवेकतया स्वपुरुषकारा-
गाथार्थ :[व्यवहारः ] व्यवहारनय [अभूतार्थः ] अभूतार्थ है [तु ] और [शुद्धनयः ]
शुद्धनय [भूतार्थः ] भूतार्थ है, ऐसा [दर्शितः ] ऋषीश्वरोंने बताया है; [जीवः ] जो जीव
[भूतार्थं ] भूतार्थका [आश्रितः ] आश्रय लेता है वह जीव [खलु ] निश्चयसे (वास्तवमें)
[सम्यग्दृष्टिः ] सम्यग्दृष्टि [भवति ] है
टीका :व्यवहारनय सब ही अभूतार्थ है, इसलिये वह अविद्यमान, असत्य, अभूत
अर्थको प्रगट करता है; शुद्धनय एक ही भूतार्थ होनेसे विद्यमान, सत्य, भूत अर्थको प्रगट करता
है
यह बात दृष्टान्तसे बतलाते हैं :जैसे प्रबल कीचड़के मिलनेसे जिसका सहज एक
निर्मलभाव तिरोभूत (आच्छादित) हो गया है, ऐसे जलका अनुभव करनेवाले पुरुषजल और
कीचड़का विवेक न करनेवाले (दोनोंके भेदको न समझनेवाले)बहुतसे तो उस जलको
मलिन ही अनुभवते हैं, किन्तु कितने ही अपने हाथसे डाले हुवे कतकफलके पड़ने मात्रसे
उत्पन्न जल-कादवकी विवेकतासे, अपने पुरुषार्थ द्वारा आविर्भूत किये गये सहज एक
निर्मलभावपनेसे, उस जलको निर्मल ही अनुभव करते हैं; इसीप्रकार प्रबल कर्मोंके मिलनेसे,
जिसका सहज एक ज्ञायकभाव तिरोभूत हो गया है, ऐसे आत्माका अनुभव करनेवाले पुरुष
आत्मा और कर्मका विवेक (भेद) न करनेवाले, व्यवहारसे विमोहित हृदयवाले तो, उसे
(आत्माको) जिसमें भावोंकी विश्वरूपता (अनेकरूपता) प्रगट है ऐसा अनुभव करते हैं; किन्तु
भूतार्थदर्शी (शुद्धनयको देखनेवाले) अपनी बुद्धिसे डाले हुवे शुद्धनयके अनुसार बोध होनेमात्रसे
उत्पन्न आत्म-कर्मकी विवेकतासे, अपने पुरुषार्थ द्वारा आविर्भूत किये गये सहज एक
१. कतकफल=निर्मली; (एक औषधि जिससे कीचड़ नीचे बैठ जाता है)

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विर्भावितसहजैकज्ञायकभावत्वात् प्रद्योतमानैकज्ञायकभावं तमनुभवन्ति तदत्र ये भूतार्थमाश्रयन्ति
त एव सम्यक् पश्यन्तः सम्यग्दृष्टयो भवन्ति, न पुनरन्ये, कतकस्थानीयत्वात् शुद्धनयस्य अतः
प्रत्यगात्मदर्शिभिर्व्यवहारनयो नानुसर्तव्यः
अथ च केषांचित्कदाचित्सोऽपि प्रयोजनवान यतः
ज्ञायकभावत्वके कारण उसे (आत्माको) जिसमें एक ज्ञायकभाव प्रकाशमान है ऐसा अनुभव
करते हैं
यहाँ, शुद्धनय कतकफलके स्थान पर है, इसलिये जो शुद्धनयका आश्रय लेते हैं
वे ही सम्यक् अवलोकन करनेसे सम्यग्दृष्टि हैं, दूसरे (जो अशुद्धनयका सर्वथा आश्रय लेते
हैं वे) सम्यग्दृष्टि नहीं हैं
इसलिये कर्मोंसे भिन्न आत्माके देखनेवालोंको व्यवहारनय अनुसरण
करने योग्य नहीं है
भावार्थ :यहाँ व्यवहारनयको अभूतार्थ और शुद्धनयको भूतार्थ कहा है जिसका
विषय विद्यमान न हो, असत्यार्थ हो, उसे अभूतार्थ कहते हैं व्यवहारनयको अभूतार्थ कहनेका
आशय यह है किशुद्धनयका विषय अभेद एकाकाररूप नित्य द्रव्य है, उसकी दृष्टिमें भेद
दिखाई नहीं देता; इसलिए उसकी दृष्टिमें भेद अविद्यमान, असत्यार्थ ही कहना चाहिए ऐसा
न समझना चाहिए कि भेदरूप कोई वस्तु ही नहीं है यदि ऐसा माना जाये तो जैसे
वेदान्तमतवाले भेदरूप अनित्यको देखकर अवस्तु मायास्वरूप कहते हैं और सर्वव्यापक एक
अभेद नित्य शुद्धब्रह्मको वस्तु कहते हैं वैसा सिद्ध हो और उससे सर्वथा एकान्त शुद्धनयके
पक्षरूप मिथ्यादृष्टिका ही प्रसंग आये
इसलिए यहाँ ऐसा समझना चाहिए कि जिनवाणी
स्याद्वादरूप है, वह प्रयोजनवश नयको मुख्य-गौण करके कहती है प्राणियोंको भेदरूप
व्यवहारका पक्ष तो अनादि कालसे ही है और इसका उपदेश भी बहुधा सर्व प्राणी परस्पर
करते हैं
और जिनवाणीमें व्यवहारका उपदेश शुद्धनयका हस्तावलम्ब (सहायक) जानकर
बहुत किया है; किन्तु उसका फल संसार ही है शुद्धनयका पक्ष तो कभी आया नहीं और
उसका उपदेश भी विरल हैवह कहीं कहीं पाया जाता है इसलिये उपकारी श्रीगुरुने
शुद्धनयके ग्रहणका फल मोक्ष जानकर उसका उपदेश प्रधानतासे दिया है कि‘‘शुद्धनय
भूतार्थ है, सत्यार्थ है; इसका आश्रय लेनेसे सम्यग्दृष्टि हो सकता है; इसे जाने बिना जब तक
जीव व्यवहारमें मग्न है तब तक आत्माके ज्ञानश्रद्धानरूप निश्चय सम्यक्त्व नहीं हो सकता
’’
ऐसा आशय समझना चाहिए ।।११।।
अब, ‘‘यह व्यवहारनय भी किसी किसीको किसी काल प्रयोजनवान है, सर्वथा निषेध
करने योग्य नहीं है; इसलिये उसका उपदेश है’’ यह कहते हैं :

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सुद्धो सुद्धादेसो णादव्वो परमभावदरिसीहिं
ववहारदेसिदा पुण जे दु अपरमे ट्ठिदा भावे ।।१२।।
शुद्धः शुद्धादेशो ज्ञातव्यः परमभावदर्शिभिः
व्यवहारदेशिताः पुनर्ये त्वपरमे स्थिता भावे ।।१२।।
ये खलु पर्यन्तपाकोत्तीर्णजात्यकार्तस्वरस्थानीयं परमं भावमनुभवन्ति तेषां प्रथम-
द्वितीयाद्यनेकपाकपरम्परापच्यमानकार्तस्वरानुभवस्थानीयापरमभावानुभवनशून्यत्वाच्छुद्धद्रव्यादेशितया
समुद्योतितास्खलितैकस्वभावैकभावः शुद्धनय एवोपरितनैकप्रतिवर्णिकास्थानीयत्वात्परिज्ञायमानः
प्रयोजनवान
्; ये तु प्रथमद्वितीयाद्यनेकपाकपरम्परापच्यमानकार्तस्वरस्थानीयमपरमं भावमनु-
भवन्ति तेषां पर्यन्तपाकोत्तीर्णजात्यकार्तस्वरस्थानीयपरमभावानुभवनशून्यत्वादशुद्धद्रव्यादेशितयोप-
4
देखै परम जो भाव उसको, शुद्धनय ज्ञातव्य है
ठहरा जु अपरमभावमें, व्यवहारसे उपदिष्ट है ।।१२।।
गाथार्थ :[परमभावदर्शिभिः ] परमभावके देखनेवालेको तो [शुद्धादेशः ] शुद्ध
(आत्मा) का उपदेश करनेवाला [शुद्धः ] शुद्धनय [ज्ञातव्यः ] जानने योग्य है; [पुनः ] और [ये
तु ]
जो जीव [अपरमे भावे ] अपरमभावमें [स्थिताः ] स्थित हैं वे [व्यवहारदेशिताः ] व्यवहार
द्वारा उपदेश करने योग्य हैं
टीका :जो पुरुष अन्तिम पाकसे उतरे हुए शुद्ध सुवर्णके समान (वस्तुके) उत्कृष्ट
भावका अनुभव करते हैं उन्हें प्रथम, द्वितीय आदि पाकोंकी परम्परासे पच्यमान (पकाये जाते हुए)
अशुद्ध स्वर्णके समान जो अनुत्कृष्ट मध्यम भाव हैं उनका अनुभव नहीं होता; इसलिए,
शुद्धद्रव्यको कहनेवाला होनेसे जिसने अविचल अखण्ड एकस्वभावरूप एक भाव प्रगट किया
है ऐसा शुद्धनय ही, सबसे ऊ परकी एक प्रतिवर्णिका (स्वर्ण वर्ण) के समान होनेसे, जाननेमें
आता हुआ प्रयोजनवान है
परन्तु जो पुरुष प्रथम, द्वितीय आदि अनेक पाकों (तावों) की
परपम्परासे पच्यमान अशुद्ध स्वर्णके समान जो (वस्तुका) अनुत्कृष्ट मध्यम (भाव) उसका
अनुभव करते हैं उन्हें अन्तिम तावसे उतरे हुए शुद्ध स्वर्णके समान उत्कृष्ट भावका अनुभव नहीं
होता; इसलिये, अशुद्ध द्रव्यको कहनेवाला होनेसे जिसने भिन्न-भिन्न एक-एक भावस्वरूप अनेक
भाव दिखाये हैं ऐसा व्यवहारनय, विचित्र (अनेक) वर्णमालाके समान होनेसे, जाननेमें आता
(
ज्ञात होता) हुआ उस काल प्रयोजनवान है इसप्रकार अपने अपने समयमें दोनों नय कार्यकारी

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दर्शितप्रतिविशिष्टैकभावानेकभावो व्यवहारनयो विचित्रवर्णमालिकास्थानीयत्वात्परिज्ञायमानस्तदात्वे
प्रयोजनवान
्; तीर्थतीर्थफलयोरित्थमेव व्यवस्थितत्वात उक्तं च
‘‘जइ जिणमयं पवज्जह ता मा ववहारणिच्छए मुयह
एक्केण विणा छिज्जइ तित्थं अण्णेण उण तच्चं ।।’’
हैं, क्योंकि तीर्थ और तीर्थके फलकी ऐसी ही व्यवस्थिति है अन्यत्र भी कहा है कि :
‘‘जइ जिणमयं पवज्जह ता मा ववहारणिच्छए मुयह
एक्केण विणा छिज्जइ तित्थं अण्णेण उण तच्चं ।।’’
[अर्थ :आचार्य कहते हैं कि हे भव्य जीवों ! यदि तुम जिनमतका प्रवर्तन करना
चाहते हो तो व्यवहार और निश्चयइन दोनों नयोंको मत छोड़ो; क्योंकि व्यवहारनयके
बिना तो तीर्थव्यवहारमार्गका नाश हो जायगा और निश्चयनयके बिना तत्त्व (वस्तु)का नाश हो
जायेगा ]
भावार्थ :लोकमें सोनेके सोलह वान (ताव) प्रसिद्ध हैं पन्द्रहवें वान तक उसमें
चूरी आदि परसंयोगकी कालिमा रहती है, इसलिए तब तक वह अशुद्ध कहलाता है; और
ताव देते देते जब अन्तिम तावसे उतरता है तब वह सोलह-वान या सौ टंची शुद्ध सोना
कहलाता है
जिन्हें सोलहवानवाले सोनेका ज्ञान, श्रद्धान तथा प्राप्ति हुई है उन्हें पन्द्रह-वान
तकका सोना कोई प्रयोजनवान नहीं होता, और जिन्हें सोलह-वानवाले शुद्ध सोनेकी प्राप्ति
नहीं हुई है उन्हें तब तक पन्द्रह-वान तकका सोना भी प्रयोजनवान है
इसी प्रकार यह
जीव नामक पदार्थ है, जो कि पुद्गलके संयोगसे अशुद्ध अनेकरूप हो रहा है उसका
समस्त परद्रव्योंसे भिन्न, एक ज्ञायकत्वमात्रका ज्ञान, श्रद्धान तथा आचरणरूप प्राप्तियह
तीनों जिन्हें हो गये हैं, उन्हें पुद्गलसंयोगजनित अनेकरूपताको कहनेवाला अशुद्धनय कुछ
भी प्रयोजनवान (किसी मतलबका) नहीं है; किन्तु जहाँ तक शुद्धभावकी प्राप्ति नहीं हुई
वहाँ तक जितना अशुद्धनयका कथन है उतना यथापदवी प्रयोजनवान है
जहां तक यथार्थ
ज्ञानश्रद्धानकी प्राप्तिरूप सम्यग्दर्शनकी प्राप्ति नहीं हुई हो, वहां तक तो जिनसे यथार्थ उपदेश
मिलता है ऐसे जिनवचनोंको सुनना, धारण करना तथा जिनवचनोंको कहनेवाले श्री जिन-
गुरुकी भक्ति, जिनबिम्बके दर्शन इत्यादि व्यवहारमार्गमें प्रवृत्त होना प्रयोजनवान है; और जिन्हें
श्रद्धान
ज्ञान तो हुए है; किन्तु साक्षात् प्राप्ति नहीं हुई उन्हें पूर्वकथित कार्य, परद्रव्यका
आलम्बन छोड़नेरूप अणुव्रत-महाव्रतका ग्रहण, समिति, गुप्ति और पंच परमेष्ठीका ध्यानरूप
प्रवर्तन तथा उस प्रकार प्रवर्तन करनेवालोंकी संगति एवं विशेष जाननेके लिये शास्त्रोंका

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(मालिनी)
उभयनयविरोधध्वंसिनि स्यात्पदांके
जिनवचसि रमन्ते ये स्वयं वान्तमोहाः
सपदि समयसारं ते परं ज्योतिरुच्चै-
रनवमनयपक्षाक्षुण्णमीक्षन्त एव
।।४।।
व्यवहारनयके उपदेशसे ऐसा नहीं समझना चाहिए कि आत्मा परद्रव्यकी क्रिया कर सकता है, लेकिन
ऐसा समझना कि व्यवहारोपदिष्ट शुभ भावोंको आत्मा व्यवहारसे कर सकता है
और उस उपदेशसे ऐसा
भी नहीं समझना चाहिए कि शुभ भाव करनेसे आत्मा शुद्धताको प्राप्त करता है, परन्तु ऐसा समझना
कि साधक दशामें भूमिकाके अनुसार शुभ भाव आये बिना नहीं रहते
अभ्यास करना इत्यादि व्यवहारमार्गमें स्वयं प्रवर्तन करना और दूसरोंको प्रवर्तन करानाऐसे
व्यवहारनयका उपदेश अङ्गीकार करना प्रयोजनवान है व्यवहारनयको कथंचित् असत्यार्थ
कहा गया है; किन्तु यदि कोई उसे सर्वथा असत्यार्थ जानकर छोड़ दे तो वह शुभोपयोगरूप
व्यवहारको छोड़ देगा और उसे शुद्धोपयोगकी साक्षात् प्राप्ति तो नहीं हुई है, इसलिए उल्टा
अशुभोपयोगमें ही आकर, भ्रष्ट होकर, चाहे जैसी स्वेच्छारूप प्रवृत्ति करेगा तो वह नरकादि
गति तथा परम्परासे निगोदको प्राप्त होकर संसारमें ही भ्रमण करेगा
इसलिए शुद्धनयका
विषय जो साक्षात् शुद्ध आत्मा है उसकी प्राप्ति जब तक न हो तब तक व्यवहार भी
प्रयोजनवान है
ऐसा स्याद्वाद मतमें श्री गुरुओंका उपदेश है ।।१२।।
इसी अर्थका कलशरूप काव्य टीकाकार कहते हैं :
श्लोकार्थ :[उभय-नय विरोध-ध्वंसिनि ] निश्चय और व्यवहारइन दो नयोंके
विषयके भेदसे परस्पर विरोध है; उस विरोधका नाश करनेवाला [स्यात्-पद-अङ्के ]
‘स्यात्’-पदसे चिह्नित जो [जिनवचसि ] जिन भगवानका वचन (वाणी) है उसमें [ये
रमन्ते ]
जो पुरुष रमते हैं (
- प्रचुर प्रीति सहित अभ्यास करते हैं) [ते ] वे [स्वयं ] अपने
आप ही (अन्य कारणके बिना) [वान्तमोहाः ] मिथ्यात्वकर्मके उदयका वमन करके [उच्चैः
परं ज्योतिः समयसारं ]
इस अतिशयरूप परमज्योति प्रकाशमान शुद्ध आत्माको [सपदि
ईक्षन्ते एव ]
तत्काल ही देखते हैं
वह समयसाररूप शुद्ध आत्मा [अनवम् ] नवीन
उत्पन्न नहीं हुआ, किन्तु पहले कर्मोंसे आच्छादित था सो वह प्रगट व्यक्तिरूप हो गया है
और वह [अनय-पक्ष-अक्षुण्णम् ] सर्वथा एकान्तरूप कुनयके पक्षसे खण्डित नहीं होता,
निर्बाध है