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व्यवस्थापयितुं शक्येत, जानत्तायाः क्रुध्यत्तादेश्च स्वभावभेदेनोद्भासमानत्वात् स्वभावभेदाच्च वस्तुभेद
एव इति नास्ति ज्ञानाज्ञानयोराधाराधेयत्वम्
भिन्नाधिकरणापेक्षा प्रभवति
क्रोधादिक्रिया है उसीप्रकार (क्रोधादिका स्वरूप) जाननक्रिया भी हो ऐसा किसी भी प्रकारसे
स्थापित नहीं किया जा सकता; क्योंकि जाननक्रिया और क्रोधादिक्रिया भिन्न-भिन्न स्वभावसे
प्रकाशित होती हैं और इस भाँति स्वभावोंके भिन्न होनेसे वस्तुएँ भिन्न ही हैं
आरोपित करनेका निरोध होनेसे (अर्थात् अन्य द्रव्योंमें स्थापित करना अशक्य होनेसे) बुद्धिमें भिन्न
आधारकी अपेक्षा
पर-आधाराधेयत्व भासित नहीं होता
निरोध ही होनेसे बुद्धिमें भिन्न आधारकी अपेक्षा प्रभवित नहीं होती; और उसके प्रभवित नहीं होनेसे,
‘एक ज्ञान ही एक ज्ञानमें ही प्रतिष्ठित है’ यह भलीभाँति समझ लिया जाता है और इसलिये ऐसा
समझ लेनेवालेको पर-आधाराधेयत्व भासित नहीं होता
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रन्तर्दारुणदारणेन परितो ज्ञानस्य रागस्य च
शुद्धज्ञानघनौघमेकमधुना सन्तो द्वितीयच्युताः
कृत्वा ] सभी ओरसे विभाग क रके (
शुद्ध-ज्ञानघन-ओघम् अध्यासिताः ] एक शुद्धविज्ञानघनके पुञ्जमें स्थित और [द्वितीय-च्युताः ]
अन्यसे अर्थात् रागसे रहित [सन्तः ] हे सत्पुरुषों ! [मोदध्वम् ] मुदित होओ
दोनों एकरूप
ही है, ज्ञानमें जो रागादिकी कलुषता
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ज्ञान केवल ज्ञानरूप ही रहता हुआ किंचित्मात्र भी रागद्वेषमोहरूप भावको नहीं करता; इसलिये
(यह सिद्ध हुआ कि) भेदविज्ञानसे शुद्ध आत्माकी उपलब्धि (अनुभव) होती है और शुद्ध
आत्माकी उपलब्धिसे रागद्वेषमोहका (आस्रवभावका) अभाव जिसका लक्षण है ऐसा संवर
होता है
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ज्ञानत्वमपोहति, कारणसहस्रेणापि स्वभावस्यापोढुमशक्यत्वात्; तदपोहे तन्मात्रस्य वस्तुन
एवोच्छेदात्; न चास्ति वस्तूच्छेदः, सतो नाशासम्भवात्
मन्यमानो रज्यते द्वेष्टि मुह्यति च, न जातु शुद्धमात्मानमुपलभते
इसीप्रकार [ज्ञानी ] ज्ञानी [क र्मोदयतप्तः तु ] क र्मके उदयसे तप्त होता हुआ भी [ज्ञानित्वम् ]
ज्ञानित्वको [न जहाति ] नहीं छोड़ता
आत्माके स्वभावको [अजानन् ] न जानता हुआ [रागम् एव ] रागको ही [आत्मानम् ] आत्मा
[मनुते ] मानता है
जाय तो भी) ज्ञान ज्ञानत्वको नहीं छोड़ता, क्योंकि हजार कारणोंके एकत्रित होने पर भी स्वभावको
छोड़ना अशक्य है; उसे छोड़ देने पर स्वभावमात्र वस्तुका ही उच्छेद हो जायेगा, और वस्तुका
उच्छेद तो होता नहीं है, क्योंकि सत्का नाश होना असम्भव है
जानता हुआ, रागको ही आत्मा मानता हुआ, रागी होता है, द्वेषी होता है, मोही होता है, किन्तु
शुद्ध आत्माका किंचित्मात्र भी अनुभव नहीं करता
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निरोधाच्छुद्धमेवात्मानं प्राप्नोति; यस्तु नित्यमेवाज्ञानेनाशुद्धमात्मानमुपलभमानोऽवतिष्ठते
रागी, द्वेषी, मोही होता है, किन्तु कभी भी शुद्ध आत्माका अनुभव नहीं करता
[अशुद्धम् ] अशुद्ध [आत्मानं ] आत्माको [जानन् ] जानता हुआ
निमित्त जो रागद्वेषमोहकी संतति (परम्परा) उसका निरोध होनेसे, शुद्ध आत्माको ही प्राप्त करता
है; और जो सदा ही अज्ञानसे अशुद्ध आत्माका अनुभव किया करता है वह, ‘अज्ञानमय भावमेंसे
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मोहसन्तानस्यानिरोधादशुद्धमेवात्मानं प्राप्नोति
ध्रुवमुपलभमानः शुद्धमात्मानमास्ते
परपरिणतिरोधाच्छुद्धमेवाभ्युपैति
संतति उसका निरोध न होनेसे, अशुद्ध आत्माको ही प्राप्त करता है
और जो जीव अज्ञानसे आत्माका अशुद्ध अनुभव करता है उसके रागद्वेषमोहरूप भावास्रव नहीं
रुकते, इसलिये वह अशुद्ध आत्माको ही प्राप्त करता है
आस्ते ] निश्चलतया अनुभव किया क रे [तत् ] तो [अयम् आत्मा ] यह आत्मा, [उदयत्-आत्म-
आरामम् आत्मानम् ] जिसका आत्मानंद प्रगट होता जाता है (अर्थात् जिसकी आत्मस्थिरता बढ़ती
जाती है) ऐसे आत्माको [पर-परिणति-रोधात् ] परपरिणतिके निरोधसे [शुद्धम् एव अभ्युपैति ]
शुद्ध ही प्राप्त क रता है
जहाँ तक उपयोग एक ज्ञेयमें उपयुक्त रहता है वहाँ तक धारावाही ज्ञान कहलाता है; इसकी स्थिति
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होगी, क्योंकि उसका उपयोग शुद्ध आत्मामें ही उपयुक्त है
हुआ [च ] और [अन्यस्मिन् ] अन्य (वस्तु)की [इच्छाविरतः ] इच्छासे विरत होता हुआ, [यः
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समस्तसंगविमुक्तो भूत्वा नित्यमेवातिनिष्प्रकम्पः सन् मनागपि कर्मनोकर्मणोरसंस्पर्शेन
आत्मीयमात्मानमेवात्मना ध्यायन् स्वयं सहजचेतयितृत्वादेकत्वमेव चेतयते, स खल्वेकत्व-
चेतनेनात्यन्तविविक्तं चैतन्यचमत्कारमात्रमात्मानं ध्यायन् शुद्धदर्शनज्ञानमयमात्मद्रव्यमवाप्तः,
शुद्धात्मोपलम्भे सति समस्तपरद्रव्यमयत्वमतिक्रान्तः सन् अचिरेणैव सकलकर्म-
[आत्मानम् ] (अपने) आत्माको [आत्मना ] आत्माके द्वारा [ध्यायति ] ध्याता है, [क र्म नोक र्म ]
क र्म तथा नोक र्मको [न अपि ] नहीं ध्याता, एवं [चेतयिता ] (स्वयं)
[अनन्यमयः ] अनन्यमय होता हुआ [अचिरेण एव ] अल्प कालमें ही [क र्मप्रविमुक्तम् ] क र्मोंसे
रहित [आत्मानम् ] आत्माको [लभते ] प्राप्त करता है
शुद्धदर्शनज्ञानरूप आत्मद्रव्यमें भली भाँति प्रतिष्ठित (स्थिर) करके, समस्त परद्रव्योंकी इच्छाके
त्यागसे सर्व संगसे रहित होकर, निरन्तर अति निष्कम्प वर्तता हुआ, कर्म-नोकर्मका
किंचित्मात्र भी स्पर्श किये बिना अपने आत्माको ही आत्माके द्वारा ध्याता हुआ, स्वयंको
सहज चेतयितापन होनेसे एकत्वको ही चेतता है (ज्ञानचेतनारूप रहता है), वह जीव
वास्तवमें, एकत्व-चेतन द्वारा अर्थात् एकत्वके अनुभवन द्वारा (परद्रव्यसे) अत्यन्त भिन्न
चैतन्यचमत्कारमात्र आत्माको ध्याता हुआ, शुद्धदर्शनज्ञानमय आत्मद्रव्यको प्राप्त होता हुआ,
शुद्ध आत्माकी उपलब्धि (प्राप्ति) होने पर समस्त परद्रव्यमयतासे अतिक्रान्त होता हुआ, अल्प
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भवति नियतमेषां शुद्धतत्त्वोपलम्भः
भवति सति च तस्मिन्नक्षयः कर्ममोक्षः
शुद्धदर्शनज्ञानमय आत्मस्वरूपमें निश्चल करे तथा समस्त बाह्याभ्यन्तर परिग्रहसे रहित होकर कर्म-
नोकर्मसे भिन्न अपने स्वरूपमें एकाग्र होकर उसीका ही अनुभव किया करे अर्थात् उसीके ध्यानमें
रहे, वह जीव आत्माका ध्यान करनेसे दर्शनज्ञानमय होता हुआ और परद्रव्यमयताका उल्लंघन करता
हुआ अल्प कालमें समस्त कर्मोंसे मुक्त हो जाता है
तत्त्वकी उपलब्धि [भवति ] होती है; [तस्मिन् सति च ] शुद्ध तत्त्वकी उपलब्धि होने पर,
[अचलितम् अखिल-अन्यद्रव्य-दूरे-स्थितानां ] अचलितरूपसे समस्त अन्यद्रव्योंसे दूर वर्तते हुए
ऐसे उनके, [अक्षयः क र्ममोक्षः भवति ] अक्षय क र्ममोक्ष होता है (अर्थात् उनका कर्मोंसे छुटकारा
हो जाता है कि पुनः कभी कर्मबन्ध नहीं होता)
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और अविरतभाव [योगः च ] तथा योग
बिना [क र्मणः अपि ] क र्मका भी [निरोधः ] निरोध [जायते ] होता है, [च ] और [क र्मणः
अभावेन ] क र्मके अभावसे [नोक र्मणाम् अपि ] नोक र्मोंका भी [निरोधः ] निरोध [जायते ]
होता है, [च ] और [नोक र्मनिरोधेन ] नोक र्मके निरोधसे [संसारनिरोधनं ] संसारका निरोध
[भवति ] होता है
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आस्रवभावहेतूनां भवत्यभावः
आस्रवभावके कारण हैं; आस्रवभाव कर्मका कारण है; कर्म-नोकर्मका कारण है; और नोकर्म
संसारका कारण है
है); ततः रागद्वेषमोहरूप आस्रवभावको भाता है, उससे कर्मास्रव होता है; उससे नोकर्म होता है;
और उससे संसार उत्पन्न होता है
है; अध्यवसानोंका अभाव होने पर रागद्वेषमोहरूप आस्रवभावका अभाव होता है; आस्रवभावका
अभाव होने पर कर्मका अभाव होता है; कर्मका अभाव होने पर नोकर्मका अभाव होता है; और
नोकर्मका अभाव होने पर संवरका अभाव होता है
रागद्वेषमोहरूप आस्रवभाव होता है, आस्रवभावसे कर्म बँधता है, कर्मसे शरीरादि नोकर्म उत्पन्न
होता है और नोकर्मसे संसार है
अभावसे रागद्वेषमोहरूप आस्रवका अभाव होता है, आस्रवके अभावसे कर्म नहीं बँधता, कर्मके
अभावसे शरीरादि नोकर्म उत्पन्न नहीं होते और नोकर्मके अभावसे संसारका अभाव होता है
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च्छुद्धात्मतत्त्वस्य किलोपलम्भात्
तद्भेदविज्ञानमतीव भाव्यम्
वह शुद्ध आत्मतत्त्वकी उपलब्धि [भेदविज्ञानतः एव ] भेदविज्ञानसे ही होती है
आस्रवभाव रुकता है और अनुक्रमसे सर्व प्रकारसे संवर होता है
[यावत् ] जब तक [परात् च्युत्वा ] परभावोंसे छूटकर [ज्ञानं ] ज्ञान [ज्ञाने ] ज्ञानमें ही (अपने
स्वरूपमें ही) [प्रतिष्ठते ] स्थिर हो जाये
कहलाता है; दूसरे, जब ज्ञान शुद्धोपयोगरूपसे स्थिर हो जाये और फि र अन्यविकाररूप परिणमित
न हो तब वह ज्ञानमें स्थिर हुआ कहलाता है
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ज्ञानं ज्ञाने नियतमुदितं शाश्वतोद्योतमेतत्
बद्धाः ] वे उसीके (
निषेध हो गया; क्योंकि वस्तुका स्वरूप सर्वथा अद्वैत न होने पर भी जो सर्वथा अद्वैत मानते हैं
उनके किसी भी प्रकारसे भेदविज्ञान कहा ही नहीं जा सकता; जहाँ द्वैत (दो वस्तुएँ) ही नहीं मानते
वहाँ भेदविज्ञान कैसा ? यदि जीव और अजीव
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[रागग्रामप्रलयकरणात् ] राग-समूहका विलय हुआ, राग-समूहके विलय क रनेसे [कर्मणां
संवरेण ] क र्मोंका संवर हुआ और क र्मोंका संवर होनेसे, [ज्ञाने नियतम् एतत् ज्ञानं उदितं ] ज्ञानमें
ही निश्चल हुआ ऐसा यह ज्ञान उदयको प्राप्त हुआ
निर्मल है (अर्थात् रागादिक के कारण मलिनता थी वह अब नहीं है), [अम्लानम् ] जो अम्लान
है (अर्थात् क्षायोपशमिक ज्ञानकी भाँति कुम्हलाया हुआ
[शाश्वत-उद्योतम् ] जिसका उद्योेत शाश्वत है (अर्थात् जिसका प्रकाश अविनश्वर है)
राग-द्वेष-विमोह सबहि गलि जाय, इमै दुठ कर्म रुकाही;
उज्ज्वल ज्ञान प्रकाश करै बहु तोष धरै परमातममाहीं,
यों मुनिराज भली विधि धारत, केवल पाय सुखी शिव जाहीं
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कर्मागामि समस्तमेव भरतो दूरान्निरुन्धन् स्थितः
ज्ञानज्योतिरपावृतं न हि यतो रागादिभिर्मूर्छति
रंगभूमिमें निर्जराका स्वाँग प्रवेश करता है
दूरसे ही [निरुन्धन् स्थितः ] रोक ता हुआ खड़ा है; [तु ] और [प्राग्बद्धं ] पूर्वबद्ध (संवर होनेके
पहेले बँधे हुए) [तत् एव दग्धुम् ] कर्मको जलानेके लिये [अधुना ] अब [निर्जरा व्याजृम्भते ]
निर्जरा (
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पुनः रागादिरूप परिणमित नहीं होता
[करोति ] करता है [तत् सर्वं ] वह सर्व [निर्जरानिमित्तम् ] निर्जराका निमित्त है
है; वही (उपभोग), रागादिभावोंके अभावसे सम्यग्दृष्टिके लिए निर्जराका निमित्त ही होता है
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चारित्रमोहके उदयको या भोगोपभोगसामग्रीको अच्छा नहीं मानता
है
रस देकर खिर जाते हैं, क्योंकि उदयमें आनेके बाद कर्मकी सत्ता रह ही नहीं सकती
हुए) [तत् सुखदुःखम् ] उस सुख-दुःखका [वेदयते ] वेदन करता है
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एव स्यात्; सम्यग्दृष्टेस्तु रागादिभावानामभावेन बन्धनिमित्तमभूत्वा केवलमेव निर्जीर्यमाणो
निर्जीर्णः सन्निर्ज̄रैव स्यात्
सद्भावसे बंधका निमित्त होकर (वह भाव) निर्जराको प्राप्त होता हुआ भी (वास्तवमें) निर्जरित
न होता हुआ, बन्ध ही होता है; किन्तु सम्यग्दृष्टिके, रागादिभावोंके अभावसे बन्धका निमित्त हुए
बिना केवलमात्र निर्जरित होनेसे (वास्तवमें) निर्जरित होता हुआ, निर्जरा ही होती है
भोगते हुए बन्ध ही होता है
भोगनेमें आने पर निर्जरा ही होती है
कोई (सम्यग्दृष्टि जीव) [कर्म भुञ्जानः अपि ] क र्मको भोगता हुआ भी [कर्मभिः न बध्यते ]
क र्मोंसे नहीं बन्धता ! (वह अज्ञानीको आश्चर्य उत्पन्न करता है और ज्ञानी उसे यथार्थ जानता
है
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भुञ्जानोऽपि अमोघज्ञानसामर्थ्यात् रागादिभावानामभावे सति निरुद्धतच्छक्ति त्वान्न बध्यते ज्ञानी
उसप्रकार [ज्ञानी ] ज्ञानी पुरुष [पुद्गलकर्मणः ] पुद्गलकर्मके [उदयं ] उदयको [भुंक्ते ] भोगता
है तथापि [न एव बध्यते ] बन्धता नहीं है
भोगता हुआ भी, अमोघ ज्ञानके सामर्थ्यके द्वारा रागादिभावोंका अभाव होनेसे
उसीप्रकार ज्ञानीके ज्ञानका ऐसा सामर्थ्य है कि वह कर्मोदयकी बन्ध करनेकी शक्तिका अभाव
करता है और ऐसा होनेसे कर्मोदयको भोगते हुए भी ज्ञानीके आगामी कर्मबन्ध नहीं होता
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सन् विषयानुपभुञ्जानोऽपि तीव्रविरागभावसामर्थ्यान्न बध्यते ज्ञानी
स्वं फलं विषयसेवनस्य ना
सेवकोऽपि तदसावसेवकः
इसीप्रकार [ज्ञानी अपि ] ज्ञानी भी [द्रव्योपभोगे ] द्रव्यके उपभोगके प्रति [अरतः ] अरत
(वैराग्यभावसे) वर्तता हुआ [न बध्यते ] (कर्मोंसे) बन्धको प्राप्त नहीं होता
ज्ञानी भी, रागादिभावोंके अभावसे सर्व द्रव्योंके उपभोगके प्रति जिसको तीव्र वैराग्यभाव प्रवर्ता है
ऐसा वर्तता हुआ, विषयोंको भोगता हुआ भी, तीव्र वैराग्यभावके सामर्थ्यके कारण (कर्मोंसे)
बन्धको प्राप्त नहीं होता