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भावभावपरमार्थतयैकम्
चेतये समयसारमपारम्
वस्तुस्वरूपको केवल जानता ही है तब उस समय श्रुतज्ञानी भी केवलीकी भाँति वीतराग जैसा
ही होता है ऐसा जानना
समस्त बन्धपद्धतिको [अपास्य ] दूर करके अर्थात् कर्मोदयसे होनेवाले सर्व भावोंको छोड़कर,
[चेतये ] अनुभव करता हूँ
होता
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आत्माभिमुखीकृतमतिज्ञानतत्त्वः, तथा नानाविधनयपक्षालम्बनेनानेक-विकल्पैराकुलयन्तीः
श्रुतज्ञानबुद्धीरप्यवधार्य श्रुतज्ञानतत्त्वमप्यात्माभिमुखीकुर्वन्नत्यन्तमविकल्पो भूत्वा झगित्येव स्वरसत
एव व्यक्तीभवन्तमादिमध्यान्तविमुक्तमनाकुलमेकं केवलमखिलस्यापि विश्वस्योपरि तरन्तमिवाखण्ड-
प्रतिभासमयमनन्तं विज्ञानघनं परमात्मानं समयसारं विन्दन्नेवात्मा सम्यग्दृश्यते ज्ञायते च; ततः
सम्यग्दर्शनं ज्ञानं च समयसार एव
मिलती है
सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञानका नाम प्राप्त है
प्रवर्तमान बुद्धियाँ उन सबको मर्यादामें लाकर जिसने मतिज्ञान
विकल्पोंके द्वारा आकुलता उत्पन्न करनेवाली श्रुतज्ञानकी बुद्धियोंको भी मर्यादामें लाकर श्रुतज्ञान-
तत्त्वको भी आत्मसन्मुख करता हुआ, अत्यन्त विकल्परहित होकर, तत्काल निज रससे ही प्रगट
होनेवाले, आदि-मध्य-अन्तसे रहित, अनाकुल, केवल एक, सम्पूर्ण ही विश्व पर मानों तैरता हो
ऐसे अखण्ड प्रतिभासमय, अनन्त, विज्ञानघन, परमात्मारूप समयसारका जब आत्मा अनुभव करता
है उसीसमय आत्मा सम्यक्तया दिखाई देता है (अर्थात् उसकी श्रद्धा की जाती है) और ज्ञात
होता है, इसलिये समयसार ही सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान है
निर्विकल्प करके, एक अखण्ड प्रतिभासका अनुभव करना ही ‘सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान’के
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सारो यः समयस्य भाति निभृतैरास्वाद्यमानः स्वयम्
ज्ञानं दर्शनमप्ययं किमथवा यत्किंचनैकोऽप्ययम्
दूरादेव विवेकनिम्नगमनान्नीतो निजौघं बलात्
आत्मन्येव सदा गतानुगततामायात्ययं तोयवत्
(आत्माका) सार प्रकाशित होता है [सः एषः ] वह यह समयसार (शुद्ध आत्मा)
(
या दर्शन वह यह (समयसार) ही है; [अथवा किम् ] अथवा अधिक क्या कहें ? [यत् किंचन
अपि अयम् एकः ] जो कुछ है सो यह एक ही है (
फि र वह पानी, पानीको पानीके समूहकी ओर खींचता हुआ प्रवाहरूप होकर, अपने समूहमें आ
मिलता है; इसीप्रकार [अयं ] यह आत्मा [निज-ओघात् च्युतः ] अपने विज्ञानघनस्वभावसे च्युत
होकर [भूरि-विकल्प-जाल-गहने दूरं भ्राम्यन् ] प्रचुर विकल्पजालोंके गहन वनमें दूर परिभ्रमण
कर रहा था उसे [दूरात् एव ] दूरसे ही [विवेक-निम्न-गमनात् ] विवेकरूपी ढालवाले मार्ग द्वारा
[निज-ओघं बलात् नीतः ] अपने विज्ञानघनस्वभावकी ओर बलपूर्वक मोड़ दिया गया; इसलिए
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यस्तु वेत्ति स तु वेत्ति केवलम्
यस्तु वेत्ति न करोति स क्वचित्
एक विज्ञानरसवाला ही अनुभवमें आता है ऐसा वह आत्मा, [आत्मानम् आत्मनि एव आहरन् ]
आत्माको आत्मामें ही खींचता हुआ (अर्थात् ज्ञान ज्ञानको खींचता हुआ प्रवाहरूप होकर), [सदा
गतानुगतताम् आयाति] सदा विज्ञानघनस्वभावमें आ मिलता है
निवास-स्थानमें आ मिले; इसीप्रकार आत्मा भी मिथ्यात्वके मार्गसे स्वभावसे बाहर निकलकर
विकल्पोंके वनमें भ्रमण करता हुआ किसी भेदज्ञानरूपी ढालवाले मार्ग द्वारा स्वयं ही अपनेको
खींचता हुआ अपने विज्ञानघनस्वभावमें आ मिलता है
[सविकल्पस्य ] जो जीव विकल्पसहित है उसका [कर्तृकर्मत्वं ] कर्ताकर्मपना [जातु ] कभी
[नश्यति न ] नष्ट नहीं होता
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ज्ञप्तौ करोतिश्च न भासतेऽन्तः
ज्ञाता न कर्तेति ततः स्थितं च
क्वचित् न हि वेत्ति ] जो करता है वह कभी जानता नहीं [तु ] और [यः वेत्ति सः क्वचित् न
करोति ] जो जानता है वह कभी करता नहीं
करनेरूप क्रिया भासित नहीं होती; [ततः ज्ञप्तिः करोतिः च विभिन्ने ] इसलिये ज्ञप्तिक्रिया और
‘करोति’ क्रिया दोनों भिन्न है; [च ततः इति स्थितं ] और इससे यह सिद्ध हुआ कि [ज्ञाता कर्ता
न ] जो ज्ञाता है वह कर्ता नहीं है
जब वह इसप्रकार परिणमन करता है कि ‘मैं परद्रव्यको जानता हूँ’ तब ज्ञाताभावरूप परिणमन
करनेसे अर्थात् ज्ञप्तिक्रियाके करनेसे ज्ञाता ही है
नहीं ? उसका समाधान :
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द्वन्द्वं विप्रतिषिध्यते यदि तदा का कर्तृकर्मस्थितिः
र्नेपथ्ये बत नानटीति रभसा मोहस्तथाप्येष किम्
ज्ञानं ज्ञानं भवति च यथा पुद्गलः पुद्गलोऽपि
श्चिच्छक्तीनां निकरभरतोऽत्यन्तगम्भीरमेतत्
(अर्थात् जीव-पुद्गलके कर्ताकर्मपन कदापि नहीं हो सकेगा
वस्तुस्थिति प्रगट है [तथापि बत ] तथापि अरे ! [नेपथ्ये एषः मोहः किम् रभसा नानटीति ]
नेपथ्यमें यह मोह क्यों अत्यन्त वेगपूर्वक नाच रहा है ? (इसप्रकार आचार्यको खेद और आश्चर्य
होता है
हो सकता है ? इसलिये जीव तो ज्ञाता है सो ज्ञाता ही है, वह पुद्गलकर्मोंका कर्ता नहीं है; और
पुद्गलकर्म हैं वे पुद्गल ही हैं, ज्ञाताका कर्म नहीं हैं
यह मोह (
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जाज्वल्यमान हुई कि
वह कर्मरूप नहीं होता; [यथा ज्ञानं ज्ञानं भवति च ] और ज्ञान ज्ञानरूप ही रहता है तथा [पुद्गलः
पुद्गलः अपि ] पुद्गल पुद्गलरूप ही रहता है
निकल गये
वह निज रूपको प्रगट करके चेष्टा करना छोड़ देता है
ताकरि बन्धन आन तणूं फल ले सुखदु:ख भवाश्रमवासो;
ज्ञान भये करता न बनै तब बन्ध न होय खुलै परपासो,
आतममांहि सदा सुविलास करै सिव पाय रहै निति थासो
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द्वितयतां गतमैक्यमुपानयन्
स्वयमुदेत्यवबोधसुधाप्लवः
वह पुण्य-पापके भेदसे दो प्रकारके रूप धारण करके नाचता है उसे, सम्यग्दृष्टिका यथार्थज्ञान
एकरूप जान लेता है
एक रूप क रता हुआ, [ग्लपित-निर्भर-मोहरजा ] जिसने अत्यंत मोहरजको दूर क र दिया है ऐसा
[अयं अवबोध-सुधाप्लवः ] यह (प्रत्यक्ष
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दन्यः शूद्रः स्वयमहमिति स्नाति नित्यं तयैव
शूद्रौ साक्षादपि च चरतो जातिभेदभ्रमेण
दूर होने पर वह यथार्थ प्रकाशमान होता है, इसीप्रकार यहाँ भी समझ लेना चाहिए
त्याग करता है, उसे स्पर्श तक नहीं करता; तब [अन्यः ] दूसरा [अहम् स्वयम् शूद्रः इति ] ‘मैं
स्वयं शूद्र हूँ’ यह मानकर [नित्यं ] नित्य [तया एव ] मदिरासे ही [स्नाति ] स्नान क रता है अर्थात्
उसे पवित्र मानता है
च ] तथापि [जातिभेदभ्रमेण ] जातिभेदके भ्रम सहित [चरतः ] प्रवृत्ति
किस रीत होय सुशील जो संसारमें दाखिल करे ? १४५
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भेदात् चैकमपि कर्म किंचिच्छुभं किंचिदशुभमिति केषांचित्किल पक्षः
[संसारं ] (जीवको) संसारमें [प्रवेशयति ] प्रवेश क राता है ?
पुद्गलपरिणाममय होनेसे कर्मके स्वभावमें भेद होता है; किसी कर्मका शुभ फलरूप और
किसीका अशुभ फलरूप विपाक होनेसे कर्मके अनुभवमें (
ही है
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पुद्गलमयबन्धमार्गाश्रितत्वेनाश्रयाभेदादेकं कर्म
एक ही है
कोई तीव्र क्रोधादिक अशुभ लेश्या, निर्दयता, विषयासक्ति और देव
होनेसे कर्मके शुभ और अशुभ ऐसे दो भेद हैं
ऐसे दो भेद हैं
हैं
अतः कर्म एक ही है
आश्रय मात्र बन्धमार्ग ही है (अर्थात् कर्म एक बन्धमार्गके आश्रयसे ही होता है
एक ही है
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सदाप्यभेदान्न हि कर्मभेदः
स्वयं समस्तं खलु बन्धहेतुः
[बन्धमार्ग-आश्रितम् ] बंधमार्गके आश्रित है और [बन्धहेतुः ] बंधका कारण है, अतः [एक म्
इष्टं ] क र्म एक ही माना गया है
[एवं ] इसीप्रकार [शुभम् वा अशुभम् ] शुभ तथा अशुभ [कृतं क र्म ] किया हुआ क र्म [जीवं ]
जीवको [बध्नाति ] (अविशेषतया) बाँधता है
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किसी भी अन्तरके पुरुषको (
[कुशीलसंसर्गरागेण ] कु शीलके साथ संसर्ग और राग क रनेसे [स्वाधीनः विनाशः ] स्वाधीनताका
नाश होता है (अथवा तो अपने द्वारा ही अपना घात होता है)
कर्मोंके साथ राग और संसर्ग बन्धके कारण होनेसे, शुभाशुभ कर्मोंके साथ राग और संसर्गका निषेध
किया गया है
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किलात्माऽरागो ज्ञानी स्वस्य बन्धाय उपसर्प्पन्तीं मनोरमाममनोरमां वा सर्वामपि कर्मप्रकृतिं
संसर्ग उसके साथ त्योंही, राग करना परितजे;
निज भावमें रत राग अरु संसर्ग उसका परिहरे
च रागक रणं ] संसर्ग और राग क रना [वर्जयति ] छोड़ देता है, [एवम् एव च ] इसीप्रकार
[स्वभावरताः ] स्वभावमें रत पुरुष [क र्मप्रकृतिशीलस्वभावं ] क र्मप्रकृ तिके शील-स्वभावको
[कुत्सितं ] कु त्सित अर्थात् खराब [ज्ञात्वा ] जानकर [तत्संसर्गं ] उसके साथे संसर्ग [वर्जयन्ति ]
छोड़ देते हैं [परिहरन्ति च ] और राग छोड़ देते हैं
तथा संसर्ग नहीं करता, इसीप्रकार आत्मा अरागी ज्ञानी होता हुआ अपने बन्धके लिए समीप आती
हुई (उदयमें आती हुई) मनोरम या अमनोरम (शुभ या अशुभ)
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होकर दुःख भोगता है, जो हाथी चतुर होता है वह उस हथिनीके साथ राग तथा संसर्ग नहीं करता;
इसीप्रकार अज्ञानी जीव कर्मप्रकृतिको अच्छा समझकर उसके साथ राग तथा संसर्ग करते हैं,
इसलिये वे बन्धमें पड़कर पराधीन बनकर संसारके दुःख भोगते हैं, और जो ज्ञानी होता है वह
उसके साथ कभी भी राग तथा संसर्ग नहीं करता
[मा रज्यस्व ] प्रीति
शुभाशुभ दोनों कर्मोंको अविशेषतया बन्धके कारणरूप सिद्ध करता है और इसलिये दोनों कर्मोंका
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बन्धसाधनमुशन्त्यविशेषात्
ज्ञानमेव विहितं शिवहेतुः
प्रवृत्ते नैष्कर्म्ये न खलु मुनयः सन्त्यशरणाः
स्वयं विन्दन्त्येते परमममृतं तत्र निरताः
[उशन्ति ] क हते हैं, [तेन ] इसलिये (यह सिद्ध हुआ कि उन्होंने) [सर्वम् अपि तत् प्रतिषिद्धं ]
समस्त क र्मका निषेध किया है और [ज्ञानम् एव शिवहेतुः विहितं ] ज्ञानको ही मोक्षका कारण
कहा है
अशरण नहीं हैं; [तदा ] (क्योंकि) जब निष्क र्म अवस्था प्रवर्तमान होती है तब [ज्ञाने प्रतिचरितम्
ज्ञानं हि ] ज्ञानमें आचरण क रता हुआ
अमृतं ] परम अमृतका [स्वयं ] स्वयं [विन्दन्ति ] अनुभव करते हैं
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केवली, मननमात्रभावतया मुनिः, स्वयमेव ज्ञानतया ज्ञानी, स्वस्य भवनमात्रतया स्वभावः
कहा है कि :
जानता
है, [तस्मिन् स्वभावे ] उस स्वभावमें [स्थिताः ] स्थित [मुनयः ] मुनि [निर्वाणं ] निर्वाणको
[प्राप्नुवन्ति ] प्राप्त होते हैं
समय है, समस्त नयपक्षोंसे अमिश्रित एक ज्ञानस्वरूप होनेसे शुद्ध है, केवल चिन्मात्र वस्तुस्वरूप
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होनेसे ज्ञानी है, ‘स्व’का भवनमात्रस्वरूप होनेसे स्वभाव है अथवा स्वतः चैतन्यका
ही है)
उन सब तप और व्रतको [सर्वज्ञाः ] सर्वज्ञदेव [बालतपः ] बालतप और [बालव्रतं ] बालव्रत
[ब्रुवन्ति ] क हते हैं
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कारण सिद्ध होता है
[परमार्थबाह्याः ] परमार्थसे बाह्य हैं (अर्थात् परम पदार्थरूप ज्ञानका
अभाव है
सद्भाव है
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शिवस्यायं हेतुः स्वयमपि यतस्तच्छिव इति
ततो ज्ञानात्मत्वं भवनमनुभूतिर्हि विहितम्
ज्ञानरूप परिणमित ज्ञानीके वे शुभ कर्म न होने पर भी वह मोक्षको प्राप्त करता है; तथा अज्ञानरूप
परिणमित अज्ञानीके वे शुभ कर्म होने पर भी वह बन्धको प्राप्त करता है
मोक्षस्वरूप है; [अतः अन्यत् ] उसके अतिरिक्त जो अन्य कुछ है [बन्धस्य ] वह बन्धका हेतु
है, [यतः ] क्योंकि [तत् स्वयम् अपि बन्धः इति ] वह स्वयमेव बन्धस्वरूप है