Samaysar (Hindi). Gatha: 43-55 ; Kalash: 34-36.

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एवंविहा बहुविहा परमप्पाणं वदंति दुम्मेहा
ते ण परमट्ठवादी णिच्छयवादीहिं णिद्दिट्ठा ।।४३।।
आत्मानमजानन्तो मूढास्तु परात्मवादिनः केचित
जीवमध्यवसानं कर्म च तथा प्ररूपयन्ति ।।३९।।
अपरेऽध्यवसानेषु तीव्रमन्दानुभागगं जीवम
मन्यन्ते तथाऽपरे नोकर्म चापि जीव इति ।।४०।।
कर्मण उदयं जीवमपरे कर्मानुभागमिच्छन्ति
तीव्रत्वमन्दत्वगुणाभ्यां यः स भवति जीवः ।।४१।।
जीवकर्मोभयं द्वे अपि खलु केचिज्जीवमिच्छन्ति
अपरे संयोगेन तु कर्मणां जीवमिच्छन्ति ।।४२।।
एवंविधा बहुविधाः परमात्मानं वदन्ति दुर्मेधसः
ते न परमार्थवादिनः निश्चयवादिभिर्निर्दिष्टाः ।।४३।।
दुर्बुद्धि यों ही और बहुविध, आतमा परको कहै
वे सर्व नहिं परमार्थवादी ये हि निश्चयविद् कहै ।।४३।।
गाथार्थ :[आत्मानम् अजानन्तः ] आत्माको न जानते हुए [परात्मवादिनः ] परको
आत्मा कहनेवाले [केचित् मूढाः तु ] कोई मूढ़, मोही, अज्ञानी तो [अध्यवसानं ] अध्यवसानको
[तथा च ] और कोई [कर्म ] कर्मको [जीवम् प्ररूपयन्ति ] जीव कहते हैं
[अपरे ] अन्य
कोई [अध्यवसानेषु ] अध्यवसानोंमें [तीव्रमन्दानुभागगं ] तीव्रमन्द अनुभागगतको [जीवं
मन्यन्ते ]
जीव मानते हैं [तथा ] और [अपरे ] दूसरे कोई [नोकर्म अपि च ] नोकर्मको [जीवः
इति ]
जीव मानते हैं
[अपरे ] अन्य कोई [कर्मणः उदयं ] कर्मके उदयको [जीवम् ] जीव
मानते हैं, कोई ‘[यः ] जो [तीव्रत्वमन्दत्वगुणाभ्यां ] तीव्रमन्दतारूप गुणोंसे भेदको प्राप्त होता
है [सः ] वह [जीवः भवति ] जीव है’ इसप्रकार [कर्मानुभागम् ] कर्मके अनुभागको
[इच्छन्ति ] जीव इच्छते हैं (
मानते हैं) [केचित् ] कोई [जीवकर्मोभयं ] जीव और कर्म
[द्वे अपि खलु ] दोनों मिले हुएको ही [जीवम् इच्छन्ति ] जीव मानते हैं [तु ] और [अपरे ]
अन्य कोई [ कर्मणां संयोगेन ] कर्मके संयोगसे ही [जीवम् इच्छन्ति ] जीव मानते हैं
[एवंविधाः ] इसप्रकारके तथा [बहुविधाः ] अन्य भी अनेक प्रकारके [दुर्मेधसः ] दुर्बुद्धि-

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इह खलु तदसाधारणलक्षणाकलनात्क्लीबत्वेनात्यन्तविमूढाः सन्तस्तात्त्विकमात्मान-
मजानन्तो बहवो बहुधा परमप्यात्मानमिति प्रलपन्ति नैसर्गिकरागद्वेषकल्माषित-
मध्यवसानमेव जीवस्तथाविधाध्यवसानात् अंगारस्येव कार्ष्ण्यादतिरिक्तत्वेनान्यस्यानुप-
लभ्यमानत्वादिति केचित अनाद्यनन्तपूर्वापरीभूतावयवैकसंसरणक्रियारूपेण क्रीडत्कर्मैव
जीवः कर्मणोऽतिरिक्तत्वेनान्यस्यानुपलभ्यमानत्वादिति केचित तीव्रमन्दानुभवभिद्यमानदुरंत-
रागरसनिर्भराध्यवसानसंतान एव जीवस्ततोऽतिरिक्तस्यान्यस्यानुपलभ्यमानत्वादिति केचित
नवपुराणावस्थादिभावेन प्रवर्तमानं नोकर्मैव जीवः शरीरादतिरिक्तत्वेनान्यस्यानु-
पलभ्यमानत्वादिति केचित
विश्वमपि पुण्यपापरूपेणाक्रामन् कर्मविपाक एव जीवः
शुभाशुभभावादतिरिक्तत्वेनान्यस्यानुपलभ्यमानत्वादिति केचित सातासातरूपेणाभि-
व्याप्तसमस्ततीव्रमन्दत्वगुणाभ्यां भिद्यमानः कर्मानुभव एव जीवः सुखदुःखातिरिक्तत्वे-
12
मिथ्यादृष्टि जीव [परम् ] परको [आत्मानं ] आत्मा [वदन्ति ] कहते हैं [ते ] उन्हें
[निश्चयवादिभिः ] निश्चयवादियोंने (सत्यार्थवादियोंने) [परमार्थवादिनः ] परमार्थवादी
(सत्यार्थवक्ता) [न निर्दिष्टाः ] नहीं कहा है
टीका :इस जगतमें आत्माका असाधारण लक्षण न जाननेके कारण नपुंसकतासे
अत्यन्त विमूढ़ होते हुए, तात्त्विक (परमार्थभूत) आत्माको न जाननेवाले बहुतसे अज्ञानी जन
अनेक प्रकारसे परको भी आत्मा कहते हैं, बकते हैं
कोई तो ऐसा कहते हैं कि स्वाभाविक
अर्थात् स्वयमेव उत्पन्न हुए राग-द्वेषके द्वारा मलिन जो अध्यवसान (अर्थात् मिथ्या अभिप्राय
युक्त विभावपरिणाम) वह ही जीव है, क्योंकि जैसे कालेपनसे अन्य अलग कोई कोयला
दिखाई नहीं देता उसीप्रकार तथाविध अध्यवसानसे भिन्न अन्य कोई आत्मा दिखाई नहीं
देता
।१। कोई कहते हैं कि अनादि जिसका पूर्व अवयव है और अनन्त जिसका भविष्यका
अवयव है ऐसी एक संसरणरूप (भ्रमणरूप) जो क्रिया है उसरूपसे क्रीड़ा करता हुआ
कर्म ही जीव है, क्योंकि कर्मसे भिन्न अन्य कोई जीव दिखाई नहीं देता
।२। कोई कहते
हैं कि तीव्र-मन्द अनुभवसे भेदरूप होनेवाले, दुरन्त (जिसका अन्त दूर है ऐसा) रागरूप
रससे भरे हुए अध्यवसानोंकी सन्तति (परिपाटी) ही जीव है, क्योंकि उससे अन्य अलग
कोई जीव दिखाई नहीं देता
।३। कोई कहते हैं कि नई और पुरानी अवस्था इत्यादि भावसे
प्रवर्तमान नोकर्म ही जीव है, क्योंकि शरीरसे अन्य अलग कोई जीव दिखाई नहीं देता ।४।
कोई यह कहते हैं कि समस्त लोकको पुण्यपापरूपसे व्याप्त करता हुआ कर्मका विपाक
ही जीव है, क्योंकि शुभाशुभ भावसे अन्य अलग कोई जीव दिखाई नहीं देता
।५। कोई

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नान्यस्यानुपलभ्यमानत्वादिति केचित् मज्जितावदुभयात्मकत्वादात्मकर्मोभयमेव जीवः कार्त्स्न्यतः
कर्मणोऽतिरिक्तत्वेनान्यस्यानुपलभ्यमानत्वादिति केचित् अर्थक्रियासमर्थः कर्मसंयोग एव जीवः
कर्मसंयोगात्खट्वाया इव अष्टकाष्ठसंयोगादतिरिक्तत्वेनान्यस्यानुपलभ्यमानत्वादिति केचित्
एवमेवंप्रकारा इतरेऽपि बहुप्रकाराः परमात्मेति व्यपदिशन्ति दुर्मेधसः, किन्तु न ते
परमार्थवादिभिः परमार्थवादिन इति निर्दिश्यन्ते
कुतः
कहते हैं कि साता-असातारूपसे व्याप्त समस्त तीव्रमन्दत्वगुणोंसे भेदरूप होनेवाला कर्मका
अनुभव ही जीव है, क्योंकि सुखःदुखसे अन्य अलग कोई जीव दिखाई नहीं देता
।६। कोई
कहते हैं कि श्रीखण्डकी भाँति उभयरूप मिले हुए आत्मा और कर्म, दोनों मिलकर ही जीव
हैं, क्योंकि सम्पूर्णतया कर्मोंसे भिन्न अलग कोई जीव दिखाई नहीं देता
।७। कोई कहते हैं
कि अर्थक्रियामें (प्रयोजनभूत क्रियामें) समर्थ ऐसा जो कर्मका संयोग वह ही जीव है,
क्योंकि जैसे आठ लकड़ियोंके संयोगसे भिन्न अलग कोई पलंग दिखाई नहीं देता इसी प्रकार
कर्मोंके संयोगसे अन्य अलग कोई जीव दिखाई नहीं देता
(आठ लकड़ियां मिलकर पलंग
बना तब वह अर्थक्रियामें समर्थ हुआ; इसीप्रकार यहाँ भी जानना ) ।८। इसप्रकार आठ
प्रकार तो यह कहे और ऐसे ऐसे अन्य भी अनेक प्रकारके दुर्बुद्धि (विविध प्रकारसे) परको
आत्मा कहते हैं; परन्तु परमार्थके ज्ञाता उन्हें सत्यार्थवादी नहीं कहते
भावार्थ :जीव-अजीव दोनों अनादिकालसे एकक्षेत्रावगाहसंयोगरूपसे मिले हुए हैं,
और अनादिकालसे ही पुद्गलके संयोगसे जीवकी अनेक विकारसहित अवस्थायें हो रही हैं
परमार्थदृष्टिसे देखने पर, जीव तो अपने चैतन्यत्व आदि भावोंको नहीं छोड़ता और पुद्गल
अपने मूर्तिक जड़त्व आदिको नहीं छोड़ता
परन्तु जो परमार्थको नहीं जानते वे संयोगसे
हुए भावोंको ही जीव कहते हैं; क्योंकि परमार्थसे जीवका स्वरूप पुद्गलसे भिन्न सर्वज्ञको
दिखाई देता है तथा सर्वज्ञकी परम्पराके आगमसे जाना जा सकता है, इसलिये जिनके मतमें
सर्वज्ञ नहीं हैं वे अपनी बुद्धिसे अनेक कल्पनायें करके कहते हैं
उनमेंसे वेदान्ती, मीमांसक,
सांख्य, योग, बौद्ध, नैयायिक, वैशेषिक, चार्वाक आदि मतोंके आशय लेकर आठ प्रकार
तो प्रगट कहे हैं; और अन्य भी अपनी-अपनी बुद्धिसे अनेक कल्पनायें करके अनेक
प्रकारसे कहते हैं सो कहाँ तक कहा जाये ?
३९ से ४३।।
ऐसा कहनेवाले सत्यार्थवादी क्यों नहीं हैं सो कहते हैं :

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एदे सव्वे भावा पोग्गलदव्वपरिणामणिप्पण्णा
केवलिजिणेहिं भणिया कह ते जीवो त्ति वुच्चंति ।।४४।।
एते सर्वे भावाः पुद्गलद्रव्यपरिणामनिष्पन्नाः
केवलिजिनैर्भणिताः कथं ते जीव इत्युच्यन्ते ।।४४।।
यतः एतेऽध्यवसानादयः समस्ता एव भावा भगवद्भिर्विश्वसाक्षिभिरर्हद्भिः
पुद्गलद्रव्यपरिणाममयत्वेन प्रज्ञप्ताः सन्तश्चैतन्यशून्यात्पुद्गलद्रव्यादतिरिक्तत्वेन प्रज्ञाप्यमानं
चैतन्यस्वभावं जीवद्रव्यं भवितुं नोत्सहन्ते; ततो न खल्वागमयुक्तिस्वानुभवैर्बाधितपक्षत्वात्त-
दात्मवादिनः परमार्थवादिनः
एतदेव सर्वज्ञवचनं तावदागमः इयं तु स्वानुभवगर्भिता युक्तिः
न खलु नैसर्गिकरागद्वेषकल्माषितमध्यवसानं जीवः तथाविधाध्यवसानात् कार्तस्वरस्येव श्यामिकाया
अतिरिक्तत्वेनान्यस्य चित्स्वभावस्य विवेचकैः स्वयमुपलभ्यमानत्वात्
न खल्वना-
पुद्गलदरव परिणामसे उपजे हुए सब भाव ये
सब केवलीजिन भाषिया, किस रीत जीव कहो उन्हें ? ४४
।।
गाथार्थ :[एते ] यह पूर्वकथित अध्यवसान आदि [सर्वे भावाः ] भाव हैं वे सभी
[पुद्गलद्रव्यपरिणामनिष्पन्नाः ] पुद्गलद्रव्यके परिणामसे उत्पन्न हुए हैं इसप्रकार [केवलिजिनैः ]
केवली सर्वज्ञ जिनेन्द्रदेवोंने [भणिताः ] कहा है [ते ] उन्हें [जीवः इति ] जीव ऐसा [कथं
उच्यन्ते ]
कैसे कहा जा सकता है ?
टीका :यह समस्त ही अध्यवसानादि भाव, विश्वके (समस्त पदार्थोंके) साक्षात्
देखनेवाले भगवान (वीतराग सर्वज्ञ) अरहंतदेवोंके द्वारा पुद्गलद्रव्यके परिणाममय कहे गये
हैं इसलिये, वे चैतन्यस्वभावमय जीवद्रव्य होनेके लिये समर्थ नहीं हैं कि जो जीवद्रव्य
चैतन्यभावसे शून्य ऐसे पुद्गलद्रव्यसे अतिरिक्त (भिन्न) कहा गया है; इसलिये जो इन
अध्यवसानादिकको जीव कहते हैं वे वास्तवमें परमार्थवादी नहीं हैं; क्योंकि आगम, युक्ति
और स्वानुभवसे उनका पक्ष बाधित है
उसमें, ‘वे जीव नहीं हैं ’ यह सर्वज्ञका वचन है
वह तो आगम है और वह (निम्नोक्त) स्वानुभवगर्भित युक्ति है :स्वयमेव उत्पन्न हुए
राग-द्वेषके द्वारा मलिन अध्यवसान हैं वे जीव नहीं है; क्योंकि, कालिमासे भिन्न सुवर्णकी
भांति, तथाविध अध्यवसानसे भिन्न अन्य चित्स्वभावरूप जीव भेदज्ञानियोंके द्वारा स्वयं

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द्यनन्तपूर्वापरीभूतावयवैकसंसरणलक्षणक्रियारूपेण क्रीडत्कर्मैव जीवः कर्मणोऽतिरिक्तत्वेनान्यस्य
चित्स्वभावस्य विवेचकैः स्वयमुपलभ्यमानत्वात्
न खलु तीव्रमन्दानुभवभिद्यमानदुरन्तरागरस-
निर्भराध्यवसानसन्तानो जीवस्ततोऽतिरिक्तत्वेनान्यस्य चित्स्वभावस्य विवेचकैः स्वयमुपलभ्य-
मानत्वात्
न खलु नवपुराणावस्थादिभेदेन प्रवर्तमानं नोकर्म जीवः शरीरादतिरिक्तत्वेनान्यस्य
चित्स्वभावस्य विवेचकैः स्वयमुपलभ्यमानत्वात् न खलु विश्वमपि पुण्यपापरूपेणाक्रामन
कर्मविपाको जीवः शुभाशुभभावादतिरिक्तत्वेनान्यस्य चित्स्वभावस्य विवेचकैः स्वयमुपलभ्य-
मानत्वात्
न खलु सातासातरूपेणाभिव्याप्तसमस्ततीव्रमन्दत्वगुणाभ्यां भिद्यमानः कर्मानुभवो जीवः
सुखदुःखातिरिक्तत्वेनान्यस्य चित्स्वभावस्य विवेचकैः स्वयमुपलभ्यमानत्वात् न खलु मज्जिताव-
दुभयात्मकत्वादात्मकर्मोभयं जीवः कार्त्स्न्यतः कर्मणोऽतिरिक्तत्वेनान्यस्य चित्स्वभावस्य विवेचकैः
उपलभ्यमान है अर्थात् वे चैतन्यभावको प्रत्यक्ष भिन्न अनुभव करते हैं ।१। अनादि जिसका
पूर्व अवयव है और अनन्त जिसका भविष्यका अवयव है ऐसी एक संसरणरूप क्रियाके
रूपमें क्रीड़ा करता हुआ कर्म भी जीव नहीं है; क्योंकि कर्मसे भिन्न अन्य चैतन्यभावस्वरूप
जीव भेदज्ञानियोंके द्वारा स्वयं उपलभ्यमान है अर्थात् वे उसका प्रत्यक्ष अनुभव करते हैं
।२।
तीव्र-मन्द अनुभवसे भेदरूप होनेवाले, दुरन्त रागरससे भरे हुए अध्यवसानोंकी संतति भी जीव
नहीं है; क्योंकि उस संततिसे भिन्न अन्य चैतन्यभावरूप जीव भेदज्ञानियोंके द्वारा स्वयं
उपलभ्यमान है अर्थात् वे उसका प्रत्यक्ष अनुभव करते हैं
।३। नई-पुरानी अवस्थादिकके भेदसे
प्रवर्तमान नोकर्म भी जीव नहीं है; क्योंकि शरीरसे भिन्न अन्य चैतन्यस्वभावरूप जीव
भेदज्ञानियोंके द्वारा स्वयं उपलभ्यमान है अर्थात् वे उसे प्रत्यक्ष अनुभव करते हैं
।४। समस्त
जगतको पुण्य-पापरूपसे व्याप्त करता कर्मविपाक भी जीव नहीं है; क्योंकि शुभाशुभ भावसे
भिन्न अन्य चैतन्यस्वभावरूप जीव भेदज्ञानियोंके द्वारा स्वयं उपलभ्यमान है अर्थात् वे स्वयं
उसका प्रत्यक्ष अनुभव करते हैं
।५। साता-असातारूपसे व्याप्त समस्त तीव्रमन्दतारूप गुणोंके
द्वारा भेदरूप होनेवाला कर्मका अनुभव भी जीव नहीं है; क्योंकि सुख-दुःखसे भिन्न अन्य
चैतन्यस्वभावरूप जीव भेदज्ञानियोंके द्वारा स्वयं उपलभ्यमान है अर्थात् वे स्वयं उसका प्रत्यक्ष
अनुभव करते हैं
।६। श्रीखण्डकी भाँति उभयात्मकरूपसे मिले हुए आत्मा और कर्म दोनों
मिलकर भी जीव नहीं हैं; क्योंकि सम्पूर्णतया कर्मोंसे भिन्न अन्य चैतन्यस्वभावरूप जीव
भेदज्ञानियोंके द्वारा स्वयं उपलभ्यमान हैं अर्थात् वे स्वयं उसका प्रत्यक्ष अनुभव करते हैं
।७।
अर्थक्रियामें समर्थ कर्मका संयोग भी जीव नहीं है क्योंकि, आठ लकड़ियोंके संयोगसे (-
पलंगसे) भिन्न पलंग पर सोनेवाले पुरुषकी भांति, कर्मसंयोगसे भिन्न अन्य चैतन्यस्वभावरूप
जीव भेदज्ञानियोंके द्वारा स्वयं उपलभ्यमान है अर्थात् वे स्वयं उसका प्रत्यक्ष अनुभव करते

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स्वयमुपलभ्यमानत्वात् न खल्वर्थक्रियासमर्थः कर्मसंयोगो जीवः कर्मसंयोगात् खट्वाशायिनः
पुरुषस्येवाष्टकाष्ठसंयोगादतिरिक्तत्वेनान्यस्य चित्स्वभावस्य विवेचकैः स्वयमुपलभ्यमानत्वादिति
इह खलु पुद्गलभिन्नात्मोपलब्धिं प्रति विप्रतिपन्नः साम्नैवैवमनुशास्यः
(मालिनी)
विरम किमपरेणाकार्यकोलाहलेन
स्वयमपि निभृतः सन
् पश्य षण्मासमेकम्
हृदयसरसि पुंसः पुद्गलाद्भिन्नधाम्नो
ननु किमनुपलब्धिर्भाति किंचोपलब्धिः
।।३४।।
हैं ।८। (इसीप्रकार अन्य कोई दूसरे प्रकारसे कहे तो वहाँ भी यही युक्ति जानना )
भावार्थ :चैतन्यस्वभावरूप जीव, सर्व परभावोंसे भिन्न, भेदज्ञानियोंके गोचर हैं;
इसलिए अज्ञानी जैसा मानते हैं वैसा नहीं है ।।४४।।
यहाँ पुद्गलसे भिन्न आत्माकी उपलब्धिके प्रति विरोध करनेवाले (पुद्गलको ही
आत्मा जाननेवाले) पुरुषको (उसके हितरूप आत्मप्राप्तिकी बात कहकर) मिठासपूर्वक (और
समभावसे) ही इसप्रकार उपदेश करना यह काव्यमें बतलाते हैं :
श्लोकार्थ :हे भव्य ! तुझे [अपरेण ] अन्य [अकार्य-कोलाहलेन ] व्यर्थ ही
कोलाहल करनेसे [किम् ] क्या लाभ है ? तू [विरम ] इस कोलाहलसे विरक्त हो और
[एकम् ] एक चैतन्यमात्र वस्तुको [स्वयम् अपि ] स्वयं [निभृतः सन् ] निश्चल लीन होकर
[पश्य षण्मासम् ] देख; ऐसा छह मास अभ्यास कर और देख कि ऐसा करनेसे [हृदय-
सरसि ]
अपने हृदयसरोवरमें, [पुद्गलात् भिन्नधाम्नः ] जिसका तेज-प्रताप-प्रकाश पुद्गलसे
भिन्न है ऐसे उस [पुंसः ] आत्माकी [ननु किम् अनुपलब्धिः भाति ] प्राप्ति नहीं होती है [किं
च उपलब्धिः ]
या होती है ?
भावार्थ :यदि अपने स्वरूपका अभ्यास करे तो उसकी प्राप्ति अवश्य होती है;
यदि परवस्तु हो तो उसकी तो प्राप्ति नहीं होती अपना स्वरूप तो विद्यमान है, किन्तु उसे
भूल रहा है; यदि सावधान होकर देखे तो वह अपने निकट ही है यहाँ छह मासके
अभ्यासकी बात कही है इसका अर्थ यह नहीं समझना चाहिए कि इतना ही समय लगेगा
उसकी प्राप्ति तो अन्तर्मुहूर्तमात्रमें ही हो सकती है, परन्तु यदि शिष्यको बहुत कठिन मालूम

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कथं चिदन्वयप्रतिभासेऽप्यध्यवसानादयः पुद्गलस्वभावा इति चेत्
अट्ठविहं पि य कम्मं सव्वं पोग्गलमयं जिणा बेंति
जस्स फलं तं वुच्चदि दुक्खं ति विपच्चमाणस्स ।।४५।।
अष्टविधमपि च कर्म सर्वं पुद्गलमयं जिना ब्रुवन्ति
यस्य फलं तदुच्यते दुःखमिति विपच्यमानस्य ।।४५।।
अध्यवसानादिभावनिर्वर्तकमष्टविधमपि च कर्म समस्तमेव पुद्गलमयमिति किल सकलज्ञ-
ज्ञप्तिः तस्य तु यद्विपाककाष्ठामधिरूढस्य फलत्वेनाभिलप्यते तदनाकुलत्वलक्षणसौख्याख्यात्म-
स्वभावविलक्षणत्वात्किल दुःखम् तदन्तःपातिन एव किलाकुलत्वलक्षणा अध्यवसानादिभावाः
होता हो तो उसका निषेध किया है यदि समझनेमें अधिक काल लगे तो छह माससे
अधिक नहीं लगेगा; इसलिए अन्य निष्प्रयोजन कोलाहलका त्याग करके इसमें लग जानेसे
शीघ्र ही स्वरूपकी प्राप्ति हो जायगी ऐसा उपदेश है
।३४।
अब शिष्य पूछता है कि इन अध्यवसानादि भावोंको जीव नहीं कहा, अन्य
चैतन्यस्वभावको जीव कहा; तो यह भाव भी चैतन्यके साथ सम्बन्ध रखनेवाले प्रतिभासित
होते हैं, (वे चैतन्यके अतिरिक्त जड़के तो दिखाई नहीं देते) तथापि उन्हें पुद्गलके स्वभाव
क्यों कहा ? उसके उत्तरस्वरूप गाथासूत्र कहते हैं :
रे ! कर्म अष्ट प्रकारका जिन सर्व पुद्गलमय कहे,
परिपाकमें जिस कर्मका फल दुःख नाम प्रसिद्ध है
।।४५।।
गाथार्थ :[अष्टविधम् अपि च ] आठों प्रकारका [कर्म ] कर्म [सर्वं ] सब
[पुद्गलमयं ] पुद्गलमय है ऐसा [जिनाः ] जिनेन्द्रभगवान सर्वज्ञदेव [ब्रुवन्ति ] कहते हैं[यस्य
विपच्यमानस्य ] जिस पक्व होकर उदयमें आनेवाले कर्मका [फलं ] फल [तत् ] प्रसिद्ध
[दुःखम् ] दुःख है [इति उच्यते ] ऐसा कहा है
टीका :अध्यवसानादि समस्त भावोंको उत्पन्न करनेवाला जो आठों प्रकारका
ज्ञानावरणादि कर्म है वह सभी पुद्गलमय है ऐसा सर्वज्ञका वचन है विपाककी मर्यादाको प्राप्त
उस कर्मके फलरूपसे जो कहा जाता है वह (अर्थात् कर्मफल), अनाकुलतालक्षणसुखनामक
आत्मस्वभावसे विलक्षण है इसलिए, दुःख है उस दुःखमें ही आकुलतालक्षण अध्यवसानादि भाव

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ततो न ते चिदन्वयविभ्रमेऽप्यात्मस्वभावाः, किन्तु पुद्गलस्वभावाः
यद्यध्यवसानादयः पुद्गलस्वभावास्तदा कथं जीवत्वेन सूचिता इति चेत्
ववहारस्स दरीसणमुवएसो वण्णिदो जिणवरेहिं
जीवा एदे सव्वे अज्झवसाणादओ भावा ।।४६।।
व्यवहारस्य दर्शनमुपदेशो वर्णितो जिनवरैः
जीवा एते सर्वेऽध्यवसानादयो भावाः ।।४६।।
सर्वे एवैतेऽध्यवसानादयो भावाः जीवा इति यद्भगवद्भिः सकलज्ञैः प्रज्ञप्तं तदभूतार्थस्यापि
व्यवहारस्यापि दर्शनम् व्यवहारो हि व्यवहारिणां म्लेच्छभाषेव म्लेच्छानां परमार्थप्रतिपादकत्वाद-
परमार्थोऽपि तीर्थप्रवृत्तिनिमित्तं दर्शयितुं न्याय्य एव तमन्तरेण तु शरीराज्जीवस्य परमार्थतो
समाविष्ट हो जाते हैं; इसलिये, यद्यपि वे चैतन्यके साथ सम्बन्ध होनेका भ्रम उत्पन्न करते हैं तथापि,
वे आत्मस्वभाव नहीं हैं, किन्तु पुद्गलस्वभाव हैं
भावार्थ :जब कर्मोदय आता है तब यह आत्मा दुःखरूप परिणमित होता है और
दुःखरूप भाव है वह अध्यवसान है, इसलिये दुःखरूप भावमें (अध्यवसानमें) चेतनताका भ्रम
उत्पन्न होता है परमार्थसे दुःखरूप भाव चेतन नहीं है, कर्मजन्य है इसलिये जड़ ही है ।।४५।।
अब प्रश्न होता है कि यदि अध्यवसानादि भाव हैं वे पुद्गलस्वभाव हैं तो सर्वज्ञके आगममें
उन्हें जीवरूप क्यों कहा गया है ? उसके उत्तरस्वरूप गाथासूत्र कहते हैं :
व्यवहार यह दिखला दिया जिनदेवके उपदेशमें,
ये सर्व अध्यवसान आदिक भावको जँह जिव कहे
।।४६।।
गाथार्थ :[एते सर्वे ] यह सब [अध्यवसानादयः भावाः ] अध्यवसानादि भाव
[जीवाः ] जीव हैं इसप्रकार [जिनवरैः ] जिनवरोंने [उपदेशः वर्णितः ] जो उपदेश दिया है सो
[व्यवहारस्य दर्शनम् ] व्यवहारनय दिखाया है
टीका :यह सब ही अध्यवसानादि भाव जीव हैं ऐसा जो भगवान सर्वज्ञदेवोंने
कहा है वह, यद्यपि व्यवहारनय अभूतार्थ है तथापि, व्यवहारनयको भी बताया है; क्योंकि जैसे
म्लेच्छभाषा म्लेच्छोंको वस्तुस्वरूप बतलाती है उसीप्रकार व्यवहारनय व्यवहारी जीवोंको

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भेददर्शनात्त्रसस्थावराणां भस्मन इव निःशंक मुपमर्दनेन हिंसाऽभावाद्भवत्येव बन्धस्याभावः तथा
रक्तद्विष्टविमूढो जीवो बध्यमानो मोचनीय इति रागद्वेषमोहेभ्यो जीवस्य परमार्थतो भेददर्शनेन
मोक्षोपायपरिग्रहणाभावात् भवत्येव मोक्षस्याभावः
अथ केन दृष्टान्तेन प्रवृत्तो व्यवहार इति चेत्
राया हु णिग्गदो त्ति य एसो बलसमुदयस्स आदेसो
ववहारेण दु वुच्चदि तत्थेक्को णिग्गदो राया ।।४७।।
परमार्थका कहनेवाला है इसलिए, अपरमार्थभूत होने पर भी, धर्मतीर्थकी प्रवृत्ति करनेके लिए
(व्यवहारनय) बतलाना न्यायसङ्गत ही है
परन्तु यदि व्यवहारनय न बताया जाये तो,
परमार्थसे (निश्चयनयसे) जीव शरीरसे भिन्न बताये जानेके कारण, जैसे भस्मको मसल देनेमें
हिंसाका अभाव है उसीप्रकार, त्रसस्थावर जीवोंको निःशंकतया मसल देनेकुचल देने (घात
करने)में भी हिंसाका अभाव ठहरेगा और इस कारण बन्धका ही अभाव सिद्ध होगा; तथा
परमार्थके द्वारा जीव रागद्वेषमोहसे भिन्न बताये जानेके कारण, ‘रागी, द्वेषी, मोही जीव कर्मसे
बँधता है उसे छुड़ाना’
इसप्रकार मोक्षके उपायके ग्रहणका अभाव हो जायेगा और इससे
मोक्षका ही अभाव होगा (इसप्रकार यदि व्यवहारनय न बताया जाय तो बन्ध-मोक्षका
अभाव ठहरता है )
भावार्थ :परमार्थनय तो जीवको शरीर तथा रागद्वेषमोहसे भिन्न कहता है यदि
इसीका एकान्त ग्रहण किया जाये तो शरीर तथा रागद्वेषमोह पुद्गलमय सिद्ध होंगे, तो फि र
पुद्गलका घात करनेसे हिंसा नहीं होगी तथा रागद्वेषमोहसे बन्ध नहीं होगा
इसप्रकार,
परमार्थसे जो संसार-मोक्ष दोनोंका अभाव कहा है एकान्तसे यह ही ठहरेगा किन्तु ऐसा
एकान्तरूप वस्तुका स्वरूप नहीं है; अवस्तुका श्रद्धान, ज्ञान, आचरण अवस्तुरूप ही है
इसलिये व्यवहारनयका उपदेश न्यायप्राप्त है इसप्रकार स्याद्वादसे दोनों नयोंका विरोध मिटाकर
श्रद्धान करना सो सम्यक्त्व है ।।४६।।
अब शिष्य पूछता है कि यह व्यवहारनय किस दृष्टान्तसे प्रवृत्त हुआ है ? उसका उत्तर
कहते हैं :
‘निर्गमन इस नृपका हुआ’निर्देश सैन्यसमूहमें,
व्यवहारसे कहलाय यह, पर भूप इसमें एक है; ।।४७।।

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एमेव य ववहारो अज्झवसाणादिअण्णभावाणं
जीवो त्ति कदो सुत्ते तत्थेक्को णिच्छिदो जीवो ।।४८।।
राजा खलु निर्गत इत्येष बलसमुदयस्यादेशः
व्यवहारेण तूच्यते तत्रैको निर्गतो राजा ।।४७।।
एवमेव च व्यवहारोऽध्यवसानाद्यन्यभावानाम्
जीव इति कृतः सूत्रे तत्रैको निश्चितो जीवः ।।४८।।
यथैष राजा पंच योजनान्यभिव्याप्य निष्क्रामतीत्येकस्य पंच योजनान्यभिव्याप्तुम-
शक्यत्वाद्वयवहारिणां बलसमुदाये राजेति व्यवहारः, परमार्थतस्त्वेक एव राजा; तथैष जीवः समग्रं
रागग्राममभिव्याप्य प्रवर्तत इत्येकस्य समग्रं रागग्राममभिव्याप्तुमशक्यत्वाद्वयवहारिणामध्यव-
सानादिष्वन्यभावेषु जीव इति व्यवहारः, परमार्थतस्त्वेक एव जीवः
13
त्यों सर्व अध्यवसान आदिक अन्यभाव जु जीव है,
शास्त्रन किया व्यवहार, पर वहां जीव निश्चय एक है ।।४८।।
गाथार्थ :जैसे कोई राजा सेनासहित निकला वहाँ [राजा खलु निर्गतः ] ‘यह राजा
निकला’ [इति एषः ] इसप्रकार जो यह [बलसमुदयस्य ] सेनाके समुदायको [आदेशः ] कहा
जाता है सो वह [व्यवहारेण तु उच्यते ] व्यवहारसे कहा जाता है, [तत्र ] उस सेनामें (वास्तवमें)
[एकः निर्गतः राजा ] राजा तो एक ही निकला है; [एवम् एव च ] उसीप्रकार
[अध्यवसानाद्यन्यभावानाम् ] अध्यवसानादि अन्यभावोंको [जीवः इति ] ‘(यह) जीव है’
इसप्रकार [सूत्रे ] परमागममें कहा है सो [व्यवहारः कृतः ] व्यवहार किया है, [तत्र निश्चितः ]
यदि निश्चयसे विचार किया जाये तो उनमें [जीवः एकः ] जीव तो एक ही है
टीका :जैसे यह कहना कि यह राजा पाँच योजनके विस्तारमें निकल रहा है सो
यह व्यवहारीजनोंका सेना समुदायमें राजा कह देनेका व्यवहार है; क्योंकि एक राजाका पाँच
योजनमें फै लना अशक्य है; परमार्थसे तो राजा एक ही है, (सेना राजा नहीं है); उसीप्रकार
यह जीव समग्र (समस्त) रागग्राममें (
रागके स्थानोंमें) व्याप्त होकर प्रवृत्त हो रहा है ऐसा
कहना वह, व्यवहारीजनोंका अध्यवसानादि अन्यभावोंमें जीव कहनेका व्यवहार है; क्योंकि एक
जीवका समग्र रागग्राममें व्याप्त होना अशक्य है; परमार्थसे तो जीव एक ही है, (अध्यवसानादिक
भाव जीव नहीं हैं)
।।४७-४८।।

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यद्येवं तर्हि किंलक्षणोऽसावेकष्टङ्कोत्कीर्णः परमार्थजीव इति पृष्टः प्राह
अरसमरूवमगंधं अव्वत्तं चेदणागुणमसद्दं
जाण अलिंगग्गहणं जीवमणिद्दिट्ठसंठाणं ।।४९।।
अरसमरूपमगन्धमव्यक्तं चेतनागुणमशब्दम्
जानीहि अलिङ्गग्रहणं जीवमनिर्दिष्टसंस्थानम् ।।४९।।
यः खलु पुद्गलद्रव्यादन्यत्वेनाविद्यमानरसगुणत्वात्, पुद्गलद्रव्यगुणेभ्यो भिन्नत्वेन
स्वयमरसगुणत्वात्, परमार्थतः पुद्गलद्रव्यस्वामित्वाभावाद द्रव्येन्द्रियावष्टम्भेनारसनात्, स्वभावतः
क्षायोपशमिकभावाभावाद्भावेन्द्रियावलम्बेनारसनात्, सकलसाधारणैकसंवेदनपरिणामस्वभावत्वात्
केवलरसवेदनापरिणामापन्नत्वेनारसनात्, सकलज्ञेयज्ञायकतादात्म्यस्य निषेधाद्रसपरिच्छेदपरिणत-
अब शिष्य पूछता है कि यह अध्यवसानादि भाव जीव नहीं हैं तो वह एक, टंकोत्कीर्ण,
परमार्थस्वरूप जीव कैसा है ? उसका लक्षण क्या है ? इस प्रश्नका उत्तर कहते हैं :
जीव चेतनागुण, शब्द-रस-रूप-गन्ध-व्यक्तिविहीन है,
निर्दिष्ट नहिं संस्थान उसका, ग्रहण नहिं है लिंगसे
।।४९।।
गाथार्थ :हे भव्य ! तू [जीवम् ] जीवको [अरसम् ] रसरहित, [अरूपम् ] रूपरहित,
[अगन्धम् ] गन्धरहित, [अव्यक्त म् ] अव्यक्त अर्थात् इन्द्रियगोचर नहीं ऐसा, [चेतनागुणम् ] चेतना
जिसका गुण है ऐसा, [अशब्दम् ] शब्दरहित, [अलिङ्गग्रहणं ] किसी चिह्नसे ग्रहण न होनेवाला
और [अनिर्दिष्टसंस्थानम् ] जिसका आकार नहीं कहा जाता ऐसा [जानीहि ] जान
टीका :जीव निश्चयसे पुद्गलद्रव्यसे अन्य है, इसलिये उसमें रसगुण विद्यमान नहीं है
अतः वह अरस है ।१। पुद्गलद्रव्यके गुणोंसे भी भिन्न होनेसे स्वयं भी रसगुण नहीं है, इसलिये
अरस है ।२। परमार्थसे पुद्गलद्रव्यका स्वामित्व भी उसके नहीं है, इसलिये वह द्रव्येन्द्रियके
आलम्बनसे भी रस नहीं चखता अतः अरस है ।३। अपने स्वभावकी दृष्टिसे देखा जाय तो उसके
क्षायोपशमिक भावका भी अभाव होनेसे वह भावेन्द्रियके आलम्बनसे भी रस नहीं चखता, इसलिये
अरस है
।४। समस्त विषयोंके विशेषोंमें साधारण ऐसे एक ही संवेदनपरिणामरूप उसका स्वभाव
होनेसे वह केवल एक रसवेदनापरिणामको पाकर रस नहीं चखता, इसलिये अरस है ।५। (उसे
समस्त ज्ञेयोंका ज्ञान होता है परन्तु) सकल ज्ञेयज्ञायकके तादात्म्यका (एकरूप होनेका) निषेध

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त्वेऽपि स्वयं रसरूपेणापरिणमनाच्चारसः; तथा पुद्गलद्रव्यादन्यत्वेनाविद्यमानरूपगुणत्वात्,
पुद्गलद्रव्यगुणेभ्यो भिन्नत्वेन स्वयमरूपगुणत्वात्, परमार्थतः पुद्गलद्रव्यस्वामित्वाभावाद्
द्रव्येन्द्रियावष्टंभेनारूपणात्, स्वभावतः क्षायोपशमिकभावाभावाद्भावेन्द्रियावलंबेनारूपणात्,
सकलसाधारणैकसंवेदनपरिणामस्वभावत्वात्केवलरूपवेदनापरिणामापन्नत्वेनारूपणात्, सकलज्ञेय-
ज्ञायकतादात्म्यस्य निषेधाद्रूपपरिच्छेदपरिणतत्वेऽपि स्वयं रूपरूपेणापरिणमनाच्चारूपः; तथा
पुद्गलद्रव्यादन्यत्वेनाविद्यमानगन्धगुणत्वात्, पुद्गलद्रव्यगुणेभ्यो भिन्नत्वेन स्वयमगन्धगुणत्वात्,
परमार्थतः पुद्गलद्रव्यस्वामित्वाभावाद् द्रव्येन्द्रियावष्टंभेनागंधनात्, स्वभावतः क्षायोपशमिकभावा-
भावाद्भावेन्द्रियावलंबेनागन्धनात्, सकलसाधारणैकसंवेदनपरिणामस्वभावत्वात्केवलगन्धवेदना-
परिणामापन्नत्वेनागन्धनात्, सकलज्ञेयज्ञायकतादात्म्यस्य निषेधाद्गन्धपरिच्छेदपरिणतत्वेऽपि स्वयं
होनेसे रसके ज्ञानरूप परिणमित होने पर भी स्वयं रसरूप परिणमित नहीं होता, इसलिये अरस
है
।६। इस तरह छह प्रकारके रसके निषेधसे वह अरस है
इसप्रकार, जीव वास्तवमें पुद्गलद्रव्यसे अन्य होनेके कारण उसमें रूपगुण विद्यमान
नहीं है, इसलिये अरूप है ।१। पुद्गलद्रव्यके गुणोंसे भी भिन्न होनेके कारण स्वयं भी रूपगुण
नहीं है, इसलिये अरूप है ।२। परमार्थसे पुद्गलद्रव्यका स्वामीपना भी उसे नहीं होनेसे वह
द्रव्येन्द्रियके आलम्बन द्वारा भी रूप नहीं देखता, इसलिए अरूप है ।३। अपने स्वभावकी
दृष्टिसे देखा जाय तो क्षायोपशमिक भावका भी उसे अभाव होनेसे वह भावेन्द्रियके आलम्बन
द्वारा भी रूप नहीं देखता, इसलिये अरूप है
।४। सकल विषयोंके विशेषोंमें साधारण ऐसे
एक ही संवेदनपरिणामरूप उसका स्वभाव होनेसे केवल एक रूपवेदनापरिणामको प्राप्त होकर
रूप नहीं देखता, इसलिये अरूप है
।५। (उसे समस्त ज्ञेयोंका ज्ञान होता है परन्तु) सकल
ज्ञेयज्ञायकके तादात्म्यका निषेध होनेसे रूपके ज्ञानरूप परिणमित होने पर भी स्वयंरूप रूपसे
नहीं परिणमता इसलिये अरूप है
।६। इस तरह छह प्रकारसे रूपके निषेधसे वह अरूप है
इसप्रकार, जीव वास्तवमें पुद्गलद्रव्यसे अन्य होनेके कारण उसमें गन्धगुण विद्यमान
नहीं है, इसलिये अगन्ध है ।१। पुद्गलद्रव्यके गुणोंसे भी भिन्न होनेके कारण स्वयं भी गन्धगुण
नहीं है, इसलिये अगन्ध है ।२। परमार्थसे पुद्गलद्रव्यका स्वामीपना भी उसे नहीं होनेसे वह
द्रव्येन्द्रियके आलम्बन द्वारा भी गन्ध नहीं सूंघता, इसलिए अगन्ध है ।३। अपने स्वभावकी
दृष्टिसे देखा जाय तो क्षायोपशमिक भावका भी उसे अभाव होनेसे वह भावेन्द्रियके आलम्बन
द्वारा भी गन्ध नहीं सूंघता अतः अगन्ध है
।४। सकल विषयोंके विशेषोंमें साधारण ऐसे एक
ही संवेदनपरिणामरूप उसका स्वभाव होनेसे वह केवल एक गन्धवेदनापरिणामको प्राप्त होकर

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गन्धरूपेणापरिणमनाच्चागन्धः; तथा पुद्गलद्रव्यादन्यत्वेनाविद्यमानस्पर्शगुणत्वात्, पुद्गलद्रव्यगुणेभ्यो
भिन्नत्वेन स्वयमस्पर्शगुणत्वात्, परमार्थतः पुद्गलद्रव्यस्वामित्वाभावाद् द्रव्येन्द्रियावष्टम्भेनास्पर्शनात्,
स्वभावतः क्षायोपशमिकभावाभावाद्भावेन्द्रियावलम्बेनास्पर्शनात्, सकलसाधारणैकसंवेदनपरिणाम-
स्वभावत्वात्केवलस्पर्शवेदनापरिणामापन्नत्वेनास्पर्शनात्, सकलज्ञेयज्ञायकतादात्म्यस्य निषेधात्त्
स्पर्शपरिच्छेदपरिणतत्वेऽपि स्वयं स्पर्शरूपेणापरिणमनाच्चास्पर्शः; तथा पुद्गलद्रव्यादन्यत्वेनाविद्यमान-
शब्दपर्यायत्वात्, पुद्गलद्रव्यपर्यायेभ्यो भिन्नत्वेन स्वयमशब्दपर्यायत्वात्, परमार्थतः पुद्गलद्रव्य-
स्वामित्वाभावाद् द्रव्येन्द्रियावष्टंभेन शब्दाश्रवणात्, स्वभावतः क्षायोपशमिकभावाभावाद्भावे-
न्द्रियावलंबेन शब्दाश्रवणात्, सकलसाधारणैक संवेदनपरिणामस्वभावत्वात्केवलशब्दवेदना-
परिणामापन्नत्वेन शब्दाश्रवणात्, सकलज्ञेयज्ञायकतादात्म्यस्य निषेधाच्छब्दपरिच्छेदपरिणतत्वेऽपि
गन्ध नहीं सूंघता; अतः अगन्ध है ।५। (उसे समस्त ज्ञेयोंका ज्ञान होता है परन्तु) सकल
ज्ञेयज्ञायकके तादात्म्यका निषेध होनेसे गन्धके ज्ञानरूप परिणमित होने पर भी स्वयं गन्धरूप
नहीं परिणमता; अतः अगन्ध है
।६। इस तरह छह प्रकारसे गन्धके निषेधसे वह अगन्ध है
इसप्रकार, जीव वास्तवमें पुद्गलद्रव्यसे अन्य होनेके कारण उसमें स्पर्शगुण विद्यमान
नहीं है, इसलिये अस्पर्श है ।१। पुद्गलद्रव्यके गुणोंसे भी भिन्न होनेके कारण स्वयं भी
स्पर्शगुण नहीं है; अतः अस्पर्श है ।२। परमार्थसे पुद्गलद्रव्यका स्वामीपना भी उसे नहीं होनेसे
वह द्रव्येन्द्रियके आलम्बन द्वारा भी स्पर्शको नहीं स्पर्शता; अतः अस्पर्श है ।३। अपने
स्वभावकी दृष्टिसे देखा जाय तो क्षायोपशमिक भावका भी उसे अभाव होनेसे वह
भावेन्द्रियके आलम्बन द्वारा भी स्पर्शको नहीं स्पर्शता; अतः अस्पर्श है
।४। सकल विषयोंके
विशेषोंमें साधारण ऐसे एक ही संवेदनपरिणामरूप उसका स्वभाव होनेसे वह केवल एक
स्पर्शवेदनापरिणामको प्राप्त होकर स्पर्शको नहीं स्पर्शता अतः अस्पर्श है
।५। (उसे समस्त
ज्ञेयोंका ज्ञान होता है परन्तु) सकल ज्ञेयज्ञायकके तादात्म्यका निषेध होनेसे स्पर्शके ज्ञानरूप
परिणमित होने पर भी स्वयं स्पर्शरूप नहीं परिणमता; अतः अस्पर्श है
।६। इस तरह छह
प्रकारसे स्पर्शके निषेधसे वह अस्पर्श है
इसप्रकार, जीव वास्तवमें पुद्गलद्रव्यसे अन्य होनेके कारण उसमें शब्दपर्याय विद्यमान
नहीं है; अतः अशब्द है ।१। पुद्गलद्रव्यके पर्यायोंसे भी भिन्न होनेके कारण स्वयं भी
शब्दपर्याय नहीं है; अतः अशब्द है ।२। परमार्थसे पुद्गलद्रव्यका स्वामीपना भी उसे नहीं होनेसे
वह द्रव्येन्द्रियके आलम्बन द्वारा भी शब्द नहीं सुनता; अतः अशब्द है ।३। अपने स्वभावकी
दृष्टिसे देखा जाय तो क्षायोपशमिक भावका भी उसे अभाव होनेसे वह भावेन्द्रियके आलम्बन

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स्वयं शब्दरूपेणापरिणमनाच्चाशब्दः; द्रव्यान्तरारब्धशरीरसंस्थानेनैव संस्थान इति निर्देष्टमशक्यत्वात्,
नियतस्वभावेनानियतसंस्थानानन्तशरीरवर्तित्वात्, संस्थाननामकर्मविपाकस्य पुद्गलेषु निर्दिश्यमान-
त्वात्, प्रतिविशिष्टसंस्थानपरिणतसमस्तवस्तुतत्त्वसंवलितसहजसंवेदनशक्तित्वेऽपि स्वयमखिललोक-
संवलनशून्योपजायमाननिर्मलानुभूतितयात्यन्तमसंस्थानत्वाच्चानिर्दिष्टसंस्थानः; षड्द्रव्यात्मकलोका-
ज्ज्ञेयाद्वयक्तादन्यत्वात्, कषायचक्राद् भावकाद्वयक्तादन्यत्वात्, चित्सामान्यनिमग्नसमस्तव्यक्ति-
त्वात्, क्षणिकव्यक्तिमात्राभावात्, व्यक्ताव्यक्तविमिश्रप्रतिभासेऽपि व्यक्तास्पर्शत्वात्, स्वयमेव हि
बहिरन्तः स्फु टमनुभूयमानत्वेऽपि व्यक्तोपेक्षणेन प्रद्योतमानत्वाच्चाव्यक्तः : रसरूपगन्धस्पर्शशब्द-
संस्थानव्यक्तत्वाभावेऽपि स्वसंवेदनबलेन नित्यमात्मप्रत्यक्षत्वे सत्यनुमेयमात्रत्वाभावादलिंगग्रहणः;
द्वारा भी शब्द नहीं सुनता; अतः अशब्द है ।४। सकल विषयोंके विशेषोंमें साधारण ऐसे एक
ही संवेदनपरिणामरूप उसका स्वभाव होनेसे वह केवल एक शब्दवेदनापरिणामको प्राप्त होकर
शब्द नहीं सुनता; अतः अशब्द है
।५। (उसे समस्त ज्ञेयोंका ज्ञान होता है परन्तु) सकल
ज्ञेयज्ञायकके तादात्म्यका निषेध होनेसे शब्दके ज्ञानरूप परिणमित होने पर भी स्वयं शब्दरूप
नहीं परिणमता; अतः अशब्द है
।६। इसतरह छह प्रकारसे शब्दके निषेधसे वह अशब्द है
(अब ‘अनिर्दिष्टसंस्थान’ विशेषणको समझाते हैं :) पुद्गलद्रव्यरचित शरीरके
संस्थान(आकार)से जीवको संस्थानवाला नहीं कहा जा सकता, इसलिये जीव अनिर्दिष्टसंस्थान
है
।१। अपने नियत स्वभावसे अनियत संस्थानवाले अनन्त शरीरोंमें रहता है, इसलिये
अनिर्दिष्टसंस्थान है ।२। संस्थान नामकर्मका विपाक (फल) पुद्गलोंमें ही कहा जाता है (इसलिये
उसके निमित्तसे भी आकार नहीं है) इसलिये अनिर्दिष्टसंस्थान है ।३। भिन्न-भिन्न संस्थानरूपसे
परिणमित समस्त वस्तुओंके स्वरूपके साथ जिसकी स्वाभाविक संवेदनशक्ति सम्बन्धित (अर्थात्
तदाकार) है ऐसा होने पर भी जिसे समस्त लोकके मिलापसे (
सम्बन्धसे) रहित निर्मल
(ज्ञानमात्र) अनुभूति हो रही है ऐसा होनेसे स्वयं अत्यन्तरूपसे संस्थान रहित है, इसलिये
अनिर्दिष्टसंस्थान है
।४। इसप्रकार चार हेतुओंसे संस्थानका निषेध कहा
(अब ‘अव्यक्त’ विशेषणको सिद्ध करते हैं :) छह द्रव्यस्वरूप लोक जो ज्ञेय है और
व्यक्त है उससे जीव अन्य हैं, इसलिये अव्यक्त है ।१। कषायोंका समूह जो भावकभाव व्यक्त
है उससे जीव अन्य है इसलिये अव्यक्त है ।२। चित्सामान्यमें चैतन्यकी समस्त व्यक्तियाँ निमग्न
(अन्तर्भूत) हैं, इसलिये अव्यक्त है ।३। क्षणिक व्यक्तिमात्र नहीं है, इसलिये अव्यक्त है
व्यक्तता और अव्यक्तता एकमेक मिश्रितरूपसे उसे प्रतिभासित होने पर भी वह व्यक्तताको स्पर्श
नहीं करता, इसलिये अव्यक्त है
।५। स्वयं अपनेसे ही बाह्याभ्यन्तर स्पष्ट अनुभवमें आ रहा है तथापि

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समस्तविप्रतिपत्तिप्रमाथिना विवेचकजनसमर्पितसर्वस्वेन सकलमपि लोकालोकं
कवलीकृत्यात्यन्तसौहित्यमन्थरेणेव सकलकालमेव मनागप्यविचलितानन्यसाधारणतया स्वभावभूतेन
स्वयमनुभूयमानेन चेतनागुणेन नित्यमेवान्तःप्रकाशमानत्वात् चेतनागुणश्च; स खलु
भगवानमलालोक इहैकष्टंकोत्कीर्णः प्रत्यग्ज्योतिर्जीवः
(मालिनी)
सकलमपि विहायाह्नाय चिच्छक्तिरिक्तं
स्फु टतरमवगाह्य स्वं च चिच्छक्तिमात्रम्
इममुपरि चरन्तं चारु विश्वस्य साक्षात्
कलयतु परमात्मात्मानमात्मन्यनन्तम्
।।३५।।
व्यक्तताके प्रति उदासीनरूपसे प्रद्योतमान (प्रकाशमान) है, इसलिये अव्यक्त है ।६। इसप्रकार छह
हेतुओंसे अव्यक्तता सिद्ध की है
इसप्रकार रस, रूप, गन्ध, स्पर्श, शब्द, संस्थान और व्यक्तताका अभाव होने पर भी
स्वसंवेदनके बलसे स्वयं सदा प्रत्यक्ष होनेसे अनुमानगोचरमात्रताके अभावके कारण (जीवको)
अलिंगग्रहण कहा जाता है
अपने अनुभवमें आनेवाले चेतनागुणके द्वारा सदा ही अन्तरङ्गमें प्रकाशमान है, इसलिये
(जीव) चेतनागुणवाला है चेतनागुण कैसा है ? जो समस्त विप्रतिपत्तियोंको (जीवको अन्य
प्रकारसे माननेरूप झगड़ोंको) नाश करनेवाला है, जिसने अपना सर्वस्व भेदज्ञानी जीवोंको सौंप
दिया है, जो समस्त लोकालोकको ग्रासीभूत करके मानों अत्यन्त तृप्तिसे उपशान्त हो गया हो
इसप्रकार (अर्थात् अत्यन्त स्वरूपसौख्यसे तृप्त-तृप्त होनेके कारण स्वरूपमेंसे बाहर निकलनेका
अनुद्यमी हो इसप्रकार) सर्व कालमें किंचित्मात्र भी चलायमान नहीं होता और इस तरह सदा
ही लेश मात्र भी नहीं चलित ऐसी अन्यद्रव्यसे असाधारणता होनेसे जो (असाधारण)
स्वभावभूत है
ऐसा चैतन्यरूप परमार्थस्वरूप जीव है जिसका प्रकाश निर्मल है ऐसा यह भगवान
इस लोकमें एक, टङ्कोत्कीर्ण, भिन्न ज्योतिरूप बिराजमान है ।।४९।।
अब इसी अर्थका कलशरूप काव्य कहकर ऐसे आत्माके अनुभवकी प्रेरणा करते हैं :
श्लोकार्थ :[चित्-शक्ति -रिक्तं ] चित्शक्तिसे रहित [सकलम् अपि ] अन्य समस्त
भावोंको [अह्नाय ] मूलसे [विहाय ] छोड़कर [च ] और [स्फु टतरम् ] प्रगटरूपसे [स्वं चित्-

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(अनुष्टुभ्)
चिच्छक्तिव्याप्तसर्वस्वसारो जीव इयानयम्
अतोऽतिरिक्ताः सर्वेऽपि भावाः पौद्गलिका अमी ।।३६।।
जीवस्स णत्थि वण्णो ण वि गंधो ण वि रसो ण वि य फासो
ण वि रूवं ण सरीरं ण वि संठाणं ण संहणणं ।।५०।।
जीवस्स णत्थि रागो ण वि दोसो णेव विज्जदे मोहो
णो पच्चया ण कम्मं णोकम्मं चावि से णत्थि ।।५१।।
शक्ति मात्रम् ] अपने चित्शक्तिमात्र भावका [अवगाह्य ] अवगाहन करके, [आत्मा ] भव्यात्मा
[विश्वस्य उपरि ] समस्त पदार्थसमूहरूप लोकके ऊ पर [चारु चरन्तं ] सुन्दर रीतिसे प्रवर्तमान ऐसे
[इमम् ] यह [परम् ] एकमात्र [अनन्तम् ] अविनाशी [आत्मानम् ] आत्माका [आत्मनि ]
आत्मामें ही [साक्षात् कलयतु ] अभ्यास करो, साक्षात् अनुभव करो
भावार्थ :यह आत्मा परमार्थसे समस्त अन्य भावोंसे रहित चैतन्यशक्तिमात्र है; उसके
अनुभवका अभ्यास करो ऐसा उपदेश है ।३५।
अब चित्शक्तिसे अन्य जो भाव हैं वे सब पुद्गलद्रव्यसम्बन्धी हैं ऐसी आगेकी गाथाओंकी
सूचनारूपसे श्लोक कहते हैं :
श्लोकार्थ :[चित्-शक्ति -व्याप्त-सर्वस्व-सारः ] चैतन्यशक्तिसे व्याप्त जिसका
सर्वस्व-सार है ऐसा [अयम् जीवः ] यह जीव [इयान् ] इतना मात्र ही है; [अतः अतिरिक्ताः ]
इस चित्शक्तिसे शून्य [अमी भावाः ] जो ये भाव हैं [ सर्वे अपि ] वे सभी [पौद्गलिकाः ]
पुद्गलजन्य हैं
पुद्गलके ही हैं ।३६।
ऐसे इन भावोंका व्याख्यान छह गाथाओंमें कहते हैं :
नहिं वर्ण जीवके, गन्ध नहिं, नहिं स्पर्श, रस जीवके नहिं,
नहिं रूप अर संहनन नहिं, संस्थान नहिं, तन भी नहिं
।।५०।।
नहिं राग जीवके, द्वेष नहिं, अरु मोह जीवके है नहीं,
प्रत्यय नहीं, नहिं कर्म अरु नोकर्म भी जीवके नहीं
।।५१।।

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जीवस्स णत्थि वग्गो ण वग्गणा णेव फडढया केई
णो अज्झप्पट्ठाणा णेव य अणुभागठाणाणि ।।५२।।
जीवस्स णत्थि केई जोयट्ठाणा ण बंधठाणा वा
णेव य उदयट्ठाणा ण मग्गणट्ठाणया केई ।।५३।।
णो ठिदिबंधट्ठाणा जीवस्स ण संकिलेसठाणा वा
णेव विसोहिट्ठाणा णो संजमलद्धिठाणा वा ।।५४।।
णेव य जीवट्ठाणा ण गुणट्ठाणा य अत्थि जीवस्स
जेण दु एदे सव्वे पोग्गलदव्वस्स परिणामा ।।५५।।
जीवस्य नास्ति वर्णो नापि गन्धो नापि रसो नापि च स्पर्शः
नापि रूपं न शरीरं नापि संस्थानं न संहननम् ।।५०।।
नहिं वर्ग जीवके, वर्गणा नहिं, कर्मस्पर्धक हैं नहीं,
अध्यात्मस्थान न जीवके, अनुभागस्थान भी हैं नहीं
।।५२।।
जीवके नहीं कुछ योगस्थान रु बन्धस्थान भी हैं नहीं,
नहिं उदयस्थान न जीवके, अरु स्थान मार्गणके नहीं
।।५३।।
स्थितिबन्धस्थान न जीवके, संक्लेशस्थान भी हैं नहीं,
जीवके विशुद्धिस्थान, संयमलब्धिस्थान भी हैं नहीं
।।५४।।
नहिं जीवस्थान भी जीवके, गुणस्थान भी जीवके नहीं,
ये सब ही पुद्गलद्रव्यके परिणाम हैं जानो यही
।।५५।।
गाथार्थ :[जीवस्य ] जीवके [वर्णः ] वर्ण [नास्ति ] नहीं, [न अपि गन्धः ] गंध भी
नहीं, [रसः अपि न ] रस भी नहीं [च ] और [स्पर्शः अपि न ] स्पर्श भी नहीं, [रूपं अपि न ]
रूप भी नहीं, [न शरीरं ] शरीर भी नहीं, [संस्थानं अपि न ] संस्थान भी नहीं, [संहननम् न ]
संहनन भी नहीं; [जीवस्य ] जीवके [रागः नास्ति ] राग भी नहीं, [द्वेषः अपि न ] द्वेष भी नहीं,

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जीवस्य नास्ति रागो नापि द्वेषो नैव विद्यते मोहः
नो प्रत्यया न कर्म नोकर्म चापि तस्य नास्ति ।।५१।।
जीवस्य नास्ति वर्गो न वर्गणा नैव स्पर्धकानि कानिचित्
नो अध्यात्मस्थानानि नैव चानुभागस्थानानि ।।५२।।
जीवस्य न सन्ति कानिचिद्योगस्थानानि न बन्धस्थानानि वा
नैव चोदयस्थानानि न मार्गणास्थानानि कानिचित् ।।५३।।
नो स्थितिबन्धस्थानानि जीवस्य न संक्लेशस्थानानि वा
नैव विशुद्धिस्थानानि नो संयमलब्धिस्थानानि वा ।।५४।।
नैव च जीवस्थानानि न गुणस्थानानि वा सन्ति जीवस्य
येन त्वेते सर्वे पुद्गलद्रव्यस्य परिणामाः ।।५५।।
यः कृष्णो हरितः पीतो रक्तः श्वेतो वा वर्णः स सर्वोऽपि नास्ति जीवस्य, पुद्गल-
द्रव्यपरिणाममयत्वे सत्यनुभूतेर्भिन्नत्वात् यः सुरभिर्दुरभिर्वा गन्धः स सर्वोऽपि नास्ति जीवस्य,
14
[मोहः ] मोह भी [न एव विद्यते ] विद्यमान नहीं, [प्रत्ययाः नो ] प्रत्यय (आस्रव) भी नहीं, [कर्म
न ]
कर्म भी नहीं [च ] और [नोकर्म अपि ] नोकर्म भी [तस्य नास्ति ] उसके नहीं हैं; [जीवस्य ]
जीवके [वर्गः नास्ति ] वर्ग नहीं, [वर्गणा न ] वर्गणा नहीं, [कानिचित् स्पर्धकानि न एव ] कोई
स्पर्धक भी नहीं, [अध्यात्मस्थानानि नो ] अध्यात्मस्थान भी नहीं [च ] और [अनुभागस्थानानि ]
अनुभागस्थान भी [न एव ] नहीं हैं; [जीवस्य ] जीवके [कानिचित् योगस्थानानि ] कोई योगस्थान
भी [न सन्ति ] नहीं [वा ] अथवा [बन्धस्थानानि न ] बंधस्थान भी नहीं, [च ] और
[उदयस्थानानि ] उदयस्थान भी [न एव ] नहीं, [कानिचित् मार्गणास्थानानि न ] कोई मार्गणास्थान
भी नहीं है; [जीवस्य ] जीवके [स्थितिबन्धस्थानानि नो ] स्थितिबंधस्थान भी नहीं [वा ] अथवा
[संक्लेशस्थानानि न ] संक्लेशस्थान भी नहीं, [विशुद्धिस्थानानि ] विशुद्धिस्थान भी [न एव ] नहीं
[वा ] अथवा [संयमलब्धिस्थानानि ] संयमलब्धिस्थान भी [नो ] नहीं हैं; [च ] और [जीवस्य ]
जीवके [जीवस्थानानि ] जीवस्थान भी [न एव ] नहीं [वा ] अथवा [गुणस्थानानि ] गुणस्थान
भी [न सन्ति ] नहीं हैं; [येन तु ] क्योंकि [एते सर्वे ] यह सब [पुद्गलद्रव्यस्य ] पुद्गलद्रव्यके
[परिणामाः ] परिणाम हैं
टीका :जो काला, हरा, पीला, लाल और सफे द वर्ण है वह सर्व ही जीवका नहीं
है, क्योंकि वह पुद्गलद्रव्यके परिणाममय होनेसे (अपनी) अनुभूतिसे भिन्न है जो सुगन्ध

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पुद्गलद्रव्यपरिणाममयत्वे सत्यनुभूतेर्भिन्नत्वात् यः कटुकः कषायः तिक्तोऽम्लो मधुरो वा रसः
स सर्वोऽपि नास्ति जीवस्य, पुद्गलद्रव्यपरिणाममयत्वे सत्यनुभूतेर्भिन्नत्वात् यः स्निग्धो
रूक्षः शीतः उष्णो गुरुर्लघुर्मृदुः कठिनो वा स्पर्शः स सर्वोऽपि नास्ति जीवस्य,
पुद्गलद्रव्यपरिणाममयत्वे सत्यनुभूतेर्भिन्नत्वात्
यत्स्पर्शादिसामान्यपरिणाममात्रं रूपं तन्नास्ति
जीवस्य, पुद्गलद्रव्यपरिणाममयत्वे सत्यनुभूतेर्भिन्नत्वात् यदौदारिकं वैक्रियिकमाहारकं तैजसं
कार्मणं वा शरीरं तत्सर्वमपि नास्ति जीवस्य, पुद्गलद्रव्यपरिणाममयत्वे सत्यनुभूतेर्भिन्नत्वात्
सत्समचतुरस्रं न्यग्रोधपरिमण्डलं स्वाति कुब्जं वामनं हुण्डं वा संस्थानं तत्सर्वमपि नास्ति जीवस्य,
पुद्गलद्रव्यपरिणाममयत्वे सत्यनुभूतेर्भिन्नत्वात्
यद्वज्रर्षभनाराचं वज्रनाराचं नाराचमर्धनाराचं
कीलिका असम्प्राप्तासृपाटिका वा संहननं तत्सर्वमपि नास्ति जीवस्य, पुद्गलद्रव्यपरिणाममयत्वे
यत्यनुभूतेर्भिन्नत्वात्
यः प्रीतिरूपो रागः स सर्वोऽपि नास्ति जीवस्य, पुद्गलद्रव्यपरिणाममयत्वे
सत्यनुभूतेर्भिन्नत्वात् योऽप्रीतिरूपो द्वेषः स सर्वोऽपि नास्ति जीवस्य, पुद्गलद्रव्यपरिणाममयत्वे
सत्यनुभूतेर्भिन्नत्वात् यस्तत्त्वाप्रतिपत्तिरूपो मोहः स सर्वोऽपि नास्ति जीवस्य
और दुर्गन्ध है वह सर्व ही जीवकी नहीं है, क्योंकि वह पुद्गलद्रव्यके परिणाममय होनेसे (अपनी)
अनुभूतिसे भिन्न है
जो कडुवा, कषायला, चरपरा, खट्टा और मीठा रस है वह सर्व ही जीवका
नहीं है, क्योंकि वह पुद्गलद्रव्यके परिणाममय होनेसे (अपनी) अनुभूतिसे भिन्न है जो
चिकना, रूखा, ठण्डा, गर्म, भारी, हलका, कोमल अथवा कठोर स्पर्श है वह सर्व ही जीवका
नहीं है, क्योंकि वह पुद्गलद्रव्यके परिणाममय होनेसे (अपनी) अनुभूतिसे भिन्न है
जो
स्पर्शादिसामान्यपरिणाममात्र रूप है वह जीवका नहीं है, क्योंकि वह पुद्गलद्रव्यके परिणाममय
होनेसे (अपनी) अनुभूतिसे भिन्न है
जो औदारिक, वैक्रियिक, आहारक, तैजस अथवा कार्मण
शरीर है वह सर्व ही जीवका नहीं है, क्योंकि वह पुद्गलद्रव्यके परिणाममय होनेसे (अपनी)
अनुभूतिसे भिन्न है
जो समचतुरस्र, न्यग्रोधपरिमण्डल, स्वाति, कुब्जक, वामन अथवा हुण्डक
संस्थान है वह सर्व ही जीवका नहीं है, क्योंकि वह पुद्गलद्रव्यके परिणाममय होनेसे (अपनी)
अनुभूतिसे भिन्न है
जो वज्रर्षभनाराच, वज्रनाराच, नाराच, अर्धनाराच, कीलिका अथवा
असम्प्राप्तासृपाटिका संहनन है वह सर्व ही जीवका नहीं है, क्योंकि वह पुद्गलद्रव्यके परिणाममय
होनेसे (अपनी) अनुभूतिसे भिन्न है
जो प्रीतिरूप राग है वह सर्व ही जीवका नहीं है, क्योंकि
वह पुद्गलद्रव्यके परिणाममय होनेसे (अपनी) अनुभूतिसे भिन्न है जो अप्रीतिरूप द्वेष है
वह सर्व ही जीवका नहीं है, क्योंकि वह पुद्गलद्रव्यके परिणाममय होनेसे (अपनी) अनुभूतिसे
भिन्न है
१० जो यथार्थतत्त्वकी अप्रतिपत्तिरूप (अप्राप्तिरूप) मोह है वह सर्व ही जीवका नहीं

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पुद्गलद्रव्यपरिणाममयत्वे सत्यनुभूतेर्भिन्नत्वात् ये मिथ्यात्वाविरतिकषाययोगलक्षणाः प्रत्ययास्ते
सर्वेऽपि न सन्ति जीवस्य, पुद्गलद्रव्यपरिणाममयत्वे सत्यनुभूतेर्भिन्नत्वात् यद् ज्ञानावरणीय-
दर्शनावरणीयवेदनीयमोहनीयायुर्नामगोत्रान्तरायरूपं कर्म तत्सर्वमपि नास्ति जीवस्य, पुद्गल-
द्रव्यपरिणाममयत्वे सत्यनुभूतेर्भिन्नत्वात्
यत्षट्पर्याप्तित्रिशरीरयोग्यवस्तुरूपं नोकर्म तत्सर्वमपि
नास्ति जीवस्य, पुद्गलद्रव्यपरिणाममयत्वे सत्यनुभूतेर्भिन्नत्वात् यः शक्तिसमूहलक्षणो वर्गः स
सर्वोऽपि नास्ति जीवस्य, पुद्गलद्रव्यपरिणाममयत्वे सत्यनुभूतेर्भिन्नत्वात् या वर्गसमूहलक्षणा वर्गणा
सा सर्वापि नास्ति जीवस्य, पुद्गलद्रव्यपरिणाममयत्वे सत्यनुभूतेर्भिन्नत्वात् यानि
मन्दतीव्ररसकर्मदलविशिष्टन्यासलक्षणानि स्पर्धकानि तानि सर्वाण्यपि न सन्ति जीवस्य, पुद्गल-
द्रव्यपरिणाममयत्वे सत्यनुभूतेर्भिन्नत्वात्
यानि स्वपरैकत्वाध्यासे सति विशुद्धचित्परिणामाति-
रिक्तत्वलक्षणान्यध्यात्मस्थानानि तानि सर्वाण्यपि न सन्ति जीवस्य, पुद्गलद्रव्यपरिणाममयत्वे
सत्यनुभूतेर्भिन्नत्वात्
यानि प्रतिविशिष्टप्रकृतिरसपरिणामलक्षणान्यनुभागस्थानानि तानि सर्वाण्यपि
है, क्योंकि वह पुद्गलद्रव्यके परिणाममय होनेसे (अपनी) अनुभूतिसे भिन्न है ११ मिथ्यात्व,
अविरति, कषाय और योग जिसके लक्षण हैं ऐसे जो प्रत्यय (आस्रव) वे सर्व ही जीवके नहीं
हैं, क्योंकि वह पुद्गलद्रव्यके परिणाममय होनेसे (अपनी) अनुभूतिसे भिन्न है
१२ जो
ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अन्तरायरूप कर्म है वह सर्व
ही जीवका नहीं है, क्योंकि वह पुद्गलद्रव्यके परिणाममय होनेसे (अपनी) अनुभूतिसे भिन्न
है
१३ जो छह पर्याप्तियोग और तीन शरीरयोग्य वस्तु (पुद्गलस्कंध)रूप नोकर्म है वह
सर्व ही जीवका नहीं है, क्योंकि वह पुद्गलद्रव्यके परिणाममय होनेसे (अपनी) अनुभूतिसे भिन्न
है
१४ जो कर्मके रसकी शक्तियोंका (अर्थात् अविभाग-परिच्छेदोंका) समूहरूप वर्ग है वह
सर्व ही जीवका नहीं है, क्योंकि वह पुद्गलद्रव्यके परिणाममय होनेसे (अपनी) अनुभूतिसे भिन्न
है
१५ जो वर्गोंका समूहरूप वर्गणा है वह सर्व ही जीवका नहीं हैं, क्योंकि वह पुद्गलद्रव्यके
परिणाममय होनेसे (अपनी) अनुभूतिसे भिन्न है १६ जो मन्दतीव्ररसवाले कर्मसमूहके विशिष्ट
न्यास (जमाव)रूप (वर्गणाके समूहरूप) स्पर्धक हैं वह सर्व ही जीवके नहीं हैं, क्योंकि वह
पुद्गलद्रव्यके परिणाममय होनेसे (अपनी) अनुभूतिसे भिन्न है १७ स्व-परके एकत्वका
अध्यास (निश्चय) हो तब (वर्तनेवाले), विशुद्ध चैतन्यपरिणामसे भिन्नरूप जिनका लक्षण है ऐसे
जो अध्यात्मस्थान हैं वह सर्व ही जीवके नहीं हैं, क्योंकि वह पुद्गलद्रव्यके परिणाममय होनेसे
(अपनी) अनुभूतिसे भिन्न है
१८ भिन्न-भिन्न प्रकृतियोंके रसके परिणाम जिनका लक्षण है ऐसे
जो अनुभागस्थान वे सर्व ही जीवके नहीं हैं, क्योंकि वह पुद्गलद्रव्यके परिणाममय होनेसे