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[तथा च ] और कोई [कर्म ] कर्मको [जीवम् प्ररूपयन्ति ] जीव कहते हैं
मन्यन्ते ] जीव मानते हैं [तथा ] और [अपरे ] दूसरे कोई [नोकर्म अपि च ] नोकर्मको [जीवः
इति ] जीव मानते हैं
है [सः ] वह [जीवः भवति ] जीव है’ इसप्रकार [कर्मानुभागम् ] कर्मके अनुभागको
[इच्छन्ति ] जीव इच्छते हैं (
अन्य कोई [ कर्मणां संयोगेन ] कर्मके संयोगसे ही [जीवम् इच्छन्ति ] जीव मानते हैं
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पलभ्यमानत्वादिति केचित
अनेक प्रकारसे परको भी आत्मा कहते हैं, बकते हैं
युक्त विभावपरिणाम) वह ही जीव है, क्योंकि जैसे कालेपनसे अन्य अलग कोई कोयला
दिखाई नहीं देता उसीप्रकार तथाविध अध्यवसानसे भिन्न अन्य कोई आत्मा दिखाई नहीं
देता
कर्म ही जीव है, क्योंकि कर्मसे भिन्न अन्य कोई जीव दिखाई नहीं देता
रससे भरे हुए अध्यवसानोंकी सन्तति (परिपाटी) ही जीव है, क्योंकि उससे अन्य अलग
कोई जीव दिखाई नहीं देता
ही जीव है, क्योंकि शुभाशुभ भावसे अन्य अलग कोई जीव दिखाई नहीं देता
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परमार्थवादिभिः परमार्थवादिन इति निर्दिश्यन्ते
अनुभव ही जीव है, क्योंकि सुखःदुखसे अन्य अलग कोई जीव दिखाई नहीं देता
हैं, क्योंकि सम्पूर्णतया कर्मोंसे भिन्न अलग कोई जीव दिखाई नहीं देता
क्योंकि जैसे आठ लकड़ियोंके संयोगसे भिन्न अलग कोई पलंग दिखाई नहीं देता इसी प्रकार
कर्मोंके संयोगसे अन्य अलग कोई जीव दिखाई नहीं देता
आत्मा कहते हैं; परन्तु परमार्थके ज्ञाता उन्हें सत्यार्थवादी नहीं कहते
अपने मूर्तिक जड़त्व आदिको नहीं छोड़ता
दिखाई देता है तथा सर्वज्ञकी परम्पराके आगमसे जाना जा सकता है, इसलिये जिनके मतमें
सर्वज्ञ नहीं हैं वे अपनी बुद्धिसे अनेक कल्पनायें करके कहते हैं
तो प्रगट कहे हैं; और अन्य भी अपनी-अपनी बुद्धिसे अनेक कल्पनायें करके अनेक
प्रकारसे कहते हैं सो कहाँ तक कहा जाये ?
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चैतन्यस्वभावं जीवद्रव्यं भवितुं नोत्सहन्ते; ततो न खल्वागमयुक्तिस्वानुभवैर्बाधितपक्षत्वात्त-
दात्मवादिनः परमार्थवादिनः
अतिरिक्तत्वेनान्यस्य चित्स्वभावस्य विवेचकैः स्वयमुपलभ्यमानत्वात्
सब केवलीजिन भाषिया, किस रीत जीव कहो उन्हें ? ४४
केवली सर्वज्ञ जिनेन्द्रदेवोंने [भणिताः ] कहा है [ते ] उन्हें [जीवः इति ] जीव ऐसा [कथं
उच्यन्ते ] कैसे कहा जा सकता है ?
हैं इसलिये, वे चैतन्यस्वभावमय जीवद्रव्य होनेके लिये समर्थ नहीं हैं कि जो जीवद्रव्य
चैतन्यभावसे शून्य ऐसे पुद्गलद्रव्यसे अतिरिक्त (भिन्न) कहा गया है; इसलिये जो इन
अध्यवसानादिकको जीव कहते हैं वे वास्तवमें परमार्थवादी नहीं हैं; क्योंकि आगम, युक्ति
और स्वानुभवसे उनका पक्ष बाधित है
भांति, तथाविध अध्यवसानसे भिन्न अन्य चित्स्वभावरूप जीव भेदज्ञानियोंके द्वारा स्वयं
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चित्स्वभावस्य विवेचकैः स्वयमुपलभ्यमानत्वात्
मानत्वात्
मानत्वात्
रूपमें क्रीड़ा करता हुआ कर्म भी जीव नहीं है; क्योंकि कर्मसे भिन्न अन्य चैतन्यभावस्वरूप
जीव भेदज्ञानियोंके द्वारा स्वयं उपलभ्यमान है अर्थात् वे उसका प्रत्यक्ष अनुभव करते हैं
नहीं है; क्योंकि उस संततिसे भिन्न अन्य चैतन्यभावरूप जीव भेदज्ञानियोंके द्वारा स्वयं
उपलभ्यमान है अर्थात् वे उसका प्रत्यक्ष अनुभव करते हैं
भेदज्ञानियोंके द्वारा स्वयं उपलभ्यमान है अर्थात् वे उसे प्रत्यक्ष अनुभव करते हैं
भिन्न अन्य चैतन्यस्वभावरूप जीव भेदज्ञानियोंके द्वारा स्वयं उपलभ्यमान है अर्थात् वे स्वयं
उसका प्रत्यक्ष अनुभव करते हैं
चैतन्यस्वभावरूप जीव भेदज्ञानियोंके द्वारा स्वयं उपलभ्यमान है अर्थात् वे स्वयं उसका प्रत्यक्ष
अनुभव करते हैं
भेदज्ञानियोंके द्वारा स्वयं उपलभ्यमान हैं अर्थात् वे स्वयं उसका प्रत्यक्ष अनुभव करते हैं
पलंगसे) भिन्न पलंग पर सोनेवाले पुरुषकी भांति, कर्मसंयोगसे भिन्न अन्य चैतन्यस्वभावरूप
जीव भेदज्ञानियोंके द्वारा स्वयं उपलभ्यमान है अर्थात् वे स्वयं उसका प्रत्यक्ष अनुभव करते
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स्वयमपि निभृतः सन
ननु किमनुपलब्धिर्भाति किंचोपलब्धिः
समभावसे) ही इसप्रकार उपदेश करना यह काव्यमें बतलाते हैं :
[एकम् ] एक चैतन्यमात्र वस्तुको [स्वयम् अपि ] स्वयं [निभृतः सन् ] निश्चल लीन होकर
[पश्य षण्मासम् ] देख; ऐसा छह मास अभ्यास कर और देख कि ऐसा करनेसे [हृदय-
सरसि ] अपने हृदयसरोवरमें, [पुद्गलात् भिन्नधाम्नः ] जिसका तेज-प्रताप-प्रकाश पुद्गलसे
भिन्न है ऐसे उस [पुंसः ] आत्माकी [ननु किम् अनुपलब्धिः भाति ] प्राप्ति नहीं होती है [किं
च उपलब्धिः ] या होती है ?
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शीघ्र ही स्वरूपकी प्राप्ति हो जायगी ऐसा उपदेश है
होते हैं, (वे चैतन्यके अतिरिक्त जड़के तो दिखाई नहीं देते) तथापि उन्हें पुद्गलके स्वभाव
क्यों कहा ? उसके उत्तरस्वरूप गाथासूत्र कहते हैं :
परिपाकमें जिस कर्मका फल दुःख नाम प्रसिद्ध है
[दुःखम् ] दुःख है [इति उच्यते ] ऐसा कहा है
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वे आत्मस्वभाव नहीं हैं, किन्तु पुद्गलस्वभाव हैं
ये सर्व अध्यवसान आदिक भावको जँह जिव कहे
[व्यवहारस्य दर्शनम् ] व्यवहारनय दिखाया है
म्लेच्छभाषा म्लेच्छोंको वस्तुस्वरूप बतलाती है उसीप्रकार व्यवहारनय व्यवहारी जीवोंको
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मोक्षोपायपरिग्रहणाभावात् भवत्येव मोक्षस्याभावः
(व्यवहारनय) बतलाना न्यायसङ्गत ही है
परमार्थके द्वारा जीव रागद्वेषमोहसे भिन्न बताये जानेके कारण, ‘रागी, द्वेषी, मोही जीव कर्मसे
बँधता है उसे छुड़ाना’
पुद्गलका घात करनेसे हिंसा नहीं होगी तथा रागद्वेषमोहसे बन्ध नहीं होगा
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रागग्राममभिव्याप्य प्रवर्तत इत्येकस्य समग्रं रागग्राममभिव्याप्तुमशक्यत्वाद्वयवहारिणामध्यव-
सानादिष्वन्यभावेषु जीव इति व्यवहारः, परमार्थतस्त्वेक एव जीवः
जाता है सो वह [व्यवहारेण तु उच्यते ] व्यवहारसे कहा जाता है, [तत्र ] उस सेनामें (वास्तवमें)
[एकः निर्गतः राजा ] राजा तो एक ही निकला है; [एवम् एव च ] उसीप्रकार
[अध्यवसानाद्यन्यभावानाम् ] अध्यवसानादि अन्यभावोंको [जीवः इति ] ‘(यह) जीव है’
इसप्रकार [सूत्रे ] परमागममें कहा है सो [व्यवहारः कृतः ] व्यवहार किया है, [तत्र निश्चितः ]
यदि निश्चयसे विचार किया जाये तो उनमें [जीवः एकः ] जीव तो एक ही है
योजनमें फै लना अशक्य है; परमार्थसे तो राजा एक ही है, (सेना राजा नहीं है); उसीप्रकार
यह जीव समग्र (समस्त) रागग्राममें (
जीवका समग्र रागग्राममें व्याप्त होना अशक्य है; परमार्थसे तो जीव एक ही है, (अध्यवसानादिक
भाव जीव नहीं हैं)
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क्षायोपशमिकभावाभावाद्भावेन्द्रियावलम्बेनारसनात्, सकलसाधारणैकसंवेदनपरिणामस्वभावत्वात्
केवलरसवेदनापरिणामापन्नत्वेनारसनात्, सकलज्ञेयज्ञायकतादात्म्यस्य निषेधाद्रसपरिच्छेदपरिणत-
निर्दिष्ट नहिं संस्थान उसका, ग्रहण नहिं है लिंगसे
जिसका गुण है ऐसा, [अशब्दम् ] शब्दरहित, [अलिङ्गग्रहणं ] किसी चिह्नसे ग्रहण न होनेवाला
और [अनिर्दिष्टसंस्थानम् ] जिसका आकार नहीं कहा जाता ऐसा [जानीहि ] जान
अरस है
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पुद्गलद्रव्यगुणेभ्यो भिन्नत्वेन स्वयमरूपगुणत्वात्, परमार्थतः पुद्गलद्रव्यस्वामित्वाभावाद्
द्रव्येन्द्रियावष्टंभेनारूपणात्, स्वभावतः क्षायोपशमिकभावाभावाद्भावेन्द्रियावलंबेनारूपणात्,
सकलसाधारणैकसंवेदनपरिणामस्वभावत्वात्केवलरूपवेदनापरिणामापन्नत्वेनारूपणात्, सकलज्ञेय-
ज्ञायकतादात्म्यस्य निषेधाद्रूपपरिच्छेदपरिणतत्वेऽपि स्वयं रूपरूपेणापरिणमनाच्चारूपः; तथा
पुद्गलद्रव्यादन्यत्वेनाविद्यमानगन्धगुणत्वात्, पुद्गलद्रव्यगुणेभ्यो भिन्नत्वेन स्वयमगन्धगुणत्वात्,
परमार्थतः पुद्गलद्रव्यस्वामित्वाभावाद् द्रव्येन्द्रियावष्टंभेनागंधनात्, स्वभावतः क्षायोपशमिकभावा-
भावाद्भावेन्द्रियावलंबेनागन्धनात्, सकलसाधारणैकसंवेदनपरिणामस्वभावत्वात्केवलगन्धवेदना-
परिणामापन्नत्वेनागन्धनात्, सकलज्ञेयज्ञायकतादात्म्यस्य निषेधाद्गन्धपरिच्छेदपरिणतत्वेऽपि स्वयं
है
द्वारा भी रूप नहीं देखता, इसलिये अरूप है
रूप नहीं देखता, इसलिये अरूप है
नहीं परिणमता इसलिये अरूप है
द्वारा भी गन्ध नहीं सूंघता अतः अगन्ध है
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भिन्नत्वेन स्वयमस्पर्शगुणत्वात्, परमार्थतः पुद्गलद्रव्यस्वामित्वाभावाद् द्रव्येन्द्रियावष्टम्भेनास्पर्शनात्,
स्वभावतः क्षायोपशमिकभावाभावाद्भावेन्द्रियावलम्बेनास्पर्शनात्, सकलसाधारणैकसंवेदनपरिणाम-
स्वभावत्वात्केवलस्पर्शवेदनापरिणामापन्नत्वेनास्पर्शनात्, सकलज्ञेयज्ञायकतादात्म्यस्य निषेधात्त्
स्पर्शपरिच्छेदपरिणतत्वेऽपि स्वयं स्पर्शरूपेणापरिणमनाच्चास्पर्शः; तथा पुद्गलद्रव्यादन्यत्वेनाविद्यमान-
शब्दपर्यायत्वात्, पुद्गलद्रव्यपर्यायेभ्यो भिन्नत्वेन स्वयमशब्दपर्यायत्वात्, परमार्थतः पुद्गलद्रव्य-
स्वामित्वाभावाद् द्रव्येन्द्रियावष्टंभेन शब्दाश्रवणात्, स्वभावतः क्षायोपशमिकभावाभावाद्भावे-
न्द्रियावलंबेन शब्दाश्रवणात्, सकलसाधारणैक संवेदनपरिणामस्वभावत्वात्केवलशब्दवेदना-
परिणामापन्नत्वेन शब्दाश्रवणात्, सकलज्ञेयज्ञायकतादात्म्यस्य निषेधाच्छब्दपरिच्छेदपरिणतत्वेऽपि
नहीं परिणमता; अतः अगन्ध है
भावेन्द्रियके आलम्बन द्वारा भी स्पर्शको नहीं स्पर्शता; अतः अस्पर्श है
स्पर्शवेदनापरिणामको प्राप्त होकर स्पर्शको नहीं स्पर्शता अतः अस्पर्श है
परिणमित होने पर भी स्वयं स्पर्शरूप नहीं परिणमता; अतः अस्पर्श है
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नियतस्वभावेनानियतसंस्थानानन्तशरीरवर्तित्वात्, संस्थाननामकर्मविपाकस्य पुद्गलेषु निर्दिश्यमान-
त्वात्, प्रतिविशिष्टसंस्थानपरिणतसमस्तवस्तुतत्त्वसंवलितसहजसंवेदनशक्तित्वेऽपि स्वयमखिललोक-
संवलनशून्योपजायमाननिर्मलानुभूतितयात्यन्तमसंस्थानत्वाच्चानिर्दिष्टसंस्थानः; षड्द्रव्यात्मकलोका-
ज्ज्ञेयाद्वयक्तादन्यत्वात्, कषायचक्राद् भावकाद्वयक्तादन्यत्वात्, चित्सामान्यनिमग्नसमस्तव्यक्ति-
त्वात्, क्षणिकव्यक्तिमात्राभावात्, व्यक्ताव्यक्तविमिश्रप्रतिभासेऽपि व्यक्तास्पर्शत्वात्, स्वयमेव हि
बहिरन्तः स्फु टमनुभूयमानत्वेऽपि व्यक्तोपेक्षणेन प्रद्योतमानत्वाच्चाव्यक्तः : रसरूपगन्धस्पर्शशब्द-
संस्थानव्यक्तत्वाभावेऽपि स्वसंवेदनबलेन नित्यमात्मप्रत्यक्षत्वे सत्यनुमेयमात्रत्वाभावादलिंगग्रहणः;
शब्द नहीं सुनता; अतः अशब्द है
नहीं परिणमता; अतः अशब्द है
है
तदाकार) है ऐसा होने पर भी जिसे समस्त लोकके मिलापसे (
अनिर्दिष्टसंस्थान है
नहीं करता, इसलिये अव्यक्त है
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कवलीकृत्यात्यन्तसौहित्यमन्थरेणेव सकलकालमेव मनागप्यविचलितानन्यसाधारणतया स्वभावभूतेन
स्वयमनुभूयमानेन चेतनागुणेन नित्यमेवान्तःप्रकाशमानत्वात् चेतनागुणश्च; स खलु
भगवानमलालोक इहैकष्टंकोत्कीर्णः प्रत्यग्ज्योतिर्जीवः
स्फु टतरमवगाह्य स्वं च चिच्छक्तिमात्रम्
कलयतु परमात्मात्मानमात्मन्यनन्तम्
अलिंगग्रहण कहा जाता है
दिया है, जो समस्त लोकालोकको ग्रासीभूत करके मानों अत्यन्त तृप्तिसे उपशान्त हो गया हो
इसप्रकार (अर्थात् अत्यन्त स्वरूपसौख्यसे तृप्त-तृप्त होनेके कारण स्वरूपमेंसे बाहर निकलनेका
अनुद्यमी हो इसप्रकार) सर्व कालमें किंचित्मात्र भी चलायमान नहीं होता और इस तरह सदा
ही लेश मात्र भी नहीं चलित ऐसी अन्यद्रव्यसे असाधारणता होनेसे जो (असाधारण)
स्वभावभूत है
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[विश्वस्य उपरि ] समस्त पदार्थसमूहरूप लोकके ऊ पर [चारु चरन्तं ] सुन्दर रीतिसे प्रवर्तमान ऐसे
[इमम् ] यह [परम् ] एकमात्र [अनन्तम् ] अविनाशी [आत्मानम् ] आत्माका [आत्मनि ]
आत्मामें ही [साक्षात् कलयतु ] अभ्यास करो, साक्षात् अनुभव करो
इस चित्शक्तिसे शून्य [अमी भावाः ] जो ये भाव हैं [ सर्वे अपि ] वे सभी [पौद्गलिकाः ]
पुद्गलजन्य हैं
नहिं रूप अर संहनन नहिं, संस्थान नहिं, तन भी नहिं
प्रत्यय नहीं, नहिं कर्म अरु नोकर्म भी जीवके नहीं
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अध्यात्मस्थान न जीवके, अनुभागस्थान भी हैं नहीं
नहिं उदयस्थान न जीवके, अरु स्थान मार्गणके नहीं
जीवके विशुद्धिस्थान, संयमलब्धिस्थान भी हैं नहीं
ये सब ही पुद्गलद्रव्यके परिणाम हैं जानो यही
रूप भी नहीं, [न शरीरं ] शरीर भी नहीं, [संस्थानं अपि न ] संस्थान भी नहीं, [संहननम् न ]
संहनन भी नहीं; [जीवस्य ] जीवके [रागः नास्ति ] राग भी नहीं, [द्वेषः अपि न ] द्वेष भी नहीं,
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न ] कर्म भी नहीं [च ] और [नोकर्म अपि ] नोकर्म भी [तस्य नास्ति ] उसके नहीं हैं; [जीवस्य ]
जीवके [वर्गः नास्ति ] वर्ग नहीं, [वर्गणा न ] वर्गणा नहीं, [कानिचित् स्पर्धकानि न एव ] कोई
स्पर्धक भी नहीं, [अध्यात्मस्थानानि नो ] अध्यात्मस्थान भी नहीं [च ] और [अनुभागस्थानानि ]
अनुभागस्थान भी [न एव ] नहीं हैं; [जीवस्य ] जीवके [कानिचित् योगस्थानानि ] कोई योगस्थान
भी [न सन्ति ] नहीं [वा ] अथवा [बन्धस्थानानि न ] बंधस्थान भी नहीं, [च ] और
[उदयस्थानानि ] उदयस्थान भी [न एव ] नहीं, [कानिचित् मार्गणास्थानानि न ] कोई मार्गणास्थान
भी नहीं है; [जीवस्य ] जीवके [स्थितिबन्धस्थानानि नो ] स्थितिबंधस्थान भी नहीं [वा ] अथवा
[संक्लेशस्थानानि न ] संक्लेशस्थान भी नहीं, [विशुद्धिस्थानानि ] विशुद्धिस्थान भी [न एव ] नहीं
[वा ] अथवा [संयमलब्धिस्थानानि ] संयमलब्धिस्थान भी [नो ] नहीं हैं; [च ] और [जीवस्य ]
जीवके [जीवस्थानानि ] जीवस्थान भी [न एव ] नहीं [वा ] अथवा [गुणस्थानानि ] गुणस्थान
भी [न सन्ति ] नहीं हैं; [येन तु ] क्योंकि [एते सर्वे ] यह सब [पुद्गलद्रव्यस्य ] पुद्गलद्रव्यके
[परिणामाः ] परिणाम हैं
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पुद्गलद्रव्यपरिणाममयत्वे सत्यनुभूतेर्भिन्नत्वात्
पुद्गलद्रव्यपरिणाममयत्वे सत्यनुभूतेर्भिन्नत्वात्
यत्यनुभूतेर्भिन्नत्वात्
अनुभूतिसे भिन्न है
नहीं है, क्योंकि वह पुद्गलद्रव्यके परिणाममय होनेसे (अपनी) अनुभूतिसे भिन्न है
होनेसे (अपनी) अनुभूतिसे भिन्न है
अनुभूतिसे भिन्न है
अनुभूतिसे भिन्न है
होनेसे (अपनी) अनुभूतिसे भिन्न है
भिन्न है
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द्रव्यपरिणाममयत्वे सत्यनुभूतेर्भिन्नत्वात्
द्रव्यपरिणाममयत्वे सत्यनुभूतेर्भिन्नत्वात्
सत्यनुभूतेर्भिन्नत्वात्
हैं, क्योंकि वह पुद्गलद्रव्यके परिणाममय होनेसे (अपनी) अनुभूतिसे भिन्न है
ही जीवका नहीं है, क्योंकि वह पुद्गलद्रव्यके परिणाममय होनेसे (अपनी) अनुभूतिसे भिन्न
है
है
है
जो अध्यात्मस्थान हैं वह सर्व ही जीवके नहीं हैं, क्योंकि वह पुद्गलद्रव्यके परिणाममय होनेसे
(अपनी) अनुभूतिसे भिन्न है