Samaysar (Hindi). Gatha: 306-320 ; Kalash: 188-198 ; Sarvavishuddhagnan adhikar.

< Previous Page   Next Page >


Combined PDF/HTML Page 25 of 34

 

Page 448 of 642
PDF/HTML Page 481 of 675
single page version

पडिकमणं पडिसरणं परिहारो धारणा णियत्ती य
णिंदा गरहा सोही अट्ठविहो होदि विसकुंभो ।।३०६।।
अप्पडिकमणमप्पडिसरणं अप्परिहारो अधारणा चेव
अणियत्ती य अणिंदागरहासोही अमयकुंभो ।।३०७।।
प्रतिक्रमणं प्रतिसरणं परिहारो धारणा निवृत्तिश्च
निन्दा गर्हा शुद्धिः अष्टविधो भवति विषकुम्भः ।।३०६।।
अप्रतिक्रमणमप्रतिसरणमपरिहारोऽधारणा चैव
अनिवृत्तिश्चानिन्दाऽगर्हाऽशुद्धिरमृतकुम्भः ।।३०७।।
यस्तावदज्ञानिजनसाधारणोऽप्रतिक्रमणादिः स शुद्धात्मसिद्धयभावस्वभावत्वेन
स्वयमेवापराधत्वाद्विषकुम्भ एव; किं तस्य विचारेण ? यस्तु द्रव्यरूपः प्रतिक्रमणादिः
प्रतिक्रमण अरु प्रतिसरण, त्यों परिहरण, निवृत्ति, धारणा
अरु शुद्धि, निंदा, गर्हणायह अष्टविध विषकुम्भ है ।।३०६।।
अनप्रतिक्रमण, अनप्रतिसरण, अनपरिहरण, अनधारणा
अनिवृत्ति, अनगर्हा, अनिंद, अशुद्धिअमृतकुम्भ है ।।३०७।।
गाथार्थ :[प्रतिक्रमणम् ] प्रतिक्र मण, [प्रतिसरणम् ] प्रतिसरण, [परिहारः ] परिहार,
[धारणा ] धारणा, [निवृत्तिः ] निवृत्ति, [निन्दा ] निन्दा, [गर्हा ] गर्हा [च शुद्धिः ] और शुद्धि
[अष्टविधः ] यह आठ प्रकारका [विषकुम्भः ] विषकुं भ [भवति ] है (क्योंकि इसमें कर्तृत्वकी
बुद्धि सम्भवित है)
[अप्रतिक्रमणम् ] अप्रतिक्र मण, [अप्रतिसरणम् ] अप्रतिसरण, [अपरिहारः ] अपरिहार,
[अधारणा ] अधारणा, [अनिवृत्तिः च ] अनिवृत्ति, [अनिन्दा ] अनिन्दा, [अगर्हा ] अगर्हा [च
एव ]
और [अशुद्धिः ] अशुद्धि
[अमृतकुम्भः ] यह अमृतकुं भ है (क्योंकि इससे कर्तृत्वका
निषेध हैकुछ करना ही नहीं है, इसलिये बन्ध नहीं होता)
टीका :प्रथम तो जो अज्ञानीजनसाधारण (अज्ञानी लोगोंको साधारण ऐसे)
अप्रतिक्रमणादि हैं वे तो शुद्ध आत्माकी सिद्धिके अभावरूप स्वभाववाले हैं, इसलिये स्वयमेव
अपराधरूप होनेसे विषकुम्भ ही है; उनका विचार करनेका क्या प्रयोजन है ? (क्योंकि वे तो प्रथम

Page 449 of 642
PDF/HTML Page 482 of 675
single page version

स सर्वापराधविषदोषापकर्षणसमर्थत्वेनामृतकुम्भोऽपि प्रतिक्रमणाप्रतिक्रमणादिविलक्षणा-
प्रतिक्रमणादिरूपां तार्तीयीकीं भूमिमपश्यतः स्वकार्यकरणासमर्थत्वेन विपक्षकार्यकारित्वाद्विषकुम्भ
एव स्यात्
अप्रतिक्रमणादिरूपा तृतीया भूमिस्तु स्वयं शुद्धात्मसिद्धिरूपत्वेन सर्वापराधविषदोषाणां
सर्वंक षत्वात् साक्षात्स्वयममृतकुम्भो भवतीति व्यवहारेण द्रव्यप्रतिक्रमणादेरपि अमृतकुम्भत्वं
साधयति
तयैव च निरपराधो भवति चेतयिता तदभावे द्रव्यप्रतिक्रमणादिरप्यपराध एव
अतस्तृतीयभूमिकयैव निरपराधत्वमित्यवतिष्ठते तत्प्राप्त्यर्थ एवायं द्रव्यप्रतिक्रमणादिः ततो मेति
मंस्था यत्प्रतिक्रमणादीन् श्रुतिस्त्याजयति, किन्तु द्रव्यप्रतिक्रमणादिना न मुंचति, अन्यदपि
प्रतिक्रमणाप्रतिक्रमणाद्यगोचराप्रतिक्रमणादिरूपं शुद्धात्मसिद्धिलक्षणमतिदुष्करं किमपि कारयति
वक्ष्यते चात्रैव‘‘कम्मं जं पुव्वकयं सुहासुहमणेयवित्थरविसेसं तत्तो णियत्तदे अप्पयं तु जो
सो पडिक्कमणं ।।’’ इत्यादि
57
ही त्यागने योग्य है ) और जो द्रव्यरूप प्रतिक्रमणादि हैं वे, सर्व अपराधरूप विषके दोषोंको
(क्रमशः) कम करनेमें समर्थ होनेसे अमृतकुम्भ हैं (ऐसा व्यवहार आचारसूत्रमें कहा है) तथापि
प्रतिक्रमण
अप्रतिक्रमणादिसे विलक्षण ऐसी अप्रतिक्रमणादिरूप तीसरी भूमिकाको न देखनेवाले
पुरुषको वे द्रव्यप्रतिक्रमणादि (अपराध काटनेरूप) अपना कार्य करनेको असमर्थ होनेसे विपक्ष
(अर्थात् बन्धका) कार्य करते होनेसे विषकुम्भ ही हैं
जो अप्रतिक्रमणादिरूप तीसरी भूमि है वह,
स्वयं शुद्धात्माकी सिद्धिरूप होनेके कारण समस्त अपराधरूप विषके दोषोंको सर्वथा नष्ट
करनेवाली होनेसे, साक्षात् स्वयं अमृतकुम्भ है और इसप्रकार (वह तीसरी भूमि) व्यवहारसे
द्रव्यप्रतिक्रमणादिको भी अमृतकुम्भत्व साधती है
उस तीसरी भूमिसे ही आत्मा निरपराध होता
है उस (तीसरी भूमि) के अभावमें द्रव्यप्रतिक्रमणादि भी अपराध ही है इसलिये, तीसरी भूमिसे
ही निरपराधत्व है ऐसा सिद्ध होता है उसकी प्राप्तिके लिये ही यह द्रव्यप्रतिक्रमणादि हैं ऐसा
होनेसे यह नहीं मानना चाहिए कि (निश्चयनयका) शास्त्र द्रव्यप्रतिक्रमणादिको छुड़ाता है तब
फि र क्या करता है ? द्रव्यप्रतिक्रमणादिसे छुड़ा नहीं देता (अटका नहीं देता, संतोष नहीं मनवा
देता); इसके अतिरिक्त अन्य भी, प्रतिक्रमण-अप्रतिक्रमणादिसे अगोचर अप्रतिक्रमणादिरूप, शुद्ध
आत्माकी सिद्धि जिसका लक्षण है ऐसा, अति दुष्कर कुछ करवाता है
इस ग्रन्थमें ही आगे कहेंगे
किकम्मं जं पुव्वकयं सुहासुहमणेयवित्थरविसेसं तत्तो णियत्तदे अप्पयं तु जो सो पडिक्कमणं ।।
(अर्थ :अनेक प्रकारके विस्तारवाले पूर्वकृत शुभाशुभ कर्मोंसे जो अपने आत्माको निवृत्त कराता
है, वह आत्मा प्रतिक्रमण है ) इत्यादि
१. गाथा० ३८३३८५; वहाँ निश्चयप्रतिक्रमण आदिका स्वरूप कहा है

Page 450 of 642
PDF/HTML Page 483 of 675
single page version

अतो हताः प्रमादिनो गताः सुखासीनतां
प्रलीनं चापलमुन्मूलितमालम्बनम्
आत्मन्येवालानितं च चित्त-
मासम्पूर्णविज्ञानघनोपलब्धेः
।।१८८।।
भावार्थ :व्यवहारनयावलंबीने कहा था कि‘‘लगे हुये दोषोंका प्रतिक्रमणादि
करनेसे ही आत्मा शुद्ध होता है, तब फि र पहलेसे ही शुद्धात्माके आलम्बनका खेद करनेका
क्या प्रयोजन है ? शुद्ध होनेके बाद उसका आलम्बन होगा; पहलेसे ही आलम्बनका खेद
निष्फल है
’’ उसे आचार्य समझाते हैं किजो द्रव्यप्रतिक्रमणादि हैं वे दोषोंके मिटानेवाले
हैं, तथापि शुद्ध आत्माका स्वरूप जो कि प्रतिक्रमणादिसे रहित है उसके अवलम्बनके बिना
तो द्रव्यप्रतिक्रमणादिक दोषस्वरूप ही हैं, वे दोषोंके मिटानेमें समर्थ नहीं हैं; क्योंकि निश्चयकी
अपेक्षासे युक्त ही व्यवहारनय मोक्षमार्गमें है, केवल व्यवहारका ही पक्ष मोक्षमार्गमें नहीं है,
बन्धका ही मार्ग है
इसलिये यह कहा है किअज्ञानीके जो अप्रतिक्रमणादिक हैं सो तो
विषकुम्भ है ही, उसका तो कहना ही क्या है ? किन्तु व्यवहारचारित्रमें तो प्रतिक्रमणादिक
कहे हैं वे भी निश्चयनयसे विषकुम्भ ही हैं, क्योंकि आत्मा तो प्रतिक्रमणादिसे रहित, शुद्ध,
अप्रतिक्रमणादिस्वरूप ही है
।।३०६-३०७।।
अब इस कथनका कलशरूप काव्य कहते हैं :
श्लोकार्थ :[अतः ] इस क थनसे, [सुख-आसीनतां गताः ] सुखासीन (सुखसे
बैठे हुए) [प्रमादिनः ] प्रमादी जीवोंको [हताः ] हत क हा है (अर्थात् उन्हें मोक्षका सर्वथा
अनधिकारी क हा है), [चापलम् प्रलीनम् ] चापल्यका (
अविचारित कार्यका) प्रलय किया
है (अर्थात् आत्मभानसे रहित क्रियाओंको मोक्षके कारणमें नहीं माना), [आलम्बनम्
उन्मूलितम् ]
आलंबनको उखाड़ फें का है (अर्थात् सम्यग्दृष्टिके द्रव्यप्रतिक्र मण इत्यादिको भी
निश्चयसे बन्धका कारण मानकर हेय क हा है), [आसम्पूर्ण-विज्ञान-घन-उपलब्धेः ] जब तक
सम्पूर्ण विज्ञानघन आत्माकी प्राप्ति न हो तब तक [आत्मनि एव चित्तम् आलानितं च ]
(शुद्ध) आत्मारूप स्तम्भसे ही चित्तको बाँध रखा है (
अर्थात् व्यवहारके आलम्बनसे अनेक
प्रवृत्तियोंमें चित्त भ्रमण करता था, उसे शुद्ध चैतन्यमात्र आत्मामें ही लगानेको क हा है,
क्योंकि वही मोक्षका कारण है)
।१८८।

Page 451 of 642
PDF/HTML Page 484 of 675
single page version

(वसन्ततिलका)
यत्र प्रतिक्रमणमेव विषं प्रणीतं
तत्राप्रतिक्रमणमेव सुधा कुतः स्यात्
तत्किं प्रमाद्यति जनः प्रपतन्नधोऽधः
किं नोर्ध्वमूर्ध्वमधिरोहति निष्प्रमादः
।।१८९।।
यहाँ निश्चयनयसे प्रतिक्रमणादिको विषकुम्भ कहा और अप्रतिक्रमणादिको अमृतकुम्भ
कहा, इसलिये यदि कोई विपरीत समझकर प्रतिक्रमणादिको छोड़कर प्रमादी हो जाये तो उसे
समझानेके लिए कलशरूप काव्य कहते हैं :
श्लोकार्थ :[यत्र प्रतिक्रमणम् एव विषं प्रणीतं ] (हे भाई !) जहाँ प्रतिक्र मणको
ही विष क हा है, [तत्र अप्रतिक्रमणम् एव सुधा कुतः स्यात् ] वहाँ अप्रतिक्र मण अमृत
क हाँसे हो सकता है ? (अर्थात् नहीं हो सक ता
) [तत् ] तब फि र [जनः अधः अधः
प्रपतन् किं प्रमाद्यति ] मनुष्य नीचे ही नीचे गिरते हुए प्रमादी क्यों होते हैं ? [निष्प्रमादः ]
निष्प्रमादी होते हुए [ऊ र्ध्वम् ऊ र्ध्वम् किं न अधिरोहति ] ऊ पर ही ऊ पर क्यों नहीं चढ़ते ?
भावार्थ :अज्ञानावस्थामें जो अप्रतिक्रमणादि होते हैं उनकी तो बात ही क्या ?
किन्तु यहाँ तो, शुभप्रवृत्तिरूप द्रव्यप्रतिक्रमणादिका पक्ष छुड़ानेके लिए उन्हें
(द्रव्यप्रतिक्रमणादिको) तो निश्चयनयकी प्रधानतासे विषकुम्भ कहा है, क्योंकि वे कर्मबन्धके
ही कारण हैं, और प्रतिक्रमण-अप्रतिक्रमणादिसे रहित ऐसी तीसरी भूमि, जो कि शुद्ध
आत्मस्वरूप है तथा प्रतिक्रमणादिसे रहित होनेसे अप्रतिक्रमणादिरूप है, उसे अमृतकुम्भ कहा
है अर्थात् वहाँके अप्रतिक्रमणादिको अमृतकुम्भ कहा है
तृतीय भूमि पर चढ़ानेके लिये
आचार्यदेवने यह उपदेश दिया है प्रतिक्रमणादिको विषकुम्भ कहनेकी बात सुनकर जो लोग
उल्टे प्रमादी होते हैं उनके सम्बन्धमें आचार्य कहते हैं कि‘यह लोग नीचे ही नीचे क्यों
गिरते हैं ? तृतीय भूमिमें ऊ पर ही ऊ पर क्यों नहीं चढ़ते ?’ जहाँ प्रतिक्रमणको विषकुम्भ कहा
है वहाँ निषेधरूप अप्रतिक्रमण ही अमृतकुम्भ हो सकता है, अज्ञानीका नहीं
इसलिये जो
अप्रतिक्रमणादि अमृतकुम्भ कहे हैं वे अज्ञानीके अप्रतिक्रमणादि नहीं जानने चाहिए, किन्तु
तीसरी भूमिके शुद्ध आत्मामय जानने चाहिए
।१८९।
अब इस अर्थको दृढ़ करता हुआ काव्य कहते हैं :

Page 452 of 642
PDF/HTML Page 485 of 675
single page version

(पृथ्वी)
प्रमादकलितः कथं भवति शुद्धभावोऽलसः
कषायभरगौरवादलसता प्रमादो यतः
अतः स्वरसनिर्भरे नियमितः स्वभावे भवन्
मुनिः परमशुद्धतां व्रजति मुच्यते वाऽचिरात्
।।१९०।।
(शार्दूलविक्रीडित)
त्यक्त्वाऽशुद्धिविधायि तत्किल परद्रव्यं समग्रं स्वयं
स्वद्रव्ये रतिमेति यः स नियतं सर्वापराधच्युतः
बन्धध्वंसमुपेत्य नित्यमुदितः स्वज्योतिरच्छोच्छल-
च्चैतन्यामृतपूरपूर्णमहिमा शुद्धो भवन्मुच्यते
।।१९१।।
श्लोकार्थ :[कषाय-भर-गौरवात् अलसता प्रमादः ] क षायके भारसे भारी होनेसे
आलस्यका होना सो प्रमाद है, [यतः प्रमादकलितः अलसः शुद्धभावः कथं भवति ] इसलिये यह
प्रमादयुक्त आलस्यभाव शुद्धभाव कैसे हो सकता है ? [अतः स्वरसनिर्भरे स्वभावे नियमितः भवन्
मुनिः ]
इसलिये निज रससे परिपूर्ण स्वभावमें निश्चल होनेवाला मुनि [परमशुद्धतां व्रजति ] परम
शुद्धताको प्राप्त होता है [वा ] अथवा [अचिरात् मुच्यते ] शीघ्र
अल्प कालमें ही(क र्मबन्धसे)
छूट जाता है
भावार्थ :प्रमाद तो कषायके गौरवसे होता है, इसलिये प्रमादीके शुद्ध भाव नहीं होता
जो मुनि उद्यमपूर्वक स्वभावमें प्रवृत्त होता है, वह शुद्ध होकर मोक्षको प्राप्त करता है ।१९०।
अब, मुक्त होनेका अनुक्रम-दर्शक काव्य कहते हैं :
श्लोकार्थ :[यः किल अशुद्धिविधायि परद्रव्यं तत् समग्रं त्यक्त्वा ] जो पुरुष
वास्तवमें अशुद्धता क रनेवाले समस्त परद्रव्यको छोड़कर [स्वयं स्वद्रव्ये रतिम् एति ] स्वयं
स्वद्रव्यमें लीन होता है, [सः ] वह पुरुष [नियतम् ] नियमसे [सर्व-अपराध-च्युतः ] सर्व
अपराधोंसे रहित होता हुआ, [बन्ध-ध्वंसम् उपेत्य नित्यम् उदितः ] बन्धके नाशको प्राप्त होकर
नित्य-उदित (सदा प्रकाशमान) होता हुआ, [स्व-ज्योतिः-अच्छ-उच्छलत्-चैतन्य-अमृत-पूर-
पूर्ण-महिमा ]
अपनी ज्योतिसे (आत्मस्वरूपके प्रकाशसे) निर्मलतया उछलता हुआ जो
चैतन्यरूप अमृतका प्रवाह उसके द्वारा जिसकी पूर्ण महिमा है ऐसा [शुद्धः भवन् ] शुद्ध होता

Page 453 of 642
PDF/HTML Page 486 of 675
single page version

(मन्दाक्रान्ता)
बन्धच्छेदात्कलयदतुलं मोक्षमक्षय्यमेत-
न्नित्योद्योतस्फु टितसहजावस्थमेकान्तशुद्धम्
एकाकारस्वरसभरतोऽत्यन्तगम्भीरधीरं
पूर्णं ज्ञानं ज्वलितमचले स्वस्य लीनं महिम्नि
।।१९२।।
इति मोक्षो निष्क्रान्तः
हुआ, [मुच्यते ] क र्मोंसे मुक्त होता है
भावार्थ :जो पुरुष, पहले समस्त परद्रव्यका त्याग करके निज द्रव्यमें
(आत्मस्वरूपमें) लीन होता है, वह पुरुष समस्त रागादिक अपराधोंसे रहित होकर आगामी
बन्धका नाश करता है और नित्य उदयस्वरूप केवलज्ञानको प्राप्त करके, शुद्ध होकर समस्त
कर्मोंका नाश करके, मोक्षको प्राप्त करता है
यह, मोक्ष होनेका अनुक्रम है ।१९१।
अब मोक्ष अधिकारको पूर्ण करते हुए, उसके अन्तिम मंगलरूप पूर्ण ज्ञानकी महिमाका
(सर्वथा शुद्ध हुए आत्मद्रव्यकी महिमाका) कलशरूप काव्य कहते हैं :
श्लोकार्थ :[बन्धच्छेदात् अतुलम् अक्षय्यम् मोक्षम् कलयत् ] क र्मबन्धके छेदनेसे
अतुल अक्षय (अविनाशी) मोक्षका अनुभव करता हुआ, [नित्य-उद्योत-स्फु टित-सहज-
अवस्थम् ]
नित्य उद्योतवाली (जिसका प्रकाश नित्य है ऐसी) सहज अवस्था जिसकी खिल
उठी है ऐसा, [एकान्त-शुद्धम् ] एकान्त शुद्ध (
क र्ममलके न रहनेसे अत्यन्त शुद्ध), और
[एकाकार-स्व-रस-भरतः अत्यन्त-गम्भीर-धीरम् ] एकाकार (एक ज्ञानमात्र आकारमें
परिणमित) निजरसकी अतिशयतासे जो अत्यन्त गम्भीर और धीर है ऐसा, [एतत् पूर्णं ज्ञानम् ]
यह पूर्ण ज्ञान [ज्वलितम् ] प्रकाशित हो उठा है (सर्वथा शुद्ध आत्मद्रव्य जाज्वल्यमान प्रगट
हुआ है); और [स्वस्य अचले महिम्नि लीनम् ] अपनी अचल महिमामें लीन हुआ है
भावार्थ :कर्मका नाश करके मोक्षका अनुभव करता हुआ, अपनी स्वाभाविक
अवस्थारूप, अत्यन्त शुद्ध, समस्त ज्ञेयाकारोंको गौण करता हुआ, अत्यन्त गम्भीर (जिसका पार
नहीं है ऐसा) और धीर (आकुलता रहित)
ऐसा पूर्ण ज्ञान प्रगट देदीप्यमान होता हुआ,
अपनी महिमामें लीन हो गया ।१९२।
टीका :इसप्रकार मोक्ष (रंगभूमिमेंसे) बाहर निकल गया

Page 454 of 642
PDF/HTML Page 487 of 675
single page version

इति श्रीमदमृतचन्द्रसूरिविरचितायां समयसारव्याख्यायामात्मख्यातौ मोक्षप्ररूपकः अष्टमोऽङ्कः ।।
भावार्थ :रंगभूमिमें मोक्षतत्त्वका स्वाँग आया था जहाँ ज्ञान प्रगट हुआ वहाँ उस
मोक्षका स्वाँग रंगभूमिसे बाहर निकल गया
(सवैया)
ज्यों नर कोय परयो दृढ़बन्धन बन्धस्वरूप लखै दुखकारी,
चिन्त करै निति कैम कटे यह तौऊ छिदै नहि नैक टिकारी
छेदनकूँ गहि आयुध धाय चलाय निशंक करै दुय धारी,
यों बुध बुद्धि धसाय दुधा करि कर्म रु आतम आप गहारी
।।
इसप्रकार श्री समयसारकी (श्रीमद्भगवत्कुन्दकुन्दाचार्यदेवप्रणीत श्री समयसार
परमागमकी) श्रीमद् अमृतचन्द्राचार्यदेवविरचित आत्मख्याति नामक टीकामें मोक्षका प्ररूपक
आठवाँ अंक समाप्त हुआ

Page 455 of 642
PDF/HTML Page 488 of 675
single page version

अथ प्रविशति सर्वविशुद्धज्ञानम्
(मन्दाक्रान्ता)
नीत्वा सम्यक् प्रलयमखिलान् कर्तृभोक्त्रादिभावान्
दूरीभूतः प्रतिपदमयं बन्धमोक्षप्रक्लृप्तेः
शुद्धः शुद्धः स्वरसविसरापूर्णपुण्याचलार्चि-
ष्टंकोत्कीर्णप्रकटमहिमा स्फू र्जति ज्ञानपुंजः
।।१९३।।
- -
सर्वविशुद्धज्ञान अधिकार
(दोहा)
सर्वविशुद्ध सुज्ञानमय, सदा आतमाराम
परकूं करै न भोगवै, जानै जपि तसु नाम ।।
प्रथम टीकाकार आचार्यदेव कहते हैं कि‘अब सर्वविशुद्धज्ञान प्रवेश करता है’
मोक्षतत्त्वके स्वाँगके निकल जानेके बाद सर्वविशुद्धज्ञान प्रवेश करता है रंगभूमिमें जीव-
अजीव, कर्ता-कर्म, पुण्य-पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, बन्ध और मोक्षये आठ स्वाँग आये,
उनका नृत्य हुआ और वे अपना-अपना स्वरूप बताकर निकल गये अब सर्व स्वाँगोंके दूर होने
पर एकाकार सर्वविशुद्धज्ञान प्रवेश करता है
उसमें प्रथम ही, मंगलरूपसे ज्ञानपुञ्ज आत्माकी महिमाका काव्य कहते हैं :
श्लोकार्थ :[अखिलान् कर्तृ-भोक्तृ-आदि-भावान् सम्यक् प्रलयम् नीत्वा ] समस्त क र्ता-
भोक्ता आदि भावोंको सम्यक् प्रकारसे (भलीभाँति) नाशको प्राप्त क राके [प्रतिपदम् ] पद-पद पर
(अर्थात् क र्मोंके क्षयोपशमके निमित्तसे होनेवाली प्रत्येक पर्यायमें) [बन्ध-मोक्ष-प्रक्लृप्तेः दूरीभूतः ]
बन्ध-मोक्षकी रचनासे दूर वर्तता हुआ, [शुद्धः शुद्धः ] शुद्ध
शुद्ध (अर्थात् रागादि मल तथा आवरणसे
रहित), [स्वरस-विसर-आपूर्ण-पुण्य-अचल-अर्चिः ] जिसका पवित्र अचल तेज निजरसके
(
ज्ञानरसके, ज्ञानचेतनारूप रसके) विस्तारसे परिपूर्ण है ऐसा, और [टंकोत्कीर्ण-प्रकट-महिमा] जिसकी
महिमा टंकोत्कीर्ण प्रगट है ऐसा, [अयं ज्ञानपुंजः स्फू र्जति] यह ज्ञानपुञ्ज आत्मा प्रगट होता है

Page 456 of 642
PDF/HTML Page 489 of 675
single page version

(अनुष्टुभ्)
कर्तृत्वं न स्वभावोऽस्य चितो वेदयितृत्ववत्
अज्ञानादेव कर्तायं तदभावादकारकः ।।१९४।।
अथात्मनोऽकर्तृत्वं द्रष्टान्तपुरस्सरमाख्याति
दवियं जं उप्पज्जइ गुणेहिं तं तेहिं जाणसु अणण्णं
जह कडयादीहिं दु पज्जएहिं कणयं अणण्णमिह ।।३०८।।
जीवस्साजीवस्स दु जे परिणामा दु देसिदा सुत्ते
तं जीवमजीवं वा तेहिमणण्णं वियाणाहि ।।३०९।।
भावार्थ :शुद्धनयका विषय जो ज्ञानस्वरूप आत्मा है, वह कर्तृत्वभोक्तृत्वके भावोंसे
रहित है, बन्धमोक्षकी रचनासे रहित है, परद्रव्यसे और परद्रव्यके समस्त भावोंसे रहित होनेसे
शुद्ध है, निजरसके प्रवाहसे पूर्ण देदीप्यमान ज्योतिरूप है और टंकोत्कीर्ण महिमामय है
ऐसा
ज्ञानपुञ्ज आत्मा प्रगट होता है ।१९३।
अब सर्वविशुद्ध ज्ञानको प्रगट करते हैं उसमें प्रथम, ‘आत्मा कर्ता-भोक्ताभावसे रहित
है’ इस अर्थका, आगामी गाथाओंका सूचक श्लोक कहते हैं :
श्लोकार्थ :[कर्तृत्वं अस्य चितः स्वभावः न ] क र्तृत्व इस चित्स्वरूप आत्माका
स्वभाव नहीं है, [वेदयितृत्ववत् ] जैसे भोक्तृत्व स्वभाव नहीं है [अज्ञानात् एव अयं कर्ता ]
वह अज्ञानसे ही क र्ता है, [तद्-अभावात् अकारकः ] अज्ञानका अभाव होने पर अक र्ता
है
।१९४।
अब, आत्माका अकर्तृत्व दृष्टान्तपूर्वक कहते हैं :
जो द्रव्य उपजे जिन गुणोंसे, उनसे ज्ञान अनन्य सो
है जगतमें कटकादि, पर्यायोंसे कनक अनन्य ज्यों ।।३०८।।
जीव-अजीवके परिणाम जो, शास्त्रों विषैं जिनवर कहे
वे जीव और अजीव जान, अनन्य उन परिणामसे ।।३०९।।

Page 457 of 642
PDF/HTML Page 490 of 675
single page version

ण कुदोचि वि उप्पण्णो जम्हा कज्जं ण तेण सो आदा
उप्पादेदि ण किंचि वि कारणमवि तेण ण स होदि ।।३१०।।
कम्मं पडुच्च कत्ता कत्तारं तह पडुच्च कम्माणि
उप्पज्जंति य णियमा सिद्धी दु ण दीसदे अण्णा ।।३११।।
द्रव्यं यदुत्पद्यते गुणैस्तत्तैर्जानीह्यनन्यत्
यथा कटकादिभिस्तु पर्यायैः कनकमनन्यदिह ।।३०८।।
जीवस्याजीवस्य तु ये परिणामास्तु दर्शिताः सूत्रे
तं जीवमजीवं वा तैरनन्यं विजानीहि ।।३०९।।
न कुतश्चिदप्युत्पन्नो यस्मात्कार्यं न तेन स आत्मा
उत्पादयति न किञ्चिदपि कारणमपि तेन न स भवति ।।३१०।।
कर्म प्रतीत्य कर्ता कर्तारं तथा प्रतीत्य कर्माणि
उत्पद्यन्ते च नियमात्सिद्धिस्तु न द्रश्यतेऽन्या ।।३११।।
58
उपजै न आत्मा कोइसे, इससे न आत्मा कार्य है
उपजावता नहिं कोइको, इससे न कारण भी बने ।।३१०।।
रे ! कर्म-आश्रित होय कर्ता, कर्म भी करतारके
आश्रित हुवे उपजे नियमसे, अन्य नहिं सिद्धी दिखै ।।३११।।
गाथार्थ :[यत् द्रव्यं ] जो द्रव्य [गुणैः ] जिन गुणोंसे [उत्पद्यते ] उत्पन्न होता है,
[तैः ] उन गुणोंसे [तत् ] उसे [अनन्यत् जानीहि ] अनन्य जानो; [यथा ] जैसे [इह ] जगतमें
[कटकादिभिः पर्यायैः तु ] क ड़ा इत्यादि पर्यायोंसे [कनकम् ] सुवर्ण [अनन्यत् ] अनन्य है वैसे
[जीवस्य अजीवस्य तु ] जीव और अजीवके [ये परिणामाः तु ] जो परिणाम [सूत्रे
दर्शिताः ] सूत्रमें बताये हैं, [तैः ] उन परिणामोंसे [तं जीवम् अजीवम् वा ] उस जीव अथवा
अजीवको [अनन्यं विजानीहि ] अनन्य जानो
[यस्मात् ] क्योंकि [कुतश्चित् अपि ] किसीसे भी [न उत्पन्नः ] उत्पन्न नहीं हुआ, [तेन ]
इसलिये [सः आत्मा ] वह आत्मा [कार्यं न ] (किसीका) कार्य नहीं है, [किञ्चित् अपि ] और
किसीको [न उत्पादयति ] उत्पन्न नहीं करता, [तेन ] इसलिये [सः ] वह [कारणम् अपि ]
(किसीका) कारण भी [न भवति ] नहीं है

Page 458 of 642
PDF/HTML Page 491 of 675
single page version

जीवो हि तावत्क्रमनियमितात्मपरिणामैरुत्पद्यमानो जीव एव, नाजीवः, एवमजीवोऽपि
क्रमनियमितात्मपरिणामैरुत्पद्यमानोऽजीव एव, न जीवः, सर्वद्रव्याणां स्वपरिणामैः सह तादात्म्यात्
कंक णादिपरिणामैः कांचनवत्
एवं हि जीवस्य स्वपरिणामैरुत्पद्यमानस्याप्यजीवेन सह
कार्यकारणभावो न सिध्यति, सर्वद्रव्याणां द्रव्यान्तरेण सहोत्पाद्योत्पादकभावाभावात्; तदसिद्धौ
चाजीवस्य जीवकर्मत्वं न सिध्यति; तदसिद्धौ च कर्तृकर्मणोरनन्यापेक्षसिद्धत्वात् जीवस्याजीवकर्तृत्वं
न सिध्यति
अतो जीवोऽकर्ता अवतिष्ठते
[नियमात् ] नियमसे [कर्म प्रतीत्य ] क र्मके आश्रयसे (क र्मका अवलम्बन लेकर)
[कर्ता ] क र्ता होता है; [तथा च ] और [कर्तारं प्रतीत्य ] क र्ताके आश्रयसे [कर्माणि
उत्पद्यन्ते ]
क र्म उत्पन्न होते हैं; [अन्या तु ] अन्य किसी प्रकारसे [सिद्धिः ] क र्ताक र्मकी
सिद्धि [न दृश्यते ] नहीं देखी जाती ।
टीका :प्रथम तो जीव क्रमबद्ध ऐसे अपने परिणामोंसे उत्पन्न होता हुआ जीव ही
है, अजीव नहीं; इसीप्रकार अजीव भी क्रमबद्ध अपने परिणामोंसे उपन्न होता हुआ अजीव
ही है, जीव नहीं; क्योंकि जैसे (कंकण आदि परिणामोंसे उत्पन्न होनेवाले ऐसे) सुवर्णका
कंकण आदि परिणामोंके साथ तादात्म्य है, उसी प्रकार सर्व द्रव्योंका अपने परिणामोंके साथ
तादात्म्य है
इसप्रकार जीव अपने परिणामोंसे उत्पन्न होता है तथापि उसका अजीवके साथ
कार्यकारणभाव सिद्ध नहीं होता, क्योंकि सर्व द्रव्योंका अन्यद्रव्यके साथ उत्पाद्य-
उत्पादकभावका अभाव है; उसके (कार्यकारणभावके) सिद्ध न होने पर, अजीवके जीवका
कर्मत्व सिद्ध नहीं होता; और उसके (
अजीवके जीवका कर्मत्व) सिद्ध न होने पर,
कर्ता-कर्मकी अन्यनिरपेक्षतया (अन्यद्रव्यसे निरपेक्षतया, स्वद्रव्यमें ही) सिद्धि होनेसे, जीवके
अजीवका कर्तृत्व सिद्ध नहीं होता इसलिये जीव अकर्ता सिद्ध होता है
भावार्थ :सर्व द्रव्योंके परिणाम भिन्न-भिन्न हैं सभी द्रव्य अपने-अपने परिणामोंके
कर्ता हैं; वे उन परिणामोंके कर्ता हैं, वे परिणाम उनके कर्म हैं निश्चयसे किसीका किसीके
साथ कर्ताकर्मसम्बन्ध नहीं है इसलिये जीव अपने परिणामोंका ही कर्ता है, और अपने
परिणाम कर्म हैं इसीप्रकार अजीव अपने परिणामोंका ही कर्ता है, और अपने परिणाम कर्म
हैं इसप्रकार जीव दूसरेके परिणामोंका अकर्ता है ।।३०८ से ३११।।
‘इसप्रकार जीव अकर्ता है तथापि उसे बन्ध होता है, यह कोई अज्ञानकी महिमा है’
इस अर्थका कलशरूप काव्य कहते हैं :

Page 459 of 642
PDF/HTML Page 492 of 675
single page version

(शिखरिणी)
अकर्ता जीवोऽयं स्थित इति विशुद्धः स्वरसतः
स्फु रच्चिज्जयोतिर्भिश्छुरितभुवनाभोगभवनः
तथाप्यस्यासौ स्याद्यदिह किल बन्धः प्रकृतिभिः
स खल्वज्ञानस्य स्फु रति महिमा कोऽपि गहनः
।।१९५।।
चेदा दु पयडीअट्ठं उप्पज्जइ विणस्सइ
पयडी वि चेययट्ठं उप्पज्जइ विणस्सइ ।।३१२।।
एवं बंधो उ दोण्हं पि अण्णोण्णप्पच्चया हवे
अप्पणो पयडीए य संसारो तेण जायदे ।।३१३।।
चेतयिता तु प्रकृत्यर्थमुत्पद्यते विनश्यति
प्रकृतिरपि चेतकार्थमुत्पद्यते विनश्यति ।।३१२।।
श्लोकार्थ :[स्वरसतः विशुद्धः ] जो निजरससे विशुद्ध है, और [स्फु रत्-चित्-
ज्योतिर्भिः छुरित-भुवन-आभोग-भवनः ] जिसकी स्फु रायमान होती हुई चैतन्यज्योतियोंके द्वारा
लोक का समस्त विस्तार व्याप्त हो जाता है ऐसा जिसका स्वभाव है, [अयं जीवः ] ऐसा यह जीव
[इति ] पूर्वोक्त प्रकारसे (परद्रव्यका तथा परभावोंका) [अकर्ता स्थितः ] अक र्ता सिद्ध हुआ,
[तथापि ] तथापि [अस्य ] उसे [इह ] इस जगतमें [प्रकृतिभिः ] क र्मप्रकृ तियोंके साथ [यद् असौ
बन्धः किल स्यात् ]
जो यह (प्रगट) बन्ध होता है, [सः खलु अज्ञानस्य कः अपि गहनः महिमा
स्फु रति ]
सो वह वास्तवमें अज्ञानकी कोई गहन महिमा स्फु रायमान है
भावार्थ :जिसका ज्ञान सर्व ज्ञेयोंमें व्याप्त होनेवाला है ऐसा यह जीव शुद्धनयसे
परद्रव्यका कर्ता नहीं है, तथापि उसे कर्मका बन्ध होता है यह अज्ञानकी कोई गहन महिमा है
जिसका पार नहीं पाया जाता ।१९५।
(अब इस अज्ञानकी महिमाको प्रगट करते हैं :)
पर जीव प्रकृतीके निमित्त जु, उपजता नशता अरे !
अरु प्रकृतिका जीवके निमित्त, विनाश अरु उत्पाद है
।।३१२।।
अन्योन्यके जु निमित्तसे यों, बन्ध दोनोंका बने
इस जीव प्रकृती उभयका, संसार इससे होय है ।।३१३।।

Page 460 of 642
PDF/HTML Page 493 of 675
single page version

एवं बन्धस्तु द्वयोरपि अन्योन्यप्रत्ययाद्भवेत्
आत्मनः प्रकृतेश्च संसारस्तेन जायते ।।३१३।।
अयं हि आसंसारत एव प्रतिनियतस्वलक्षणानिर्ज्ञानेन परात्मनोरेकत्वाध्यासस्य करणात्कर्ता
सन् चेतयिता प्रकृतिनिमित्तमुत्पत्तिविनाशावासादयति; प्रकृतिरपि चेतयितृनिमित्तमुत्पत्ति-
विनाशावासादयति
एवमनयोरात्मप्रकृत्योः कर्तृकर्मभावाभावेऽप्यन्योन्यनिमित्तनैमित्तिकभावेन
द्वयोरपि बन्धो द्रष्टः, ततः संसारः, तत एव च तयोः कर्तृकर्मव्यवहारः
गाथार्थ :[चेतयिता तु ] चेतक अर्थात् आत्मा [प्रकृत्यर्थम् ] प्रकृ तिके निमित्तसे
[उत्पद्यते ] उत्पन्न होता है [विनश्यति ] और नष्ट होता है, [प्रकृतिः अपि ] तथा प्रकृ ति
भी [चेतकार्थम् ] चेतक अर्थात् आत्माके निमित्तसे [उत्पद्यते ] उत्पन्न होती है [विनश्यति ]
तथा नष्ट होती है
[एवं ] इसप्रकार [अन्योन्यप्रत्ययात् ] परस्पर निमित्तसे [द्वयोः अपि ]
दोनोंका[आत्मनः प्रकृतेः च ] आत्माका और प्रकृ तिका[बन्धः तु भवेत् ] बन्ध होता
है, [तेन ] और इससे [संसारः ] संसार [जायते ] उत्पन्न होता है
टीका :यह आत्मा, (उसे) अनादि संसारसे ही (अपने और परके भिन्न-भिन्न)
निश्चित स्वलक्षणोंका ज्ञान (भेदज्ञान) न होनेसे परके और अपने एकत्वका अध्यास करनेसे
कर्ता होता हुआ, प्रकृतिके निमित्तसे उत्पत्ति-विनाशको प्राप्त होता है; प्रकृति भी आत्माके
निमित्तसे उत्पत्ति-विनाशको प्राप्त होती है (अर्थात् आत्माके परिणामानुसार परिणमित होती है),
इसप्रकार
यद्यपि उन आत्मा और प्रकृतिके कर्ताकर्मभावका अभाव है, तथापिपरस्पर
निमित्तनैमित्तिकभावसे दोनोंके बन्ध देखा जाता है, उससे संसार है और इसीसे उनके (आत्मा
और प्रकृतिके) कर्ता-कर्मका व्यवहार है
भावार्थ :आत्माके और ज्ञानावरणादि कर्मोंकी प्रकृतिओंके परमार्थसे
कर्ताकर्मभावका अभाव है तथापि परस्पर निमित्त-नैमित्तिकभावके कारण बन्ध होता है, इससे
संसार है और इसीसे कर्ताकर्मपनेका व्यवहार है
।।३१२-३१३।।
(अब यह कहते हैं कि‘जब तक आत्मा प्रकृतिके निमित्तसे उपजना-विनशना न
छोड़े तब तक वह अज्ञानी, मिथ्यादृष्टि, असंयत है’ :)

Page 461 of 642
PDF/HTML Page 494 of 675
single page version

जा एस पयडीअट्ठं चेदा णेव विमुंचए
अयाणओ हवे ताव मिच्छादिट्ठी असंजओ ।।३१४।।
जदा विमुंचए चेदा कम्मफलमणंतयं
तदा विमुत्तो हवदि जाणओ पासओ मुणी ।।३१५।।
यावदेष प्रकृत्यर्थं चेतयिता नैव विमुञ्चति
अज्ञायको भवेत्तावन्मिथ्याद्रष्टिरसंयतः ।।३१४।।
यदा विमुञ्चति चेतयिता कर्मफलमनन्तकम्
तदा विमुक्तो भवति ज्ञायको दर्शको मुनिः ।।३१५।।
यावदयं चेतयिता प्रतिनियतस्वलक्षणानिर्ज्ञानात् प्रकृतिस्वभावमात्मनो बन्धनिमित्तं
न मुंचति, तावत्स्वपरयोरेकत्वज्ञानेनाज्ञायको भवति, स्वपरयोरेकत्वदर्शनेन मिथ्याद्रष्टि-
र्भवति, स्वपरयोरेकत्वपरिणत्या चासंयतो भवति; तावदेव च परात्मनोरेकत्वाध्यासस्य करणात्कर्ता
उत्पाद-व्यय प्रकृतीनिमित्त जु, जब हि तक नहिं परितजे
अज्ञानि, मिथ्यात्वी, असंयत, तब हि तक वह जीव रहे ।।३१४।।
यह आतमा जब ही करमका, फल अनन्ता परितजे
ज्ञायक तथा दर्शक तथा मुनि सो हि कर्मविमुक्त है ।।३१५।।
गाथार्थ :[यावत् ] जब तक [एषः चेतयिता ] यह आत्मा [प्रकृत्यर्थं ] प्रकृ तिके
निमित्तसे उपजना-विनशना [न एव विमुञ्चति ] नहीं छोड़ता, [तावत् ] तब तक वह
[अज्ञायकः ] अज्ञायक है, [मिथ्यादृष्टिः ] मिथ्यादृष्टि है, [असंयतः भवेत् ] असंयत है
[यदा ] जब [ चेतयिता ] आत्मा [अनन्तक म् कर्मफलम् ] अनन्त क र्म फलको [विमुञ्चति ]
छोड़ता है, [तदा ] तब वह [ज्ञायकः ] ज्ञायक है, [दर्शकः ] दर्शक है, [मुनिः ] मुनि है, [विमुक्तः
भवति ]
विमुक्त अर्थात् बन्धसे रहित है
टीका :जब तक यह आत्मा, (स्व-परके भिन्न-भिन्न) निश्चित स्वलक्षणोंका ज्ञान
(भेदज्ञान) न होनेसे, प्रकृतिके स्वभावकोजो कि अपनेको बन्धका निमित्त है उसकोनहीं
छोड़ता, तब तक स्व-परके एकत्वज्ञानसे अज्ञायक है, स्व-परके एकत्वदर्शनसे (एकत्वरूप
श्रद्धानसे) मिथ्यादृष्टि है और स्व-परकी एकत्वपरिणतिसे असंयत है; और तब तक ही परके तथा

Page 462 of 642
PDF/HTML Page 495 of 675
single page version

भवति यदा त्वयमेव प्रतिनियतस्वलक्षणनिर्ज्ञानात् प्रकृतिस्वभावमात्मनो बन्धनिमित्तं मुञ्चति,
तदा स्वपरयोर्विभागज्ञानेन ज्ञायको भवति, स्वपरयोर्विभागदर्शनेन दर्शको भवति,
स्वपरयोर्विभागपरिणत्या च संयतो भवति; तदैव च परात्मनोरेकत्वाध्यासस्याकरणादकर्ता भवति
(अनुष्टुभ्)
भोक्तृत्वं न स्वभावोऽस्य स्मृतः कर्तृत्ववच्चितः
अज्ञानादेव भोक्तायं तदभावादवेदकः ।।१९६।।
अण्णाणी कम्मफलं पयडिसहावट्ठिदो दु वेदेदि
णाणी पुण कम्मफलं जाणदि उदिदं ण वेदेदि ।।३१६।।
अपने एकत्वका अध्यास करनेसे कर्ता है और जब यही आत्मा, (अपने और परके भिन्न-भिन्न)
निश्चित स्वलक्षणोंके ज्ञानके (भेदज्ञानके) कारण, प्रकृतिके स्वभावकोजो कि अपनेको बन्धका
निमित्त है उसकोछोड़ता है, तब स्व-परके विभागज्ञानसे (भेदज्ञानसे) ज्ञायक है, स्व-परके
विभागदर्शनसे (भेददर्शनसे) दर्शक है और स्व-परकी विभागपरिणतिसे (भेदपरिणतिसे) संयत है;
और तभी स्व-परके एकत्वका अध्यास न करनेसे अकर्ता है
।।३१४-३१५।।
भावार्थ :जब तक यह आत्मा स्व-परके लक्षणको नहीं जानता तब तक वह भेदज्ञानके
अभावके कारण कर्मप्रकृतिके उदयको अपना समझकर परिणमित होता है, इसप्रकार मिथ्यादृष्टि,
अज्ञानी, असंयमी होकर, कर्ता होकर, कर्मका बन्ध करता है
और जब आत्माको भेदज्ञान होता
है तब वह कर्ता नहीं होता, इसलिये कर्मका बन्ध नहीं करता, ज्ञाताद्रष्टारूपसे परिणमित होता है
‘इसप्रकार भोक्तृत्व भी आत्माका स्वभाव नहीं है’ इस अर्थका, आगामी गाथाका सूचक
श्लोक कहते हैं :
श्लोकार्थ :[कर्तृत्ववत् ] कर्तृत्वकी भाँति [भोक्तृत्वं अस्य चितः स्वभावः स्मृतः न ]
भोक्तृत्व भी इस चैतन्यका (चित्स्वरूप आत्माका) स्वभाव नहीं कहा है [अज्ञानात् एव अयं
भोक्ता ] वह अज्ञानसे ही भोक्ता है, [तद्-अभावात् अवेदकः ] अज्ञानका अभाव होने पर वह
अभोक्त है
।१९६।
अब इसी अर्थको गाथा द्वारा कहते हैं :
अज्ञानी स्थित प्रकृतीस्वभाव सु, कर्मफलको वेदता
अरु ज्ञानि तो जाने उदयगत कर्मफल, नहिं भोगता ।।३१६।।

Page 463 of 642
PDF/HTML Page 496 of 675
single page version

अज्ञानी कर्मफलं प्रकृतिस्वभावस्थितस्तु वेदयते
ज्ञानी पुनः कर्मफलं जानाति उदितं न वेदयते ।।३१६।।
अज्ञानी हि शुद्धात्मज्ञानाभावात् स्वपरयोरेकत्वज्ञानेन, स्वपरयोरेकत्वदर्शनेन,
स्वपरयोरेकत्वपरिणत्या च प्रकृतिस्वभावे स्थितत्वात् प्रकृतिस्वभावमप्यहंतया अनुभवन् कर्मफलं
वेदयते
ज्ञानी तु शुद्धात्मज्ञानसद्भावात् स्वपरयोर्विभागज्ञानेन, स्वपरयोर्विभागदर्शनेन,
स्वपरयोर्विभागपरिणत्या च प्रकृतिस्वभावादपसृतत्वात् शुद्धात्मस्वभावमेकमेवाहंतया अनुभवन्
कर्मफलमुदितं ज्ञेयमात्रत्वात् जानात्येव, न पुनः तस्याहंतयाऽनुभवितुमशक्यत्वाद्वेदयते
गाथार्थ :[अज्ञानी ] अज्ञानी [प्रकृतिस्वभावस्थितः तु ] प्रकृ तिके स्वभावमें स्थित
रहता हुआ [कर्मफलं ] क र्मफलको [वेदयते ] वेदता (भोगता) है [पुनः ज्ञानी ] और ज्ञानी
तो [उदितं कर्मफलं ] उदित (उदयागत) क र्मफलको [जानाति ] जानता है, [न वेदयते ]
भोगता नहीं
टीका :अज्ञानी शुद्ध आत्माके ज्ञानके अभावके कारण स्व-परके एकत्वज्ञानसे,
स्व-परके एकत्वदर्शनसे और स्व-परकी एकत्वपरिणतिसे प्रकृतिके स्वभावमें स्थित होनेसे
प्रकृतिके स्वभावको भी ‘अहं’रूपसे अनुभव करता हुआ (अर्थात् प्रकृतिके स्वभावको भी
‘यह मैं हूँ’ इसप्रकार अनुभव करता हुआ) कर्मफलको वेदता
भोगता है; और ज्ञानी तो
शुद्धात्माके ज्ञानके सद्भावके कारण स्व-परके विभागज्ञानसे, स्व-परके विभागदर्शनसे और
स्व-परकी विभागपरिणतिसे प्रकृतिके स्वभावसे निवृत्त (
दूरवर्ती) होनेसे शुद्ध आत्माके
स्वभावको एकको ही ‘अहं’रूपसे अनुभव करता हुआ उदित कर्मफलको, उसके
ज्ञेयमात्रताके कारण, जानता ही है, किन्तु उसका ‘अहं’रूपसे अनुभवमें आना अशक्य होनेसे,
(उसे) नहीं भोगता
भावार्थ :अज्ञानीको तो शुद्ध आत्माका ज्ञान नहीं है, इसलिये जो कर्म उदयमें
आता है उसीको वह निजरूप जानकर भोगता है; और ज्ञानीको शुद्ध आत्माका अनुभव हो
गया है, इसलिए वह उस प्रकृतिके उदयको अपना स्वभाव नहीं जानता हुआ उसका मात्र
ज्ञाता ही रहता है, भोक्ता नहीं होता
।।३१६।।
अब इस अर्थका कलशरूप काव्य कहते हैं :

Page 464 of 642
PDF/HTML Page 497 of 675
single page version

(शार्दूलविक्रीडित)
अज्ञानी प्रकृतिस्वभावनिरतो नित्यं भवेद्वेदको
ज्ञानी तु प्रकृतिस्वभावविरतो नो जातुचिद्वेदकः
इत्येवं नियमं निरूप्य निपुणैरज्ञानिता त्यज्यतां
शुद्धैकात्ममये महस्यचलितैरासेव्यतां ज्ञानिता
।।१९७।।
अज्ञानी वेदक एवेति नियम्यते
ण मुयदि पयडिमभव्वो सुट्ठु वि अज्झाइदूण सत्थाणि
गुडदुद्धं पि पिबंता ण पण्णया णिव्विसा होंति ।।३१७।।
न मुञ्चति प्रकृतिमभव्यः सुष्ठ्वपि अधीत्य शास्त्राणि
गुडदुग्धमपि पिबन्तो न पन्नगा निर्विषा भवन्ति ।।३१७।।
यथात्र विषधरो विषभावं स्वयमेव न मुंचति, विषभावमोचनसमर्थसशर्करक्षीरपानाच्च न
श्लोकार्थ :[अज्ञानी प्रकृति-स्वभाव-निरतः नित्यं वेदकः भवेत् ] अज्ञानी प्रकृ ति-
स्वभावमें लीनरक्त होनेसे (उसीको अपना स्वभाव जानता है इसलिये) सदा वेदक है, [तु ]
और [ज्ञानी प्रकृति-स्वभाव-विरतः जातुचित् वेदकः नो ] ज्ञानी तो प्रकृ तिस्वभावसे विरक्त होनेसे
(
उसे परका स्वभाव जानता है इसलिए) क दापि वेदक नहीं है [इति एवं नियमं निरूप्य ]
इसप्रकारके नियमको भलीभाँति विचार करकेनिश्चय करके [निपुणैः अज्ञानिता त्यज्यताम् ]
निपुण पुरुषो अज्ञानीपनको छोड़ दो और [शुद्ध-एक-आत्ममये महसि ] शुद्ध-एक -आत्मामय
तेजमें [अचलितैः ] निश्चल होकर [ज्ञानिता आसेव्यताम् ] ज्ञानीपनेका सेवन करो
।१९७।
अब, यह नियम बताया जाता है कि ‘अज्ञानी वेदक ही है’ (अर्थात् अज्ञानी भोक्ता ही
है, ऐसा नियम है) :
सद्रीत पढ़कर शास्त्र भी, प्रकृति अभव्य नहीं तजे
ज्यो दूध-गुड़ पीता हुआ भी सर्प नहिं निर्विष बने ।।३१७।।
गाथार्थ :[सुष्ठु ] भली भाँति [शास्त्राणि ] शास्त्रोंको [अधीत्य अपि ] पढ़कर भी
[अभव्यः ] अभव्य जीव [प्रकृतिम् ] प्रकृ तिको (अर्थात् प्रकृ तिके स्वभावको) [न मुञ्चति ] नहीं
छोड़ता, [गुडदुग्धम् ] जैसे मीठे दूधको [पिबन्तः अपि ] पीते हुए [पन्नगाः ] सर्प [निर्विषाः ]
निर्विष [न भवन्ति ] नहीं होते
टीका :जैसे इस जगतमें सर्प विषभावको अपने आप नहीं छोड़ता और विषभावको

Page 465 of 642
PDF/HTML Page 498 of 675
single page version

मुंचति; तथा किलाभव्यः प्रकृतिस्वभावं स्वयमेव न मुंचति, प्रकृतिस्वभावमोचन-
समर्थद्रव्यश्रुतज्ञानाच्च न मुंचति, नित्यमेव भावश्रुतज्ञानलक्षणशुद्धात्मज्ञानाभावेनाज्ञानित्वात्
अतो
नियम्यतेऽज्ञानी प्रकृतिस्वभावे स्थितत्वाद्वेदक एव
ज्ञानी त्ववेदक एवेति नियम्यते
णिव्वेयसमावण्णो णाणी कम्मप्फलं वियाणेदि
महुरं कडुयं बहुविहमवेयओ तेण सो होइ ।।३१८।।
निर्वेदसमापन्नो ज्ञानी कर्मफलं विजानाति
मधुरं कटुकं बहुविधमवेदकस्तेन स भवति ।।३१८।।
59
छुड़ानेमें समर्थ ऐसे मिश्रीसहित दुग्धपानसे भी नहीं छोड़ता, इसीप्रकार वास्तवमें अभव्य जीव
प्रकृतिस्वभावको अपने आप नहीं छोड़ता और प्रकृतिस्वभावको छुड़ानेमें समर्थ ऐसे द्रव्यश्रुतके
ज्ञानसे भी नहीं छोड़ता; क्योंकि उसे सदा ही, भावश्रुतज्ञानस्वरूप शुद्धात्मज्ञानके (-शुद्ध आत्माके
ज्ञानके) अभावके कारण, अज्ञानीपन है
इसलिये यह नियम किया जाता है (ऐसा नियम सिद्ध
होता है) कि अज्ञानी प्रकृतिस्वभावमें स्थित होनेसे वेदक ही है (-कर्मका भोक्ता ही है)
भावार्थ :इस गाथामें, यह नियम बताया है कि अज्ञानी कर्मफलका भोक्ता ही है
यहाँ अभव्यका उदाहरण युक्त है जैसे :अभव्यका स्वयमेव यह स्वभाव होता है कि
द्रव्यश्रुतका ज्ञान आदि बाह्य कारणोंके मिलने पर भी अभव्य जीव, शुद्ध आत्माके ज्ञानके अभावके
कारण, कर्मोदयको भोगनेके स्वभावको नहीं बदलता; इसलिये इस उदाहरणसे स्पष्ट हुआ कि
शास्त्रोंका ज्ञान इत्यादि होने पर भी जब तक जीवको शुद्ध आत्माका ज्ञान नहीं है अर्थात् अज्ञानीपन
है तब तक वह नियमसे भोक्ता ही है
।।३१७।।
अब, यह नियम करते हैं किज्ञानी तो कर्मफलका अवेदक ही है :
वैराग्यप्राप्त जु ज्ञानिजन है कर्मफलको जानता
कड़वे-मधुर बहुभाँतिको, इससे अवेदक है अहा ! ।।३१८।।
गाथार्थ :[निर्वेदसमापन्नः ] निर्वेद(वैराग्य)को प्राप्त [ज्ञानी ] ज्ञानी [मधुरम्
कटुकम् ] मीठे-क ड़वे [बहुविधम् ] अनेक प्रकारके [कर्मफलम् ] क र्मफलको [विजानाति ]
जानता है, [तेन ] इसलिये [सः ] वह [अवेदकः भवति ] अवेदक है

Page 466 of 642
PDF/HTML Page 499 of 675
single page version

ज्ञानी तु निरस्तभेदभावश्रुतज्ञानलक्षणशुद्धात्मज्ञानसद्भावेन परतोऽत्यन्तविरक्त त्वात् प्रकृति-
वभावं स्वयमेव मुंचति, ततोऽमधुरं मधुरं वा कर्मफलमुदितं ज्ञातृत्वात् केवलमेव जानाति, न
पुनर्ज्ञाने सति परद्रव्यस्याहंतयाऽनुभवितुमयोग्यत्वाद्वेदयते
अतो ज्ञानी प्रकृतिस्वभावविरक्त त्वादवेदक
एव
(वसन्ततिलका)
ज्ञानी करोति न न वेदयते च कर्म
जानाति केवलमयं किल तत्स्वभावम्
जानन्परं करणवेदनयोरभावा-
च्छुद्धस्वभावनियतः स हि मुक्त एव
।।१९८।।
टीका :ज्ञानी तो जिसमेंसे भेद दूर हो गये हैं ऐसा भावश्रुतज्ञान जिसका स्वरूप है,
ऐसे शुद्धात्मज्ञानके (शुद्ध आत्माके ज्ञानके) सद्भावके कारण, परसे अत्यन्त विरक्त होनेसे
प्रकृति-(कर्मोदय)के स्वभावको स्वयमेव छोड़ देता है, इसलिये उदयमें आये हुए अमधुर या मधुर
कर्मफलको ज्ञातापनेके कारण मात्र जानता ही है, किन्तु ज्ञानके होने पर (
ज्ञान हो तब) परद्रव्यको
‘अहं’रूपसे अनुभव करनेकी अयोग्यता होनेसे (उस कर्मफलको) नहीं वेदता इसलिये, ज्ञानी
प्रकृतिस्वभावसे विरक्त होनेसे अवेदक ही है
भावार्थ :जो जिससे विरक्त होता है उसे वह अपने वश तो भोगता नहीं है, और यदि
परवश होकर भोगता है तो वह परमार्थसे भोक्ता नहीं कहलाता इस न्यायसे ज्ञानीजो कि
प्रकृतिस्वभावको (कर्मोदयको) अपना न जाननेसे उससे विरक्त है वहस्वयमेव तो
प्रकृतिस्वभावको नहीं भोगता, और उदयकी बलवत्तासे परवश होता हुआ अपनी निर्बलतासे भोगता
है तो उसे परमार्थसे भोक्ता नहीं कहा जा सकता, व्यवहारसे भोक्ता कहलाता है
किन्तु व्यवहारका
तो यहाँ शुद्धनयके कथनमें अधिकार नहीं है; इसलिये ज्ञानी अभोक्ता ही है ।।३१८।।
अब इस अर्थका कलशरूप काव्य कहते हैं :
श्लोकार्थ :[ज्ञानी कर्म न करोति च न वेदयते ] ज्ञानी क र्मको न तो क रता है और
न वेदता (भोगता) है, [तत्स्वभावम् अयं किल केवलम् जानाति ] वह क र्मके स्वभावको मात्र
जानता ही है
[परं जानन् ] इसप्रकार मात्र जानता हुआ [करण-वेदनयोः अभावात् ] क रने और
वेदनेके (भोगनेके) अभावके कारण [शुद्ध-स्वभाव-नियतः सः हि मुक्त : एव ] शुद्ध स्वभावमें
निश्चल ऐसा वह वास्तवमें मुक्त ही है
भावार्थ :ज्ञानी कर्मका स्वाधीनतया कर्ता-भोक्ता नहीं है, मात्र ज्ञाता ही है; इसलिये
वह मात्र शुद्धस्वभावरूप होता हुआ मुक्त ही है कर्म उदयमें आता भी है, फि र भी वह ज्ञानीका
क्या कर सकता है ? जब तक निर्बलता रहती है तबतक कर्म जोर चला ले; ज्ञानी क्रमशः शक्ति

Page 467 of 642
PDF/HTML Page 500 of 675
single page version

ण वि कुव्वइ ण वि वेयइ णाणी कम्माइं बहुपयाराइं
जाणइ पुण कम्मफलं बंधं पुण्णं च पावं च ।।३१९।।
नापि करोति नापि वेदयते ज्ञानी कर्माणि बहुप्रकाराणि
जानाति पुनः कर्मफलं बन्धं पुण्यं च पापं च ।।३१९।।
ज्ञानी हि कर्मचेतनाशून्यत्वेन कर्मफलचेतनाशून्यत्वेन च स्वयमकर्तृत्वादवेदयितृत्वाच्च न
कर्म करोति न वेदयते च; किन्तु ज्ञानचेतनामयत्वेन केवलं ज्ञातृत्वात्कर्मबन्धं कर्मफलं च
शुभमशुभं वा केवलमेव जानाति
कुत एतत् ?
दिट्ठी जहेव णाणं अकारयं तह अवेदयं चेव
जाणइ य बंधमोक्खं कम्मुदयं णिज्जरं चेव ।।३२०।।
बढ़ाकर अन्तमें कर्मका समूल नाश करेगा ही ।१९८।
अब इसी अर्थको पुनः दृढ़ करते हैं :
करता नहीं, नहिं वेदता, ज्ञानी करम बहुभाँतिका
बस जानता वह बन्ध त्यों हि कर्मफल शुभ-अशुभको ।।३१९।।
गाथार्थ :[ज्ञानी] ज्ञानी [बहुप्रकाराणि] बहुत प्रकारके [कर्माणि] क र्मोंको [न अपि
करोति] न तो क रता है, [न अपि वेदयते ] और न वेदता (भोगता) ही है; [पुनः ] कि न्तु [पुण्यं
च पापं च ]
पुण्य और पापरूप [बन्धं ] क र्मबन्धको [कर्मफलं ] तथा क र्मफलको [जानाति ]
जानता है
टीका :ज्ञानी कर्मचेतना रहित होनेसे स्वयं अकर्ता है, और कर्मफलचेतना रहित होनेसे
स्वयं अवेदक (अभोक्ता) है, इसलिए वह कर्मको न तो करता है और न वेदता (भोगता)
है; किन्तु ज्ञानचेतनामय होनेसे मात्र ज्ञाता ही है, इसलिये वह शुभ अथवा अशुभ कर्मबन्धको तथा
कर्मफलको मात्र जानता ही है
।।३१९।।
अब प्रश्न होता है कि(ज्ञानी करता-भोगता नहीं है, मात्र जानता ही है) यह कैसे है ?
इसका उत्तर दृष्टांतपूर्वक कहते हैं :
ज्यों नेत्र, त्यों ही ज्ञान नहिं कारक, नहीं वेदक अहो !
जाने हि कर्मोदय, निरजरा, बन्ध त्यों ही मोक्षको
।।३२०।।