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[विषयसेवनस्य स्वं फलं ] विषयसेवनके निजफलको (
विषयसेवनका फल तो रंजित परिणाम है उसे ज्ञानी नहीं भोगता
करनेवाला हैै
भी प्रकरणका स्वामित्व होनेसे प्राकरणिक है, इसीप्रकार सम्यग्दृष्टि पूर्वसंचित कर्मोदयसे प्राप्त हुए
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सेवक एव, मिथ्यादृष्टिस्तु विषयानसेवमानोऽपि रागादिभावानां सद्भावेन विषयसेवनफलस्वामि-
त्वात्सेवक एव
स्वं वस्तुत्वं कलयितुमयं स्वान्यरूपाप्तिमुक्त्या
स्वस्मिन्नास्ते विरमति परात्सर्वतो रागयोगात्
न होनेसे असेवक ही है (सेवन करनेवाला नहीं है) और मिथ्यादृष्टि विषयोंका सेवन न करता
हुआ भी रागादिभावोंके सद्भावके कारण विषयसेवनके फलका स्वामित्व होनेसे सेवन करनेवाला
ही है
नहीं है; वह तो मात्र नौकर है, सेठके द्वारा कराये गये सब कामकाजको करता है
उसके हानि-लाभका स्वामी होनेसे वही व्यापारी (सेठ) है
मिथ्यादृष्टि विषय सेवन करनेवाला है
[स्व-अन्य-रूप-आप्ति-मुक्त्या ] स्वरूपका ग्रहण और परका त्याग करनेकी विधिके द्वारा
[स्वं वस्तुत्वं कलयितुम् ] अपने वस्तुत्वका (यथार्थ स्वरूपका) अभ्यास करनेके लिये, [इदं
स्वं च परं ] ‘यह स्व है (अर्थात् आत्मस्वरूप है) और यह पर है’ [व्यतिकरम् ] इस
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[परात् रागयोगात् ] परसे
मेरे स्वभाव [न तु ] नहीं है; [अहम् तु ] मैं तोे [एकः ] एक [ज्ञायकभावः ] ज्ञायकभाव
हूँ
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भाव [न तु ] नहीं है; [अहम् ] मैंं तो [खलु ] निश्चयसे [एकः ] एक [ज्ञायकभावः ]
ज्ञायकभाव हूँ
एक ज्ञायकभाव हूँ
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तत्त्वको अर्थात् यथार्थ स्वरूपको [विजानन् ] जानता हुआ [कर्मविपाकं ] कर्मके विपाकरूप
[उदयं ] उदयको [मुञ्चति ] छोड़ता है
ऐसा जो आत्माका तत्त्व उसको (भलीभाँति) जानता है; और इसप्रकार तत्त्वको जानता हुआ,
स्वभावके ग्रहण और परभावके त्यागसे निष्पन्न होने योग्य अपने वस्तुत्वको विस्तरित (
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दित्युत्तानोत्पुलकवदना रागिणोऽप्याचरन्तु
कहा है)’’ [इति ] ऐसा मानकर [उत्तान-उत्पुलक-वदनाः ] जिसका मुख गर्वसे ऊँ चा और
पुलकित हो रहा है ऐसे [रागिणः ] रागी जीव (
पापी (मिथ्यादृष्टि) ही हैं, [यतः ] क्योंकि वे [आत्म-अनात्म-अवगम-विरहात् ] आत्मा और
अनात्माके ज्ञानसे रहित होनेसे [सम्यक्त्व-रिक्ताः सन्ति ] सम्यक्त्वसे रहित है
स्व-परका ज्ञान न होनेसे वह पापी ही है
चारित्रमोहके रागसे बन्ध तो होता ही है और जब तक राग रहता है तब तक सम्यग्दृष्टि तो अपनी
निंदा-गर्हा करता ही रहता है
पाप ही कहा जाता है
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आत्मानात्मावगमविरहात्सन्ति सम्यक्त्वरिक्ताः
ज्ञानश्रद्धान नहीं है
परद्रव्यकी क्रियासे और परद्रव्यके निमित्तसे होनेवाले अपने शुभ भावोंसे अपनी मुक्ति मानता है
और पर जीवोंका घात होना तथा अयत्नाचाररूपसे प्रवृत्त करना इत्यादि परद्रव्यकी क्रियासे और
परद्रव्यके निमित्तसे होनेवाले अपने अशुभ भावोंसे ही अपना बन्ध होना मानता है तब तक यह
जानना चाहिए कि उसे स्व-परका ज्ञान नहीं हुआ; क्योंकि बन्ध-मोक्ष अपने अशुद्ध तथा शुद्ध
भावोंसे ही होता था, शुभाशुभ भाव तो बन्धके कारण थे और परद्रव्य तो निमित्तमात्र ही था, उसमें
उसने विपर्ययरूप मान लिया
सम्बन्धमें यह मानता है कि
प्रति राग कैसा ? वह उसे मिटानेका ही उपाय करता है और उसका मिटना भी अपने ही
ज्ञानपरिणामरूप परिणमनसे मानता है
ज्ञानवैराग्यशक्ति अवश्य होती ही है
है
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जानाति ] नहीं जानता; [च ] और [आत्मानम् ] आत्माको [अजानन् ] न जानता हुआ [सः ] वह
[अनात्मानं अपि ] अनात्माको (परको) भी [अजानन् ] नहीं जानता; [जीवाजीवौ ] इसप्रकार जो
जीव और अजीवको [अजानन् ] नहीं जानता वह [सम्यग्दृष्टिः ] सम्यग्दृष्टि [कथं भवति ] कैसे
हो सकता है ?
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जो आत्माको नहीं जानता वह अनात्माको भी नहीं जानता, क्योंकि स्वरूपसे सत्ता और पररूपसे
असत्ता
नहीं जानता वह सम्यग्दृष्टि ही नहीं है, इसलिये रागी (जीव) ज्ञानके अभावके कारण सम्यग्दृष्टि
नहीं होता
उदयका राग नहीं लेना चाहिये; क्योंकि अविरतसम्यग्दृष्टि इत्यादिको चारित्रमोहके उदय सम्बन्धी
जो राग है सो ज्ञानसहित है; सम्यग्दृष्टि उस रागको कर्मोदयसे उत्पन्न हुआ रोग जानता है और
उसे मिटाना ही चाहता है; उसे उस रागके प्रति राग नहीं है
समझता
मान रक्खा है, तथा उसीसे अपना मोक्ष माना है
नहीं हो सकता
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सुप्ता यस्मिन्नपदमपदं तद्विबुध्यध्वमन्धाः
शुद्धः शुद्धः स्वरसभरतः स्थायिभावत्वमेति
रागिणः ] यह रागी जीव [नित्यमत्ताः ] सदा मत्त वर्तते हुए [यस्मिन् सुप्ताः ] जिस पदमें सो
रहे हैं [तत् ] वह पद अर्थात् स्थान [अपदम् अपदं ] अपद है
[स्थायिभावत्वम् एति ] स्थायीभावत्वको प्राप्त है अर्थात् स्थिर है
अपने भावोंसे रहित होनेसे भावसे शुद्ध है
इसलिये मैं तुझे जो बतलाता हूँ वहाँ आ और वहाँ शयनादि करके आनन्दित हो’’; इसीप्रकार
ये प्राणी अनादि संसारसे लेकर रागादिको भला जानकर, उन्हींको अपना स्वभाव मानकर, उसीमें
निश्चिन्त होकर सो रहे हैं
अन्तरंगमें विकार रहित शुद्ध और स्थाई है; उस पदको प्राप्त हो
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स्थानं भवितुमशक्यत्वात् अपदभूताः
अनुभवगोचर) [भावम् ] भावको
परस्वभावरूप अनुभवमें आते हुए), अनियत अवस्थावाले, अनेक, क्षणिक, व्यभिचारी भाव हैं,
वे सभी स्वयं अस्थाई होनेके कारण स्थाताका स्थान अर्थात् रहनेवालेका स्थान नहीं हो सकने
योग्य होनेसे अपदभूत हैं; और जो तत्स्वभावसे (आत्मस्वभावरूपसे) अनुभवमें आता हुआ, नियत
अवस्थावाला, एक, नित्य, अव्यभिचारी भाव (चैतन्यमात्र ज्ञानभाव) है, वह एक ही स्वयं स्थाई
होनेसे स्थाताका स्थान अर्थात् रहनेवालेका स्थान हो सकने योग्य होनेसे पदभूत है
ही आस्वादने योग्य है
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स्वादं द्वन्द्वमयं विधातुमसहः स्वां वस्तुवृत्तिं विदन्
सामान्यं कलयन् किलैष सकलं ज्ञानं नयत्येकताम्
पद नहीं है
पा सकतीं ) और [यत्पुरः ] जिसके आगे [अन्यानि पदानि ] अन्य (सर्व) पद [अपदानि
एव भासन्ते ] अपद ही भासित होते हैं
हैं
इसलिये) [द्वन्द्वमयं स्वादं विधातुम् असहः ] द्वन्दमय स्वादके लेनेमें असमर्थ (अर्थात् वर्णादिक ,
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विवशः स्वां वस्तुवृत्तिं विदन् ] आत्मानुभवके
भ्रश्यत् ] ज्ञानके विशेषोंके उदयको गौण क रता हुआ, [सामान्यं कलयन् किल ] सामान्यमात्र
ज्ञानका अभ्यास करता हुआ, [सकलं ज्ञानं ] सकल ज्ञानको [एकताम् नयति ]े एकत्वमें लाता
है
बतलाता है, इसलिये शुद्धनयके द्वारा पूर्णरूप केवलज्ञानका परोक्ष स्वाद आता है
कहते हैं :
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प्रकाशस्वभावं भिन्दन्ति, तथा आत्मनः कर्मपटलोदयावगुण्ठितस्य तद्विघटनानुसारेण
प्राकटयमासादयतो ज्ञानातिशयभेदा न तस्य ज्ञानस्वभावं भिन्द्युः, किन्तु प्रत्युत तमभिनन्देयुः
उत्प्लवन्ते, न पुनः कर्म आस्रवति, न पुनः कर्म बध्यते, प्राग्बद्धं कर्म उपभुक्तं निर्जीर्यते,
(
उसके (सूर्यके) प्रकाशनकी (प्रकाश करनेकी) हीनाधिकतारूप भेद उसके (सामान्य)
प्रकाशस्वभावको नहीं भेदते, इसीप्रकार कर्मपटलके उदयसे ढका हुआ आत्मा जो कि कर्मके
विघटन-(क्षयोपशम)के अनुसार प्रगटताको प्राप्त होता है, उसके ज्ञानकी हीनाधिकतारूप भेद
उसके (सामान्य) ज्ञानस्वभावको नहीं भेदते, प्रत्युत (उलटे) उसका अभिनन्दन करते हैं
करना चाहिए
नहीं हो सकता, रागद्वेषमोह उत्पन्न नहीं होते, (रागद्वेषमोहके बिना) पुनः कर्मास्रव नहीं होता,
(आस्रवके बिना) पुनः कर्म-बन्ध नहीं होता, पूर्वबद्ध कर्म भुक्त होकर निर्जराको प्राप्त हो
जाता है, समस्त कर्मका अभाव होनेसे साक्षात् मोक्ष होता है
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निष्पीताखिलभावमण्डलरसप्राग्भारमत्ता इव
वल्गत्युत्कलिकाभिरद्भुतनिधिश्चैतन्यरत्नाकरः
ज्ञानसामान्यका आलम्बन लेकर आत्माको ध्यावना; इसीसे सर्वसिद्धि होती है
अच्छाः संवेदनव्यक्तयः ] जिसकी यह निर्मलसे भी निर्मल संवेदनव्यक्ति
(
चैतन्यरत्नाकर, [अभिन्नरसः ] ज्ञानपर्यायरूप तरंगोंके साथ जिसका रस अभिन्न है ऐसा, [एकः
अपि अनेकीभवन् ] एक होने पर भी अनेक होता हुआ, [उत्कलिकाभिः ] ज्ञानपर्यायरूप तरंगोंके
द्वारा [वल्गति ] दोलायमान होता है
यह ज्ञानसमुद्र आत्मा एक ज्ञानजलसे ही भरा हुआ है और कर्मके निमित्तसे ज्ञानके अनेक भेद
(व्यक्तियें) अपने आप प्रगट होते हैं उन्हें एक ज्ञानरूप ही जानना चाहिये, खण्डखण्डरूपसे
अनुभव नहीं करना चाहिये
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क्लिश्यन्तां च परे महाव्रततपोभारेण भग्नाश्चिरम्
ज्ञानं ज्ञानगुणं विना कथमपि प्राप्तुं क्षमन्ते न हि
क्लेेश पाते हैं तो पाओ [च ] और [परे ] अन्य कोई जीव [महाव्रत-तपः-भारेण ] (मोक्षके
सन्मुख अर्थात् क थंचित् जिनाज्ञामेंं कथित) महाव्रत और तपके भारसे [चिरम् ] बहुत समय
तक [भग्नाः ] भग्न होते हुए [क्लिश्यन्तां ] क्लेश प्राप्त करें तो करोे; (किन्तु) [साक्षात्
मोक्षः ] जो साक्षात् मोक्षस्वरूप है, [निरामयपदं ] निरामय (रोगादि समस्त क्लेशोंसे रहित)
पद है और [स्वयं संवेद्यमानं ] स्वयं संवेद्यमान है ऐसे [इदं ज्ञानं ] इस ज्ञानको [ज्ञानगुणं
विना ] ज्ञानगुणके बिना [कथम् अपि ] किसी भी प्रकारसे [प्राप्तुं न हि क्षमन्ते ] वे प्राप्त नहीं
कर सकते
[तद् ] इसलिये हे भव्य! [यदि ] यदि तू [कर्मपरिमोक्षम् ] कर्मसे सर्वथा मुक्ति [इच्छसि ]
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ज्ञानशून्या नेदमुपलभन्ते, इदमनुपलभमानाश्च कर्मभिर्न मुच्यन्ते
सहजबोधकलासुलभं किल
कलयितुं यततां सततं जगत्
ही ज्ञानकी प्राप्ति होती है
होते; इसलिये कर्मसे मुक्त होनेके इच्छुकको मात्र (एक) ज्ञानके आलम्बनसे, नियत ऐसा यह
एक पद प्राप्त करना चाहिये
पदका
अर्थ भी होता है
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इससे [तृप्तः भव ] तृप्त हो; (ऐसा करनेसे) [तव ] तुझे [उत्तमं सौख्यम् ] उत्तम सुख
[भविष्यति ] होगा
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श्चिन्मात्रचिन्तामणिरेष यस्मात्
ज्ञानी किमन्यस्य परिग्रहेण
चिंतामणि है, इसलिये [सर्व-अर्थ-सिद्ध-आत्मतया ] जिसके सर्व अर्थ (प्रयोजन) सिद्ध हैं
ऐसे स्वरूप होनेसे [ज्ञानी ] ज्ञानी [अन्यस्य परिग्रहेण ] दूसरेके परिग्रहसे [किम् विधत्ते ]
क्या करेगा ? (कुछ भी करनेका नहीं है
प्रयोजन सिद्ध होनेसे उसे अन्य परिग्रहका सेवन करनेसे क्या साध्य है ? अर्थात् कुछ भी
साध्य नहीं है
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[इदं परद्रव्यं ] यह परद्रव्य [मम द्रव्यम् ] मेरा द्रव्य [भवति ] है ?
हुआ परद्रव्यका परिग्रह नहीं करता (अर्थात् परद्रव्यको अपना परिग्रह नहीं करता)