Samaysar (Hindi). Karta-karma Adhikar; Kalash: 46-49 ; Gatha: 69-78.

< Previous Page   Next Page >


Combined PDF/HTML Page 9 of 34

 

Page 128 of 642
PDF/HTML Page 161 of 675
single page version

इति जीवाजीवौ पृथग्भूत्वा निष्क्रान्तौ
इति श्रीमदमृतचन्द्रसूरिविरचितायां समयसारव्याख्यायामात्मख्यातौ जीवाजीवप्ररूपकः
प्रथमोऽङ्कः ।।
दूसरा आशय इसप्रकारसे है :जीव-अजीवका अनादिकालीन संयोग केवल अलग
होनेसे पूर्व अर्थात् जीवका मोक्ष होनेसे पूर्व, भेदज्ञानके भाते-भाते अमुक दशा होने पर निर्विकल्प
धारा जमीं
जिसमें केवल आत्माका अनुभव रहा; और वह श्रेणि अत्यन्त वेगसे आगे बढ़ते बढ़ते
केवलज्ञान प्रगट हुआ और फि र अघातियाकर्मोंका नाश होने पर जीवद्रव्य अजीवसे केवल भिन्न
हुआ जीव-अजीवके भिन्न होनेकी यह रीति है ।४५।
टीका :इसप्रकार जीव और अजीव अलग अलग होकर (रङ्गभूमिमेंसे) बाहर निकल
गये
भावार्थ :समयसारकी इस ‘आत्मख्याति’ नामक टीकाके प्रारम्भमें पहले रङ्गभूमिस्थल
कहकर उसके बाद टीकाकार आचार्यने ऐसा कहा था कि नृत्यके अखाड़ेमें जीव-अजीव दोनों
एक होकर प्रवेश करते हैं और दोनोंने एकत्वका स्वाँग रचा है
वहाँ, भेदज्ञानी सम्यग्दृष्टि पुरुषने
सम्यग्ज्ञानसे उन जीव-अजीव दोनोंकी उनके लक्षणभेदसे परीक्षा करके दोनोंको पृथक् जाना,
इसलिये स्वाँग पूरा हुआ और दोनों अलग अलग होकर अखाड़ेसे बाहर निकल गये
इसप्रकार
अलङ्कारपूर्वक वर्णन किया है
जीव-अजीव अनादि संयोग मिलै लखि मूढ़ न आतम पावैं,
सम्यक् भेदविज्ञान भये बुध भिन्न गहे निजभाव सुदावैं;
श्री गुरुके उपदेश सुनै रु भले दिन पाय अज्ञान गमावैं,
ते जगमाँहि महन्त कहाय वसैं शिव जाय सुखी नित थावैं
इसप्रकार श्री समयसारकी (श्रीमद्भगवत्कुन्दकुन्दाचार्यदेवप्रणीत श्री समयसार
परमागमकी) श्रीमद् अमृतचंद्राचार्यदेवविरचित आत्मख्याति नामक टीकामें जीव-अजीवका प्ररूपक
पहला अङ्क समाप्त हुआ

Page 129 of 642
PDF/HTML Page 162 of 675
single page version

17
कर्ताकर्मविभावकूं, मेटि ज्ञानमय होय,
कर्म नाशि शिवमें बसे, तिन्हें नमू, मद खोय
प्रथम टीकाकार कहते हैं कि ‘अब जीव-अजीव ही एक कर्ताकर्मके वेषमें प्रवेश करते हैं’
जैसे दो पुरुष परस्पर कोई एक स्वाँग करके नृत्यके अखाड़ेमें प्रवेश करें उसीप्रकार जीव-अजीव दोनों
एक कर्ताकर्मका स्वाँग करके प्रवेश करते हैं इसप्रकार यहाँ टीकाकारने अलङ्कार किया है
अब पहले, उस स्वाँगको ज्ञान यथार्थ जान लेता है उस ज्ञानकी महिमाका काव्य कहते हैं :
श्लोकार्थ :[इह ] इस लोकमें [अहम् चिद् ] मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा तो [एकः
कर्ता ] एक कर्ता हूँ और [अमी कोपादयः ] यह क्रोधादि भाव [मे कर्म ] मेरे कर्म हैं’ [इति
अज्ञानां कर्तृकर्मप्रवृत्तिम् ]
ऐसी अज्ञानियोंके जो कर्ताकर्मकी प्रवृत्ति है उसे [अभितः शमयत् ] सब
ओरसे शमन करती हुई (
मिटाती हुई) [ज्ञानज्योतिः ] ज्ञानज्योति [स्फु रति ] स्फु रायमान होती
है वह ज्ञान-ज्योति [परम-उदात्तम् ] परम उदात्त है अर्थात् किसीके आधीन नहीं है,
[अत्यन्तधीरं ] अत्यन्त धीर है अर्थात् किसी भी प्रकारसे आकुलतारूप नहीं है और
[निरुपधि-पृथग्द्रव्य-निर्भासि ] परकी सहायताके बिना-भिन्न भिन्न द्रव्योंको प्रकाशित करनेका
उसका स्वभाव है, इसलिये [विश्वम् साक्षात् कुर्वत् ] वह समस्त लोकालोकको साक्षात् करती
है
प्रत्यक्ष जानती है
अथ जीवाजीवावेव कर्तृकर्मवेषेण प्रविशतः
( मन्दाक्रान्ता )
एकः कर्ता चिदहमिह मे कर्म कोपादयोऽमी
इत्यज्ञानां शमयदभितः कर्तृकर्मप्रवृत्तिम्
ज्ञानज्योतिः स्फु रति परमोदात्तमत्यन्तधीरं
साक्षात्कुर्वन्निरुपधिपृथग्द्रव्यनिर्भासि विश्वम्
।।४६।।
- -
क र्ताक र्म अधिकार

Page 130 of 642
PDF/HTML Page 163 of 675
single page version

जाव ण वेदि विसेसंतरं तु आदासवाण दोण्हं पि
अण्णाणी तावदु सो कोहादिसु वट्टदे जीवो ।।६९।।
कोहादिसु वट्टंतस्स तस्स कम्मस्स संचओ होदि
जीवस्सेवं बंधो भणिदो खलु सव्वदरिसीहिं ।।७०।।
यावन्न वेत्ति विशेषान्तरं त्वात्मास्रवयोर्द्वयोरपि
अज्ञानी तावत्स क्रोधादिषु वर्तते जीवः ।।६९।।
क्रोधादिषु वर्तमानस्य तस्य कर्मणः सञ्चयो भवति
जीवस्यैवं बन्धो भणितः खलु सर्वदर्शिभिः ।।७०।।
यथायमात्मा तादात्म्यसिद्धसम्बन्धयोरात्मज्ञानयोरविशेषाद्भेदमपश्यन्नविशंक मात्मतया ज्ञाने
भावार्थ :ऐसा ज्ञानस्वरूप आत्मा है वह, परद्रव्य तथा परभावोंके कर्तृत्वरूप अज्ञानको
दूर करके, स्वयं प्रगट प्रकाशमान होता है ।४६।
अब, जब तक यह जीव आस्रवके और आत्माके विशेषको (अन्तरको) नहीं जाने तब
तक वह अज्ञानी रहता हुआ, आस्रवोंमें स्वयं लीन होता हुआ, कर्मोंका बन्ध करता है यह गाथा
द्वारा कहते हैं :
रे आत्म-आस्रवका जहाँ तक भेद जीव जाने नहीं,
क्रोधादिमें स्थिति होय है अज्ञानि ऐसे जीवकी
।।६९।।
जीव वर्तता क्रोधादिमें, तब करम संचय होय है,
सर्वज्ञने निश्चय कहा, यों बन्ध होता जीवके
।।७०।।
गाथार्थ :[जीवः ] जीव [यावत् ] जब तक [आत्मास्रवयोः द्वयोः अपि तु ] आत्मा
और आस्रवइन दोनोंके [विशेषान्तरं ] अन्तर और भेदको [न वेत्ति ] नहीं जानता [तावत् ] तब
तक [सः ] वह [अज्ञानी ] अज्ञानी रहता हुआ [क्रोधादिषु ] क्रोधादिक आस्रवोंमें [वर्तते ]
प्रवर्तता है; [क्रोधादिषु ] क्रोधादिकमें [वर्तमानस्य तस्य ] प्रवर्तमान उसके [कर्मणः ] कर्मका
[सञ्चयः ] संचय [भवति ] होता है
[खलु ] वास्तवमें [एवं ] इसप्रकार [जीवस्य ] जीवके
[बन्धः ] कर्मोंका बन्ध [सर्वदर्शिभिः ] सर्वज्ञदेवोंने [भणितः ] कहा है
टीका :जैसे यह आत्मा, जिनके तादात्म्यसिद्ध सम्बन्ध है ऐसे आत्मा और ज्ञानमें

Page 131 of 642
PDF/HTML Page 164 of 675
single page version

वर्तते, तत्र वर्तमानश्च ज्ञानक्रियायाः स्वभावभूतत्वेनाप्रतिषिद्धत्वाज्जानाति, तथा संयोगसिद्ध-
संबंधयोरप्यात्मक्रोधाद्यास्रवयोः स्वयमज्ञानेन विशेषमजानन् यावद्भेदं न पश्यति तावदशंक मात्मतया
क्रोधादौ वर्तते, तत्र वर्तमानश्च क्रोधादिक्रियाणां परभावभूतत्वात्प्रतिषिद्धत्वेऽपि
स्वभावभूतत्वाध्यासात्क्रुध्यति रज्यते मुह्यति चेति
तदत्र योऽयमात्मा स्वयमज्ञानभवने
ज्ञानभवनमात्रसहजोदासीनावस्थात्यागेन व्याप्रियमाणः प्रतिभाति स कर्ता; यत्तु ज्ञानभवन-
व्याप्रियमाणत्वेभ्यो भिन्नं क्रियमाणत्वेनान्तरुत्प्लवमानं प्रतिभाति क्रोधादि तत्कर्म
एवमियमनादिरज्ञानजा कर्तृकर्मप्रवृत्तिः एवमस्यात्मनः स्वयमज्ञानात्कर्तृकर्मभावेन क्रोधादिषु
वर्तमानस्य तमेव क्रोधादिवृत्तिरूपं परिणामं निमित्तमात्रीकृत्य स्वयमेव परिणममानं पौद्गलिकं कर्म
संचयमुपयाति
एवं जीवपुद्गलयोः परस्परावगाहलक्षणसम्बन्धात्मा बन्धः सिध्येत्
१. भवन = होना वह; परिणमना वह; परिणमन
२. क्रियमाणरूपसे = किया जाता वहउसरूपसे
विशेष (अन्तर, भिन्न लक्षण) न होनेसे उनके भेदको (पृथक्त्वको) न देखता हुआ, निःशंकतया
ज्ञानमें अपनेपनेसे प्रवर्तता है, और वहाँ (ज्ञानमें अपनेपनेसे) प्रवर्तता हुआ वह, ज्ञानक्रियाका
स्वभावभूत होनेसे निषेध नहीं किया गया है इसलिये, जानता है
जाननेरूपमें परिणमित होता है,
इसीप्रकार जब तक यह आत्मा, जिन्हें संयोगसिद्ध सम्बन्ध है ऐसे आत्मा और क्रोधादि आस्रवोंमें
भी, अपने अज्ञानभावसे, विशेष न जानता हुआ उनके भेदको नहीं देखता तब तक निःशंकतया
क्रोधादिमें अपनेपने से प्रवर्तता है, और वहाँ (क्रोधादिमें अपनेपनेसे) प्रवर्तता हुआ वह, यद्यपि
क्रोधादि क्रियाका परभावभूत होनेसे निषेध किया गया है तथापि वह स्वभावभूत होनेका उसे
अध्यास होनेसे, क्रोधरूप परिणमित होता है, रागरूप परिणमित होता है, मोहरूप परिणमित होता
है
अब यहाँ, जो यह आत्मा अपने अज्ञानभावसे ज्ञानभवनमात्र सहज उदासीन (ज्ञाताद्रष्टामात्र)
अवस्थाका त्याग करके अज्ञानभवनव्यापाररूप अर्थात् क्रोधादिव्यापाररूप प्रवर्तमान होता हुआ
प्रतिभासित होता है; वह क र्ता है; और ज्ञानभवनव्यापाररूप प्रवर्तनसे भिन्न, जो
क्रियमाणरूपसे
अन्तरङ्गमें उत्पन्न होते हुए प्रतिभासित होते हैं, ऐसे क्रोधादिक वे, (उस कर्ताके) कर्म हैं इसप्रकार
अनादिकालीन अज्ञानसे होनेवाली यह (आत्माकी) कर्ताकर्मकी प्रवृत्ति है इसप्रकार अपने
अज्ञानके कारण कर्ताकर्मभावसे क्रोधादिमें प्रवर्तमान इस आत्माके, क्रोधादिकी प्रवृत्तिरूप उसी
परिणामको निमित्तमात्र करके स्वयं अपने भावसे ही परिणमित होनेवाला पौद्गलिक कर्म इकट्ठा
होता है
इसप्रकार जीव और पुद्गलका, परस्पर अवगाह जिसका लक्षण है ऐसे सम्बन्धरूप बन्ध
सिद्ध होता है अनेकात्मक होने पर भी (अनादि) एक प्रवाहरूप होनेसे जिसमें इतरेतराश्रय दोष

Page 132 of 642
PDF/HTML Page 165 of 675
single page version

चानेकात्मकैकसन्तानत्वेन निरस्तेतरेतराश्रयदोषः कर्तृकर्मप्रवृत्तिनिमित्तस्याज्ञानस्य निमित्तम्
कदाऽस्याः कर्तृकर्मप्रवृत्तेर्निवृत्तिरिति चेत्
जइया इमेण जीवेण अप्पणो आसवाण य तहेव
णादं होदि विसेसंतरं तु तइया ण बंधो से ।।७१।।
यदानेन जीवेनात्मनः आस्रवाणां च तथैव
ज्ञातं भवति विशेषान्तरं तु तदा न बन्धस्तस्य ।।७१।।
इह किल स्वभावमात्रं वस्तु, स्वस्य भवनं तु स्वभावः तेन ज्ञानस्य भवनं खल्वात्मा,
दूर हो गया है ऐसा वह बन्ध, कर्ताकर्मकी प्रवृत्तिका निमित्त जो अज्ञान उसका निमित्त है
भावार्थ :यह आत्मा, जैसे अपने ज्ञानस्वभावरूप परिणमित होता है उसीप्रकार जब तक
क्रोधादिरूप भी परिणमित होता है, ज्ञानमें और क्रोधादिमें भेद नहीं जानता, तब तक उसके
कर्ताकर्मकी प्रवृत्ति है; क्रोधादिरूप परिणमित होता हुआ वह स्वयं कर्ता है और क्रोधादि उसका
कर्म है
और अनादि अज्ञानसे तो कर्ताकर्मकी प्रवृत्ति है, कर्ताकर्मकी प्रवृत्तिसे बन्ध है और उस
बन्धके निमित्तसे अज्ञान है; इसप्रकार अनादि सन्तान (प्रवाह) है, इसलिये उसमें इतरेतराश्रयदोष
भी नहीं आता
इसप्रकार जब तक आत्मा क्रोधादि कर्मका कर्ता होकर परिणमित होता है तब तक
कर्ताकर्मकी प्रवृत्ति है और तब तक कर्मका बन्ध होता है ।।६९-७०।।
अब प्रश्न करता है कि इस कर्ताकर्मकी प्रवृत्तिका अभाव कब होता है ? इसका उत्तर
कहते हैं :
यह जीव ज्यों ही आस्रवोंका त्यों हि अपने आत्मका,
जाने विशेषान्तर, तदा बन्धन नहीं उसको कहा
।।७१।।
गाथार्थ :[यदा ] जब [अनेन जीवेन ] यह जीव [आत्मनः ] आत्माका [तथा एव
च ] और [आस्रवाणां ] आस्रवोंके [विशेषान्तरं ] अन्तर और भेदको [ज्ञातं भवति ] जानता है
[तदा तु ] तब [तस्य ] उसे [बन्धः न ] बन्ध नहीं होता
टीका :इस जगतमें वस्तु है वह स्वभावमात्र ही है, और ‘स्व’का भवन वह स्व-भाव
है (अर्थात् अपना जो होनापरिणमना सो स्वभाव है); इसलिये निश्चयसे ज्ञानका होनापरिणमना

Page 133 of 642
PDF/HTML Page 166 of 675
single page version

क्रोधादेर्भवनं क्रोधादिः अथ ज्ञानस्य यद्भवनं तन्न क्रोधादेरपि भवनं, यतो यथा ज्ञानभवने
ज्ञानं भवद्विभाव्यते न तथा क्रोधादिरपि; यत्तु क्रोधादेर्भवनं तन्न ज्ञानस्यापि भवनं, यतो यथा
क्रोधादिभवने क्रोधादयो भवन्तो विभाव्यन्ते न तथा ज्ञानमपि
इत्यात्मनः क्रोधादीनां च न
खल्वेकवस्तुत्वम् इत्येवमात्मात्मास्रवयोर्विशेषदर्शनेन यदा भेदं जानाति तदास्यानादिरप्यज्ञानजा
कर्तृकर्मप्रवृत्तिर्निवर्तते; तन्निवृत्तावज्ञाननिमित्तं पुद्गलद्रव्यकर्मबन्धोऽपि निवर्तते तथा सति
ज्ञानमात्रादेव बन्धनिरोधः सिध्येत्
कथं ज्ञानमात्रादेव बन्धनिरोध इति चेत्
णादूण आसवाणं असुचित्तं च विवरीयभावं च
दुक्खस्स कारणं ति य तदो णियत्तिं कुणदि जीवो ।।७२।।
सो आत्मा है और क्रोधादिकका होनापरिणमना सो क्रोधादि है तथा ज्ञानका जो होनापरिणमना
है सो क्रोधादिका भी होनापरिणमना नहीं है, क्योंकि ज्ञानके होनेमें (-परिणमनेमें) जैसे ज्ञान होता
हुआ मालूम पड़ता है उसीप्रकार क्रोधादिक भी होते हुए मालूम नहीं पड़ते; और क्रोधादिका जो
होना
परिणमना वह ज्ञानका भी होनापरिणमना नहीं है, क्योंकि क्रोधादिके होनेमें (-परिणमनेमें)
जैसे क्रोधादिक होते हुए मालूम पड़ते हैं वैसे ज्ञान भी होता हुआ मालूम नहीं पड़ता इसप्रकार
आत्माके और क्रोधादिके निश्चयसे एकवस्तुत्व नहीं है इसप्रकार आत्मा और आस्रवोंका विशेष
(अन्तर) देखनेसे जब यह आत्मा उनका भेद (भिन्नता) जानता है तब इस आत्माके अनादि
होने पर भी अज्ञानसे उत्पन्न हुई ऐसी (परमें) कर्ताकर्मकी प्रवृत्ति निवृत्त होती है; उसकी निवृत्ति
होने पर पौद्गलिक द्रव्यकर्मका बन्ध
जो कि अज्ञानका निमित्त है वहभी निवृत्त होता है
ऐसा होने पर, ज्ञानमात्रसे ही बन्धका निरोध सिद्ध होता है
भावार्थ :क्रोधादिक और ज्ञान भिन्न-भिन्न वस्तुऐं हैं; न तो ज्ञानमें क्रोधादि है और न क्रोधादिमें
ज्ञान है ऐसा उनका भेदज्ञान हो तब उनके एकत्वस्वरूपका अज्ञान नाश होता है और अज्ञानके नाश
हो जानेसे कर्मका बन्ध भी नहीं होता इसप्रकार ज्ञानसे ही बन्धका निरोध होता है ।।७१।।
अब पूछता है कि ज्ञानमात्रसे ही बन्धका निरोध कैसे होता है ? उसका उत्तर कहते
हैं :
अशुचिपना, विपरीतता ये आस्रवोंके जानके,
अरु दुःखकारण जानके, इनसे निवर्तन जीव करे
।।७२।।

Page 134 of 642
PDF/HTML Page 167 of 675
single page version

ज्ञात्वा आस्रवाणामशुचित्वं च विपरीतभावं च
दुःखस्य कारणानीति च ततो निवृत्तिं करोति जीवः ।।७२।।
जले जम्बालवत्कलुषत्वेनोपलभ्यमानत्वादशुचयः खल्वास्रवाः, भगवानात्मा तु नित्यमेवाति-
निर्मलचिन्मात्रत्वेनोपलम्भकत्वादत्यन्तं शुचिरेव जडस्वभावत्वे सति परचेत्यत्वादन्यस्वभावाः
खल्वास्रवाः, भगवानात्मा तु नित्यमेव विज्ञानघनस्वभावत्वे सति स्वयं चेतकत्वादनन्यस्वभाव एव
आकुलत्वोत्पादकत्वाद्दुःखस्य कारणानि खल्वास्रवाः, भगवानात्मा तु नित्यमेवानाकुलत्व-
स्वभावेनाकार्यकारणत्वाद्दुःखस्याकारणमेव
इत्येवं विशेषदर्शनेन यदैवायमात्मात्मास्रवयोर्भेदं
जानाति तदैव क्रोधादिभ्य आस्रवेभ्यो निवर्तते, तेभ्योऽनिवर्तमानस्य पारमार्थिकतद्भेदज्ञाना-
सिद्धेः
ततः क्रोधाद्यास्रवनिवृत्त्यविनाभाविनो ज्ञानमात्रादेवाज्ञानजस्य पौद्गलिकस्य कर्मणो
गाथार्थ :[आस्रवाणाम् ] आस्रवोंकी [अशुचित्वं च ] अशुचिता और [विपरीतभावं
च ] विपरीतता [च ] तथा [दुःखस्य कारणानि इति ] वे दुःखके कारण हैं ऐसा [ज्ञात्वा ] जानकर
[जीवः ] जीव [ततः निवृत्तिं ] उनसे निवृत्ति [करोति ] करता है
टीका : जलमें सेवाल (काई) है सो मल या मैल है; उस सेवालकी भाँति आस्रव
मलरूप या मैलरूप अनुभवमें आते हैं, इसलिये वे अशुचि हैं (अपवित्र हैं); और भगवान् आत्मा
तो सदा ही अतिनिर्मल चैतन्यमात्रस्वभावरूपसे ज्ञायक है, इसलिये अत्यन्त शुचि ही है (पवित्र
ही है; उज्ज्वल ही है) आस्रवोंके जड़स्वभावत्व होनेसे वे दूसरेके द्वारा जानने योग्य हैं (क्योंकि
जो जड़ हो वह अपनेको तथा परको नहीं जानता, उसे दूसरा ही जानता है) इसलिये वे चैतन्यसे
अन्य स्वभाववाले हैं; और भगवान आत्मा तो, अपनेको सदा ही विज्ञानघनस्वभावपना होनेसे, स्वयं
ही चेतक (
ज्ञाता) है (स्वको और परको जानता है) इसलिये वह चैतन्यसे अनन्य
स्वभाववाला ही है (अर्थात् चैतन्यसे अन्य स्वभाववाला नहीं है) आस्रव आकुलताके उत्पन्न
करनेवाले हैं, इसलिये दुःखके कारण हैं; और भगवान आत्मा तो, सदा ही निराकुलता-स्वभावके
कारण किसीका कार्य तथा किसीका कारण न होनेसे, दुःखका अकारण ही है (अर्थात् दुःखका
कारण नहीं है)
इसप्रकार विशेष (अन्तर)को देखकर जब यह आत्मा, आत्मा और आस्रवोंके
भेदको जानता है उसी समय क्रोधादि आस्रवोंसे निवृत्त होता है, क्योंकि उनसे जो निर्वृत्त नहीं होता
उसे आत्मा और आस्रवोंके पारमार्थिक (यथार्थ) भेदज्ञानकी सिद्धि ही नहीं हुई
इसलिये
क्रोधादिक आस्रवोंसे निवृत्तिके साथ जो अविनाभावी है ऐसे ज्ञानमात्रसे ही, अज्ञानजन्य पौद्गलिक
कर्मके बन्धका निरोध होता है

Page 135 of 642
PDF/HTML Page 168 of 675
single page version

बन्धनिरोधः सिध्येत् किंच यदिदमात्मास्रवयोर्भेदज्ञानं तत्किमज्ञानं किं वा ज्ञानम् ? यद्यज्ञानं
तदा तदभेदज्ञानान्न तस्य विशेषः ज्ञानं चेत् किमास्रवेषु प्रवृत्तं किं वास्रवेभ्यो निवृत्तम् ?
आस्रवेषु प्रवृत्तं चेत्तदापि तदभेदज्ञानान्न तस्य विशेषः आस्रवेभ्यो निवृत्तं चेत्तर्हि कथं न
ज्ञानादेव बन्धनिरोधः ? इति निरस्तोऽज्ञानांशः क्रियानयः यत्त्वात्मास्रवयोर्भेदज्ञानमपि नास्रवेभ्यो
निवृत्तं भवति तज्ज्ञानमेव न भवतीति ज्ञानांशो ज्ञाननयोऽपि निरस्तः
और, जो यह आत्मा और आस्रवोंका भेदज्ञान है सो अज्ञान है या ज्ञान ? यदि अज्ञान है
तो आत्मा और आस्रवोंके अभेदज्ञानसे उसकी कोई विशेषता नहीं हुई और यदि ज्ञान है तो वह
आस्रवोंमें प्रवृत्त है या उनसे निवृत्त ? यदि आस्रवोंमें प्रवृत्त होता है तो भी आत्मा और आस्रवोंके
अभेदज्ञानसे उसकी कोई विशेषता नहीं हुई
और यदि आस्रवोंसे निवृत्त है तो ज्ञानसे ही बन्धका
निरोध सिद्ध हुआ क्यों न कहलायेगा ? (सिद्ध हुआ ही कहलायेगा ) ऐसा सिद्ध होनेसे अज्ञानका
अंश ऐसे क्रियानयका खण्डन हुआ और यदि आत्मा और आस्रवोंका भेदज्ञान भी आस्रवोंसे
निवृत्त न हो तो वह ज्ञान ही नहीं है ऐसा सिद्ध होनेसे ज्ञानका अंश ऐसे (एकान्त) ज्ञाननयका
भी खण्डन हुआ
भावार्थ :आस्रव अशुचि हैं, जड़ हैं, दुःखके कारण हैं और आत्मा पवित्र है, ज्ञाता
है, सुखस्वरूप है इसप्रकार लक्षणभेदसे दोनोंको भिन्न जानकर आस्रवोंसे आत्मा निवृत्त होता है
और उसे कर्मका बन्ध नहीं होता आत्मा और आस्रवोंका भेद जानने पर भी यदि आत्मा आस्रवोंसे
निवृत्त न हो तो वह ज्ञान ही नहीं, किन्तु अज्ञान ही है यहाँ कोई प्रश्न करे कि अविरत
सम्यग्दृष्टिको मिथ्यात्व और अनन्तानुबंधी प्रकृतियोंका तो आस्रव नहीं होता, किन्तु अन्य
प्रकृतियोंका तो आस्रव होकर बन्ध होता है; इसलिये उसे ज्ञानी कहना या अज्ञानी ? उसका
समाधान :
सम्यग्दृष्टि जीव ज्ञानी ही है, क्योंकि वह अभिप्रायपूर्वकके आस्रवोंसे निवृत्त हुआ
है उसे प्रकृतियोंका जो आस्रव तथा बन्ध होता है वह अभिप्रायपूर्वक नहीं है सम्यग्दृष्टि होनेके
बाद परद्रव्यके स्वामित्वका अभाव है; इसलिये, जब तक उसको चारित्रमोहका उदय है तब तक
उसके उदयानुसार जो आस्रव-बन्ध होता है उसका स्वामित्व उसको नहीं है
अभिप्रायमें तो वह
आस्रव-बन्धसे सर्वथा निवृत्त होना ही चाहता है इसलिये वह ज्ञानी ही है
जो यह कहा है कि ज्ञानीको बन्ध नहीं होता उसका कारण इसप्रकार है :
मिथ्यात्वसम्बन्धी बन्ध जो कि अनन्त संसारका कारण है वही यहाँ प्रधानतया विवक्षित है
अविरति आदिसे जो बन्ध होता है वह अल्प स्थिति-अनुभागवाला है, दीर्घ संसारका कारण नहीं

Page 136 of 642
PDF/HTML Page 169 of 675
single page version

(मालिनी)
परपरिणतिमुज्झत् खण्डयद्भेदवादा-
निदमुदितमखण्डं ज्ञानमुच्चण्डमुच्चैः
ननु कथमवकाशः कर्तृकर्मप्रवृत्ते-
रिह भवति कथं वा पौद्गलः कर्मबन्धः
।।४७।।
है; इसलिये वह प्रधान नहीं माना गया अथवा तो ऐसा कारण है कि :ज्ञान बन्धका कारण
नहीं है जब तक ज्ञानमें मिथ्यात्वका उदय था तब तक वह अज्ञान कहलाता था और मिथ्यात्वके
जानेके बाद अज्ञान नहीं, किन्तु ज्ञान ही है उसमें जो कुछ चारित्रमोह सम्बन्धी विकार है उसका
स्वामी ज्ञानी नहीं, इसलिये ज्ञानीके बन्ध नहीं है; क्योंकि विकार जो कि बन्धरूप है और बन्धका
कारण है, वह तो बन्धकी पंक्तिमें है, ज्ञानकी पंक्तिमें नहीं
इस अर्थके समर्थनरूप कथन आगे
गाथाओंमें आयेगा ।।७२।।
यहाँ कलशरूप काव्य कहते हैं :
श्लोकार्थ :[परपरिणतिम् उज्झत् ] परपरिणतिको छोड़ता हुआ, [भेदवादान्
खण्डयत् ] भेदके क थनोंको तोड़ता हुआ, [इदम् अखण्डम् उच्चण्डम् ज्ञानम् ] यह अखण्ड और
अत्यंत प्रचण्ड ज्ञान [उच्चैः उदितम् ] प्रत्यक्ष उदयको प्राप्त हुआ है
[ननु ] अहो ! [इह ] ऐसे
ज्ञानमें [कर्तृकर्मप्रवृत्तिः ] (परद्रव्यके) क र्ताक र्मकी प्रवृत्तिका [कथम् अवकाशः ] अवकाश कैसे
हो सकता है ? [वा ] तथा [पौद्गलः कर्मबन्धः ] पौद्गलिक क र्मबंध भी [कथं भवति ] कैसे
हो सकता है ? (नहीं हो सकता
)
(ज्ञेयोंके निमित्तसे तथा क्षयोपशमके विशेषसे ज्ञानमें जो अनेक खण्डरूप आकार
प्रतिभासित होते थे उनसे रहित ज्ञानमात्र आकार अब अनुभवमें आया, इसलिये ज्ञानको ‘अखण्ड’
विशेषण दिया है
मतिज्ञानादि जो अनेक भेद कहे जाते थे उन्हें दूर करता हुआ उदयको प्राप्त
हुआ है, इसलिये ‘भेदके कथनोंको तोड़ता हुआ’ ऐसा कहा है परके निमित्तसे रागादिरूप
परिणमित होता था उस परिणतिको छोड़ता हुआ उदयको प्राप्त हुआ है, इसलिये ‘परपरिणतिको
छोड़ता हुआ’ ऐसा कहा है
परके निमित्तसे रागादिरूप परिणमित नहीं होता, बलवान है इसलिये
‘अत्यन्त प्रचण्ड’ कहा है )
भावार्थ :कर्मबन्ध तो अज्ञानसे हुई कर्ताकर्मकी प्रवृत्तिसे था अब जब भेदभावको
और परपरिणतिको दूर करके एकाकार ज्ञान प्रगट हुआ तब भेदरूप कारककी प्रवृत्ति मिट गई;
तब फि र अब बन्ध किसलिये होगा ? अर्थात् नहीं होगा
।४७।

Page 137 of 642
PDF/HTML Page 170 of 675
single page version

केन विधिनायमास्रवेभ्यो निवर्तत इति चेत्
अहमेक्को खलु सुद्धो णिम्ममओ णाणदंसणसमग्गो
तम्हि ठिदो तच्चित्तो सव्वे एदे खयं णेमि ।।७३।।
अहमेकः खलु शुद्धः निर्ममतः ज्ञानदर्शनसमग्रः
तस्मिन् स्थितस्तच्चितः सर्वानेतान् क्षयं नयामि ।।७३।।
अहमयमात्मा प्रत्यक्षमक्षुण्णमनन्तं चिन्मात्रं ज्योतिरनाद्यनन्तनित्योदितविज्ञानघनस्वभाव-
भावत्वादेकः, सकलकारकचक्रप्रक्रियोत्तीर्णनिर्मलानुभूतिमात्रत्वाच्छुद्धः, पुद्गलस्वामिकस्य क्रोधादि-
भाववैश्वरूपस्य स्वस्य स्वामित्वेन नित्यमेवापरिणमनान्निर्ममतः, चिन्मात्रस्य महसो वस्तुस्वभावत
एव सामान्यविशेषाभ्यां सकलत्वाद् ज्ञानदर्शनसमग्रः, गगनादिवत्पारमार्थिको वस्तुविशेषोऽस्मि
तदहमधुनास्मिन्नेवात्मनि निखिलपरद्रव्यप्रवृत्तिनिवृत्त्या निश्चलमवतिष्ठमानः सकलपरद्रव्यनिमित्तक-
18
अब प्रश्न करता है कि यह आत्मा किस विधिसे आस्रवोंसे निवृत्त होता है ? उसके
उत्तररूप गाथा कहते हैं :
मैं एक, शुद्ध, ममत्वहीन रु ज्ञानदर्शनपूर्ण हूँ
इसमें रह स्थित, लीन इसमें, शीघ्र ये सब क्षय करूँ ।।७३।।
गाथार्थ :ज्ञानी विचार करता है कि[खलु ] निश्चयसे [अहम् ] मैंं [एकः ] एक हूँ,
[शुद्धः ] शुद्ध हूँ, [निर्ममतः ] ममतारहित हूँ, [ज्ञानदर्शनसमग्रः ] ज्ञानदर्शनसे पूर्ण हूँ; [तस्मिन्
स्थितः ]
उस स्वभावमें रहता हुआ, [तच्चित्तः ] उससे (-उस चैतन्य-अनुभवमें) लीन होता हुआ
(मैं) [एतान् ] इन [सर्वान् ] क्रोेधादिक सर्व आस्रवोंको [क्षयं ] क्षयको [नयामि ] प्राप्त कराता हूँ
टीका :मैं यह आत्माप्रत्यक्ष अखण्ड अनन्त चिन्मात्र ज्योतिअनादि-अनन्त
नित्य-उदयरूप विज्ञानघनस्वभावभावत्वके कारण एक हूँ; (कर्ता, कर्म, करण, संप्रदान, अपादान
और अधिकरणस्वरूप) सर्व कारकोंकी समूहकी प्रक्रियासे पारको प्राप्त जो निर्मल अनुभूति, उस
अनुभूतिमात्रपनेके कारण शुद्ध हूँ; पुद्गलद्रव्य जिसका स्वामी है ऐसा जो क्रोधादिभावोंका
विश्वरूपत्व (अनेकरूपत्व) उसके स्वामीपनेरूप स्वयं सदा ही नहीं परिणमता होनेसे ममतारहित
हूँ; चिन्मात्र ज्योतिकी, वस्तुस्वभावसे ही, सामान्य और विशेषसे परिपूर्णता होनेसे, मैं ज्ञानदर्शनसे
परिपूर्ण हूँ
ऐसा मैं आकाशादि द्रव्यकी भाँति पारमार्थिक वस्तुविशेष हूँ इसलिये अब मैं

Page 138 of 642
PDF/HTML Page 171 of 675
single page version

विशेषचेतनचंचलकल्लोलनिरोधेनेममेव चेतयमानः स्वाज्ञानेनात्मन्युत्प्लवमानानेतान् भावानखिला-
नेव क्षपयामीत्यात्मनि निश्चित्य चिरसंगृहीतमुक्तपोतपात्रः समुद्रावर्त इव झगित्येवोद्वान्तसमस्त-
विकल्पोऽकल्पितमचलितममलमात्मानमालम्बमानो विज्ञानघनभूतः खल्वयमात्मास्रवेभ्यो निवर्तते
कथं ज्ञानास्रवनिवृत्त्योः समकालत्वमिति चेत्
जीवणिबद्धा एदे अधुव अणिच्चा तहा असरणा य
दुक्खा दुक्खफल त्ति य णादूण णिवत्तदे तेहिं ।।७४।।
जीवनिबद्धा एते अध्रुवा अनित्यास्तथा अशरणाश्च
दुःखानि दुःखफला इति च ज्ञात्वा निवर्तते तेभ्यः ।।७४।।
समस्त परद्रव्यप्रवृत्तिसे निवृत्ति द्वारा इसी आत्मस्वभावमें निश्चल रहता हुआ, समस्त परद्रव्यके
निमित्तसे विशेषरूप चेतनमें होनेवाले चञ्चल कल्लोलोंके निरोधसे इसको ही (इस
चैतन्यस्वरूपको ही) अनुभव करता हुआ, अपने अज्ञानसे आत्मामें उत्पन्न होनेवाले जो यह
क्रोधादिक भाव हैं उन सबका क्षय करता हूँ
ऐसा आत्मामें निश्चय करके, जिसने बहुत समयसे
पकड़े हुए जहाजको छोड़ दिया है ऐसे समुद्रके भँवरकी भाँति, जिसने सर्व विकल्पोंको शीघ्र ही
वमन कर दिया है ऐसा, निर्विकल्प अचलित निर्मल आत्माका अवलम्बन करता हुआ, विज्ञानघन
होता हुआ, यह आत्मा आस्रवोंसे निवृत्त होता है
भावार्थ :शुद्धनयसे ज्ञानीने आत्माका ऐसा निश्चय किया है कि‘मैं एक हूँ, शुद्ध
हूँ, परद्रव्यके प्रति ममतारहित हूँ, ज्ञानदर्शनसे पूर्ण वस्तु हूँ’ जब वह ज्ञानी आत्मा ऐसे अपने
स्वरूपमें रहता हुआ उसीके अनुभवरूप हो तब क्रोधादिक आस्रव क्षयको प्राप्त होते हैं जैसे
समुद्रके आवर्त्त(भँवर)ने बहुत समयसे जहाजको पकड़ रखा हो और जब वह आवर्त्त शमन हो
जाता है तब वह उस जहाजको छोड़ देता है, इसीप्रकार आत्मा विकल्पोंके आवर्त्तको शमन करता
हुआ आस्रवोंको छोड़ देता है
।।७३।।
अब प्रश्न करता है कि ज्ञान होनेका और आस्रवोंकी निवृत्तिका समकाल (एक काल)
कैसे है ? उसके उत्तररूप गाथा कहते हैं :
ये सर्व जीवनिबद्ध, अध्रुव, शरणहीन, अनित्य हैं,
ये दुःख, दुःखफल जानके इनसे निवर्तन जीव करे
।।७४।।
गाथार्थ :[एते ] यह आस्रव [जीवनिबद्धाः ] जीवके साथ निबद्ध हैं, [अध्रुवाः ]

Page 139 of 642
PDF/HTML Page 172 of 675
single page version

जतुपादपवद्वध्यघातकस्वभावत्वाज्जीवनिबद्धाः खल्वास्रवाः, न पुनरविरुद्धस्वभावत्वा-
भावाज्जीव एव अपस्माररयवद्वर्धमानहीयमानत्वादध्रुवाः खल्वास्रवाः, ध्रुवश्चिन्मात्रो जीव
एव शीतदाहज्वरावेशवत् क्रमेणोज्जृम्भमाणत्वादनित्याः खल्वास्रवाः, नित्यो विज्ञानघनस्वभावो
जीव एव बीजनिर्मोक्षक्षणक्षीयमाणदारुणस्मरसंस्कारवत्त्रातुमशक्यत्वादशरणाः खल्वास्रवाः,
सशरणः स्वयं गुप्तः सहजचिच्छक्तिर्जीव एव नित्यमेवाकुलस्वभावत्वाद्दुःखानि खल्वास्रवाः,
अदुःखं नित्यमेवानाकुलस्वभावो जीव एव आयत्यामाकुलत्वोत्पादकस्य पुद्गलपरिणामस्य
हेतुत्वाद्दुःखफलाः खल्वास्रवाः, अदुःखफलः सकलस्यापि पुद्गलपरिणामस्याहेतुत्वाज्जीव
एव
इति विकल्पानन्तरमेव शिथिलितकर्मविपाको विघटितघनौघघटनो दिगाभोग इव
अध्रुव हैं, [अनित्याः ] अनित्य हैं [तथा च ] तथा [अशरणाः ] अशरण हैं, [च ] और वे
[दुःखानि ] दुःखरूप हैं, [दुःखफलाः ] दुःख ही जिनका फल है ऐसे हैं,
[इति ज्ञात्वा ] ऐसा
जानकर ज्ञानी [तेभ्यः ] उनसे [निवर्तते ] निवृत्त होता है
टीका :वृक्ष और लाखकी भाँति वध्य-घातकस्वभावपना होनेसे आस्रव जीवके
साथ बँधे हुए हैं; किन्तु अविरुद्धस्वभावत्वका अभाव होनेसे वे जीव ही नहीं हैं [लाखके
निमित्तसे पीपल आदि वृक्षका नाश होता है लाख घातक है और वृक्ष वध्य (घात होने
योग्य) है इसप्रकार लाख और वृक्षका स्वभाव एक-दूसरेसे विरुद्ध है, इसलिये लाख
वृक्षके साथ मात्र बंधी हुई ही है; लाख स्वयं वृक्ष नहीं है इसीप्रकार आस्रव घातक हैं
और आत्मा वध्य है इसप्रकार विरुद्ध स्वभाव होनेसे आस्रव स्वयं जीव नहीं है ] आस्रव
मृगीके वेगकी भाँति बढ़ते-घटते होनेसे अध्रुव हैं; चैतन्यमात्र जीव ही ध्रुव है आस्रव
शीतदाहज्वरके आवेशकी भाँति अनुक्रमसे उत्पन्न होते हैं इसलिए अनित्य हैं; विज्ञानघन
जिसका स्वभाव है ऐसा जीव ही नित्य है
जैसे कामसेवनमें वीर्य छूट जाता है उसी क्षण
दारुण संस्कार नष्ट हो जाता है, किसीसे नहीं रोका जा सकता, इसीप्रकार कर्मोदय छूट जाता
है उसी क्षण आस्रव नाशको प्राप्त हो जाते हैं, रोके नहीं जा सकते, इसलिये वे (आस्रव)
अशरण हैं; स्वयंरक्षित सहजचित्शक्तिरूप जीव ही शरणसहित है
आस्रव सदा ही आकुल
स्वभाववाले होनेसे दुःखरूप हैं; सदा ही निराकुल स्वभाववाला जीव ही अदुःखरूप अर्थात्
सुखरूप है
आस्रव आगामी कालमें आकुलताको उत्पन्न करनेवाले ऐसे पुद्गलपरिणामके
हेतु होनेसे दुःखफलरूप (दुःख जिसका फल है ऐसे) हैं; जीव ही समस्त पुद्गलपरिणामका
अहेतु होनेसे अदुःखफल (दुःखफलरूप नहीं) है
ऐसा आस्रवोंका और जीवका भेदज्ञान
होते ही (तत्काल ही) जिसमें कर्मविपाक शिथिल हो गया है ऐसा वह आत्मा, जिसमें

Page 140 of 642
PDF/HTML Page 173 of 675
single page version

निरर्गलप्रसरः सहजविजृम्भमाणचिच्छक्तितया यथा यथा विज्ञानघनस्वभावो भवति तथा
तथास्रवेभ्यो निवर्तते, यथा यथास्रवेभ्यश्च निवर्तते तथा तथा विज्ञानघनस्वभावो भवतीति
तावद्विज्ञानघनस्वभावो भवति यावत् सम्यगास्रवेभ्यो निवर्तते, तावदास्रवेभ्यश्च निवर्तते
यावत्सम्यग्विज्ञानघनस्वभावो भवतीति ज्ञानास्रवनिवृत्त्योः समकालत्वम्
बादलसमूहकी रचना खण्डित हो गई है ऐसे दिशाके विस्तारकी भाँति अमर्याद जिसका
विस्तार है ऐसा, सहजरूपसे विकासको प्राप्त चित्शक्तिसे ज्यों-ज्यों विज्ञानघनस्वभाव होता
जाता है त्यों-त्यों आस्रवोंसे निवृत्त होता जाता है, और ज्यों-ज्यों आस्रवोंसे निवृत्त होता जाता
है त्यों-त्यों विज्ञानघनस्वभाव होता जाता है; उतना विज्ञानघनस्वभाव होता है जितना सम्यक्
प्रकारसे आस्रवोंसे निवृत्त होता है, और उतना आस्रवोंसे निवृत्त होता है जितना
सम्यक् प्रकारसे विज्ञानघनस्वभाव होता है
इसप्रकार ज्ञानको और आस्रवोंकी निवृत्तिको
समकालपना है
भावार्थ :आस्रवोंका और आत्माका जैसा ऊ पर कहा है तदनुसार भेद जानते ही,
जिस-जिस प्रकारसे जितने-जितने अंशमें आत्मा विज्ञानघनस्वभाव होता है उस-उस प्रकारसे
उतने-उतने अंशमें वह आस्रवोंसे निवृत्त होता है
जब सम्पूर्ण विज्ञानघनस्वभाव होता है तब
समस्त आस्रवोंसे निवृत्त होता है इसप्रकार ज्ञानका और आस्रवनिवृत्तिका एक काल है
यह आस्रवोंको दूर होनेका और संवर होनेका वर्णन गुणस्थानोंकी परिपाटीरूपसे
तत्त्वार्थसूत्रकी टीका आदि सिद्धान्तशास्त्रोंमें है वहाँसे जानना यहाँ तो सामान्य प्रकरण है,
इसलिये सामान्यतया कहा है
‘आत्मा विज्ञानघनस्वभाव होता जाता है’ इसका क्या अर्थ है ? उसका उत्तर :
‘आत्मा विज्ञानघनस्वभाव होता जाता है अर्थात् आत्मा ज्ञानमें स्थित होता जाता है ’ जब
तक मिथ्यात्व हो तब तक ज्ञानको (भले ही वह क्षायोपशमिक ज्ञान अधिक हो तो भी)
अज्ञान कहा जाता है और मिथ्यात्वके जानेके बाद उसे (भले ही वह क्षायोपशमिक ज्ञान
अल्प हो तो भी) विज्ञान कहा जाता है
ज्यों-ज्यों वह ज्ञान अर्थात् विज्ञान स्थिर-घन होता
जाता है त्यों-त्यों आस्रवोंकी निवृत्ति होती जाती है और ज्यों-ज्यों आस्रवोंकी निवृत्ति होती
जाती है त्यों-त्यों ज्ञान (विज्ञान) स्थिर-घन होता जाता है, अर्थात् आत्मा विज्ञानघनस्वभाव
होता जाता है
।।७४।।
अब इसी अर्थका कलशरूप तथा आगेके कथनका सूचक काव्य कहते
हैं :

Page 141 of 642
PDF/HTML Page 174 of 675
single page version

(शार्दूलविक्रीडित)
इत्येवं विरचय्य सम्प्रति परद्रव्यान्निवृत्तिं परां
स्वं विज्ञानघनस्वभावमभयादास्तिघ्नुवानः परम्
अज्ञानोत्थितकर्तृकर्मकलनात् क्लेशान्निवृत्तः स्वयं
ज्ञानीभूत इतश्चकास्ति जगतः साक्षी पुराणः पुमान्
।।४८।।
कथमात्मा ज्ञानीभूतो लक्ष्यत इति चेत्
कम्मस्स य परिणामं णोकम्मस्स य तहेव परिणामं
ण करेइ एयमादा जो जाणदि सो हवदि णाणी ।।७५।।
कर्मणश्च परिणामं नोकर्मणश्च तथैव परिणामम्
न करोत्येनमात्मा यो जानाति स भवति ज्ञानी ।।७५।।
श्लोकार्थ :[इति एवं ] इसप्रकार पूर्वक थित विधानसे, [सम्प्रति ] अधुना (तत्काल)
ही [परद्रव्यात् ] परद्रव्यसे [परां निवृत्तिं विरचय्य ] उत्कृष्ट (सर्व प्रकारे) निवृत्ति क̄रके,
[विज्ञानघनस्वभावम् परम् स्वं अभयात् आस्तिघ्नुवानः ] विज्ञानघनस्वभावरूप के वल अपने पर
निर्भयतासे आरूढ होता हुआ अर्थात् अपना आश्रय करता हुआ (अथवा अपनेको निःशंकतया
आस्तिक्यभावसे स्थिर करता हुआ), [अज्ञानोत्थितकर्तृकर्मकलनात् क्लेशात् ] अज्ञानसे उत्पन्न हुई
कर्ताकर्मकी प्रवृत्तिके अभ्याससे उत्पन्न क्लेशसे [निवृत्तः ] निवृत्त हुआ, [स्वयं ज्ञानीभूतः ] स्वयं
ज्ञानस्वरूप होता हुआ, [जगतः साक्षी ] जगतका साक्षी (ज्ञाताद्रष्टा), [पुराणः पुमान् ] पुराण पुरुष
(आत्मा) [इतः चकास्ति ] अब यहाँसे प्रकाशमान होता है
।४८।
अब पूछते हैं किआत्मा ज्ञानस्वरूप अर्थात् ज्ञानी हो गया यह कैसे पहिचाना जाता
है ? उसका चिह्न (लक्षण) कहिये उसके उत्तररूप गाथा कहते हैं :
जो कर्मका परिणाम अरु नोकर्मका परिणाम है
सो नहिं करे जो, मात्र जाने, वो हि आत्मा ज्ञानि है
।।७५।।
गाथार्थ[यः ] जो [आत्मा ] आत्मा [एनम् ] इस [कर्मणः परिणामं च ] क र्मके
परिणामको [तथा एव च ] तथा [नोकर्मणः परिणामं ] नोक र्मके परिणामको [न करोति ] नहीं
करता, किन्तु [जानाति ] जानता है [सः ] वह [ज्ञानी ] ज्ञानी [भवति ] है

Page 142 of 642
PDF/HTML Page 175 of 675
single page version

यः खलु मोहरागद्वेषसुखदुःखादिरूपेणान्तरुत्प्लवमानं कर्मणः परिणामं स्पर्शरसगंध-
वर्णशब्दबंधसंस्थानस्थौल्यसौक्ष्म्यादिरूपेण बहिरुत्प्लवमानं नोकर्मणः परिणामं च समस्तमपि
परमार्थतः पुद्गलपरिणामपुद्गलयोरेव घटमृत्तिकयोरिव व्याप्यव्यापकभावसद्भावात् पुद्गलद्रव्येण कर्त्रा
स्वतंत्रव्यापकेन स्वयं व्याप्यमानत्वात्कर्मत्वेन क्रियमाणं पुद्गलपरिणामात्मनोर्घटकुम्भकारयोरिव
व्याप्यव्यापकभावाभावात् कर्तृकर्मत्वासिद्धौ न नाम करोत्यात्मा, किन्तु परमार्थतः पुद्गलपरिणाम-
ज्ञानपुद्गलयोर्घटकुंभकारवद्वयाप्यव्यापकभावाभावात् कर्तृकर्मत्वासिद्धावात्मपरिणामात्मनोर्घट-
मृत्तिकयोरिव व्याप्यव्यापकभावसद्भावादात्मद्रव्येण कर्त्रा स्वतन्त्रव्यापकेन स्वयं व्याप्यमानत्वात्
पुद्गलपरिणामज्ञानं कर्मत्वेन कुर्वन्तमात्मानं जानाति सोऽत्यन्तविविक्तज्ञानीभूतो ज्ञानी स्यात्
चैवं ज्ञातुः पुद्गलपरिणामो व्याप्यः, पुद्गलात्मनोर्ज्ञेयज्ञायकसम्बन्धव्यवहारमात्रे सत्यपि
टीका :निश्चयसे मोह, राग, द्वेष, सुख, दुःख आदिरूपसे अन्तरङ्गमें उत्पन्न
होनेवाला जो कर्मका परिणाम, और स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण, शब्द, बन्ध, संस्थान, स्थूलता,
सूक्ष्मता आदिरूपसे बाहर उत्पन्न होनेवाला जो नोकर्मका परिणाम, वह सब ही पुद्गलपरिणाम
हैं
परमार्थसे, जैसे घड़ेके और मिट्टीके व्याप्यव्यापकभावका सद्भाव होनेसे कर्ताकर्मपना है
उसीप्रकार पुद्गलपरिणामके और पुद्गलके ही व्याप्यव्यापकभावका सद्भाव होनेसे
कर्ताकर्मपना है
पुद्गलद्रव्य स्वतन्त्र व्यापक है, इसलिये पुद्गलपरिणामका कर्ता है और
पुद्गलपरिणाम उस व्यापकसे स्वयं व्याप्त (व्याप्यरूप) होनेके कारण कर्म है इसलिये
पुद्गलद्रव्यके द्वारा कर्ता होकर कर्मरूपसे किया जानेवाला जो समस्त कर्मनोकर्मरूप
पुद्गलपरिणाम है उसे जो आत्मा, पुद्गलपरिणामको और आत्माको घट और कुम्हारकी भाँति
व्याप्यव्यापकभावके अभावके कारण कर्ताकर्मपनेकी असिद्धि होनेसे, परमार्थसे करता नहीं है,
परन्तु (मात्र) पुद्गलपरिणामके ज्ञानको (आत्माके) कर्मरूपसे करते हुए अपने आत्माको
जानता है, वह आत्मा (कर्मनोकर्मसे) अत्यन्त भिन्न ज्ञानस्वरूप होता हुआ ज्ञानी है
(पुद्गलपरिणामका ज्ञान आत्माका कर्म किस प्रकार है ? सो समझाते हैं :) परमार्थसे
पुद्गलपरिणामके ज्ञानको और पुद्गलको घट और कुम्हारकी भाँति व्याप्यव्यापकभावका
अभाव होनेसे कर्ताकर्मपनेकी असिद्धि है और जैसे घड़े और मिट्टीके व्याप्यव्यापकभावका
सद्भाव होनेसे कर्ताकर्मपना है उसीप्रकार आत्मपरिणाम और आत्माके व्याप्यव्यापकभावका
सद्भाव होनेसे कर्ताकर्मपना है
आत्मद्रव्य स्वतन्त्र व्यापक होनेसे आत्मपरिणामका अर्थात्
पुद्गलपरिणामके ज्ञानका कर्ता है और पुद्गलपरिणामका ज्ञान उस व्यापकसे स्वयं व्याप्त
(व्याप्यरूप) होनेसे कर्म है
और इसप्रकार (ज्ञाता पुद्गलपरिणामका ज्ञान करता है

Page 143 of 642
PDF/HTML Page 176 of 675
single page version

पुद्गलपरिणामनिमित्तकस्य ज्ञानस्यैव ज्ञातुर्व्याप्यत्वात्
(शार्दूलविक्रीडित)
व्याप्यव्यापकता तदात्मनि भवेन्नैवातदात्मन्यपि
व्याप्यव्यापकभावसम्भवमृते का कर्तृकर्मस्थितिः
इत्युद्दामविवेकघस्मरमहोभारेण भिन्दंस्तमो
ज्ञानीभूय तदा स एष लसितः कर्तृत्वशून्यः पुमान्
।।४९।।
इसलिये) ऐसा भी नहीं है कि पुद्गलपरिणाम ज्ञाताका व्याप्य है; क्योंकि पुद्गल और
आत्माके ज्ञेयज्ञायकसम्बन्ध व्यवहारमात्र होने पर भी पुद्गलपरिणाम जिसका निमित्त है ऐसा
ज्ञान ही ज्ञाताका व्याप्य है
(इसलिये वह ज्ञान ही ज्ञाताका कर्म है )।।७५।।
अब इसी अर्थका समर्थक कलशरूप काव्य कहते हैं :
श्लोकार्थ :[व्याप्यव्यापकता तदात्मनि भवेत् ] व्याप्यव्यापकता तत्स्वरूपमें ही
होती है, [अतदात्मनि अपि न एव ] अतत्स्वरूपमें नहीं ही होती और
[व्याप्यव्यापकभावसम्भवम् ऋते ] व्याप्यव्यापकभावके सम्भव बिना [कर्तृकर्मस्थितिः का ]
कर्ताकर्मकी स्थिति कैसी ? अर्थात् कर्ताकर्मकी स्थिति नहीं ही होती
[इति उद्दाम-विवेक-
घस्मर-महोभारेण ] ऐसे प्रबल विवेकरूप, और सबको ग्रासीभूत करनेके स्वभाववाले
ज्ञानप्रकाशके भारसे [तमः भिन्दन् ] अज्ञानांधकारको भेदता हुआ, [सः एषः पुमान् ] यह
आत्मा [ज्ञानीभूय ] ज्ञानस्वरूप होकर, [तदा ] उस समय [कर्तृत्वशून्यः लसितः ]
कर्तृत्वरहित हुआ शोभित होता है
भावार्थ :जो सर्व अवस्थाओंमें व्याप्त होता है सो तो व्यापक है और कोई एक
अवस्थाविशेष वह, (उस व्यापकका) व्याप्य है इसप्रकार द्रव्य तो व्यापक है और पर्याय
व्याप्य है द्रव्य-पर्याय अभेदरूप ही है जो द्रव्यका आत्मा, स्वरूप अथवा सत्त्व है वही
पर्यायका आत्मा, स्वरूप अथवा सत्त्व है ऐसा होनेसे द्रव्य पर्यायमें व्याप्त होता है और
पर्याय द्रव्यके द्वारा व्याप्त हो जाती है ऐसी व्याप्यव्यापकता तत्स्वरूपमें ही (अभिन्न
सत्तावाले पदार्थमें ही) होती है; अतत्स्वरूपमें (जिनकी सत्तासत्त्व भिन्न-भिन्न है ऐसे
पदार्थोंमें) नहीं ही होती जहाँ व्याप्यव्यापकभाव होता है वहीं कर्ताकर्मभाव होता है;
व्याप्यव्यापकभावके बिना कर्ताकर्मभाव नहीं होता जो ऐसा जानता है वह पुद्गल और
आत्माके कर्ताकर्मभाव नहीं है ऐसा जानता है ऐसा जानने पर वह ज्ञानी होता है,
कर्ताकर्मभावसे रहित होता है और ज्ञाताद्रष्टाजगतका साक्षीभूतहोता है ।४९।

Page 144 of 642
PDF/HTML Page 177 of 675
single page version

पुद्गलकर्म जानतो जीवस्य सह पुद्गलेन कर्तृकर्मभावः किं भवति किं न भवतीति चेत्
ण वि परिणमदि ण गिण्हदि उप्पज्जदि ण परदव्वपज्जाए
णाणी जाणंतो वि हु पोग्गलकम्मं अणेयविहं ।।७६।।
नापि परिणमति न गृह्णात्युत्पद्यते न परद्रव्यपर्याये
ज्ञानी जानन्नपि खलु पुद्गलकर्मानेकविधम् ।।७६।।
यतो यं प्राप्यं विकार्यं निर्वर्त्यं च व्याप्यलक्षणं पुद्गलपरिणामं कर्म पुद्गलद्रव्येण
स्वयमन्तर्व्यापकेन भूत्वादिमध्यान्तेषु व्याप्य तं गृह्णता तथा परिणमता तथोत्पद्यमानेन च क्रियमाणं
जानन्नपि हि ज्ञानी स्वयमन्तर्व्यापको भूत्वा बहिःस्थस्य परद्रव्यस्य परिणामं मृत्तिकाकलश-
मिवादिमध्यान्तेषु व्याप्य न तं गृह्णाति न तथा परिणमति न तथोत्पद्यते च, ततः प्राप्यं विकार्यं
अब यह प्रश्न करता है कि पुद्गलकर्मको जाननेवाले जीवके पुद्गलके साथ कर्ताकर्मभाव
है या नहीं ? उसका उत्तर कहते हैं :
बहुभाँति पुद्गलकर्म सब, ज्ञानी पुरुष जाना करे,
परद्रव्यपर्यायों न प्रणमे, नहिं ग्रहे, नहिं ऊपजे
।।७६।।
गाथार्थ :[ज्ञानी ] ज्ञानी [अनेकविधम् ] अनेक प्रकारके [पुद्गलकर्म ] पुद्गलकर्मको
[जानन् अपि ] जानता हुआ भी [ खलु ] निश्चयसे [परद्रव्यपर्याये ] परद्रव्यकी पर्यायमें [न अपि
परिणमति ]
परिणमित नहीं होता, [ न गृह्णाति ] उसे ग्रहण नहीं करता और [न उत्पद्यते ] उस
रूप उत्पन्न नहीं होता
टीका :प्राप्य, विकार्य और निर्वर्त्य ऐसा, व्याप्यलक्षणवाला पुद्गलके परिणामस्वरूप
कर्म (कर्ताका कार्य), उसमें पुद्गलद्रव्य स्वयं अन्तर्व्यापक होकर, आदि-मध्य-अन्तमें व्याप्त
होकर, उसे ग्रहण करता हुआ, उस-रूप परिणमन करता हुआ उस-रूप उत्पन्न होता हुआ, उस
पुद्गलपरिणामको करता है; इसप्रकार पुद्गलद्रव्यसे किये जानेवाले पुद्गलपरिणामको ज्ञानी जानता
हुआ भी, जैसे मिट्टी स्वयं घड़ेमें अन्तर्व्यापक होकर, आदि-मध्य-अन्तमें व्याप्त होकर, घड़ेको
ग्रहण करती है, घड़के रूपमें परिणमित होती है और घड़ेके रूपमें उत्पन्न होती है उसीप्रकार, ज्ञानी
स्वयं बाह्यस्थित (बाहर रहनेवाले) परद्रव्यके परिणाममें अन्तर्व्यापक होकर, आदि-मध्य-अन्तमें
व्याप्त होकर, उसे ग्रहण नहीं करता, उस-रूप परिणमित नहीं होता और उस-रूप उत्पन्न नहीं होता;
इसलिये, यद्यपि ज्ञानी पुद्गलकर्मको जानता है तथापि, प्राप्य, विकार्य और निर्वर्त्य ऐसा जो

Page 145 of 642
PDF/HTML Page 178 of 675
single page version

निर्वर्त्यं च व्याप्यलक्षणं परद्रव्यपरिणामं कर्माकुर्वाणस्य, पुद्गलकर्म जानतोऽपि ज्ञानिनः पुद्गलेन
सह न कर्तृकर्मभावः
स्वपरिणामं जानतो जीवस्य सह पुद्गलेन कर्तृकर्मभावः किं भवति किं न भवतीति
चेत्
ण वि परिणमदि ण गिण्हदि उप्पज्जदि ण परदव्वपज्जाए
णाणी जाणंतो वि हु सगपरिणामं अणेयविहं ।।७७।।
19
व्याप्यलक्षणवाला परद्रव्यपरिणामस्वरूप कर्म है, उसे न करनेवाले ज्ञानीको पुद्गलके साथ
कर्ताकर्मभाव नहीं है
भावार्थ :जीव पुद्गलकर्मको जानता है तथापि उसे पुद्गलके साथ कर्ताकर्मपना नहीं है
सामान्यतया कर्ताका कर्म तीन प्रकारका कहा जाता हैनिर्वर्त्य, विकार्य और प्राप्य
कर्ताके द्वारा, जो पहले न हो ऐसा नवीन कुछ उत्पन्न किया जाये सो कर्ताका निर्वर्त्य कर्म है
कर्ताके द्वारा, पदार्थमें विकारपरिवर्तन करके जो कुछ किया जाये वह कर्ताका विकार्य कर्म है
कर्ता, जो नया उत्पन्न नहीं करता तथा विकार करके भी नहीं करता, मात्र जिसे प्राप्त करता है
वह कर्ताका प्राप्य कर्म है
जीव पुद्गलकर्मको नवीन उत्पन्न नहीं कर सकता, क्योंकि चेतन जड़को कैसे उत्पन्न कर
सकता है ? इसलिये पुद्गलकर्म जीवका निर्वर्त्य कर्म नहीं है जीव पुद्गलमें विकार करके उसे
पुद्गलकर्मरूप परिणमन नहीं करा सकता, क्योंकि चेतन जड़को कैसे परिणमित कर सकता है ?
इसलिये पुद्गलकर्म जीवका विकार्य कर्म भी नहीं है
परमार्थसे जीव पुद्गलको ग्रहण नहीं कर
सकता, क्योंकि अमूर्तिक पदार्थ मूर्तिकको कैसे ग्रहण कर सकता है ? इसलिये पुद्गलकर्म
जीवका प्राप्य कर्म भी नहीं है
इसप्रकार पुद्गलकर्म जीवका कर्म नहीं है और जीव उसका कर्ता
नहीं है जीवका स्वभाव ज्ञाता है, इसलिये ज्ञानरूप परिणमन करता हुआ स्वयं पुद्गलकर्मको
जानता है; इसलिये पुद्गलकर्मको जाननेवाले ऐसे जीवका परके साथ कर्ताकर्मभाव कैसे हो सकता
है ? नहीं हो सकता
।।७६।।
अब प्रश्न करता है कि अपने परिणामको जाननेवाले ऐसे जीवको पुद्गलके साथ
कर्ताकर्मभाव (कर्ताकर्मपना) है या नहीं ? उसका उत्तर कहते हैं :
बहुभाँति निज परिणाम सब, ज्ञानी पुरुष जाना करे,
परद्रव्यपर्यायों न प्रणमे, नहिं ग्रहे, नहिं ऊपजे
।।७७।।

Page 146 of 642
PDF/HTML Page 179 of 675
single page version

नापि परिणमति न गृह्णात्युत्पद्यते न परद्रव्यपर्याये
ज्ञानी जानन्नपि खलु स्वकपरिणाममनेकविधम् ।।७७।।
यतो यं प्राप्यं विकार्यं निर्वर्त्यं च व्याप्यलक्षणमात्मपरिणामं कर्म आत्मना स्वयमन्तर्व्यापकेन
भूत्वादिमध्यान्तेषु व्याप्य तं गृह्णता तथा परिणमता तथोत्पद्यमानेन च क्रियमाणं जानन्नपि हि ज्ञानी
स्वयमन्तर्व्यापको भूत्वा बहिःस्थस्य परद्रव्यस्य परिणामं मृत्तिकाकलशमिवादिमध्यान्तेषु व्याप्य न तं
गृह्णाति न तथा परिणमति न तथोत्पद्यते च, ततः प्राप्यं विकार्यं निर्वर्त्यं च व्याप्यलक्षणं
परद्रव्यपरिणामं कर्माकुर्वाणस्य स्वपरिणामं जानतोऽपि ज्ञानिनः पुद्गलेन सह न कर्तृकर्मभावः
पुद्गलकर्मफलं जानतो जीवस्य सह पुद्गलेन कर्तृकर्मभावः किं भवति किं न भवतीति
चेत्
गाथार्थ :[ज्ञानी ] ज्ञानी [अनेकविधम् ] अनेक प्रकारके [स्वकपरिणामम् ] अपने
परिणामको [जानन् अपि ] जानता हुआ भी [ खलु ] निश्चयसे [परद्रव्यपर्याये ] परद्रव्यकी पर्यायमें
[न अपि परिणमति ] परिणमित नहीं होता, [ न गृह्णाति ] उसे ग्रहण नहीं करता और [न उत्पद्यते ]
उस
रूप उत्पन्न नहीं होता
टीका :प्राप्य, विकार्य और निर्वर्त्य ऐसा, व्याप्यलक्षणवाला आत्माके परिणामस्वरूप
जो कर्म (कर्ताका कार्य), उसमें आत्मा स्वयं अन्तर्व्यापक होकर, आदि-मध्य-अन्तमें व्याप्त होकर,
उसे ग्रहण करता हुआ, उस-रूप परिणमन करता हुआ और उस-रूप उत्पन्न होता हुआ, उस
आत्मपरिणामको करता है; इसप्रकार आत्माके द्वारा किये जानेवाले आत्मपरिणामको ज्ञानी जानता
हुआ भी, जैसे मिट्टी स्वयं घड़ेमें अन्तर्व्यापक होकर, आदि-मध्य-अन्तमें व्याप्त होकर, घड़ेको ग्रहण
करती है, घडे़के रूपमें परिणमित होती है और घड़ेके रूपमें उत्पन्न होती है उसीप्रकार, ज्ञानी स्वयं
बाह्यस्थित ऐसे परद्रव्यके परिणाममें अन्तर्व्यापक होकर, आदि-मध्य-अन्तमें व्याप्त होकर, उसे ग्रहण
नहीं करता, उस-रूप परिणमित नहीं होता और उस-रूप उत्पन्न नहीं होता; इसलिये यद्यपि ज्ञानी
अपने परिणामको जानता है तथापि, प्राप्य, विकार्य और निर्वर्त्य ऐसा जो व्याप्यलक्षणवाला
परद्रव्यपरिणामस्वरूप कर्म है, उसे न करनेवाले ज्ञानीको पुद्गलके साथ कर्ताकर्मभाव नहीं है
भावार्थ :जैसा ७६वीं गाथामें कहा है तदनुसार यहाँ भी जान लेना वहाँ
‘पुद्गलकर्मको जानता हुआ ज्ञानी’ ऐसा कहा था उसके स्थान पर यहाँ ‘अपने परिणामको जानता
हुआ ज्ञानी’ ऐसा कहा है
इतना अन्तर है ।।७७।।
अब प्रश्न करता है कि पुद्गलकर्मके फलको जाननेवाले ऐसे जीवको पुद्गलके साथ
कर्ताकर्मभाव (कर्ताकर्मपना) है या नहीं ? उसका उत्तर कहते हैं :

Page 147 of 642
PDF/HTML Page 180 of 675
single page version

ण वि परिणमदि ण गिण्हदि उप्पज्जदि ण परदव्वपज्जाए
णाणी जाणंतो वि हु पोग्गलकम्मप्फलमणंतं ।।७८।।
नापि परिणमति न गृह्णात्युत्पद्यते न परद्रव्यपर्याये
ज्ञानी जानन्नपि खलु पुद्गलकर्मफलमनन्तम् ।।७८।।
यतो यं प्राप्यं विकार्यं निर्वर्त्यं च व्याप्यलक्षणं सुखदुःखादिरूपं पुद्गलकर्मफलं कर्म
पुद्गलद्रव्येण स्वयमन्तर्व्यापकेन भूत्वादिमध्यान्तेषु व्याप्य तद् गृह्णता तथा परिणमता
तथोत्पद्यमानेन च क्रियमाणं जानन्नपि हि ज्ञानी स्वयमन्तर्व्यापको भूत्वा बहिःस्थस्य परद्रव्यस्य
परिणामं मृत्तिकाकलशमिवादिमध्यान्तेषु व्याप्य न तं गृह्णाति न तथा परिणमति न तथोत्पद्यते
च, ततः प्राप्यं विकार्यं निर्वर्त्यं च व्याप्यलक्षणं परद्रव्यपरिणामं कर्माकुर्वाणस्य, सुखदुःखादिरूपं
पुद्गलक र्मफलं जानतोऽपि, ज्ञानिनः पुद्गलेन सह न कर्तृकर्मभावः
पुद्गलकरमका फल अनन्ता, ज्ञानि जन जाना करे,
परद्रव्यपर्यायों न प्रणमे, नहिं ग्रहे, नहिं ऊपजे
।।७८।।
गाथार्थ :[ज्ञानी ] ज्ञानी [पुद्गलकर्मफलम् ] पुद्गलकर्मका फल [अनन्तम् ] जो कि
अनन्त है उसे [जानन् अपि ] जानता हुआ भी [खलु ] परमार्थसे [परद्रव्यपर्याये ] परद्रव्यकी
पर्यायरूप [न अपि परिणमति ] परिणमित नहीं होता, [ न गृह्णाति ] उसे ग्रहण नहीं करता और
[उत्पद्यते ] उस
रूप उत्पन्न नहीं होता
टीका :प्राप्य, विकार्य और निर्वर्त्य ऐसा, व्याप्यलक्षणवाला सुखदुःखादिरूप
पुद्गलकर्मफलस्वरूप जो कर्म (कर्ताका कार्य), उसमें पुद्गलद्रव्य स्वयं अन्तर्व्यापक होकर,
आदि-मध्य-अन्तमें व्याप्त होकर, उसे ग्रहण करता हुआ, उस-रूप परिणमन करता हुआ और उस-
रूप उत्पन्न होता हुआ, उस सुखदुःखादिरूप पुद्गलकर्मफलको करता है; इसप्रकार पुद्गलद्रव्यके
द्वारा किये जानेवाले सुखदुःखादिरूप पुद्गलकर्मफलको ज्ञानी जानता हुआ भी, जैसे मिट्टी स्वयं घड़ेमें
अन्तर्व्यापक होकर, आदि-मध्य-अन्तमें व्याप्त होकर, घड़ेको ग्रहण करती है, घडे़के रूपमें परिणमित
होती है और घड़ेके रूपमें उत्पन्न होती है उसीप्रकार, ज्ञानी स्वयं बाह्यस्थित ऐसे परद्रव्यके परिणाममें
अन्तर्व्यापक होकर, आदि-मध्य-अन्तमें व्याप्त होकर, उसे ग्रहण नहीं करता, उस-रूप परिणमित
नहीं होता और उस-रूप उत्पन्न नहीं होता; इसलिये, यद्यपि ज्ञानी सुखदुःखादिरूप पुद्गलकर्मके
फलको जानता है तथापि, प्राप्य, विकार्य और निर्वर्त्य ऐसा जो व्याप्यलक्षणवाला परद्रव्य-
परिणामस्वरूप कर्म है, उसे न करनेवाले ऐसे उस ज्ञानीको पुद्गलके साथ कर्ताकर्मभाव नहीं है