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धारा जमीं
एक होकर प्रवेश करते हैं और दोनोंने एकत्वका स्वाँग रचा है
इसलिये स्वाँग पूरा हुआ और दोनों अलग अलग होकर अखाड़ेसे बाहर निकल गये
सम्यक् भेदविज्ञान भये बुध भिन्न गहे निजभाव सुदावैं;
श्री गुरुके उपदेश सुनै रु भले दिन पाय अज्ञान गमावैं,
ते जगमाँहि महन्त कहाय वसैं शिव जाय सुखी नित थावैं
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कर्म नाशि शिवमें बसे, तिन्हें नमू, मद खोय
एक कर्ताकर्मका स्वाँग करके प्रवेश करते हैं इसप्रकार यहाँ टीकाकारने अलङ्कार किया है
अज्ञानां कर्तृकर्मप्रवृत्तिम् ] ऐसी अज्ञानियोंके जो कर्ताकर्मकी प्रवृत्ति है उसे [अभितः शमयत् ] सब
ओरसे शमन करती हुई (
[निरुपधि-पृथग्द्रव्य-निर्भासि ] परकी सहायताके बिना-भिन्न भिन्न द्रव्योंको प्रकाशित करनेका
उसका स्वभाव है, इसलिये [विश्वम् साक्षात् कुर्वत् ] वह समस्त लोकालोकको साक्षात् करती
है
इत्यज्ञानां शमयदभितः कर्तृकर्मप्रवृत्तिम्
साक्षात्कुर्वन्निरुपधिपृथग्द्रव्यनिर्भासि विश्वम्
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द्वारा कहते हैं :
क्रोधादिमें स्थिति होय है अज्ञानि ऐसे जीवकी
सर्वज्ञने निश्चय कहा, यों बन्ध होता जीवके
प्रवर्तता है; [क्रोधादिषु ] क्रोधादिकमें [वर्तमानस्य तस्य ] प्रवर्तमान उसके [कर्मणः ] कर्मका
[सञ्चयः ] संचय [भवति ] होता है
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संबंधयोरप्यात्मक्रोधाद्यास्रवयोः स्वयमज्ञानेन विशेषमजानन् यावद्भेदं न पश्यति तावदशंक मात्मतया
क्रोधादौ वर्तते, तत्र वर्तमानश्च क्रोधादिक्रियाणां परभावभूतत्वात्प्रतिषिद्धत्वेऽपि
स्वभावभूतत्वाध्यासात्क्रुध्यति रज्यते मुह्यति चेति
व्याप्रियमाणत्वेभ्यो भिन्नं क्रियमाणत्वेनान्तरुत्प्लवमानं प्रतिभाति क्रोधादि तत्कर्म
संचयमुपयाति
ज्ञानमें अपनेपनेसे प्रवर्तता है, और वहाँ (ज्ञानमें अपनेपनेसे) प्रवर्तता हुआ वह, ज्ञानक्रियाका
स्वभावभूत होनेसे निषेध नहीं किया गया है इसलिये, जानता है
भी, अपने अज्ञानभावसे, विशेष न जानता हुआ उनके भेदको नहीं देखता तब तक निःशंकतया
क्रोधादिमें अपनेपने से प्रवर्तता है, और वहाँ (क्रोधादिमें अपनेपनेसे) प्रवर्तता हुआ वह, यद्यपि
क्रोधादि क्रियाका परभावभूत होनेसे निषेध किया गया है तथापि वह स्वभावभूत होनेका उसे
अध्यास होनेसे, क्रोधरूप परिणमित होता है, रागरूप परिणमित होता है, मोहरूप परिणमित होता
है
प्रतिभासित होता है; वह क र्ता है; और ज्ञानभवनव्यापाररूप प्रवर्तनसे भिन्न, जो
परिणामको निमित्तमात्र करके स्वयं अपने भावसे ही परिणमित होनेवाला पौद्गलिक कर्म इकट्ठा
होता है
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कर्ताकर्मकी प्रवृत्ति है; क्रोधादिरूप परिणमित होता हुआ वह स्वयं कर्ता है और क्रोधादि उसका
कर्म है
भी नहीं आता
जाने विशेषान्तर, तदा बन्धन नहीं उसको कहा
[तदा तु ] तब [तस्य ] उसे [बन्धः न ] बन्ध नहीं होता
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क्रोधादिभवने क्रोधादयो भवन्तो विभाव्यन्ते न तथा ज्ञानमपि
होना
होने पर पौद्गलिक द्रव्यकर्मका बन्ध
अरु दुःखकारण जानके, इनसे निवर्तन जीव करे
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स्वभावेनाकार्यकारणत्वाद्दुःखस्याकारणमेव
सिद्धेः
[जीवः ] जीव [ततः निवृत्तिं ] उनसे निवृत्ति [करोति ] करता है
ही चेतक (
कारण किसीका कार्य तथा किसीका कारण न होनेसे, दुःखका अकारण ही है (अर्थात् दुःखका
कारण नहीं है)
उसे आत्मा और आस्रवोंके पारमार्थिक (यथार्थ) भेदज्ञानकी सिद्धि ही नहीं हुई
कर्मके बन्धका निरोध होता है
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अभेदज्ञानसे उसकी कोई विशेषता नहीं हुई
भी खण्डन हुआ
प्रकृतियोंका तो आस्रव होकर बन्ध होता है; इसलिये उसे ज्ञानी कहना या अज्ञानी ? उसका
समाधान :
उसके उदयानुसार जो आस्रव-बन्ध होता है उसका स्वामित्व उसको नहीं है
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निदमुदितमखण्डं ज्ञानमुच्चण्डमुच्चैः
रिह भवति कथं वा पौद्गलः कर्मबन्धः
कारण है, वह तो बन्धकी पंक्तिमें है, ज्ञानकी पंक्तिमें नहीं
अत्यंत प्रचण्ड ज्ञान [उच्चैः उदितम् ] प्रत्यक्ष उदयको प्राप्त हुआ है
हो सकता है ? [वा ] तथा [पौद्गलः कर्मबन्धः ] पौद्गलिक क र्मबंध भी [कथं भवति ] कैसे
हो सकता है ? (नहीं हो सकता
विशेषण दिया है
छोड़ता हुआ’ ऐसा कहा है
तब फि र अब बन्ध किसलिये होगा ? अर्थात् नहीं होगा
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भाववैश्वरूपस्य स्वस्य स्वामित्वेन नित्यमेवापरिणमनान्निर्ममतः, चिन्मात्रस्य महसो वस्तुस्वभावत
एव सामान्यविशेषाभ्यां सकलत्वाद् ज्ञानदर्शनसमग्रः, गगनादिवत्पारमार्थिको वस्तुविशेषोऽस्मि
स्थितः ] उस स्वभावमें रहता हुआ, [तच्चित्तः ] उससे (-उस चैतन्य-अनुभवमें) लीन होता हुआ
(मैं) [एतान् ] इन [सर्वान् ] क्रोेधादिक सर्व आस्रवोंको [क्षयं ] क्षयको [नयामि ] प्राप्त कराता हूँ
और अधिकरणस्वरूप) सर्व कारकोंकी समूहकी प्रक्रियासे पारको प्राप्त जो निर्मल अनुभूति, उस
अनुभूतिमात्रपनेके कारण शुद्ध हूँ; पुद्गलद्रव्य जिसका स्वामी है ऐसा जो क्रोधादिभावोंका
विश्वरूपत्व (अनेकरूपत्व) उसके स्वामीपनेरूप स्वयं सदा ही नहीं परिणमता होनेसे ममतारहित
हूँ; चिन्मात्र ज्योतिकी, वस्तुस्वभावसे ही, सामान्य और विशेषसे परिपूर्णता होनेसे, मैं ज्ञानदर्शनसे
परिपूर्ण हूँ
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नेव क्षपयामीत्यात्मनि निश्चित्य चिरसंगृहीतमुक्तपोतपात्रः समुद्रावर्त इव झगित्येवोद्वान्तसमस्त-
विकल्पोऽकल्पितमचलितममलमात्मानमालम्बमानो विज्ञानघनभूतः खल्वयमात्मास्रवेभ्यो निवर्तते
निमित्तसे विशेषरूप चेतनमें होनेवाले चञ्चल कल्लोलोंके निरोधसे इसको ही (इस
चैतन्यस्वरूपको ही) अनुभव करता हुआ, अपने अज्ञानसे आत्मामें उत्पन्न होनेवाले जो यह
क्रोधादिक भाव हैं उन सबका क्षय करता हूँ
वमन कर दिया है ऐसा, निर्विकल्प अचलित निर्मल आत्माका अवलम्बन करता हुआ, विज्ञानघन
होता हुआ, यह आत्मा आस्रवोंसे निवृत्त होता है
जाता है तब वह उस जहाजको छोड़ देता है, इसीप्रकार आत्मा विकल्पोंके आवर्त्तको शमन करता
हुआ आस्रवोंको छोड़ देता है
ये दुःख, दुःखफल जानके इनसे निवर्तन जीव करे
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एव
[दुःखानि ] दुःखरूप हैं, [दुःखफलाः ] दुःख ही जिनका फल है ऐसे हैं,
जिसका स्वभाव है ऐसा जीव ही नित्य है
है उसी क्षण आस्रव नाशको प्राप्त हो जाते हैं, रोके नहीं जा सकते, इसलिये वे (आस्रव)
अशरण हैं; स्वयंरक्षित सहजचित्शक्तिरूप जीव ही शरणसहित है
सुखरूप है
अहेतु होनेसे अदुःखफल (दुःखफलरूप नहीं) है
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तथास्रवेभ्यो निवर्तते, यथा यथास्रवेभ्यश्च निवर्तते तथा तथा विज्ञानघनस्वभावो भवतीति
यावत्सम्यग्विज्ञानघनस्वभावो भवतीति ज्ञानास्रवनिवृत्त्योः समकालत्वम्
विस्तार है ऐसा, सहजरूपसे विकासको प्राप्त चित्शक्तिसे ज्यों-ज्यों विज्ञानघनस्वभाव होता
जाता है त्यों-त्यों आस्रवोंसे निवृत्त होता जाता है, और ज्यों-ज्यों आस्रवोंसे निवृत्त होता जाता
है त्यों-त्यों विज्ञानघनस्वभाव होता जाता है; उतना विज्ञानघनस्वभाव होता है जितना सम्यक्
प्रकारसे आस्रवोंसे निवृत्त होता है, और उतना आस्रवोंसे निवृत्त होता है जितना
सम्यक् प्रकारसे विज्ञानघनस्वभाव होता है
उतने-उतने अंशमें वह आस्रवोंसे निवृत्त होता है
अज्ञान कहा जाता है और मिथ्यात्वके जानेके बाद उसे (भले ही वह क्षायोपशमिक ज्ञान
अल्प हो तो भी) विज्ञान कहा जाता है
जाती है त्यों-त्यों ज्ञान (विज्ञान) स्थिर-घन होता जाता है, अर्थात् आत्मा विज्ञानघनस्वभाव
होता जाता है
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स्वं विज्ञानघनस्वभावमभयादास्तिघ्नुवानः परम्
ज्ञानीभूत इतश्चकास्ति जगतः साक्षी पुराणः पुमान्
[विज्ञानघनस्वभावम् परम् स्वं अभयात् आस्तिघ्नुवानः ] विज्ञानघनस्वभावरूप के वल अपने पर
निर्भयतासे आरूढ होता हुआ अर्थात् अपना आश्रय करता हुआ (अथवा अपनेको निःशंकतया
आस्तिक्यभावसे स्थिर करता हुआ), [अज्ञानोत्थितकर्तृकर्मकलनात् क्लेशात् ] अज्ञानसे उत्पन्न हुई
कर्ताकर्मकी प्रवृत्तिके अभ्याससे उत्पन्न क्लेशसे [निवृत्तः ] निवृत्त हुआ, [स्वयं ज्ञानीभूतः ] स्वयं
ज्ञानस्वरूप होता हुआ, [जगतः साक्षी ] जगतका साक्षी (ज्ञाताद्रष्टा), [पुराणः पुमान् ] पुराण पुरुष
(आत्मा) [इतः चकास्ति ] अब यहाँसे प्रकाशमान होता है
सो नहिं करे जो, मात्र जाने, वो हि आत्मा ज्ञानि है
करता, किन्तु [जानाति ] जानता है [सः ] वह [ज्ञानी ] ज्ञानी [भवति ] है
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परमार्थतः पुद्गलपरिणामपुद्गलयोरेव घटमृत्तिकयोरिव व्याप्यव्यापकभावसद्भावात् पुद्गलद्रव्येण कर्त्रा
स्वतंत्रव्यापकेन स्वयं व्याप्यमानत्वात्कर्मत्वेन क्रियमाणं पुद्गलपरिणामात्मनोर्घटकुम्भकारयोरिव
व्याप्यव्यापकभावाभावात् कर्तृकर्मत्वासिद्धौ न नाम करोत्यात्मा, किन्तु परमार्थतः पुद्गलपरिणाम-
ज्ञानपुद्गलयोर्घटकुंभकारवद्वयाप्यव्यापकभावाभावात् कर्तृकर्मत्वासिद्धावात्मपरिणामात्मनोर्घट-
मृत्तिकयोरिव व्याप्यव्यापकभावसद्भावादात्मद्रव्येण कर्त्रा स्वतन्त्रव्यापकेन स्वयं व्याप्यमानत्वात्
पुद्गलपरिणामज्ञानं कर्मत्वेन कुर्वन्तमात्मानं जानाति सोऽत्यन्तविविक्तज्ञानीभूतो ज्ञानी स्यात्
सूक्ष्मता आदिरूपसे बाहर उत्पन्न होनेवाला जो नोकर्मका परिणाम, वह सब ही पुद्गलपरिणाम
हैं
कर्ताकर्मपना है
पुद्गलपरिणाम है उसे जो आत्मा, पुद्गलपरिणामको और आत्माको घट और कुम्हारकी भाँति
व्याप्यव्यापकभावके अभावके कारण कर्ताकर्मपनेकी असिद्धि होनेसे, परमार्थसे करता नहीं है,
परन्तु (मात्र) पुद्गलपरिणामके ज्ञानको (आत्माके) कर्मरूपसे करते हुए अपने आत्माको
जानता है, वह आत्मा (कर्मनोकर्मसे) अत्यन्त भिन्न ज्ञानस्वरूप होता हुआ ज्ञानी है
अभाव होनेसे कर्ताकर्मपनेकी असिद्धि है और जैसे घड़े और मिट्टीके व्याप्यव्यापकभावका
सद्भाव होनेसे कर्ताकर्मपना है उसीप्रकार आत्मपरिणाम और आत्माके व्याप्यव्यापकभावका
सद्भाव होनेसे कर्ताकर्मपना है
(व्याप्यरूप) होनेसे कर्म है
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व्याप्यव्यापकभावसम्भवमृते का कर्तृकर्मस्थितिः
ज्ञानीभूय तदा स एष लसितः कर्तृत्वशून्यः पुमान्
आत्माके ज्ञेयज्ञायकसम्बन्ध व्यवहारमात्र होने पर भी पुद्गलपरिणाम जिसका निमित्त है ऐसा
ज्ञान ही ज्ञाताका व्याप्य है
कर्ताकर्मकी स्थिति कैसी ? अर्थात् कर्ताकर्मकी स्थिति नहीं ही होती
ज्ञानप्रकाशके भारसे [तमः भिन्दन् ] अज्ञानांधकारको भेदता हुआ, [सः एषः पुमान् ] यह
आत्मा [ज्ञानीभूय ] ज्ञानस्वरूप होकर, [तदा ] उस समय [कर्तृत्वशून्यः लसितः ]
कर्तृत्वरहित हुआ शोभित होता है
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जानन्नपि हि ज्ञानी स्वयमन्तर्व्यापको भूत्वा बहिःस्थस्य परद्रव्यस्य परिणामं मृत्तिकाकलश-
मिवादिमध्यान्तेषु व्याप्य न तं गृह्णाति न तथा परिणमति न तथोत्पद्यते च, ततः प्राप्यं विकार्यं
परद्रव्यपर्यायों न प्रणमे, नहिं ग्रहे, नहिं ऊपजे
परिणमति ] परिणमित नहीं होता, [ न गृह्णाति ] उसे ग्रहण नहीं करता और [न उत्पद्यते ] उस
होकर, उसे ग्रहण करता हुआ, उस-रूप परिणमन करता हुआ उस-रूप उत्पन्न होता हुआ, उस
पुद्गलपरिणामको करता है; इसप्रकार पुद्गलद्रव्यसे किये जानेवाले पुद्गलपरिणामको ज्ञानी जानता
हुआ भी, जैसे मिट्टी स्वयं घड़ेमें अन्तर्व्यापक होकर, आदि-मध्य-अन्तमें व्याप्त होकर, घड़ेको
ग्रहण करती है, घड़के रूपमें परिणमित होती है और घड़ेके रूपमें उत्पन्न होती है उसीप्रकार, ज्ञानी
स्वयं बाह्यस्थित (बाहर रहनेवाले) परद्रव्यके परिणाममें अन्तर्व्यापक होकर, आदि-मध्य-अन्तमें
व्याप्त होकर, उसे ग्रहण नहीं करता, उस-रूप परिणमित नहीं होता और उस-रूप उत्पन्न नहीं होता;
इसलिये, यद्यपि ज्ञानी पुद्गलकर्मको जानता है तथापि, प्राप्य, विकार्य और निर्वर्त्य ऐसा जो
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सह न कर्तृकर्मभावः
कर्ताकर्मभाव नहीं है
वह कर्ताका प्राप्य कर्म है
इसलिये पुद्गलकर्म जीवका विकार्य कर्म भी नहीं है
जीवका प्राप्य कर्म भी नहीं है
है ? नहीं हो सकता
परद्रव्यपर्यायों न प्रणमे, नहिं ग्रहे, नहिं ऊपजे
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स्वयमन्तर्व्यापको भूत्वा बहिःस्थस्य परद्रव्यस्य परिणामं मृत्तिकाकलशमिवादिमध्यान्तेषु व्याप्य न तं
गृह्णाति न तथा परिणमति न तथोत्पद्यते च, ततः प्राप्यं विकार्यं निर्वर्त्यं च व्याप्यलक्षणं
परद्रव्यपरिणामं कर्माकुर्वाणस्य स्वपरिणामं जानतोऽपि ज्ञानिनः पुद्गलेन सह न कर्तृकर्मभावः
[न अपि परिणमति ] परिणमित नहीं होता, [ न गृह्णाति ] उसे ग्रहण नहीं करता और [न उत्पद्यते ]
उस
उसे ग्रहण करता हुआ, उस-रूप परिणमन करता हुआ और उस-रूप उत्पन्न होता हुआ, उस
आत्मपरिणामको करता है; इसप्रकार आत्माके द्वारा किये जानेवाले आत्मपरिणामको ज्ञानी जानता
हुआ भी, जैसे मिट्टी स्वयं घड़ेमें अन्तर्व्यापक होकर, आदि-मध्य-अन्तमें व्याप्त होकर, घड़ेको ग्रहण
करती है, घडे़के रूपमें परिणमित होती है और घड़ेके रूपमें उत्पन्न होती है उसीप्रकार, ज्ञानी स्वयं
बाह्यस्थित ऐसे परद्रव्यके परिणाममें अन्तर्व्यापक होकर, आदि-मध्य-अन्तमें व्याप्त होकर, उसे ग्रहण
नहीं करता, उस-रूप परिणमित नहीं होता और उस-रूप उत्पन्न नहीं होता; इसलिये यद्यपि ज्ञानी
अपने परिणामको जानता है तथापि, प्राप्य, विकार्य और निर्वर्त्य ऐसा जो व्याप्यलक्षणवाला
परद्रव्यपरिणामस्वरूप कर्म है, उसे न करनेवाले ज्ञानीको पुद्गलके साथ कर्ताकर्मभाव नहीं है
हुआ ज्ञानी’ ऐसा कहा है
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तथोत्पद्यमानेन च क्रियमाणं जानन्नपि हि ज्ञानी स्वयमन्तर्व्यापको भूत्वा बहिःस्थस्य परद्रव्यस्य
परिणामं मृत्तिकाकलशमिवादिमध्यान्तेषु व्याप्य न तं गृह्णाति न तथा परिणमति न तथोत्पद्यते
च, ततः प्राप्यं विकार्यं निर्वर्त्यं च व्याप्यलक्षणं परद्रव्यपरिणामं कर्माकुर्वाणस्य, सुखदुःखादिरूपं
पुद्गलक र्मफलं जानतोऽपि, ज्ञानिनः पुद्गलेन सह न कर्तृकर्मभावः
परद्रव्यपर्यायों न प्रणमे, नहिं ग्रहे, नहिं ऊपजे
पर्यायरूप [न अपि परिणमति ] परिणमित नहीं होता, [ न गृह्णाति ] उसे ग्रहण नहीं करता और
[न उत्पद्यते ] उस
आदि-मध्य-अन्तमें व्याप्त होकर, उसे ग्रहण करता हुआ, उस-रूप परिणमन करता हुआ और उस-
रूप उत्पन्न होता हुआ, उस सुखदुःखादिरूप पुद्गलकर्मफलको करता है; इसप्रकार पुद्गलद्रव्यके
द्वारा किये जानेवाले सुखदुःखादिरूप पुद्गलकर्मफलको ज्ञानी जानता हुआ भी, जैसे मिट्टी स्वयं घड़ेमें
अन्तर्व्यापक होकर, आदि-मध्य-अन्तमें व्याप्त होकर, घड़ेको ग्रहण करती है, घडे़के रूपमें परिणमित
होती है और घड़ेके रूपमें उत्पन्न होती है उसीप्रकार, ज्ञानी स्वयं बाह्यस्थित ऐसे परद्रव्यके परिणाममें
अन्तर्व्यापक होकर, आदि-मध्य-अन्तमें व्याप्त होकर, उसे ग्रहण नहीं करता, उस-रूप परिणमित
नहीं होता और उस-रूप उत्पन्न नहीं होता; इसलिये, यद्यपि ज्ञानी सुखदुःखादिरूप पुद्गलकर्मके
फलको जानता है तथापि, प्राप्य, विकार्य और निर्वर्त्य ऐसा जो व्याप्यलक्षणवाला परद्रव्य-
परिणामस्वरूप कर्म है, उसे न करनेवाले ऐसे उस ज्ञानीको पुद्गलके साथ कर्ताकर्मभाव नहीं है