Page 168 of 642
PDF/HTML Page 201 of 675
single page version
इत्यादिविधिना रागादेः कर्मणः कर्ता प्रतिभाति
अत्यन्त भिन्न है
शीत-उष्णरूपसे आत्माके द्वारा परिणमन करना अशक्य है उसी प्रकार), जिनके रूपमें आत्माके
द्वारा परिणमन करना अशक्य है ऐसे रागद्वेषसुखदुःखादिरूप अज्ञानात्माके द्वारा परिणमित होता हुआ
(अर्थात् परिणमित होना मानता हुआ), ज्ञानका अज्ञानत्व प्रगट करता हुआ, स्वयं अज्ञानमय होता
हुआ, ‘यह मैं रागी हूँ (अर्थात् यह मैं राग करता हूँ)’ इत्यादि विधिसे रागादि कर्मका कर्ता
प्रतिभासित होता है
स्वच्छताके कारण रागद्वेषादिका स्वाद, शीत-उष्णताकी भाँति, ज्ञानमें प्रतिबिम्बित होने पर, मानों
ज्ञान ही रागद्वेष हो गया हो इसप्रकार अज्ञानीको भासित होता है
Page 169 of 642
PDF/HTML Page 202 of 675
single page version
पुद्गलपरिणामावस्थाया इव पुद्गलादभिन्नत्वेनात्मनो नित्यमेवात्यन्तभिन्नायास्तन्निमित्ततथा-
विधानुभवस्य चात्मनोऽभिन्नत्वेन पुद्गलान्नित्यमेवात्यन्तभिन्नस्य ज्ञानात्परस्परविशेषनिर्ज्ञाने सति
नानात्वविवेकाच्छीतोष्णरूपेणेवात्मना परिणमितुमशक्येन रागद्वेषसुखदुःखादिरूपेणाज्ञानात्मना
मनागप्यपरिणममानो ज्ञानस्य ज्ञानत्वं प्रकटीकुर्वन् स्वयं ज्ञानमयीभूतः एषोऽहं जानाम्येव, रज्यते
तु पुद्गल इत्यादिविधिना समग्रस्यापि रागादेः कर्मणो ज्ञानविरुद्धस्याकर्ता प्रतिभाति
जीवः ] ज्ञानमय जीव [कर्मणाम् ] कर्मोंका [अकारकः भवति ] अकर्ता होता है अर्थात् कर्ता नहीं
होता
प्रतिभासित होता है
भिन्न है और उसके निमित्तसे होनेवाला उस प्रकारका अनुभव आत्मासे अभिन्नताके कारण पुद्गलसे
सदा ही अत्यन्त भिन्न है, उसीप्रकार वैसा अनुभव करानेमें समर्थ ऐसी रागद्वेषसुखदुःखादिरूप
पुद्गलपरिणामकी अवस्था पुद्गलसे अभिन्नताके कारण आत्मासे सदा ही अत्यन्त भिन्न है और
उसके निमित्तसे होनेवाला उस प्रकारका अनुभव आत्मासे अभिन्नताके कारण पुद्गलसे सदा ही
अत्यन्त भिन्न है
उष्णकी भाँति (जैसै शीत-उष्णरूप आत्माके द्वारा परिणमन करना अशक्य है उसीप्रकार), जिनके
रूपमें आत्माके द्वारा परिणमन क रना अशक्य है ऐसे रागद्वेषसुखदुःखादिरूपसे अज्ञानात्माके द्वारा
किंचित्मात्र परिणमित न होता हुआ, ज्ञानका ज्ञानत्व प्रगट करता हुआ, स्वयं ज्ञानमय होता हुआ,
‘यह मैं (रागको) जानता ही हूँ, रागी तो पुद्गल है (अर्थात् राग तो पुद्गल करता है)’ इत्यादि
विधिसे, ज्ञानसे विरुद्ध समस्त रागादि कर्मका अकर्ता प्रतिभासित होता है
भेदज्ञान होता है
Page 170 of 642
PDF/HTML Page 203 of 675
single page version
योश्चेतनाचेतनयोः सामान्याधिकरण्येनानुभवनात्क्रोधोऽहमित्यात्मनो विकल्पमुत्पादयति; ततोऽय-
मात्मा क्रोधोऽहमिति भ्रान्त्या सविकारेण चैतन्यपरिणामेन परिणमन् तस्य सविकारचैतन्य-
परिणामरूपस्यात्मभावस्य कर्ता स्यात्
[सः ] आत्मा [तस्य उपयोगस्य ] उस उपयोगरूप [आत्मभावस्य ] अपने भावका [कर्ता ]
कर्ता [भवति ] होता है
और अविशेष रति (लीनता)से समस्त भेदको छिपाकर, भाव्यभावकभावको प्राप्त चेतन और
अचेतनका सामान्य अधिकरणसे (
सविकार (विकारयुक्त) है ऐसे चैतन्यपरिणामरूप परिणमित होता हुआ यह आत्मा उस सविकार
चैतन्यपरिणामरूप अपने भावका कर्ता होता है
Page 171 of 642
PDF/HTML Page 204 of 675
single page version
पन्नयोः परात्मनोः सामानाधिकरण्येनानुभवनाद्धर्मोऽहमधर्मोऽहमाकाशमहं कालोऽहं पुद्गलोऽहं
इस उपदेशसे दूसरे भी विचारने चाहिये
मानता है; इसलिये अज्ञानी जीव उस अज्ञानरूप सविकार चैतन्यपरिणामका कर्ता होता है और वह
अज्ञानरूप भाव उसका कर्म होता है
[सः ] आत्मा [तस्य उपयोगस्य ] उस उपयोगरूप [आत्मभावस्य ] अपने भावका [कर्ता ] कर्ता
[भवति ] होता है
और अविशेष रति(लीनता)से समस्त भेदको छिपाकर, ज्ञेयज्ञायकभावको प्राप्त ऐसे स्व-परका
Page 172 of 642
PDF/HTML Page 205 of 675
single page version
पुद्गलोऽहं जीवान्तरमहमिति भ्रान्त्या सोपाधिना चैतन्यपरिणामेन परिणमन् तस्य सोपाधिचैतन्य-
परिणामरूपस्यात्मभावस्य कर्ता स्यात्
पुद्गल हूँ, मैं अन्य जीव हूँ’ ऐसा अपना विकल्प उत्पन्न करता है; इसलिये, ‘‘मैं धर्म हूँ, मैं अधर्म
हूँ, मैं आकाश हूँ, मैं काल हूँ, मैं पुद्गल हूँ, मैं अन्य जीव हूँ’ ऐसी भ्रान्तिके कारण जो सोपाधिक
(उपाधियुक्त) है ऐसे चैतन्यपरिणामरूप परिणमित होता हुआ यह आत्मा उस सोपाधिक
चैतन्यपरिणामरूप अपने भावका कर्ता होता है
कर्म होता है
च ] और [आत्मानम् ] अपनेको [परं ] पर [करोति ] करता है
Page 173 of 642
PDF/HTML Page 206 of 675
single page version
सोपाधीकृतचैतन्यपरिणामतया तथाविधस्यात्मभावस्य कर्ता प्रतिभातीत्यात्मनो भूताविष्टध्याना-
विष्टस्येव प्रतिष्ठितं कर्तृत्वमूलमज्ञानम्
कर्ता प्रतिभाति, तथायमात्माप्यज्ञानादेव भाव्यभावकौ परात्मानावेकीकुर्वन्नविकारानुभूतिमात्र-
भावकानुचितविचित्रभाव्यक्रोधादिविकारकरम्बितचैतन्यपरिणामविकारतया तथाविधस्य भावस्य कर्ता
प्रतिभाति
भावस्य कर्ता प्रतिभाति, तथायमात्माऽप्यज्ञानाद् ज्ञेयज्ञायकौ परात्मानावेकीकुर्वन्नात्मनि
परद्रव्याध्यासान्नोइन्द्रियविषयीकृतधर्माधर्माकाशकालपुद्गलजीवान्तरनिरुद्धशुद्धचैतन्यधातुतया
इसलिये यह आत्मा, यद्यपि वह समस्त वस्तुओंके सम्बन्धसे रहित असीम शुद्ध चैतन्यधातुमय है
तथापि, अज्ञानके कारण ही सविकार और सोपाधिक किये गये चैतन्यपरिणामवाला होनेसे उस
प्रकारके अपने भावका कर्ता प्रतिभासित होता है
मूल अज्ञान सिद्ध हुआ
भावकरूप परको और अपनेको एक करता हुआ, अविकार अनुभूतिमात्र भावकके लिये अनुचित
विचित्र भाव्यरूप क्रोधादि विकारोंसे मिश्रित चैतन्यपरिणामविकारवाला होनेसे उस प्रकारके भावका
कर्ता प्रतिभासित होता है
बड़ा भैंसा हूँ’ ऐसे अध्यासके कारण मनुष्योचित जो कमरेके द्वारमेंसे बाहर निकलना उससे च्युत
होता हुआ उस प्रकारके भावका कर्ता प्रतिभासित होता है, इसीप्रकार यह आत्मा भी अज्ञानके
कारण ज्ञेयज्ञायकरूप परको और अपनेको एक करता हुआ, ‘मैं परद्रव्य हूँ’ ऐसे अध्यासके कारण
मनके विषयभूत किए गए धर्म, अधर्म, आकाश, काल, पुद्गल और अन्य जीवके द्वारा (अपनी)
Page 174 of 642
PDF/HTML Page 207 of 675
single page version
तथाविधस्य भावस्य कर्ता प्रतिभाति
केवल बोध (
साथ एकरूप मानता है
होनेवाला कर्तृत्व समझानेके लिये ध्यानाविष्ट पुरुषका दृष्टान्त दिया है
सर्वकर्तृत्वको [मुञ्चति ] छोड़ता है
Page 175 of 642
PDF/HTML Page 208 of 675
single page version
शक्तिरनादित एव स्यात्; ततः परात्मानावेकत्वेन जानाति; ततः क्रोधोऽहमित्यादिविकल्पमात्मनः
करोति; ततो निर्विकल्पादकृतकादेकस्माद्विज्ञानघनात्प्रभ्रष्टो वारंवारमनेकविकल्पैः परिणमन् कर्ता
प्रतिभाति
भिन्नरसाः कषायास्तैः सह यदेकत्वविकल्पकरणं तदज्ञानादित्येवं नानात्वेन परात्मानौ जानाति;
ततोऽकृतकमेकं ज्ञानमेवाहं, न पुनः कृतकोऽनेकः क्रोधादिरपीति क्रोधोऽहमित्यादिविकल्पमात्मनो
गई है ऐसा अनादिसे ही है; इसलिये वह स्व-परको एकरूप जानता है; इसीलिये ‘मैं क्रोध
हूँ’ इत्यादि आत्मविकल्प करता है; इसलिये निर्विकल्प, अकृत्रिम, एक विज्ञानघन(स्वभाव)से
भ्रष्ट होता हुआ बारम्बार अनेक विकल्परूप परिणमित होता हुआ कर्ता प्रतिभासित होता है
विलक्षण (भिन्न), अत्यन्त मधुर चैतन्य रस ही एक जिसका रस है ऐसा यह आत्मा है और
कषाय उससे भिन्न (कलुषित) रसवाले हैं; उनके साथ जो एकत्वका विकल्प करना है वह
अज्ञानसे है’’; इसप्रकार परको और अपनेको भिन्नरूप जानता है; इसलिये ‘अकृत्रिम
(नित्य), एक ज्ञान ही मैं हूँ किन्तु कृत्रिम (अनित्य), अनेक जो क्रोधादिक हैं वह मैं नहीं
हूँ’ ऐसा जानता हुआ ‘मैं क्रोध हूँ’ इत्यादि आत्मविकल्प किंचित्मात्र भी नहीं करता;
Page 176 of 642
PDF/HTML Page 209 of 675
single page version
एवास्ते; ततो निर्विकल्पोऽकृतक एको विज्ञानघनो भूतोऽत्यन्तमकर्ता प्रतिभाति
ज्ञानं स्वयं किल भवन्नपि रज्यते यः
गां दोग्धि दुग्धमिव नूनमसौ रसालम्
जानता ही रहता है; और इसलिये निर्विकल्प, अकृत्रिम, एक विज्ञानघन होता हुआ अत्यन्त
अकर्ता प्रतिभासित होता है
बाद परद्रव्यका कर्तृत्व नहीं रहता
एकमेक हुए सुन्दर भोजनको खानेवाले हाथी आदि पशुओंकी भाँति, [रज्यते ] राग करता है
(रागका और अपना मिश्र स्वाद लेता है) [असौ ] वह, [दधीक्षुमधुराम्लरसातिगृद्धया ]
श्रीखंडके खट्टे-मीठे स्वादकी अति लोलुपतासे [रसालम् पीत्वा ] श्रीखण्डको पीता हुआ भी
[गां दुग्धम् दोग्धि इव नूनम् ] स्वयं गायका दूध पी रहा है ऐसा माननेवाले पुरुषके
समान है
एकाकाररूपसे रागादिमें प्रवृत्त होता है
जीव स्व-परके मिश्र स्वादको अपना स्वाद समझता है
Page 177 of 642
PDF/HTML Page 210 of 675
single page version
अज्ञानात्तमसि द्रवन्ति भुजगाध्यासेन रज्जौ जनाः
शुद्धज्ञानमया अपि स्वयममी कर्त्रीभवन्त्याकुलाः
जानाति हंस इव वाःपयसोर्विशेषम्
जानीत एव हि करोति न किंचनापि
कारण ही [तमसि रज्जौ भुजगाध्यासेन ] अन्धकारमें पड़ी हुई रस्सीमें सर्पका अध्यास होनेसे [जनाः
द्रवन्ति ] लोग (भयसे) भागते हैं; [च ] और (इसीप्रकार) [अज्ञानात् ] अज्ञानके कारण [अमी ]
ये जीव, [वातोत्तरंगाब्धिवत् ] पवनसे तरंगित समुद्रकी भाँति [विकल्पचक्रकरणात् ] विकल्पोंके
समूहको करनेसे
(भेदज्ञानवाला) होनेसे [परात्मनोः तु ] परके और अपने [विशेषम् ]िवशेषको [जानाति ] जानता
Page 178 of 642
PDF/HTML Page 211 of 675
single page version
ज्ञानादेवोल्लसति लवणस्वादभेदव्युदासः
क्रोधादेश्च प्रभवति भिदा भिन्दती कर्तृभावम्
उसीप्रकार) [अचलं चैतन्यधातुम् ] अचल चैतन्यधातुमें [सदा ] सदा [अधिरूढः ] आरूढ़ होता
हुआ (उसका आश्रय लेता हुआ) [जानीत एव हि ] मात्र जानता ही है, [किंचन अपि न करोति ]
किंचित्मात्र भी कर्ता नहीं होता (अर्थात् ज्ञाता ही रहता है, कर्त्ता नहीं होता)
आता है और स्वादका स्वादविशेष निरस्त होता है)
भिन्दती ] कर्तृत्वको (
आत्मा अपने ही भावका कर्ता है, [परभावस्य ] परभावका (पुद्गलके भावोंका) कर्ता तो
[क्वचित् न ] कदापि नहीं है
Page 179 of 642
PDF/HTML Page 212 of 675
single page version
आत्मा परभावका कर्ता है [अयं ] ऐसा मानना (तथा कहना) सो [व्यवहारिणाम् मोहः ] व्यवहारी
जीवोंका मोह (अज्ञान) है
[करणानि ] इन्द्रियोंको, [विविधानि ] अनेक प्रकारके [कर्माणि ] क्रोधादि द्रव्यकर्मोंको [च
नोकर्माणि ] और शरीरादिक नोकर्मोंको [करोति ] करता है
होता है, इसलिये उसीप्रकार (आत्मा) क्रोधादि परद्रव्यस्वरूप समस्त अन्तरंग कर्मको भी
Page 180 of 642
PDF/HTML Page 213 of 675
single page version
तन्मयः ] किन्तु तन्मय नहीं है, [तेन ] इसलिये [सः ] वह [तेषां ] उनका [कर्ता ] कर्ता [न
भवति ] नहीं है
वह तन्मय नहीं है, क्योंकि कोई द्रव्य अन्यद्रव्यमय हो जाये तो उस द्रव्यके नाशकी आपत्ति (
Page 181 of 642
PDF/HTML Page 214 of 675
single page version
परन्तु [योगोपयोगौ ] जीवके योग और उपयोग [उत्पादकौ ] घटादिको उत्पन्न करनेवाले
निमित्त हैं [तयोः ] उनका [कर्ता ] कर्ता [भवति ] जीव होता है
तथा वह निमित्त-नैमित्तिकभावसे भी उसको नहीं करता, क्योंकि यदि ऐसा करे तो नित्यकर्तृत्वका
(सर्व अवस्थाओंमें कर्तृत्व होनेका) प्रसंग आ जायेगा
Page 182 of 642
PDF/HTML Page 215 of 675
single page version
हो तथापि परद्रव्यस्वरूप कर्मका कर्ता तो (निमित्तरूपसे भी कदापि) नहीं है
क्रोधादिकका निमित्तकर्ता कहा जाये, परन्तु आत्माको उनका कर्ता नहीं कहा जा सकता
है, इसलिये इस अपेक्षासे एक द्रव्यका परिणाम अन्य द्रव्यके परिणामका निमित्तकर्ता कहलाता
है
करता, परन्तु [जानाति ] जानता है [सः ] वह [ज्ञानी ] ज्ञानी [भवति ] है
Page 183 of 642
PDF/HTML Page 216 of 675
single page version
स गोरसाध्यक्षस्तद्दर्शनमात्मव्याप्तत्वेन प्रभवद्वयाप्य पश्यत्येव तथा पुद्गलद्रव्यपरिणामनिमित्तं
ज्ञानमात्मव्याप्यत्वेन प्रभवद्वयाप्य जानात्येव
श्रोत्रचक्षुर्घ्राणरसनस्पर्शनसूत्राणि षोडश व्याख्येयानि
जो कि वास्तवमें पुद्गलद्रव्यके द्वारा व्याप्त होकर उत्पन्न होनेवाले पुद्गलद्रव्यके परिणाम हैं, उन्हें
ज्ञानी करता नहीं हैं; किन्तु जैसे वह गोरसका दृष्टा, स्वतः (देखनेवालेसे) व्याप्त होकर उत्पन्न
होनेवाले गोरस-परिणामके दर्शनमें व्याप्त होकर, मात्र देखता ही है, इसीप्रकार ज्ञानी, स्वतः
(ज्ञानीसे) व्याप्त होकर उत्पन्न होनेवाले, पुद्गलद्रव्य-परिणाम जिसका निमित्त है ऐसे ज्ञानमें व्याप्त
होकर, मात्र जानता ही है
उनके साथ मोह, राग, द्वेष, क्रोध, मान, माया, लोभ, नोकर्म, मन, वचन, काय, श्रोत्र, चक्षु,
घ्राण, रसन और स्पर्शनके सोलह सूत्र व्याख्यानरूप करना; और इस उपदेशसे अन्य भी विचार
लेना
Page 184 of 642
PDF/HTML Page 217 of 675
single page version
करोति स आत्मा तदा तन्मयत्वेन तस्य भावस्य व्यापकत्वाद्भवति कर्ता, स भावोऽपि च तदा
तन्मयत्वेन तस्यात्मनो व्याप्यत्वाद्भवति कर्म; स एव चात्मा तदा तन्मयत्वेन तस्य भावस्य
भावकत्वाद्भवत्यनुभविता, स भावोऽपि च तदा तन्मयत्वेन तस्यात्मनो भाव्यत्वाद्भवत्यनुभाव्यः
[कर्ता ] कर्ता होता है, [तत् ] वह (भाव) [तस्य ] उसका [कर्म ] कर्म [भवति ] होता है
[सः आत्मा तु ] और वह आत्मा [तस्य ] उसका (उस भावरूप कर्मका) [वेदकः ] भोक्ता
होता है
स्वादयुक्त पुद्गलकर्मके विपाककी दो दशाओंके द्वारा अपने (विज्ञानघनस्वरूप) स्वादको भेदता
हुआ अज्ञानरूप शुभ या अशुभ भावको करता है, वह आत्मा उस समय तन्मयतासे उस भावका
व्यापक होनेसे उसका कर्ता होता है और वह भाव भी उस समय तन्मयतासे उस आत्माका
व्याप्य होनेसे उसका कर्म होता है; और वही आत्मा उस समय तन्मयतासे उस भावका भावक
होनेसे उसका अनुभव करनेवाला (भोक्ता) होता है और वह भाव भी उस समय तन्मयतासे
उस आत्माका भाव्य होनेसे उसका अनुभाव्य (भोग्य) होता है
शुभाशुभ भावोंका कर्ता होता है
Page 185 of 642
PDF/HTML Page 218 of 675
single page version
स्मिन्नेव वर्तेत, न पुनः द्रव्यान्तरं गुणान्तरं वा संक्रामेत
संक्रमणको प्राप्त नहीं होती (बदलकर अन्यमें नहीं मिल जाती); [अन्यत् असंक्रान्तः ] अन्यरूपसे
संक्रमणको प्राप्त न होती हुई [सः ] वह (वस्तु), [तत् द्रव्यम् ] अन्य वस्तुको [कथं ] कैसे
[परिणामयति ] परिणमन करा सकती है ?
वस्तुस्थितिकी मर्यादाको तोड़ना अशक्य होनेसे, उसीमें (अपने उतने द्रव्य-गुणमें ही) वर्तती है,
परन्तु द्रव्यान्तर या गुणान्तररूप संक्रमणको प्राप्त नहीं होती; और द्रव्यान्तर या गुणान्तररूप
संक्रमणको प्राप्त न होती हुई वह, अन्य वस्तुको कैसे परिणमित करा सकती है ? (कभी नहीं
करा सकती
Page 186 of 642
PDF/HTML Page 219 of 675
single page version
संक्रममन्तरेणान्यस्य वस्तुनः परिणमयितुमशक्यत्वात् तदुभयं तु तस्मिन्ननादधानो न तत्त्वतस्तस्य
कर्ता प्रतिभाति, तथा पुद्गलमये ज्ञानावरणादौ कर्मणि पुद्गलद्रव्यपुद्गलगुणयोः
स्वरसत एव वर्तमाने द्रव्यगुणान्तरसंक्रमस्य विधातुमशक्यत्वादात्मद्रव्यमात्मगुणं वात्मा न खल्वाधत्ते;
दोनोंको [अकुर्वन् ] न करता हुआ [सः ] वह [तस्य कर्ता ] उसका कर्ता [कथं ] कैसे हो
सकता है ?
क्योंकि (किसी वस्तुका) द्रव्यान्तर या गुणान्तररूपमें संक्रमण होनेका वस्तुस्थितिसे ही निषेध
है; द्रव्यान्तररूपमें (अन्यद्रव्यरूपमें) संक्रमण प्राप्त किये बिना अन्य वस्तुको परिणमित करना
अशक्य होनेसे, अपने द्रव्य और गुण
गुणको वास्तवमें डालता या मिलाता नहीं है, क्योंकि (किसी वस्तुका) द्रव्यान्तर या
गुणान्तररूपमें संक्रमण होना अशक्य है; द्रव्यान्तररूपमें संक्रमण प्राप्त किये बिना अन्य वस्तुको
Page 187 of 642
PDF/HTML Page 220 of 675
single page version
तत्त्वतस्तस्य कर्ता प्रतिभायात् ? ततः स्थितः खल्वात्मा पुद्गलकर्मणामकर्ता
विज्ञानघनभ्रष्टानां विकल्पपरायणानां परेषामस्ति विकल्पः
इसप्रकार [उपचारमात्रेण ] उपचारमात्रसे [भण्यते ] कहा जाता है
परिणमता होनेसे निमित्तभूत होने पर, पौद्गलिक कर्म उत्पन्न होता है, इसलिये ‘पौद्गलिक कर्म
आत्माने किया’ ऐसा निर्विकल्प विज्ञानघनस्वभावसे भ्रष्ट, विकल्पपरायण अज्ञानियोंका विकल्प है;
वह विकल्प उपचार ही है, परमार्थ नहीं