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विशिष्टस्वस्वविषयव्यवसायितया खण्डशः आकर्षन्ति प्रतीयमानाखण्डैकचिच्छक्तितया भावेन्द्रियाणि,
ग्राह्यग्राहकलक्षणसम्बन्धप्रत्यासत्तिवशेन सह संविदा परस्परमेकीभूतानिव चिच्छक्तेः स्वयमेवानु-
निश्चयविषैं स्थित साधुजन भाषैं जितेन्द्रिय उन्हींको
जानता है [तं ] उसे, [ये निश्चिताः साधवः ] जो निश्चयनयमें स्थित साधु हैं [ते ] वे,
[खलु ] वास्तवमें [जितेन्द्रियं ] जितेन्द्रिय [भणन्ति ] कहते हैं
निश्चयसे जितेन्द्रिय है
दिखाई नहीं देता) ऐसी शरीरपरिणामको प्राप्त द्रव्येन्द्रियोंको तो निर्मल भेदाभ्यासकी प्रवीणतासे
प्राप्त अन्तरङ्गमें प्रगट अतिसूक्ष्म चैतन्यस्वभावके अवलम्बनके बलसे सर्वथा अपनेसे अलग
किया; सो वह द्रव्येन्द्रियोंको जीतना हुआ
भावेन्द्रियोंको, प्रतीतिमें आनेवाली अखण्ड एक चैतन्यशक्तिताके द्वारा सर्वथा अपनेसे भिन्न
जाना; सो यह भावेन्द्रियोंका जीतना हुआ
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द्योततया नित्यमेवान्तःप्रकाशमानेनानपायिना स्वतःसिद्धेन परमार्थसता भगवता ज्ञानस्वभावेन
सर्वेभ्यो द्रव्यान्तरेभ्यः परमार्थतोऽतिरिक्तमात्मानं संचेतयते स खलु जितेन्द्रियो जिन इत्येका
निश्चयस्तुतिः
अनुभवमें आनेवाली असंगताके द्वारा सर्वथा अपनेसे अलग किया; सो यह इन्द्रियोंके
विषयभूत पदार्थोंका जीतना हुआ
होनेसे एकत्वमें टंकोत्कीर्ण और ज्ञानस्वभावके द्वारा सर्व अन्यद्रव्योंसे परमार्थसे भिन्न ऐसे
अपने आत्माका अनुभव करता है वह निश्चयसे जितेन्द्रिय जिन है
भी उनरूप न होता हुआ), प्रत्यक्ष उद्योतपनेसे सदा अन्तरङ्गमें प्रकाशमान, अविनश्वर,
स्वतःसिद्ध और परमार्थसत्
परमार्थ-विज्ञायक पुरुषने उन हि जितमोही कहा
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विश्वस्याप्यस्योपरि तरता प्रत्यक्षोद्योततया नित्यमेवान्तःप्रकाशमानेनानपायिना स्वतःसिद्धेन
परमार्थसता भगवता ज्ञानस्वभावेन द्रव्यान्तरस्वभावभाविभ्यः सर्वेभ्यो भावान्तरेभ्यः परमार्थ-
तोऽतिरिक्तमात्मानं संचेतयते स खलु जितमोहो जिन इति द्वितीया निश्चयस्तुतिः
तत्वाद्वयाख्येयानि
[तं साधुं ] उस मुनिको [परमार्थविज्ञायकाः ] परमार्थके जाननेवाले [जितमोहं ] जितमोह
[ब्रुवन्ति ] कहते हैं
दूरसे ही अलग करनेसे इसप्रकार बलपूर्वक मोहका तिरस्कार करके, समस्त भाव्यभावक-
संकरदोष दूर हो जानेसे एकत्वमें टंकोत्कीर्ण (निश्चल) और ज्ञानस्वभावके द्वारा अन्यद्रव्योंके
स्वभावोंसे होनेवाले सर्व अन्यभावोंसे परमार्थतः भिन्न अपने आत्माका जो (मुनि) अनुभव करता
है वह निश्चयसे जितमोह (जिसने मोहको जीता है ऐसा) जिन हैं
अपनेसे ही सिद्ध और परमार्थसत् ऐसा भगवान ज्ञानस्वभाव है
सूत्र व्याख्यानरूप करना और श्रोत्र, चक्षु, घ्राण, रसन तथा स्पर्शन
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पुनरप्रादुर्भावाय भावकः क्षीणो मोहः स्यात्तदा स एव भाव्यभावकभावाभावेनैकत्वे टंकोत्कीर्णं
है उसे जितमोह कहा है
परमार्थविज्ञायक पुरुष क्षीणमोह तब उनको कहे
निश्चयके जाननेवाले [खलु ] निश्चयसे [सः ] उस साधुको [क्षीणमोहः ] ‘क्षीणमोह’ नामसे
[भण्यते ] कहते हैं
उसे जब अपने स्वभावभावकी भावनाका भलीभांति अवलम्बन करनेसे मोहकी संततिका ऐसा
आत्यन्तिक विनाश हो कि फि र उसका उदय न हो
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न्नुः स्तोत्रं व्यवहारतोऽस्ति वपुषः स्तुत्या न तत्तत्त्वतः
न्नातस्तीर्थकरस्तवोत्तरबलादेकत्वमात्मांगयोः
प्राप्त हुआ वह ‘क्षीणमोह जिन’ कहलाता है
वह क्षीणमोह जिन कहलाता है
व्यवहारतः अस्ति ] इसलिए शरीरके स्तवनसे आत्मा-पुरुषका स्तवन व्यवहारनयसे हुआ
कहलाता है, [तत्त्वतः तत् न ] निश्चयनयसे नहीं; [निश्चयतः ] निश्चयसे तो [चित्स्तुत्या एव ]
चैतन्यके स्तवनसे ही [चितः स्तोत्रं भवति ] चैतन्यका स्तवन होता है
नयविभागसे उत्तर दिया है; जिसके बलसे यह सिद्ध हुआ कि [आत्म-अङ्गयोः एकत्वं न ]
आत्मा और शरीरमें निश्चयसे एकत्व नहीं है
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नयविभजनयुक्त्यात्यन्तमुच्छादितायाम
स्वरसरभसकृष्टः प्रस्फु टन्नेक एव
विभजन-युक्त्या ] इसप्रकार नयविभागको युक्तिके द्वारा [अत्यन्तम् उच्छादितायाम् ] जड़मूलसे
उखाड़ फें का है
पुरुषको वह [बोधः ] ज्ञान [अद्य एव ] तत्काल ही [बोधं ] यथार्थपनेको [न अवतरति ] प्राप्त
न होगा ? अवश्य ही होगा
स्वरससे स्वयं अपने स्वरूपको जानता है, तब अवश्य ही वह ज्ञान अपने आत्माको परसे भिन्न
ही बतलाता है
और नेत्रके विकारीकी भान्ति (जैसे किसी पुरुषकी आँखोंमें विकार था तब उसे वर्णादिक
अन्यथा दीखते थे और जब नेत्रविकार दूर हो गया तब वे ज्योंके त्यों
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पृच्छन्नित्थं वाच्यः
होता हुआ पूछता है कि ‘इस स्वात्मारामको अन्य द्रव्योंका प्रत्याख्यान (त्यागना) क्या है ?’
उसको आचार्य इसप्रकार कहते हैं कि :
इससे नियमसे जानना कि ज्ञान प्रत्याख्यान है
नियमसे [ज्ञातव्यम् ] जानना
है; इसलिए जो पहले जानता है वही बादमें त्याग करता है, अन्य तो कोई त्याग करनेवाला
नहीं है
परमार्थसे देखा जाये तो परभावके त्यागकर्तृत्वका नाम अपनेको नहीं है, स्वयं तो इस नामसे
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परमार्थेनाव्यपदेश्यज्ञानस्वभावादप्रच्यवनात
त्यों औरके हैं जानकर परभाव ज्ञानी परित्यजे
करता है, [तथा ] उसीप्रकार [ज्ञानी ] ज्ञानी पुरुष [सर्वान् ] समस्त [परभावान् ] परद्रव्योंके
भावोंको [ज्ञात्वा ] ‘यह परभाव है’ ऐसा जानकर [विमुञ्चति ] उनको छोड़ देता है
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परिवर्तितमेतद्वस्त्रं मामकमित्यसकृद्वाक्यं शृण्वन्नखिलैश्चिह्नैः सुष्ठु परीक्ष्य निश्चितमेतत्परकीयमिति
ज्ञात्वा ज्ञानी सन
मंक्षु प्रतिबुध्यस्वैकः खल्वयमात्मेत्यसकृच्छ्रौतं वाक्यं शृण्वन्नखिलैश्चिह्नैः सुष्ठु परीक्ष्य निश्चितमेते
परभावा इति ज्ञात्वा ज्ञानी सन
दनवमपरभावत्यागदृष्टान्तदृष्टिः
स्वयमियमनुभूतिस्तावदाविर्बभूव
है, यह मेरा है सो मुझे दे दे’, तब बारम्बार कहे गये इस वाक्यको सुनता हुआ वह, (उस वस्त्रके)
सर्व चिह्नोंसे भलीभान्ति परीक्षा करके, ‘अवश्य यह वस्त्र दूसरेका ही है’ ऐसा जानकर , ज्ञानी
होता हुआ, उस (दूसरेके) वस्त्रको शीघ्र ही त्याग देता है
अपने आप अज्ञानी हो रहा है ; जब श्री गुरु परभावका विवेक (भेदज्ञान) करके उसे एक
आत्मभावरूप करते हैं और कहते हैं कि ‘तू शीघ्र जाग, सावधान हो, यह तेरा आत्मा वास्तवमें
एक (ज्ञानमात्र) ही है, (अन्य सर्व परद्रव्यके भाव हैं )’, तब बारम्बार कहे गये इस आगमके
वाक्यको सुनता हुआ वह, समस्त (स्व-परके) चिह्नोंसे भलीभांति परीक्षा करके, ‘अवश्य यह
परभाव ही हैं, (मैं एक ज्ञानमात्र ही हूँ)’ यह जानकर, ज्ञानी होता हुआ, सर्व परभावोंको शीघ्र
छोड़ देता है
अर्थात् नहीं रहे यह प्रसिद्ध है
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तक प्रवृत्तिको प्राप्त न हो, [तावत् ] उससे पूर्व ही [झटिति ] तत्काल [सकल-भावैः अन्यदीयैः
विमुक्ता ] सकल अन्यभावोंसे रहित [स्वयम् इयम् अनुभूतिः ] स्वयं ही यह अनुभूति तो
[आविर्बभूव ] प्रगट हो गई
वस्तुको परकी जान लेनेके बाद ममत्व नहीं रहता
निर्ममत्व [ब्रुवन्ति ] कहते हैं
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मम मोहोऽस्ति
साधारणावगाहस्य निवारयितुमशक्यत्वात
एक ज्ञायकस्वभावभावका परमार्थसे परके भाव द्वारा
शाश्वती प्रतापसम्पदा है ऐसे चैतन्यशक्तिमात्र स्वभावभावके द्वारा, भगवान आत्मा ही जानता
है कि
मैं मोहके प्रति निर्मम ही हूँ; क्योंकि सदैव अपने एकत्वमें प्राप्त होनेसे समय (आत्मपदार्थ
अथवा प्रत्येक पदार्थ) ज्योंका त्यों ही स्थित रहता है
भेदसे भिन्न-भिन्न जाने जाते हैं; इसीप्रकार द्रव्योंके लक्षणभेदसे जड़-चेतनके भिन्न-भिन्न
स्वादके कारण ज्ञात होता है कि मोहकर्मके उदयका स्वाद रागादिक है वह चैतन्यके
निजस्वभावके स्वादसे भिन्न ही है
रागादिरूप मलिन दिखाई देता है
पुद्गलद्रव्यकी है’, तब भावकभाव जो द्रव्यकर्मरूप मोहका भाव उससे अवश्य भेदभाव
होता है और आत्मा अवश्य अपने चैतन्यके अनुभवरूप स्थित होता है
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चेतये स्वयमहं स्वमिहैकम
शुद्धचिद्घनमहोनिधिरस्मि
स्वरूप सर्वतः अपने निजरसरूप चैतन्यके परिणमनसे पूर्ण भरे हुए भाववाला है; इसलिये
[मोहः ] य्ाह मोह [मम ] मेरा [कश्चन नास्ति नास्ति ] कुछ भी नहीं लगता अर्थात् इसका
और मेरा कोई भी सम्बन्ध नहीं है
विचार लेना
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स्वभावत्वेन तत्त्वतोऽन्तस्तत्त्वस्य तदतिरिक्तस्वभावतया तत्त्वतो बहिस्तत्त्वरूपतां परित्यक्तुम-
शक्यत्वान्न नाम मम सन्ति
[धर्मनिर्ममत्वं ] धर्मद्रव्यके प्रति निर्ममत्व [ब्रुवन्ति ] कहते हैं
जानेसे, मानो अत्यन्त अन्तर्मग्न हो रहे हों
वे परद्रव्य मेरे स्वभावसे भिन्न स्वभाववाले होनेसे परमार्थतः बाह्यतत्त्वरूपताको छोड़नेके लिये
असमर्थ हैं (क्योंकि वे अपने स्वभावका अभाव करके ज्ञानमें प्रविष्ट नहीं होते)
भगवान आत्मा ही जानता है कि
धर्म, अधर्म, आकाश, काल, पुद्गल और अन्य जीवोंके प्रति मैं निर्मम हूँ; क्योंकि सदा ही अपने
एकत्वमें प्राप्त होनेसे समय (आत्मपदार्थ अथवा प्रत्येक पदार्थ) ज्यों का त्यों ही स्थित रहता है;
(अपने स्वभावको कोई नहीं छोड़ता)
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स्वयमयमुपयोगो बिभ्रदात्मानमेकम
कृतपरिणतिरात्माराम एव प्रवृत्तः
यह उपयोग [स्वयं ] स्वयं ही [एकं आत्मानम् ] अपने एक आत्माको ही [बिभ्रत् ] धारण करता
हुआ, [प्रकटितपरमार्थैः दर्शनज्ञानवृत्तैः कृतपरिणतिः ] जिनका परमार्थ प्रगट हुआ है ऐसे
दर्शनज्ञानचारित्रसे जिसने परिणति की है ऐसा, [आत्म-आरामे एव प्रवृत्तः ] अपने आत्मारूपी बाग
(क्रीड़ावन)में ही प्रवृत्ति करता है, अन्यत्र नहीं जाता
कुछ अन्य वो मेरा तनिक परमाणुमात्र नहीं अरे !
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मात्मानं ज्ञात्वा श्रद्धायानुचर्य च सम्यगेकात्मारामो भूतः स खल्वहमात्मात्मप्रत्यक्षं चिन्मात्रं
ज्योतिः, समस्तक्रमाक्रमप्रवर्तमानव्यावहारिकभावैः चिन्मात्राकारेणाभिद्यमानत्वादेकः, नारकादि-
जीवविशेषाजीवपुण्यपापास्रवसंवरनिर्जराबन्धमोक्षलक्षणव्यावहारिकनवतत्त्वेभ्यः टंकोत्कीर्णैकज्ञायक-
स्वभावभावेनात्यन्तविविक्तत्वात् शुद्धः, चिन्मात्रतया सामान्यविशेषोपयोगात्मकतानतिक्रमणाद्दर्शन-
ज्ञानमयः, स्पर्शरसगन्धवर्णनिमित्तसंवेदनपरिणतत्वेऽपि स्पर्शादिरूपेण स्वयमपरिणमनात् परमार्थतः
सदैवारूपी, इति प्रत्यगयं स्वरूपं संचेतयमानः प्रतपामि
अरूपी ] सदा अरूपी हूँ; [किंचित् अपि अन्यत् ] किंचित्मात्र भी अन्य परद्रव्य [परमाणुमात्रम्
अपि ] परमाणुमात्र भी [मम न अपि अस्ति ] मेरा नहीं है यह निश्चय है
जैसे कोई (पुरुष) मुट्ठीमें रखे हुए सोनेको भूल गया हो और फि र स्मरण करके उस सोनेको
देखे इस न्यायसे, अपने परमेश्वर (सर्व सामर्थ्यके धारक) आत्माको भूल गया था उसे
जानकर, उसका श्रद्धान कर और उसका आचरण करके (
क्रमरूप तथा अक्रमरूप प्रवर्तमान व्यावहारिक भावोंसे भेदरूप नहीं होता, इसलिये मैं एक हूँ;
नारक आदि जीवके विशेष, अजीव, पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, बन्ध और मोक्षस्वरूप
जो व्यावहारिक नव तत्त्व हैं उनसे, टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायकस्वभावरूप भावके द्वारा, अत्यन्त
भिन्न हूँ, इसलिये मैं शुद्ध हूँ; चिन्मात्र होनेसे सामान्य-विशेष उपयोगात्मकताका उल्लंघन नहीं
करता, इसलिये मैं दर्शनज्ञानमय हूँ; स्पर्श, रस, गंध, वर्ण जिसका निमित्त है ऐसे संवेदनरूप
परिणमित होने पर भी स्पर्शादिरूप स्वयं परिणमित नहीं हुआ, इसलिये परमार्थसे मैं सदा ही
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यद्भावकत्वेन ज्ञेयत्वेन चैकीभूय भूयो मोहमुद्भावयति, स्वरसत एवापुनःप्रादुर्भावाय समूलं
मोहमुन्मूल्य महतो ज्ञानोद्योतस्य प्रस्फु रितत्वात
आलोकमुच्छलति शान्तरसे समस्ताः
सम्पदाके द्वारा समस्त परद्रव्य स्फु रायमान हैं तथापि, कोई भी परद्रव्य परमाणुमात्र भी मुझरूप
भासते नहीं कि जो मुझे भावकरूप तथा ज्ञेयरूपसे मेरे साथ होकर पुनः मोह उत्पन्न करें;
क्योंकि निजरससे ही मोहको मूलसे उखाड़कर
हूँ, शुद्ध हूँ, अरूपी हूँ, दर्शनज्ञानमय हूँ
उत्पन्न हो सकता है ? नहीं हो सकता
[प्रोन्मग्नः ] स्वयं सर्वांग प्रगट हुआ है; [अमी समस्ताः लोकाः ] इसलिये अब यह समस्त लोक
[शान्तरसे ] उसके शान्त रसमें [समम् एव ] एक साथ ही [निर्भरम् ] अत्यन्त [मज्जन्तु ] मग्न
हो जाओ, कि जो शान्त रस [आलोकम् उच्छलति ] समस्त लोक पर्यन्त उछल रहा है
है कि ‘इस जलमें सभी लोग स्नान करो’; इसीप्रकार यह आत्मा विभ्रमसे आच्छादित था तब
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प्रोन्मग्न एष भगवानवबोधसिन्धुः
स्वरूप) प्रगट हो गया; इसलिए ‘अब उसके वीतराग विज्ञानरूप शान्तरसमें एक ही साथ सर्व
लोक मग्न होओ’ इसप्रकार आचार्यदेवने प्रेरणा की है
लोकमें रहनेवाले पदार्थ एक ही समय ज्ञानमें झलकते हैं उसे समस्त लोक देखो
दिखलाते हैं
अन्य ज्ञेयकी इच्छा नहीं रहे सो रस है
अन्य रसका अन्य रस अङ्गभूत होनेसे तथा अन्यभाव रसोंका अङ्ग होनेसे, रसवत् आदि अलङ्कारसे
उसे नृत्यरूपमें वर्णन किया जाता है
है और मिथ्यादृष्टि जीव-अजीवका भेद नहीं जानते, इसलिये वे इन स्वांगोंको ही यथार्थ जानकर
उसमें लीन हो जाते हैं
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धीरोदात्तमनाकुलं विलसति ज्ञानं मनो ह्लादयत
है
दृष्टिके द्वारा [प्रत्याययत् ] भिन्न द्रव्यकी प्रतीति उत्पन्न कर रहा है
नाशसे [विशुद्धं ] विशुद्ध हुआ है, [स्फु टत् ] स्फु ट हुआ है
है; [अनन्तधाम ] उसका प्रकाश अनन्त है; और वह [अध्यक्षेण महसा नित्य-उदितं ] प्रत्यक्ष तेजसे
नित्य उदयरूप है
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कर लेता है उसीप्रकार यहाँ भी समझना
‘है कर्म, अध्यवसान ही जीव’ यों हि वो कथनी करे
उसको ही माने आतमा, अरु अन्य को नोकर्मको !
को तीव्रमन्दगुणों सहित कर्मोंहिके अनुभागको !
को कर्मके संयोगसे अभिलाष आत्माकी करें