Samaysar (Hindi). Gatha: 93-105 ; Kalash: 57-62.

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रूपेणाज्ञानात्मना परिणममानो ज्ञानस्याज्ञानत्वं प्रकटीकुर्वन्स्वयमज्ञानमयीभूत एषोऽहं रज्ये
इत्यादिविधिना रागादेः कर्मणः कर्ता प्रतिभाति
ज्ञानात्तु न कर्म प्रभवतीत्याह
परमप्पाणमकुव्वं अप्पाणं पि य परं अकुव्वंतो
सो णाणमओ जीवो कम्माणमकारगो होदि ।।९३।।
परमात्मानमकुर्वन्नात्मानमपि च परमकुर्वन्
स ज्ञानमयो जीवः कर्मणामकारको भवति ।।९३।।
उसके निमित्तसे होनेवाला उस प्रकारका अनुभव आत्मासे अभिन्नताके कारण पुद्गलसे सदा ही
अत्यन्त भिन्न है
जब आत्मा अज्ञानके कारण उस रागद्वेषसुखदुःखादिका और उसके अनुभवका
परस्पर विशेष नहीं जानता हो तब एकत्वके अध्यासके कारण, शीत-उष्णकी भाँति (अर्थात् जैसे
शीत-उष्णरूपसे आत्माके द्वारा परिणमन करना अशक्य है उसी प्रकार), जिनके रूपमें आत्माके
द्वारा परिणमन करना अशक्य है ऐसे रागद्वेषसुखदुःखादिरूप अज्ञानात्माके द्वारा परिणमित होता हुआ
(अर्थात् परिणमित होना मानता हुआ), ज्ञानका अज्ञानत्व प्रगट करता हुआ, स्वयं अज्ञानमय होता
हुआ, ‘यह मैं रागी हूँ (अर्थात् यह मैं राग करता हूँ)’ इत्यादि विधिसे रागादि कर्मका कर्ता
प्रतिभासित होता है
भावार्थ : रागद्वेषसुखदुःखादि अवस्था पुद्गलकर्मके उदयका स्वाद है; इसलिये वह,
शीत-उष्णताकी भाँति, पुद्गलकर्मसे अभिन्न है और आत्मासे अत्यन्त भिन्न है अज्ञानके कारण
आत्माको उसका भेदज्ञान न होनेसे यह जानता है कि यह स्वाद मेरा ही है; क्योंकि ज्ञानकी
स्वच्छताके कारण रागद्वेषादिका स्वाद, शीत-उष्णताकी भाँति, ज्ञानमें प्रतिबिम्बित होने पर, मानों
ज्ञान ही रागद्वेष हो गया हो इसप्रकार अज्ञानीको भासित होता है
इसलिये वह यह मानता है
कि ‘मैं रागी हूँ, मैं द्वेषी हूँ, मैं क्रोधी हूँ, मैं मानी हूँ ’ इत्यादि इसप्रकार अज्ञानी जीव
रागद्वेषादिका कर्ता होता है ।।९२।।
अब यह बतलाते हैं कि ज्ञानसे कर्म उत्पन्न नहीं होता :
परको नहीं निजरूप अरु निज आत्मको नहिं पर करे
यह ज्ञानमय आत्मा अकारक कर्मका ऐसे बने ।।९३।।
गाथार्थ :[परम् ] जो परको [आत्मानम् ] अपनेरूप [अकुर्वन् ] नहीं करता [च ]

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अयं किल ज्ञानादात्मा परात्मनोः परस्परविशेषनिर्ज्ञाने सति परमात्मानमकुर्वन्नात्मानं च
परमकुर्वन्स्वयं ज्ञानमयीभूतः कर्मणामकर्ता प्रतिभाति तथा हितथाविधानुभवसम्पादनसमर्थायाः
रागद्वेषसुखदुःखादिरूपायाः पुद्गलपरिणामावस्थायाः शीतोष्णानुभवसम्पादनसमर्थायाः शीतोष्णायाः
पुद्गलपरिणामावस्थाया इव पुद्गलादभिन्नत्वेनात्मनो नित्यमेवात्यन्तभिन्नायास्तन्निमित्ततथा-
विधानुभवस्य चात्मनोऽभिन्नत्वेन पुद्गलान्नित्यमेवात्यन्तभिन्नस्य ज्ञानात्परस्परविशेषनिर्ज्ञाने सति
नानात्वविवेकाच्छीतोष्णरूपेणेवात्मना परिणमितुमशक्येन रागद्वेषसुखदुःखादिरूपेणाज्ञानात्मना
मनागप्यपरिणममानो ज्ञानस्य ज्ञानत्वं प्रकटीकुर्वन् स्वयं ज्ञानमयीभूतः एषोऽहं जानाम्येव, रज्यते
तु पुद्गल इत्यादिविधिना समग्रस्यापि रागादेः कर्मणो ज्ञानविरुद्धस्याकर्ता प्रतिभाति
22
और [आत्मानम् अपि ] अपनेको भी [परम् ] पर [अकुर्वन् ] न्ाहीं करता [सः ] वह [ज्ञानमयः
जीवः ]
ज्ञानमय जीव [कर्मणाम् ] कर्मोंका [अकारकः भवति ] अकर्ता होता है अर्थात् कर्ता नहीं
होता
टीका :यह आत्मा जब ज्ञानसे परका और अपना परस्पर विशेष (अन्तर) जानता है
तब परको अपनेरूप और अपनेको पर नहीं करता हुआ, स्वयं ज्ञानमय होता हुआ, कर्मोंका अकर्ता
प्रतिभासित होता है
इसीको स्पष्टतया समझाते हैं :जैसे शीत-उष्णका अनुभव करानेमें समर्थ
ऐसी शीत-उष्ण पुद्गलपरिणामकी अवस्था पुद्गलसे अभिन्नताके कारण आत्मासे सदा ही अत्यन्त
भिन्न है और उसके निमित्तसे होनेवाला उस प्रकारका अनुभव आत्मासे अभिन्नताके कारण पुद्गलसे
सदा ही अत्यन्त भिन्न है, उसीप्रकार वैसा अनुभव करानेमें समर्थ ऐसी रागद्वेषसुखदुःखादिरूप
पुद्गलपरिणामकी अवस्था पुद्गलसे अभिन्नताके कारण आत्मासे सदा ही अत्यन्त भिन्न है और
उसके निमित्तसे होनेवाला उस प्रकारका अनुभव आत्मासे अभिन्नताके कारण पुद्गलसे सदा ही
अत्यन्त भिन्न है
जब ज्ञानके कारण आत्मा उस रागद्वेषसुखदुःखादिका और उसके अनुभवका
परस्पर विशेष जानता है तब, वे एक नहीं किन्तु भिन्न हैं ऐसे विवेक(भेदज्ञान)के कारण शीत-
उष्णकी भाँति (जैसै शीत-उष्णरूप आत्माके द्वारा परिणमन करना अशक्य है उसीप्रकार), जिनके
रूपमें आत्माके द्वारा परिणमन क रना अशक्य है ऐसे रागद्वेषसुखदुःखादिरूपसे अज्ञानात्माके द्वारा
किंचित्मात्र परिणमित न होता हुआ, ज्ञानका ज्ञानत्व प्रगट करता हुआ, स्वयं ज्ञानमय होता हुआ,
‘यह मैं (रागको) जानता ही हूँ, रागी तो पुद्गल है (अर्थात् राग तो पुद्गल करता है)’ इत्यादि
विधिसे, ज्ञानसे विरुद्ध समस्त रागादि कर्मका अकर्ता प्रतिभासित होता है
भावार्थ :जब आत्मा रागद्वेषसुखदुःखादि अवस्थाको ज्ञानसे भिन्न जानता है अर्थात्
‘जैसे शीत-उष्णता पुद्गलकी अवस्था है उसीप्रकार रागद्वेषादि भी पुद्गलकी अवस्था है’ ऐसा
भेदज्ञान होता है
, तब अपनेको ज्ञाता जानता है और रागादिरूप पुद्गलको जानता है ऐसा होने

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कथमज्ञानात्कर्म प्रभवतीति चेत्
तिविहो एसुवओगो अप्पवियप्पं करेदि कोहोऽहं
कत्ता तस्सुवओगस्स होदि सो अत्तभावस्स ।।९४।।
त्रिविध एष उपयोग आत्मविकल्पं करोति क्रोधोऽहम्
कर्ता तस्योपयोगस्य भवति स आत्मभावस्य ।।९४।।
एष खलु सामान्येनाज्ञानरूपो मिथ्यादर्शनाज्ञानाविरतिरूपस्त्रिविधः सविकारश्चैतन्यपरिणामः
परात्मनोरविशेषदर्शनेनाविशेषज्ञानेनाविशेषरत्या च समस्तं भेदमपह्नुत्य भाव्यभावकभावापन्न-
योश्चेतनाचेतनयोः सामान्याधिकरण्येनानुभवनात्क्रोधोऽहमित्यात्मनो विकल्पमुत्पादयति; ततोऽय-
मात्मा क्रोधोऽहमिति भ्रान्त्या सविकारेण चैतन्यपरिणामेन परिणमन् तस्य सविकारचैतन्य-
परिणामरूपस्यात्मभावस्य कर्ता स्यात्
पर, रागादिका कर्ता आत्मा नहीं होता, ज्ञाता ही रहता है ।।९३।।
अब यह प्रश्न करता है कि अज्ञानसे कर्म कैसे उत्पन्न होता है ? इसका उत्तर देते हुए
कहते हैं कि :
‘मैं क्रोध’ आत्मविकल्प यह, उपयोग त्रयविध आचरे
तब जीव उस उपयोगरूप जीवभावका कर्ता बने ।।९४।।
गाथार्थ :[त्रिविधः ] तीन प्रकारका [एषः ] यह [उपयोगः ] उपयोग [अहम्
क्रोधः ] ‘मैं क्रोध हूँ’ ऐसा [आत्मविकल्पं ] अपना विकल्प [करोति ] करता है; इसलिये
[सः ] आत्मा [तस्य उपयोगस्य ] उस उपयोगरूप [आत्मभावस्य ] अपने भावका [कर्ता ]
कर्ता [भवति ] होता है
टीका :वास्तवमें यह सामान्यतया अज्ञानरूप जो मिथ्यादर्शनअज्ञान-अविरतिरूप
तीन प्रकारका सविकार चैतन्यपरिणाम है वह, परके और अपने अविशेष दर्शनसे, अविशेष ज्ञानसे
और अविशेष रति (लीनता)से समस्त भेदको छिपाकर, भाव्यभावकभावको प्राप्त चेतन और
अचेतनका सामान्य अधिकरणसे (
मानों उनका एक आधार हो इस प्रकार) अनुभव करनेसे, ‘मैं
क्रोध हूँ’ ऐसा अपना विकल्प उत्पन्न करता है; इसलिये ‘मैं क्रोध हूँ’ ऐसी भ्रान्तिके कारण जो
सविकार (विकारयुक्त) है ऐसे चैतन्यपरिणामरूप परिणमित होता हुआ यह आत्मा उस सविकार
चैतन्यपरिणामरूप अपने भावका कर्ता होता है

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एवमेव च क्रोधपदपरिवर्तनेन मानमायालोभमोहरागद्वेषकर्मनोकर्ममनोवचनकायश्रोत्र-
चक्षुर्घ्राणरसनस्पर्शनसूत्राणि षोडश व्याख्येयानि अनया दिशान्यान्यप्यूह्यानि
तिविहो एसुवओगो अप्पवियप्पं करेदि धम्मादी
कत्ता तस्सुवओगस्स होदि सो अत्तभावस्स ।।९५।।
त्रिविध एष उपयोग आत्मविकल्पं करोति धर्मादिकम्
कर्ता तस्योपयोगस्य भवति स आत्मभावस्य ।।९५।।
एष खलु सामान्येनाज्ञानरूपो मिथ्यादर्शनाज्ञानाविरतिरूपस्त्रिविधः सविकारश्चैतन्यपरिणामः
परस्परमविशेषदर्शनेनाविशेषज्ञानेनाविशेषरत्या च समस्तं भेदमपह्नुत्य ज्ञेयज्ञायकभावा-
पन्नयोः परात्मनोः सामानाधिकरण्येनानुभवनाद्धर्मोऽहमधर्मोऽहमाकाशमहं कालोऽहं पुद्गलोऽहं
इसीप्रकार ‘क्रोध’ पदको बदलकर मान, माया, लोभ, मोह, राग, द्वेष, कर्म, नोकर्म, मन,
वचन, काय, श्रोत्र, चक्षु, घ्राण, रसन और स्पर्शनके सोलह सूत्र व्याख्यानरूप लेना चाहिये; और
इस उपदेशसे दूसरे भी विचारने चाहिये
भावार्थ :अज्ञानरूप अर्थात् मिथ्यादर्शनअज्ञान-अविरतिरूप तीन प्रकारका जो
सविकार चैतन्यपरिणाम है वह अपना और परका भेद न जानकर ‘मैं क्रोध हूँ, मैं मान हूँ’ इत्यादि
मानता है; इसलिये अज्ञानी जीव उस अज्ञानरूप सविकार चैतन्यपरिणामका कर्ता होता है और वह
अज्ञानरूप भाव उसका कर्म होता है
।।९४।।
अब इसी बातको विशेषरूपसे कहते हैं :
‘मैं धर्म आदि’ विकल्प यह, उपयोग त्रयविध आचरें
तब जीव उस उपयोगरूप जीवभावका कर्ता बने ।।९५।।
गाथार्थ :[त्रिविधः ] तीन प्रकारका [एषः ] यह [उपयोगः ] उपयोग [धर्मादिकम् ]
‘मैं धर्मास्तिकाय आदि हूँ’ ऐसा [आत्मविकल्पं ] अपना विकल्प [करोति ] करता है; इसलिये
[सः ] आत्मा [तस्य उपयोगस्य ] उस उपयोगरूप [आत्मभावस्य ] अपने भावका [कर्ता ] कर्ता
[भवति ] होता है
टीका :वास्तवमें यह सामान्यरूपसे अज्ञानरूप जो मिथ्यादर्शनअज्ञान-अविरतिरूप
तीन प्रकारका सविकार चैतन्यपरिणाम है वह, परके और अपने अविशेष दर्शनसे, अविशेष ज्ञानसे
और अविशेष रति(लीनता)से समस्त भेदको छिपाकर, ज्ञेयज्ञायकभावको प्राप्त ऐसे स्व-परका

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जीवान्तरमहमित्यात्मनो विकल्पमुत्पादयति; ततोऽयमात्मा धर्मोऽहमधर्मोऽहमाकाशमहं कालोऽहं
पुद्गलोऽहं जीवान्तरमहमिति भ्रान्त्या सोपाधिना चैतन्यपरिणामेन परिणमन् तस्य सोपाधिचैतन्य-
परिणामरूपस्यात्मभावस्य कर्ता स्यात्
ततः स्थितं कर्तृत्वमूलमज्ञानम्
एवं पराणि दव्वाणि अप्पयं कुणदि मंदबुद्धीओ
अप्पाणं अवि य परं करेदि अण्णाणभावेण ।।९६।।
एवं पराणि द्रव्याणि आत्मानं करोति मन्दबुद्धिस्तु
आत्मानमपि च परं करोति अज्ञानभावेन ।।९६।।
यत्किल क्रोधोऽहमित्यादिवद्धर्मोऽहमित्यादिवच्च परद्रव्याण्यात्मीकरोत्यात्मानमपि परद्रव्यी-
सामान्य अधिकरणसे अनुभव करनेसे, ‘मैं धर्म हूँ, मैं अधर्म हूँ, मैं आकाश हूँ, मैं काल हूँ, मैं
पुद्गल हूँ, मैं अन्य जीव हूँ’ ऐसा अपना विकल्प उत्पन्न करता है; इसलिये, ‘‘मैं धर्म हूँ, मैं अधर्म
हूँ, मैं आकाश हूँ, मैं काल हूँ, मैं पुद्गल हूँ, मैं अन्य जीव हूँ’ ऐसी भ्रान्तिके कारण जो सोपाधिक
(उपाधियुक्त) है ऐसे चैतन्यपरिणामरूप परिणमित होता हुआ यह आत्मा उस सोपाधिक
चैतन्यपरिणामरूप अपने भावका कर्ता होता है
भावार्थ :धर्मादिके विकल्पके समय जो, स्वयं शुद्ध चैतन्यमात्र होनेका भान न रखकर,
धर्मादिके विकल्पमें एकाकार हो जाता है वह अपनेको धर्मादिद्रव्यरूप मानता है ।।९५।।
इसप्रकार, अज्ञानरूप चैतन्यपरिणाम अपनेको धर्मादिद्रव्यरूप मानता है, इसलिये अज्ञानी
जीव उस अज्ञानरूप सोपाधिक चैतन्यपरिणामका कर्ता होता है और वह अज्ञानरूप भाव उसका
कर्म होता है
‘इसलिये कर्तृत्वका मूल अज्ञान सिद्ध हुआ’ यह अब कहते हैं :
यह मन्दबुद्धि जीव यों परद्रव्यको निजरूप करे
इस भाँतिसे निज आत्मको अज्ञानसे पररूप करे ।।९६।।
गाथार्थ :[एवं तु ] इसप्रकार [मन्दबुद्धिः ] मन्दबुद्धि अर्थात् अज्ञानी [अज्ञानभावेन ]
अज्ञानभावसे [पराणि द्रव्याणि ] पर द्रव्योंको [आत्मानं ] अपनेरूप [करोति ] करता है [अपि
च ]
और [आत्मानम् ] अपनेको [परं ] पर [करोति ] करता है
टीका :वास्तवमें इसप्रकार, ‘मैं क्रोध हूँ’ इत्यादिकी भाँति और ‘मैं धर्मद्रव्य हूँ’

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करोत्येवमात्मा, तदयमशेषवस्तुसम्बन्धविधुरनिरवधिविशुद्धचैतन्यधातुमयोऽप्यज्ञानादेव सविकार-
सोपाधीकृतचैतन्यपरिणामतया तथाविधस्यात्मभावस्य कर्ता प्रतिभातीत्यात्मनो भूताविष्टध्याना-
विष्टस्येव प्रतिष्ठितं कर्तृत्वमूलमज्ञानम्
तथा हियथा खलु भूताविष्टोऽज्ञानाद्भूतात्मानावेकी-
कुर्वन्नमानुषोचितविशिष्टचेष्टावष्टम्भनिर्भरभयङ्करारम्भगम्भीरामानुषव्यवहारतया तथाविधस्य भावस्य
कर्ता प्रतिभाति, तथायमात्माप्यज्ञानादेव भाव्यभावकौ परात्मानावेकीकुर्वन्नविकारानुभूतिमात्र-
भावकानुचितविचित्रभाव्यक्रोधादिविकारकरम्बितचैतन्यपरिणामविकारतया तथाविधस्य भावस्य कर्ता
प्रतिभाति
यथा वाऽपरीक्षकाचार्यादेशेन मुग्धः कश्चिन्महिषध्यानाविष्टोऽज्ञानान्महिषात्मानावेकी-
कुर्वन्नात्मन्यभ्रङ्कषविषाणमहामहिषत्वाध्यासात्प्रच्युतमानुषोचितापवरकद्वारविनिस्सरणतया तथाविधस्य
भावस्य कर्ता प्रतिभाति, तथायमात्माऽप्यज्ञानाद् ज्ञेयज्ञायकौ परात्मानावेकीकुर्वन्नात्मनि
परद्रव्याध्यासान्नोइन्द्रियविषयीकृतधर्माधर्माकाशकालपुद्गलजीवान्तरनिरुद्धशुद्धचैतन्यधातुतया
१. आरम्भ = कार्य; व्यापार; हिंसायुक्त व्यापार
इत्यादिकी भाँति आत्मा परद्रव्योंको अपनेरूप करता है और अपनेको भी परद्रव्यरूप करता है;
इसलिये यह आत्मा, यद्यपि वह समस्त वस्तुओंके सम्बन्धसे रहित असीम शुद्ध चैतन्यधातुमय है
तथापि, अज्ञानके कारण ही सविकार और सोपाधिक किये गये चैतन्यपरिणामवाला होनेसे उस
प्रकारके अपने भावका कर्ता प्रतिभासित होता है
इसप्रकार, भूताविष्ट (जिसके शरीरमें भूत प्रविष्ट
हो ऐसे) पुरुषकी भाँति और ध्यानाविष्ट (ध्यान करनेवाले) पुरुषकी भाँति, आत्माके कर्तृत्वका
मूल अज्ञान सिद्ध हुआ
यह प्रगट दृष्टातसे समझाते हैं :
जैसे भूताविष्ट पुरुष अज्ञानके कारण भूतको और अपनेको एक करता हुआ, अमनुष्योचित
विशिष्ट चेष्टाओंके अवलम्बन सहित भयंकर आरम्भसे युक्त अमानुषिक व्यवहारवाला होनेसे उस
प्रकारके भावका कर्ता प्रतिभासित होता है; इसीप्रकार यह आत्मा भी अज्ञानके कारण ही भाव्य-
भावकरूप परको और अपनेको एक करता हुआ, अविकार अनुभूतिमात्र भावकके लिये अनुचित
विचित्र भाव्यरूप क्रोधादि विकारोंसे मिश्रित चैतन्यपरिणामविकारवाला होनेसे उस प्रकारके भावका
कर्ता प्रतिभासित होता है
और जैसे अपरीक्षक आचार्यके उपदेशसे भैंसेका ध्यान करता हुआ कोई
भोला पुरुष अज्ञानके कारण भैंसेको और अपनेको एक करता हुआ, ‘मैं गगनस्पर्शी सींगोंवाला
बड़ा भैंसा हूँ’ ऐसे अध्यासके कारण मनुष्योचित जो कमरेके द्वारमेंसे बाहर निकलना उससे च्युत
होता हुआ उस प्रकारके भावका कर्ता प्रतिभासित होता है, इसीप्रकार यह आत्मा भी अज्ञानके
कारण ज्ञेयज्ञायकरूप परको और अपनेको एक करता हुआ, ‘मैं परद्रव्य हूँ’ ऐसे अध्यासके कारण
मनके विषयभूत किए गए धर्म, अधर्म, आकाश, काल, पुद्गल और अन्य जीवके द्वारा (अपनी)

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तथेन्द्रियविषयीकृतरूपिपदार्थतिरोहितकेवलबोधतया मृतककलेवरमूर्च्छितपरमामृतविज्ञानघनतया च
तथाविधस्य भावस्य कर्ता प्रतिभाति
ततः स्थितमेतद् ज्ञानान्नश्यति कर्तृत्वम्
एदेण दु सो कत्ता आदा णिच्छयविदूहिं परिकहिदो
एवं खलु जो जाणदि सो मुंचदि सव्वकत्तित्तं ।।९७।।
एतेन तु स कर्तात्मा निश्चयविद्भिः परिकथितः
एवं खलु यो जानाति सो मुञ्चति सर्वकर्तृत्वम् ।।९७।।
शुद्ध चैतन्यधातु रुकी होनेसे तथा इन्द्रियोंके विषयरूप किये गये रूपी पदार्थोंके द्वारा (अपना)
केवल बोध (
ज्ञान) ढँका हुआ होनेसे और मृतक क्लेवर (शरीर)के द्वारा परम अमृतरूप
विज्ञानघन (स्वयं) मूर्च्छित हुआ होनेसे उस प्रकारके भावका कर्ता प्रतिभासित होता है
भावार्थ :यह आत्मा अज्ञानके कारण, अचेतन कर्मरूप भावकके क्रोधादि भाव्यको
चेतन भावकके साथ एकरूप मानता है; और वह, जड़ ज्ञेयरूप धर्मादिद्रव्योंको भी ज्ञायकके
साथ एकरूप मानता है
इसलिये वह सविकार और सोपाधिक चैतन्यपरिणामका कर्ता
होता है
यहाँ, क्रोधादिके साथ एकत्वकी मान्यतासे उत्पन्न होनेवाला कर्तृत्व समझानेके लिये
भूताविष्ट पुरुषका दृष्टान्त दिया है और धर्मादिक अन्य द्रव्योंके साथ एकत्वकी मान्यतासे उत्पन्न
होनेवाला कर्तृत्व समझानेके लिये ध्यानाविष्ट पुरुषका दृष्टान्त दिया है
।।९६।।
‘इससे (पूर्वोक्त कारणसे) यह सिद्ध हुआ कि ज्ञानसे कर्तृत्वका नाश होता है’ यही सब
कहते हैं :
इस हेतुसे परमार्थविद् कर्त्ता कहें इस आत्मको
यह ज्ञान जिसको होय वह छोड़े सकल कर्तृत्वको ।।९७।।
गाथार्थ :[एतेन तु ] इस (पूर्वोक्त) कारणसे [निश्चयविद्भिः ] निश्चयके जाननेवाले
ज्ञानियोंने [सः आत्मा ] इस आत्माको [कर्ता ] कर्ता [परिकथितः ] कहा है[एवं खलु ] ऐसा
निश्चयसे [यः ] जो [जानाति ] जानता है [सः ] वह (ज्ञानी होता हुआ) [सर्वकर्तृत्वम् ]
सर्वकर्तृत्वको [मुञ्चति ] छोड़ता है

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येनायमज्ञानात्परात्मनोरेकत्वविकल्पमात्मनः करोति तेनात्मा निश्चयतः कर्ता प्रतिभाति,
यस्त्वेवं जानाति स समस्तं कर्तृत्वमुत्सृजति, ततः स खल्वकर्ता प्रतिभाति तथा हि
इहायमात्मा किलाज्ञानी सन्नज्ञानादासंसारप्रसिद्धेन मिलितस्वादस्वादनेन मुद्रितभेदसंवेदन-
शक्तिरनादित एव स्यात्; ततः परात्मानावेकत्वेन जानाति; ततः क्रोधोऽहमित्यादिविकल्पमात्मनः
करोति; ततो निर्विकल्पादकृतकादेकस्माद्विज्ञानघनात्प्रभ्रष्टो वारंवारमनेकविकल्पैः परिणमन् कर्ता
प्रतिभाति
ज्ञानी तु सन् ज्ञानात्तदादिप्रसिध्यता प्रत्येक स्वादस्वादनेनोन्मुद्रितभेदसंवेदनशक्तिः
स्यात्; ततोऽनादिनिधनानवरतस्वदमाननिखिलरसान्तरविविक्तात्यन्तमधुरचैतन्यैकरसोऽयमात्मा
भिन्नरसाः कषायास्तैः सह यदेकत्वविकल्पकरणं तदज्ञानादित्येवं नानात्वेन परात्मानौ जानाति;
ततोऽकृतकमेकं ज्ञानमेवाहं, न पुनः कृतकोऽनेकः क्रोधादिरपीति क्रोधोऽहमित्यादिविकल्पमात्मनो
टीका :क्योंकि यह आत्मा अज्ञानके कारण परके और अपने एकत्वका
आत्मविकल्प करता है, इसलिये वह निश्चयसे कर्ता प्रतिभासित होता हैजो ऐसा जानता है
वह समस्त कर्तृत्वको छोड़ देता है, इसलिये वह निश्चयसे अकर्ता प्रतिभासित होता है इसे
स्पष्ट समझाते हैं :
यह आत्मा अज्ञानी होता हुआ, अज्ञानके कारण अनादि संसारसे लेकर मिश्रित
(परस्पर मिले हुए) स्वादका स्वादनअनुभवन होनेसे (अर्थात् पुद्गलकर्मके और अपने
स्वादका एकमेकरूपसे मिश्र अनुभवन होनेसे), जिसकी भेदसंवेदन (भेदज्ञान)की शक्ति मुंद
गई है ऐसा अनादिसे ही है; इसलिये वह स्व-परको एकरूप जानता है; इसीलिये ‘मैं क्रोध
हूँ’ इत्यादि आत्मविकल्प करता है; इसलिये निर्विकल्प, अकृत्रिम, एक विज्ञानघन(स्वभाव)से
भ्रष्ट होता हुआ बारम्बार अनेक विकल्परूप परिणमित होता हुआ कर्ता प्रतिभासित होता है
और जब आत्मा ज्ञानी होता है तब, ज्ञानके कारण ज्ञानके प्रारम्भसे लेकर पृथक्
पृथक् स्वादका स्वादनअनुभवन होनेसे (पुद्गलकर्मके और अपने स्वादकाएकरूप नहीं
किन्तुभिन्न-भिन्नरूप अनुभवन होनेसे), जिसकी भेदसंवेदनशक्ति खुल गई है ऐसा होता है;
इसलिये वह जानता है कि ‘‘अनादिनिधन, निरन्तर स्वादमें आनेवाला, समस्त अन्य रसोंसे
विलक्षण (भिन्न), अत्यन्त मधुर चैतन्य रस ही एक जिसका रस है ऐसा यह आत्मा है और
कषाय उससे भिन्न (कलुषित) रसवाले हैं; उनके साथ जो एकत्वका विकल्प करना है वह
अज्ञानसे है’’; इसप्रकार परको और अपनेको भिन्नरूप जानता है; इसलिये ‘अकृत्रिम
(नित्य), एक ज्ञान ही मैं हूँ किन्तु कृत्रिम (अनित्य), अनेक जो क्रोधादिक हैं वह मैं नहीं
हूँ’ ऐसा जानता हुआ ‘मैं क्रोध हूँ’ इत्यादि आत्मविकल्प किंचित्मात्र भी नहीं करता;

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मनागपि न करोति; ततः समस्तमपि कर्तृत्वमपास्यति; ततो नित्यमेवोदासीनावस्थो जानन्
एवास्ते; ततो निर्विकल्पोऽकृतक एको विज्ञानघनो भूतोऽत्यन्तमकर्ता प्रतिभाति
(वसन्ततिलका)
अज्ञानतस्तु सतृणाभ्यवहारकारी
ज्ञानं स्वयं किल भवन्नपि रज्यते यः
पीत्वा दधीक्षुमधुराम्लरसातिगृद्धया
गां दोग्धि दुग्धमिव नूनमसौ रसालम्
।।५७।।
इसलिये समस्त कर्तृत्वको छोड़ देता है; अतः सदा ही उदासीन अवस्थावाला होता हुआ मात्र
जानता ही रहता है; और इसलिये निर्विकल्प, अकृत्रिम, एक विज्ञानघन होता हुआ अत्यन्त
अकर्ता प्रतिभासित होता है
भावार्थ :जो परद्रव्यके और परद्रव्यके भावोंके कर्तृत्वको अज्ञान जानता है वह स्वयं
कर्ता क्यों बनेगा ? यदि अज्ञानी बना रहना हो तो परद्रव्यका कर्ता बनेगा ! इसलिये ज्ञान होनेके
बाद परद्रव्यका कर्तृत्व नहीं रहता
।।९७।।
अब इसी अर्थका कलशरूप काव्य कहते हैं :
श्लोकार्थ :[किल ] निश्चयसे [स्वयं ज्ञानं भवन् अपि ] स्वयं ज्ञानस्वरूप होने पर
भी [अज्ञानतः तु ] अज्ञानके कारण [यः ] जो जीव [सतृणाभ्यवहारकारी ] घासके साथ
एकमेक हुए सुन्दर भोजनको खानेवाले हाथी आदि पशुओंकी भाँति, [रज्यते ] राग करता है
(रागका और अपना मिश्र स्वाद लेता है) [असौ ] वह, [दधीक्षुमधुराम्लरसातिगृद्धया ]
श्रीखंडके खट्टे-मीठे स्वादकी अति लोलुपतासे [रसालम् पीत्वा ] श्रीखण्डको पीता हुआ भी
[गां दुग्धम् दोग्धि इव नूनम् ] स्वयं गायका दूध पी रहा है ऐसा माननेवाले पुरुषके
समान है
भावार्थ :जैसे हाथीको घासके और सुन्दर आहारके भिन्न स्वादका भान नहीं होता
उसीप्रकार अज्ञानीको पुद्गलकर्मके और अपने भिन्न स्वादका भान नहीं होता; इसलिये वह
एकाकाररूपसे रागादिमें प्रवृत्त होता है
जैसे श्रीखण्डका स्वादलोलुप पुरुष, (श्रीखण्डके)
स्वादभेदको न जानकर, श्रीखण्डके स्वादको मात्र दूधका स्वाद जानता है उसीप्रकार अज्ञानी
जीव स्व-परके मिश्र स्वादको अपना स्वाद समझता है
।५७।

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(शार्दूलविक्रीडित)
अज्ञानान्मृगतृष्णिकां जलधिया धावन्ति पातुं मृगा
अज्ञानात्तमसि द्रवन्ति भुजगाध्यासेन रज्जौ जनाः
अज्ञानाच्च विकल्पचक्रकरणाद्वातोत्तरंगाब्धिवत्
शुद्धज्ञानमया अपि स्वयममी कर्त्रीभवन्त्याकुलाः
।।५८।।
(वसन्ततिलका)
ज्ञानाद्विवेचकतया तु परात्मनोर्यो
जानाति हंस इव वाःपयसोर्विशेषम्
चैतन्यधातुमचलं स सदाधिरूढो
जानीत एव हि करोति न किंचनापि
।।५९।।
23
अज्ञानसे ही जीव कर्ता होता है इसी अर्थका कलशरूप काव्य कहते हैं :
श्लोकार्थ :[अज्ञानात् ] अज्ञानके कारण [मृगतृष्णिकां जलधिया ] मृगमरीचिकामें
जलकी बुद्धि होनेसे [मृगाः पातुं धावन्ति ] हिरण उसे पीनेको दौड़ते हैं; [अज्ञानात् ] अज्ञानके
कारण ही [तमसि रज्जौ भुजगाध्यासेन ] अन्धकारमें पड़ी हुई रस्सीमें सर्पका अध्यास होनेसे [जनाः
द्रवन्ति ]
लोग (भयसे) भागते हैं; [च ] और (इसीप्रकार) [अज्ञानात् ] अज्ञानके कारण [अमी ]
ये जीव, [वातोत्तरंगाब्धिवत् ] पवनसे तरंगित समुद्रकी भाँति [विकल्पचक्रकरणात् ] विकल्पोंके
समूहको करनेसे
[शुद्धज्ञानमयाः अपि ] यद्यपि वे स्वयं शुद्धज्ञानमय हैं तथापि[आकुलाः ]
आकुलित होते हुए [स्वयम् ] अपने आप ही [कर्त्रीभवन्ति ] कर्ता होते हैं
भावार्थ :अज्ञानसे क्या क्या नहीं होता ? हिरण बालूकी चमकको जल समझकर पीने
दौड़ते हैं और इसप्रकार वे खेद-खिन्न होते हैं अन्धेरेमें पड़ी हुई रस्सीकोे सर्प मानकर लोग उससे
डरकर भागते हैं इसीप्रकार यह आत्मा, पवनसे क्षुब्ध (तरंगित) हुये समुद्रकी भाँति, अज्ञानके
कारण अनेक विकल्प करता हुआ क्षुब्ध होता है और इसप्रकारयद्यपि परमार्थसे वह शुद्धज्ञानघन
है तथापिअज्ञानसे कर्ता होता है ।५८।
अब यह कहते हैं कि ज्ञानसे आत्मा कर्ता नहीं होता :
श्लोकार्थ :[हंसः वाःपयसोः इव ] जैसे हंस दूध और पानीके विशेष-(अन्तर)को
जानता है उसीप्रकार [यः ] जो जीव [ज्ञानात् ] ज्ञानके कारण [विवेचकतया ] विवेकवाला
(भेदज्ञानवाला) होनेसे [परात्मनोः तु ] परके और अपने [विशेषम् ]िवशेषको [जानाति ] जानता

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(मन्दाक्रान्ता)
ज्ञानादेव ज्वलनपयसोरौष्ण्यशैत्यव्यवस्था
ज्ञानादेवोल्लसति लवणस्वादभेदव्युदासः
ज्ञानादेव स्वरसविकसन्नित्यचैतन्यधातोः
क्रोधादेश्च प्रभवति भिदा भिन्दती कर्तृभावम्
।।६०।।
(अनुष्टुभ्)
अज्ञानं ज्ञानमप्येवं कुर्वन्नात्मानमञ्जसा
स्यात्कर्तात्मात्मभावस्य परभावस्य न क्वचित् ।।६१।।
है [सः ] वह (जैसे हंस मिश्रित हुए दूध और पानीको अलग करके दूधको ग्रहण करता है
उसीप्रकार) [अचलं चैतन्यधातुम् ] अचल चैतन्यधातुमें [सदा ] सदा [अधिरूढः ] आरूढ़ होता
हुआ (उसका आश्रय लेता हुआ) [जानीत एव हि ] मात्र जानता ही है, [किंचन अपि न करोति ]
किंचित्मात्र भी कर्ता नहीं होता (अर्थात् ज्ञाता ही रहता है, कर्त्ता नहीं होता)
भावार्थ :जो स्व-परके भेदको जानता है वह ज्ञाता ही है, कर्ता नहीं ।५९।
अब, यह कहते हैं कि जो कुछ ज्ञात होता है वह ज्ञानसे ही ज्ञात होता है :
श्लोकार्थ :[ज्वलन-पयसोः औष्ण्य-शैत्य-व्यवस्था ] (गर्म पानीमें) अग्निकी
उष्णताका और पानीकी शीतलताका भेद [ज्ञानात् एव ] ज्ञानसे ही प्रगट होता है
[लवणस्वादभेदव्युदासः ज्ञानात् एव उल्लसति ] नमकके स्वादभेदका निरसन (निराकरण,
अस्वीकार, उपेक्षा) ज्ञानसे ही होता है (अर्थात् ज्ञानसे ही व्यंजनगत नमकका सामान्य स्वाद उभर
आता है और स्वादका स्वादविशेष निरस्त होता है)
[स्वरसविकसन्नित्यचैतन्यधातोः च क्रोधादेः
भिदा ] निज रससे विकसित होनेवाली नित्य चैतन्यधातुका और क्रोधादि भावोंका भेद, [कर्तृभावम्
भिन्दती ]
कर्तृत्वको (
कर्तापनके भावको) भेदता हुआतोड़ता हुआ, [ज्ञानात् एव प्रभवति ]
ज्ञानसे ही प्रगट होता है ।६०।
अब, अज्ञानी भी अपने ही भावको करता है, किन्तु पुद्गलके भावको कभी नहीं करता
इस अर्थका, आगेकी गाथाका सूचक श्लोक कहते हैं :
श्लोकार्थ :[एवं ] इसप्रकार [अञ्जसा ] वास्तवमें [आत्मानम् ] अपनेको [अज्ञानं
ज्ञानम् अपि ] अज्ञानरूप या ज्ञानरूप [कुर्वन् ] करता हुआ [ आत्मा आत्मभावस्य कर्ता स्यात् ]
आत्मा अपने ही भावका कर्ता है, [परभावस्य ] परभावका (पुद्गलके भावोंका) कर्ता तो
[क्वचित् न ] कदापि नहीं है
।६१।

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(अनुष्टुभ्)
आत्मा ज्ञानं स्वयं ज्ञानं ज्ञानादन्यत्करोति किम्
परभावस्य कर्तात्मा मोहोऽयं व्यवहारिणाम् ।।६२।।
तथा हि
ववहारेण दु आदा करेदि घडपडरधाणि दव्वाणि
करणाणि य कम्माणि य णोकम्माणीह विविहाणि ।।९८।।
व्यवहारेण त्वात्मा करोति घटपटरथान् द्रव्याणि
करणानि च कर्माणि च नोकर्माणीह विविधानि ।।९८।।
व्यवहारिणां हि यतो यथायमात्मात्मविकल्पव्यापाराभ्यां घटादिपरद्रव्यात्मकं बहिःकर्म
कुर्वन् प्रतिभाति ततस्तथा क्रोधादिपरद्रव्यात्मकं च समस्तमन्तःकर्मापि करोत्यविशेषादि-
इसी बातको दृढ़ करते हुए कहते हैं कि :
श्लोकार्थ :[आत्मा ज्ञानं ] आत्मा ज्ञानस्वरूप है, [स्वयं ज्ञानं ] स्वयं ज्ञान ही है;
[ज्ञानात् अन्यत् किम् करोति ] वह ज्ञानके अतिरिक्त अन्य क्या करे ? [आत्मा परभावस्य कर्ता ]
आत्मा परभावका कर्ता है [अयं ] ऐसा मानना (तथा कहना) सो [व्यवहारिणाम् मोहः ] व्यवहारी
जीवोंका मोह (अज्ञान) है
।६२।
अब क हते हैं कि व्यवहारी जन ऐसा कहते हैं :
घट-पट-रथादिक वस्तुऐं, कर्मादि अरु सब इन्द्रियें
नोकर्म विधविध जगतमें, आत्मा करे व्यवहारसे ।।९८।।
गाथार्थ :[व्यवहारेण तु ] व्यवहारसे अर्थात् व्यवहारी जन मानते हैं कि [इह ] जगतमें
[आत्मा ] आत्मा [घटपटरथान् द्रव्याणि ] घट, पट, रथ इत्यादि वस्तुओंको, [च ] और
[करणानि ] इन्द्रियोंको, [विविधानि ] अनेक प्रकारके [कर्माणि ] क्रोधादि द्रव्यकर्मोंको [च
नोकर्माणि ]
और शरीरादिक नोकर्मोंको [करोति ] करता है
टीका :जिसने अपने (इच्छारूप) विकल्प और (हस्तादिकी क्रियारूप) व्यापारके
द्वारा यह आत्मा घट आदि परद्रव्यस्वरूप बाह्यकर्मको करता हुआ (व्यवहारी जनोंको) प्रतिभासित
होता है, इसलिये उसीप्रकार (आत्मा) क्रोधादि परद्रव्यस्वरूप समस्त अन्तरंग कर्मको भी

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त्यस्ति व्यामोहः
स न सन्
जदि सो परदव्वाणि य करेज्ज णियमेण तम्मओ होज्ज
जम्हा ण तम्मओ तेण सो ण तेसिं हवदि कत्ता ।।९९।।
यदि स परद्रव्याणि च कुर्यान्नियमेन तन्मयो भवेत्
यस्मान्न तन्मयस्तेन स न तेषां भवति कर्ता ।।९९।।
यदि खल्वयमात्मा परद्रव्यात्मकं कर्म कुर्यात् तदा परिणामपरिणामिभावान्यथानुप-
पत्तेर्नियमेन तन्मयः स्यात्; न च द्रव्यान्तरमयत्वे द्रव्योच्छेदापत्तेस्तन्मयोऽस्ति ततो व्याप्य-
व्यापकभावेन न तस्य कर्तास्ति
(उपरोक्त) दोनों कर्म परद्रव्यस्वरूप हैं, इसलिये उनमें अन्तर न होनेसेकरता है, ऐसा व्यवहारी
जनोंका व्यामोह (भ्रांति, अज्ञान) है
भावार्थ :घट-पट, कर्म-नोकर्म इत्यादि परद्रव्योंको आत्मा करता है ऐसा मानना सो
व्यवहारी जनोंका व्यवहार है, अज्ञान है ।।९८।।
अब यह कहते हैं कि व्यवहारी जनोंकी यह मान्यता सत्यार्थ नहीं है :
परद्रव्यको जीव जो करे, तो जरूर वो तन्मय बने
पर वो नहीं तन्मय हुआ, इससे न कर्ता जीव है ।।९९।।
गाथार्थ :[यदि च ] यदि [सः ] आत्मा [परद्रव्याणि ] परद्रव्योंको [कुर्यात् ] करे तो
वह [नियमेन ] नियमसे [तन्मयः ] तन्मय अर्थात् परद्रव्यमय [भवेत् ] हो जाये; [यस्मात् न
तन्मयः ]
किन्तु तन्मय नहीं है, [तेन ] इसलिये [सः ] वह [तेषां ] उनका [कर्ता ] कर्ता [न
भवति ]
नहीं है
टीका :यदि निश्चयसे यह आत्मा परद्रव्यस्वरूप कर्मको करे तो, परिणाम-परिणामीभाव
अन्य किसी प्रकारसे न बन सकनेसे, वह (आत्मा) नियमसे तन्मय (परद्रव्यमय) हो जाये; परन्तु
वह तन्मय नहीं है, क्योंकि कोई द्रव्य अन्यद्रव्यमय हो जाये तो उस द्रव्यके नाशकी आपत्ति (
दोष)
आ जायेगा इसलिये आत्मा व्याप्यव्यापकभावसे परद्रव्यस्वरूप कर्मका कर्ता नहीं है
भावार्थ :यदि एक द्रव्यका कर्ता दूसरा द्रव्य हो तो दोनों द्रव्य एक हो जायें, क्योंकि

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निमित्तनैमित्तिकभावेनापि न कर्तास्ति
जीवो ण करेदि घडं णेव पडं णेव सेसगे दव्वे
जोगुवओगा उप्पादगा य तेसिं हवदि कत्ता ।।१००।।
जीवो न करोति घटं नैव पटं नैव शेषकानि द्रव्याणि
योगोपयोगावुत्पादकौ च तयोर्भवति कर्ता ।।१००।।
यत्किल घटादि क्रोधादि वा परद्रव्यात्मकं कर्म तदयमात्मा तन्मयत्वानुषंगात्
व्याप्यव्यापकभावेन तावन्न करोति, नित्यकर्तृत्वानुषंगान्निमित्तनैमित्तिकभावेनापि न तत्कुर्यात्
अनित्यौ योगोपयोगावेव तत्र निमित्तत्वेन कर्तारौ योगोपयोगयोस्त्वात्मविकल्पव्यापारयोः
कर्ताकर्मभाव अथवा परिणाम-परिणामीभाव एक द्रव्यमें ही हो सकता है इसीप्रकार यदि एक
द्रव्य दूसरे द्रव्यरूप हो जाये, तो उस द्रव्यका ही नाश हो जाये यह बड़ा दोष आ जायेगा इसलिये
एक द्रव्यको दूसरे द्रव्यका कर्ता कहना उचित नहीं है ।।९९।।
अब यह कहते हैं कि आत्मा (व्याप्यव्यापकभावसे ही नहीं किन्तु ) निमित्त-
नैमित्तिकभावसे भी कर्ता नहीं है :
जीव नहिं करे घट पट नहीं, नहिं शेष द्रव्यों जीव करे
उपयोगयोग निमित्तकर्त्ता, जीव तत्कर्ता बने ।।१००।।
गाथार्थ :[जीवः ] जीव [घटं ] घटको [न करोति ] नहीं करता, [पटं न एव ]
पटको नहीं करता, [शेषकानि ] शेष कोई [द्रव्याणि ] द्रव्योंको [न एव ] नहीं करता; [च ]
परन्तु [योगोपयोगौ ] जीवके योग और उपयोग [उत्पादकौ ] घटादिको उत्पन्न करनेवाले
निमित्त हैं [तयोः ] उनका [कर्ता ] कर्ता [भवति ] जीव होता है
टीका :वास्तवमें जो घटादिक तथा क्रोधादिक परद्रव्यस्वरूप कर्म है उसको यह
आत्मा व्याप्यव्यापकभावसे तो नहीं करता, क्योंकि यदि ऐसा करे तो तन्मयताका प्रसंग आ जाये;
तथा वह निमित्त-नैमित्तिकभावसे भी उसको नहीं करता, क्योंकि यदि ऐसा करे तो नित्यकर्तृत्वका
(सर्व अवस्थाओंमें कर्तृत्व होनेका) प्रसंग आ जायेगा
अनित्य (जो सर्व अवस्थाओंमें व्याप्त नहीं
होते ऐसे) योग और उपयोग ही निमित्तरूपसे उसके (परद्रव्यस्वरूप कर्मके) कर्ता हैं
(रागादिविकारयुक्त चैतन्यपरिणामरूप) अपने विकल्पको और (आत्मप्रदेशोंके चलनरूप) अपने

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कदाचिदज्ञानेन करणादात्मापि कर्ताऽस्तु तथापि न परद्रव्यात्मककर्मकर्ता स्यात्
ज्ञानी ज्ञानस्यैव कर्ता स्यात्
जे पोग्गलदव्वाणं परिणामा होंति णाणआवरणा
ण करेदि ताणि आदा जो जाणदि सो हवदि णाणी ।।१०१।।
ये पुद्गलद्रव्याणां परिणामा भवन्ति ज्ञानावरणानि
न करोति तान्यात्मा यो जानाति स भवति ज्ञानी ।।१०१।।
व्यापारको कदाचित् अज्ञानके कारण योग और उपयोगका तो आत्मा भी कर्ता (कदाचित्) भले
हो तथापि परद्रव्यस्वरूप कर्मका कर्ता तो (निमित्तरूपसे भी कदापि) नहीं है
भावार्थ :योग अर्थात् (मन-वचन-कायके निमित्तसे होनेवाला) आत्मप्रदेशोंका
परिस्पन्दन (चलन) और उपयोग अर्थात् ज्ञानका कषायोंके साथ उपयुक्त होना-जुड़ना यह
योग और उपयोग घटादिक और क्रोधादिकको निमित्त हैं, इसलिये उन्हें तो घटादिक तथा
क्रोधादिकका निमित्तकर्ता कहा जाये, परन्तु आत्माको उनका कर्ता नहीं कहा जा सकता
आत्माको संसार-अवस्थामें अज्ञानसे मात्र योग-उपयोगका कर्ता कहा जा सकता है
तात्पर्य यह है किद्रव्यदृष्टिसे कोई द्रव्य किसी अन्य द्रव्यका कर्ता नहीं है; परन्तु
पर्यायदृष्टिसे किसी द्रव्यकी पर्याय किसी समय किसी अन्य द्रव्यकी पर्यायको निमित्त होती
है, इसलिये इस अपेक्षासे एक द्रव्यका परिणाम अन्य द्रव्यके परिणामका निमित्तकर्ता कहलाता
है
परमार्थसे द्रव्य अपने ही परिणामका कर्ता है; अन्यके परिणामका अन्यद्रव्य कर्ता नहीं
होता ।।१००।।
अब यह कहते हैं कि ज्ञानी ज्ञानका ही कर्ता है :
ज्ञानावरणआदिक सभी, पुद्गलदरव परिणाम हैं
करता नहीं आत्मा उन्हें, जो जानता वह ज्ञानी है ।।१०१।।
गाथार्थ :[ये ] जो [ज्ञानावरणानि ] ज्ञानावरणादिक [पुद्गलद्रव्याणां ] पुद्गलद्रव्योंके
[परिणामाः ] परिणाम [भवन्ति ] हैं [तानि ] उन्हें [यः आत्मा ] जो आत्मा [न करोति ] नहीं
करता, परन्तु [जानाति ] जानता है [सः ] वह [ज्ञानी ] ज्ञानी [भवति ] है

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ये खलु पुद्गलद्रव्याणां परिणामा गोरसव्याप्तदधिदुग्धमधुराम्लपरिणामवत्पुद्गलद्रव्यव्याप्तत्वेन
भवन्तो ज्ञानावरणानि भवन्ति तानि तटस्थगोरसाध्यक्ष इव न नाम करोति ज्ञानी, किन्तु यथा
स गोरसाध्यक्षस्तद्दर्शनमात्मव्याप्तत्वेन प्रभवद्वयाप्य पश्यत्येव तथा पुद्गलद्रव्यपरिणामनिमित्तं
ज्ञानमात्मव्याप्यत्वेन प्रभवद्वयाप्य जानात्येव
एवं ज्ञानी ज्ञानस्यैव कर्ता स्यात्
एवमेव च ज्ञानावरणपदपरिवर्तनेन कर्मसूत्रस्य विभागेनोपन्यासाद्दर्शनावरणवेदनीय-
मोहनीयायुर्नामगोत्रान्तरायसूत्रैः सप्तभिः सह मोहरागद्वेषक्रोधमानमायालोभनोकर्ममनोवचनकाय-
श्रोत्रचक्षुर्घ्राणरसनस्पर्शनसूत्राणि षोडश व्याख्येयानि
अनया दिशान्यान्यप्यूह्यानि
अज्ञानी चापि परभावस्य न कर्ता स्यात्
जं भावं सुहमसुहं करेदि आदा स तस्स खलु कत्ता
तं तस्स होदि कम्मं सो तस्स दु वेदगो अप्पा ।।१०२।।
टीका :जैसे दूध-दही जो कि गोरसके द्वारा व्याप्त होकर उत्पन्न होनेवाले गोरसके
मीठे-खट्टे परिणाम हैं, उन्हें गोरसका तटस्थ दृष्टा पुरुष करता नहीं है, इसीप्रकार ज्ञानावरणादिक
जो कि वास्तवमें पुद्गलद्रव्यके द्वारा व्याप्त होकर उत्पन्न होनेवाले पुद्गलद्रव्यके परिणाम हैं, उन्हें
ज्ञानी करता नहीं हैं; किन्तु जैसे वह गोरसका दृष्टा, स्वतः (देखनेवालेसे) व्याप्त होकर उत्पन्न
होनेवाले गोरस-परिणामके दर्शनमें व्याप्त होकर, मात्र देखता ही है, इसीप्रकार ज्ञानी, स्वतः
(ज्ञानीसे) व्याप्त होकर उत्पन्न होनेवाले, पुद्गलद्रव्य-परिणाम जिसका निमित्त है ऐसे ज्ञानमें व्याप्त
होकर, मात्र जानता ही है
इसप्रकार ज्ञानी ज्ञानका ही कर्ता है
और इसीप्रकार ‘ज्ञानावरण’ पद पलटकर कर्म-सूत्रका (कर्मकी गाथाका)विभाग करके
कथन करनेसे दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अन्तरायके सात सूत्र तथा
उनके साथ मोह, राग, द्वेष, क्रोध, मान, माया, लोभ, नोकर्म, मन, वचन, काय, श्रोत्र, चक्षु,
घ्राण, रसन और स्पर्शनके सोलह सूत्र व्याख्यानरूप करना; और इस उपदेशसे अन्य भी विचार
लेना
।।१०१।।
अब यह कहते हैं कि अज्ञानी भी परद्रव्यके भावका कर्ता नहीं है :
जो भाव जीव करे शुभाशुभ उसहिका कर्ता बने
उसका बने वह कर्म, आत्मा उसहिका वेदक बने ।।१०२।।

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यं भावं शुभमशुभं करोत्यात्मा स तस्य खलु कर्ता
तत्तस्य भवति कर्म स तस्य तु वेदक आत्मा ।।१०२।।
इह खल्वनादेरज्ञानात्परात्मनोरेकत्वाध्यासेन पुद्गलकर्मविपाकदशाभ्यां मन्दतीव्रस्वादाभ्याम-
चलितविज्ञानघनैकस्वादस्याप्यात्मनः स्वादं भिन्दानः शुभमशुभं वा यो यं भावमज्ञानरूपमात्मा
करोति स आत्मा तदा तन्मयत्वेन तस्य भावस्य व्यापकत्वाद्भवति कर्ता, स भावोऽपि च तदा
तन्मयत्वेन तस्यात्मनो व्याप्यत्वाद्भवति कर्म; स एव चात्मा तदा तन्मयत्वेन तस्य भावस्य
भावकत्वाद्भवत्यनुभविता, स भावोऽपि च तदा तन्मयत्वेन तस्यात्मनो भाव्यत्वाद्भवत्यनुभाव्यः
एवमज्ञानी चापि परभावस्य न कर्ता स्यात्
गाथार्थ :[आत्मा ] आत्मा [यं ] जिस [शुभम् अशुभम् ] शुभ या अशुभ [भावं ]
(अपने) भावको [करोति ] करता है [तस्य ] उस भावका [सः ] वह [खलु ] वास्तवमें
[कर्ता ] कर्ता होता है, [तत् ] वह (भाव) [तस्य ] उसका [कर्म ] कर्म [भवति ] होता है
[सः आत्मा तु ] और वह आत्मा [तस्य ] उसका (उस भावरूप कर्मका) [वेदकः ] भोक्ता
होता है
टीका :अपना अचलित विज्ञानघनस्वरूप एक स्वाद होने पर भी इस लोकमें जो
यह आत्मा अनादिकालीन अज्ञानके कारण परके और अपने एकत्वके अध्याससे मन्द और तीव्र
स्वादयुक्त पुद्गलकर्मके विपाककी दो दशाओंके द्वारा अपने (विज्ञानघनस्वरूप) स्वादको भेदता
हुआ अज्ञानरूप शुभ या अशुभ भावको करता है, वह आत्मा उस समय तन्मयतासे उस भावका
व्यापक होनेसे उसका कर्ता होता है और वह भाव भी उस समय तन्मयतासे उस आत्माका
व्याप्य होनेसे उसका कर्म होता है; और वही आत्मा उस समय तन्मयतासे उस भावका भावक
होनेसे उसका अनुभव करनेवाला (भोक्ता) होता है और वह भाव भी उस समय तन्मयतासे
उस आत्माका भाव्य होनेसे उसका अनुभाव्य (भोग्य) होता है
इसप्रकार अज्ञानी भी परभावका
कर्ता नहीं है
भावार्थ :पुद्गलकर्मका उदय होने पर, ज्ञानी उसे जानता ही है अर्थात् वह ज्ञानका
ही कर्ता होता है और अज्ञानी अज्ञानके कारण कर्मोदयके निमित्तसे होनेवाले अपने अज्ञानरूप
शुभाशुभ भावोंका कर्ता होता है
इसप्रकार ज्ञानी अपने ज्ञानरूप भावका और अज्ञानी अपने
अज्ञानरूप भावका कर्ता है; परभावका कर्ता तो ज्ञानी अथवा अज्ञानी कोई भी नहीं है ।।१०२।।

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न च परभावः केनापि कर्तुं पार्येत
जो जम्हि गुणे दव्वे सो अण्णम्हि दु ण संकमदि दव्वे
सो अण्णमसंकंतो कह तं परिणामए दव्वं ।।१०३।।
यो यस्मिन् गुणे द्रव्ये सोऽन्यस्मिंस्तु न सङ्क्रामति द्रव्ये
सोऽन्यदसङ्क्रान्तः कथं तत्परिणामयति द्रव्यम् ।।१०३।।
इह किल यो यावान् कश्चिद्वस्तुविशेषो यस्मिन् यावति कस्मिंश्चिच्चिदात्मन्यचिदात्मनि वा
द्रव्ये गुणे च स्वरसत एवानादित एव वृत्तः, स खल्वचलितस्य वस्तुस्थितिसीम्नो भेत्तुमशक्यत्वात्त-
स्मिन्नेव वर्तेत, न पुनः द्रव्यान्तरं गुणान्तरं वा संक्रामेत
द्रव्यान्तरं गुणान्तरं वाऽसंक्रामंश्च कथं
त्वन्यं वस्तुविशेषं परिणामयेत् ? अतः परभावः केनापि न कर्तुं पार्येत
24
अब यह कहते हैं कि परभावको कोई (द्रव्य) नहीं कर सकता :
जो द्रव्य जो गुण-द्रव्यमें, परद्रव्यरूप न संक्रमे
अनसंक्रमा किस भाँति वह परद्रव्य प्रणमाये अरे ! १०३।।
गाथार्थ :[यः ] जो वस्तु (अर्थात् द्रव्य) [यस्मिन् द्रव्ये ] जिस द्रव्यमें और [गुणे ]
गुणमें वर्तती है [सः ] वह [अन्यस्मिन् तु ] अन्य [द्रव्ये ] द्रव्यमें तथा गुणमें [न संक्रामति ]
संक्रमणको प्राप्त नहीं होती (बदलकर अन्यमें नहीं मिल जाती); [अन्यत् असंक्रान्तः ] अन्यरूपसे
संक्रमणको प्राप्त न होती हुई [सः ] वह (वस्तु), [तत् द्रव्यम् ] अन्य वस्तुको [कथं ] कैसे
[परिणामयति ] परिणमन करा सकती है ?
टीका :जगत्में जो कोई जितनी वस्तु जिस किसी जितने चैतन्यस्वरूप या
अचैतन्यस्वरूप द्रव्यमें और गुणमें निज रससे ही अनादिसे ही वर्तती है वह, वास्तवमें अचलित
वस्तुस्थितिकी मर्यादाको तोड़ना अशक्य होनेसे, उसीमें (अपने उतने द्रव्य-गुणमें ही) वर्तती है,
परन्तु द्रव्यान्तर या गुणान्तररूप संक्रमणको प्राप्त नहीं होती; और द्रव्यान्तर या गुणान्तररूप
संक्रमणको प्राप्त न होती हुई वह, अन्य वस्तुको कैसे परिणमित करा सकती है ? (कभी नहीं
करा सकती
) इसलिये परभाव किसीके द्वारा नहीं किया जा सकता
भावार्थ :जो द्रव्यस्वभाव है उसे कोई भी नहीं बदल सकता, यह वस्तुकी
मर्यादा है ।।१०३।।

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अतः स्थितः खल्वात्मा पुद्गलकर्मणामकर्ता
दव्वगुणस्स य आदा ण कुणदि पोग्गलमयम्हि कम्मम्हि
तं उभयमकुव्वंतो तम्हि कहं तस्स सो कत्ता ।।१०४।।
द्रव्यगुणस्य चात्मा न करोति पुद्गलमये कर्मणि
तदुभयमकुर्वंस्तस्मिन्कथं तस्य स कर्ता ।।१०४।।
यथा खलु मृण्मये कलशे कर्मणि मृद्द्रव्यमृद्गुणयोः स्वरसत एव वर्तमाने द्रव्यगुणान्तर-
संक्रमस्य वस्तुस्थित्यैव निषिद्धत्वादात्मानमात्मगुणं वा नाधत्ते स कलशकारः, द्रव्यान्तर-
संक्रममन्तरेणान्यस्य वस्तुनः परिणमयितुमशक्यत्वात् तदुभयं तु तस्मिन्ननादधानो न तत्त्वतस्तस्य
कर्ता प्रतिभाति, तथा पुद्गलमये ज्ञानावरणादौ कर्मणि पुद्गलद्रव्यपुद्गलगुणयोः
स्वरसत एव वर्तमाने द्रव्यगुणान्तरसंक्रमस्य विधातुमशक्यत्वादात्मद्रव्यमात्मगुणं वात्मा न खल्वाधत्ते;
उपरोक्त कारणसे आत्मा वास्तवमें पुद्गलकर्मोंका अकर्ता सिद्ध हुआ, यह कहते हैं :
आत्मा करे नहिं द्रव्य-गुण पुद्गलमयी कर्मौं विषै
इन उभयको उनमें न करता, क्यों हि तत्कर्त्ता बने ? १०४।।
गाथार्थ :[आत्मा ] आत्मा [पुद्गलमये कर्मणि ] पुद्गलमय कर्ममे [द्रव्यगुणस्य
च ] द्रव्यको तथा गुणको [न करोति ] नहीं करता; [तस्मिन् ] उसमें [तद् उभयम् ] उन
दोनोंको [अकुर्वन् ] न करता हुआ [सः ] वह [तस्य कर्ता ] उसका कर्ता [कथं ] कैसे हो
सकता है ?
टीका :जैसेमिट्टीमय घटरूपी कर्म जो कि मिट्टीरूपी द्रव्यमें और मिट्टीके गुणमें
निज रससे ही वर्तता है उसमें कुम्हार अपनेको या अपने गुणको डालता या मिलाता नहीं है,
क्योंकि (किसी वस्तुका) द्रव्यान्तर या गुणान्तररूपमें संक्रमण होनेका वस्तुस्थितिसे ही निषेध
है; द्रव्यान्तररूपमें (अन्यद्रव्यरूपमें) संक्रमण प्राप्त किये बिना अन्य वस्तुको परिणमित करना
अशक्य होनेसे, अपने द्रव्य और गुण
दोनोंको उस घटरूपी कर्ममें न डालता हुआ वह कुम्हार
परमार्थसे उसका कर्ता प्रतिभासित नहीं होता; इसीप्रकारपुद्गलमय ज्ञानावरणादि कर्म जो कि
पुद्गलद्रव्यमें और पुद्गलके गुणमें निज रससे ही वर्तता है उसमें आत्मा अपने द्रव्यको या अपने
गुणको वास्तवमें डालता या मिलाता नहीं है, क्योंकि (किसी वस्तुका) द्रव्यान्तर या
गुणान्तररूपमें संक्रमण होना अशक्य है; द्रव्यान्तररूपमें संक्रमण प्राप्त किये बिना अन्य वस्तुको

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द्रव्यान्तरसंक्रममन्तरेणान्यस्य वस्तुनः परिणमयितुमशक्यत्वात् तदुभयं तु तस्मिन्ननादधानः कथं नु
तत्त्वतस्तस्य कर्ता प्रतिभायात् ? ततः स्थितः खल्वात्मा पुद्गलकर्मणामकर्ता
अतोऽन्यस्तूपचारः
जीवम्हि हेदुभूदे बंधस्स दु पस्सिदूण परिणामं
जीवेण कदं कम्मं भण्णदि उवयारमेत्तेण ।।१०५।।
जीवे हेतुभूते बन्धस्य तु दृष्टवा परिणामम्
जीवेन कृतं कर्म भण्यते उपचारमात्रेण ।।१०५।।
इह खलु पौद्गलिककर्मणः स्वभावादनिमित्तभूतेऽप्यात्मन्यनादेरज्ञानात्तन्निमित्तभूतेना-
ज्ञानभावेन परिणमनान्निमित्तीभूते सति सम्पद्यमानत्वात् पौद्गलिकं कर्मात्मना कृतमिति निर्विकल्प-
विज्ञानघनभ्रष्टानां विकल्पपरायणानां परेषामस्ति विकल्पः
स तूपचार एव, न तु परमार्थः
परिणमित करना अशक्य होनेसे, अपने द्रव्य और गुणदोनोंको ज्ञानावरणादि कर्ममें न डालता
हुआ वह आत्मा परमार्थसे उसका कर्ता कैसे हो सकता है ? (कभी नहीं हो सकता ) इसलिये
वास्तवमें आत्मा पुद्गलकर्मोंका अकर्ता सिद्ध हुआ ।।१०४।।
इसलिये इसके अतिरिक्त अन्यअर्थात् आत्माको पुद्गलकर्मोंका कर्ता कहना सो
उपचार है, अब यह कहते हैं :
जीव हेतुभूत हुआ अरे ! परिणाम देख जु बन्धका
उपचारमात्र कहाय यों यह कर्म आत्माने किया ।।१०५।।
गाथार्थ :[जीवे ] जीव [हेतुभूते ] निमित्तभूत होने पर [बन्धस्य तु ] कर्मबन्धका
[परिणामम् ] परिणाम होता हुआ [दृष्टवा ] देखकर, ‘[जीवेन ] जीवने [कर्म कृतं ] कर्म किया’
इसप्रकार [उपचारमात्रेण ] उपचारमात्रसे [भण्यते ] कहा जाता है
टीका :इस लोकमें वास्तवमें आत्मा स्वभावसे पौद्गलिक कर्मको निमित्तभूत न होने
पर भी, अनादि अज्ञानके कारण पौद्गलिक कर्मको निमित्तरूप होनेवाले ऐसे अज्ञानभावरूप
परिणमता होनेसे निमित्तभूत होने पर, पौद्गलिक कर्म उत्पन्न होता है, इसलिये ‘पौद्गलिक कर्म
आत्माने किया’ ऐसा निर्विकल्प विज्ञानघनस्वभावसे भ्रष्ट, विकल्पपरायण अज्ञानियोंका विकल्प है;
वह विकल्प उपचार ही है, परमार्थ नहीं