Samaysar (Hindi). Gatha: 396-414 ; Kalash: 235-243.

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फासो ण हवदि णाणं जम्हा फासो ण याणदे किंचि
तम्हा अण्णं णाणं अण्णं फासं जिणा बेंति ।।३९६।।
कम्मं णाणं ण हवदि जम्हा कम्मं ण याणदे किंचि
तम्हा अण्णं णाणं अण्णं कम्मं जिणा बेंति ।।३९७।।
धम्मो णाणं ण हवदि जम्हा धम्मो ण याणदे किंचि
तम्हा अण्णं णाणं अण्णं धम्मं जिणा बेंति ।।३९८।।
णाणमधम्मो ण हवदि जम्हाधम्मो ण याणदे किंचि
तम्हा अण्णं णाणं अण्णमधम्मं जिणा बेंति ।।३९९।।
कालो णाणं ण हवदि जम्हा कालो ण याणदे किंचि
तम्हा अण्णं णाणं अण्णं कालं जिणा बेंति ।।४००।।
आयासं पि ण णाणं जम्हायासं ण याणदे किंचि
तम्हायासं अण्णं अण्णं णाणं जिणा बेंति ।।४०१।।
रे ! स्पर्श है नहिं ज्ञान, क्योंकि स्पर्श कुछ जाने नहीं
इस हेतुसे है ज्ञान अन्य रु स्पर्श अन्यप्रभू कहे ।।३९६।।
रे ! कर्म है नहिं ज्ञान, क्योंकि कर्म कुछ जाने नहीं
इस हेतुसे है ज्ञान अन्य रु कर्म अन्यजिनवर कहे ।।३९७।।
रे ! धर्म नहिं है ज्ञान, क्योंकि धर्म कुछ जाने नहीं
इस हेतुसे है ज्ञान अन्य रु धर्म अन्यजिनवर कहे ।।३९८।।
नहिं है अधर्म जु ज्ञान, क्योंकि अधर्म कुछ जाने नहीं
इस हेतुसे है ज्ञान अन्य अधर्म अन्यजिनवर कहे ।।३९९।।
रे ! काल है नहिं ज्ञान, क्योंकि काल कुछ जाने नहीं
इस हेतुसे है ज्ञान अन्य रु काल अन्यप्रभू कहे ।।४००।।
आकाश है नहिं ज्ञान, क्योंकि आकाश कुछ जाने नहीं
इस हेतुसे आकाश अन्य रु ज्ञान अन्यप्रभू कहे ।।४०१।।

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णज्झवसाणं णाणं अज्झवसाणं अचेदणं जम्हा
तम्हा अण्णं णाणं अज्झवसाणं तहा अण्णं ।।४०२।।
जम्हा जाणदि णिच्चं तम्हा जीवो दु जाणगो णाणी
णाणं च जाणयादो अव्वदिरित्तं मुणेयव्वं ।।४०३।।
णाणं सम्मादिट्ठिं दु संजमं सुत्तमंगपुव्वगयं
धम्माधम्मं च तहा पव्वज्जं अब्भुवंति बुहा ।।४०४।।
शास्त्रं ज्ञानं न भवति यस्माच्छास्त्रं न जानाति किञ्चित्
तस्मादन्यज्ज्ञानमन्यच्छास्त्रं जिना ब्रुवन्ति ।।३९०।।
शब्दो ज्ञानं न भवति यस्माच्छब्दो न जानाति किञ्चित्
तस्मादन्यज्ज्ञानमन्यं शब्दं जिना ब्रुवन्ति ।।३९१।।
रूपं ज्ञानं न भवति यस्माद्रूपं न जानाति किञ्चित्
तस्मादन्यज्ज्ञानमन्यद्रूपं जिना ब्रुवन्ति ।।३९२।।
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रे ! ज्ञान अध्यवसान नहिं, क्योंकि अचेतनरूप है
इस हेतुसे है ज्ञान अन्य रु अन्य अध्यवसान है ।।४०२।।
रे ! सर्वदा जाने हि इससे जीव ज्ञायक ज्ञानि है
अरु ज्ञान है ज्ञायकसे अव्यतिरिक्त यों ज्ञातव्य है ।।४०३।।
सम्यक्त्व, अरु संयम, तथा पूर्वांगगत सब सूत्र जो
धर्माधरम, दीक्षा सबहि, बुध पुरुष माने ज्ञानको ।।४०४।।
गाथार्थ :[शास्त्रं ] शास्त्र [ज्ञानं न भवति ] ज्ञान नहीं है, [यस्मात् ] क्योंकि [शास्त्रं
किंचित् न जानाति ] शास्त्र कुछ जानता नहीं है (वह जड़ है), [तस्मात् ] इसलिये [ज्ञानम्
अन्यत् ] ज्ञान अन्य है, [शास्त्रं अन्यत् ] शास्त्र अन्य है[जिनाः ब्रुवन्ति ] ऐसा जिनदेव कहते
हैं [शब्दः ज्ञानं न भवति ] शब्द ज्ञान नहीं है, [यस्मात् ] क्योंकि [शब्दः किंचित् न जानाति ]
शब्द कुछ जानता नहीं है, [तस्मात् ] इसलिये [ज्ञानं अन्यत् ] ज्ञान अन्य है, [शब्दं अन्यं ] शब्द
अन्य है
[जिनाः ब्रुवन्ति ] ऐसा जिनदेव कहते हैं [रूपं ज्ञानं न भवति ] रूप ज्ञान नहीं है,

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वर्णो ज्ञानं न भवति यस्माद्वर्णो न जानाति किञ्चित्
तस्मादन्यज्ज्ञानमन्यं वर्णं जिना ब्रुवन्ति ।।३९३।।
गन्धो ज्ञान न भवति यस्माद्गन्धो न जानाति किञ्चित्
तस्मादन्यज्ज्ञानमन्यं गन्धं जिना ब्रुवन्ति ।।३९४।।
न रसस्तु भवति ज्ञानं यस्मात्तु रसो न जानाति किञ्चित्
तस्मादन्यज्ज्ञानं रसं चान्यं जिना ब्रुवन्ति ।।३९५।।
स्पर्शो न भवति ज्ञानं यस्मात्स्पर्शो न जानाति किञ्चित्
तस्मादन्यज्ज्ञानमन्यं स्पर्शं जिना ब्रुवन्ति ।।३९६।।
कर्म ज्ञानं न भवति यस्मात्कर्म न जानाति किञ्चित्
तस्मादन्यज्ज्ञानमन्यत्कर्म जिना ब्रुवन्ति ।।३९७।।
धर्मो ज्ञानं न भवति यस्माद्धर्मो न जानाति किञ्चित्
तस्मादन्यज्ज्ञानमन्यं धर्मं जिना ब्रुवन्ति ।।३९८।।
[यस्मात् ] क्योंकि [रूपं किंचित् न जानाति ] रूप कुछ जानता नहीं है, [तस्मात् ] इसलिये
[ज्ञानम् अन्यत् ] ज्ञान अन्य है, [रूपं अन्यत् ] रूप अन्य है
[जिनाः ब्रुवन्ति ] ऐसा जिनदेव
कहते हैं [वर्णः ज्ञानं न भवति ] वर्ण ज्ञान नहीं है, [यस्मात् ] क्योंकि [वर्णः किंचित् न जानाति ]
वर्ण कुछ जानता नहीं है, [तस्मात् ] इसलिये [ज्ञानम् अन्यत् ] ज्ञान अन्य है, [वर्णं अन्यं ] वर्ण
अन्य है
[जिनाः ब्रुवन्ति ] ऐसा जिनदेव कहते हैं [गंधः ज्ञानं न भवति ] गंध ज्ञान नहीं है,
[यस्मात् ] क्योंकि [गंधः किंचित् न जानाति ] गंध कुछ जानती नहीं है, [तस्मात् ] इसलिये
[ज्ञानम् अन्यत् ] ज्ञान अन्य है, [गंधं अन्यं ] गंध अन्य है
[जिनाः ब्रुवन्ति ] ऐसा जिनदेव कहते
हैं [रसः तु ज्ञानं न भवति ] रस ज्ञान नहीं है, [यस्मात् तु ] क्योंकि [रसः किंचित् न जानाति ]
रस कुछ जानता नहीं है, [तस्मात् ] इसलिये [ज्ञानं अन्यत् ] ज्ञान अन्य है [रसं च अन्यं ] और
रस अन्य है
[जिनाः ब्रुवन्ति ] ऐसा जिनदेव कहते हैं [स्पर्शः ज्ञानं न भवति ] स्पर्श ज्ञान नहीं
है, [यस्मात् ] क्योंकि [स्पर्शः किंचित् न जानाति ] स्पर्श कुछ जानता नहीं है, [तस्मात् ] इसलिये
[ज्ञानम् अन्यत् ] ज्ञान अन्य है, [स्पर्शं अन्यं ] स्पर्श अन्य है
[जिनाः ब्रुवन्ति ] ऐसा जिनदेव
कहते हैं [कर्म ज्ञानं न भवति ] कर्म ज्ञान नहीं है, [यस्मात् ] क्योंकि [कर्म किंचित् न जानाति ]
कर्म कुछ जानता नहीं है, [तस्मात् ] इसलिये [ज्ञानम् अन्यत् ] ज्ञान अन्य है, [कर्म अन्यत् ]
कर्म अन्य है
[जिनाः ब्रुवन्ति ] ऐसा जिनदेव कहते हैं [धर्मः ज्ञानं न भवति ] धर्म (अर्थात्

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ज्ञानमधर्मो न भवति यस्मादधर्मो न जानाति किञ्चित्
तस्मादन्यज्ज्ञानमन्यमधर्मं जिना ब्रुवन्ति ।।३९९।।
कालो ज्ञानं न भवति यस्मात्कालो न जानाति किञ्चित्
तस्मादन्यज्ज्ञानमन्यं कालं जिना ब्रुवन्ति ।।४००।।
आकाशमपि न ज्ञानं यस्मादाकाशं न जानाति किञ्चित्
तस्मादाकाशमन्यदन्यज्ज्ञानं जिना ब्रुवन्ति ।।४०१।।
नाध्यवसानं ज्ञानमध्यवसानमचेतनं यस्मात्
तस्मादन्यज्ज्ञानमध्यवसानं तथान्यत् ।।४०२।।
यस्माज्जानाति नित्यं तस्माज्जीवस्तु ज्ञायको ज्ञानी
ज्ञानं च ज्ञायकादव्यतिरिक्तं ज्ञातव्यम् ।।४०३।।
धर्मास्तिकाय) ज्ञान नहीं है, [यस्मात् ] क्योंकि [धर्मः किंचित् न जानाति ] धर्म कुछ जानता नहीं
है, [तस्मात् ] इसलिये [ज्ञानम् अन्यत् ] ज्ञान अन्य है, [धर्मं अन्यं ] धर्म अन्य है
[जिनाः
ब्रुवन्ति ] ऐसा जिनदेव कहते हैं [अधर्मः ज्ञानं न भवति ] अधर्म (अर्थात् अधर्मास्तिकाय) ज्ञान
नहीं है, [यस्मात् ] क्योंकि [अधर्मः किंचित् न जानाति ] अधर्म कुछ जानता नहीं है, [तस्मात् ]
इसलिए [ज्ञानम् अन्यत् ] ज्ञान अन्य हैं, [अधर्मं अन्यम् ] अधर्म अन्य है
[जिनाः ब्रुवन्ति ]
ऐसा जिनदेव कहते हैं [कालः ज्ञानं न भवति ] काल ज्ञान नहीं है, [यस्मात् ] क्योंकि [कालः
किंचित् न जानाति ] काल कुछ जानता नहीं है, [तस्मात् ] इसलिये [ज्ञानम् अन्यत् ] ज्ञान अन्य
है, [कालं अन्यं ] काल अन्य है
[जिनाः ब्रुवन्ति ] ऐसा जिनदेव कहते हैं [आकाशम् अपि
ज्ञानं न ] आकाश भी ज्ञान नहीं है, [यस्मात् ] क्योंकि [आकाशं किंचित् न जानाति ] आकाश
कुछ जानता नहीं है, [तस्मात् ] इसलिये [ज्ञानं अन्यत् ] ज्ञान अन्य है, [आकाशम् अन्यत् ]
आकाश अन्य है
[जिनाः ब्रुवन्ति ] ऐसा जिनदेव कहते हैं [अध्यवसानं ज्ञानम् न ] अध्यवसान
ज्ञान नहीं है, [यस्मात् ] क्योंकि [अध्यवसानम् अचेतनं ] अध्यवसान अचेतन है, [तस्मात् ]
इसलिये [ज्ञानम् अन्यत् ] ज्ञान अन्य है [तथा अध्यवसानं अन्यत् ] तथा अध्यवसान अन्य है (
ऐसा जिनदेव कहते हैं)
[यस्मात् ] क्योंकि [नित्यं जानाति ] (जीव) निरन्तर जानता है, [तस्मात् ] इसलिये
[ज्ञायकः जीवः तु ] ज्ञायक ऐसा जीव [ज्ञानी ] ज्ञानी (ज्ञानवाला, ज्ञानस्वरूप) है, [ज्ञानं च ]
और ज्ञान [ज्ञायकात् अव्यतिरिक्तं ] ज्ञायकसे अव्यतिरिक्त है (‘अभिन्न’ है, जुदा नहीं)

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ज्ञानं सम्यग्द्रष्टिं तु संयमं सूत्रमङ्गपूर्वगतम्
धर्माधर्मं च तथा प्रव्रज्यामभ्युपयान्ति बुधाः ।।४०४।।
न श्रुतं ज्ञानमचेतनत्वात्, ततो ज्ञानश्रुतयोर्व्यतिरेकः न शब्दो ज्ञानम-
चेतनत्वात्, ततो ज्ञानशब्दयोर्व्यतिरेकः न रूपं ज्ञानमचेतनत्वात्, ततो ज्ञानरूपयोर्व्यतिरेकः
न वर्णो ज्ञानमचेतनत्वात्, ततो ज्ञानवर्णयोर्व्यतिरेकः न गन्धो ज्ञानमचेतनत्वात्, ततो
ज्ञानगन्धयोर्व्यतिरेकः न रसो ज्ञानमचेतनत्वात्, ततो ज्ञानरसयोर्व्यतिरेकः न स्पर्शो
ज्ञानमचेतनत्वात्, ततो ज्ञानस्पर्शयोर्व्यतिरेकः न कर्म ज्ञानमचेतनत्वात्, ततो ज्ञान-
कर्मणोर्व्यतिरेकः न धर्मो ज्ञानमचेतनत्वात्, ततो ज्ञानधर्मयोर्व्यतिरेकः नाधर्मो
ज्ञानमचेतनत्वात्, ततो ज्ञानाधर्मयोर्व्यतिरेकः न कालो ज्ञानमचेतनत्वात्, ततो
ज्ञानकालयोर्व्यतिरेकः नाकाशं ज्ञानमचेतनत्वात्, ततो ज्ञानाकाशयोर्व्यतिरेकः नाध्यवसानं
[ज्ञातव्यम् ] ऐसा जानना चाहिए
[बुधाः ] बुध पुरुष (अर्थात् ज्ञानी जन) [ज्ञानं ] ज्ञानको ही [सम्यग्दृष्टिं तु ] सम्यग्दृष्टि,
[संयमं ] (ज्ञानको ही) संयम, [अंगपूर्वगतम् सूत्रम् ] अंगपूर्वगत सूत्र, [धर्माधर्मं च ] धर्म-अधर्म
(पुण्य-पाप) [तथा प्रव्रज्याम् ] तथा दीक्षा [अभ्युपयान्ति ] मानते हैं
टीका :श्रुत (अर्थात् वचनात्मक द्रव्यश्रुत) ज्ञान नहीं है, क्योंकि श्रुत अचेतन है;
इसलिये ज्ञानके और श्रुतके व्यतिरेक (अर्थात् भिन्नता) है शब्द ज्ञान नहीं है, क्योंकि शब्द
(पुद्गलद्रव्यकी पर्याय है,) अचेतन है; इसलिये ज्ञानके और शब्दके व्यतिरेक (अर्थात् भेद) है
रूप ज्ञान नहीं है, क्योंकि रूप (पुद्गलद्रव्यका गुण है,) अचेतन है; इसलिये ज्ञानके और रूपके
व्यतिरेक है (अर्थात् दोनों भिन्न हैं)
वर्ण ज्ञान नहीं है, क्योंकि वर्ण (पुद्गलद्रव्यका गुण है,)
अचेतन है; इसलिये ज्ञानके और वर्णके व्यतिरेक है (अर्थात् ज्ञान अन्य है, वर्ण अन्य है) गंध
ज्ञान नहीं है, क्योंकि गंध (पुद्गलद्रव्यका गुण है,) अचेतन है; इसलिये ज्ञानके और गंधके
व्यतिरेक (
भेद, भिन्नता) है रस ज्ञान नहीं है, क्योंकि रस (पुद्गलद्रव्यका गुण है,) अचेतन
है; इसलिये ज्ञानके और रसके व्यतिरेक है स्पर्श ज्ञान नहीं है, क्योंकि स्पर्श (पुद्गलद्रव्यका
गुण है,) अचेतन है; इसलिये ज्ञानके और स्पर्शके व्यतिरेक है कर्म ज्ञान नहीं है, क्योंकि कर्म
अचेतन है; इसलिये ज्ञानके और कर्मके व्यतिरेक है धर्म (धर्मद्रव्य) ज्ञान नहीं है, क्योंकि धर्म
अचेतन है; इसलिये ज्ञानके और धर्मके व्यतिरेक है अधर्म (अधर्मद्रव्य) ज्ञान नहीं है, क्योंकि
अधर्म अचेतन है; इसलिये ज्ञानके और अधर्मके व्यतिरेक है
काल (कालद्रव्य) ज्ञान नहीं है,

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ज्ञानमचेतनत्वात्, ततो ज्ञानाध्यवसानयोर्व्यतिरेकः इत्येवं ज्ञानस्य सर्वैरेव परद्रव्यैः सह व्यतिरेको
निश्चयसाधितो द्रष्टव्यः
अथ जीव एवैको ज्ञानं, चेतनत्वात्; ततो ज्ञानजीवयोरेवाव्यतिरेकः न च जीवस्य स्वयं
ज्ञानत्वात्ततो व्यतिरेकः कश्चनापि शंक नीयः एवं तु सति ज्ञानमेव सम्यग्द्रष्टिः, ज्ञानमेव संयमः,
ज्ञानमेवांगपूर्वरूपं सूत्रं, ज्ञानमेव धर्माधर्मौ, ज्ञानमेव प्रव्रज्येति ज्ञानस्य जीवपर्यायैरपि सहाव्यतिरेको
निश्चयसाधितो द्रष्टव्यः
अथैवं सर्वपरद्रव्यव्यतिरेकेण सर्वदर्शनादिजीवस्वभावाव्यतिरेकेण वा अतिव्याप्तिमव्याप्तिं च
परिहरमाणमनादिविभ्रममूलं धर्माधर्मरूपं परसमयमुद्वम्य स्वयमेव प्रव्रज्यारूपमापद्य दर्शनज्ञान-
चारित्रस्थितिरूपं स्वसमयमवाप्य मोक्षमार्गमात्मन्येव परिणतं कृत्वा समवाप्तसम्पूर्णविज्ञानघनस्वभावं
क्योंकि काल अचेतन है; इसलिये ज्ञानके और कालके व्यतिरेक है आकाश (आकाशद्रव्य)
ज्ञान नहीं है, क्योंकि आकाश अचेतन है; इसलिये ज्ञानके और आकाशके व्यतिरेक है अध्यवसान
ज्ञान नहीं है, क्योंकि अध्यवसान अचेतन है; इसलिये ज्ञानके और (कर्मोदयकी प्रवृत्तिरूप)
अध्यवसानके व्यतिरेक है
इसप्रकार यों ज्ञानका समस्त परद्रव्योंके साथ व्यतिरेक निश्चयसाधित
देखना चाहिए (अर्थात् निश्चयसे सिद्ध हुआ समझनाअनुभव करना चाहिए)
अब, जीव ही एक ज्ञान है, क्योंकि जीव चेतन है; इसलिये ज्ञानके और जीवके अव्यतिरेक
(अभेद) है और ज्ञानका जीवके साथ व्यतिरेक किंचित्मात्र भी शंका करने योग्य नहीं है
(अर्थात् ज्ञानकी जीवसे भिन्नता होगी ऐसी जरा भी शंका करने योग्य नहीं है), क्योंकि जीव स्वयं
ही ज्ञान है
ऐसा (ज्ञान जीवसे अभिन्न) होनेसे, ज्ञान ही सम्यग्दृष्टि है, ज्ञान ही संयम है, ज्ञान
ही अंगपूर्वरूप सूत्र है, ज्ञान ही धर्म-अधर्म (अर्थात् पुण्य-पाप) है, ज्ञान ही प्रव्रज्या (दीक्षा,
निश्चयचारित्र) हैइसप्रकार ज्ञानका जीवपर्यायोंके साथ भी अव्यतिरेक निश्चयसाधित देखना
(अर्थात् निश्चय द्वारा सिद्ध हुआ समझनाअनुभव करना) चाहिए
अब, इसप्रकार सर्व परद्रव्योंके साथ व्यतिरेकके द्वारा और सर्व दर्शनादि
जीवस्वभावोंके साथ अव्यतिरेकके द्वारा अतिव्याप्तिको और अव्याप्तिको दूर करता हुआ,
अनादि विभ्रम जिसका मूल है ऐसे धर्म-अधर्मरूप (पुण्य-पापरूप, शुभ-अशुभरूप,)
परसमयको दूर करके, स्वयं ही प्रव्रज्यारूपको प्राप्त करके (अर्थात् स्वयं ही निश्चयचारित्ररूप
दीक्षाभावको प्राप्त करके), दर्शन-ज्ञान-चारित्रमें स्थितिरूप स्वसमयको प्राप्त करके,
मोक्षमार्गको अपनेमें ही परिणत करके, जिसने सम्पूर्ण विज्ञानघनस्वभावको प्राप्त किया है
ऐसा, त्यागग्रहणसे रहित, साक्षात् समयसारभूत परमार्थरूप शुद्धज्ञान एक अवस्थित

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हानोपादानशून्यं साक्षात्समयसारभूतं परमार्थरूपं शुद्धं ज्ञानमेकमवस्थितं द्रष्टव्यम्
(निश्चल) देखना (अर्थात् प्रत्यक्ष स्वसंवेदनसे अनुभव करना) चाहिए
भावार्थ :यहाँ ज्ञानको समस्त परद्रव्योंसे भिन्न और अपनी पर्यायोंसे अभिन्न बताया
है, इसलिए अतिव्याप्ति और अव्याप्ति नामक लक्षण-दोष दूर हो गये आत्माका लक्षण उपयोग
है, और उपयोगमें ज्ञान प्रधान है; वह (ज्ञान) अन्य अचेतन द्रव्योंमें नहीं है, इसलिये वह
अतिव्याप्तिवाला नहीं है, और अपनी सर्व अवस्थाओंमें है; इसलिए अव्याप्तिवाला नहीं है
इसप्रकार
ज्ञानलक्षण कहनेसे अतिव्याप्ति और अव्याप्ति दोष नहीं आते
यहाँ ज्ञानको ही प्रधान करके आत्माका अधिकार है, क्योंकि ज्ञानलक्षणसे ही आत्मा
सर्व परद्रव्योंसे भिन्न अनुभवगोचर होता है यद्यपि आत्मामें अनन्त धर्म हैं, तथापि उनमेंसे
कितने ही तो छद्मस्थके अनुभवगोचर ही नहीं हैं उन धर्मोंके कहनेसे छद्मस्थ ज्ञानी
आत्माको कैसे पहिचान सकता है ? और कितने ही धर्म अनुभवगोचर हैं, परन्तु उनमेंसे
कितने ही तो
अस्तित्व, वस्तुत्व, प्रमेयत्व आदि तोअन्य द्रव्योंके साथ सामान्य अर्थात्
समान ही हैं, इसलिये उनके कहनेसे पृथक् आत्मा नहीं जाना जा सकता, और कितने ही
(धर्म) परद्रव्यके निमित्तसे हुये हैं उन्हें कहनेसे परमार्थभूत आत्माका शुद्ध स्वरूप कैसे जाना
जा सकता है ? इसलिए ज्ञानके कहनेसे ही छद्मस्थ ज्ञानी आत्माको पहिचान सकता है
यहाँ ज्ञानको आत्माका लक्षण कहा है इतना ही नहीं, किन्तु ज्ञानको ही आत्मा कहा
है; क्योंकि अभेदविवक्षामें गुणगुणीका अभेद होनेसे, ज्ञान है सो ही आत्मा है अभेदविवक्षामें
चाहे ज्ञान कहो या आत्माकोई विरोध नहीं है; इसलिये यहाँ ज्ञान कहनेसे आत्मा ही
समझना चाहिए
टीकामें अन्तमें यह कहा गया है किजो, अपनेमें अनादि अज्ञानसे होनेवाली
शुभाशुभ उपयोगरूप परसमयकी प्रवृत्तिको दूर करके, सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रमें प्रवृत्तिरूप
स्वसमयको प्राप्त करके, ऐसे स्वसमयरूप परिणमनस्वरूप मोक्षमार्गमें अपनेको परिणमित
करके, सम्पूर्णविज्ञानघनस्वभावको प्राप्त हुआ है, और जिसमें कोई त्याग-ग्रहण नहीं है, ऐसे
साक्षात् समयसारस्वरूप, परमार्थभूत, निश्चल रहा हुआ, शुद्ध, पूर्ण ज्ञानको (पूर्ण
आत्मद्रव्यको) देखना चाहिए
यहाँ ‘देखना’ तीन प्रकारसे समझना चाहिए (१) शुद्धनयका
ज्ञान करके पूर्ण ज्ञानका श्रद्धान करना सो प्रथम प्रकारका देखना है वह अविरत आदि
अवस्थामें भी होता है (२) ज्ञान-श्रद्धान होनेके बाद बाह्य सर्व परिग्रहका त्याग करके
उसका (पूर्ण ज्ञानका) अभ्यास करना, उपयोगको ज्ञानमें ही स्थिर करना, जैसा शुद्धनयसे

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(शार्दूलविक्रीडित)
अन्येभ्यो व्यतिरिक्त मात्मनियतं बिभ्रत्पृथग्वस्तुता-
मादानोज्झनशून्यमेतदमलं ज्ञानं तथावस्थितम्
मध्याद्यन्तविभागमुक्त सहजस्फारप्रभाभासुरः
शुद्धज्ञानघनो यथाऽस्य महिमा नित्योदितस्तिष्ठति
।।२३५।।
अपने स्वरूपको सिद्ध समान जाना-श्रद्धान किया था वैसा ही ध्यानमें लेकर चित्तको
एकाग्र
स्थिर करना, और पुनः पुनः उसीका अभ्यास करना, सो दूसरे प्रकारका देखना है
इसप्रकारका देखना अप्रमत्तदशामें होता है जहाँ तक उस प्रकारके अभ्याससे केवलज्ञान
उत्पन्न न हो वहाँ तक ऐसा अभ्यास निरन्तर रहता है यह, देखनेका दूसरा प्रकार हुआ
यहाँ तक तो पूर्ण ज्ञानका शुद्धनयके आश्रयसे परोक्ष देखना है और (३) जब केवलज्ञान
उत्पन्न होता है तब साक्षात् देखना है, सो यह तीसरे प्रकारका देखना है उस स्थितिमें ज्ञान
सर्व विभावोंसे रहित होता हुआ सबका ज्ञाता-द्रष्टा है, इसलिए यह तीसरे प्रकारका देखना
पूर्ण ज्ञानका प्रत्यक्ष देखना है
।।३९० से ४०४।।
अब, इस अर्थका कलशरूप काव्य कहते हैं :
श्लोकार्थ :[अन्येभ्यः व्यतिरिक्तम् ] अन्य द्रव्योंसे भिन्न, [आत्म-नियतं ] अपनेमें
ही नियत, [पृथक्-वस्तुताम्-बिभ्रत् ] पृथक् वस्तुत्वको धारण करता हुआ (वस्तुका
स्वरूप सामान्यविशेषात्मक होनेसे स्वयं भी सामान्यविशेषात्मकताको धारण करता हुआ),
[आदान-उज्झन-शून्यम् ] ग्रहणत्यागसे रहित, [एतत् अमलं ज्ञानं ] यह अमल (
रागादिक
मलसे रहित) ज्ञान [तथा-अवस्थितम् यथा ] इसप्रकार अवस्थित (निश्चल) अनुभवमें आता
है कि जैसे [मध्य-आदि-अंत-विभाग-मुक्त-सहज-स्फार-प्रभा-भासुरः अस्य शुद्ध-ज्ञान-घनः
महिमा ]
आदि-मध्य-अन्तरूप विभागोंसे रहित ऐसी सहज फै ली हुई प्रभाके द्वारा देदीप्यमान
ऐसी उसकी शुद्धज्ञानघनस्वरूप महिमा [नित्य-उदितः-तिष्ठति ] नित्य-उदित रहे (
शुद्ध
ज्ञानकी पुंजरूप महिमा सदा उदयमान रहे)
भावार्थ :ज्ञानका पूर्ण रूप सबको जानना है वह जब प्रगट होता है तब सर्व
विशेषणोंसे सहित प्रगट होता है; इसलिए उसकी महिमाको कोई बिगाड़ नहीं सकता, वह
सदा उदित रहती है
।२३५।
‘ऐसे ज्ञानस्वरूप आत्माका आत्मामें धारण करना सो यही ग्रहण करने योग्य सब कुछ
ग्रहण किया और त्यागने योग्य सब कुछ त्याग किया है’इस अर्थका काव्य कहते हैं :

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(उपजाति)
उन्मुक्त मुन्मोच्यमशेषतस्तत्
तथात्तमादेयमशेषतस्तत्
यदात्मनः संहृतसर्वशक्ते :
पूर्णस्य सन्धारणमात्मनीह
।।२३६।।
(अनुष्टुभ्)
व्यतिरिक्तं परद्रव्यादेवं ज्ञानमवस्थितम्
कथमाहारकं तत्स्याद्येन देहोऽस्य शंक्यते ।।२३७।।
अत्ता जस्सामुत्तो ण हु सो आहारगो हवदि एवं
आहारो खलु मुत्तो जम्हा सो पोग्गलमओ दु ।।४०५।।
श्लोकार्थ :[संहृत-सर्व-शक्तेः पूर्णस्य आत्मनः ] जिसने सर्व शक्तियोंको समेट लिया
है (अपनेमें लीन कर लिया है) ऐसे पूर्ण आत्माका [आत्मनि इह ] आत्मामें [यत् सन्धारणम् ]
धारण करना [तत् उन्मोच्यम् अशेषतः उन्मुक्तम् ] वही छोड़ने योग्य सब कुछ छोड़ा है [तथा ]
और [आदेयम् तत् अशेषतः आत्तम् ] ग्रहण करने योग्य सब ग्रहण किया है
भावार्थ :पूर्णज्ञानस्वरूप, सर्व शक्तियोंका समूहरूप जो आत्मा है उसे आत्मामें धारण
कर रखना सो यही, जो कुछ त्यागने योग्य था उस सबको त्याग दिया और ग्रहण करने योग्य
जो कुछ था उसे ग्रहण किया है
यही कृतकृत्यता है।२३६।
‘ऐसे ज्ञानको देह ही नहीं है’इस अर्थका, आगामी गाथाका सूचक श्लोक कहते हैं :
श्लोकार्थ :[एवं ज्ञानम् परद्रव्यात् व्यतिरिक्तं अवस्थितम् ] इसप्रकार (पूर्वोक्त रीतिसे)
ज्ञान परद्रव्यसे पृथक् अवस्थित (निश्चल रहा हुआ) है; [तत् आहारकं कथम् स्यात् येन अस्य
देहः शंक्यते ] वह (ज्ञान) आहारक (अर्थात् कर्म-नोकर्मरूप आहार करनेवाला) कैसे हो सकता
है कि जिससे उसके देहकी शंका की जा सके ? (ज्ञानके देह हो ही नहीं सकती, क्योंकि उसके
कर्म-नोकर्मरूप आहार ही नहीं है
)।२३७।
अब, इस अर्थको गाथाओंमें कहते हैं :
यों आत्मा जिसका अमूर्तिक सो न आहारक बने
पुद्गलमयी आहार यों आहार तो मूर्तिक अरे।।४०५।।

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ण वि सक्कदि घेत्तुं जं ण विमोत्तुं जं च जं परद्दव्वं
सो को वि य तस्स गुणो पाउगिओ विस्ससो वा वि ।।४०६।।
तम्हा दु जो विसुद्धो चेदा सो णेव गेण्हदे किंचि
णेव विमुंचदि किंचि वि जीवाजीवाण दव्वाणं ।।४०७।।
आत्मा यस्यामूर्तो न खलु स आहारको भवत्येवम्
आहारः खलु मूर्तो यस्मात्स पुद्गलमयस्तु ।।४०५।।
नापि शक्यते ग्रहीतुं यत् न विमोक्तुं यच्च यत्परद्रव्यम्
स कोऽपि च तस्य गुणः प्रायोगिको वैस्रसो वाऽपि ।।४०६।।
तस्मात्तु यो विशुद्धश्चेतयिता स नैव गृह्णाति किञ्चित्
नैव विमुञ्चति किञ्चिदपि जीवाजीवयोर्द्रव्ययोः ।।४०७।।
73
जो द्रव्य है पर, ग्रहण नहिं, नहिं त्याग उसका हो सके
ऐसा हि उसका गुण कोई प्रायोगि अरु वैस्रसिक है।।४०६।।
इस हेतुसे जो शुद्ध आत्मा सो नहीं कुछ भी ग्रहे
छोड़े नहीं कुछ भी अहो ! परद्रव्य जीव-अजीवमें।।४०७।।
गाथार्थ :[एवम् ] इसप्रकार [यस्य आत्मा ] जिसका आत्मा [अमूर्तः ] अमूर्तिक है
[सः खलु ] वह वास्तवमें [आहारकः न भवति ] आहारक नहीं है; [आहारः खलु ] आहार तो
[मूर्तः ] मूर्तिक है, [यस्मात् ] क्योंकि [सः तु पुद्गलमयः ] वह पुद्गलमय है
[यत् परद्रव्यम् ] जो परद्रव्य है [न अपि शक्यते ग्रहीतुं यत् ] वह ग्रहण नहीं किया जा
सकता [न विमोक्तुं यत् च ] और छोड़ा नहीं जा सकता; [सः कः अपि च ] ऐसा ही कोई
[तस्य ] उसका (
आत्माका) [प्रायोगिकः वा अपि वैस्रसः गुणः ] प्रायोगिक तथा वैस्रसिक गुण
है
[तस्मात् तु ] इसलिये [यः विशुद्धः चेतयिता ] जो विशुद्ध आत्मा है [सः ] वह
[जीवाजीवयोः द्रव्ययोः ] जीव और अजीव द्रव्योंमें (परद्रव्योंमें) [किंचित् न एव गृह्णाति ] कुछ
भी ग्रहण नहीं करता [किंचित् अपि न एव विमुञ्चति ] तथा कुछ भी त्याग नहीं करता

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ज्ञानं हि परद्रव्यं किंचिदपि न गृह्णाति न मुंचति च, प्रायोगिकगुणसामर्थ्यात्
वैस्रसिकगुणसामर्थ्याद्वा ज्ञानेन परद्रव्यस्य गृहीतुं मोक्तुं चाशक्यत्वात् परद्रव्यं च न
ज्ञानस्यामूर्तात्मद्रव्यस्य मूर्तपुद्गलद्रव्यत्वादाहारः ततो ज्ञानं नाहारकं भवति अतो ज्ञानस्य
देहो न शंक नीयः
(अनुष्टुभ्)
एवं ज्ञानस्य शुद्धस्य देह एव न विद्यते
ततो देहमयं ज्ञातुर्न लिंगं मोक्षकारणम् ।।२३८।।
टीका :ज्ञान परद्रव्यको किंचित्मात्र भी न तो ग्रहण करता है और न छोड़ता है,
क्योंकि प्रायोगिक (अर्थात् पर निमित्तसे उत्पन्न) गुणकी सामर्थ्यसे तथा वैस्रसिक (अर्थात्
स्वाभाविक) गुणकी सामर्थ्यसे ज्ञानके द्वारा परद्रव्यका ग्रहण तथा त्याग करना अशक्य है
और,
(कर्म-नोकर्मादिरूप) परद्रव्य ज्ञानकाअमूर्तिक आत्मद्रव्यकाआहार नहीं है, क्योंकि वह
मूर्तिक पुद्गलद्रव्य है; (अमूर्तिकके मूर्तिक आहार नहीं होता) इसलिये ज्ञान आहारक नहीं है
इसलिये ज्ञानके देहकी शंका न करनी चाहिए
(यहाँ ‘ज्ञान’ से ‘आत्मा’ समझना चाहिए; क्योंकि, अभेद विवक्षासे लक्षणमें ही
लक्ष्यका व्यवहार किया जाता है इस न्यायसे टीकाकार आचार्यदेव आत्माको ज्ञान ही कहते
आये हैं)
भावार्थ :ज्ञानस्वरूप आत्मा अमूर्तिक है और आहार तो कर्म-नोकर्मरूप पुद्गलमय
मूर्तिक है; इसलिए परमार्थतः आत्माके पुद्गलमय आहार नहीं है और आत्माका ऐसा ही
स्वभाव है कि वह परद्रव्यको कदापि ग्रहण नहीं करता;स्वभावरूप परिणमित हो या
विभावरूप परिणमित हो,अपने ही परिणामका ग्रहण-त्याग होता है, परद्रव्यका ग्रहण-त्याग
तो किंचित्मात्र भी नहीं होता
इसप्रकार आत्माके आहार न होनेसे उसके देह ही नहीं है।।४०४ से ४०७।।
जब कि आत्माके देह है ही नहीं, इसलिये पुद्गलमय देहस्वरूप लिंग (वेष, बाह्य
चिह्न) मोक्षका कारण नहीं हैइस अर्थका, आगामी गाथाओंका सूचक काव्य कहते हैंः
श्लोकार्थ :[एवं शुद्धस्य ज्ञानस्य देहः एव न विद्यते ] इसप्रकार शुद्धज्ञानके देह ही
नहीं है; [ततः ज्ञातुः देहमयं लिङ्गं मोक्षकारणम् न ] इसलिए ज्ञाताको देहमय चिह्न मोक्षका
कारण नहीं है
।२३८।

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पासंडीलिंगाणि व गिहिलिंगाणि व बहुप्पयाराणि
घेत्तुं वदंति मूढा लिंगमिणं मोक्खमग्गो त्ति ।।४०८।।
ण दु होदि मोक्खमग्गो लिंगं जं देहणिम्ममा अरिहा
लिंगं मुइत्तु दंसणणाणचरित्ताणि सेवंति ।।४०९।।
पाषण्डिलिङ्गानि वा गृहिलिङ्गानि वा बहुप्रकाराणि
गृहीत्वा वदन्ति मूढा लिङ्गमिदं मोक्षमार्ग इति ।।४०८।।
न तु भवति मोक्षमार्गो लिङ्ग यद्देहनिर्ममा अर्हन्तः
लिङ्ग मुक्त्वा दर्शनज्ञानचारित्राणि सेवन्ते ।।४०९।।
केचिद्द्रव्यलिंगमज्ञानेन मोक्षमार्गं मन्यमानाः सन्तो मोहेन द्रव्यलिंगमेवोपाददते
तदनुपपन्नम्; सर्वेषामेव भगवतामर्हद्देवानां, शुद्धज्ञानमयत्वे सति द्रव्यलिंगाश्रयभूत-
अब, इसी अर्थको गाथाओं द्वारा कहते हैं :
मुनिलिंगको अथवा गृहस्थीलिंगको बहुभांतिके
ग्रहकर कहत है मूढ़जन, ‘यह लिंग मुक्तीमार्ग है’।।४०८।।
वह लिंग मुक्तीमार्ग नहिं, अर्हन्त निर्मम देहमें
बस लिंग तजकर ज्ञान अरु चारित्र, दर्शन सेवते।।४०९।।
गाथार्थ :[बहुप्रकाराणि ] बहुत प्रकारके [पाषण्डिलिङ्गानि वा ] मुनिलिंगोंको
[गृहीलिङ्गानि वा ] अथवा गृहीलिंगोंको [गृहीत्वा ] ग्रहण करके [मूढाः ] मूढ (अज्ञानी) जन
[वदन्ति ] यह कहते हैं कि [इदं लिङ्गम् ] यह (बाह्य) लिंग [मोक्षमार्गः इति ] मोक्षमार्ग है
[तु ] परन्तु [लिङ्गं ] लिंग [मोक्षमार्गः न भवति ] मोक्षमार्ग नहीं है; [यत् ] क्योंकि
[अर्हन्तः ] अर्हन्तदेव [देहनिर्ममाः ] देहके प्रति निर्मम वर्तते हुए [लिङ्गं मुक्त्वा ] लिंगको छोड़कर
[दर्शनज्ञानचारित्राणि सेवन्ते ] दर्शन-ज्ञान-चारित्रका ही सेवन करते हैं
टीका :कितने ही लोग अज्ञानसे द्रव्यलिंगको मोक्षमार्ग मानते हुए मोहसे द्रव्यलिंगको
ही ग्रहण करते हैं यह (द्रव्यलिंगको मोक्षमार्ग मानकर ग्रहण करना सो) अनुपपन्न अर्थात्
अयुक्त है; क्योंकि सभी भगवान अर्हन्तदेवोंके, शुद्धज्ञानमयता होनेसे द्रव्यलिंगके आश्रयभूत शरीरके

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शरीरममकारत्यागात्, तदाश्रितद्रव्यलिंगत्यागेन दर्शनज्ञानचारित्राणां मोक्षमार्गत्वेनोपासनस्य
दर्शनात्
अथैतदेव साधयति
ण वि एस मोक्खमग्गो पासंडीगिहिमयाणि लिंगाणि
दंसणणाणचरित्ताणि मोक्खमग्गं जिणा बेंति ।।४१०।।
नाप्येष मोक्षमार्गः पाषण्डिगृहिमयानि लिङ्गानि
दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गं जिना ब्रुवन्ति ।।४१०।।
न खलु द्रव्यलिंग मोक्षमार्गः, शरीराश्रितत्वे सति परद्रव्यत्वात् दर्शनज्ञानचारित्राण्येव
मोक्षमार्गः, आत्माश्रितत्वे सति स्वद्रव्यत्वात्
ममत्वका त्याग होता है इसलिये, शरीराश्रित द्रव्यलिंगके त्यागसे दर्शनज्ञानचारित्रकी मोक्षमार्गरूपसे
उपासना देखी जाती है (अर्थात् वे शरीराश्रित द्रव्यलिंगका त्याग करके दर्शनज्ञानचारित्रको
मोक्षमार्गके रूपमें सेवन करते हुए देखे जाते हैं)
भावार्थ :यदि देहमय द्रव्यलिंग मोक्षका कारण होता तो अर्हन्तदेव आदि देहका ममत्व
छोड़कर दर्शन-ज्ञान-चारित्रका सेवन क्यों करते ? द्रव्यलिंगसे ही मोक्ष प्राप्त कर लेते ! इससे यह
निश्चय हुआ कि
देहमय लिंग मोक्षमार्ग नहीं है, परमार्थतः दर्शनज्ञानचारित्ररूप आत्मा ही मोक्षका
मार्ग है।।४०८-४०९।।
अब, यही सिद्ध करते हैं (अर्थात् द्रव्यलिंग मोक्षमार्ग नहीं है, दर्शन-ज्ञान-चारित्र ही
मोक्षमार्ग हैयह सिद्ध करते हैं) :
मुनिलिंग अरु गृहीलिंगये नहिं लिंग मुक्तीमार्ग है
चारित्र-दर्शन-ज्ञानको बस मोक्षमार्ग प्रभू कहे।।४१०।।
गाथार्थ :[पाषण्डिगृहिमयानि लिङ्गानि ] मुनियों और गृहस्थके लिंग (चिह्न)
[एषः ] यह [मोक्षमार्गः न अपि ] मोक्षमार्ग नहीं है; [दर्शनज्ञानचारित्राणि ] दर्शनज्ञानचारित्रको
[जिनाः ] जिनदेव [मोक्षमार्गं ब्रुवन्ति ] मोक्षमार्ग कहते हैं
टीका :द्रव्यलिंग वास्तवमें मोक्षमार्ग नहीं है, क्योंकि वह (द्रव्यलिंग) शरीराश्रित
होनेसे परद्रव्य है दर्शन-ज्ञान-चारित्र ही मोक्षमार्ग है, क्योंकि वे आत्माश्रित होनेसे स्वद्रव्य हैं

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यत एवम्
तम्हा जहित्तु लिंगे सागारणगारएहिं वा गहिदे
दंसणणाणचरित्ते अप्पाणं जुंज मोक्खपहे ।।४११।।
तस्मात् जहित्वा लिङ्गानि सागारैरनगारकैर्वा गृहीतानि
दर्शनज्ञानचारित्रे आत्मानं युंक्ष्व मोक्षपथे ।।४११।।
यतो द्रव्यलिंग न मोक्षमार्गः, ततः समस्तमपि द्रव्यलिंगं त्यक्त्वा दर्शनज्ञानचारित्रेष्वेव,
मोक्षमार्गत्वात्, आत्मा योक्त व्य इति सूत्रानुमतिः
भावार्थ :जो मोक्ष है सो सर्व कर्मोके अभावरूप आत्मपरिणाम (आत्माके परिणाम)
हैं, इसलिये उसका कारण भी आत्मपरिणाम ही होना चाहिए दर्शन-ज्ञान-चारित्र आत्माके परिणाम
हैं; इसलिये निश्चयसे वही मोक्षका मार्ग हैजो लिंग है सो देहमय है; और जो देह है वह
पुद्गलद्रव्यमय है; इसलिये आत्माके लिये देह मोक्षमार्ग नहीं है परमार्थसे अन्य द्रव्यको अन्य
द्रव्य कुछ नहीं करता ऐसा नियम है।।४१०।।
जब कि ऐसा है (अर्थात् यदि द्रव्यलिंग मोक्षमार्ग नहीं है और दर्शनज्ञानचारित्र ही मोक्षमार्ग
है) तो इसप्रकार (निम्नप्रकार) से करना चाहिएयह उपदेश हैः
यों छोड़कर सागार या अनगार-धारित लिंगको
चारित्र-दर्शन-ज्ञानमें तू जोड रे ! निज आत्मको।।४११।।
गाथार्थ :[तस्मात् ] इसलिये [सागारैः ] सागारों द्वारा (गृहस्थों द्वारा) [अनगारकैः
वा ] अथवा अणगारोंके द्वारा (मुनियोंके द्वारा) [गृहीतानि ] ग्रहण किये गये [लिङ्गानि ]
लिंगोंको [जहित्वा ] छोड़कर, [दर्शनज्ञानचारित्रे ] दर्शनज्ञानचारित्रमें[मोक्षपथे ] जो कि
मोक्षमार्ग है उसमें[आत्मानं युंक्ष्व ] तू आत्माको लगा
टीका :क्योंकि द्रव्यलिंग मोक्षमार्ग नहीं है, इसलिए समस्त द्रव्यलिंगका त्याग करके
दर्शनज्ञानचारित्रमें ही, वह (दर्शनज्ञानचारित्र) मोक्षमार्ग होनेसे, आत्माको लगाना योग्य हैऐसी
सूत्रकी अनुमति है
भावार्थ :यहाँ द्रव्यलिंगको छोड़कर आत्माको दर्शनज्ञानचारित्रमें लगानेका वचन है वह
सामान्य परमार्थ वचन है कोई यह समझेगा कि यह मुनि-श्रावकके व्रतोंके छुड़ानेका उपदेश
है परन्तु ऐसा नहीं है जो मात्र द्रव्यलिंगको ही मोक्षमार्ग जानकर वेश धारण करते हैं, उन्हें

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(अनुष्टुभ्)
दर्शनज्ञानचारित्रत्रयात्मा तत्त्वमात्मनः
एक एव सदा सेव्यो मोक्षमार्गो मुमुक्षुणा ।।२३९।।
मोक्खपहे अप्पाणं ठवेहि तं चेव झाहि तं चेय
तत्थेव विहर णिच्चं मा विहरसु अण्णदव्वेसु ।।४१२।।
मोक्षपथे आत्मानं स्थापय तं चैव ध्यायस्व तं चेतयस्व
तत्रैव विहर नित्यं मा विहार्षीरन्यद्रव्येषु ।।४१२।।
आसंसारात्परद्रव्ये रागद्वेषादौ नित्यमेव स्वप्रज्ञादोषेणावतिष्ठमानमपि, स्वप्रज्ञागुणेनैव ततो
द्रव्यलिंगका पक्ष छुड़ानेका उपदेश दिया है किभेखमात्रसे (वेशमात्रसे, बाह्यव्रतमात्रसे) मोक्ष
नहीं होता परमार्थ मोक्षमार्ग तो आत्माके परिणाम जो दर्शन-ज्ञान-चारित्र हैं वही है व्यवहार
आचारसूत्रके कथनानुसार जो मुनि-श्रावकके बाह्य व्रत हैं, वे व्यवहारसे निश्चयमोक्षमार्गके साधक
हैं; उन व्रतोंको यहाँ नहीं छुड़ाया है, किन्तु यह कहा है कि उन व्रतोंका भी ममत्व छोड़कर परमार्थ
मोक्षमार्गमें लगनेसे मोक्ष होता है, केवल वेशमात्रसे
व्रतमात्रसे मोक्ष नहीं होता।।४११।।
अब, इसी अर्थको दृढ़ करनेवाली आगामी गाथाका सूचक श्लोक कहते हैं :
श्लोकार्थ :[आत्मनः तत्त्वम् दर्शन-ज्ञान-चारित्र-त्रय-आत्मा ] आत्माका तत्त्व
दर्शनज्ञानचारित्रत्रयात्मक है (अर्थात् आत्माका यथार्थ रूप दर्शन, ज्ञान और चारित्रके त्रिकस्वरूप
है); [मुमुक्षुणा मोक्षमार्गः एकः एव सदा सेव्यः ] इसलिये मोक्षके इच्छुक पुरुषको (यह
दर्शनज्ञानचारित्रस्वरूप) मोक्षमार्ग एक ही सदा सेवन करने योग्य है
।२३९।
अब, इसी उपदेशको गाथा द्वारा कहते हैं :
तूं स्थाप निजको मोक्षपथमें, ध्या, अनुभव तू उसे
उसमें हि नित्य विहार कर, न विहार कर परद्रव्यमें।।४१२।।
गाथार्थ :(हे भव्य !) [मोक्षपथे ] तू मोक्षमार्गमें [आत्मानं स्थापय ] अपने आत्माको
स्थापित कर, [तं च एव ध्यायस्व ] उसीका ध्यान कर, [तं चेतयस्व ] उसीको चेतअनुभव कर
[तत्र एव नित्यं विहर ] और उसीमें निरन्तर विहार कर; [अन्यद्रव्येषु मा विहार्षीः ] अन्य द्रव्योंमें
विहार मत कर
टीका :(हे भव्य !) स्वयं अर्थात् अपना आत्मा अनादि संसारसे लेकर अपनी प्रज्ञाके

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व्यावर्त्य दर्शनज्ञानचारित्रेषु नित्यमेवावस्थापयातिनिश्चलमात्मानं; तथा समस्तचिन्तान्तर-
निरोधेनात्यन्तमेकाग्रो भूत्वा दर्शनज्ञानचारित्राण्येव ध्यायस्व; तथा सकलकर्मकर्मफलचेतनासंन्यासेन
शुद्धज्ञानचेतनामयो भूत्वा दर्शनज्ञानचारित्राण्येव चेतयस्व; तथा द्रव्यस्वभाववशतः प्रतिक्षण-
विजृम्भमाणपरिणामतया तन्मयपरिणामो भूत्वा दर्शनज्ञानचारित्रेष्वेव विहर; तथा ज्ञानरूप-
मेकमेवाचलितमवलम्बमानो ज्ञेयरूपेणोपाधितया सर्वत एव प्रधावत्स्वपि परद्रव्येषु सर्वेष्वपि मनागपि
मा विहार्षीः
(शार्दूलविक्रीडित)
एको मोक्षपथो य एष नियतो द्रग्ज्ञप्तिवृत्त्यात्मक-
स्तत्रैव स्थितिमेति यस्तमनिशं ध्यायेच्च तं चेतति
तस्मिन्नेव निरन्तरं विहरति द्रव्यान्तराण्यस्पृशन्
सोऽवश्यं समयस्य सारमचिरान्नित्योदयं विन्दति
।।२४०।।
(बुद्धिके) दोषसे परद्रव्यमेंरागद्वेषादिमें निरन्तर स्थित रहता हुआ भी, अपनी प्रज्ञाके गुण द्वारा
ही उसमेंसे पीछे हटाकर उसे अति निश्चलता पूर्वक दर्शन-ज्ञान-चारित्रमें निरन्तर स्थापित कर, तथा
समस्त अन्य चिन्ताके निरोध द्वारा अत्यन्त एकाग्र होकर दर्शन-ज्ञान-चारित्रका ही ध्यान कर; तथा
समस्त कर्मचेतना और कर्मफलचेतनाके त्याग द्वारा शुद्धज्ञानचेतनामय होकर दर्शन-ज्ञान-चारित्रको
ही चेत
अनुभव कर; तथा द्रव्यके स्वभावके वशसे (अपनेको) प्रतिक्षण जो परिणाम उत्पन्न
होते हैं उनके द्वारा [अर्थात् परिणामीपनेके द्वारा तन्मय परिणामवाला (दर्शनज्ञानचारित्रमय
परिणामवाला) होकर ] दर्शन-ज्ञान-चारित्रमें ही विहार कर; तथा ज्ञानरूपको एकको ही अचलतया
अवलम्बन करता हुआ, जो ज्ञेयरूप होनेसे उपाधिस्वरूप हैं ऐसे सर्व ओरसे फै लते हुए समस्त
परद्रव्योंमें किंचित् मात्र भी विहार मत कर
भावार्थ :परमार्थरूप आत्माके परिणाम दर्शन-ज्ञान-चारित्र हैं; वही मोक्षमार्ग है
उसीमें (दर्शनज्ञानचारित्रमें ही) आत्माको स्थापित करना चाहिए, उसीका ध्यान करना चाहिए,
उसीका अनुभव करना चाहिए और उसीमें विहार (प्रवर्तन) करना चाहिए, अन्य द्रव्योंमें प्रवर्तन
नहीं करना चाहिए
यहाँ परमार्थसे यही उपदेश है किनिश्चय मोक्षमार्गका सेवन करना चाहिए,
मात्र व्यवहारमें ही मूढ़ नहीं रहना चाहिए।।४१२।।
अब, इसी अर्थका कलशरूप काव्य कहते हैं :
श्लोकार्थ :[दृग्-ज्ञप्ति-वृत्ति-आत्मकः यः एषः एकः नियतः मोक्षपथः ] दर्शनज्ञान-
चारित्रस्वरूप जो यह एक नियत मोक्षमार्ग है, [तत्र एव यः स्थितिम् एति ] उसीमें जो पुरुष स्थिति

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(शार्दूलविक्रीडित)
ये त्वेनं परिहृत्य संवृतिपथप्रस्थापितेनात्मना
लिंगे द्रव्यमये वहन्ति ममतां तत्त्वावबोधच्युताः
नित्योद्योतमखण्डमेकमतुलालोकं स्वभावप्रभा-
प्राग्भारं समयस्य सारममलं नाद्यापि पश्यन्ति ते
।।२४१।।
प्राप्त करता है अर्थात् स्थित रहता है, [तम् अनिशं ध्यायेत् ] उसीका निरन्तर ध्यान करता है, [तं
चेतति ]
उसीको चेतता है
उसीका अनुभव करता है, [च द्रव्यान्तराणि अस्पृशन् तस्मिन् एव
निरन्तरं विहरति ] और अन्य द्रव्योंको स्पर्श न करता हुआ उसीमें निरन्तर विहार करता है [सः
नित्य-उदयं समयस्य सारम् अचिरात् अवश्यं विन्दति ]
वह पुरुष, जिसका उदय नित्य रहता है
ऐसे समयके सारको (अर्थात् परमात्माके रूपको) अल्प कालमें ही अवश्य प्राप्त करता है अर्थात्
उसका अनुभव करता है
भावार्थ :निश्चयमोक्षमार्गके सेवनसे अल्प कालमें ही मोक्षकी प्राप्ति होती है, यह नियम
है।२४०।
‘जो द्रव्यलिंगको ही मोक्षमार्ग मानकर उसमें ममत्व रखते हैं, उन्होंने समयसारको अर्थात्
शुद्ध आत्माको नहीं जाना’इसप्रकार गाथा द्वारा कहते हैं
यहाँ प्रथम उसका सूचक काव्य कहते हैं :
श्लोकार्थ :[ये तु एनं परिहृत्य संवृति-पथ-प्रस्थापितेन आत्मना द्रव्यमये लिंङ्गे ममतां
वहन्ति ] जो पुरुष इस पूर्वोक्त परमार्थस्वरूप मोक्षमार्गको छोड़कर व्यवहारमोक्षमार्गमें स्थापित
अपने आत्माके द्वारा द्रव्यमय लिंगमें ममता करते हैं (अर्थात् यह मानते हैं कि यह द्रव्यलिंग ही
हमें मोक्ष प्राप्त करा देगा), [ते तत्त्व-अवबोध-च्युताः अद्य अपि समयस्य सारम् न पश्यन्ति ]
वे पुरुष तत्त्वके यथार्थ ज्ञानसे रहित होते हुए अभी तक समयके सारको (अर्थात् शुद्ध आत्माको)
नहीं देखते
अनुभव नहीं करते वह समयसार अर्थात् शुद्धात्मा कैसा है ? [नित्य-उद्योतम् ]
नित्य प्रकाशमान है (अर्थात् कोई प्रतिपक्षी होकर उसके उदयका नाश नहीं कर सकता),
[अखण्डम् ] अखण्ड है (अर्थात् जिसमें अन्य ज्ञेय आदिके निमित्त खण्ड नहीं होते), [एकम् ]
एक है (अर्थात् पर्यायोंसे अनेक अवस्थारूप होने पर भी जो एकरूपत्वको नहीं छोड़ता),
[अतुल-आलोकं ] अतुल (
उपमारहित) प्रकाशवाला है, (क्योंकि ज्ञानप्रकाशको सूर्यादिके
प्रकाशकी उपमा नहीं दी जा सकती), [स्वभाव-प्रभा-प्राग्भारं ] स्वभावप्रभाका पुंज है (अर्थात्
चैतन्यप्रकाशका समूहरूप है), [अमलं ] अमल है (अर्थात् रागादि-विकाररूपी मलसे रहित है)

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पासंडीलिंगेसु व गिहिलिंगेसु व बहुप्पयारेसु
कुव्वंति जे ममत्तिं तेहिं ण णादं समयसारं ।।४१३।।
पाषण्डिलिङ्गेषु वा गृहिलिङ्गेषु वा बहुप्रकारेषु
कुर्वन्ति ये ममत्वं तैर्न ज्ञातः समयसारः ।।४१३।।
ये खलु श्रमणोऽहं श्रमणोपासकोऽहमिति द्रव्यलिंगममकारेण मिथ्याहंकारं कुर्वन्ति,
तेऽनादिरूढव्यवहारमूढाः प्रौढविवेकं निश्चयमनारूढाः परमार्थसत्यं भगवन्तं समयसारं न
पश्यन्ति
74
(इसप्रकार, जो द्रव्यलिंगमें ममत्व करते हैं उन्हे निश्चय-कारणसमयसारका अनुभव नहीं
है; तब फि र उनको कार्यसमयसारकी प्राप्ति कहाँसे होगी ?)।२४१।
अब, इस अर्थकी गाथा कहते हैं :
बहुभांतिके मुनिलिंग जो अथवा गृहस्थीलिंग जो
ममता करे, उनने नहीं जाना ‘समयके सार’ को।।४१३।।
गाथार्थ :[ये ] जो [बहुप्रकारेषु ] बहुत प्रकारके [पाषण्डिलिङ्गेषु वा ] मुनिलिंगोंमें
[गृहिलिङ्गेषु वा ] अथवा गृहस्थलिंगोंमें [ममत्वं कुर्वन्ति ] ममता करते हैं (अर्थात् यह मानते हैं
कि यह द्रव्यलिंग ही मोक्षका दाता है), [तैः समयसारः न ज्ञातः ] उन्होंने समयसारको नहीं जाना
टीका :जो वास्तवमें ‘मैं श्रमण हूँ, मैं श्रमणोपासक (श्रावक) हूँ’ इसप्रकार
द्रव्यलिंगमें ममत्वभावके द्वारा मिथ्या अहंकार करते हैं, वे अनादिरूढ़ (अनादिकालसे समागत)
व्यवहारमें मूढ़ (मोही) होते हुए, प्रौढ़ विवेकवाले निश्चय (
निश्चयनय) पर आरूढ़ न होते हुए,
परमार्थसत्य (जो परमार्थसे सत्यार्थ है ऐसे) भगवान समयसारको नहीं देखतेअनुभव नहीं
करते
भावार्थ :अनादिकालीन परद्रव्यके संयोगसे होनेवाले व्यवहार ही में जो पुरुष मूढ़
अर्थात् मोहित हैं, वे यह मानते हैं कि ‘यह बाह्य महाव्रतादिरूप वेश ही हमें मोक्ष प्राप्त करा देगा’,
परन्तु जिससे भेदज्ञान होता है ऐसे निश्चयको वे नहीं जानते
ऐसे पुरुष सत्यार्थ, परमात्मरूप,
शुद्धज्ञानमय समयसारको नहीं देखते।।४१३।।
अब, इसी अर्थका कलशरूप काव्य कहते हैं :

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(वियोगिनी)
व्यवहारविमूढद्रष्टयः परमार्थं कलयन्ति नो जनाः
तुषबोधविमुग्धबुद्धयः कलयन्तीह तुषं न तण्डुलम् ।।२४२।।
(स्वागता)
द्रव्यलिंगममकारमीलितै-
द्रर्श्यते समयसार एव न
द्रव्यलिंगमिह यत्किलान्यतो
ज्ञानमेकमिदमेव हि स्वतः
।।२४३।।
श्लोकार्थ :[व्यवहार-विमूढ-दृष्टयः जनाः परमार्थ नो कलयन्ति ] जिनकी दृष्टि
(बुद्धि) व्यवहारमें ही मोहित है ऐसे पुरुष परमार्थको नहीं जानते, [इह तुष-बोध-विमुग्ध-
बुद्धयः तुषं कलयन्ति, न तण्डुलम् ]
जैसे जगतमें जिनकी बुद्धि तुषके ज्ञानमें ही मोहित है
(
मोहको प्राप्त हुई है) ऐसे पुरुष तुषको ही जानते हैं, तंदुल (चावल) को नहीं जानते
भावार्थ :जो धानके छिलकों पर ही मोहित हो रहे हैं, उन्हींको कूटते रहते हैं,
उन्होंने चावलोंको जाना ही नहीं है; इसीप्रकार जो द्रव्यलिंग आदि व्यवहारमें मुग्ध हो रहे हैं
(अर्थात् जो शरीरादिकी क्रियामें ममत्व किया करते हैं), उन्होंने शुद्धात्मानुभवनरूप परमार्थको
जाना नहीं है; अर्थात् ऐसे जीव शरीरादि परद्रव्यको ही आत्मा जानते हैं, वे परमार्थ आत्माके
स्वरूपको जानते ही नहीं
।२४२।
अब, आगामी गाथाका सूचक काव्य कहते हैं :
श्लोकार्थ :[द्रव्यलिङ्ग-ममकार-मीलितैः समयसारः एव न दृश्यते ] जो द्रव्यलिंगमें
ममकारके द्वारा अंधविवेक रहित हैं, वे समयसारको ही नहीं देखते; [यत् इह द्रव्यलिंगम्
किल अन्यतः ] क्योंकि इस जगतमें द्रव्यलिंग तो वास्तवमें अन्य द्रव्यसे होता है, [इदम्
ज्ञानम् एव हि एकम् स्वतः ]
मात्र यह ज्ञान ही निजसे (आत्मद्रव्यसे) होता है
भावार्थ :जो द्रव्यलिंगमें ममत्वके द्वारा अंध है उन्हें शुद्धात्मद्रव्यका अनुभव ही
नहीं है, क्योंकि वे व्यवहारको ही परमार्थ मानते हैं, इसलिये परद्रव्यको ही आत्मद्रव्य मानते
हैं
।२४३।

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ववहारिओ पुण णओ दोण्णि वि लिंगाणि भणदि मोक्खपहे
णिच्छयणओ ण इच्छदि मोक्खपहे सव्वलिंगाणि ।।४१४।।
व्यावहारिकः पुनर्नयो द्वे अपि लिङ्गे भणति मोक्षपथे
निश्चयनयो नेच्छति मोक्षपथे सर्वलिङ्गानि ।।४१४।।
यः खलु श्रमणश्रमणोपासकभेदेन द्विविधं द्रव्यलिंगंं भवति मोक्षमार्ग इति प्ररूपणप्रकारः
स केवलं व्यवहार एव, न परमार्थः, तस्य स्वयमशुद्धद्रव्यानुभवनात्मकत्वे सति परमार्थत्वा-
भावात्; यदेव श्रमणश्रमणोपासकविकल्पातिक्रान्तं
द्रशिज्ञप्तिप्रवृत्तवृत्तिमात्रं शुद्धज्ञानमेवैकमिति
निस्तुषसंचेतनं परमार्थः, तस्यैव स्वयं शुद्धद्रव्यानुभवनात्मकत्वे सति परमार्थत्वात् ततो ये
व्यवहारमेव परमार्थबुद्धया चेतयन्ते, ते समयसारमेव न संचेतयन्ते; य एव परमार्थं परमार्थबुद्धया
‘व्यवहारनय ही मुनिलिंगको और श्रावकलिंगकोदोनोंको मोक्षमार्ग कहता है, निश्चयनय
किसी लिंगको मोक्षमार्ग नहीं कहता’यह गाथा द्वारा कहते हैं :
व्यवहारनय, इन लिंग द्वयको मोक्षके पथमें कहे
निश्चय नहीं माने कभी को लिंग मुक्तीपंथमें।।४१४।।
गाथार्थ :[व्यावहारिकः नयः पुनः ] व्यवहारनय [द्वे लिङ्गे अपि ] दोनों लिंगोंको
[मोक्षपथे भणति ] मोक्षमार्गमें कहता है (अर्थात् व्यवहारनय मुनिलिंग और गृहीलिंगको मोक्षमार्ग
कहता है); [निश्चयनयः ] निश्चयनय [सर्वलिङ्गानि ] सभी लिंगोंको (अर्थात् किसी भी लिंगको)
[मोक्षपथे न इच्छति ] मोक्षमार्गमें नहीं मानता
टीका :श्रमण और श्रमणोपासकके भेदसे दो प्रकारके द्रव्यलिंग मोक्षमार्ग हैं
इसप्रकारका जो प्ररूपण-प्रकार (अर्थात् इसप्रकारकी जो प्ररूपणा) वह केवल व्यवहार ही है,
परमार्थ नहीं, क्योंकि वह (प्ररूपणा) स्वयं अशुद्ध द्रव्यकी अनुभवनस्वरूप है, इसलिये उसको
परमार्थताका अभाव है; श्रमण और श्रमणोपासकके भेदोंसे अतिक्रान्त, दर्शनज्ञानमें प्रवृत्त
परिणतिमात्र (
मात्र दर्शन-ज्ञानमें प्रवर्तित हुई परिणतिरूप) शुद्ध ज्ञान ही एक हैऐसा जो निष्तुष
(निर्मल) अनुभवन ही परमार्थ है, क्योंकि वह (अनुभवन) स्वयं शुद्ध द्रव्यका अनुभवनस्वरूप
होनेसे उसीके परमार्थत्व है इसलिये जो व्यवहारको ही परमार्थबुद्धिसे (परमार्थ मानकर)
अनुभव करते हैं, वे समयसारका ही अनुभव नहीं करते; जो परमार्थको परमार्थबुद्धिसे अनुभव करते