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क्रमाक्रमप्रवृत्तविचित्रभावस्वभावत्वादुत्संगितगुणपर्यायः स्वपराकारावभासनसमर्थत्वादुपात्तवैश्व-
रूप्यैकरूपः प्रतिविशिष्टावगाहगतिस्थितिवर्तनानिमित्तत्वरूपित्वाभावादसाधारणचिद्रूपतास्वभाव-
[च ] और जो जीव [पुद्गलकर्मप्रदेशस्थितं ] पुद्गलकर्मके प्रदेशोंमें स्थित है [तं ] उसे [परसमयं ]
परसमय [जानीहि ] जानो
साथ ही (युगपद् ) जानना और परिणमन करना
पुरुषको
दर्शनज्ञानस्वरूप है)
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चित्स्वभावो जीवो नाम पदार्थः स समयः, समयत एकत्वेन युगपज्जानाति गच्छति चेति निरुक्तेः
अयं खलु यदा सकलभावस्वभावभासनसमर्थविद्यासमुत्पादकविवेक ज्योतिरुद्गमनात्समस्त-
परद्रव्यात्प्रच्युत्य दृशिज्ञप्तिस्वभावनियतवृत्तिरूपात्मतत्त्वैकत्वगतत्वेन वर्तते तदा दर्शनज्ञान-
चारित्रस्थितत्वात्स्वमेकत्वेन युगपज्जानन
मोहरागद्वेषादिभावैकत्वगतत्वेन वर्तते तदा पुद्गलकर्मप्रदेशस्थितत्वात्परमेकत्वेन युगपज्जानन
इसप्रकार अनेकाकारको ही माननेवालाका, व्यवच्छेद हो गया
पुद्गल
वृत्तिरूप (अस्तित्वरूप) आत्मतत्त्वके साथ एकत्वरूपमें लीन होकर प्रवृत्ति करता है तब
दर्शन-ज्ञान-चारित्रमें स्थित होनेसे युगपद् स्वको एकत्वपूर्वक जानता तथा स्व-रूपसे
एकत्वपूर्वक परिणमता हुआ वह ‘स्वसमय’ है, इसप्रकार प्रतीत किया जाता है; किन्तु जब
वह, अनादि अविद्यारूपी केलेके मूलकी गांठकी भाँति जो (पुष्ट हुआ) मोह उसके उदयानुसार
प्रवृत्तिकी आधीनतासे, दर्शन-ज्ञानस्वभावमें नियत वृत्तिरूप आत्मतत्त्वसे छूटकर परद्रव्यके
निमित्तसे उत्पन्न मोहरागद्वेषादि भावोंमें एकतारूपसे लीन होकर प्रवृत्त होता है तब पुद्गलकर्मके
(कार्माणस्कन्धरूप) प्रदेशोंमें स्थित होनेसे युगपद् परको एकत्वपूर्वक जानता और पररूपसे
एकत्वपूर्वक परिणमित होता हुआ ‘परसमय’ है, इसप्रकार प्रतीति की जाती है
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द्रव्य है, द्रव्य होनेसे वस्तु है, गुणपर्यायवान है, उसका स्वपरप्रकाशक ज्ञान अनेकाकाररूप एक
है, और वह (जीवपदार्थ) आकाशादिसे भिन्न असाधारण चैतन्यगुणस्वरूप है, तथा अन्य द्रव्योंके
साथ एक क्षेत्रमें रहने पर भी अपने स्वरूपको नहीं छोड़ता
परसमय है
[बन्धकथा ] दूसरेके साथ बंधकी कथा [विसंवादिनी ] विसंवाद
परिणमन करता है सो समय है
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तिष्ठन्तः समस्तविरुद्धाविरुद्धकार्यहेतुतया शश्वदेव विश्वमनुगृह्णन्तो नियतमेकत्वनिश्चयगतत्वेनैव
सौन्दर्यमापद्यन्ते, प्रकारान्तरेण सर्वसंक रादिदोषापत्तेः
हैं
न करनेसे अनन्त व्यक्तिता नष्ट नहीं होती, इसलिये वे टंकोत्कीर्णकी भांति (शाश्वत) स्थित रहते
हैं और समस्त विरुद्ध कार्य तथा अविरुद्ध कार्य दोनोंकी हेतुतासे वे सदा विश्वका उपकार करते
हैं
जो पुद्गलकर्मके प्रदेशोंमें स्थित होना, वह जिसका मूल है ऐसा परसमयपना, उससे उत्पन्न
होनेवाला (परसमय
इस जीवमें विसंवाद खड़ा होता है, अतः वह शोभाको प्राप्त नहीं होता
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प्रसभोज्जृम्भिततृष्णातंक त्वेन व्यक्तान्तराधेरुत्तम्योत्तम्य मृगतृष्णायमानं विषयग्राममुपरुन्धानस्य
परस्परमाचार्यत्वमाचरतोऽनन्तशः श्रुतपूर्वानन्तशः परिचितपूर्वानन्तशोऽनुभूतपूर्वा चैकत्वविरुद्धत्वेना-
त्यन्तविसंवादिन्यपि कामभोगानुबद्धा कथा
भी आ गई है, इसलिये सुलभ है; किन्तु [विभक्त स्य ] भिन्न आत्माका [एकत्वस्य उपलम्भः ]
एकत्व होना कभी न तो सुना है, न परिचयमें आया है और न अनुभवमें आया है, इसलिये
[केवलं ] एक वह [न सुलभः ] सुलभ नहीं है
बार सुननेमें आई है, अनन्त बार परिचयमें आई है और अनन्त बार अनुभवमें भी आ चुकी
है
करनेवाला महा मोहरूपी भूत जिसके पास बैलकी भांति भार वहन कराता है, जोरसे प्रगट
हुए तृष्णारूपी रोगके दाहसे जिसको अन्तरंगमें पीड़ा प्रगट हुई है, आकुलित हो होकर
मृगजलकी भाँति विषयग्रामको (इन्द्रियविषयोंके समूहको) जिसने घेरा डाल रखा है, और वह
परस्पर आचार्यत्व भी करता है (अर्थात् दूसरोंसे कहकर उसी प्रकार अंगीकार करवाता है)
है, इसलिये अत्यन्त तिरोभावको प्राप्त हुआ है (
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विविक्तं केवलमेकत्वम
जानकर उनकी ओर दौड़ते हैं; तथा परस्पर भी विषयोंका ही उपदेश करते हैं
इसलिये वह सुलभ है
सेवा नहीं की; इसलिये उसकी कथा न तो कभी सुनी, न उसका परिचय किया और न उसका
अनुभव किया
तो [प्रमाणं ] प्रमाण (स्वीकार) करना, [स्खलेयं ] और यदि कहीं चूक जाऊँ तो [छलं ] छल
[न ] नहीं [गृहीतव्यम् ] ग्रहण करना
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जन्मा, अनवरतस्यन्दिसुन्दरानन्दमुद्रितामन्दसंविदात्मकस्वसंवेदनजन्मा च यः कश्चनापि ममात्मनः
स्वो विभवस्तेन समस्तेनाप्ययं तमेकत्वविभक्तमात्मानं दर्शयेऽहमिति बद्धव्यवसायोऽस्मि
मुद्रावाला जो शब्दब्रह्म
उसे शब्दब्रह्म कहते हैं
निजवैभवका जन्म हुआ है , पुनः वह कैसा है ? निर्मल विज्ञानघन आत्मामें अन्तर्निमग्न
(अन्तर्लीन) परमगुरु
चूक जाऊँ तो छल (दोष) ग्रहण करनेमें सावधान मत होना
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निरूपणया दुरन्तकषायचक्रोदयवैचित्र्यवशेन प्रवर्तमानानां पुण्यपापनिर्वर्तकानामुपात्तवैश्वरूप्याणां
शुभाशुभभावानां स्वभावेनापरिणमनात्प्रमत्तोऽप्रमत्तश्च न भवति
तो [सः एव ] वही है, अन्य कोई नहीं
स्पष्ट प्रकाशमान ज्योति है ऐसा जो ज्ञायक एक ‘भाव’ है वह संसारकी अवस्थामें अनादि
बन्धपर्यायकी निरूपणासे (अपेक्षासे) क्षीर-नीरकी भांति कर्मपुद्गलोंके साथ एकरूप होने पर भी
द्रव्यके स्वभावकी अपेक्षासे देखा जाय तो दुरन्त कषायचक्रके उदयकी (
शुभाशुभभाव उनके स्वभावरूप परिणमित नहीं होता (ज्ञायकभावसे जड़भावरूप नहीं होता)
इसलिये प्रमत्त भी नहीं है और अप्रमत्त भी नहीं है; वही समस्त अन्य द्रव्योंके भावोंसे भिन्नरूपसे
उपासित होता हुआ ‘शुद्ध कहलाता है
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स्वरूपप्रकाशनदशायां प्रदीपस्येव कर्तृकर्मणोरनन्यत्वात
प्रसिद्ध है, तथापि उसके ज्ञेयकृत अशुद्धता नहीं है; क्योंकि ज्ञेयाकार अवस्थामें जो ज्ञायकरूपसे
ज्ञात हुआ वह स्वरूपप्रकाशनकी (स्वरूपको जाननेकी) अवस्थामें भी दीपककी भांति, कर्ता-
कर्मका अनन्यत्व होनेसे ज्ञायक ही है
पर्याय है
करने पर ज्ञायक ही है
जिसे जाना वह कर्म भी स्वयं ही है
आशय समझना चाहिए
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है
चाहिये
गाथासूत्र कहते हैं :
है, [चरित्रं न ] चारित्र भी नहीं है और [दर्शनं न ] दर्शन भी नहीं है; ज्ञानी तो एक [ज्ञायकः
शुद्धः ] शुद्ध ज्ञायक ही है
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ज्ञानं चारित्रमित्युपदेशः
नहीं हैं ऐसे निकटवर्ती शिष्यजनको, धर्मीको बतलानेवाले कतिपय धर्मोंके द्वारा, उपदेश करते
हुए आचार्योंका
है
ऐसा उपदेश दिया जाता है कि ज्ञानीके दर्शन है, ज्ञान है, चारित्र है
इसलिये जहाँ तक रागादिक दूर नहीं हो जाते वहाँ तक भेदको गौण करके अभेदरूप निर्विकल्प
अनुभव कराया गया है
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सम्बन्धैकार्थज्ञेनान्येन तेनैव वा म्लेच्छभाषां समुदाय स्वस्तिपदस्याविनाशो भवतो भवत्वित्यभिधेयं
प्रतिपाद्यते तदा सद्य एवोद्यदमन्दानन्दमयाश्रुझलज्झलल्लोचनपात्रस्तत्प्रतिपद्यत एव; तथा किल
लोकोऽप्यात्मेत्यभिहिते सति यथावस्थितात्मस्वरूपपरिज्ञानबहिष्कृतत्वान्न किंचिदपि प्रतिपद्यमानो
शक्यः ] कोई समर्थ नहीं है [तथा ] उसीप्रकार [व्यवहारेण विना ] व्यवहारके बिना
[परमार्थोपदेशनम् ] परमार्थका उपदेश देना [अशक्यम् ] अशक्य है
मेंढेकी भांति आँखें फाड़कर टकटकी लगाकर देखता ही रहता है, किन्तु जब ब्राह्मणकी और
म्लेच्छकी भाषाका
तब तत्काल ही उत्पन्न होनेवाले अत्यन्त आनन्दमय अश्रुओंसे जिसके नेत्र भर जाते हैं ऐसा वह
म्लेच्छ इस ‘स्वस्ति’ शब्दके अर्थको समझ जाता है; इसीप्रकार व्यवहारीजन भी ‘आत्मा’ शब्दके
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महारथरथिनान्येन तेनैव वा व्यवहारपथमास्थाय दर्शनज्ञानचारित्राण्यततीत्यात्मेत्यात्मपदस्याभिधेयं
प्रतिपाद्यते तदा सद्य एवोद्यदमंदानंदान्तःसुन्दरबन्धुरबोधतरंगस्तत्प्रतिपद्यत एव
फाड़कर टकटकी लगाकर देखता रहता है, किन्तु जब व्यवहार-परमार्थ मार्ग पर सम्यग्ज्ञानरूपी
महारथको चलानेवाले सारथी समान अन्य कोई आचार्य अथवा ‘आत्मा’ शब्दको कहनेवाला
स्वयं ही व्यवहारमार्गमें रहता हुआ आत्मा शब्दका यह अर्थ बतलाता है कि
जिसके हृदयमें सुन्दर बोधतरंगें (ज्ञानतरंगें) उछलने लगती हैं ऐसा वह व्यवहारीजन उस ‘आत्मा’
शब्दके अर्थको अच्छी तरह समझ लेता है
व्यवहारनय स्थापित करने योग्य है; किन्तु ब्राह्मणको म्लेच्छ नहीं हो जाना चाहिए
वे व्यवहारके द्वारा ही परमार्थको समझ सकते हैं
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[अभिगच्छति ] सम्मुख होकर जानता है, [तं ] उसे [लोकप्रदीपकराः ] लोकको प्रगट जाननेवाले
[ऋषयः ] ऋषीश्वर [श्रुतकेवलिनम् ] श्रुतकेवली [भणन्ति ] कहते हैं; [यः ] जो जीव [सर्वं ]
सर्व [श्रुतज्ञानं ] श्रुतज्ञानको [जानाति ] जानता है; [तं ] उसे [जिनाः ] जिनदेव [श्रुतकेवलिनं ]
श्रुतकेवली [आहुः ] कहते हैं, [यस्मात् ] क्योंकि [ज्ञानं सर्वं ] ज्ञान सब [आत्मा ] आत्मा ही
है, [तस्मात् ] इसलिये [श्रुतकेवली ] (वह जीव) श्रुतकेवली है
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स श्रुतकेवलीति व्यवहारः परमार्थप्रतिपादकत्वेनात्मानं प्रतिष्ठापयति
ही है
हैं वे श्रुतकेवली हैं’’ ऐसा व्यवहार परमार्थके प्रतिपादकत्वसे अपनेको दृढ़तापूर्वक स्थापित
करता है
कहनेवाला जो व्यवहार उसने भी परमार्थ ही कहा है, अन्य कुछ नहीं कहा
जानना चाहिए
जाये ? इसके उत्तररूपमें गाथासूत्र कहते हैं :
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स्वकरविकीर्णक तकनिपातमात्रोपजनितपंक पयोविवेकतया स्वपुरुषकाराविर्भावितसहजैकाच्छ-
भावत्वादच्छमेव तदनुभवन्ति; तथा प्रबलकर्मसंवलनतिरोहितसहजैकज्ञायकभावस्यात्मनोऽनुभवितारः
पुरुषा आत्मकर्मणोर्विवेकमकुर्वन्तो व्यवहारविमोहितहृदयाः प्रद्योतमानभाववैश्वरूप्यं तमनुभवन्ति;
भूतार्थदर्शिनस्तु स्वमतिनिपातितशुद्धनयानुबोधमात्रोपजनितात्मकर्मविवेकतया स्वपुरुषकारा-
[भूतार्थं ] भूतार्थका [आश्रितः ] आश्रय लेता है वह जीव [खलु ] निश्चयसे (वास्तवमें)
[सम्यग्दृष्टिः ] सम्यग्दृष्टि [भवति ] है
है
निर्मलभावपनेसे, उस जलको निर्मल ही अनुभव करते हैं; इसीप्रकार प्रबल कर्मोंके मिलनेसे,
जिसका सहज एक ज्ञायकभाव तिरोभूत हो गया है, ऐसे आत्माका अनुभव करनेवाले पुरुष
(आत्माको) जिसमें भावोंकी विश्वरूपता (अनेकरूपता) प्रगट है ऐसा अनुभव करते हैं; किन्तु
भूतार्थदर्शी (शुद्धनयको देखनेवाले) अपनी बुद्धिसे डाले हुवे शुद्धनयके अनुसार बोध होनेमात्रसे
उत्पन्न आत्म-कर्मकी विवेकतासे, अपने पुरुषार्थ द्वारा आविर्भूत किये गये सहज एक
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करते हैं
हैं वे) सम्यग्दृष्टि नहीं हैं
अभेद नित्य शुद्धब्रह्मको वस्तु कहते हैं वैसा सिद्ध हो और उससे सर्वथा एकान्त शुद्धनयके
पक्षरूप मिथ्यादृष्टिका ही प्रसंग आये
करते हैं
जीव व्यवहारमें मग्न है तब तक आत्माके ज्ञानश्रद्धानरूप निश्चय सम्यक्त्व नहीं हो सकता
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समुद्योतितास्खलितैकस्वभावैकभावः शुद्धनय एवोपरितनैकप्रतिवर्णिकास्थानीयत्वात्परिज्ञायमानः
प्रयोजनवान
तु ] जो जीव [अपरमे भावे ] अपरमभावमें [स्थिताः ] स्थित हैं वे [व्यवहारदेशिताः ] व्यवहार
द्वारा उपदेश करने योग्य हैं
अशुद्ध स्वर्णके समान जो अनुत्कृष्ट मध्यम भाव हैं उनका अनुभव नहीं होता; इसलिए,
शुद्धद्रव्यको कहनेवाला होनेसे जिसने अविचल अखण्ड एकस्वभावरूप एक भाव प्रगट किया
है ऐसा शुद्धनय ही, सबसे ऊ परकी एक प्रतिवर्णिका (स्वर्ण वर्ण) के समान होनेसे, जाननेमें
आता हुआ प्रयोजनवान है
अनुभव करते हैं उन्हें अन्तिम तावसे उतरे हुए शुद्ध स्वर्णके समान उत्कृष्ट भावका अनुभव नहीं
होता; इसलिये, अशुद्ध द्रव्यको कहनेवाला होनेसे जिसने भिन्न-भिन्न एक-एक भावस्वरूप अनेक
भाव दिखाये हैं ऐसा व्यवहारनय, विचित्र (अनेक) वर्णमालाके समान होनेसे, जाननेमें आता
(
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प्रयोजनवान
ताव देते देते जब अन्तिम तावसे उतरता है तब वह सोलह-वान या सौ टंची शुद्ध सोना
कहलाता है
नहीं हुई है उन्हें तब तक पन्द्रह-वान तकका सोना भी प्रयोजनवान है
भी प्रयोजनवान (किसी मतलबका) नहीं है; किन्तु जहाँ तक शुद्धभावकी प्राप्ति नहीं हुई
वहाँ तक जितना अशुद्धनयका कथन है उतना यथापदवी प्रयोजनवान है
मिलता है ऐसे जिनवचनोंको सुनना, धारण करना तथा जिनवचनोंको कहनेवाले श्री जिन-
गुरुकी भक्ति, जिनबिम्बके दर्शन इत्यादि व्यवहारमार्गमें प्रवृत्त होना प्रयोजनवान है; और जिन्हें
श्रद्धान
प्रवर्तन तथा उस प्रकार प्रवर्तन करनेवालोंकी संगति एवं विशेष जाननेके लिये शास्त्रोंका
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जिनवचसि रमन्ते ये स्वयं वान्तमोहाः
रनवमनयपक्षाक्षुण्णमीक्षन्त एव
ऐसा समझना कि व्यवहारोपदिष्ट शुभ भावोंको आत्मा व्यवहारसे कर सकता है
कि साधक दशामें भूमिकाके अनुसार शुभ भाव आये बिना नहीं रहते
व्यवहारको छोड़ देगा और उसे शुद्धोपयोगकी साक्षात् प्राप्ति तो नहीं हुई है, इसलिए उल्टा
अशुभोपयोगमें ही आकर, भ्रष्ट होकर, चाहे जैसी स्वेच्छारूप प्रवृत्ति करेगा तो वह नरकादि
गति तथा परम्परासे निगोदको प्राप्त होकर संसारमें ही भ्रमण करेगा
प्रयोजनवान है
‘स्यात्’-पदसे चिह्नित जो [जिनवचसि ] जिन भगवानका वचन (वाणी) है उसमें [ये
रमन्ते ] जो पुरुष रमते हैं (
परं ज्योतिः समयसारं ] इस अतिशयरूप परमज्योति प्रकाशमान शुद्ध आत्माको [सपदि
ईक्षन्ते एव ] तत्काल ही देखते हैं
निर्बाध है