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न सन्ति जीवस्य, पुद्गलद्रव्यपरिणाममयत्वे सत्यनुभूतेर्भिन्नत्वात् । यानि कायवाङ्मनोवर्गणा- परिस्पन्दलक्षणानि योगस्थानानि तानि सर्वाण्यपि न सन्ति जीवस्य, पुद्गलद्रव्यपरिणाममयत्वे सत्यनुभूतेर्भिन्नत्वात् । यानि प्रतिविशिष्टप्रकृतिपरिणामलक्षणानि बन्धस्थानानि तानि सर्वाण्यपि न सन्ति जीवस्य, पुद्गलद्रव्यपरिणाममयत्वे सत्यनुभूतेर्भिन्नत्वात् । यानि स्वफलसम्पादन- समर्थकर्मावस्थालक्षणान्युदयस्थानानि तानि सर्वाण्यपि न सन्ति जीवस्य, पुद्गलद्रव्यपरिणाममयत्वे सत्यनुभूतेर्भिन्नत्वात् । यानि गतीन्द्रियकाययोगवेदकषायज्ञानसंयमदर्शनलेश्याभव्यसम्यक्त्व- संज्ञाहारलक्षणानि मार्गणास्थानानि तानि सर्वाण्यपि न सन्ति जीवस्य, पुद्गलद्रव्यपरिणाममयत्वे सत्यनुभूतेर्भिन्नत्वात् । यानि प्रतिविशिष्टप्रकृतिकालान्तरसहत्वलक्षणानि स्थितिबन्धस्थानानि तानि सर्वाण्यपि न सन्ति जीवस्य, पुद्गलद्रव्यपरिणाममयत्वे सत्यनुभूतेर्भिन्नत्वात् । यानि कषायविपाकोद्रेकलक्षणानि संक्लेशस्थानानि तानि सर्वाण्यपि न सन्ति जीवस्य, पुद्गल- द्रव्यपरिणाममयत्वे सत्यनुभूतेर्भिन्नत्वात् । यानि कषायविपाकानुद्रेकलक्षणानि विशुद्धिस्थानानि तानि सर्वाण्यपि न सन्ति जीवस्य, पुद्गलद्रव्यपरिणाममयत्वे सत्यनुभूतेर्भिन्नत्वात् । यानि चारित्रमोह- (अपनी) अनुभूतिसे भिन्न है । १९ । कायवर्गणा, वचनवर्गणा और मनोवर्गणाका कम्पन जिनका लक्षण है ऐसे जो योग्यस्थान वे सर्व ही जीवके नहीं हैं, क्योंकि वह पुद्गलद्रव्यके परिणाममय होनेसे (अपनी) अनुभूतिसे भिन्न है । २० । भिन्न-भिन्न प्रकृतियोंके परिणाम जिनका लक्षण है ऐसे जो बन्धस्थान वे सर्व ही जीवके नहीं हैं, क्योंकि वह पुद्गलद्रव्यके परिणाममय होनेसे (अपनी) अनुभूतिसे भिन्न है । २१ । अपने फलके उत्पन्न करनेमें समर्थ कर्म-अवस्था जिनका लक्षण है ऐसे जो उदयस्थान वे सर्व ही जीवके नहीं हैं, क्योंकि वह पुद्गलद्रव्यके परिणाममय होनेसे (अपनी) अनुभूतिसे भिन्न है । २२ । गति, इन्द्रिय, काय, योग, वेद, कषाय, ज्ञान, संयम, दर्शन, लेश्या, भव्य, सम्यक्त्व, संज्ञा और आहार जिनका लक्षण है ऐसे जो मार्गणास्थान वे सर्व ही जीवके नहीं हैं, क्योंकि वह पुद्गलद्रव्यके परिणाममय होनेसे (अपनी) अनुभूतिसे भिन्न है । २३ । भिन्न-भिन्न प्रकृतियोंका अमुक काल तक साथ रहना जिनका लक्षण है ऐसे जो स्थितिबन्धस्थान वे सर्व ही जीवके नहीं हैं, क्योंकि वह पुद्गलद्रव्यके परिणाममय होनेसे (अपनी) अनुभूतिसे भिन्न है । २४ । कषायके विपाककी अतिशयता जिनका लक्षण है ऐसे जो संक्लेशस्थान वे सर्व ही जीवके नहीं हैं, क्योंकि वह पुद्गलद्रव्यके परिणाममय होनेसे (अपनी) अनुभूतिसे भिन्न है । २५ । कषायके विपाककी मन्दता जिनका लक्षण है ऐसे जो विशुद्धिस्थान वे सर्व ही जीवके नहीं हैं, क्योंकि वह पुद्गलद्रव्यके परिणाममय होनेसे (अपनी) अनुभूतिसे भिन्न है । २६ । चारित्रमोहके विपाककी क्रमशः निवृत्ति जिनका लक्षण है ऐसे जो संयमलब्धिस्थान वे सर्व ही जीवके नहीं हैं,
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विपाकक्रमनिवृत्तिलक्षणानि संयमलब्धिस्थानानि तानि सर्वाण्यपि न सन्ति जीवस्य, पुद्गलद्रव्य- परिणाममयत्वे सत्यनुभूतेर्भिन्नत्वात् । यानि पर्याप्तापर्याप्तबादरसूक्ष्मैकेन्द्रियद्वीन्द्रियत्रीन्द्रिय- चतुरिन्द्रियसंज्ञ्यसंज्ञिपंचेन्द्रियलक्षणानि जीवस्थानानि तानि सर्वाण्यपि न सन्ति जीवस्य, पुद्गलद्रव्यपरिणाममयत्वे सत्यनुभूतेर्भिन्नत्वात् । यानि मिथ्यादृष्टिसासादनसम्यग्दृष्टिसम्यग्मिथ्या- दृष्टयसंयतसम्यग्दृष्टिसंयतासंयतप्रमत्तसंयताप्रमत्तसंयतापूर्वकरणोपशमकक्षपकानिवृत्तिबादरसांप- रायोपशमकक्षपकसूक्ष्मसाम्परायोपशमकक्षपकोपशांतकषायक्षीणकषायसयोगकेवल्ययोगकेवलि- लक्षणानि गुणस्थानानि तानि सर्वाण्यपि न सन्ति जीवस्य, पुद्गलद्रव्यपरिणाममयत्वे सत्यनुभूतेर्भिन्नत्वात् ।
भिन्ना भावाः सर्व एवास्य पुंसः
तेनैवान्तस्तत्त्वतः पश्यतोऽमी
नो दृष्टाः स्युर्दृष्टमेकं परं स्यात् ।।३७।।
जिनके लक्षण हैं ऐसे जो जीवस्थान वे सर्व ही जीवके नहीं हैं, क्योंकि वह पुद्गलद्रव्यके
परिणाममय होनेसे (अपनी) अनुभूतिसे भिन्न है । २८ । मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि,
जो गुणस्थान वे सर्व ही जीवके नहीं हैं, क्योंकि वह पुद्गलद्रव्यके परिणाममय होनेसे (अपनी)
अनुभूतिसे भिन्न हैं । २९ । (इसप्रकार ये समस्त ही पुद्गलद्रव्यके परिणाममय भाव हैं; वे सब,
श्लोकार्थ : — [वर्ण-आद्याः ] जो वर्णादिक [वा ] अथवा [राग-मोह-आदयः वा ] रागमोहादिक [भावाः ] भाव कहे [सर्वे एव ] वे सब ही [अस्य पुंसः ] इस पुरुष (आत्मा)से [भिन्नाः ] भिन्न हैं, [तेन एव ] इसलिये [अन्तःतत्त्वतः पश्यतः ] अन्तर्दृष्टिसे देखनेवालेको [अमी नो दृष्टाः स्युः ] यह सब दिखाई नहीं देते, [एकं परं दृष्टं स्यात् ] मात्र एक सर्वोपरि तत्त्व ही दिखाई
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ननु वर्णादयो यद्यमी न सन्ति जीवस्य तदा तन्त्रान्तरे कथं सन्तीति प्रज्ञाप्यन्ते इति चेत् —
इह हि व्यवहारनयः किल पर्यायाश्रितत्वाज्जीवस्य पुद्गलसंयोगवशादनादिप्रसिद्ध- बन्धपर्यायस्य कुसुम्भरक्तस्य कार्पासिकवासस इवौपाधिकं भावमवलम्ब्योत्प्लवमानः परभावं परस्य देता है — केवल एक चैतन्यभावस्वरूप अभेदरूप आत्मा ही दिखाई देता है ।
भावार्थ : — परमार्थनय अभेद ही है, इसलिये इस दृष्टिसे देखने पर भेद नहीं दिखाई देता; इस नयकी दृष्टिमें पुरुष चैतन्यमात्र ही दिखाई देता है । इसलिये वे समस्त ही वर्णादिक तथा रागादिक भाव पुरुषसे भिन्न ही हैं ।
ये वर्णसे लेकर गुणस्थान पर्यन्त जो भाव हैं उनका स्वरूप विशेषरूपसे जानना हो तो गोम्मटसार आदि ग्रन्थोंसे जान लेना ।३७।
अब शिष्य पूछता है कि — यदि यह वर्णादिक भाव जीवके नहीं हैैं तो अन्य सिद्धान्तग्रन्थोंमें ऐसा कैसे कहा गया है कि ‘वे जीवके हैं’ ? उसका उत्तर गाथामें कहते हैं : —
पर कोई भी ये भाव नहिं हैं जीवके निश्चयविषैं ।।५६।।
गाथार्थ : — [एते ] यह [वर्णाद्याः गुणस्थानान्ताः भावाः ] वर्णसे लेकर गुणस्थानपर्यन्त जो भाव कहे गये वे [व्यवहारेण तु ] व्यवहारनयसे तो [जीवस्य भवन्ति ] जीवके हैं (इसलिये सूत्रमें कहे गये हैं), [तु ] किन्तु [निश्चयनयस्य ] निश्चयनयके मतमें [केचित् न ] उनमेंसे कोई भी जीवके नहीं हैं ।
टीका : — यहाँ, व्यवहारनय पर्यायाश्रित होनेसे, सफे द रूईसे बना हुआ वस्त्र जो कि कुसुम्बी (लाल) रङ्गसे रंगा हुआ है ऐसे वस्त्रके औपाधिक भाव ( – लाल रङ्ग)की भांति, पुद्गलके संयोगवश अनादि कालसे जिसकी बन्धपर्याय प्रसिद्ध है ऐसे जीवके औपाधिक भाव
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विदधाति; निश्चयनयस्तु द्रव्याश्रितत्वात्केवलस्य जीवस्य स्वाभाविकं भावमवलम्ब्योत्प्लवमानः परभावं परस्य सर्वमेव प्रतिषेधयति । ततो व्यवहारेण वर्णादयो गुणस्थानान्ता भावा जीवस्य सन्ति, निश्चयेन तु न सन्तीति युक्ता प्रज्ञप्तिः ।
यथा खलु सलिलमिश्रितस्य क्षीरस्य सलिलेन सह परस्परावगाहलक्षणे सम्बन्धे सत्यपि स्वलक्षणभूतक्षीरत्वगुणव्याप्यतया सलिलादधिकत्वेन प्रतीयमानत्वादग्नेरुष्णगुणेनेव सह ( – वर्णादिक)का अवलम्बन लेकर प्रवर्तमान होता हुआ, (वह व्यवहारनय) दूसरेके भावको दूसरेका कहता है; और निश्चयनय द्रव्याश्रित होनेसे, केवल एक जीवके स्वाभाविक भावका अवलम्बन लेकर प्रवर्तमान होता हुआ, दूसरेके भावको किंचित्मात्र भी दूसरेका नहीं कहता, निषेध करता है । इसलिये वर्णसे लेकर गुणस्थान पर्यन्त जो भाव हैं वे व्यवहारनयसे जीवके हैं और निश्चयनयसे जीवके नहीं हैं ऐसा (भगवानका स्याद्वादयुक्त) कथन योग्य है ।।५६।।
अब फि र शिष्य प्रश्न पूछता है कि वर्णादिक निश्चयसे जीवके क्यों नहीं हैं इसका कारण कहिये । इसका उत्तर गाथारूपसे कहते हैं : —
गाथार्थ : — [एतैः च सम्बन्धः ] इन वर्णादिक भावोंके साथ जीवका सम्बन्ध [क्षीरोदकं यथा एव ] दूध और पानीका एकक्षेत्रावगाहरूप संयोग सम्बन्ध है ऐसा [ज्ञातव्यः ] जानना [च ] और [तानि ] वे [तस्य तु न भवन्ति ] उस जीवके नहीं हैं, [यस्मात् ] क्योंकि जीव [उपयोगगुणाधिकः ] उनसे उपयोगगुणसे अधिक है ( – वह उपयोग गुणके द्वारा भिन्न ज्ञात होता है) ।
टीका : — जैसे — जलमिश्रित दूधका, जलके साथ परस्पर अवगाहस्वरूप सम्बन्ध होने पर भी, स्वलक्षणभूत दुग्धत्व-गुणके द्वारा व्याप्त होनेसे दूध जलसे अधिकपनेसे प्रतीत होता है;
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तादात्म्यलक्षणसम्बन्धाभावात् न निश्चयेन सलिलमस्ति, तथा वर्णादिपुद्गलद्रव्यपरिणाममिश्रित- स्यास्यात्मनः पुद्गलद्रव्येण सह परस्परावगाहलक्षणे सम्बन्धे सत्यपि स्वलक्षणभूतोपयोग- गुणव्याप्यतया सर्वद्रव्येभ्योऽधिकत्वेन प्रतीयमानत्वादग्नेरुष्णगुणेनेव सह तादात्म्यलक्षणसम्बन्धा- भावात् न निश्चयेन वर्णादिपुद्गलपरिणामाः सन्ति ।
सम्बन्ध न होनेसे, निश्चयसे जल दूधका नहीं है; इसप्रकार — वर्णादिक पुद्गलद्रव्यके परिणामोंके
स्वलक्षणभूत उपयोगगुणके द्वारा व्याप्त होनेसे आत्मा सर्व द्रव्योंसे अधिकपनेसे प्रतीत होता है;
इसलिये, जैसा अग्निका उष्णताके साथ तादात्म्यस्वरूप सम्बन्ध है वैसा वर्णादिके साथ आत्माका
सम्बन्ध नहीं है इसलिये, निश्चयसे वर्णादिक पुद्गलपरिणाम आत्माके नहीं हैं ।।५७।।
अब यहाँ प्रश्न होता है कि इसप्रकार तो व्यवहारनय और निश्चयनयका विरोध आता है, अविरोध कैसे कहा जा सकता है ? इसका उत्तर दृष्टान्त द्वारा तीन गाथाओंमें कहते हैं : —
जिनवर कहे व्यवहारसे ‘यह वर्ण है इस जीवका’ ।।५९।।
भूतार्थद्रष्टा पुरुषने व्यवहारनयसे वर्णये ।।६०।।
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यथा पथि प्रस्थितं कञ्चित्सार्थं मुष्यमाणमवलोक्य तात्स्थ्यात्तदुपचारेण मुष्यत एष पन्था इति व्यवहारिणां व्यपदेशेऽपि न निश्चयतो विशिष्टाकाशदेशलक्षणः कश्चिदपि पन्था मुष्यते, तथा जीवे बन्धपर्यायेणावस्थितंकर्मणो नोकर्मणो वा वर्णमुत्प्रेक्ष्य तात्स्थ्यात्तदुपचारेण जीवस्यैष वर्ण इति व्यवहारतोऽर्हद्देवानां प्रज्ञापनेऽपि न निश्चयतो नित्यमेवामूर्तस्वभावस्योपयोगगुणाधिकस्य जीवस्य कश्चिदपि वर्णोऽस्ति । एवं गन्धरसस्पर्शरूपशरीरसंस्थानसंहननरागद्वेषमोहप्रत्ययकर्मनोकर्म-
गाथार्थ : — [पथि मुष्यमाणं ] जैसे मार्गमें जाते हुये व्यक्तिको लुटता हुआ [दृष्टवा ] देखकर ‘[एषः पन्था ] यह मार्ग [मुष्यते ] लुटता है’ इसप्रकार [व्यवहारिणः लोकाः ] व्यवहारीजन [भणन्ति ] कहते हैं; किन्तु परमार्थसे विचार किया जाये तो [कश्चित् पन्था ] कोई मार्ग तो [न च मुष्यते ] नहीं लुटता, मार्गमें जाता हुआ मनुष्य ही लुटता है; [तथा ] इसप्रकार [जीवे ] जीवमें [कर्मणां नोकर्मणां च ] कर्मोंका और नोकर्मोंका [वर्णम् ] वर्ण [दृष्टवा ] देखकर ‘[जीवस्य ] जीवका [एषः वर्णः ] यह वर्ण है’ इसप्रकार [जिनैः ] जिनेन्द्रदेवने [व्यवहारतः ] व्यवहारसे [उक्त : ] कहा है । इसीप्रकार [गन्धरसस्पर्शरूपाणि ] गन्ध, रस, स्पर्श, रूप, [देहः संस्थानादयः ] देह, संस्थान आदि [ये च सर्वे ] जो सब हैं, [व्यवहारस्य ] वे सब व्यवहारसे [निश्चयद्रष्टारः ] निश्चयके देखनेवाले [व्यपदिशन्ति ] कहते हैं ।
टीका : — जैसे व्यवहारी जन, मार्गमें जाते हुए किसी सार्थ(संघ)को लुटता हुआ देखकर, संघकी मार्गमें स्थिति होनेसे उसका उपचार करके, ‘यह मार्ग लुटता है’ ऐसा कहते हैं, तथापि निश्चयसे देखा जाये तो, जो आकाशके अमुक भागस्वरूप है ऐसा कोई मार्ग तो नहीं लुटता; इसीप्रकार भगवान अरहन्तदेव, जीवमें बन्धपर्यायसे स्थितिको प्राप्त (रहा हुआ) कर्म और नोकर्मका वर्ण देखकर, (कर्म-नोकर्मके) वर्णकी (बन्धपर्यायसे) जीवमें स्थिति होनेसे उसका उपचार करके, ‘जीवका यह वर्ण है ऐसा व्यवहारसे प्रगट करते हैं, तथापि निश्चयसे, सदा ही जिसका अमूर्त स्वभाव है और जो उपयोगगुणके द्वारा अन्यद्रव्योंसे अधिक
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वर्गवर्गणास्पर्धकाध्यात्मस्थानानुभागस्थानयोगस्थानबंधस्थानोदयस्थानमार्गणास्थानस्थितिबन्धस्थान- संक्लेशस्थानविशुद्धिस्थानसंयमलब्धिस्थानजीवस्थानगुणस्थानान्यपि व्यवहारतोऽर्हद्देवानां प्रज्ञापनेऽपि निश्चयतो नित्यमेवामूर्तस्वभावस्योपयोगगुणेनाधिकस्य जीवस्य सर्वाण्यपि न सन्ति, तादात्म्य- लक्षणसम्बन्धाभावात्
है ऐसे जीवका कोई भी वर्ण नहीं है । इसीप्रकार गन्ध, रस, स्पर्श, रूप, शरीर, संस्थान, संहनन, राग, द्वेष, मोह, प्रत्यय, कर्म, नोकर्म, वर्ग, वर्गणा, स्पर्धक, अध्यात्मस्थान, अनुभागस्थान, योगस्थान, बन्धस्थान, उदयस्थान, मार्गणास्थान, स्थितिबन्धस्थान, संक्लेशस्थान, विशुद्धिस्थान, संयमलब्धिस्थान, जीवस्थान और गुणस्थान — यह सब ही (भाव) व्यवहारसे अरहन्तभगवान जीवके कहते हैं, तथापि निश्चयसे, सदा ही जिसका अमूर्त स्वभाव है और जो उपयोग गुणके द्वारा अन्यसे अधिक है ऐसे जीवके वे सब नहीं हैं, क्योंकि इन वर्णादि भावोंके और जीवके तादात्म्यलक्षण सम्बन्धका अभाव है ।
भावार्थ : — ये वर्णसे लेकर गुणस्थान पर्यन्त भाव सिद्धान्तमें जीवके कहे हैं वे व्यवहारनयसे कहे हैं; निश्चयनयसे वे जीवके नहीं हैं, क्योंकि जीव तो परमार्थसे उपयोगस्वरूप है ।
यहाँ ऐसा जानना कि — पहले व्यवहारनयको असत्यार्थ कहा था सो वहाँ ऐसा न समझना कि यह सर्वथा असत्यार्थ है, किन्तु कथंचित् असत्यार्थ जानना; क्योंकि जब एक द्रव्यको भिन्न, पर्यायोंसे अभेदरूप, उसके असाधारण गुणमात्रको प्रधान करके कहा जाता है तब परस्पर द्रव्योंका निमित्त-नैमित्तिकभाव तथा निमित्तसे होनेवाली पर्यायें — वे सब गौण हो जाते हैं, वे एक अभेदद्रव्यकी दृष्टिमें प्रतिभासित नहीं होते । इसलिये वे सब उस द्रव्यमें नहीं है इसप्रकार कथंचित् निषेध किया जाता है । यदि उन भावोंको उस द्रव्यमें कहा जाये तो वह व्यवहारनयसे कहा जा सकता है । ऐसा नयविभाग है ।
यहाँ शुद्धनयकी दृष्टिसे कथन है, इसलिये ऐसा सिद्ध किया है कि जो यह समस्त भाव सिद्धान्तमें जीवके कहे गये हैं सो व्यवहारसे कहे गये हैं । यदि निमित्त-नैमित्तिकभावकी दृष्टिसे देखा जाये तो वह व्यवहार कथंचित् सत्यार्थ भी कहा जा सकता है । यदि सर्वथा असत्यार्थ ही कहा जाये तो सर्व व्यवहारका लोप हो जायेगा और सर्व व्यवहारका लोप होनेसे परमार्थका भी लोप हो जायेगा । इसलिये जिनेन्द्रदेवका उपदेश स्याद्वादरूप समझना ही सम्यग्ज्ञान है, और सर्वथा एकान्त वह मिथ्यात्व है ।।५८* से ६०।।
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यत्किल सर्वास्वप्यवस्थासु यदात्मकत्वेन व्याप्तं भवति तदात्मकत्वव्याप्तिशून्यं न भवति, तस्य तैः सह तादात्म्यलक्षणः सम्बन्धः स्यात् । ततः सर्वास्वप्यवस्थासु वर्णाद्यात्मकत्वव्याप्तस्य भवतो वर्णाद्यात्मकत्वव्याप्तिशून्यस्याभवतश्च पुद्गलस्य वर्णादिभिः सह तादात्म्यलक्षणः संबंधः स्यात्; संसारावस्थायां कथंचिद्वर्णाद्यात्मकत्वव्याप्तस्य भवतो वर्णाद्यात्मकत्वव्याप्ति- शून्यस्याभवतश्चापि मोक्षावस्थायां सर्वथा वर्णाद्यात्मकत्वव्याप्तिशून्यस्य भवतो वर्णाद्यात्म-
अब यहाँ प्रश्न होता है कि वर्णादिके साथ जीवका तादात्म्यलक्षण सम्बन्ध क्यों नहीं है ? उसके उत्तरस्वरूप गाथा कहते हैं : —
संसारसे परिमुक्तके नहिं भाव को वर्णादिके ।।६१।।
गाथार्थ : — [वर्णादयः ] जो वर्णादिक हैं वे [संसारस्थानां ] संसारमें स्थित [जीवानां ] जीवोंके [तत्र भवे ] उस संसारमें [भवन्ति ] होते हैं और [संसारप्रमुक्तानां ] संसारसे मुक्त हुए जीवोंके [खलु ] निश्चयसे [वर्णादयः के चित् ] वर्णादिक कोई भी (भाव) [न सन्ति ] नहीं है; (इसलिये तादात्म्यसम्बन्ध नहीं है) ।
टीका : — जो निश्चयसे समस्त ही अवस्थाओंमें यद्-आत्मकपनेसे अर्थात् जिस -स्वरूपपनेसे व्याप्त हो और तद्-आत्मकपनेकी अर्थात् उस-स्वरूपपनेकी व्याप्तिसे रहित न हो, उसका उनके साथ तादात्म्यलक्षण सम्बन्ध होता है । (जो वस्तु सर्व अवस्थाओंमें जिस भावस्वरूप हो और किसी अवस्थामें उस भावस्वरूपताको न छोड़े, उस वस्तुका उन भावोंके साथ तादात्म्यसम्बन्ध होता है ।) इसलिये सभी अवस्थाओंमें जो वर्णादिस्वरूपतासे व्याप्त होता है और वर्णादिस्वरूपताकी व्याप्तिसे रहित नहीं होता ऐसे पुद्गलका वर्णादिभावोंके साथ तादात्म्यलक्षण सम्बन्ध है; और यद्यपि संसार-अवस्थामें कथंचित् वर्णादिस्वरूपतासे व्याप्त होता है तथा
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क त्वव्याप्तस्याभवतश्च जीवस्य वर्णादिभिः सह तादात्म्यलक्षणः सम्बन्धो न कथंचनापि स्यात् ।
यथा वर्णादयो भावाः क्रमेण भाविताविर्भावतिरोभावाभिस्ताभिस्ताभिर्व्यक्तिभिः वर्णादिस्वरूपताकी व्याप्तिसे रहित नहीं होता तथापि मोक्ष-अवस्थामें जो सर्वथा वर्णादिस्वरूपताकी व्याप्तिसे रहित होता है और वर्णादिस्वरूपतासे व्याप्त नहीं होता ऐसे जीवका वर्णादिभावोंके साथ किसी भी प्रकारसे तादात्म्यलक्षण सम्बन्ध नहीं है ।
भावार्थ : — द्रव्यकी सर्व अवस्थाओंमें द्रव्यमें जो भाव व्याप्त होते हैं उन भावोंके साथ द्रव्यका तादात्म्यसम्बन्ध कहलाता है । पुद्गलकी सर्व अवस्थाओंमें पुद्गलमें वर्णादिभाव व्याप्त हैं, इसलिये वर्णादिभावोंके साथ पुद्गलका तादात्म्यसम्बन्ध है । संसारावस्थामें जीवमें वर्णादिभाव किसी प्रकारसे कहे जा सकते हैं, किन्तु मोक्ष-अवस्थामें जीवमें वर्णादिभाव सर्वथा नहीं हैं, इसलिये जीवका वर्णादिभावोंके साथ तादात्म्यसम्बन्ध नहीं है यह बात न्यायप्राप्त है ।।६१।।
अब, यदि कोई ऐसा मिथ्या अभिप्राय व्यक्त करे कि जीवका वर्णादिके साथ तादात्म्य है, तो उसमें यह दोष आता है ऐसा इस गाथा द्वारा कहते हैं : —
तो जीव और अजीवमें कुछ भेद तुझ रहता नहीं ! ।।६२।।
गाथार्थ : — वर्णादिक के साथ जीवका तादात्म्य माननेवालेको कहते हैं कि — हे मिथ्या अभिप्रायवाले ! [यदि हि च ] यदि तुम [इति मन्यसे ] ऐसे मानोगे कि [एते सर्वे भावाः ] यह वर्णादिक सर्व भाव [जीवः एव हि ] जीव ही हैं, [तु ] तो [ते ] तुम्हारे मतमें [जीवस्य च अजीवस्य ] जीव और अजीवका [कश्चित् ] कोई [विशेषः ] भेद [नास्ति ] नहीं रहता ।
टीका : — जैसे वर्णादिक भाव, क्रमशः आविर्भाव (प्रगट होना, उपजना) और तिरोभाव (छिप जाना, नाश हो जाना) को प्राप्त होनेवाली ऐसी उन-उन व्यक्तियोंके द्वारा (अर्थात् पर्यायोंके
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पुद्गलद्रव्यमनुगच्छन्तः पुद्गलस्य वर्णादितादात्म्यं प्रथयन्ति, तथा वर्णादयो भावाः क्रमेण भाविताविर्भावतिरोभावाभिस्ताभिस्ताभिर्व्यक्तिभिर्जीवमनुगच्छन्तो जीवस्य वर्णादितादात्म्यं प्रथयन्तीति यस्याभिनिवेशः तस्य शेषद्रव्यासाधारणस्य वर्णाद्यात्मकत्वस्य पुद्गललक्षणस्य जीवेन स्वीकरणा- ज्जीवपुद्गलयोरविशेषप्रसक्तौ सत्यां पुद्गलेभ्यो भिन्नस्य जीवद्रव्यस्याभावाद्भवत्येव जीवाभावः ।
उन-उन व्यक्तियोंके द्वारा जीवके साथ ही साथ रहते हुए, जीवका वर्णादिकके साथ तादात्म्य
प्रसिद्ध करते हैं, विस्तारते हैं — ऐसा जिसका अभिप्राय है उसके मतमें, अन्य शेष द्रव्योंसे
पर, पुद्गलोंसे भिन्न ऐसा कोई जीवद्रव्य न रहनेसे, जीवका अवश्य अभाव होता है ।
भावार्थ : — जैसे वर्णादिक भाव पुद्गलद्रव्यके साथ तादात्म्यस्वरूप हैं उसी प्रकार जीवके साथ भी तादात्म्यस्वरूप हों तो जीव-पुद्गलमें कुछ भी भेद न रहे और ऐसा होनेसे जीवका अभाव ही हो जाये यह महादोष आता है ।।६२।।
अब, ‘मात्र संसार-अवस्थामें ही जीवका वर्णादिके साथ तादात्म्य है इस अभिप्रायमें भी यही दोष आता है सो कहते हैं : —
संसारस्थित सब जीवगण पाये तदा रूपित्वको ।।६३।।
अरु मोक्षप्राप्त हुआ भि पुद्गलद्रव्य जीव बने अरे ! ।।६४।।
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यस्य तु संसारावस्थायां जीवस्य वर्णादितादात्म्यमस्तीत्यभिनिवेशस्तस्य तदानीं स जीवो रूपित्वमवश्यमवाप्नोति । रूपित्वं च शेषद्रव्यासाधारणं कस्यचिद् द्रव्यस्य लक्षणमस्ति । ततो रूपित्वेन लक्ष्यमाणं यत्किञ्चिद्भवति स जीवो भवति । रूपित्वेन लक्ष्यमाणं पुद्गलद्रव्यमेव भवति । एवं पुद्गलद्रव्यमेव स्वयं जीवो भवति, न पुनरितरः कतरोऽपि । तथा च सति, मोक्षावस्थायामपि नित्यस्वलक्षणलक्षितस्य द्रव्यस्य सर्वास्वप्यवस्थास्वनपायित्वादनादिनिधनत्वेन पुद्गलद्रव्यमेव स्वयं जीवो भवति, न पुनरितरः कतरोऽपि । तथा च सति, तस्यापि पुद्गलेभ्यो भिन्नस्य
गाथार्थ : — [अथ ] अथवा यदि [तव ] तुम्हारा मत यह हो कि — [संसारस्थानां जीवानां ] संसारमें स्थित जीवोंके ही [वर्णादयः ] वर्णादिक (तादात्म्यस्वरूपसे) [भवन्ति ] हैं, [तस्मात् ] तो इस कारणसे [संसारस्थाः जीवाः ] संसारमें स्थित जीव [रूपित्वम् आपन्नाः ] रूपित्वको प्राप्त हुये; [एवं ] ऐसा होने पर, [तथालक्षणेन ] वैसा लक्षण (अर्थात् रूपित्वलक्षण) तो पुद्गलद्रव्यका होनेसे, [मूढमते ] हे मूढबुद्धि ! [पुद्गलद्रव्यं ] पुद्गलद्रव्य ही [जीवः ] जीव कहलाया [च ] और (मात्र संसार-अवस्थामें ही नहीं किन्तु) [निर्वाणम् उपगतः अपि ] निर्वाण प्राप्त होने पर भी [पुद्गलः ] पुद्गल ही [जीवत्वं ] जीवत्वको [प्राप्तः ] प्राप्त हुआ !
टीका : — फि र जिसका यह अभिप्राय है कि — संसार-अवस्थामें जीवका वर्णादिभावोंके साथ तादात्म्यसम्बन्ध है, उसके मतमें संसार-अवस्थाके समय वह जीव अवश्य रूपित्वको प्राप्त होता है; और रूपित्व तो किसी द्रव्यका, शेष द्रव्योंसे असाधारण ऐसा लक्षण है । इसलिये रूपित्व(लक्षण)से लक्षित (लक्ष्यरूप होनेवाला) जो कुछ हो वही जीव है । रूपित्वसे लक्षित तो पुद्गलद्रव्य ही है । इसप्रकार पुद्गलद्रव्य ही स्वयं जीव है, किन्तु उसके अतिरिक्त दूसरा कोई जीव नहीं है । ऐसा होने पर, मोक्ष-अवस्थामें भी पुद्गलद्रव्य ही स्वयं जीव (सिद्ध होता) है, किन्तु उसके अतिरिक्त अन्य कोई जीव (सिद्ध होता) नहीं; क्योंकि सदा अपने स्वलक्षणसे लक्षित ऐसा द्रव्य सभी अवस्थाओंमें हानि अथवा ह्रासको न प्राप्त होनेसे अनादि-अनन्त होता है । ऐसा होनेसे, उसके मतमें भी (संसार-अवस्थामें ही जीवका वर्णादिके साथ तादात्य माननेवालेके मतमें भी), पुद्गलोंसे भिन्न ऐसा कोई जीवद्रव्य न रहनेसे, जीवका अवश्य अभाव होता है ।
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जीवद्रव्यस्याभावाद्भवत्येव जीवाभावः ।
पुद्गलद्रव्य ही जीवद्रव्य सिद्ध हुआ, उसके अतिरिक्त कोई चैतन्यरूप जीवद्रव्य नहीं रहा । और
कोई चैतन्यरूप जीव नहीं रहा । इसप्रकार संसार तथा मोक्षमें पुद्गलसे भिन्न ऐसा कोई चैतन्यरूप
पर्याप्त-अनपर्याप्त जीव जु नामकर्मकी प्रकृति हैं ।।६५।।
उससे रचित जीवस्थान जो हैं, जीव क्यों हि कहाय वे ? ।।६६।।
गाथार्थ : — [एकं वा ] एकेन्द्रिय, [द्वे ] द्वीन्द्रिय, [त्रीणि च ] त्रीन्द्रिय, [चत्वारि च ] चतुरिन्द्रिय, [पञ्चेन्द्रियाणि ] पंचेन्द्रिय, [बादरपर्याप्तेतराः ] बादर, सूक्ष्म, पर्याप्त और अपर्याप्त [जीवाः ] जीव — यह [नामकर्मणः ] नामकर्मकी [प्रकृतयः ] प्रकृतियाँ हैं; [एताभिः च ] इन
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निश्चयतः कर्मकरणयोरभिन्नत्वात् यद्येन क्रियते तत्तदेवेति कृत्वा, यथा कनकपत्रं कनकेन क्रियमाणं कनकमेव, न त्वन्यत्, तथा जीवस्थानानि बादरसूक्ष्मैकेन्द्रियद्वित्रिचतुःपंचेन्द्रिय- पर्याप्तापर्याप्ताभिधानाभिः पुद्गलमयीभिः नामकर्मप्रकृतिभिः क्रियमाणानि पुद्गल एव, न तु जीवः । नामकर्मप्रकृतीनां पुद्गलमयत्वं चागमप्रसिद्धं दृश्यमानशरीरादिमूर्तकार्यानुमेयं च । एवं गन्धरसस्पर्शरूपशरीरसंस्थानसंहननान्यपि पुद्गलमयनामकर्मप्रकृतिनिर्वृत्तत्वे सति तदव्यतिरेका- ज्जीवस्थानैरेवोक्तानि । ततो न वर्णादयो जीव इति निश्चयसिद्धान्तः ।
तदेव तत्स्यान्न कथंचनान्यत् ।
[करणभूताभिः ] करणस्वरूप होकर [निर्वृत्तानि ] रचित [जीवस्थानानि ] जो जीवस्थान
(जीवसमास) हैं वे [जीवः ] जीव [कथं ] कैसे [भण्यते ] कहे जा सकते हैं ?
टीका : — निश्चयनयसे कर्म और करणकी अभिन्नता होनेसे, जो जिससे किया जाता है ( – होता है) वह वही है — यह समझकर (निश्चय करके), जैसे सुवर्णपत्र सुवर्णसे किया जाता होनेसे सुवर्ण ही है, अन्य कुछ नहीं है, इसीप्रकार जीवस्थान बादर, सूक्ष्म, एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय, पर्याप्त और अपर्याप्त नामक पुद्गलमयी नामकर्मकी प्रकृतियोंसे किये जाते होनेसे पुद्गल ही हैं, जीव नहीं हैं । और नामकर्मकी प्रकृतियोंकी पुद्गलमयता तो आगमसे प्रसिद्ध है तथा अनुमानसे भी जानी जा सकती है, क्योंकि प्रत्यक्ष दिखाई देनेवाले शरीर आदि तो मूर्तिक भाव हैं वे कर्मप्रकृतियोंके कार्य हैं, इसलिये कर्मप्रकृतियाँ पुद्गलमय हैं ऐसा अनुमान हो सकता है ।
इसीप्रकार गन्ध, रस, स्पर्श, रूप, शरीर, संस्थान और संहनन भी पुद्गलमय नामकर्मकी प्रकृतियोंके द्वारा रचित होनेसे पुद्गलसे अभिन्न है; इसलिये मात्र जीवस्थानोंको पुद्गलमय कहने पर, इन सबको भी पुद्गलमय ही कथित समझना चाहिये ।
श्लोकार्थ : — [येन ] जिस वस्तुसे [अत्र यद् किंचित् निर्वर्त्यते ] जो भाव बने, [तत् ] वह भाव [तद् एव स्यात् ] वह वस्तु ही है, [कथंचन ] किसी भी प्रकार [ अन्यत् न ] अन्य वस्तु नहीं है; [इह ] जैसे जगतमें [रुक्मेण निर्वृत्तम् असिकोशं ] स्वर्णनिर्मित म्यानको [रुक्मं पश्यन्ति ] लोग
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पश्यन्ति रुक्मं न कथंचनासिम् ।।३८।।
निर्माणमेकस्य हि पुद्गलस्य ।
यतः स विज्ञानघनस्ततोऽन्यः ।।३९।।
श्लोकार्थ : — अहो ज्ञानी जनों ! [इदं वर्णादिसामग्रयम् ] ये वर्णादिकसे लेकर गुणस्थानपर्यंत भाव हैं उन समस्तको [एकस्य पुद्गलस्य हि निर्माणम् ] एक पुद्गलकी रचना [विदन्तु ] जानो; [ततः ] इसलिये [इदं ] यह भाव [पुद्गलः एव अस्तु ] पुद्गल ही हों, [न आत्मा ] आत्मा न हों; [यतः ] क्योंकि [सः विज्ञानघनः ] आत्मा तो विज्ञानघन है, ज्ञानका पुंज है, [ततः ] इसलिये [अन्यः ] वह इन वर्णादिक भावोंसे अन्य ही है ।३९।
अब, यह कहते हैं कि ज्ञानघन आत्माके अतिरिक्त जो कुछ है उसे जीव कहना सो सब व्यवहार मात्र है : —
व्यवहारसे कही जीवसंज्ञा देहको शास्त्रन महीं ।।६७।।
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यत्किल बादरसूक्ष्मैकेन्द्रियद्वित्रिचतुःपञ्चेन्द्रियपर्याप्तापर्याप्ता इति शरीरस्य संज्ञाः सूत्रे जीवसंज्ञात्वेनोक्ताः अप्रयोजनार्थः परप्रसिद्धया घृतघटवद्वयवहारः । यथा हि कस्यचिदाजन्म- प्रसिद्धैकघृतकुम्भस्य तदितरकुम्भानभिज्ञस्य प्रबोधनाय योऽयं घृतकुम्भः स मृण्मयो, न घृतमय इति तत्प्रसिद्धया कुम्भे घृतकुम्भव्यवहारः, तथास्याज्ञानिनो लोकस्यासंसारप्रसिद्धाशुद्धजीवस्य शुद्धजीवानभिज्ञस्य प्रबोधनाय योऽयं वर्णादिमान् जीवः स ज्ञानमयो, न वर्णादिमय इति तत्प्रसिद्धया जीवे वर्णादिमद्वयवहारः ।
[सूत्रे ] सूत्रमें [व्यवहारतः ] व्यवहारसे [उक्ताः ] कही हैं ।
टीका : — बादर, सूक्ष्म, एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय, पर्याप्त, अपर्याप्त — इन शरीरकी संज्ञाओंको (नामोंको) सूत्रमें जीवसंज्ञारूपसे कहा है, वह परकी प्रसिद्धिके कारण, ‘घीके घड़े’ की भाँति व्यवहार है — कि जो व्यवहार अप्रयोजनार्थ है (अर्थात् उसमें प्रयोजनभूत वस्तु नहीं है) । इसी बातको स्पष्ट कहते हैं : —
जैसे किसी पुरुषको जन्मसे लेकर मात्र ‘घीका घड़ा’ ही प्रसिद्ध (ज्ञात) हो, उसके अतिरिक्त वह दूसरे घड़ेको न जानता हो, उसे समझानेके लिये ‘‘जो यह ‘घीका घड़ा’ है सो मिट्टीमय है, घीमय नहीं’’ इसप्रकार (समझानेवालेके द्वारा) घड़ेमें ‘घीका घड़े’का व्यवहार किया जाता है, क्योंकि उस पुरुषको ‘घीका घड़ा’ ही प्रसिद्ध (ज्ञात) है; इसीप्रकार इस अज्ञानी लोकको अनादि संसारसे लेकर ‘अशुद्ध जीव’ ही प्रसिद्ध (ज्ञात) है, वह शुद्ध जीवको नहीं जानता, उसे समझानेके लिये ( — शुद्ध जीवका ज्ञान करानेके लिये) ‘‘जो यह ‘वर्णादिमान जीव’ है सो ज्ञानमय है , वर्णादिमय नहीं ’’ इसप्रकार (सूत्रमें) जीवमें वर्णादि-मानपनेका व्यवहार किया गया है, क्योंकि उस अज्ञानी लोकको ‘वर्णादिमान् जीव’ ही प्रसिद्ध (ज्ञात) हैं ।।६७।।
श्लोकार्थ : — [चेत् ] यदि [घृतकुम्भाभिधाने अपि ] ‘घीका घड़ा’ ऐसा कहने पर भी [कुम्भः घृतमयः न ] घड़ा है वह घीमय नहीं है ( — मिट्टीमय ही है), [वर्णादिमत्-जीव-जल्पने अपि ] तो इसीप्रकार ‘वर्णादिमान् जीव’ ऐसा कहने पर भी [जीवः न तन्मयः ] जीव है वह वर्णादिमय नहीं है (-ज्ञानघन ही है) ।
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मिथ्यादृष्टयादीनि गुणस्थानानि हि पौद्गलिकमोहकर्मप्रकृतिविपाकपूर्वकत्वे सति, नित्यमचेतनत्वात्, कारणानुविधायीनि कार्याणीति कृत्वा, यवपूर्वका यवा यवा एवेति न्यायेन, पुद्गल एव, न तु जीवः । गुणस्थानानां नित्यमचेतनत्वं चागमाच्चैतन्यस्वभावव्याप्तस्यात्मनो-
भावार्थ : — घीसे भरे हुए घड़ेको व्यवहारसे ‘घीका घड़ा’ कहा जाता है तथापि निश्चयसे घड़ा घी-स्वरूप नहीं है; घी घी-स्वरूप है, घड़ा मिट्टी-स्वरूप है; इसीप्रकार वर्ण, पर्याप्ति, इन्द्रियाँ इत्यादिके साथ एकक्षेत्रावगाहरूप सम्बन्धवाले जीवको सूत्रमें व्यवहारसे ‘पंचेन्द्रिय जीव, पर्याप्त जीव, बादर जीव, देव जीव, मनुष्य जीव’ इत्यादि कहा गया है तथापि निश्चयसे जीव उस-स्वरूप नहीं है; वर्ण, पर्याप्ति, इन्द्रियाँ इत्यादि पुद्गलस्वरूप हैं, जीव ज्ञानस्वरूप है ।४०।
अब कहते हैं कि (जैसे वर्णादि भाव जीव नहीं हैं यह सिद्ध हुआ उसीप्रकार) यह भी सिद्ध हुआ कि रागादि भाव भी जीव नहीं हैं : —
वे क्यों बने आत्मा, निरन्तर जो अचेतन जिन कहे ? ।।६८।।
गाथार्थ : — [यानि इमानि ] जो यह [गुणस्थानानि ] गुणस्थान हैं वे [मोहनकर्मणः उदयात् तु ] मोहकर्मके उदयसे होते हैं [वर्णितानि ] ऐसा (सर्वज्ञके आगममें) वर्णन किया गया है; [तानि ] वे [जीवाः ] जीव [कथं ] कैसे [भवन्ति ] हो सकते हैं [यानि ] कि जो [नित्यं ] सदा [अचेतनानि ] अचेतन [उक्तानि ] कहे गये हैं ?
टीका : — ये मिथ्यादृष्टि आदि गुणस्थान पौद्गलिक मोहकर्मकी प्रकृतिके उदयपूर्वक होते होनेसे, सदा ही अचेतन होनेसे, कारण जैसे ही कार्य होते हैं ऐसा समझकर (निश्चयकर) जौपूर्वक होनेवाले जो जौ, वे जौ ही होते हैं इसी न्यायसे, वे पुद्गल ही हैं — जीव नहीं । और गुणस्थानोंका सदा ही अचेतनत्व तो आगमसे सिद्ध होता है तथा चैतन्यस्वभावसे व्याप्त जो आत्मा उससे भिन्नपनेसे वे गुणस्थान भेदज्ञानियोंके द्वारा स्वयं उपलभ्यमान हैं, इसलिये भी उनका सदा ही अचेतनत्व सिद्ध होता है ।
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ऽतिरिक्तत्वेन विवेचकैः स्वयमुपलभ्यमानत्वाच्च प्रसाध्यम् ।
एवं रागद्वेषमोहप्रत्ययकर्मनोकर्मवर्गवर्गणास्पर्धकाध्यात्मस्थानानुभागस्थानयोगस्थानबंध- स्थानोदयस्थानमार्गणास्थानस्थितिबंधस्थानसंक्लेशस्थानविशुद्धिस्थानसंयमलब्धिस्थानान्यपि पुद्गल- कर्मपूर्वकत्वे सति, नित्यमचेतनत्वात्, पुद्गल एव, न तु जीव इति स्वयमायातम् । ततो रागादयो भावा न जीव इति सिद्धम् ।
इसीप्रकार राग, द्वेष, मोह, प्रत्यय, कर्म, नोकर्म, वर्ग, वर्गणा, स्पर्धक, अध्यात्मस्थान, अनुभागस्थान, योगस्थान, बन्धस्थान, उदयस्थान, मार्गणास्थान, स्थितिबन्धस्थान, संक्लेशस्थान, विशुद्धिस्थान और संयमलब्धिस्थान भी पुद्गलकर्मपूर्वक होते होनेसे, सदा ही अचेतन होनेसे, पुद्गल ही हैं — जीव नहीं ऐसा स्वतः सिद्ध हो गया ।
भावार्थ : — शुद्धद्रव्यार्थिक नयकी दृष्टिमें चैतन्य अभेद है और उसके परिणाम भी स्वाभाविक शुद्ध ज्ञान-दर्शन हैं । परनिमित्तसे होनेवाले चैतन्यके विकार, यद्यपि चैतन्य जैसे दिखाई देते हैं तथापि, चैतन्यकी सर्व अवस्थाओंमें व्यापक न होनेसे चैतन्यशून्य हैं — जड़ हैं । और आगममें भी उन्हें अचेतन कहा है । भेदज्ञानी भी उन्हें चैतन्यसे भिन्नरूप अनुभव करते हैं, इसलिये भी वे अचेतन हैं, चेतन नहीं ।
जैसा ही कार्य होता है ।
इसप्रकार यह सिद्ध किया कि पुद्गलकर्मके उदयके निमित्तसे होनेवाले चैतन्यके विकार भी जीव नहीं, पुद्गल हैं ।।६८।।
अब यहाँ प्रश्न होता है कि वर्णादिक और रागादिक जीव नहीं हैं तो जीव कौन है ? उसके उत्तररूप श्लोक कहते हैं : —
श्लोकार्थ : — [अनादि ] जो अनादि१ है, [अनन्तम् ] अनन्त२ है, [अचलं ] १. अर्थात् किसी काल उत्पन्न नहीं हुआ । २. अर्थात् किसी काल जिसका विनाश नहीं ।
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नामूर्तत्वमुपास्य पश्यति जगज्जीवस्य तत्त्वं ततः ।
व्यक्तं व्यंजितजीवतत्त्वमचलं चैतन्यमालम्ब्यताम् ।।४२।।
अचल१ है, [स्वसंवेद्यम् ] स्वसंवेद्य२ है [तु ] और [स्फु टम् ] प्रगट३ है — ऐसा जो [इदं चैतन्यम् ] यह चैतन्य [उच्चैः ] अत्यन्त [चकचकायते ] चकचकित – प्रकाशित हो रहा है, [स्वयं जीवः ] वह स्वयं ही जीव है ।
भावार्थ : — वर्णादिक और रागादिक भाव जीव नहीं हैं, किन्तु जैसा ऊ पर कहा वैसा चैतन्यभाव ही जीव है ।४१।
श्लोकार्थ : — [यतः अजीवः अस्ति द्वेधा ] अजीव दो प्रकारके हैं — [वर्णाद्यैः सहितः ] वर्णादिसहित [तथा विरहितः ] और वर्णादिरहित; [ततः ] इसलिये [अमूर्तत्वम् उपास्य ] अमूर्तत्वका आश्रय लेकर भी (अर्थात् अमूर्तत्वको जीवका लक्षण मानकर भी) [जीवस्य तत्त्वं ] जीवके यथार्थ स्वरूपको [जगत् न पश्यति ] जगत् नहीं देख सकता; — [इति आलोच्य ] इसप्रकार परीक्षा करके [विवेचकैः ] भेदज्ञानी पुरुषोंने [न अव्यापि अतिव्यापि वा ] अव्याप्ति और अतिव्याप्ति दूषणोंसे रहित [चैतन्यम् ] चेतनत्वको जीवका लक्षण कहा है [समुचितं ] वह योग्य है । [व्यक्तं ] वह चैतन्यलक्षण प्रगट है, [व्यंजित-जीव-तत्त्वम् ] उसने जीवके यथार्थ स्वरूपको प्रगट किया है और [अचलं ] वह अचल है — चलाचलता रहित, सदा विद्यमान है । [आलम्ब्यताम् ] जगत् उसीका अवलम्बन करो ! (उससे यथार्थ जीवका ग्रहण होता है ।)
भावार्थ : — निश्चयसे वर्णादिभाव — वर्णादिभावोंमें रागादिभाव अन्तर्हित हैं — जीवमें कभी व्याप्ति नहीं होते, इसलिये वे निश्चयसे जीवके लक्षण हैं ही नहीं; उन्हें व्यवहारसे जीवका लक्षण मानने पर भी अव्याप्ति नामक दोष आता है, क्योंकि सिद्ध जीवोंमें वे भाव व्यवहारसे भी व्याप्त नहीं होते । इसलिये वर्णादिभावोंका आश्रय लेनेसे जीवका यथार्थस्वरूप जाना ही नहीं जाता ।
यद्यपि अमूर्तत्व सर्व जीवोंमें व्याप्त है तथापि उसे जीवका लक्षण मानने पर अतिव्याप्तिनामक दोष आता है,कारण कि पाँच अजीव द्रव्योंमेंसे एक पुद्गलद्रव्यके अतिरिक्त धर्म, १. अर्थात् जो कभी चैतन्यपनेसे अन्यरूप – चलाचल नहीं होता । २. अर्थात् जो स्वयं अपने आपसे ही जाना
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ज्ञानी जनोऽनुभवति स्वयमुल्लसन्तम् ।
मोहस्तु तत्कथमहो बत नानटीति ।।४३।।
वर्णादिमान्नटति पुद्गल एव नान्यः ।
चैतन्यधातुमयमूर्तिरय च जीवः ।।४४।।
अधर्म, आकाश और काल — ये चार द्रव्य अमूर्त होनेसे, अमूर्तत्व जीवमें व्यापता है वैसे ही चार अजीव द्रव्योंमें भी व्यापता है; इसप्रकार अतिव्याप्ति दोष आता है । इसलिये अमूर्तत्वका आश्रय लेनेसे भी जीवके यथार्थ स्वरूपका ग्रहण नहीं होता ।
चैतन्यलक्षण सर्व जीवोंमें व्यापता होनेसे अव्याप्तिदोषसे रहित है, और जीवके अतिरिक्त किसी अन्य द्रव्यमें व्यापता न होनेसे अतिव्याप्तिदोषसे रहित है; और वह प्रगट है; इसलिये उसीका आश्रय ग्रहण करनेसे जीवके यथार्थ स्वरूपका ग्रहण हो सकता है ।४२।
अब, ‘जब कि ऐसे लक्षणसे जीव प्रगट है तब भी अज्ञानी जनोंको उसका अज्ञान क्यों रहता है ? — इसप्रकार आचार्यदेव आश्चर्य तथा खेद प्रगट करते हैं : —
श्लोकार्थ : — [इति लक्षणतः ] यों पूर्वोक्त भिन्न लक्षणके कारण [जीवात् अजीवम् विभिन्नं ] जीवसे अजीव भिन्न है [स्वयम् उल्लसन्तम् ] उसे (अजीवको) अपने आप ही (-स्वतन्त्रपने, जीवसे भिन्नपने) विलसित हुआ — परिणमित होता हुआ [ज्ञानी जनः ] ज्ञानीजन [अनुभवति ] अनुभव करते हैं, [तत् ] तथापि [अज्ञानिनः ] अज्ञानीको [निरवधि-प्रविजृम्भितः अयं मोहः तु ] अमर्यादरूपसे फै ला हुआ यह मोह (अर्थात् स्व-परके एकत्वकी भ्रान्ति) [कथम् नानटीति ] क्यों नाचता है — [अहो बत ] यह हमें महा आश्चर्य और खेद है ! ४३।
अब पुनः मोहका प्रतिषेध करते हुए कहते हैं कि ‘यदि मोह नाचता है तो नाचो ? तथापि ऐसा ही है’ : —
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जीवाजीवौ स्फु टविघटनं नैव यावत्प्रयातः ।
ज्ञातृद्रव्यं स्वयमतिरसात्तावदुच्चैश्चकाशे ।।४५।।
अविवेकके नाटकमें अथवा नाचमें [वर्णादिमान् पुद्गलः एव नटति ] वर्णादिमान पुद्गल ही नाचता है, [न अन्यः ] अन्य कोई नहीं; (अभेद ज्ञानमें पुद्गल ही अनेक प्रकारका दिखाई देता है, जीव तो अनेक प्रकारका नहीं है;) [च ] और [अयं जीवः ] यह जीव तो [रागादि-पुद्गल-विकार- विरुद्ध-शुद्ध-चैतन्यधातुमय-मूर्तिः ] रागादिक पुद्गल-विकारोंसे विलक्षण, शुद्ध चैतन्यधातुमय मूर्ति है ।
भावार्थ : — रागादिक चिद्विकारोंको (-चैतन्यविकारोंको) देखकर ऐसा भ्रम नहीं करना कि ये भी चैतन्य ही हैं, क्योंकि चैतन्यकी सर्वअवस्थाओंमें व्याप्त हों तो चैतन्यके कहलायें । रागादि विकार सर्व अवस्थाओंमें व्याप्त नहीं होते — मोक्षअवस्थामें उनका अभाव है । और उनका अनुभव भी आकुलतामय दुःखरूप है । इसलिये वे चेतन नहीं, जड़ हैं । चैतन्यका अनुभव निराकुल है, वही जीवका स्वभाव है ऐसा जानना ।४४।
अब, भेदज्ञानकी प्रवृत्तिके द्वारा यह ज्ञाताद्रव्य स्वयं प्रगट होता है इसप्रकार कलशमें महिमा प्रगट करके अधिकार पूर्ण करते हैं : —
श्लोकार्थ : — [इत्थं ] इसप्रकार [ज्ञान-क्रकच-कलना-पाटनं ] ज्ञानरूपी करवतका जो बारम्बार अभ्यास है उसे [नाटयित्वा ] नचाकर [यावत् ] जहाँ [जीवाजीवौ ] जीव और अजीव दोनाें [स्फु ट-विघटनं न एव प्रयातः ] प्रगटरूपसे अलग नहीं हुए, [तावत् ] वहाँ तो [ज्ञातृद्रव्य ] ज्ञाताद्रव्य, [प्रसभ-विकसत्-व्यक्त -चिन्मात्रशक्त्या ] अत्यन्त विकासरूप होती हुई अपनी प्रगट चिन्मात्रशक्तिसे [विश्वं व्याप्य ] विश्वको व्याप्त करके, [स्वयम् ] अपने आप ही [अतिरसात् ] अति वेगसे [उच्चैः ] उग्रतया अर्थात् आत्यन्तिकरूपसे [चकाशे ] प्रकाशित हो उठा ।
उपरोक्त ज्ञानका अभ्यास करते करते जहाँ जीव और अजीव दोनों स्पष्ट भिन्न समझमें आये कि तत्काल ही आत्माका निर्विकल्प अनुभव हुआ — सम्यग्दर्शन हुआ । (सम्यग्दृष्टि आत्मा श्रुतज्ञानसे विश्वके समस्त भावोंको संक्षेपसे अथवा विस्तारसे जानता है और निश्चयसे विश्वको प्रत्यक्ष जाननेका उसका स्वभाव है; इसलिये यह कहा कि वह विश्वको जानता है ।) एक आशय तो इसप्रकार है ।