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प्रकारके [भोगान् ] भोग [ददाति ] देता है, [एवम् एव ] इसीप्रकार [जीवपुरुषः ] जीवपुरुष
[सुखनिमित्तम् ] सुखके लिए [कर्मरजः ] क र्मरजकी [सेवते ] सेवा करता है [तद् ] तो [तत्
कर्म अपि ] वह क र्म भी उसे [सुखोत्पादकान् ] सुख उत्पन्न क रनेवाले [विविधान् ] अनेक
प्रकारके [भोगान् ] भोग [ददाति ] देता है
भी उसेे [सुखोत्पादकान् ] सुख उत्पन्न क रनेवाले [विविधान् ] अनेक प्रकारके [भोगान् ] भोग
[न ददाति ] नहीं देता, [एवम् एव ] इसीप्रकार [सम्यग्दृ+ष्टिः ] सम्यग्दृष्टि [विषयार्थं ] विषयके
लिये [कर्मरजः ] क र्मरजकी [न सेवते ] सेवा नहीं करता, [तद् ] इसलिये [तत् कर्म ] वह क र्म
भी उसे [सुखोत्पादकान् ] सुख उत्पन्न क रनेवाले [विविधान् ] अनेक प्रकारके [भोगान् ] भोग
[न ददाति ] नहीं देता
फलके लिये कर्मकी सेवा नहीं करता, इसलिये वह कर्म उसे फल नहीं देता
परिणाम देता है
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किंत्वस्यापि कुतोऽपि किंचिदपि तत्कर्मावशेनापतेत्
ज्ञानी किं कुरुतेऽथ किं न कुरुते कर्मेति जानाति कः
उसे रागादिपरिणाम उत्पन्न करनेवाले आगामी भोगोंको देता है
करता
क रता है या नहीं [इति कः जानाति ] यह कौन जानता है ?
तथापि ज्ञानस्वभावसे अचलित होनेके कारण निश्चयसे वे, बाह्यक्रियाकर्मके कर्ता नहीं हैं, ज्ञानके
ही कर्ता हैं
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जानन्तः स्वमवध्यबोधवपुषं बोधाच्च्यवन्ते न हि
क्या जाने ?
शंकां विहाय ] समस्त शंकाको छोड़कर, [स्वयं स्वम् अवध्य-बोध-वपुषं जानन्तः ] स्वयं
अपनेको (आत्माको) जिसका ज्ञानरूप शरीर अवध्य है ऐसा जानते हुए, [बोधात् च्यवन्ते न हि ]
ज्ञानसे च्युत नहीं होते
उसका तो विनश्वर स्वभाव ही है
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श्चिल्लोकं स्वयमेव केवलमयं यल्लोकयत्येककः
निश्शंक : सततं स्वयं स सहजं ज्ञानं सदा विन्दति
सप्त भयोंसे रहित होते हैं, [तस्मात् ] इसलिये [निःशंकाः ] निःशंक होते हैं (
(सुदृढ़) निश्चयवाले होनेसे अत्यन्त निर्भय हैं ऐसी सम्भावना की जाती है (अर्थात् ऐसा योग्यतया
माना जाता है )
एक और सक लव्यक्त (
एकाकी देखता है
इस लोकका तथा परलोक का भय क हाँसे हो ? [सः स्वयं सततं निश्शंक : सहजं ज्ञानं सदा
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निर्भेदोदितवेद्यवेदकबलादेकं सदानाकुलैः
निश्शंक : सततं स्वयं स सहजं ज्ञानं सदा विन्दति
अनुभव करता है
अचलं ज्ञानं स्वयं अनाकु लैः सदा वेद्यते ] एक अचल ज्ञान ही स्वयं निराकु ल पुरुषोंके द्वारा
(
सहजं ज्ञानं सदा विन्दति ] वह तो स्वयं निरन्तर निःशङ्क वर्तता हुआ सहज ज्ञानका सदा अनुभव
करता है
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र्ज्ञानं सत्स्वयमेव तत्किल ततस्त्रातं किमस्यापरैः
निश्शंक : सततं स्वयं स सहजं ज्ञानं सदा विन्दति
च्छक्त : कोऽपि परः प्रवेष्टुमकृतं ज्ञानं स्वरूपं च नुः
निश्शंक : सततं स्वयं स सहजं ज्ञानं सदा विन्दति
अस्य त्रातं किं ] इसलिये परके द्वारा उसका रक्षण कैसा ? [अतः अस्य किंचन अत्राणं न भवेत् ]
इसप्रकार (ज्ञान निजसे ही रक्षित है, इसलिये) उसका किञ्चित्मात्र भी अरक्षण नहीं हो सकता
[ज्ञानिनः तद्-भी कुतः ] इसलिये (ऐसा जाननेवाले) ज्ञानीको अरक्षाका भय क हाँसे हो सकता ?
[सः स्वयं सततं निश्शंकः सहजं ज्ञानं सदा विन्दति ] वह तो स्वयं निरन्तर निःशंक वर्तता हुआ
सहज ज्ञानका सदा अनुभव करता है
जाये
स्वरूपमें कोई दूसरा प्रवेश नहीं कर सकता; [च ] और [अकृतं ज्ञानं नुः स्वरूपं ] अकृ त ज्ञान
(
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ज्ञानं तत्स्वयमेव शाश्वततया नोच्छिद्यते जातुचित्
निश्शंक सततं स्वयं स सहजं ज्ञानं सदा विन्दति
भय क हाँसे हो सकता है ? [सः स्वयं सततं निश्शंकः सहजं ज्ञानं सदा विन्दति ] वह तो स्वयं
निरन्तर निःशंक वर्तता हुआ सहज ज्ञानका सदा अनुभव करता है
अर्थात् अभेद्य किला है
निरन्तर अनुभव करता है
तस्य मरणं किंचन न भवेत् ] इसलिये आत्माका मरण किञ्चित्मात्र भी नहीं होता
सततं निश्शंक : सहजं ज्ञानं सदा विन्दति ] वह तो स्वयं निरन्तर निःशंक वर्तता हुआ सहज ज्ञानका
सदा अनुभव करता है
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यावत्तावदिदं सदैव हि भवेन्नात्र द्वितीयोदयः
निश्शंक : सततं स्वयं स सहजं ज्ञानं सदा विन्दति
उदय नहीं है
निरन्तर निःशंक वर्तता हुआ सहज ज्ञानका सदा अनुभव करता है
तो निःशंक वर्तता हुआ अपने ज्ञानभावका निरन्तर अनुभव करता है
कैसे है ?
उस भयका इलाज भी करता है
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सम्यग्दृष्टेर्यदिह सकलं घ्नन्ति लक्ष्माणि कर्म
पूर्वोपात्तं तदनुभवतो निश्चितं निर्ज̄रैव
आदि चिह्न हैं वे [सकलं कर्म ] समस्त क र्मोंको [घ्नन्ति ] नष्ट करते हैं; [तत् ] इसलिये,
[अस्मिन् ] क र्मका उदय वर्तता होने पर भी, [तस्य ] सम्यग्दृष्टिको [पुनः ] पुनः [कर्मणः बन्धः ]
क र्मका बन्ध [मनाक् अपि ] किञ्चित्मात्र भी [नास्ति ] नहीं होता, [पूर्वोपात्तं ] परंतु जो क र्म
पहले बन्धा था [तद्-अनुभवतः ] उसके उदयको भोगने पर उसको [निश्चितं ] नियमसे [निर्जरा
एव ] उस क र्मकी निर्जरा ही होती है
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अपि पादान् ] मिथ्यात्वादि भावरूप चारों पादोंको [छिनत्ति ] छेदता है, [सः ] उसको
[निश्शंक : ] निःशंक [सम्यग्दृष्टिः ] सम्यग्दृष्टि [ज्ञातव्यः ] जानना चाहिये
करनेवाले) मिथ्यात्वादि भावोंका (उसको) अभाव होनेसे, निःशंक है इसलिये उसे शंकाकृत बन्ध
नहीं, किन्तु निर्जरा ही है
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[निष्कांक्षः सम्यग्दृष्टिः ] निष्कांक्ष सम्यग्दृष्टि [ज्ञातव्यः ] जानना चाहिये
(निर्वांछक) है, इसलिये उसे कांक्षाकृत बन्ध नहीं, किन्तु निर्जरा ही है
वस्तुधर्मोंकी अर्थात् पुद्गलस्वभावोंकी उसे वाँछा नहीं है
नहीं है
कर्मोदय समझकर उसका ज्ञाता ही रहता है; इसलिये उसे वाँछाकृत बन्ध नहीं होता
[खलु ] निश्चयसे [निर्विचिकित्सः ] निर्विचिकित्स (
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बन्ध नहीं होता, परन्तु प्रकृति रस देकर खिर जाती है, इसलिये निर्जरा ही होती है
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होता, इसलिए उसे मूढ़दृष्टिकृत बन्ध नहीं होता, परन्तु प्रकृति रस देकर खिर जाती है, इसलिए
निर्जरा ही होती है
रागादि परभावोंमें युक्त नहीं होता) [सः ] उसको [उपगूहनकारी ] उपगूहन करनेवाला
[सम्यग्दृष्टिः ] सम्यग्दृष्टि [ज्ञातव्यः ] जानना चाहिये
जीवकी शक्तिकी दुर्बलतासे (मन्दतासे) होनेवाले बन्ध नहीं, किन्तु निर्जरा ही है
और जहाँ उपयोग सिद्धभक्तिमें लगाया वहाँ अन्य धर्मों पर दृष्टि ही नहीं रही, इसलिये वह समस्त
अन्य धर्मोंका गोपनेवाला और आत्मशक्तिका बढ़ानेवाला है
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महान् उद्यम वर्तता है
वह [स्थितिकरणयुक्त : ] स्थितिक रणयुक्त [सम्यग्दृष्टिः ] सम्यग्दृष्टि [ज्ञातव्यः ] जानना चाहिये
देता है इसलिए, स्थितिकारी (स्थिति करनेवाला) है, अतः उसे मार्गसे च्युत होनेके कारण
होनेवाला बन्ध नहीं, किन्तु निर्जरा ही है
होती है
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निर्ज̄रैव
चिन्मूर्ति वह वात्सल्ययुत, सम्यक्तदृष्टी जानना
जानना चाहिये
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प्रभावना क रनेवाला [सम्यग्दृष्टिः ] सम्यग्दृष्टि [ज्ञातव्यः ] जानना चाहिये
बन्ध नहीं, किन्तु निर्जरा ही है
आत्माको विराजमान करके मनरूप (ज्ञानरूप) मार्गमें भ्रमण करता है वह ज्ञानकी प्रभावनायुक्त
सम्यग्दृष्टि है, वह निश्चयप्रभावना करनेवाला है
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प्राग्बद्धं तु क्षयमुपनयन् निर्जरोज्जृम्भणेन
उसके निःशंकितगुण होता है
भी खिर जाता है; उसके उस कर्मके स्वामित्वका अभाव होनेसे वह आगामी बन्धरूप नहीं,
किन्तु निर्जरारूप ही है
निश्चयानुसार नियत समय पर उसके मालिकको दे देता है; नियत समयके आने तक वह द्रव्य
उसके घरमें पड़ा रहे तो भी उसके प्रति ममत्व न होनेसे उस पुरुषको उस द्रव्यका बन्धन नहीं
है, वह उसके स्वामीको दे देनेके बराबर ही है; इसीप्रकार
समान ही है ऐसा जानना चाहिए
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अंगोंसे युक्त होनेके कारण निर्जरा प्रगट होनेसे पूर्वबद्ध कर्मोंका नाश करता हुआ [सम्यग्दृष्टिः ]
सम्यग्दृष्टि जीव [स्वयम् ] स्वयं [अतिरसात् ] अति रससे (निजरसमें मस्त हुआ) [आदि-मध्य-
अन्तमुक्तं ज्ञानं भूत्वा ] आदि-मध्य-अंत रहित (सर्वव्यापक , एकप्रवाहरूप धारावाही) ज्ञानरूप
होकर [गगन-आभोग-रंगं विगाह्य ] आकाशके विस्ताररूप रंगभूमिमें अवगाहन करके (ज्ञानके
द्वारा समस्त गगनमंडलमें व्याप्त होकर) [नटति ] नृत्य करता है
पीकर मग्न हुआ नृत्यभूमिमें नाचता है
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मिथ्यात्व-अनन्तानुबन्धीका उदय होने पर भी बन्ध नहीं होता ?
अतिरिक्त शेष घातिकर्मोंकी प्रकृतियोंका अल्प स्थिति-अनुभागवाला बन्ध तथा शेष
अघातिकर्मोंकी प्रकृतियोंका बन्ध होता है, तथापि जैसा मिथ्यात्व-अनन्तानुबन्धी सहित होता
है वैसा नहीं होता
गणना कौन करता है ? वृक्षकी जड़ कट जाने पर फि र हरे पत्ते रहनेकी अवधि कितनी
होती है ? इसलिये इस अध्यात्मशास्त्रमें सामान्यतया ज्ञानी-अज्ञानी होनेके सम्बन्धमें ही प्रधान
कथन है
गया, सम्पत्तिवान हो गया
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कर्म नवीन बन्धे न तबै अर पूरव बन्ध झड़े बिन भाये;
पूरण अङ्ग सुदर्शनरूप धरै नित ज्ञान बढ़े निज पाये,
यों शिवमारग साधि निरन्तर, आनन्दरूप निजातम थाये