Samaysar (Hindi). Kalash: 153-162 ; Gatha: 228-236.

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यथा पुनः स एव पुरुषो वृत्तिनिमित्तं न सेवते राजानम्
तत्सोऽपि न ददाति राजा विविधान् भोगान् सुखोत्पादकान् ।।२२६।।
एवमेव सम्यग्द्रष्टिः विषयार्थं सेवते न कर्मरजः
तत्तन्न ददाति कर्म विविधान् भोगान् सुखोत्पादकान् ।।२२७।।
यथा कश्चित्पुरुषः फलार्थं राजानं सेवते ततः स राजा तस्य फलं ददाति, तथा जीवः
फलार्थं कर्म सेवते ततस्तत्कर्म तस्य फलं ददाति यथा च स एव पुरुष फलार्थं राजानं न
सेवते ततः स राजा तस्य फलं न ददाति, तथा सम्यग्द्रष्टिः फलार्थं कर्म न सेवते ततस्तत्कर्म
तस्य फलं न ददातीति तात्पर्यम्
राजा अपि ] वह राजा भी उसे [सुखोत्पादकान् ] सुख उत्पन्न क रनेवाले [विविधान् ] अनेक
प्रकारके [भोगान् ] भोग [ददाति ] देता है, [एवम् एव ] इसीप्रकार [जीवपुरुषः ] जीवपुरुष
[सुखनिमित्तम् ] सुखके लिए [कर्मरजः ] क र्मरजकी [सेवते ] सेवा करता है [तद् ] तो [तत्
कर्म अपि ]
वह क र्म भी उसे [सुखोत्पादकान् ] सुख उत्पन्न क रनेवाले [विविधान् ] अनेक
प्रकारके [भोगान् ] भोग [ददाति ] देता है
[पुनः ] और [यथा ] जैसे [सः एव पुरुषः ] वही पुरुष [वृत्तिनिमित्तं ] आजीविकाके
लिये [राजानम् ] राजाकी [न सेवते ] सेवा नहीं करता [तद् ] तो [सः राजा अपि ] वह राजा
भी उसेे [सुखोत्पादकान् ] सुख उत्पन्न क रनेवाले [विविधान् ] अनेक प्रकारके [भोगान् ] भोग
[न ददाति ] नहीं देता, [एवम् एव ] इसीप्रकार [सम्यग्दृ+ष्टिः ] सम्यग्दृष्टि [विषयार्थं ] विषयके
लिये [कर्मरजः ] क र्मरजकी [न सेवते ] सेवा नहीं करता, [तद् ] इसलिये [तत् कर्म ] वह क र्म
भी उसे [सुखोत्पादकान् ] सुख उत्पन्न क रनेवाले [विविधान् ] अनेक प्रकारके [भोगान् ] भोग
[न ददाति ] नहीं देता
टीका :जैसे कोई पुरुष फलके लिये राजाकी सेवा करता है तो वह राजा उसे फल देता
है, इसीप्रकार जीव फलके लिये कर्मकी सेवा करता है तो वह कर्म उसे फल देता है और जैसे वही
पुरुष फलके लिये राजाकी सेवा नहीं करता, तो वह राजा उसे फल नहीं देता, इसी प्रकार सम्यग्दृष्टि
फलके लिये कर्मकी सेवा नहीं करता, इसलिये वह कर्म उसे फल नहीं देता
यह तात्पर्य है
भावार्थ :यहाँ एक आशय तो इसप्रकार है :अज्ञानी विषयसुखके लिये अर्थात्
रंजित परिणामके लिए उदयगत कर्मकी सेवा करता है, इसलिये वह कर्म उसे (वर्तमानमें) रंजित
परिणाम देता है
ज्ञानी विषयसुखके लिए अर्थात् रंजित परिणामके लिए उदयागत कर्मकी सेवा
नहीं करता, इसलिए वह कर्म उसे रंजित परिणाम उत्पन नहीं करता

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(शार्दूलविक्रीडित)
त्यक्तं येन फलं स कर्म कुरुते नेति प्रतीमो वयं
किंत्वस्यापि कुतोऽपि किंचिदपि तत्कर्मावशेनापतेत्
तस्मिन्नापतिते त्वकम्पपरमज्ञानस्वभावे स्थितो
ज्ञानी किं कुरुतेऽथ किं न कुरुते कर्मेति जानाति कः
।।१५३।।
दूसरा आशय इसप्रकार है :अज्ञानी सुख (रागादिपरिणाम) उत्पन्न करनेवाले
आगामी भोगोंकी अभिलाषासे व्रत, तप, इत्यादि शुभ कर्म करता है, इसलिये वह कर्म
उसे रागादिपरिणाम उत्पन्न करनेवाले आगामी भोगोंको देता है
ज्ञानीके सम्बन्धमें इससे
विपरीत समझना चाहिए इसप्रकार अज्ञानी फलकी वाँछासे कर्म करता है, इसलिए वह फलको
पाता है और ज्ञानी फलकी वाँछा बिना ही कर्म करता है, इसलिए वह फलको प्राप्त नहीं
करता
।।२२४ से २२७।।
अब, ‘‘जिसे फलकी वाँछा नहीं है वह कर्म क्यों करे ?’’ इस आशंकाको दूर करनेके
लिए काव्य कहते हैं :
श्लोकार्थ :[येन फलं त्यक्तं सः कर्म कुरुते इति वयं न प्रतीमः ] जिसने क र्मका
फल छोड़ दिया है वह क र्म क रता है ऐसी प्रतीति तो हम नहीं क र सक ते [किन्तु ] किन्तु
वहाँ इतना विशेष है कि[अस्य अपि कुतः अपि किंचित् अपि तत् कर्म अवशेन आपतेत् ]
उसे (ज्ञानीको) भी किसी कारणसे कोई ऐसा क र्म अवशतासेे (उसके वश बिना) आ पड़ता
है [तस्मिन् आपतिते तु ] उसके आ पड़ने पर भी, [अकम्प-परम-ज्ञानस्वभावे स्थितः ज्ञानी ]
जो अकं प परमज्ञानस्वभावमें स्थित है ऐसा ज्ञानी [कर्म ] क र्म [किं कुरुते अथ किं न कुरुते ]
क रता है या नहीं [इति कः जानाति ] यह कौन जानता है ?
भावार्थ :ज्ञानीके परवशतासे कर्म आ पड़ता है तो भी वह ज्ञानसे चलायमान नहीं
होता इसलिये ज्ञानसे अचलायमान वह ज्ञानी कर्म करता है या नहीं यह कौन जानता है ?
ज्ञानीकी बात ज्ञानी ही जानता है ज्ञानीके परिणामोंको जाननेकी सामर्थ्य अज्ञानीकी नहीं है
अविरत सम्यग्दृष्टिसे लेकर ऊ परके सभी ज्ञानी ही समझना चाहिए उनमेंसे, अविरत
सम्यग्दृष्टि, देशविरत सम्यग्दृष्टि और आहारविहार करनेवाले मुनियोंके बाह्यक्रियाकर्म होते हैं,
तथापि ज्ञानस्वभावसे अचलित होनेके कारण निश्चयसे वे, बाह्यक्रियाकर्मके कर्ता नहीं हैं, ज्ञानके
ही कर्ता हैं
अन्तरङ्ग मिथ्यात्वके अभावसे तथा यथासम्भव कषायके अभावसे उनके परिणाम
उज्ज्वल हैं उस उज्ज्वलताको ज्ञानी ही जानते हैं, मिथ्यादृष्टि उस उज्ज्वलताको नहीं जानते

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(शार्दूलविक्रीडित)
सम्यग्द्रष्टय एव साहसमिदं कर्तुं क्षमन्ते परं
यद्वज्रेऽपि पतत्यमी भयचलत्त्रैलोक्यमुक्ताध्वनि
सर्वामेव निसर्गनिर्भयतया शंकां विहाय स्वयं
जानन्तः स्वमवध्यबोधवपुषं बोधाच्च्यवन्ते न हि
।।१५४।।
सम्माद्दिट्ठी जीवा णिस्संका होंति णिब्भया तेण
सत्तभयविप्पमुक्का जम्हा तम्हा दु णिस्संका ।।२२८।।
मिथ्यादृष्टि तो बहिरात्मा हैं, वे बाहरसे ही भला-बुरा मानते हैं; अन्तरात्माकी गतिको बहिरात्मा
क्या जाने ?
।१५३।
अब, इसी अर्थका समर्थक और आगामी गाथाका सूचक काव्य कहते हैं :
श्लोकार्थ :[यत् भय-चलत्-त्रैलोक्य-मुक्त-अध्वनि वज्रे पतति अपि ] जिसके भयसे
चलायमान होते हुवेखलबलाते हुवेतीनों लोक अपनेे मार्गको छोड़ देते हैं ऐसा वज्रपात होने
पर भी, [अमी ] ये सम्यग्दृष्टि जीव, [निसर्ग-निर्भयतया ] स्वभावतः निर्भय होनेसेे, [सर्वाम् एव
शंकां विहाय ]
समस्त शंकाको छोड़कर, [स्वयं स्वम् अवध्य-बोध-वपुषं जानन्तः ] स्वयं
अपनेको (आत्माको) जिसका ज्ञानरूप शरीर अवध्य है ऐसा जानते हुए, [बोधात् च्यवन्ते न हि ]
ज्ञानसे च्युत नहीं होते
[इदं परं साहसम् सम्यग्दृष्टयः एव क र्तुं क्षमन्ते ] ऐसा परम साहस क रनेके
लिये मात्र सम्यग्दृष्टि ही समर्थ हैं
भावार्थ :सम्यग्दृष्टि जीव निःशंकितगुणयुक्त होते हैं, इसलिये चाहे जैसे शुभाशुभ
कर्मोदयके समय भी वे ज्ञानरूप ही परिणमित होते हैं जिसके भयसे तीनों लोकके जीव काँप
उठते हैंचलायमान हो उठते हैं और अपना मार्ग छोड़ देते हैं ऐसा वज्रपात होने पर भी सम्यग्दृष्टि
जीव अपने स्वरूपको ज्ञानशरीरी मानता हुआ ज्ञानसे चलायमान नहीं होता उसे ऐसी शंका नहीं
होती कि इस वज्रपातसे मेरा नाश हो जायेगा; यदि पर्यायका विनाश हो तो ठीक ही है, क्योंकि
उसका तो विनश्वर स्वभाव ही है
।१५४।
अब इस अर्थको गाथा द्वारा कहते हैं :
सम्यक्ति जीव होते निःशंकित इसहि से निर्भय रहें
हैं सप्तभयप्रविमुक्त वे, इसहीसे वे निःशंक हैं ।।२२८।।

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सम्यग्द्रष्टयो जीवा निश्शंका भवन्ति निर्भयास्तेन
सप्तभयविप्रमुक्ता यस्मात्तस्मात्तु निश्शंकाः ।।२२८।।
येन नित्यमेव सम्यग्द्रष्टयः सकलकर्मफलनिरभिलाषाः सन्तोऽत्यन्तकर्मनिरपेक्षतया वर्तन्ते,
तेन नूनमेते अत्यन्तनिश्शंक दारुणाध्यवसायाः सन्तोऽत्यन्तनिर्भयाः सम्भाव्यन्ते
(शार्दूलविक्रीडित)
लोकः शाश्वत एक एष सकलव्यक्तो विविक्तात्मन-
श्चिल्लोकं स्वयमेव केवलमयं यल्लोकयत्येककः
लोकोऽयं न तवापरस्तदपरस्तस्यास्ति तद्भीः कुतो
निश्शंक : सततं स्वयं स सहजं ज्ञानं सदा विन्दति
।।१५५।।
गाथार्थ :[सम्यग्दृष्टयः जीवाः ] सम्यग्दृष्टि जीव [निश्शंकाः भवन्ति ] निःशंक होते हैं,
[तेन ] इसलिये [निर्भयाः ] निर्भय होते हैं; [तु ] और [यस्मात् ] क्योंकि [सप्तभयविप्रमुक्ताः ] वे
सप्त भयोंसे रहित होते हैं, [तस्मात् ] इसलिये [निःशंकाः ] निःशंक होते हैं (
अडोल होते हैं)
टीका :क्योंकि सम्यग्दृष्टि जीव सदा ही सर्व कर्मोंके फलके प्रति निरभिलाष होते हैं,
इसलिये वे कर्मके प्रति अत्यन्त निरपेक्षतया वर्तते हैं, इसलिये वास्तवमें वे अत्यंत निःशंक दारुण
(सुदृढ़) निश्चयवाले होनेसे अत्यन्त निर्भय हैं ऐसी सम्भावना की जाती है (अर्थात् ऐसा योग्यतया
माना जाता है )
।।२२८।।
अब सात भयोंके कलशरूप काव्य कहे जाते हैं, उसमेंसे पहले इहलोक और परलोकके
भयोंका एक काव्य कहते हैं :
श्लोकार्थ :[एषः ] यह चित्स्वरूप लोक ही [विविक्तात्मनः ] भिन्न आत्माका
(परसे भिन्नरूप परिणमित होनेवाले आत्माका) [शाश्वतः एक : सक ल-व्यक्त : लोक : ] शाश्वत,
एक और सक लव्यक्त (
सर्व कालमें प्रगट) लोक है; [यत् ] क्योंकि [के वलम् चित्-लोकं ]
मात्र चित्स्वरूप लोक को [अयं स्वयमेव एक क : लोक यति ] यह ज्ञानी आत्मा स्वयमेव
एकाकी देखता है
अनुभव करता है यह चित्स्वरूप लोक ही तेरा है, [तद्-अपरः ] उससे
भिन्न दूसरा कोई लोक[अयं लोक : अपरः ] यह लोक या परलोक [तव न ] तेरा नहीं
है ऐसा ज्ञानी विचार करता है, जानता है, [तस्य तद्-भीः कु तः अस्ति ] इसलिये ज्ञानीको
इस लोकका तथा परलोक का भय क हाँसे हो ? [सः स्वयं सततं निश्शंक : सहजं ज्ञानं सदा

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(शार्दूलविक्रीडित)
एषैकैव हि वेदना यदचलं ज्ञानं स्वयं वेद्यते
निर्भेदोदितवेद्यवेदकबलादेकं सदानाकुलैः
नैवान्यागतवेदनैव हि भवेत्तद्भीः कुतो ज्ञानिनो
निश्शंक : सततं स्वयं स सहजं ज्ञानं सदा विन्दति
।।१५६।।
विन्दति ] वह तो स्वयं निरन्तर निःशङ्क वर्तता हुआ सहज ज्ञानका (अपने ज्ञानस्वभावका) सदा
अनुभव करता है
भावार्थ :‘इस भवमें जीवन पर्यन्त अनुकूल सामग्री रहेगी या नहीं ?’ ऐसी चिन्ता रहना
इहलोकका भय है ‘परभवमें मेरा क्या होगा ?’ ऐसी चिन्ताका रहना परलोकका भय है ज्ञानी
जानता है कियह चैतन्य ही मेरा एक, नित्य लोक है जो कि सदाकाल प्रगट है इसके
अतिरिक्त दूसरा कोई लोक मेरा नहीं है यह मेरा चैतन्यस्वरूप लोक किसीके बिगाड़े नहीं
बिगड़ता ऐसा जाननेवाले ज्ञानीके इस लोकका अथवा परलोकका भय कहाँसे हो ? कभी नहीं
हो सकता वह तो अपनेको स्वाभाविक ज्ञानरूप ही अनुभव करता है ।१५५।
अब वेदनाभयका काव्य कहते हैं :
श्लोकार्थ :[निर्भेद-उदित-वेद्य-वेदक -बलात् ] अभेदस्वरूप वर्तनेवाले वेद्य
-वेदक के बलसे (वेद्य और वेदक अभेद ही होते हैं ऐसी वस्तुस्थितिके बलसे) [यद् एकं
अचलं ज्ञानं स्वयं अनाकु लैः सदा वेद्यते ]
एक अचल ज्ञान ही स्वयं निराकु ल पुरुषोंके द्वारा
(
ज्ञानयोंके द्वारा) सदा वेदनमें आता है, [एषा एका एव हि वेदना ] यह एक ही वेदना
(ज्ञानवेदन) ज्ञानीयोंके है (आत्मा वेदक है और ज्ञान वेद्य है ) [ज्ञानिनः अन्या आगत-वेदना
एव हि न एव भवेत् ] ज्ञानीके दूसरी कोई आगत (पुद्गलसे उत्पन्न) वेदना होती ही नहीं,
[तद्-भीः कु तः ] इसलिए उसे वेदनाका भय क हाँसे हो सकता है ? [सः स्वयं सततं निश्शंक :
सहजं ज्ञानं सदा विन्दति ]
वह तो स्वयं निरन्तर निःशङ्क वर्तता हुआ सहज ज्ञानका सदा अनुभव
करता है
भावार्थ :सुख-दुःखको भोगना वेदना है ज्ञानीके अपने एक ज्ञानमात्र स्वरूपका ही
उपभोग है वह पुद्गलसे होनेवाली वेदनाको वेदना ही नहीं समझता इसलिए ज्ञानीके वेदनाभय
नहीं है वह तो सदा निर्भय वर्तता हुआ ज्ञानका अनुभव करता है ।१५६।
अब अरक्षाभयका काव्य कहते हैं :

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(शार्दूलविक्रीडित)
यत्सन्नाशमुपैति तन्न नियतं व्यक्ते ति वस्तुस्थिति-
र्ज्ञानं सत्स्वयमेव तत्किल ततस्त्रातं किमस्यापरैः
अस्यात्राणमतो न किंचन भवेत्तद्भीः कुतो ज्ञानिनो
निश्शंक : सततं स्वयं स सहजं ज्ञानं सदा विन्दति
।।१५७।।
(शार्दूलविक्रीडित)
स्वं रूपं किल वस्तुनोऽस्ति परमा गुप्तिः स्वरूपे न य-
च्छक्त : कोऽपि परः प्रवेष्टुमकृतं ज्ञानं स्वरूपं च नुः
अस्यागुप्तिरतो न काचन भवेत्तद्भीः कुतो ज्ञानिनो
निश्शंक : सततं स्वयं स सहजं ज्ञानं सदा विन्दति
।।१५८।।
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श्लोकार्थ :[यत् सत् तत् नाशं न उपैति इति वस्तुस्थितिः नियतं व्यक्ता ] जो सत् है
वह नष्ट नहीं होता ऐसी वस्तुस्थिति नियमरूपसे प्रगट है [तत् ज्ञानं किल स्वयमेव सत् ] यह
ज्ञान भी स्वयमेव सत् (सत्स्वरूप वस्तु) है (इसलिये नाशको प्राप्त नहीं होता), [ततः अपरैः
अस्य त्रातं किं ]
इसलिये परके द्वारा उसका रक्षण कैसा ? [अतः अस्य किंचन अत्राणं न भवेत् ]
इसप्रकार (ज्ञान निजसे ही रक्षित है, इसलिये) उसका किञ्चित्मात्र भी अरक्षण नहीं हो सकता
[ज्ञानिनः तद्-भी कुतः ] इसलिये (ऐसा जाननेवाले) ज्ञानीको अरक्षाका भय क हाँसे हो सकता ?
[सः स्वयं सततं निश्शंकः सहजं ज्ञानं सदा विन्दति ] वह तो स्वयं निरन्तर निःशंक वर्तता हुआ
सहज ज्ञानका सदा अनुभव करता है
भावार्थ :सत्तास्वरूप वस्तुका कभी नाश नहीं होता ज्ञान भी स्वयं सत्तास्वरूप वस्तु
है; इसलिए वह ऐसा नहीं है कि जिसकी दूसरोंके द्वारा रक्षा की जाये तो रहे, अन्यथा नष्ट हो
जाये
ज्ञानी ऐसा जानता है, इसलिये उसे अरक्षाका भय नहीं होता; वह तो निःशंक वर्तता हुआ
स्वयं अपने स्वाभाविक ज्ञानका सदा अनुभव करता है ।१५७।
अब अगुप्तिभयका काव्य कहते हैं :
श्लोकार्थ :[किल स्वं रूपं वस्तुनः परमा गुप्तिः अस्ति ] वास्तवमें वस्तुका स्व-रूप
ही (निज रूप ही) वस्तुकी परम ‘गुप्ति’ है, [यत् स्वरूपे कः अपि परः प्रवेष्टुम् न शक्त : ] क्योंकि
स्वरूपमें कोई दूसरा प्रवेश नहीं कर सकता; [च ] और [अकृतं ज्ञानं नुः स्वरूपं ] अकृ त ज्ञान
(
जो किसीके द्वारा नहीं किया गया है ऐसा स्वाभाविक ज्ञान) पुरुषका अर्थात् आत्माका
स्वरूप है; (इसलिये ज्ञान आत्माकी परम गुप्ति है ) [अतः अस्य न काचन अगुप्तिः भवेत् ]

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(शार्दूलविक्रीडित)
प्राणोच्छेदमुदाहरन्ति मरणं प्राणाः किलास्यात्मनो
ज्ञानं तत्स्वयमेव शाश्वततया नोच्छिद्यते जातुचित्
तस्यातो मरणं न किंचन भवेत्तद्भीः कुतो ज्ञानिनो
निश्शंक सततं स्वयं स सहजं ज्ञानं सदा विन्दति
।।१५९।।
इसलिय आत्माकी किंचित्मात्र भी अगुप्तता न होनेसे [ज्ञानिनः तद्-भीः कुतः ] ज्ञानीको अगुप्तिका
भय क हाँसे हो सकता है ? [सः स्वयं सततं निश्शंकः सहजं ज्ञानं सदा विन्दति ] वह तो स्वयं
निरन्तर निःशंक वर्तता हुआ सहज ज्ञानका सदा अनुभव करता है
भावार्थ :‘गुप्ति’ अर्थात् जिसमें कोई चोर इत्यादि प्रवेश न कर सके ऐसा किला, भोंयरा
(तलघर) इत्यादि; उसमें प्राणी निर्भयतासे निवास कर सकता है ऐसा गुप्त प्रदेश न हो और खुला
स्थान हो तो उसमें रहनेवाले प्राणीको अगुप्तताके कारण भय रहता है ज्ञानी जानता है किवस्तुके
निज स्वरूपमें कोई दूसरा प्रवेश नहीं कर सकता, इसलिये वस्तुका स्वरूप ही वस्तुकी परम गुप्ति
अर्थात् अभेद्य किला है
पुरुषका अर्थात् आत्माका स्वरूप ज्ञान है; उस ज्ञानस्वरूपमें रहा हुआ
आत्मा गुप्त है, क्योंकि ज्ञानस्वरूपमें दूसरा कोई प्रवेश नहीं कर सकता ऐसा जाननेवाले ज्ञानीको
अगुप्तताका भय कहाँसे हो सकता है ? वह तो निःशंक वर्तता हुआ अपने स्वाभाविक ज्ञानस्वरूपका
निरन्तर अनुभव करता है
।१५८।
अब मरणभयका काव्य कहते हैं :
श्लोकार्थ :[प्राणोच्छेदम् मरणं उदाहरन्ति ] प्राणोंके नाशको (लोग) मरण क हते हैं
[अस्य आत्मनः प्राणाः किल ज्ञानं ] निश्चयसे आत्माके प्राण तो ज्ञान है [तत् स्वयमेव शाश्वततया
जातुचित् न उच्छिद्यते ] वह (ज्ञान) स्वयमेव शाश्वत होनेसे उसका क दापि नाश नहीं होता; [अतः
तस्य मरणं किंचन न भवेत् ]
इसलिये आत्माका मरण किञ्चित्मात्र भी नहीं होता
[ज्ञानिनः तद्-
भीः कुतः ] अतः (ऐसा जाननेवाले) ज्ञानीको मरणका भय क हाँसे हो सकता है ? [सः स्वयं
सततं निश्शंक : सहजं ज्ञानं सदा विन्दति ]
वह तो स्वयं निरन्तर निःशंक वर्तता हुआ सहज ज्ञानका
सदा अनुभव करता है
भावार्थ :इन्द्रियादि प्राणोंके नाश होनेको लोग मरण कहते हैं किन्तु परमार्थतः
आत्माके इन्द्रियादिक प्राण नहीं हैं, उसके तो ज्ञान प्राण हैं ज्ञान अविनाशी हैउसका नाश नहीं
होता; अतः आत्माको मरण नहीं है ज्ञानी ऐसा जानता है, इसलिये उसे मरणका भय नहीं है;
वह तो निःशंक वर्तता हुआ अपने ज्ञानस्वरूपका निरन्तर अनुभव करता है ।१५९।

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(शार्दूलविक्रीडित)
एकं ज्ञानमनाद्यनन्तमचलं सिद्धं किलैतत्स्वतो
यावत्तावदिदं सदैव हि भवेन्नात्र द्वितीयोदयः
तन्नाकस्मिकमत्र किंचन भवेत्तद्भीः कुतो ज्ञानिनो
निश्शंक : सततं स्वयं स सहजं ज्ञानं सदा विन्दति
।।१६०।।
अब आकस्मिकभयका काव्य कहते हैं :
श्लोकार्थ :[एतत् स्वतः सिद्धं ज्ञानम् किल एकं ] यह स्वतःसिद्ध ज्ञान एक है,
[अनादि ] अनादि है, [अनन्तम् ] अनन्त है, [अचलं ] अचल है [इदं यावत् तावत् सदा एव
हि भवेत् ] वह जब तक है तब तक सदा ही वही है, [अत्र द्वितीयोदयः न ] उसमें दूसरेका
उदय नहीं है
[तत् ] इसलिये [अत्र आकस्मिकम् किंचन न भवेत् ] इस ज्ञानमें आक स्मिक
कुछ भी नहीं होता [ज्ञानिनः तद्-भीः कुतः ] ऐसा जाननेवाले ज्ञानीको अक स्मात्का भय
क हाँसे हो सकता है ? [सः स्वयं सततं निश्शंकः सहजं ज्ञानं सदा विन्दति ] वह तो स्वयं
निरन्तर निःशंक वर्तता हुआ सहज ज्ञानका सदा अनुभव करता है
भावार्थ :‘यदि कुछ अनिर्धारित अनिष्ट एकाएक उत्पन्न होगा तो ?’ ऐसा भय रहना
आकस्मिकभय है ज्ञानी जानता है किआत्माका ज्ञान स्वतःसिद्ध, अनादि, अनंत, अचल,
एक है उसमें दूसरा कुछ उत्पन्न नहीं हो सकता; इसलिये उसमें कुछ भी अनिर्धारित कहाँसे
होगा अर्थात् अकस्मात् कहाँसे होगा ? ऐसा जाननेवाले ज्ञानीको आकस्मिक भय नहीं होता, वह
तो निःशंक वर्तता हुआ अपने ज्ञानभावका निरन्तर अनुभव करता है
इसप्रकार ज्ञानीको सात भय नहीं होते
प्रश्न :अविरतसम्यग्दृष्टि आदिको भी ज्ञानी कहा है और उनके भयप्रकृतिका उदय
होता है तथा उसके निमित्तसे उनके भय होता हुआ भी देखा जाता है; तब फि र ज्ञानी निर्भय
कैसे है ?
समाधान :भयप्रकृतिके उदयके निमित्तसे ज्ञानीको भय उत्पन्न होता है और
अन्तरायके प्रबल उदयसे निर्बल होनेके कारण उस भयकी वेदनाको सहन न कर सकनेसे ज्ञानी
उस भयका इलाज भी करता है
परन्तु उसे ऐसा भय नहीं होता कि जिससे जीव स्वरूपके
ज्ञानश्रद्धानसे च्युत हो जाये और जो भय उत्पन्न होता है वह मोहकर्मकी भय नामक प्रकृतिका
दोष है; ज्ञानी स्वयं उसका स्वामी होकर कर्ता नहीं होता, ज्ञाता ही रहता है इसलिये ज्ञानीके
भय नहीं है ।१६०।

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(मन्दाक्रान्ता)
टंकोत्कीर्णस्वरसनिचितज्ञानसर्वस्वभाजः ०
सम्यग्दृष्टेर्यदिह सकलं घ्नन्ति लक्ष्माणि कर्म
तत्तस्यास्मिन्पुनरपि मनाक्कर्मणो नास्ति बन्धः
पूर्वोपात्तं तदनुभवतो निश्चितं निर्ज̄रैव
।।१६१।।
जो चत्तारि वि पाए छिंददि ते कम्मबंधमोहकरे
सो णिस्संको चेदा सम्मादिट्ठी मुणेदव्वो ।।२२९।।
१ निःशंकित=सन्देह अथवा भय रहित २ +शंका=सन्देह; कल्पित भय
अब आगेकी (सम्यग्दृष्टिके निःशंकित आदि चिह्नों सम्बन्धी) गाथाओंका सूचक काव्य
कहते हैं :
श्लोकार्थ :[टंकोत्कीर्ण-स्वरस-निचित-ज्ञान-सर्वस्व-भाजः सम्यग्दृष्टेः ] टंकोत्कीर्ण
निजरससे परिपूर्ण ज्ञानके सर्वस्वको भोगनेवाले सम्यग्दृष्टिके [यद् इह लक्ष्माणि ] जो निःशंकि त
आदि चिह्न हैं वे [सकलं कर्म ] समस्त क र्मोंको [घ्नन्ति ] नष्ट करते हैं; [तत् ] इसलिये,
[अस्मिन् ] क र्मका उदय वर्तता होने पर भी, [तस्य ] सम्यग्दृष्टिको [पुनः ] पुनः [कर्मणः बन्धः ]
क र्मका बन्ध [मनाक् अपि ] किञ्चित्मात्र भी [नास्ति ] नहीं होता, [पूर्वोपात्तं ] परंतु जो क र्म
पहले बन्धा था [तद्-अनुभवतः ] उसके उदयको भोगने पर उसको [निश्चितं ] नियमसे [निर्जरा
एव ]
उस क र्मकी निर्जरा ही होती है
भावार्थ :सम्यग्दृष्टि पहले बन्धी हुई भय आदि प्रकृतियोंके उदयको भोगता है तथापि
निःशंकित आदि गुणोंके विद्यमान होनेसे +शंकादिकृत (शंकादिके निमित्तसे होनेवाला) बन्ध नहीं
होता, किन्तु पूर्वकर्मकी निर्जरा ही होती है ।१६१।
अब इस कथनको गाथाओं द्वारा कहते हैं, उसमेंसे पहले निःशंकित अंगकी (अथवा
निःशंकित गुणकीचिह्नकी ) गाथा इसप्रकार है :
जो कर्मबन्धनमोहकर्त्ता, पाद चारों छेदता
चिन्मूर्ति वो शङ्कारहित, सम्यक्त्वदृष्टी जानना ।।२२९।।

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यश्चतुरोऽपि पादान् छिनत्ति तान् कर्मबन्धमोहकरान्
स निश्शङ्कश्चेतयिता सम्यग्द्रष्टिर्ज्ञातव्यः ।।२२९।।
यतो हि सम्यग्द्रष्टिः टंकोत्कीर्णैकज्ञायकभावमयत्वेन कर्मबन्धशंकाकरमिथ्यात्वादि-
भावाभावान्निश्शंक :, ततोऽस्य शंकाकृतो नास्ति बन्धः, किन्तु निर्ज̄रैव
जो दु ण करेदि कंखं कम्मफलेसु तह सव्वधम्मेसु
सो णिक्कंखो चेदा सम्मादिट्ठी मुणेदव्वो ।।२३०।।
यस्तु न करोति कांक्षां कर्मफलेषु तथा सर्वधर्मेषु
स निष्कांक्षश्चेतयिता सम्यग्द्रष्टिर्ज्ञातव्यः ।।२३०।।
१ चेतयिता=चेतनेवाला; जाननेदेखनेवाला; आत्मा
गाथार्थ :[यः चेतयिता ] जो चेतयिता, [कर्मबन्धमोहकरान् ] क र्मबंध सम्बन्धी मोह
क रनेवाले (अर्थात् जीव निश्चयतः क र्मके द्वारा बँधा हुआ है ऐसा भ्रम क रनेवाले) [तान् चतुरः
अपि पादान् ]
मिथ्यात्वादि भावरूप चारों पादोंको [छिनत्ति ] छेदता है, [सः ] उसको
[निश्शंक : ] निःशंक [सम्यग्दृष्टिः ] सम्यग्दृष्टि [ज्ञातव्यः ] जानना चाहिये
टीका :क्योंकि सम्यग्दृष्टि, टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायकभावमयताके कारण कर्मबन्ध
सम्बन्धी शंका करनेवाले (अर्थात् जीव निश्चयतः कर्मसे बँधा हुआ है ऐसा सन्देह अथवा भय
करनेवाले) मिथ्यात्वादि भावोंका (उसको) अभाव होनेसे, निःशंक है इसलिये उसे शंकाकृत बन्ध
नहीं, किन्तु निर्जरा ही है
भावार्थ :सम्यग्दृष्टिको जिस कर्मका उदय आता है उसका वह, स्वामित्वके अभावके
कारण, कर्ता नहीं होता इसलिये भयप्रकृतिका उदय आने पर भी सम्यग्दृष्टि जीव निःशंक रहता
है, स्वरूपसे च्युत नहीं होता ऐसा होनेसे उसे शंकाकृत बन्ध नहीं होता, कर्म रस देकर खिर
जाते हैं ।।२२९।।
अब निःकाँक्षित गुणकी गाथा कहते हैं :
जो कर्मफल अरु सर्व धर्मोंकी न काँक्षा धारता
चिन्मूर्ति वो काँक्षारहित, सम्यग्दृष्टी जानना ।।२३०।।
गाथार्थ :[यः चेतयिता ] जो चेतयिता [कर्मफलेषु ] क र्मोंके फलोंके प्रति [तथा ]

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यतो हि सम्यग्दृष्टिः टंकोत्कीर्णैकज्ञायकभावमयत्वेन सर्वेष्वपि कर्मफलेषु सर्वेषु वस्तुधर्मेषु
च कांक्षाभावान्निष्कांक्षः, ततोऽस्य कांक्षाकृतो नास्ति बन्धः, किन्तु निर्ज̄रैव
जो ण करेदि दुगुंछं चेदा सव्वेसिमेव धम्माणं
सो खलु णिव्विदिगिच्छो सम्मादिट्ठी मुणेदव्वो ।।२३१।।
यो न करोति जुगुप्सां चेतयिता सर्वेषामेव धर्माणाम्
स खलु निर्विचिकित्सः सम्यग्दृष्टिर्ज्ञातव्यः ।।२३१।।
यतो हि सम्यग्दृष्टिः टंकोत्कीर्णैकज्ञायकभावमयत्वेन सर्वेष्वपि वस्तुधर्मेषु जुगुप्सा-
तथा [सर्वधर्मेषु ] सर्व धर्मोंके प्रति [कांक्षां ] कांक्षा [न तु करोति ] नहीं करता [सः ] उसको
[निष्कांक्षः सम्यग्दृष्टिः ] निष्कांक्ष सम्यग्दृष्टि [ज्ञातव्यः ] जानना चाहिये
टीका :क्योंकि सम्यग्दृष्टि, टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायकभावमयताके कारण सभी
कर्मफलोंके प्रति तथा समस्त वस्तुधर्मोंके प्रति कांक्षाका (उसे) अभाव होनेसे, निष्कांक्ष
(निर्वांछक) है, इसलिये उसे कांक्षाकृत बन्ध नहीं, किन्तु निर्जरा ही है
भावार्थ :सम्यग्दृष्टिको समस्त कर्मफलोंकी वाँछा नहीं होती; तथा उसे सर्व धर्मोंकी
वाँछा नहीं होती, अर्थात् सुवर्णत्व, पाषाणत्व इत्यादि तथा निन्दा, प्रशंसा आदिके वचन इत्यादिक
वस्तुधर्मोंकी अर्थात् पुद्गलस्वभावोंकी उसे वाँछा नहीं है
उसके प्रति समभाव है, अथवा
अन्यमतावलम्बियोंके द्वारा माने गये अनेक प्रकारके सर्वथा एकान्तपक्षी व्यवहारधर्मोंकी उसे वाँछा
नहीं है
उन धर्मोंका आदर नहीं है इसप्रकार सम्यग्दृष्टि वाँछारहित होता है, इसलिये उसे वाँछासे
होनेवाला बन्ध नहीं होता वर्तमान वेदना सही नहीं जाती, इसलिये उसे मिटानेके उपचारकी वाँछा
सम्यग्दृष्टिको चारित्रमोहके उदयके कारण होती है, किन्तु वह उस वाँछाका कर्ता स्वयं नहीं होता,
कर्मोदय समझकर उसका ज्ञाता ही रहता है; इसलिये उसे वाँछाकृत बन्ध नहीं होता
।।२३०।।
अब निर्विचिकित्सा गुणकी गाथा कहते हैं :
सब वस्तुधर्मविषैं जुगुप्साभाव जो नहिं धारता
चिन्मूर्ति निर्विचिकित्स वह, सद्दृष्टि निश्चय जानना ।।२३१।।
गाथार्थ :[यः चेतयिता ] जो चेतयिता [सर्वेषाम् एव ] सभी [धर्माणाम् ] धर्मों
(वस्तुके स्वभावों)के प्रति [जुगुप्सां ] जुगुप्सा (ग्लानि) [न करोति ] नहीं करता [सः ] उसको
[खलु ] निश्चयसे [निर्विचिकित्सः ] निर्विचिकित्स (
विचिकित्सादोषसे रहित) [सम्यग्दृष्टिः ]

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ऽभावान्निर्विचिकित्सः, ततोऽस्य विचिकित्साकृतो नास्ति बन्धः, किन्तु निर्ज̄रैव
जो हवदि असम्मूढो चेदा सद्दिट्ठि सव्वभावेसु
सो खलु अमूढदिट्ठी सम्मादिट्ठी मुणेदव्वो ।।२३२।।
यो भवति असम्मूढः चेतयिता सद्दृष्टिः सर्वभावेषु
स खलु अमूढद्रष्टिः सम्यग्द्रष्टिर्ज्ञातव्यः ।।२३२।।
यतो हि सम्यग्द्रष्टिः टंकोत्कीर्णैकज्ञायकभावमयत्वेन सर्वेष्वपि भावेषु
मोहाभावादमूढद्रष्टिः, ततोऽस्य मूढद्रष्टिकृतो नास्ति बन्धः, किन्तु निर्ज̄रैव
सम्यग्दृष्टि [ज्ञातव्यः ] जानना चाहिये
टीका :क्योंकि सम्यग्दृष्टि, टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायकभावमयताके कारण सभी
वस्तुधर्मोंके प्रति जुगुप्साका (उसे) अभाव होनेसे, निर्विचिकित्स (जुगुप्सारहितग्लानिरहित)
है, इसलिये उसे विचिकित्साकृत बन्ध नहीं, किन्तु निर्जरा ही है
भावार्थ :सम्यग्दृष्टि वस्तुके धर्मोंके प्रति (अर्थात् क्षुधा, तृषा, शीत, उष्ण आदि भावोंके
प्रति तथा विष्टा आदि मलिन द्रव्योंके प्रति) जुगुप्सा नहीं करता यद्यपि उसके जुगुप्सा नामक
कर्मप्रकृतिका उदय आता है तथापि वह स्वयं उसका कर्ता नहीं होता, इसलिये उसे जुगुप्साकृत
बन्ध नहीं होता, परन्तु प्रकृति रस देकर खिर जाती है, इसलिये निर्जरा ही होती है
।।२३१।।
अब अमूढदृष्टि अंगकी गाथा कहते हैं :
सम्मूढ़ नहिं सब भावमें जो,सत्यदृष्टी धारता
वह मूढ़दृष्टिविहीन सम्यग्दृष्टि निश्चय जानना ।।२३२।।
गाथार्थ :[यः चेतयिता ] जो चेतयिता [सर्वभावेषु ] समस्त भावोंमें [असम्मूढः ]
अमूढ़ है[सद्दृष्टिः ] यथार्थ दृष्टिवाला [भवति ] है, [सः ] उसको [खलु ] निश्चयसे
[अमूढ+ष्टिः ] अमूढ़दृष्टि [सम्यग्दष्टिः ] सम्यग्दृष्टि [ज्ञातव्यः ] जानना चाहिये
टीका :क्योंकि सम्यग्दृष्टि, टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायकभावमयताके कारण सभी भावोंमें
मोहका (उसे) अभाव होनेसे अमूढ़दृष्टि है, इसलिये उसे मूढदृष्टिकृत बन्ध नहीं, किन्तु निर्जरा ही है
भावार्थ :सम्यग्दृष्टि समस्त पदार्थोंके स्वरूपको यथार्थ जानता है; उसे रागद्वेषमोहका
अभाव होनेसे किसी भी पदार्थ पर उसकी अयथार्थ दृष्टि नहीं पड़ती चारित्रमोहके उदयसे

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जो सिद्धभत्तिजुत्तो उवगूहणगो दु सव्वधम्माणं
सो उवगूहणकारी सम्मादिट्ठी मुणेदव्वो ।।२३३।।
यः सिद्धभक्ति युक्त : उपगूहनकस्तु सर्वधर्माणाम्
स उपगूहनकारी सम्यग्द्रष्टिर्ज्ञातव्यः ।।२३३।।
यतो हि सम्यग्द्रष्टिः टंकोत्कीर्णैकज्ञायकभावमयत्वेन समस्तात्मशक्तीनामुपबृंहणादुप-
बृंहकः, ततोऽस्य जीवशक्ति दौर्बल्यकृतो नास्ति बन्धः, किन्तु निर्ज̄रैव
इष्टानिष्ट भाव उत्पन्न हों तथापि उसे उदयकी बलवत्ता जानकर वह उन भावोंका स्वयं कर्ता नहीं
होता, इसलिए उसे मूढ़दृष्टिकृत बन्ध नहीं होता, परन्तु प्रकृति रस देकर खिर जाती है, इसलिए
निर्जरा ही होती है
।।२३२।।
अब उपगूहन गुणकी गाथा कहते हैं :
जो सिद्धभक्तीसहित है, गोपन करे सब धर्मका
चिन्मूर्ति वह उपगुहनकर सम्यक्तदृष्टी जानना ।।२३३।।
गाथार्थ :[यः ] जो (चेतयिता) [सिद्धभक्ति युक्त : ] सिद्धकी (शुद्धात्माकी) भक्तिसे
युक्त है [तु ] और [सर्वधर्माणाम् उपगूहनकः ] पर वस्तुके सर्व धर्मोंको गोपनेवाला है (अर्थात्
रागादि परभावोंमें युक्त नहीं होता) [सः ] उसको [उपगूहनकारी ] उपगूहन करनेवाला
[सम्यग्दृष्टिः ] सम्यग्दृष्टि [ज्ञातव्यः ] जानना चाहिये
टीका :क्योंकि सम्यग्दृष्टि, टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायकभावमयताके कारण समस्त
आत्मशक्तियोंकी वृद्धि करता है इसलिये, उपबृंहक अर्थात् आत्मशक्ति बढ़ानेवाला है, इसलिये उसे
जीवकी शक्तिकी दुर्बलतासे (मन्दतासे) होनेवाले बन्ध नहीं, किन्तु निर्जरा ही है
भावार्थ :सम्यग्दृष्टि उपगूहनगुणयुक्त है उपगूहनका अर्थ छिपाना है यहाँ
निश्चयनयको प्रधान करके कहा है कि सम्यग्दृष्टिने अपना उपयोग सिद्धभक्तिमें लगाया हुआ है,
और जहाँ उपयोग सिद्धभक्तिमें लगाया वहाँ अन्य धर्मों पर दृष्टि ही नहीं रही, इसलिये वह समस्त
अन्य धर्मोंका गोपनेवाला और आत्मशक्तिका बढ़ानेवाला है
इस गुणका दूसरा नाम ‘उपबृंहण’ भी है उपबृंहणका अर्थ है बढ़ाना सम्यग्दृष्टिने अपना
उपयोग सिद्धके स्वरूपमें लगाया है, इसलिये उसके आत्माकी समस्त शक्तियाँ बढ़ती हैंआत्मा

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उम्मग्गं गच्छंतं सगं पि मग्गे ठवेदि जो चेदा
सो ठिदिकरणाजुत्तो सम्मादिट्ठी मुणेदव्वो ।।२३४।।
उन्मार्गं गच्छन्तं स्वकमपि मार्गे स्थापयति यश्चेतयिता
स स्थितिकरणयुक्त : सम्यग्द्रष्टिर्ज्ञातव्यः ।।२३४।।
यतो हि सम्यग्द्रष्टिः टंकोत्कीर्णैकज्ञायकभावमयत्वेन मार्गात्प्रच्युतस्यात्मनो मार्गे एव
स्थितिकरणात् स्थितिकारी, ततोऽस्य मार्गच्यवनकृतो नास्ति बन्धः, किन्तु निर्ज̄रैव
46
पुष्ट होता है, इसलिए वह उपबृंहण गुणवाला है
इसप्रकार सम्यग्दृष्टिके आत्मशक्तिकी वृद्धि होती है, इसलिये उसे दुर्बलतासे जो बन्ध होता
था वह नहीं होता, निर्जरा ही होती है यद्यपि जब तक अन्तरायका उदय है तब तक निर्बलता
है तथापि उसके अभिप्रायमें निर्बलता नहीं है, किन्तु अपनी शक्तिके अनुसार कर्मोदयको जीतनेका
महान् उद्यम वर्तता है
।।२३३।।
अब स्थितिकरण गुणकी गाथा कहते हैं :
उन्मार्ग जाते स्वात्मको भी, मार्गमें जो स्थापता
चिन्मूर्ति वह थितिकरणयुत, सम्यक्तदृष्टि जानना ।।२३४।।
गाथार्थ :[यः चेतयिता ] जो चेतयिता [उन्मार्गं गच्छन्तं ] उन्मार्गमें जाते हुए
[स्वकम् अपि ] अपने आत्माको भी [मार्गे ] मार्गमें [स्थापयति ] स्थापित करता है, [सः ]
वह [स्थितिकरणयुक्त : ] स्थितिक रणयुक्त [सम्यग्दृष्टिः ] सम्यग्दृष्टि [ज्ञातव्यः ] जानना चाहिये
टीका :क्योंकि सम्यग्दृष्टि, टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायकभावमयताके कारण, यदि अपना
आत्मा मार्गसे (सम्यग्दर्शन-ज्ञानचारित्ररूप मोक्षमार्गसे) च्युत हो तो उसे मार्गमें ही स्थित कर
देता है इसलिए, स्थितिकारी (स्थिति करनेवाला) है, अतः उसे मार्गसे च्युत होनेके कारण
होनेवाला बन्ध नहीं, किन्तु निर्जरा ही है
भावार्थ :जो, अपने स्वरूपरूप मोक्षमार्गसे च्युत होते हुए अपने आत्माको मार्गमें
(मोक्षमार्गमें) स्थित करता है वह स्थितिकरणगुणयुक्त है उसे मार्गसे च्युत होनेके कारण
होनेवाला बन्ध नहीं होता, किन्तु उदयागत कर्म रस देकर खिर जाते हैं, इसलिए निर्जरा ही
होती है
।।२३४।।

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अनुपलब्धि=प्रत्यक्ष नहीं होना वह; अज्ञान; अप्राप्ति
जो कुणदि वच्छलत्तं तिण्हं साहूण मोक्खमग्गम्हि
सो वच्छलभावजुदो सम्मादिट्ठी मुणेदव्वो ।।२३५।।
यः करोति वत्सलत्वं त्रयाणां साधूनां मोक्षमार्गे
स वत्सलभावयुतः सम्यग्द्रष्टिर्ज्ञातव्यः ।।२३५।।
यतो हि सम्यग्द्रष्टिः टंकोत्कीर्णैकज्ञायकभावमयत्वेन सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणां स्व-
स्मादभेदबुद्धया सम्यग्दर्शनान्मार्गवत्सलः, ततोऽस्य मार्गानुपलम्भकृतो नास्ति बन्धः, किन्तु
निर्ज̄रैव
अब वात्सल्य गुणकी गाथा कहते हैं :
जो मोक्षपथमें ‘साधु’त्रयका वत्सलत्व करे अहा !
चिन्मूर्ति वह वात्सल्ययुत, सम्यक्तदृष्टी जानना
।।२३५।।
गाथार्थ :[यः ] जो (चेतयिता) [मोक्षमार्गे ] मोक्षमार्गमें स्थित [त्रयाणां
साधूनां ] सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप तीन साधकोंसाधनोंके प्रति (अथवा व्यवहारसे
आचार्य, उपाध्याय और मुनिइन तीन साधुओंके प्रति) [वत्सलत्वं करोति ] वात्सल्य क रता
है, [सः ] वह [वत्सलभावयुतः ] वत्सलभावसे युक्त [सम्यग्दृष्टिः ] सम्यग्दृष्टि [ज्ञातव्यः ]
जानना चाहिये
टीका :क्योंकि सम्यग्दृष्टि, टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायकभावमयताके कारण सम्यग्दर्शन-
ज्ञान-चारित्रको अपनेसे अभेदबुद्धिसे सम्यक्तया देखता (अनुभव करता) है इसलिये,
मार्गवत्सल अर्थात् मोक्षमार्गके प्रति अति प्रीतिवाला है , इसलिये उसे मार्गकी अनुपलब्धिसे
होनेवाला बन्ध नहीं, किन्तु निर्जरा ही है
भावार्थ :वत्सलत्वका अर्थ है प्रीतिभाव जो जीव मोक्षमार्गरूप अपने स्वरूपके
प्रति प्रीतिवालाअनुरागवाला हो उसे मार्गकी अप्राप्तिसे होनेवाला बन्ध नहीं होता, परन्तु कर्म
रस देकर खिर जाते हैं, इसलिये निर्जरा ही होती है ।।२३५।।

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विज्जारहमारूढो मणोरहपहेसु भमइ जो चेदा
सो जिणणाणपहावी सम्मादिट्ठी मुणेदव्वो ।।२३६।।
विद्यारथमारूढः मनोरथपथेषु भ्रमति यश्चेतयिता
स जिनज्ञानप्रभावी सम्यग्द्रष्टिर्ज्ञातव्यः ।।२३६।।
यतो हि सम्यग्द्रष्टिः, टंकोत्कीर्णैकज्ञायकभावमयत्वेन ज्ञानस्य समस्तशक्ति प्रबोधेन
प्रभावजननात्प्रभावनाकरः, ततोऽस्य ज्ञानप्रभावनाऽप्रकर्षकृतो नास्ति बन्धः, किन्तु निर्ज̄रैव
अब प्रभावना गुणकी गाथा कहते हैं :
चिन्मूर्ति मन-रथपन्थमें, विद्यारथारूढ घूमता
जिनराजज्ञानप्रभावकर सम्यक्तदृष्टी जानना ।।२३६।।
गाथार्थ :[यः चेतयिता ] जो चेतयिता [विद्यारथम् आरूढः ] विद्यारूप रथ पर
आरूढ़ हुआ (चढ़ा हुआ) [मनोरथपथेषु ] मनरूप रथके पथमें (ज्ञानरूप रथके चलनेके
मार्गमें) [भ्रमति ] भ्रमण क रता है, [सः ] वह [जिनज्ञानप्रभावी ] जिनेन्द्रभगवानके ज्ञानकी
प्रभावना क रनेवाला [सम्यग्दृष्टिः ] सम्यग्दृष्टि [ज्ञातव्यः ] जानना चाहिये
टीका :क्योंकि सम्यग्दृष्टि, टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायकभावमयताके कारण ज्ञानकी समस्त
शक्तिको प्रगट करनेविकसित करनेफै लानेके द्वारा प्रभाव उत्पन्न करता है इसलिए, प्रभावना
करनेवाला है, अतः उसे ज्ञानकी प्रभावनाके अप्रकर्षसे (ज्ञानकी प्रभावना न बढ़ानेसे) होनेवाला
बन्ध नहीं, किन्तु निर्जरा ही है
भावार्थ :प्रभावनाका अर्थ है प्रगट करना, उद्योत करना इत्यादि; इसलिए जो अपने
ज्ञानको निरन्तर अभ्यासके द्वारा प्रगट करता हैबढ़ाता है, उसके प्रभावना अंग होता है उसे
अप्रभावनाकृत कर्मबन्ध नहीं होता, किन्तु कर्म रस देकर खिर जाते हैं, इसलिए उसके निर्जरा ही है
इस गाथामें निश्चयप्रभावनाका स्वरूप कहा है जैसे जिनबिम्बको रथारूढ़ करके नगर,
वन इत्यादिमें फि राकर व्यवहारप्रभावना की जाती है, इसीप्रकार जो विद्यारूप (ज्ञानरूप) रथमें
आत्माको विराजमान करके मनरूप (ज्ञानरूप) मार्गमें भ्रमण करता है वह ज्ञानकी प्रभावनायुक्त
सम्यग्दृष्टि है, वह निश्चयप्रभावना करनेवाला है
इसप्रकार ऊ परकी गाथाओंमें यह कहा है कि सम्यग्दृष्टि ज्ञानीको निःशंकित आदि आठ

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(मन्दाक्रान्ता)
रुन्धन् बन्धं नवमिति निजैः संगतोऽष्टाभिरंगैः
प्राग्बद्धं तु क्षयमुपनयन् निर्जरोज्जृम्भणेन
गुण निर्जराके कारण हैं इसीप्रकार सम्यक्त्वके अन्य गुण भी निर्जराके कारण जानना चाहिए
इस ग्रन्थमें निश्चयनयप्रधान कथन होनेसे यहाँ निःशंकितादि गुणोंका निश्चय स्वरूप (स्व-
आश्रित स्वरूप) बताया गया है उसका सारांश इसप्रकार है :जो सम्यग्दृष्टि आत्मा अपने
ज्ञान-श्रद्धानमें निःशंक हो, भयके निमित्तसे स्वरूपसे चलित न हो अथवा सन्देहयुक्त न हो,
उसके निःशंकितगुण होता है
।१। जो कर्मफलकी वाँछा न करे तथा अन्य वस्तुके धर्मोंकी वाँछा
न करे, उसे निःकांक्षित गुण होता है ।२। जो वस्तुके धर्मोंके प्रति ग्लानि न करे, उसके
निर्विचिकित्सा गुण होता है ।३। जो स्वरूपमें मूढ़ न हो, स्वरूपको यथार्थ जाने, उसके अमूढ़दृष्टि
गुण होता है ।४। जो आत्माको शुद्धस्वरूपमें युक्त करे, आत्माकी शक्ति बढ़ाये, और अन्य
धर्मोंको गौण करे, उसके उपबृंहण अथवा उपगूहन गुण होता है ।५। जो स्वरूपसे च्युत होते
हुए आत्माको स्वरूपमें स्थापित करे, उसके स्थितिकरण गुण होता है ।६। जो अपने स्वरूपके
प्रति विशेष अनुराग रखता है, उसके वात्सल्य गुण होता है ।७। जो आत्माके ज्ञानगुणको प्रकाशित
करेप्रगट करे, उसके प्रभावना गुण होता है ।८। ये सभी गुण उनके प्रतिपक्षी दोषोंके द्वारा
जो कर्मबन्ध होता था उसे नहीं होने देते और इन गुणोंके सद्भावमें, चारित्रमोहके उदयरूप
शंकादि प्रवर्ते तो भी उनकी (शंकादिकी) निर्जरा ही हो जाती है, नवीन बन्ध नहीं होता;
क्योंकि बन्ध तो प्रधानतासे मिथ्यात्वके अस्तित्वमें ही कहा है
सिद्धान्तमें गुणस्थानोंकी परिपाटीमें चारित्रमोहके उदयनिमित्तसे सम्यग्दृष्टिके जो बन्ध कहा
है वह भी निर्जरारूप ही (निर्जराके समान ही) समझना चाहिए, क्योंकि सम्यग्दृष्टिके जैसे
पूर्वमें मिथ्यात्वके उदयके समय बँधा हुआ कर्म खिर जाता है उसीप्रकार नवीन बँधा हुआ कर्म
भी खिर जाता है; उसके उस कर्मके स्वामित्वका अभाव होनेसे वह आगामी बन्धरूप नहीं,
किन्तु निर्जरारूप ही है
जैसेकोई पुरुष दूसरेका द्रव्य उधार लाया हो तो उसमें उसे
ममत्वबुद्धि नहीं होती, वर्तमानमें उस द्रव्यसे कुछ कार्य कर लेना हो तो वह करके पूर्व
निश्चयानुसार नियत समय पर उसके मालिकको दे देता है; नियत समयके आने तक वह द्रव्य
उसके घरमें पड़ा रहे तो भी उसके प्रति ममत्व न होनेसे उस पुरुषको उस द्रव्यका बन्धन नहीं
है, वह उसके स्वामीको दे देनेके बराबर ही है; इसीप्रकार
ज्ञानी कर्मद्रव्यको पराया मानता
है, इसलिये उसे उसके प्रति ममत्व नहीं होता अतः उसके रहते हुए भी वह निर्जरित हुएके
समान ही है ऐसा जानना चाहिए

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सम्यग्द्रष्टिः स्वयमतिरसादादिमध्यान्तमुक्तं
ज्ञानं भूत्वा नटति गगनाभोगरंगंं विगाह्य ।।१६२।।
यह निःशंकितादि आठ गुण व्यवहारनयसे व्यवहारमोक्षमार्ग पर इसप्रकार लगाने चाहिये
:जिनवचनमें सन्देह नहीं करना, भयके आने पर व्यवहार दर्शन-ज्ञान-चारित्रसे नहीं डिगना, सो
निःशंकितत्त्व है ।१। संसार-देह-भोगकी वाँछासे तथा परमतकी वाँछासे व्यवहारमोक्षमार्गसे
चलायमान न होना सो निःकांक्षितत्व है ।२। अपवित्र, दुर्गन्धित आदि वस्तुओंके निमित्तसे
व्यवहारमोक्षमार्गकी प्रवृत्तिके प्रति ग्लानि न करना सो निर्विचिकित्सा है ।३। देव, गुरु, शास्त्र,
लौकिक प्रवृत्ति, अन्यमतादिके तत्त्वार्थका स्वरूपइत्यादिमें मूढ़ता न रखना, यथार्थ जानकर
प्रवृत्ति करना सो अमूढ़दृष्टि है ।४। धर्मात्मामें कर्मोदयसे दोष आ जाये तो उसे गौण करना और
व्यवहारमोक्षमार्गकी प्रवृत्तिको बढ़ाना सो उपगूहन अथवा उपबृंहण है ।५। व्यवहारमोक्षमार्गसे च्युत
होते हुए आत्माको स्थिर करना सो स्थितिकरण है ।६। व्यवहारमोक्षमार्गमें प्रवृत्ति करनेवाले पर
विशेष अनुराग होना सो वात्सल्य है ।७। व्यवहारमोक्षमार्गका अनेक उपायोंसे उद्योत करना सो
प्रभावना है ।८। इसप्रकार आठों ही गुणोंका स्वरूप व्यवहारनयको प्रधान करके कहा है यहाँ
निश्चयप्रधान कथनमें उस व्यवहारस्वरूपकी गौणता है सम्यग्ज्ञानरूप प्रमाणदृष्टिमें दोनों प्रधान हैं
स्याद्वादमतमें कोई विरोध नहीं है ।।२३६।।
अब, निर्जराके यथार्थ स्वरूपको जाननेवाले और कर्मोंके नवीन बन्धको रोककर निर्जरा
करनेवाले सम्यग्दृष्टिकी महिमा करके निर्जरा अधिकार पूर्ण करते हैं :
श्लोकार्थ :[इति नवम् बन्धं रुन्धन् ] इसप्रकार नवीन बन्धको रोक ता हुआ और
[निजैः अष्टाभिः अगैः संगतः निर्जरा-उज्जृम्भणेन प्राग्बद्धं तु क्षयम् उपनयम् ] (स्वयं) अपने आठ
अंगोंसे युक्त होनेके कारण निर्जरा प्रगट होनेसे पूर्वबद्ध कर्मोंका नाश करता हुआ [सम्यग्दृष्टिः ]
सम्यग्दृष्टि जीव [स्वयम् ] स्वयं [अतिरसात् ] अति रससे (निजरसमें मस्त हुआ) [आदि-मध्य-
अन्तमुक्तं ज्ञानं भूत्वा ]
आदि-मध्य-अंत रहित (सर्वव्यापक , एकप्रवाहरूप धारावाही) ज्ञानरूप
होकर [गगन-आभोग-रंगं विगाह्य ] आकाशके विस्ताररूप रंगभूमिमें अवगाहन करके (ज्ञानके
द्वारा समस्त गगनमंडलमें व्याप्त होकर) [नटति ] नृत्य करता है
भावार्थ :सम्यग्दृष्टिको शंकादिकृत नवीन बन्ध तो नहीं होता और स्वयं अष्टांगयुक्त
होनेसे निर्जराका उदय होनेके कारण उसके पूर्वके बन्धका नाश होता है इसलिये वह धारावाही
ज्ञानरूप रसका पान करके, निर्मल आकाशरूप रंगभूमिमें ऐसे नृत्य करता है जैसे कोई पुरुष मद्य
पीकर मग्न हुआ नृत्यभूमिमें नाचता है

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इति निर्जरा निष्क्रान्ता
प्रश्न :आप यह कह चुके हैं कि सम्यग्दृष्टिके निर्जरा होती है, बन्ध नहीं होता
किन्तु सिद्धान्तमें गुणस्थानोंकी परिपाटीमें अविरत सम्यग्दृष्टि इत्यादिके बन्ध कहा गया है
और घातिकर्मोंका कार्य आत्माके गुणोंका घात करना है, इसलिये दर्शन, ज्ञान, सुख, वीर्य
इन गुणोंका घात भी विद्यमान है चारित्रमोहका उदय नवीन बन्ध भी करता है यदि मोहके
उदयमें भी बन्ध न माना जाये तो यह भी क्यों न मान लिया जाये कि मिथ्यादृष्टिके
मिथ्यात्व-अनन्तानुबन्धीका उदय होने पर भी बन्ध नहीं होता ?
उत्तर :बन्धके होनेंमें मुख्य कारण मिथ्यात्व-अनन्तानुबन्धीका उदय ही है; और
सम्यग्दृष्टिके तो उनके उदयका अभाव है चारित्रमोहके उदयसे यद्यपि सुखगुणका घात होता
है तथा मिथ्यात्व-अनन्तानुबन्धीके अतिरिक्त और उनके साथ रहनेवाली अन्य प्रकृतियोंके
अतिरिक्त शेष घातिकर्मोंकी प्रकृतियोंका अल्प स्थिति-अनुभागवाला बन्ध तथा शेष
अघातिकर्मोंकी प्रकृतियोंका बन्ध होता है, तथापि जैसा मिथ्यात्व-अनन्तानुबन्धी सहित होता
है वैसा नहीं होता
अनन्त संसारका कारण तो मिथ्यात्व-अनन्तानुबन्धी ही है; उनका अभाव
हो जाने पर फि र उनका बन्ध नहीं होता; और जहाँ आत्मा ज्ञानी हुआ वहाँ अन्य बन्धकी
गणना कौन करता है ? वृक्षकी जड़ कट जाने पर फि र हरे पत्ते रहनेकी अवधि कितनी
होती है ? इसलिये इस अध्यात्मशास्त्रमें सामान्यतया ज्ञानी-अज्ञानी होनेके सम्बन्धमें ही प्रधान
कथन है
ज्ञानी होनेके बाद जो कुछ कर्म रहे हों वे सहज ही मिटते जायेंगे निम्नलिखित
दृष्टान्तके अनुसार ज्ञानीके सम्बन्धमें समझ लेना चाहिए कोई पुरुष दरिद्रताके कारण एक
झोपड़ेमें रहता था भाग्योदयसे उसे धन-धान्यसे परिपूर्ण बड़े महलकी प्राप्ति हो गई, इसलिये
वह उसमें रहनेको गया यद्यपि उस महलमें बहुत दिनोंका कूड़ा-कचरा भरा हुआ था तथापि
जिस दिन उसने आकर महलमें प्रवेश किया उस दिनसे ही वह उस महलका स्वामी हो
गया, सम्पत्तिवान हो गया
अब वह कूड़ा-कचरा साफ करना है सो वह क्रमशः अपनी
शक्तिके अनुसार साफ करता है जब सारा कचरा साफ हो जायेगा और महल उज्ज्वल
हो जायेगा तब वह परमानन्दको भोगेगा इसीप्रकार ज्ञानीके सम्बन्धमें समझना चाहिए ।१६२।
टीका :इसप्रकार निर्जरा (रंगभूमिमेंसे) बाहर निकल गई
भावार्थ :इसप्रकार, जिसने रंगभूमिमें प्रवेश किया था वह निर्जरा अपना स्वरूप
बताकर रंगभूमिसे बाहर निकल गई

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इति श्रीमदमृतचन्द्रसूरिविरचितायां समयसारव्याख्यायामात्मख्यातौ निर्जराप्ररूपकः
षष्ठोऽङ्कः ।।
(सवैया)
सम्यकवन्त महन्त सदा समभाव रहै दुख सङ्कट आये,
कर्म नवीन बन्धे न तबै अर पूरव बन्ध झड़े बिन भाये;
पूरण अङ्ग सुदर्शनरूप धरै नित ज्ञान बढ़े निज पाये,
यों शिवमारग साधि निरन्तर, आनन्दरूप निजातम थाये
।।
इसप्रकार श्री समयसारकी (श्रीमद्भगवत्कुन्दकुन्दाचार्यदेवप्रणीत श्री समयसार
परमागमकी) श्रीमद् अमृतचन्द्राचार्यदेवविरचित आत्मख्याति नामक टीकामें निर्जराका प्ररूपक
छठवाँ अंक समाप्त हुआ