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इह खलु केचिन्निखिलकर्मपक्षक्षयसम्भावितात्मलाभं मोक्षमभिलषन्तोऽपि, तद्धेतुभूतं सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रस्वभावपरमार्थभूतज्ञानभवनमात्रमैकाग्य्रालक्षणं समयसारभूतं सामायिकं प्रतिज्ञायापि, दुरन्तकर्मचक्रोत्तरणक्लीबतया परमार्थभूतज्ञानभवनमात्रं सामायिकमात्मस्वभाव- मलभमानाः, प्रतिनिवृत्तस्थूलतमसंक्लेशपरिणामकर्मतया प्रवृत्तमानस्थूलतमविशुद्धपरिणामकर्माणः, कर्मानुभवगुरुलाघवप्रतिपत्तिमात्रसन्तुष्टचेतसः, स्थूललक्ष्यतया सकलं कर्मकाण्डमनुन्मूलयन्तः, स्वयमज्ञानादशुभकर्म केवलं बन्धहेतुमध्यास्य च, व्रतनियमशीलतपःप्रभृतिशुभकर्म बन्धहेतुमप्य- जानन्तो, मोक्षहेतुमभ्युपगच्छन्ति
हेतुको [अजानन्तः ] न जानते हुए — [संसारगमनहेतुम् अपि ] संसारगमनका हेतु होने पर भी — [अज्ञानेन ] अज्ञानसे [पुण्यम् ] पुण्यको (मोक्षका हेतु समझकर) [इच्छन्ति ] चाहते हैं ।
टीका : — समस्त कर्मके पक्षका नाश करनेसे उत्पन्न होनेवाला जो आत्मलाभ (निज स्वरूपकी प्राप्ति) उस आत्मलाभस्वरूप मोक्षको इस जगतमें कितने ही जीव चाहते हुए भी, मोक्षके कारणभूत सामायिककी — जो (सामायिक) सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रस्वभाववाले परमार्थभूत ज्ञानके ❃भवनमात्र है, एकाग्रतालक्षणयुक्त है और समयसारस्वरूप है उसकी — प्रतिज्ञा लेकर भी, दुरन्त कर्मचक्रको पार करनेकी नपुंसकताके (-असमर्थताके) कारण परमार्थभूत ज्ञानके भवनमात्र जो सामायिक उस सामायिकस्वरूप आत्मस्वभावको न प्राप्त होते हुए, जिनके अत्यन्त स्थूल संक्लेशपरिणामरूप कर्म निवृत्त हुए हैं और अत्यन्त स्थूल विशुद्धपरिणामरूप कर्म प्रवर्त रहे हैं ऐसे वे, कर्मके अनुभवके गुरुत्व-लघुत्वकी प्राप्तिमात्रसे ही सन्तुष्ट चित्त होते हुए भी (स्वयं) स्थूल लक्ष्यवाले होकर (संक्लेशपरिणामको छोड़ते हुए भी) समस्त कर्मकाण्डको मूलसे नहीं उखाड़ते । इसप्रकार वे, स्वयं अपने अज्ञानसे केवल अशुभ कर्मको ही बन्धका कारण मानकर, व्रत, नियम, शील, तप इत्यादि शुभ कर्म भी बन्धके कारण होने पर भी उन्हें बन्धके कारण न जानते हुए, मोक्षके कारणरूपमें अंगीकार करते हैं — मोक्षके कारणरूपमें उनका आश्रय करते हैं ।
भावार्थ : — कितने ही अज्ञानीजन दीक्षा लेते समय सामायिककी प्रतिज्ञा लेते हैं, परन्तु सूक्ष्म ऐसे आत्मस्वभावकी श्रद्धा, लक्ष तथा अनुभव न कर सकनेसे, स्थूल लक्ष्यवाले वे जीव स्थूल संक्लेशपरिणामोंको छोड़कर ऐसे ही स्थूल विशुद्धपरिणामोंमें (शुभ परिणामोंमें) राचते हैं । (संक्लेशपरिणाम तथा विशुद्धपरिणाम दोनों अत्यन्त स्थूल हैं; आत्मस्वभाव ही सूक्ष्म है ।) इसप्रकार वे — यद्यपि वास्तविकतया सर्वकर्मरहित आत्मस्वभावका अनुभवन ही मोक्षका कारण है तथापि — कर्मानुभवके अल्पबहुत्वको ही बन्ध-मोक्षका कारण मानकर, व्रत, नियम, शील, तप ❃भवन = होना; परिणमन ।
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मोक्षहेतुः किल सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि । तत्र सम्यग्दर्शनं तु जीवादिश्रद्धानस्वभावेन ज्ञानस्य भवनम् । जीवादिज्ञानस्वभावेन ज्ञानस्य भवनं ज्ञानम् । रागादिपरिहरणस्वभावेन ज्ञानस्य भवनं चारित्रम् । तदेवं सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राण्येकमेव ज्ञानस्य भवनमायातम् । ततो ज्ञानमेव परमार्थमोक्षहेतुः । इत्यादि शुभ कर्मोंका मोक्षके हेतुके रूपमें आश्रय करते हैं ।।१५४।।
गाथार्थ : — [जीवादिश्रद्धानं ] जीवादि पदार्थोंका श्रद्धान [सम्यक्त्वं ] सम्यक्त्व है, [तेषां अधिगमः ] उन जीवादि पदार्थोंका अधिगम [ज्ञानम् ] ज्ञान है और [रागादिपरिहरणं ] रागादिका त्याग [चरणं ] चारित्र है; — [एषः तु ] यही [मोक्षपथः ] मोक्षका मार्ग है ।
टीका : — मोक्षका कारण वास्तवमें सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र है । उसमें, सम्यग्दर्शन तो जीवादि पदार्थोंके श्रद्धानस्वभावरूप ज्ञानका होना – परिणमन करना है; जीवादि पदार्थोंके ज्ञानस्वभावरूप ज्ञानका होना — परिणमन करना सो ज्ञान है; रागादिके त्यागस्वभावरूप ज्ञानका होना — परिणमन करना सो चारित्र है । अतः इसप्रकार यह फलित हुआ कि सम्यग्दर्शन-ज्ञान- चारित्र ये तीनों एक ज्ञानका ही भवन ( – परिणमन) है । इसलिये ज्ञान ही मोक्षका परमार्थ (वास्तविक) कारण है ।
भावार्थ : — आत्माका असाधारण स्वरूप ज्ञान ही है । और इस प्रकरणमें ज्ञानको ही प्रधान करके विवेचन किया है । इसलिये ‘सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र — इन तीनों स्वरूप ज्ञान ही परिणमित होता है’ यह कहकर ज्ञानको ही मोक्षका कारण कहा है । ज्ञान है वह अभेद विवक्षामें
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यः खलु परमार्थमोक्षहेतोरतिरिक्तो व्रततपःप्रभृतिशुभकर्मात्मा केषांचिन्मोक्षहेतुः स सर्वोऽपि प्रतिषिद्धः, तस्य द्रव्यान्तरस्वभावत्वात् तत्स्वभावेन ज्ञानभवनस्याभवनात्, परमार्थमोक्ष- हेतोरेवैकद्रव्यस्वभावत्वात् तत्स्वभावेन ज्ञानभवनस्य भवनात् । ही है — ऐसा कहनेमें कुछ भी विरोध नहीं है । इसलिये कई स्थानों पर आचार्यदेवने टीकामें ज्ञानस्वरूप आत्माको ‘ज्ञान’ शब्दसे कहा है ।।१५५।।
गाथार्थ : — [निश्चयार्थं ] निश्चयनयके विषयको [मुक्त्वा ] छोड़कर [विद्वांसः ] विद्वान् [व्यवहारेण ] व्यवहारके द्वारा [प्रवर्तन्ते ] प्रवर्तते हैं; [तु ] परन्तु [परमार्थम् आश्रितानां ] परमार्थके ( – आत्मस्वरूपके) आश्रित [यतीनां ] यतीश्वरोंके ही [क र्मक्षयः ] क र्मका नाश [विहितः ] आगममें क हा गया है । (के वल व्यवहारमें प्रवर्तन करनेवाले पंडितोंके क र्मक्षय नहीं होता ।)
टीका : — कुछ लोग परमार्थ मोक्षहेतुसे अन्य, जो व्रत, तप इत्यादि शुभकर्मस्वरूप मोक्षहेतु मानते हैं, उस समस्तहीका निषेध किया गया है; क्योंकि वह (मोक्षहेतु) अन्य द्रव्यके स्वभाववाला (पुद्गलस्वभाववाला) है, इसलिये उसके स्व-भावसे ज्ञानका भवन (होना) नहीं बनता, — मात्र परमार्थ मोक्षहेतु ही एक द्रव्यके स्वभाववाला (जीवस्वभाववाला) है, इसलिये उसके स्वभावके द्वारा ज्ञानका भवन (होना) बनता है ।
भावार्थ : — मोक्ष आत्माका होता है, इसलिये उसका कारण भी आत्मस्वभावी ही होना चाहिये । जो अन्य द्रव्यके स्वभाववाला है उससे आत्माका मोक्ष कैसे हो सकता है ? शुभ कर्म पुद्गलस्वभावी है, इसलिये उसके भवनसे परमार्थ आत्माका भवन नहीं बन सकता; इसलिये वह
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अथ कर्मणो मोक्षहेतुतिरोधानकरणं साधयति — आत्माके मोक्षका कारण नहीं होता । ज्ञान आत्मस्वभावी है, इसलिये उसके भवनसे आत्माका भवन बनता है; अतः वह आत्माके मोक्षका कारण होता है । इसप्रकार ज्ञान ही वास्तविक मोक्षहेतु है ।।१५६।।
श्लोकार्थ : — [एक द्रव्यस्वभावत्वात् ] ज्ञान एक ड्डद्रव्यस्वभावी ( – जीवस्वभावी – ) होनेसे [ज्ञानस्वभावेन ] ज्ञानके स्वभावसे [सदा ] सदा [ज्ञानस्य भवनं वृत्तं ] ज्ञानका भवन बनता है; [तत् ] इसलिये [तद् एव मोक्षहेतुः ] ज्ञान ही मोक्षका कारण है ।१०६।
श्लोकार्थ : — [द्रव्यान्तरस्वभावत्वात् ] क र्म अन्यद्रव्यस्वभावी ( – पुद्गलस्वभावी – ) होनेसे [क र्मस्वभावेन ] क र्मके स्वभावसे [ज्ञानस्य भवनं न हि वृत्तं ] ज्ञानका भवन नहीं बनता; [तत् ] इसलिये [क र्म मोक्षहेतुः न ] क र्म मोक्षका कारण नहीं है ।१०७।
श्लोकार्थ : — [मोक्षहेतुतिरोधानात् ] क र्म मोक्षके कारणका तिरोधान क रनेवाला है, और [स्वयम् एव बन्धत्वात् ] वह स्वयं ही बन्धस्वरूप है [च ] तथा [मोक्षहेतुतिरोधायिभावत्वात् ] वह मोक्षके कारणका तिरोधायिभावस्वरूप (तिरोधानकर्ता) है, इसीलिये [तत् निषिध्यते ] उसका निषेध किया गया है ।१०८।
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वत्थस्स सेदभावो जह णासेदि मलमेलणासत्तो । मिच्छत्तमलोच्छण्णं तह सम्मत्तं खु णादव्वं ।।१५७।। वत्थस्स सेदभावो जह णासेदि मलमेलणासत्तो । अण्णाणमलोच्छण्णं तह णाणं होदि णादव्वं ।।१५८।। वत्थस्स सेदभावो जह णासेदि मलमेलणासत्तो । कसायमलोच्छण्णं तह चारित्तं पि णादव्वं ।।१५९।।
गाथार्थ : — [यथा ] जैसे [वस्त्रस्य ] वस्त्रका [श्वेतभावः ] श्वेतभाव [मलमेलनासक्तः ] मैलके मिलनेसे लिप्त होता हुआ [नश्यति ] नष्ट हो जाता है — तिरोभूत हो जाता है, [तथा ] उसीप्रकार [मिथ्यात्वमलावच्छन्नं ] मिथ्यात्वरूपी मैलसे लिप्त होता हुआ — व्याप्त होता हुआ [सम्यक्त्वं खलु ] सम्यक्त्व वास्तवमें तिरोभूत हो जाता है [ज्ञातव्यम् ] ऐसा जानना चाहिये [यथा ] जैसे [वस्त्रस्य ] वस्त्रका [श्वेतभावः ] श्वेतभाव [मलमेलनासक्तः ] मैलके मिलनसे लिप्त
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ज्ञानस्य सम्यक्त्वं मोक्षहेतुः स्वभावः परभावेन मिथ्यात्वनाम्ना कर्ममलेनावच्छन्नत्वात्ति- रोधीयते, परभावभूतमलावच्छन्नश्वेतवस्त्रस्वभावभूतश्वेतस्वभाववत् । ज्ञानस्य ज्ञानं मोक्षहेतुः स्वभावः परभावेनाज्ञाननाम्ना कर्ममलेनावच्छन्नत्वात्तिरोधीयते, परभावभूतमलावच्छन्नश्वेत- वस्त्रस्वभावभूतश्वेतस्वभाववत् । ज्ञानस्य चारित्रं मोक्षहेतुः स्वभावः परभावेन कषायनाम्ना कर्ममलेनावच्छन्नत्वात्तिरोधीयते, परभावभूतमलावच्छन्नश्वेतवस्त्रस्वभावभूतश्वेतस्वभाववत् । अतो मोक्षहेतुतिरोधानकरणात् कर्म प्रतिषिद्धम् ।
अथ कर्मणः स्वयं बन्धत्वं साधयति — होता हुआ [नश्यति ] नाशको प्राप्त होता हैै — तिरोभूत हो जाता है, [तथा ] उसीप्रकार [अज्ञानमलावच्छन्नं ] अज्ञानरूपी मैलसे लिप्त होता हुआ — व्याप्त होता हुआ [ज्ञानं भवति ] ज्ञान तिरोभूत हो जाता है [ज्ञातव्यम् ] ऐसा जानना चाहिये । [यथा ] जैसे [वस्त्रस्य ] वस्त्रका [श्वेतभावः ] श्वेतभाव [मलमेलनासक्तः ] मैलके मिलनेसे लिप्त होता हुआ [नश्यति ] नाशको प्राप्त होता है — तिरोभूत हो जाता है, [तथा ] उसीप्रकार [क षायमलावच्छन्नं ] क षायरूपी मेलसे लिप्त होता हुआ – व्याप्त होता हुआ [चारित्रम् अपि ] चारित्र भी तिरोभूत हो जाता है [ज्ञातव्यम् ] ऐसा जानना चाहिए ।
टीका : — ज्ञानका सम्यक्त्व जो कि मोक्षका कारणरूप स्वभाव है वह, परभावस्वरूप मिथ्यात्व नामक कर्मरूपी मैलके द्वारा व्याप्त होनेसे, तिरोभूत हो जाता है — जैसे परभावस्वरूप मैलसे व्याप्त हुआ श्वेत वस्त्रका स्वभावभूत श्वेतस्वभाव तिरोभूत हो जाता है । ज्ञानका ज्ञान जो कि मोक्षका कारणरूप स्वभाव है वह, परभावस्वरूप अज्ञान नामक कर्ममलके द्वारा व्याप्त होनेसे तिरोभूत हो जाता है — जैसे परभावस्वरूप मैलसे व्याप्त हुआ श्वेत वस्त्रका स्वभावभूत श्वेतस्वभाव तिरोभूत हो जाता है । ज्ञानका चारित्र जो कि मोक्षका कारणरूप स्वभाव है वह, परभावस्वरूप कषाय नामक कर्ममलके द्वारा व्याप्त होनेसे तिरोभूत हो जाता है — जैसे परभावस्वरूप मैलसे व्याप्त हुआ श्वेत वस्त्रका स्वभावभूत श्वेतस्वभाव तिरोभूत हो जाता है । इसलिये मोक्षके कारणका ( – सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्रका – ) तिरोधान करनेवाला होनेसे कर्मका निषेध किया गया है ।
भावार्थ : — सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र मोक्षमार्ग है । ज्ञानका सम्यक्त्वरूप परिणमन मिथ्यात्वकर्मसे तिरोभूत होता है; ज्ञानका ज्ञानरूप परिणमन अज्ञानकर्मसे तिरोभूत होता है; और ज्ञानका चारित्ररूप परिणमन कषायकर्मसे तिरोभूत होता है । इसप्रकार मोक्षके कारणभावोंको कर्म तिरोभूत करता है, इसलिये उसका निषेध किया गया है ।।१५७ से १५९।।
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यतः स्वयमेव ज्ञानतया विश्वसामान्यविशेषज्ञानशीलमपि ज्ञानमनादिस्वपुरुषापराध- प्रवर्तमानकर्ममलावच्छन्नत्वादेव बन्धावस्थायां सर्वतः सर्वमप्यात्मानमविजानदज्ञानभावेनैवेदमेव- मवतिष्ठते; ततो नियतं स्वयमेव कर्मैव बन्धः । अतः स्वयं बन्धत्वात् कर्म प्रतिषिद्धम् ।
गाथार्थ : — [सः ] वह आत्मा [सर्वज्ञानदर्शी ] (स्वभावसे) सर्वको जानने – देखनेवाला है तथापि [निजेन क र्मरजसा ] अपने क र्ममलसे [अवच्छन्नः ] लिप्त होता हुआ – व्याप्त होता हुआ [संसारसमापन्नः ] संसारको प्राप्त हुआ वह [सर्वतः ] सर्व प्रकारसे [सर्वम् ] सर्वको [न विजानाति ] नहीं जानता ।
टीका : — जो स्वयं ही ज्ञान होनेके कारण विश्वको ( – सर्वपदार्थोंको) सामान्यविशेषतया जाननेके स्वभाववाला है ऐसा ज्ञान अर्थात् आत्मद्रव्य, अनादि कालसे अपने पुरुषार्थके अपराधसे प्रवर्तमान कर्ममलके द्वारा लिप्त या व्याप्त होनेसे ही, बन्ध-अवस्थामें सर्व प्रकारसे सम्पूर्ण अपनेको अर्थात् सर्व प्रकारसे सर्व ज्ञेयोंको जाननेवाले अपनेको न जानता हुआ, इसप्रकार प्रत्यक्ष अज्ञानभावसे ( – अज्ञानदशामें) रह रहा है; इससे यह निश्चित हुआ कि कर्म स्वयं ही बन्धस्वरूप है । इसलिये, स्वयं बन्धस्वरूप होनेसे कर्मका निषेध किया गया है ।
भावार्थ : — यहाँ भी ‘ज्ञान’ शब्दसे आत्मा समझना चाहिये । ज्ञान अर्थात् आत्मद्रव्य स्वभावसे तो सबको देखने – जाननेवाला है, परन्तु अनादिसे स्वयं अपराधी होनेके कारण कर्मसे आच्छादित है, और इसलिये वह अपने सम्पूर्ण स्वरूपको नहीं जानता; यों अज्ञानदशामें रह रहा है । इसप्रकार केवलज्ञानस्वरूप अथवा मुक्तस्वरूप आत्मा कर्मसे लिप्त होनेसे अज्ञानरूप अथवा बद्धरूप वर्तता है, इसलिये यह निश्चित हुआ कि कर्म स्वयं ही बन्धस्वरूप है । अतः कर्मका निषेध किया गया है ।।१६०।।
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अब, यह बतलाते हैं कि कर्म मोक्षके कारणके तिरोधायिभावस्वरूप (अर्थात् मिथ्यात्वादिभावस्वरूप ) है : —
गाथार्थ : — [सम्यक्त्वप्रतिनिबद्धं ] सम्यक्त्वको रोक नेवाला [मिथ्यात्वं ] मिथ्यात्व है ऐसा [जिनवरैः ] जिनवरोंने [परिक थितम् ] क हा है; [तस्य उदयेन ] उसके उदयसे [जीवः ] जीव
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सम्यक्त्वस्य मोक्षहेतोः स्वभावस्य प्रतिबन्धकं किल मिथ्यात्वं, तत्तु स्वयं कर्मैव, तदुदयादेव ज्ञानस्य मिथ्यादृष्टित्वम् । ज्ञानस्य मोक्षहेतोः स्वभावस्य प्रतिबन्धकं किलाज्ञानं, तत्तु स्वयं कर्मैव, तदुदयादेव ज्ञानस्याज्ञानित्वम् । चारित्रस्य मोक्षहेतोः स्वभावस्य प्रतिबन्धक : किल कषायः, स तु स्वयं कर्मैव, तदुदयादेव ज्ञानस्याचारित्रत्वम् । अतः स्वयं मोक्षहेतुतिरोधायि- भावत्वात् कर्म प्रतिषिद्धम् । [मिथ्यादृष्टिः ] मिथ्यादृष्टि होता है [इति ज्ञातव्यः ] ऐसा जानना चाहिए । [ज्ञानस्य प्रतिनिबद्धं ] ज्ञानको रोक नेवाला [अज्ञानं ] अज्ञान है ऐसा [जिनवरैः ] जिनवरोंने [परिक थितम् ] क हा है; [तस्य उदयेन ] उसके उदयसे [जीवः ] जीव [अज्ञानी ] अज्ञानी [भवति ] होता है [ज्ञातव्यः ] ऐसा जानना चाहिए [चारित्रप्रतिनिबद्धः ] चारित्रको रोक नेवाला [क षायः ] क षाय है ऐसा [जिनवरैः ] जिनवरोंने [परिक थितः ] क हा है; [तस्य उदयेन ] उसके उदयसे [जीवः ] जीव [अचारित्रः ] अचारित्रवान [भवति ] होता है [ज्ञातव्यः ] ऐसा जानना चाहिए
टीका : — सम्यक्त्व जो कि मोक्षका कारणरूप स्वभाव है उसे रोकनेवाला मिथ्यात्व है; वह (मिथ्यात्व) तो स्वयं कर्म ही है, उसके उदयसे ही ज्ञानके मिथ्यादृष्टिपना होता है । ज्ञान जो कि मोक्षका कारणरूप स्वभाव है उसे रोकनेवाला अज्ञान है; वह तो स्वयं कर्म ही है, उसके उदयसे ही ज्ञानके अज्ञानीपना होता है । चारित्र जो कि मोक्षका कारणरूप स्वभाव है उसे रोकनेवाली कषाय है; वह तो स्वयं कर्म ही है, उसके उदयसे ही ज्ञानके अचारित्रपना होता है । इसलिये, स्वयं मोक्षके कारणका तिरोधायिभावस्वरूप होनेसे कर्मका निषेध किया गया है ।
भावार्थ : — सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र मोक्षके कारणरूप भाव हैं उनसे विपरीत मिथ्यात्वादि भाव हैं; कर्म मिथ्यात्वादि भाव-स्वरूप है । इसप्रकार कर्म मोक्षके कारणभूत भावोंसे विपरीत भावस्वरूप है ।
पहले तीन गाथाओंमें कहा था कि कर्म मोक्षके कारणरूप भावोंका — सम्यक्त्वादिक का घातक है । बादकी एक गाथामें यह कहा है कि कर्म स्वयं ही बन्धस्वरूप है । और इन अन्तिम तीन गाथाओंमें कहा है कि कर्म मोक्षके कारणरूप भावोंसे विरोधी भावस्वरूप है — मिथ्यात्वादिस्वरूप है । इसप्रकार यह बताया है कि कर्म मोक्षके कारणका घातक है, बन्धस्वरूप है और बन्धके कारणस्वरूप है इसलिये निषिद्ध है ।
अशुभ कर्म तो मोक्षका कारण है ही नहीं, प्रत्युत बाधक ही है, इसलिये निषिद्ध ही है; परन्तु शुभ कर्म भी कर्मसामान्यमें आ जाता है, इसलिये वह भी बाधक ही है अतः निषिद्ध ही है ऐसा समझना चाहिए ।।१६१ से १६३।।
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संन्यस्ते सति तत्र का किल कथा पुण्यस्य पापस्य वा ।
नैष्कर्म्यप्रतिबद्धमुद्धतरसं ज्ञानं स्वयं धावति ।।१०९।।
कर्मज्ञानसमुच्चयोऽपि विहितस्तावन्न काचित्क्षतिः ।
मोक्षाय स्थितमेकमेव परमं ज्ञानं विमुक्तं स्वतः ।।११०।।
श्लोकार्थ : — [मोक्षार्थिना इदं समस्तम् अपि तत् क र्म एव संन्यस्तव्यम् ] मोक्षार्थीको यह समस्त ही क र्ममात्र त्याग करने योग्य है । [संन्यस्ते सति तत्र पुण्यस्य पापस्य वा कि ल का क था ] जहाँ समस्त क र्मका त्याग किया जाता है फि र वहाँ पुण्य या पापकी क्या बात है ? (क र्ममात्र त्याज्य है तब फि र पुण्य अच्छा है और पाप बुरा — ऐसी बातको अवकाश ही कहाँ हैं ? क र्मसामान्यमें दोनों आ गये हैं ।) [सम्यक्त्वादिनिजस्वभावभवनात् मोक्षस्य हेतुः भवन् ] समस्त क र्मका त्याग होने पर, सम्यक्त्वादि अपने स्वभावरूप होनेसे — परिणमन करनेसे मोक्षका कारणभूत होता हुआ, [नैष्क र्म्यप्रतिबद्धम् उद्धतरसं ] निष्क र्म अवस्थाके साथ जिसका उद्धत ( – उत्कट) रस प्रतिबद्ध है ऐसा [ज्ञानं ] ज्ञान [स्वयं ] अपने आप [धावति ] दौड़ा चला आता है ।
भावार्थ : — कर्मको दूर करके, अपने सम्यक्त्वादिस्वभावरूप परिणमन करनेसे मोक्षका कारणरूप होनेवाला ज्ञान अपने आप प्रगट होता है, तब फि र उसे कौन रोक सकता है ? १०९।
अब आशंका उत्पन्न होती है कि — जब तक अविरत सम्यग्दृष्टि इत्यादिके कर्मका उदय रहता है तब तक ज्ञान मोक्षका कारण कैसे हो सकता है ? और कर्म तथा ज्ञान दोनों ( – कर्मके निमित्तसे होनेवाली शुभाशुभ परिणति तथा ज्ञानपरिणति दोनों – ) एक ही साथ कैसे रह सकते हैं । इसके समाधानार्थ काव्य कहते हैं : —
श्लोकार्थ : — [यावत् ] जब तक [ज्ञानस्य क र्मविरतिः ] ज्ञानकी क र्मविरति [सा सम्यक् पाक म् न उपैति ] भलिभाँति परिपूर्णताको प्राप्त नहीं होती [तावत् ] तब तक [क र्मज्ञानसमुच्चयः अपि विहितः, न काचित् क्षतिः ] क र्म और ज्ञानका एकत्रितपना शास्त्रमें क हा
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मग्ना ज्ञाननयैषिणोऽपि यदतिस्वच्छन्दमन्दोद्यमाः ।
ये कुर्वन्ति न कर्म जातु न वशं यान्ति प्रमादस्य च ।।१११।।
है; उसके एकत्रित रहनेमें कोई भी क्षति या विरोध नहीं है । [कि न्तु ] किन्तु [अत्र अपि ] यहाँ इतना विशेष जानना चाहिये कि आत्मामें [अवशतः यत् क र्म समुल्लसति ] अवशपनें जो क र्म प्रगट होता है [तत् बन्धाय ] वह तो बंधका कारण है, और [मोक्षाय ] मोक्षका कारण तो, [एक म् एव परमं ज्ञानं स्थितम् ] जो एक परम ज्ञान है वह एक ही है — [स्वतः विमुक्तं ] जो कि स्वतः विमुक्त है (अर्थात् तीनोंकाल परद्रड्डव्य-भावोंसे भिन्न है) ।
भावार्थ : — जब तक यथाख्यात चारित्र नहीं होता तब तक सम्यग्दृष्टिके दो धाराएँ रहती हैं, — शुभाशुभ कर्मधारा और ज्ञानधारा । उन दोनोंके एक साथ रहनेमें कोई भी विरोध नहीं है । (जैसे मिथ्याज्ञान और सम्यग्ज्ञानके परस्पर विरोध है वैसे कर्मसामान्य और ज्ञानके विरोध नहीं है ।) ऐसी स्थितिमें कर्म अपना कार्य करता है और ज्ञान अपना कार्य करता है । जितने अंशमें शुभाशुभ कर्मधारा है उतने अंशमें कर्मबन्ध होता है और जितने अंशमें ज्ञानधारा है उतने अंशमें कर्मका नाश होता है । विषय-कषायके विकल्प या व्रत-नियमके विकल्प — अथवा शुद्ध स्वरूपका विचार तक भी — कर्मबन्धका कारण है; शुद्ध परिणतिरूप ज्ञानधारा ही मोक्षका कारण है ।११०।
श्लोकार्थ : — [क र्मनयावलम्बनपराः मग्नाः ] क र्मनयके आलम्बनमें तत्पर (अर्थात् (क र्मनयके पक्षपाती) पुरुष डूबे हुए हैं, [यत् ] क्योंकि [ज्ञानं न जानन्ति ] वे ज्ञानको नहीं जानते । [ज्ञाननय-एषिणः अपि मग्नाः ] ज्ञाननयके इच्छुक (पक्षपाती) पुरुष भी डूबे हुए हैं, [यत् ] क्योंकि [अतिस्वच्छन्दमन्द-उद्यमाः ] वे स्वच्छंदतासे अत्यन्त मन्द-उद्यमी हैं ( – वे स्वरूपप्राप्तिका पुरुषार्थ नहीं क रते, प्रमादी हैं और विषयक षायमें वर्तते हैं) । [ते विश्वस्य उपरि तरन्ति ] वे जीव विश्वके ऊ पर तैरते हैं [ये स्वयं सततं ज्ञानं भवन्तः क र्म न कु र्वन्ति ] जो कि स्वयं निरन्तर ज्ञानरूप होते हुए – परिणमते हुए क र्म नहीं करते [च ] और [जातु प्रमादस्य वशं न यान्ति ] क भी भी प्रमादवश भी नहीं होते ( – स्वरूपमें उद्यमी रहते हैं) ।
भावार्थ : — यहाँ सर्वथा एकान्त अभिप्रायका निषेध किया है, क्योंकि सर्वथा एकान्त अभिप्राय ही मिथ्यात्व है ।
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मूलोन्मूलं सकलमपि तत्कर्म कृत्वा बलेन ।
ज्ञानज्योतिः कवलिततमः प्रोज्जजृम्भे भरेण ।।११२।।
कितने ही लोग परमार्थभूत ज्ञानस्वरूप आत्माको तो जानते नहीं और व्यवहार दर्शन- चरित्ररूप क्रियाकांडके आडम्बरको मोक्षका कारण जानकर उसमें तत्पर रहते हैं — उसका पक्षपात करते हैं । ऐसे कर्मनयके पक्षपाती लोग — जो कि ज्ञानको तो नहीं जानते और कर्मनयमें ही खेदखिन्न हैं वे — संसारमें डूबते हैं ।
और कितने ही लोग आत्मस्वरूपको यथार्थ नहीं जानते तथा सर्वथा एकान्तवादी मिथ्यादृष्टियोंके उपदेशसे अथवा अपने आप ही अन्तरंगमें ज्ञानका स्वरूप मिथ्या प्रकारसे कल्पित करके उसमें पक्षपात करते हैं । वे अपनी परिणतिमें किंचित्मात्र भी परिवर्तन हुए बिना अपनेको सर्वथा अबन्ध मानते हैं और व्यवहार दर्शनचारित्रके क्रियाकाण्डको निरर्थक जानकर छोड़ देते हैं । ऐसे ज्ञाननयके पक्षपाती लोग जो कि स्वरूपका कोई पुरुषार्थ नहीं करते और शुभ परिणामोंको छोड़कर स्वच्छंदी होकर विषय-कषायमें वर्तते हैं वे भी संसारसमुद्रमें डूबते हैं ।
मोक्षमार्गी जीव ज्ञानरूप परिणमित होते हुए शुभाशुभ कर्मको हेय जानते हैं और शुद्ध परिणतिको ही उपादेय जानते हैं । वे मात्र अशुभ कर्मको ही नहीं, किन्तु शुभ कर्मको भी छोड़कर, स्वरूपमें स्थिर होनेके लिये निरन्तर उद्यमी रहते हैं — वे सम्पूर्ण स्वरूपस्थिरता होने तक उसका पुरुषार्थ करते ही रहते हैं । जब तक, पुरुषार्थकी अपूर्णताके कारण, शुभाशुभ परिणामोंसे छूटकर स्वरूपमें सम्पूर्णतया स्थिर नहीं हुआ जा सकता तब तक – यद्यपि स्वरूपस्थिरताका आन्तरिक-आलम्बन (अन्तःसाधन) तो शुद्ध परिणति स्वयं ही है तथापि — आन्तरिकआलम्बन लेनेवालेको जो बाह्य आलम्बनरूप कहे जाते हैं ऐसे (शुद्ध स्वरूपके विचार आदि) शुभ परिणामोंमें वे जीव हेयबुद्धिसे प्रवर्तते हैं, किन्तु शुभ कर्मोंको निरर्थक मानकर तथा छोड़कर स्वच्छन्दतया अशुभ कर्मोंमें प्रवृत्त होनेकी बुद्धि उन्हें कभी नहीं होती । ऐसे एकान्त अभिप्राय रहित जीव कर्मका नाश करके, संसारसे निवृत्त होते हैं ।१११।
श्लोकार्थ : — [पीतमोहं ] मोहरूपी मदिराके पीनेसे [भ्रम-रस-भरात् भेदोन्मादं नाटयत् ] भ्रमरसके भारसे (अतिशयपनेसे) शुभाशुभ क र्मके भेदरूपी उन्मादको जो नचाता है [तत् सक लम् अपि क र्म ] ऐसे समस्त क र्मको [बलेन ] अपने बल द्वारा [मूलोन्मूलं कृत्वा ] समूल उखाड़कर
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इति श्रीमदमृतचन्द्रसूरिविरचितायां समयसारव्याख्यायामात्मख्यातौ पुण्यपापप्ररूपकः तृतीयोऽङ्कः ।। [ज्ञानज्योतिः भरेण प्रोज्जजृम्भे ] ज्ञानज्योति अत्यन्त सामर्थ्य सहित प्रगट हुई । वह ज्ञानज्योति ऐसी है कि [क वलिततमः ] जिसने अज्ञानरूपी अंधकारका ग्रास क र लिया है अर्थात् जिसने अज्ञानरूप अंधकारका नाश क र दिया है, [हेला-उन्मिलत् ] जो लीलामात्रसे ( – सहज पुरुषार्थसे) विक सित होती जाती है और [परमक लया सार्धम् आरब्धकेलि ] जिसने परम क ला अर्थात् केवलज्ञानके साथ क्रीड़ा प्रारम्भ की है (जब तक सम्यग्दृष्टि छद्मस्थ है तब तक ज्ञानज्योति के वलज्ञानके साथ शुद्धनयके बलसे परोक्ष क्रीड़ा क रती है, के वलज्ञान होने पर साक्षात् होती है ।)
भावार्थ : — आपको (ज्ञानज्योतिको) प्रतिबन्धक कर्म जो कि शुभाशुभ भेदरूप होकर नाचता था और ज्ञानको भुला देता था उसे अपनी शक्तिसे उखाड़कर ज्ञानज्योति सम्पूर्ण सामर्थ्य सहित प्रकाशित हुई । वह ज्ञानज्योति अथवा ज्ञानकला केवलज्ञानरूप परमकलाका अंश है तथा केवलज्ञानके सम्पूर्ण स्वरूपको वह जानती है और उस ओर प्रगति करती है, इसलिये यह कहा है कि ‘ज्ञानज्योतिने केवलज्ञानके साथ क्रीड़ा प्रारंभ की है’ । ज्ञानकला सहजरूपसे विकासको प्राप्त होती जाती है और अन्तमें परमकला अर्थात् केवलज्ञान हो जाती है ।११२।
टीका : — पुण्य-पापरूपसे दो पात्रोंके रूपमें नाचनेवाला कर्म एक पात्ररूप होकर (रंगभूमिमेंसे) बाहर निकल गया ।
भावार्थ : — यद्यपि कर्म सामान्यतया एक ही है तथापि उसने पुण्य-पापरूप दो पात्रोंका स्वांग धारण करके रंगभूमिमें प्रवेश किया था । जब उसे ज्ञानने यथार्थतया एक जान लिया तब वह एक पात्ररूप होकर रंगभूमिसे बाहर निकल गया, और नृत्य करना बन्द कर दिया ।
पुण्य रु पाप शुभाशुभभावनि बन्ध भये सुखदुःखकरा रे ।
बन्धके कारण हैं दोऊ रूप, इन्हें तजि जिनमुनि मोक्ष पधारे ।।
इसप्रकार श्री समयसारकी (श्रीमद्भगवत्कुन्दकुन्दाचार्यदेवप्रणीत श्री समयसार परमागमकी) श्रीमद् अमृतचन्द्राचार्यदेवविरचित आत्मख्याति नामक टीकामें पुण्य-पापका प्ररूपक तीसरा अङ्क समाप्त हुआ ।
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समररंगपरागतमास्रवम् ।
जयति दुर्जयबोधधनुर्धरः ।।११३।।
है । उस स्वाँगको यथार्थतया जाननेवाला सम्यग्ज्ञान है; उसकी महिमारूप मंगल करते हैं : —
श्लोकार्थ : — [अथ ] अब [समररंगपरागतम् ] समरांगणमें आये हुए, [महामदनिर्भरमन्थरं ] महामदसे भरे हुए मदोन्मत्त [आस्रवम् ] आस्रवको [अयम् दुर्जयबोधधनुर्धरः ] यह दुर्जय ज्ञान-धनुर्धर [जयति ] जीत लेता है — [उदारगभीरमहोदयः ] कि जिस ज्ञानरूप बाणावलीका महान् उदय उदार है (अर्थात् आस्रवको जीतनेके लिये जितना पुरुषार्थ चाहिए उतना वह पूरा करता हैै) और गंभीर है (अर्थात् छद्मस्थ जीव जिसका पार नहीं पा सक ते) ।
भावार्थ : — यहाँ आस्रवने नृत्यमंच पर प्रवेश किया है । नृत्यमें अनेक रसोंका वर्णन होता है, इसलिये यहाँ रसवत् अलंकारके द्वारा शान्तरसमें वीररसको प्रधान करके वर्णन किया है कि ‘ज्ञानरूप धनुर्धर आस्रवको जीतता है’ । समस्त विश्वको जीतकर मदोन्मत हुआ आस्रव संग्रामभूमिमें आकर खड़ा हो गया; किन्तु ज्ञान तो उससे अधिक बलवान योद्धा है, इसलिये वह आस्रवको जीत लेता है अर्थात् अन्तर्मुहूर्तमें कर्मोंका नाश करके केवलज्ञान उत्पन्न करता है । ज्ञानका ऐसा सामर्थ्य है ।११३।
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गाथार्थ : — [मिथ्यात्वम् ] मिथ्यात्व, [अविरमणं ] अविरमण, [क षाययोगौ च ] क षाय और योग — यह आस्रव [संज्ञासंज्ञाः तु ] संज्ञ (चेतनके विकार) भी है और असंज्ञ (पुद्गलके विकार) भी हैं । [बहुविधभेदाः ] विविध भेदवाले संज्ञ आस्रव — [जीवे ] जो कि जीवमें उत्पन्न होते हैं वेे — [तस्य एव ] जीवके ही [अनन्यपरिणामाः ] अनन्य परिणाम हैं । [ते तु ] और असंज्ञ आस्रव [ज्ञानावरणाद्यस्य क र्मणः ] ज्ञानावरणादि क र्मके [कारणं ] कारण (निमित्त) [भवन्ति ] होते हैं [च ] और [तेषाम् अपि ] उनका भी (असंज्ञ आस्रवोंके भी क र्मबंधका निमित्त होनेमें) [रागद्वेषादिभावक रः जीवः ] रागद्वेषादि भाव क रनेवाला जीव [भवति ] कारण (निमित्त) होता है ।
टीका : — इस जीवमें राग, द्वेष और मोह — यह आस्रव अपने परिणामके निमित्तसे (कारणसे) होते हैं, इसलिये वे जड़ न होनेसे चिदाभास हैं ( – अर्थात् जिसमें चैतन्यका आभास है ऐसे हैं, चिद्विकार हैं) ।
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मिथ्यात्वाविरतिकषाययोगाः पुद्गलपरिणामाः, ज्ञानावरणादिपुद्गलकर्मास्रवणनिमित्तत्वात्, किलास्रवाः । तेषां तु तदास्रवणनिमित्तम्त्वनिमित्तम् अज्ञानमया आत्मपरिणामा रागद्वेषमोहाः । तत आस्रवणनिमित्तत्वनिमित्तत्वात् रागद्वेषमोहा एवास्रवाः । ते चाज्ञानिन एव भवन्तीति अर्थादेवापद्यते ।
मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग — यह पुद्गलपरिणाम, ज्ञानावरणादि पुद्गलकर्मके आस्रवणके निमित्त होनेसे, वास्तवमें आस्रव हैं; और उनके (मिथ्यात्वादि पुद्गलपरिणामोंके) कर्म- आस्रवणके निमित्तत्वके निमित्त रागद्वेषमोह हैं — जो कि अज्ञानमय आत्मपरिणाम हैं । इसलिये (मिथ्यात्वादि पुद्गलपरिणामोंके) आस्रवणके निमित्तत्वके निमित्तभूत होनेसे राग-द्वेष-मोह ही आस्रव हैं । और वे ( – रागद्वेषमोह) तो अज्ञानीके ही होते हैं यह अर्थमेंसे ही स्पष्ट ज्ञात होता है । (यद्यपि गाथामें यह स्पष्ट शब्दोंमें नहीं कहा है तथापि गाथाके ही अर्थमेंसे यह आशय निकलता है ।)
भावार्थ : — ज्ञानावरणादि कर्मोंके आस्रवणका ( – आगमनका) कारण (निमित्त) तो मिथ्यात्वादिकर्मके उदयरूप पुद्गल-परिणाम हैं, इसलिये वे वास्तवमें आस्रव हैं । और उनके कर्मास्रवके निमित्तभूत होनेका निमित्त जीवके रागद्वेषमोहरूप (अज्ञानमय) परिणाम हैं, इसलिये रागद्वेषमोह ही आस्रव हैं । उन रागद्वेषमोहको चिद्विकार भी कहा जाता है । वे रागद्वेषमोह जीवकी अज्ञान-अवस्थामें ही होते हैं । मिथ्यात्व सहित ज्ञान ही अज्ञान कहलाता है । इसलिये मिथ्यादृष्टिके अर्थात् अज्ञानीके ही रागद्वेषमोहरूप आस्रव होते हैं ।।१६४-१६५।।
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यतो हि ज्ञानिनो ज्ञानमयैर्भावैरज्ञानमया भावाः परस्परविरोधिनोऽवश्यमेव निरुध्यन्ते; ततोऽज्ञानमयानां भावानाम् रागद्वेषमोहानां आस्रवभूतानां निरोधात् ज्ञानिनो भवत्येव आस्रवनिरोधः । अतो ज्ञानी नास्रवनिमित्तानि पुद्गलकर्माणि बघ्नाति, नित्यमेवाकर्तृत्वात् तानि नवानि न बध्नन् सदवस्थानि पूर्वबद्धानि ज्ञानस्वभावत्वात् केवलमेव जानाति । ऐसा बन्ध [नास्ति ] नहीं है, [आस्रवनिरोधः ] (क्योंकि) आस्रवका (भावास्रवका) निरोध है; [तानि ] नवीन क र्मोंको [अबध्नन् ] नहीं बाँधता [सः ] वह, [सन्ति ] सत्तामें रहे हुए [पूर्वनिबद्धानि ] पूर्वबद्ध कर्मोंको [जानाति ] जानता ही है ।
टीका : — वास्तवमें ज्ञानीके ज्ञानमय भावोंसे अज्ञानमय भाव अवश्य ही निरुद्ध – अभावरूप होते हैं, क्योंकि परस्पर विरोधी भाव एकसाथ नहीं रह सकते; इसलिये अज्ञानमय भावरूप राग-द्वेष-मोह जो कि आस्रवभूत (आस्रवस्वरूप) हैं उनका निरोध होनेसे, ज्ञानीके आस्रवका निरोध होता ही है । इसलिये ज्ञानी, आस्रव जिनका निमित्त है ऐसे (ज्ञानावरणादि) पुद्गलकर्मोंको नहीं बाँधता, — सदा अकर्तृत्व होनेसे नवीन कर्मोंको न बाँधता हुआ सत्तामें रहे हुए पूर्वबद्ध कर्मोंको, स्वयं ज्ञानस्वभाववान् होनेसे, मात्र जानता ही है । (ज्ञानीका ज्ञान ही स्वभाव है, कर्तृत्व नहीं; यदि कर्तृत्व हो तो कर्मको बाँधे, ज्ञातृत्व होनेसे कर्मबन्ध नहीं करता ।)
भावार्थ : — ज्ञानीके अज्ञानमय भाव नहीं होते, और अज्ञानमय भाव न होनेसे (अज्ञानमय) रागद्वेषमोह अर्थात् आस्रव नहीं होते और आस्रव न होनेसे नवीन बन्ध नहीं होता । इसप्रकार ज्ञानी सदा ही अकर्ता होनेसे नवीन कर्म नहीं बाँधता और जो पूर्वबद्ध कर्म सत्तामें विद्यमान हैं उनका मात्र ज्ञाता ही रहता है ।
अविरतसम्यग्दृष्टिके भी अज्ञानमय रागद्वेषमोह नहीं होता । जो मिथ्यात्व सहित रागादि होता है वही अज्ञानके पक्षमें माना जाता है, सम्यक्त्व सहित रागादिक अज्ञानके पक्षमें नहीं है । सम्यग्दृष्टिके सदा ज्ञानमय परिणमन ही होता है । उसको चारित्रमोहके उदयकी बलवत्तासे जो रागादि होते हैं उसका स्वामित्व उसके नहीं है; वह रागादिको रोग समान जानकर प्रवर्तता है और अपनी शक्तिके अनुसार उन्हें काटता जाता है । इसलिये ज्ञानीके जो रागादि होते हैं वह विद्यमान होने पर भी अविद्यमान जैसे ही हैं; वह आगामी सामान्य संसारका बन्ध नहीं करता, मात्र अल्प स्थिति-अनुभागवाला बन्ध करता है । ऐसे अल्प बन्धको यहाँ नहीं गिना है ।।१६६।।
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इह खलु रागद्वेषमोहसम्पर्कजोऽज्ञानमय एव भावः, अयस्कान्तोपलसम्पर्कज इव कालायससूचीं, कर्म कर्तुमात्मानं चोदयति; तद्विवेकजस्तु ज्ञानमयः, अयस्कान्तोपलविवेकज इव कालायससूचीं, अकर्मकरणोत्सुकमात्मानं स्वभावेनैव स्थापयति । ततो रागादिसंकीर्णोऽज्ञानमय एव कर्तृत्वे चोदकत्वाद्बन्धकः । तदसंकीर्णस्तु स्वभावोद्भासकत्वात्केवलं ज्ञायक एव, न मनागपि बन्धकः ।
गाथार्थ : — [जीवेन कृतः ] जीवकृत [रागादियुतः ] रागादियुक्त [भावः तु ] भाव [बन्धक : भणितः ] बन्धक (नवीन क र्मोंका बन्ध क रनेवाला) क हा गया है । [रागादिविप्रमुक्तः ] रागादिसे विमुक्त भाव [अबन्धक : ] बंधक नहीं है, [केवलम् ज्ञायक : ] वह मात्र ज्ञायक ही है ।
टीका : — जैसे लोहचुम्बक-पाषाणके साथ संसर्गसे (लोहेकी सुईमें) उत्पन्न हुआ भाव लोहेकी सुईको (गति करनेके लिये) प्रेरित करता है उसीप्रकार रागद्वेषमोहके साथ मिश्रित होनेसे (आत्मामें) उत्पन्न हुआ अज्ञानमय भाव ही आत्माको कर्म करनेके लिये प्रेरित करता है, और जैसे लोहचुम्बक-पाषाणके साथ असंसर्गसे (सुईमें) उत्पन्न हुआ भाव लोहेकी सुईको (गति न करनेरूप) स्वभावमें ही स्थापित करता है उसीप्रकार रागद्वेषमोहके साथ मिश्रित नहीं होनेसे (आत्मामें) उत्पन्न हुआ ज्ञानमय भाव, जिसे कर्म करनेकी उत्सुकता नहीं है (अर्थात् कर्म करनेका जिसका स्वभाव नहीं है) ऐसे आत्माको स्वभावमें ही स्थापित करता है; इसलिये रागादिके साथ मिश्रित अज्ञानमय भाव ही कर्तृत्वमें प्रेरित करता है अतः वह बन्धक है और रागादिके साथ अमिश्रित भाव स्वभावका प्रकाशक होनेसे मात्र ज्ञायक ही है, किंचित्मात्र भी बन्धक नहीं है
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यथा खलु पक्वं फलं वृन्तात्सकृद्विश्लिष्टं सत् न पुनर्वृन्तसम्बन्धमुपैति, तथा क र्मोदयजो भावो जीवभावात्सकृ द्विश्लिष्टः सन् न पुनर्जीवभावमुपैति । एवं ज्ञानमयो रागाद्यसंकीर्णो भावः सम्भवति । साथ अमिश्रित ज्ञानमय भाव बन्धका कर्ता नहीं है, — यह नियम है ।।१६७।।
गाथार्थ : — [यथा ] जैसे [पक्वे फले ] पके हुए फलके [पतिते ] गिरने पर [पुनः ] फि रसे [फलं ] वह फल [वृन्तैः ] उस डण्ठलके साथ [न बध्यते ] नहीं जुड़ता, उसीप्रकार [जीवस्य ] जीवके [क र्मभावे ] क र्मभाव [पतिते ] खिर जाने पर वह [पुनः ] फि रसे [उदयम् न उपैति ] उत्पन्न नहीं होता (अर्थात् वह कर्मभाव जीवके साथ पुनः नहीं जुड़ता) ।
टीका : — जैसे पका हुआ फल एक बार डण्ठलसे गिर जाने पर फि र वह उसके साथ सम्बन्धको प्राप्त नहीं होता, इसीप्रकार कर्मोदयसे उत्पन्न होनेवाला भाव जीवभावसे एक बार अलग होने पर फि र जीवभावको प्राप्त नहीं होता । इसप्रकार रागादिके साथ न मिला हुआ ज्ञानमय भाव उत्पन्न होता है ।
भावार्थ : — यदि ज्ञान एक बार (अप्रतिपाती भावसे) रागादिकसे भिन्न परिणमित हो तो वह पुनः कभी भी रागादिके साथ मिश्रित नहीं होता । इसप्रकार उत्पन्न हुआ, रागादिके साथ न मिला हुआ ज्ञानमय भाव सदा रहता है । फि र जीव अस्थिरतारूपसे रागादिमें युक्त होता है वह निश्चयदृष्टिसे युक्तता है ही नहीं और उसके जो अल्प बन्ध होता है वह भी निश्चयदृष्टिसे बन्ध है ही नहीं; क्योंकि अबद्धस्पृष्टरूपसे परिणमन निरन्तर वर्तता ही रहता है । तथा उसे मिथ्यात्वके साथ रहनेवाली प्रकृतियोंका बन्ध नहीं होता और अन्य प्रकृतियाँ सामान्य संसारका कारण नहीं है; मूलसे
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जीवस्य स्याद् ज्ञाननिर्वृत्त एव ।
एषोऽभावः सर्वभावास्रवाणाम् ।।११४।।
कटे हुए वृक्षके हरे पत्तोंके समान वे प्रकृतियाँ शीघ्र ही सूखने योग्य हैं ।।१६८।।
अब, ‘ज्ञानमय भाव ही भावास्रवका अभाव है’ इस अर्थका कलशरूप काव्य कहते हैं : —
श्लोकार्थ : — [जीवस्य ] जीवका [यः ] जो [रागद्वेषमोहैः बिना ] रागद्वेषमोह रहित, [ज्ञाननिर्वृत्तः एव भावः ] ज्ञानसे ही रचित भाव [स्यात् ] है और [सर्वान् द्रव्यक र्मास्रव-ओघान् रुन्धन् ] जो सर्व द्रड्डव्यक र्मके आस्रव-समूहको (-अर्थात् थोकबन्ध द्रव्यक र्मके प्रवाहको) रोक नेवाला है, [एषः सर्व-भावास्रवाणाम् अभावः ] वह (ज्ञानमय) भाव सर्व भावास्रवके अभावस्वरूप है ।
भावार्थ : — मिथ्यात्व रहित भाव ज्ञानमय है । वह ज्ञानमय भाव रागद्वेषमोह रहित है और द्रव्यकर्मके प्रवाहको रोकनेवाला है; इसलिये वह भाव ही भावास्रवके अभावस्वरूप है ।
संसारका कारण मिथ्यात्व ही है; इसलिये मिथ्यात्वसंबंधी रागादिका अभाव होने पर, सर्व भावास्रवोंका अभाव हो जाता है यह यहाँ कहा गया है ।।११४।।