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जीवपरिणामं स्वपरिणामं स्वपरिणामफलं चाजानतः पुद्गलद्रव्यस्य सह जीवेन कर्तृकर्मभावः किं भवति किं न भवतीति चेत् —
यतो जीवपरिणामं स्वपरिणामं स्वपरिणामफलं चाप्यजानत् पुद्गलद्रव्यं स्वयमन्तर्व्यापकं भूत्वा परद्रव्यस्य परिणामं मृत्तिकाकलशमिवादिमध्यान्तेषु व्याप्य न तं गृह्णाति न तथा परिणमति न तथोत्पद्यते च, किन्तु प्राप्यं विकार्यं निर्वर्त्यं च व्याप्यलक्षणं स्वभावं कर्म स्वयमन्तर्व्यापकं
भावार्थ : — जैसा कि ७६वीं गाथामें कहा गया था तदनुसार यहाँ भी जान लेना । वहाँ ‘पुद्गलकर्मको जाननेवाला ज्ञानी’ कहा था और यहाँ उसके बदलेमें ‘पुद्गलकर्मके फलको जाननेवाला ज्ञानी’ ऐसा कहा है — इतना विशेष है ।।७८।।
अब प्रश्न करता है कि जीवके परिणामको, अपने परिणामको और अपने परिणामके फलको नहीं जाननेवाले ऐसे पुद्गलद्रव्यको जीवके साथ कर्ताकर्मभाव (कर्ताकर्मपना) है या नहीं ? इसका उत्तर कहते हैं : —
परद्रव्यपर्यायों न प्रणमे, नहिं ग्रहे, नहिं ऊपजे ।।७९।।
गाथार्थ : — [तथा ] इसप्रकार [पुद्गलद्रव्यम् अपि ] पुद्गलद्रव्य भी [परद्रव्यपर्याये ] परद्रव्यके पर्यायरूप [न अपि परिणमति ] परिणमित नहीं होता, [न गृह्णाति ] उसे ग्रहण नहीं करता और [न उत्पद्यते ] उस – रूप उत्पन्न नहीं होता; क्योंकि वह [स्वकैः भावैः ] अपने ही भावोंसे ( – भावरूपसे) [परिणमति ] परिणमन करता है ।
टीका : — जैसे मिट्टी स्वयं घड़ेमें अन्तर्व्यापक होकर, आदि-मध्य-अन्तमें व्याप्त होकर, घड़ेको ग्रहण करती है, घडे़रूपमें परिणमित होती है और घड़ेरूप उत्पन्न होती है उसीप्रकार जीवके परिणामको, अपने परिणामको और अपने परिणामके फलको न जानता हुआ ऐसा पुद्गलद्रव्य स्वयं परद्रव्यके परिणाममें अन्तर्व्यापक होकर, आदि-मध्य-अन्तमें व्याप्त होकर, उसे ग्रहण नहीं
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भूत्वादिमध्यान्तेषु व्याप्य तमेव गृह्णाति तथैव परिणमति तथैवोत्पद्यते च; ततः प्राप्यं विकार्यं निर्वर्त्यं च व्याप्यलक्षणं परद्रव्यपरिणामं कर्माकुर्वाणस्य जीवपरिणामं स्वपरिणामं स्वपरिणामफलं चाजानतः पुद्गलद्रव्यस्य जीवेन सह न कर्तृकर्मभावः ।
व्याप्तृव्याप्यत्वमन्तः कलयितुमसहौ नित्यमत्यन्तभेदात् ।
विज्ञानार्चिश्चकास्ति क्रकचवददयं भेदमुत्पाद्य सद्यः ।।५०।।
निर्वर्त्य ऐसा जो व्याप्यलक्षणवाला अपने स्वभावरूप कर्म (कर्ताका कार्य), उसमें (वह
पुद्गलद्रव्य) स्वयं अन्तर्व्यापक होकर, आदि-मध्य-अन्तमें व्याप्त होकर, उसीको ग्रहण करता है,
उसीरूप परिणमित होता है और उसी-रूप उत्पन्न होता है; इसलिये जीवके परिणामको, अपने
परिणामको और अपने परिणामके फलको न जानता हुआ ऐसा पुद्गलद्रव्य प्राप्य, विकार्य और
निर्वर्त्य ऐसा जो व्याप्यलक्षणवाला परद्रव्यपरिणामस्वरूप कर्म है, उसे नहीं करता होनेसे, उस
पुद्गलद्रव्यको जीवके साथ कर्ताकर्मभाव नहीं है
भावार्थ : — कोई ऐसा समझे कि पुद्गल जो कि जड़ है और किसीको नहीं जानता उसको जीवके साथ कर्ताकर्मपना होगा । परन्तु ऐसा भी नहीं है । पुद्गलद्रव्य जीवको उत्पन्न नहीं कर सकता, परिणमित नहीं कर सकता तथा ग्रहण नहीं कर सकता, इसलिये उसको जीवके साथ कर्ताकर्मभाव नहीं है । परमार्थसे किसी भी द्रव्यको अन्य द्रव्यके साथ कर्ताकर्मभाव नहीं है ।।७९।।
श्लोकार्थ : — [ज्ञानी ] ज्ञानी तो [इमां स्वपरपरिणति ] अपनी और परकी परिणतिको [जानन् अपि ] जानता हुआ प्रवर्तता है [च ] और [पुद्गलः अपि अजानन् ] पुद्गलद्रव्य अपनी तथा परकी परिणतिको न जानता हुआ प्रवर्तता है; [नित्यम् अत्यन्त-भेदात् ] इसप्रकार उनमें सदा अत्यन्त भेद होनेसे (दोनों भिन्न द्रव्य होनेसे), [अन्तः ] वे दोनों परस्पर अन्तरङ्गमें [व्याप्तृव्याप्यत्वम् ] व्याप्यव्यापकभावको [कलयितुम् असहौ ] प्राप्त होनेमें असमर्थ हैं । [अनयोः कर्तृकर्मभ्रममतिः ] जीव-पुद्गलको कर्ताकर्मभाव है ऐसी भ्रमबुद्धि [अज्ञानात् ] अज्ञानके कारण [तावत् भाति ] वहाँ तक भासित होती है कि [यावत् ] जहाँ तक [विज्ञानार्चिः ] (भेदज्ञान करनेवाली) विज्ञानज्योति [क्रकचवत् अदयं ] करवत्की भाँति निर्दयतासे (उग्रतासे) [सद्यः भेदम् उत्पाद्य ] जीव-पुद्गलका तत्काल भेद उत्पन्न करके [न चकास्ति ] प्रकाशित नहीं होती ।
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भावार्थ : — भेदज्ञान होनेके बाद, जीव और पुद्गलको कर्ताकर्मभाव है ऐसी बुद्धि नहीं रहती; क्योंकि जब तक भेदज्ञान नहीं होता तब तक अज्ञानसे कर्ताकर्मभावकी बुद्धि होती है ।
यद्यपि जीवके परिणामको और पुद्गलके परिणामको अन्योन्य (परस्पर) निमित्तमात्रता है तथापि उन (दोनों)को कर्ताकर्मपना नहीं है ऐसा अब कहते हैं : —
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यतो जीवपरिणामं निमित्तीकृत्य पुद्गलाः कर्मत्वेन परिणमन्ति, पुद्गलकर्म निमित्तीकृत्य जीवोऽपि परिणमतीति जीवपुद्गलपरिणामयोरितरेतरहेतुत्वोपन्यासेऽपि जीवपुद्गलयोः परस्परं व्याप्यव्यापकभावाभावाज्जीवस्य पुद्गलपरिणामानां पुद्गलकर्मणोऽपि जीवपरिणामानां कर्तृ- कर्मत्वासिद्धौ निमित्तनैमित्तिकभावमात्रस्याप्रतिषिद्धत्वादितरेतरनिमित्तमात्रीभवनेनैव द्वयोरपि परिणामः; ततः कारणान्मृत्तिकया कलशस्येव स्वेन भावेन स्वस्य भावस्य करणाज्जीवः स्वभावस्य कर्ता कदाचित्स्यात्, मृत्तिकया वसनस्येव स्वेन भावेन परभावस्य कर्तुमशक्यत्वात्पुद्गलभावानां तु कर्ता न कदाचिदपि स्यादिति निश्चयः
[कर्मत्वं ] कर्मरूपमें [परिणमन्ति ] परिणमित होते हैं, [तथा एव ] तथा [जीवः अपि ] जीव भी [पुद्गलकर्मनिमित्तं ] पुद्गलकर्मके निमित्तसे [परिणमति ] परिणमन करता है । [जीवः ] जीव [कर्मगुणान् ] कर्मके गुणोंको [न अपि करोति ] नहीं करता [तथा एव ] उसी तरह [कर्म ] कर्म [जीवगुणान् ] जीवके गुणोंको नहीं करता; [तु ] परन्तु [अन्योऽन्यनिमित्तेन ] परस्पर निमित्तसे [द्वयोः अपि ] दोनोंके [परिणामं ] परिणाम [जानीहि ] जानो । [एतेन कारणेन तु ] इस कारणसे [आत्मा ] आत्मा [स्वकेन ] अपने ही [भावेन ] भावसे [कर्ता ] कर्ता (कहा जाता) है, [तु ] परन्तु [पुद्गलकर्मकृतानां ] पुद्गलकर्मसे किये गये [सर्वभावानाम् ] समस्त भावोंका [कर्ता न ] कर्ता नहीं है ।
टीका : — ‘जीवपरिणामको निमित्त करके पुद्गल, कर्मरूप परिणमित होते हैं और पुद्गलकर्मको निमित्त करके जीव भी परिणमित होता है’ — इसप्रकार जीवके परिणामको और पुद्गलके परिणामको अन्योन्य हेतुत्वका उल्लेख होने पर भी जीव और पुद्गलमें परस्पर व्याप्यव्यापकभावका अभाव होनेसे जीवको पुद्गलपरिणामोंके साथ और पुद्गलकर्मको जीवपरिणामोंके साथ कर्ताकर्मपनेकी असिद्धि होनेसे, मात्र निमित्त-नैमित्तिकभावका निषेध न होनेसे, अन्योन्य निमित्तमात्र होनेसे ही दोनोंके परिणाम (होते) हैं; इसलिये, जैसे मिट्टी द्वारा घड़ा किया जाता है उसीप्रकार अपने भावसे अपना भाव किया जाता है इसलिये, जीव अपने भावका कर्ता कदाचित् है, परन्तु जैसे मिट्टीसे कपड़ा नहीं किया जा सकता उसीप्रकार अपने भावसे परभावका किया जाना अशक्य है, इसलिए (जीव) पुद्गलभावोंका कर्ता तो कदापि नहीं है यह निश्चय है
भावार्थ : — जीवके परिणामको और पुद्गलके परिणामको परस्पर मात्र निमित्त- नैमित्तिकपना है तो भी परस्पर कर्ताकर्मभाव नहीं है । परके निमित्तसे जो अपने भाव हुए उनका कर्ता तो जीवको अज्ञानदशामें कदाचित् कह भी सकते हैं, परन्तु जीव परभावका कर्ता तो कदापि नहीं है ।।८०* से ८२।।
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यथोत्तरंगनिस्तरंगावस्थयोः समीरसंचरणासंचरणनिमित्तयोरपि समीरपारावारयोर्व्याप्य- व्यापकभावाभावात्कर्तृकर्मत्वासिद्धौ पारावार एव स्वयमन्तर्व्यापको भूत्वादिमध्यान्तेषूत्तरंग- निस्तरंगावस्थे व्याप्योत्तरंग निस्तरंग त्वात्मानं कुर्वन्नात्मानमेकमेव कुर्वन् प्रतिभाति, न पुनरन्यत्, यथा स एव च भाव्यभावकभावाभावात्परभावस्य परेणानुभवितुमशक्यत्वादुत्तरंग निस्तरंग त्वात्मानमनुभवन्नात्मानमेकमेवानुभवन् प्रतिभाति, न पुनरन्यत्, तथा ससंसारनिःसंसारावस्थयोः
इसलिये यह सिद्ध हुआ कि जीवको अपने ही परिणामोंके साथ कर्ताकर्मभाव और भोक्ताभोग्यभाव (भोक्ताभोग्यपना) है ऐसा अब कहते हैं : —
आत्मा करे निजको हि यह मन्तव्य निश्चय नयहिका, अरु भोगता निजको हि आत्मा, शिष्य यों तू जानना ।।८३।।
गाथार्थ : — [निश्चयनयस्य ] निश्चयनयका [एवम् ] ऐसा मत है कि [आत्मा ] आत्मा [आत्मानम् एव हि ] अपनेको ही [करोति ] करता है [तु पुनः ] और फि र [आत्मा ] आत्मा [तं च एव आत्मानम् ] अपनेको ही [वेदयते ] भोगता है ऐसा हे शिष्य ! तू [जानीहि ] जान ।
टीका : — जैसे उत्तरङ्ग१ और निस्तरङ्ग२ अवस्थाओंको हवाका चलना और न चलना निमित्त होने पर भी हवा और समुद्रको व्याप्यव्यापकभावका अभाव होनेसे कर्ताकर्मपनेकी असिद्धि है इसलिये, समुद्र ही स्वयं अन्तर्व्यापक होकर उत्तरङ्ग अथवा निस्तरङ्ग अवस्थामें आदि-मध्य-अन्तमें व्याप्त होकर उत्तरङ्ग अथवा निस्तरङ्ग ऐसा अपनेको करता हुआ स्वयं एकको ही करता हुआ प्रतिभासित होता है, परन्तु अन्यको करता हुआ प्रतिभासित नहीं होता; और फि र जैसे वही समुद्र, भाव्यभावकभावके अभावके कारण परभावका परके द्वारा अनुभव अशक्य १. उत्तरङ्ग = जिसमें तरंगें उठती हैं ऐसा; तरङ्गवाला । २. निस्तरङ्ग = जिसमें तरंगें विलय हो गई हैं ऐसा; बिना तरङ्गोंका ।
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पुद्गलकर्मविपाकसम्भवासम्भवनिमित्तयोरपि पुद्गलकर्मजीवयोर्व्याप्यव्यापकभावाभावात्कर्तृकर्मत्वा- सिद्धौ जीव एव स्वयमन्तर्व्यापको भूत्वादिमध्यान्तेषु ससंसारनिःसंसारावस्थे व्याप्य ससंसारं निःसंसारं वात्मानं कुर्वन्नात्मानमेकमेव कुर्वन् प्रतिभातु, मा पुनरन्यत्, तथायमेव च भाव्यभावक- भावाभावात् परभावस्य परेणानुभवितुमशक्यत्वात्ससंसारं निःसंसारं वात्मानमनुभवन्नात्मानमेक- मेवानुभवन् प्रतिभातु, मा पुनरन्यत्
करता हुआ प्रतिभासित होता है, परन्तु अन्यको अनुभव करता हुआ प्रतिभासित नहीं होता;
इसीप्रकार ससंसार और निःसंसार अवस्थाओंको पुद्गलकर्मके विपाकका १सम्भव और असम्भव
असिद्धि है इसलिये, जीव ही स्वयं अन्तर्व्यापक होकर ससंसार अथवा निःसंसार अवस्थामें
आदि-मध्य-अन्तमें व्याप्त होकर ससंसार अथवा निःसंसार ऐसा अपनेको करता हुआ, अपनेको
एकको ही करता हुआ प्रतिभासित हो, परन्तु अन्यको करता हुआ प्रतिभासित न हो; और फि र
उसीप्रकार यही जीव, भाव्यभावकभावके अभावके कारण परभावका परके द्वारा अनुभव अशक्य
है इसलिये, ससंसार अथवा निःसंसाररूप अपनेको अनुभव करता हुआ, अपनेको एकको ही
अनुभव करता हुआ प्रतिभासित हो, परन्तु अन्यको अनुभव करता हुआ प्रतिभासित न हो
भावार्थ : — आत्माको परद्रव्य – पुद्गलकर्म – के निमित्तसे ससंसार-निःसंसार अवस्था है । आत्मा उस अवस्थारूपसे स्वयं ही परिणमित होता है । इसलिये वह अपना ही कर्ता-भोक्ता है; पुद्गलकर्मका कर्ता-भोक्ता तो कदापि नहीं है ।।८३।।
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यथान्तर्व्याप्यव्यापकभावेन मृत्तिकया कलशे क्रियमाणे भाव्यभावकभावेन मृत्तिकयैवा- नुभूयमाने च बहिर्व्याप्यव्यापकभावेन कलशसम्भवानुकूलं व्यापारं कुर्वाणः कलशकृततोयोपयोगजां तृप्तिं भाव्यभावकभावेनानुभवंश्च कुलालः कलशं करोत्यनुभवति चेति लोकानामनादिरूढोऽस्ति तावद् व्यवहारः, तथान्तर्व्याप्यव्यापकभावेन पुद्गलद्रव्येण कर्मणि क्रियमाणे भाव्यभावकभावेन पुद्गलद्रव्येणैवानुभूयमाने च बहिर्व्याप्यव्यापकभावेनाज्ञानात्पुद्गलकर्मसम्भवानुकूलं परिणामं कुर्वाणः पुद्गलकर्मविपाकसम्पादितविषयसन्निधिप्रधावितां सुखदुःखपरिणतिं भाव्यभावकभावेना- नुभवंश्च जीवः पुद्गलकर्म करोत्यनुभवति चेत्यज्ञानिनामासंसारप्रसिद्धोऽस्ति तावद् व्यवहारः
गाथार्थ : — [व्यवहारस्य तु ] व्यवहारनयका यह मत है कि [आत्मा ] आत्मा [नैकविधम् ] अनेक प्रकारके [पुद्गलकर्म ] पुद्गलकर्मको [करोति ] करता है [पुनः च ] और [तद् एव ] उसी [अनेकविधम् ] अनेक प्रकारके [पुद्गलकर्म ] पुद्गलकर्मको [वेदयते ] भोगता है ।
टीका : — जैसे, भीतर व्याप्यव्यापकभावसे मिट्टी घड़ेको करती है और भाव्यभावकभावसे मिट्टी ही घड़ेको भोगती है तथापि, बाह्यमें व्याप्यव्यापकभावसे घड़ेकी उत्पत्तिमें अनुकूल ऐसे (इच्छारूप और हाथ आदिकी क्रियारूप अपने) व्यापारको करता हुआ तथा घड़ेके द्वारा किये गये पानीके उपयोगसे उत्पन्न तृप्तिको (अपने तृप्तिभावको) भाव्यभावकभावके द्वारा अनुभव करता हुआ — भोगता हुआ कुम्हार घड़ेको करता है और भोगता है ऐसा लोगोंका अनादिसे रूढ़ व्यवहार है; उसीप्रकार भीतर व्याप्यव्यापकभावसे पुद्गलद्रव्य कर्मको करता है और भाव्यभावकभावसे पुद्गलद्रव्य ही कर्मको भोगता है तथापि, बाह्यमें व्याप्यव्यापकभावसे अज्ञानके कारण पुद्गलकर्मके होनेमें अनुकूल (अपने रागादिक) परिणामको करता हुआ और पुद्गलकर्मके विपाकसे उत्पन्न हुई विषयोंकी निकटतासे उत्पन्न (अपनी) सुखदुःखरूप परिणतिको भाव्यभावकभावके द्वारा अनुभव करता हुआ — भोगता हुआ जीव पुद्गलकर्मको करता है और भोगता है ऐसा अज्ञानियोंका अनादि संसारसे प्रसिद्ध व्यवहार है ।
भावार्थ : — पुद्गलकर्मको परमार्थसे पुद्गलद्रव्य ही करता है; जीव तो पुद्गलकर्मकी उत्पत्तिके अनुकूल अपने रागादिक परिणामोंको करता है । और पुद्गलद्रव्य ही कर्मको भोगता
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इह खलु क्रिया हि तावदखिलापि परिणामलक्षणतया न नाम परिणामतोऽस्ति भिन्ना; परिणामोऽपि परिणामपरिणामिनोरभिन्नवस्तुत्वात्परिणामिनो न भिन्नः । ततो या काचन है; जीव तो पुद्गलकर्मके निमित्तसे होनेवाले अपने रागादिक परिणामोंको भोगता है । परन्तु जीव और पुद्गलका ऐसा निमित्त-नैमित्तिकभाव देखकर अज्ञानीको ऐसा भ्रम होता है कि जीव पुद्गलकर्मको करता है और भोगता है । अनादि अज्ञानके कारण ऐसा अनादिकालसे प्रसिद्ध व्यवहार है ।
परमार्थसे जीव-पुद्गलकी प्रवृत्ति भिन्न होने पर भी, जब तक भेदज्ञान न हो तब तक बाहरसे उनकी प्रवृत्ति एकसी दिखाई देती है । अज्ञानीको जीव-पुद्गलका भेदज्ञान नहीं होता, इसलिये वह ऊ परी दृष्टिसे जैसा दिखाई देता है वैसा मान लेता है; इसलिये वह यह मानता है कि जीव पुद्गलकर्मको करता है और भोगता है । श्री गुरु भेदज्ञान कराकर, परमार्थ जीवका स्वरूप बताकर, अज्ञानीके इस प्रतिभासको व्यवहार कहते हैं ।।८४।।
गाथार्थ : — [यदि ] यदि [आत्मा ] आत्मा [इदं ] इस [पुद्गलकर्म ] पुद्गलकर्मको [करोति ] करे [च ] और [तद् एव ] उसीको [वेदयते ] भोगे तो [सः ] वह आत्मा [द्विक्रियाव्यतिरिक्त : ] दो क्रियाओंसे अभिन्न [प्रसजति ] ठहरे ऐसा प्रसंग आता है — [जिनावमतं ] जो कि जिनदेवको सम्मत नहीं है ।
टीका : — पहले तो, जगतमें जो क्रिया है सो सब ही परिणामस्वरूप होनेसे वास्तवमें परिणाममे भिन्न नहीं है ( – परिणाम ही है); परिणाम भी परिणामीसे (द्रव्यसे) भिन्न नहीं है, क्योंकि
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क्रिया किल सकलापि सा क्रियावतो न भिन्नेति क्रियाकर्त्रोरव्यतिरिक्ततायां वस्तुस्थित्या प्रतपत्यां, यथा व्याप्यव्यापकभावेन स्वपरिणामं करोति भाव्यभावकभावेन तमेवानुभवति च जीवस्तथा व्याप्यव्यापकभावेन पुद्गलकर्मापि यदि कुर्यात् भाव्यभावकभावेन तदेवानुभवेच्च ततोऽयं स्वपरसमवेतक्रियाद्वयाव्यतिरिक्ततायां प्रसजन्त्यां स्वपरयोः परस्परविभागप्रत्यस्तमनादनेका- त्मकमेकमात्मानमनुभवन्मिथ्यादृष्टितया सर्वज्ञावमतः स्यात् ।
परिणाम और परिणामी अभिन्न वस्तु है ( – भिन्न भिन्न दो वस्तु नहीं है) । इसलिये (यह सिद्ध हुआ कि) जो कुछ क्रिया है वह सब ही क्रियावानसे (द्रव्यसे) भिन्न नहीं है । इसप्रकार, वस्तुस्थितिसे ही (वस्तुकी ऐसी ही मर्यादा होनेसे) क्रिया और कर्ताकी अभिन्नता (सदा ही) प्रगट होनेसे, जैसे जीव व्याप्यव्यापकभावसे अपने परिणामको करता है और भाव्यभावकभावसे उसीका अनुभव करता है — भोगता है उसीप्रकार यदि व्याप्यव्यापकभावसे पुद्गलकर्मको भी करे और भाव्यभावकभावसे उसीको भोगे तो वह जीव, अपनी और परकी एकत्रित हुई दो क्रियाओंसे अभिन्नताका प्रसंग आने पर स्व-परका परस्पर विभाग अस्त (नाश) हो जानेसे, अनेकद्रव्यस्वरूप एक आत्माको अनुभव करता हुआ मिथ्यादृष्टिताके कारण सर्वज्ञके मतसे बाहर है ।
भावार्थ : — दो द्रव्योंकी क्रिया भिन्न ही है । जड़की क्रियाको चेतन नहीं करता और चेतनकी क्रियाको जड़ नहीं करता । जो पुरुष एक द्रव्यको दो क्रियायें करता हुआ मानता है वह मिथ्यादृष्टि है, क्योंकि दो द्रव्यकी क्रियाओंको एक द्रव्य करता है ऐसा मानना जिनेन्द्र भगवानका मत नहीं है ।।८५।।
अब पुनः प्रश्न करता है कि दो क्रियाओंका अनुभव करनेवाला मिथ्यादृष्टि कैसा है ? उसका समाधान करते हैं : —
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यतः किलात्मपरिणामं पुद्गलपरिणामं च कुर्वन्तमात्मानं मन्यन्ते द्विक्रियावादिनस्ततस्ते मिथ्यादृष्टय एवेति सिद्धान्तः । मा चैकद्रव्येण द्रव्यद्वयपरिणामः क्रियमाणः प्रतिभातु । यथा किल कुलालः कलशसंभवानुकूलमात्मव्यापारपरिणाममात्मनोऽव्यतिरिक्तमात्मनोऽव्यतिरिक्तया परिणति- मात्रया क्रियया क्रियमाणं कुर्वाणः प्रतिभाति, न पुनः कलशकरणाहंकारनिर्भरोऽपि स्वव्यापारानुरूपं मृत्तिकायाः कलशपरिणामं मृत्तिकाया अव्यतिरिक्तं मृत्तिकायाः अव्यतिरिक्तया परिणतिमात्रया क्रियया क्रियमाणं कुर्वाणः प्रतिभाति, तथात्मापि पुद्गलकर्मपरिणामानुकूलमज्ञानादात्म- परिणाममात्मनोऽव्यतिरिक्तमात्मनोऽव्यतिरिक्तया परिणतिमात्रया क्रियया क्रियमाणं कुर्वाणः प्रतिभातु, मा पुनः पुद्गलपरिणामकरणाहंकारनिर्भरोऽपि स्वपरिणामानुरूपं पुद्गलस्य परिणामं पुद्गलादव्यतिरिक्तं पुद्गलादव्यतिरिक्तया परिणतिमात्रया क्रियया क्रियमाणं कुर्वाणः प्रतिभातु
गाथार्थ : — [यस्मात् तु ] क्योंकि [आत्मभावं ] आत्माके भावको [च ] और [पुद्गलभावं ] पुद्गलके भावको — [द्वौ अपि ] दोनोंको [कुर्वन्ति ] आत्मा करता है ऐसा वे मानते हैं, [तेन तु ] इसलिये [द्विक्रियावादिनः ] एक द्रव्यके दो क्रियाओंका होना माननेवाले [मिथ्यादृष्टयः ] मिथ्यादृष्टि [भवन्ति ] हैं ।
टीका : — निश्चयसे द्विक्रियावादी (अर्थात् एक द्रव्यको दो क्रिया माननेवाले) यह मानते हैं कि आत्माके परिणामको और पुद्गलके परिणामको स्वयं (आत्मा) करता है, इसलिये वे मिथ्यादृष्टि ही हैं ऐसा सिद्धान्त है । एक द्रव्यके द्वारा दो द्रव्योंके परिणाम किये गये प्रतिभासित न हों । जैसे कुम्हार घड़ेकी उत्पत्तिमें अनुकूल अपने (इच्छारूप और हस्तादिकी क्रियारूप) व्यापारपरिणामको — जो कि अपनेसे अभिन्न है और अपनेसे अभिन्न परिणतिमात्र क्रियासे किया जाता है उसे — करता हुआ प्रतिभासित होता है, परन्तु घड़ा बनानेके अहंकारसे भरा हुआ होने पर भी (वह कुम्हार) अपने व्यापारके अनुरूप मिट्टीके घट-परिणामको — जो कि मिट्टीसे अभिन्न है और मिट्टीसे अभिन्न परिणतिमात्र क्रियासे किया जाता है उसे — करता हुआ प्रतिभासित नहीं होता; इसीप्रकार आत्मा भी अज्ञानके कारण पुद्गलकर्मरूप परिणामके अनुकूल अपने परिणामको — जो कि अपनेसे अभिन्न है और अपनेसे अभिन्न परिणतिमात्र क्रियासे किया जाता है उसे — करता हुआ प्रतिभासित हो, परन्तु पुद्गलके परिणामको करनेके अहंकारसे भरा हुआ होने पर भी (वह आत्मा) अपने परिणामके अनुरूप पुद्गलके परिणामको — जो कि पुद्गलसे अभिन्न है और पुद्गलसे अभिन्न परिणतिमात्र क्रियासे किया जाता है उसे — करता हुआ प्रतिभासित न हो ।
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करता हुआ क दापि प्रतिभासित न हो । आत्माकी और पुद्गलकी — दोनोंकी क्रिया एक आत्मा ही करता है ऐसा माननेवाले मिथ्यादृष्टि हैं । जड़-चेतनकी एक क्रिया हो तो सर्व द्रव्योंके पलट जानेसे सबका लोप हो जायेगा — यह महादोष उत्पन्न होगा ।।८६।।
श्लोकार्थ : — [यः परिणमति स कर्ता ] जो परिणमित होता है सो कर्ता है, [यः परिणामः भवेत् तत् कर्म ] (परिणमित होनेवालेका) जो परिणाम है सो कर्म है [तु ] और [या परिणतिः सा क्रिया ] जो परिणति है सो क्रिया है; [त्रयम् अपि ] य्ाह तीनों ही, [वस्तुतया भिन्नं न ] वस्तुरूपसे भिन्न नहीं हैं ।
भावार्थ : — द्रव्यदृष्टिसे परिणाम और परिणामीका अभेद है और पर्यायदृष्टिसे भेद है । भेददृष्टिसे तो कर्ता, कर्म और क्रिया यह तीन कहे गये हैं, किन्तु यहाँ अभेददृष्टिसे परमार्थ कहा गया है कि कर्ता, कर्म और क्रिया — तीनों ही एक द्रव्यकी अभिन्न अवस्थायें हैं, प्रदेशभेदरूप भिन्न वस्तुएँ नहीं हैं ।५१।
श्लोकार्थ : — [एकः परिणमति सदा ] वस्तु एक ही सदा परिणमित होती है, [एकस्य सदा परिणामः जायते ] एकका ही सदा परिणाम होता है (अर्थात् एक अवस्थासे अन्य अवस्था एककी ही होती है) और [एकस्य परिणतिः स्यात् ] एककी ही परिणति – क्रिया होती है; [यतः ] क्योंकि [अनेकम् अपि एकम् एव ] अनेकरूप होने पर भी एक ही वस्तु है, भेद नहीं है ।
भावार्थ : — एक वस्तुकी अनेक पर्यायें होती हैं; उन्हें परिणाम भी कहा जाता है और अवस्था भी कहा जाता है । वे संज्ञा, संख्या, लक्षण, प्रयोजन आदिसे भिन्न-भिन्न प्रतिभासित होती हैं तथापि एक वस्तु ही है, भिन्न नहीं है; ऐसा ही भेदाभेदस्वरूप वस्तुका स्वभाव है ।५२।
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र्दुर्वारं ननु मोहिनामिह महाहंकाररूपं तमः ।
तत्किं ज्ञानघनस्य बन्धनमहो भूयो भवेदात्मनः ।।५५।।
श्लोकार्थ : — [न उभौ परिणमतः खलु ] दो द्रव्य एक होकर परिणमित नहीं होते, [उभयोः परिणामः न प्रजायेत ] दो द्रव्योंका एक परिणाम नहीं होता और [उभयोः परिणति न स्यात् ] दो द्रव्योंकी एक परिणति – क्रिया नहीं होती; [यत् ] क्योंकि जो [अनेकम् सदा अनेकम् एव ] अनेक द्रव्य हैं सो सदा अनेक ही हैं, वे बदलकर एक नहीं हो जाते ।
भावार्थ : — जो दो वस्तुएँ हैं वे सर्वथा भिन्न ही हैं, प्रदेशभेदवाली ही हैं । दोनों एक होकर परिणमित नहीं होती, एक परिणामको उत्पन्न नहीं करती और उनकी एक क्रिया नहीं होती — ऐसा नियम है । यदि दो द्रव्य एक होकर परिणमित हों तो सर्व द्रव्योंका लोप हो जाये ।५३।
श्लोकार्थ : — [एकस्य हि द्वौ कर्तारौ न स्तः ] एक द्रव्यके दो कर्ता नहीं होते, [च ] और [एकस्य द्वे कर्मणी न ] एक द्रव्यके दो कर्म नहीं होते [च ] तथा [एकस्य द्वे क्रिये न ] एक द्रव्यकी दो क्रियाएँ नहीं होती; [यतः ] क्योंकि [एकम् अनेकं न स्यात् ] एक द्रव्य अनेक द्रव्यरूप नहीं होता ।
भावार्थ : — इसप्रकार उपरोक्त श्लोकोंमें निश्चयनयसे अथवा शुद्धद्रव्यार्थिकनयसे वस्तुस्थितिका नियम कहा है ।५४।
आत्माको अनादिसे परद्रव्यके कर्ताकर्मपनेका अज्ञान है यदि वह परमार्थनयके ग्रहणसे एक बार भी विलयको प्राप्त हो जाये तो फि र न आये, अब ऐसा कहते हैं : —
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श्लोकार्थ : — [इह ] इस जगत्में [मोहिनाम् ] मोही (अज्ञानी) जीवोंका ‘[परं अहम् कुर्वे ] परद्रव्यको मैं करता हूँ’ [इति महाहंकाररूपं तमः ] ऐसा परद्रव्यके कर्तृत्वका महा अहंकाररूप अज्ञानान्धकार — [ननु उच्चकैः दुर्वारं ] जो अत्यन्त दुर्निवार है वह — [आसंसारतः एव धावति ] अनादि संसारसे चला आ रहा है । आचार्य कहते हैं कि — [अहो ] अहो ! [भूतार्थपरिग्रहेण ] परमार्थनयका अर्थात् शुद्धद्रव्यार्थिक अभेदनयका ग्रहण करनेसे [यदि ] यदि [तत् एकवारं विलयं व्रजेत् ] वह एक बार भी नाशको प्राप्त हो [तत् ] तो [ज्ञानघनस्य आत्मनः ] ज्ञानघन आत्माको [भूयः ] पुनः [बन्धनम् किं भवेत् ] बन्धन कैसे हो सकता है ? (जीव ज्ञानघन है, इसलिये यथार्थ ज्ञान होनेके बाद ज्ञान कहाँ जा सकता है ? नहीं जाता । और जब ज्ञान नहीं जाता तब फि र अज्ञानसे बन्ध कैसे हो सकता है ? कभी नहीं होता ।)
भावार्थ : — यहाँ तात्पर्य यह है कि — अज्ञान तो अनादिसे ही है, परन्तु परमार्थनयके ग्रहणसे, दर्शनमोहका नाश होकर, एक बार यथार्थ ज्ञान होकर क्षायिक सम्यक्त्व उत्पन्न हो तो पुनः मिथ्यात्व न आये । मिथ्यात्वके न आनेसे मिथ्यात्वका बन्ध भी न हो । और मिथ्यात्वके जानेके बाद संसारका बन्धन कैसे रह सकता है ? नहीं रह सकता अर्थात् मोक्ष ही होता है ऐसा जानना चाहिये ।५५।
श्लोकार्थ : — [आत्मा ] आत्मा तो [सदा ] सदा [आत्मभावान् ] अपने भावोंको [करोति ] करता है और [परः ] परद्रव्य [परभावान् ] परके भावोंको करता है; [हि ] क्योंकि जो [आत्मनः भावाः ] अपने भाव हैं सो तो [आत्मा एव ] आप ही है और जो [परस्य ते ] परके भाव हैं सो [परः एव ] पर ही है (यह नियम है) ।५३।
(परद्रव्यके कर्ता-कर्मपनेकी मान्यताको अज्ञान कहकर यह कहा है कि जो ऐसा मानता है सो मिथ्यादृष्टि है; यहाँ आशंका उत्पन्न होती है कि — यह मिथ्यात्वादि भाव क्या वस्तु हैं ? यदि उन्हें जीवका परिणाम कहा जाये तो पहले रागादि भावोंको पुद्गलके परिणाम कहे थे उस कथनके साथ विरोध आता है; और यदि उन्हें पुद्गलके परिणाम कहे जाये तो जिनके साथ जीवको कोई प्रयोजन नहीं है उनका फल जीव क्यों प्राप्त करे ? इस आशंकाको दूर करनेके लिये अब गाथा कहते हैं : — )
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मिथ्यादर्शनमज्ञानमविरतिरित्यादयो हि भावाः ते तु प्रत्येकं मयूरमुकुरन्दवज्जीवाजीवाभ्यां भाव्यमानत्वाज्जीवाजीवौ । तथा हि — यथा नीलहरितपीतादयो भावाः स्वद्रव्यस्वभावत्वेन मयूरेण भाव्यमाना मयूर एव, यथा च नीलहरितपीतादयो भावाः स्वच्छताविकारमात्रेण मुकुरन्देन भाव्यमाना मुकुरन्द एव, तथा मिथ्यादर्शनमज्ञानमविरतिरित्यादयो भावाः स्वद्रव्यस्वभावत्वेनाजीवेन भाव्यमाना अजीव एव, तथैव च मिथ्यादर्शनमज्ञानमविरतिरित्यादयो भावाश्चैतन्यविकारमात्रेण
गाथार्थ : — [पुनः ] और, [मिथ्यात्वं ] जो मिथ्यात्व कहा है वह [द्विविधं ] दो प्रकारका है — [जीवः अजीवः ] एक जीवमिथ्यात्व और एक अजीवमिथ्यात्व; [तथा एव ] और इसीप्रकार [अज्ञानम् ] अज्ञान, [अविरतिः ] अविरति, [योगः ] योग, [मोहः ] मोह तथा [क्रोधाद्याः ] क्रोधादि कषाय — [इमे भावाः ] यह (सर्व) भाव जीव और अजीवके भेदसे दो- दो प्रकारके हैं ।
टीका : — मिथ्यादर्शन, अज्ञान, अविरति इत्यादि जो भाव हैं वे प्रत्येक, मयूर और दर्पणकी भाँति, अजीव और जीवके द्वारा भाये जाते हैं, इसलिये वे अजीव भी हैं और जीव भी हैं । इसे दृष्टान्तसे समझाते हैं : — जैसे गहरा नीला, हरा, पीला आदि (वर्णरूप) भाव जो कि मोरके अपने स्वभावसे मोरके द्वारा भाये जाते हैं ( – बनते हैं, होते हैं) वे मोर ही हैं और (दर्पणमें प्रतिबिम्बरूपसे दिखाई देनेवाला) गहरा नीला, हरा, पीला इत्यादि भाव जो कि (दर्पणकी) स्वच्छताके विकारमात्रसे दर्पणके द्वारा भाये जाते हैं वे दर्पण ही हैं; इसीप्रकार मिथ्यादर्शन, अज्ञान, अविरति इत्यादि भाव जो कि अजीवके अपने द्रव्यस्वभावसे अजीवके द्वारा भाये जाते हैं वे अजीव ही हैं और मिथ्यादर्शन, अज्ञान, अविरति इत्यादि भाव जो कि चैतन्यके विकारमात्रसे जीवके द्वारा ★ गाथा ८६में द्विक्रियावादीको मिथ्यादृष्टि कहा था उसके साथ सम्बन्ध करनेके लिये यहाँ ‘पुनः’ शब्द है ।
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जीवेन भाव्यमाना जीव एव ।
भावार्थ : — पुद्गलके परमाणु पौद्गलिक मिथ्यात्वादि कर्मरूपसे परिणमित होते हैं । उस कर्मका विपाक (उदय) होने पर उसमें जो मिथ्यात्वादि स्वाद उत्पन्न होता है वह मिथ्यात्वादि अजीव है; और कर्मके निमित्तसे जीव विभावरूप परिणमित होता है वे विभाव परिणाम चेतनके विकार हैं, इसलिये वे जीव हैं ।
यहाँ यह समझना चाहिये कि — मिथ्यात्वादि कर्मकी प्रकृतियाँ पुद्गलद्रव्यके परमाणु हैं । जीव उपयोगस्वरूप है । उसके उपयोगकी ऐसी स्वच्छता है कि पौद्गलिक कर्मका उदय होने पर उसके उदयका जो स्वाद आये उसके आकार उपयोगरूप हो जाता है । अज्ञानीको अज्ञानके कारण उस स्वादका और उपयोगका भेदज्ञान नहीं है, इसलिये वह स्वादको ही अपना भाव समझता है । जब उनका भेदज्ञान होता है अर्थात् जीवभावको जीव जानता है और अजीवभावको अजीव जानता है तब मिथ्यात्वका अभाव होकर सम्यग्ज्ञान होता है ।।८७।।
अब प्रश्न करता है कि मिथ्यात्वादिको जीव और अजीव कहा है सो वे जीव मिथ्यात्वादि और अजीव मिथ्यात्वादि कौन हैं ? उसका उत्तर कहते हैं : —
गाथार्थ : — [मिथ्यात्वं ] जो मिथ्यात्व, [योगः ] योग, [अविरतिः ] अविरति और [अज्ञानम् ] अज्ञान [अजीवः ] अजीव है सो तो [पुद्गलकर्म ] पुद्गलकर्म है; [च ] और जो [अज्ञानम् ] अज्ञान, [अविरतिः ] अविरति और [मिथ्यात्वं ] मिथ्यात्व [जीवः ] जीव है [तु ] वह तो [उपयोगः ] उपयोग है ।
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यः खलु मिथ्यादर्शनमज्ञानमविरतिरित्यादिरजीवस्तदमूर्ताच्चैतन्यपरिणामादन्यत् मूर्तं पुद्गलकर्म; यस्तु मिथ्यादर्शनमज्ञानमविरतिरित्यादिर्जीवः स मूर्तात्पुद्गलकर्मणोऽन्यश्चैतन्यपरिणामस्य विकारः ।
उपयोगस्य हि स्वरसत एव समस्तवस्तुस्वभावभूतस्वरूपपरिणामसमर्थत्वे सत्यनादिवस्त्वन्तर- भूतमोहयुक्तत्वान्मिथ्यादर्शनमज्ञानमविरतिरिति त्रिविधः परिणामविकारः । स तु तस्य
टीका : — निश्चयसे जो मिथ्यादर्शन, अज्ञान, अविरति इत्यादि अजीव है सो तो, अमूर्तिक चैतन्यपरिणामसे अन्य मूर्तिक पुद्गलकर्म है; और जो मिथ्यादर्शन, अज्ञान, अविरति इत्यादि जीव है वह मूर्तिक पुद्गलकर्मसे अन्य चैतन्य परिणामका विकार है ।।८८।।
अब पुनः प्रश्न करता है कि — मिथ्यादर्शनादि चैतन्यपरिणामका विकार कहाँसे हुआ ? इसका उत्तर कहते हैं : —
— मिथ्यात्व अरु अज्ञान, अविरतभाव ये त्रय जानना ।।८९।।
गाथार्थ : — [मोहयुक्त स्य ] अनादिसे मोहयुक्त होनेसे [उपयोगस्य ] उपयोगके [अनादयः ] अनादिसे लेकर [त्रयः परिणामाः ] तीन परिणाम हैं; वे [मिथ्यात्वम् ] मिथ्यात्व, [अज्ञानम् ] अज्ञान [च अविरतिभावः ] और अविरतिभाव (ऐसे तीन) [ज्ञातव्यः ] जानना चाहिये ।
टीका : — यद्यपि निश्चयसे अपने निजरससे ही सर्व वस्तुओंकी अपने स्वभावभूत स्वरूप- परिणमनमें सामर्थ्य है, तथापि (आत्माको) अनादिसे अन्य-वस्तुभूत मोहके साथ संयुक्तपना होनेसे, आत्माके उपयोगका, मिथ्यादर्शन, अज्ञान और अविरतिके भेदसे तीन प्रकारका परिणामविकार है । उपयोगका वह परिणामविकार, स्फ टिककी स्वच्छताके परिणामविकारकी भाँति,
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स्फ टिकस्वच्छताया इव परतोऽपि प्रभवन् दृष्टः । यथा हि स्फ टिकस्वच्छतायाः स्वरूप- परिणामसमर्थत्वे सति कदाचिन्नीलहरितपीततमालकदलीकांचनपात्रोपाश्रययुक्तत्वान्नीलो हरितः पीत इति त्रिविधः परिणामविकारो दृष्टः, तथोपयोगस्यानादिमिथ्यादर्शनाज्ञानाविरतिस्वभाव- वस्त्वन्तरभूतमोहयुक्तत्वान्मिथ्यादर्शनमज्ञानमविरतिरिति त्रिविधः परिणामविकारो दृष्टव्यः ।
करनेमें) सामर्थ्य होने पर भी, कदाचित् (स्फ टिकको) काले, हरे और पीले ऐसे तमाल, केल
और सोनेके पात्ररूपी आधारका संयोग होनेसे, स्फ टिककी स्वच्छताका, काला, हरा और पीला
ऐसे तीन प्रकारका परिणामविकार दिखाई देता है, उसीप्रकार (आत्माको) अनादिसे मिथ्यादर्शन,
अज्ञान और अविरति जिसका स्वभाव है ऐसे अन्य-वस्तुभूत मोहका संयोग होनेसे, आत्माके
उपयोगका, मिथ्यादर्शन, अज्ञान और अविरति ऐसे तीन प्रकारका परिणामविकार समझना चाहिये
भावार्थ : — आत्माके उपयोगमें यह तीन प्रकारका परिणामविकार अनादि कर्मके निमित्तसे है । ऐसा नहीं है कि पहले यह शुद्ध ही था और अब इसमें नया परिणामविकार हो गया है । यदि ऐसा हो तो सिद्धोंको भी नया परिणामविकार होना चाहिये । किन्तु ऐसा तो नहीं होता । इसलिये यह समझना चाहिये कि वह अनादिसे है ।।८९।।
गाथार्थ : — [एतेषु च ] अनादिसे ये तीन प्रकारके परिणामविकार होनेसे [उपयोगः ] आत्माका उपयोग — [शुद्धः ] यद्यपि (शुद्धनयसे) शुद्ध, [निरञ्जनः ] निरंजन [भावः ] (एक)
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अथैवमयमनादिवस्त्वन्तरभूतमोहयुक्तत्वादात्मन्युत्प्लवमानेषु मिथ्यादर्शनाज्ञानाविरतिभावेषु परिणामविकारेषु त्रिष्वेतेषु निमित्तभूतेषु परमार्थतः शुद्धनिरंजनानादिनिधनवस्तुसर्वस्वभूतचिन्मात्र- भावत्वेनैकविधोऽप्यशुद्धसांजनानेकभावत्वमापद्यमानस्त्रिविधो भूत्वा स्वयमज्ञानीभूतः कर्तृत्व- मुपढौकमानो विकारेण परिणम्य यं यं भावमात्मनः करोति तस्य तस्य किलोपयोगः कर्ता स्यात् ।
अथात्मनस्त्रिविधपरिणामविकारकर्तृत्वे सति पुद्गलद्रव्यं स्वत एव कर्मत्वेन परिणम- तीत्याह —
भाव है तथापि — [त्रिविधः ] तीन प्रकारका होता हुआ [सः उपयोगः ] वह उपयोग [यं ] जिस [भावम् ] (विकारी) भावको [करोति ] स्वयं करता है [तस्य ] उस भावका [सः ] वह [कर्ता ] कर्ता [भवति ] होता है ।
टीका : — इसप्रकार अनादिसे अन्यवस्तुभूत मोहके साथ संयुक्तताके कारण अपनेमें उत्पन्न होनेवाले जो यह तीन मिथ्यादर्शन, अज्ञान और अविरतिभावरूप परिणामविकार हैं उनके निमित्तसे ( – कारणसे) — यद्यपि परमार्थसे तो उपयोग शुद्ध, निरंजन, अनादिनिधन वस्तुके सर्वस्वभूत चैतन्यमात्रभावपनेसे एक प्रकारका है तथापि — अशुद्ध, सांजन, अनेकभावताको प्राप्त होता हुआ तीन प्रकारका होकर, स्वयं अज्ञानी होता हुआ कर्तृत्वको प्राप्त, विकाररूप परिणमित होकर जिस-जिस भावको अपना करता है उस-उस भावका वह उपयोग कर्ता होता है ।
भावार्थ : — पहले कहा था कि जो परिणमित होता है सो कर्ता है । यहाँ अज्ञानरूप होकर उपयोग परिणमित हुआ, इसलिये जिस भावरूप वह परिणमित हुआ उस भावका उसे कर्ता कहा है । इसप्रकार उपयोगको कर्ता जानना चाहिये । यद्यपि शुद्धद्रव्यार्थिकनयसे आत्मा कर्ता नहीं है, तथापि उपयोग और आत्मा एक वस्तु होनेसे अशुद्धद्रव्यार्थिकनयसे आत्माको भी कर्ता कहा जाता है ।।९०।।
अब, यह कहते हैं कि जब आत्माके तीन प्रकारके परिणामविकारका कर्तृत्व होता है तब पुद्गलद्रव्य अपने आप ही कर्मरूप परिणमित होता है : —
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आत्मा ह्यात्मना तथापरिणमनेन यं भावं किल करोति तस्यायं कर्ता स्यात्, साधकवत् । तस्मिन्निमित्ते सति पुद्गलद्रव्यं कर्मत्वेन स्वयमेव परिणमते । तथा हि — यथा साधकः किल तथाविधध्यानभावेनात्मना परिणममानो ध्यानस्य कर्ता स्यात्, तस्मिंस्तु ध्यानभावे सकलसाध्यभावानुकूलतया निमित्तमात्रीभूते सति साधकं कर्तारमन्तरेणापि स्वयमेव बाध्यन्ते विषव्याप्तयो, विडम्ब्यन्ते योषितो, ध्वंस्यन्ते बन्धाः, तथायमज्ञानादात्मा मिथ्यादर्शनादिभावेनात्मना परिणममानो मिथ्यादर्शनादिभावस्य कर्ता स्यात्, तस्मिंस्तु मिथ्यादर्शनादौ भावे स्वानुकूलतया निमित्तमात्रीभूते सत्यात्मानं कर्तारमन्तरेणापि पुद्गलद्रव्यं मोहनीयादिकर्मत्वेन स्वयमेव परिणमते
गाथार्थ : — [आत्मा ] आत्मा [यं भावम् ] जिस भावको [करोति ] करता है [तस्य भावस्य ] उस भावका [सः ] वह [कर्ता ] कर्ता [भवति ] होता है; [तस्मिन् ] उसके कर्ता होने पर [पुद्गलं द्रव्यम् ] पुद्गलद्रव्य [स्वयं ] अपने आप [कर्मत्वं ] कर्मरूप [परिणमते ] परिणमित होता है ।
टीका : — आत्मा स्वयं ही उस प्रकार (उसरूप) परिणमित होनेसे जिस भावको वास्तवमें करता है उसका वह — साधककी (मन्त्र साधनेवालेकी) भाँति — कर्ता होता है; वह (आत्माका भाव) निमित्तभूत होने पर, पुद्गलद्रव्य कर्मरूप स्वयमेव (अपने आप ही) परिणमित होता है । इसी बातको स्पष्टतया समझाते हैं : — जैसे साधक उस प्रकारके ध्यानभावसे स्वयं ही परिणमित होता हुआ ध्यानका कर्ता होता है और वह ध्यानभाव समस्त साध्यभावोंको (साधकके साधनेयोग्य भावोंको) अनुकूल होनेसे निमित्तमात्र होने पर, साधकके कर्ता हुए बिना (सर्पादिकका) व्याप्त विष स्वयमेव उतर जाता है, स्त्रियाँ स्वयमेव विडम्बनाको प्राप्त होती हैं और बन्धन स्वयमेव टूट जाते हैं; इसीप्रकार यह आत्मा अज्ञानके कारण मिथ्यादर्शनादिभावरूप स्वयं ही परिणमित होता हुआ मिथ्यादर्शनादिभावका कर्ता होता है और वह मिथ्यादर्शनादिभाव पुद्गलद्रव्यको (कर्मरूप परिणमित होनेमें) अनुकूल होनेसे निमित्तमात्र होने पर, आत्माके कर्ता हुए बिना पुद्गलद्रव्य मोहनीयादि कर्मरूप स्वयमेव परिणमित होते हैं
भावार्थ : — आत्मा तो अज्ञानरूप परिणमित होता है, किसीके साथ ममत्व करता है, किसीके साथ राग करता है, किसीके साथ द्वेष करता है; उन भावोंका स्वयं कर्ता होता है । उन भावोंके निमित्तमात्र होने पर, पुद्गलद्रव्य स्वयं अपने भावसे ही कर्मरूप परिणमित होता है ।
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अयं किलाज्ञानेनात्मा परात्मनोः परस्परविशेषानिर्ज्ञाने सति परमात्मानं कुर्वन्नात्मानं च परं कुर्वन्स्वयमज्ञानमयीभूतः कर्मणां कर्ता प्रतिभाति । तथा हि — तथाविधानुभवसम्पादन- समर्थायाः रागद्वेषसुखदुःखादिरूपायाः पुद्गलपरिणामावस्थायाः शीतोष्णानुभवसम्पादनसमर्थायाः शीतोष्णायाः पुद्गलपरिणामावस्थाया इव पुद्गलादभिन्नत्वेनात्मनो नित्यमेवात्यन्तभिन्नायास्त- न्निमित्ततथाविधानुभवस्य चात्मनोऽभिन्नत्वेन पुद्गलान्नित्यमेवात्यन्तभिन्नस्याज्ञानात्परस्परविशेषा- निर्ज्ञाने सत्येकत्वाध्यासात् शीतोष्णरूपेणेवात्मना परिणमितुमशक्येन रागद्वेषसुखदुःखादि- परस्पर निमित्तनैमित्तिकभाव मात्र है । कर्ता तो दोनों अपने अपने भावके हैं यह निश्चय है ।।९१।।
गाथार्थ : — [परम् ] जो परको [आत्मानं ] अपनेरूप [कुर्वन् ] करता है [च ] और [आत्मानम् अपि ] अपनेको भी [परं ] पर [कुर्वन् ] करता है, [सः ] वह [अज्ञानमयः जीवः ] अज्ञानमय जीव [कर्मणां ] कर्मोंका [कारकः ] कर्ता [भवति ] होता है ।
टीका : — यह आत्मा अज्ञानसे अपना और परका परस्पर भेद (अन्तर) नहीं जानता हो तब वह परको अपनेरूप और अपनेको पररूप करता हुआ, स्वयं अज्ञानमय होता हुआ, कर्मोंका कर्ता प्रतिभासित होता है । यह स्पष्टतासे समझाते हैं : — जैसे शीत-उष्णका अनुभव करानेमें समर्थ ऐसी शीत-उष्ण पुद्गलपरिणामकी अवस्था पुद्गलसे अभिन्नताके कारण आत्मासे सदा ही अत्यन्त भिन्न है और उसके निमित्तसे होनेवाला उस प्रकारका अनुभव आत्मासे अभिन्नताके कारण पुद्गलसे सदा ही अत्यन्त भिन्न है, इसीप्रकार ऐसा अनुभव करानेमें समर्थ ऐसी रागद्वेषसुखदुःखादिरूप पुद्गलपरिणामकी अवस्था पुद्गलसे अभिन्नताके कारण आत्मासे सदा ही अत्यन्त भिन्न है और