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अयोग्य है
इसीलिये वह अभूतार्थ धर्मकी श्रद्धा, प्रतीति, रुचि और स्पर्शनसे ऊ परके ग्रैवेयक तकके
भोगमात्रको प्राप्त होता है, किन्तु कभी भी कर्मसे मुक्त नहीं होता
तकके भोगको प्राप्त होता है, किन्तु कर्मका क्षय नहीं होता
रहनेसे उसके सर्वथा एकान्तरूप मिथ्यात्व रहता है
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[चरित्रं ] चारित्र है
प्रत्याख्यान है, [मे आत्मा ] मेरा आत्मा ही [संवरः योगः ] संवर और योग (
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तत्सद्भावेऽप्यभव्यानां शुद्धात्माभावेन दर्शनस्याभावात्; न च षड्जीवनिकायः चारित्रस्याश्रयः,
तत्सद्भावेऽप्यभव्यानां शुद्धात्माभावेन चारित्रस्याभावात्
जीवादिपदार्थसद्भावेऽसद्भावे वा तत्सद्भावेनैव दर्शनस्य सद्भावात्; शुद्ध आत्मैव चारित्रस्याश्रयः,
चारित्र है, क्योंकि वह (छह जीवनिकाय) चारित्रका आश्रय है; इसप्रकार व्यवहार है
वह दर्शनका आश्रय है और शुद्ध आत्मा चारित्र है, क्योंकि वह चारित्रका आश्रय है; इसप्रकार
निश्चय है
प्रतिषेध्य है;) और निश्चयनय व्यवहारनयका प्रतिषेधक है, क्योंकि शुद्ध आत्माके ज्ञानादिका
आश्रयत्व ऐकान्तिक है
नवपदार्थ दर्शनके आश्रय नहीं हैं, क्योंकि उनके सद्भावमें भी अभव्योंको शुद्ध आत्माके
अभावके कारण दर्शनका अभाव है; छह जीव-निकाय चारित्रके आश्रय नहीं हैं, क्योंकि उनके
सद्भावमें भी अभव्योंको शुद्ध आत्माके अभावके कारण चारित्रका अभाव है
नवपदार्थोंके सद्भावमें या असद्भावमें उसके (-शुद्ध आत्माके) सद्भावसे ही दर्शनका
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स्ते शुद्धचिन्मात्रमहोऽतिरिक्ताः
मिति प्रणुन्नाः पुनरेवमाहुः
असद्भावमें उसके (
निश्चयनय व्यवहारका निषेधक है
अन्य ?’’ [इति प्रणुन्नाः पुनः एवम् आहुः ] इसप्रकार (शिष्यके) प्रश्नसे प्रेरित होते हुए
आचार्यभगवान पुनः इसप्रकार (निम्नप्रकारसे) क हते हैं
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स्वस्य रागादिनिमित्तभूतेन, शुद्धस्वभावात्प्रच्यवमान एव, रागादिभिः परिणम्यते; तथा केवलः
किलात्मा, परिणामस्वभावत्वे सत्यपि, स्वस्य शुद्धस्वभावत्वेन रागादिनिमित्तत्वाभावात् रागादिभिः
नहीं है, [तु ] परंतु [अन्यैः रक्तादिभिः द्रव्यैः ] अन्य रक्तादि द्रव्योंसे [सः ] वह [रज्यते ] रक्त
(
[अन्यैः रागादिभिः दोषैः ] अन्य रागादि दोषोंसे [सः ] वह [रज्यते ] रागी आदि किया
जाता है
ललाई-आदिरूप परिणमनका निमित्त न होनेसे) अपने आप रागादिरूप नहीं परिणमता, किन्तु
जो अपने आप रागादिभावको प्राप्त होनेसे स्फ टिकमणिको रागादिका निमित्त होता है ऐसे परद्रव्यके
द्वारा ही, शुद्धस्वभावसे च्युत होता हुआ ही, रागादिरूप परिणमित किया जाता है; इसीप्रकार
वास्तवमें केवल (
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शुद्धस्वभावात्प्रच्यवमान एव, रागादिभिः परिणम्यते
मात्मात्मनो याति यथार्ककान्तः
वस्तुस्वभावोऽयमुदेति तावत्
निमित्त न होनेसे) अपने आप ही रागादिरूप नहीं परिणमता, परन्तु जो अपने आप रागादिभावको
प्राप्त होनेसे आत्माको रागादिका निमित्त होता है ऐसे परद्रव्यके द्वारा ही, शुद्धस्वभावसे च्युत होता
हुआ ही, रागादिरूप परिणमित किया जाता है
निमित्तसे (स्वयं ललाई-आदिरूप परिणमते ऐसे परद्रव्यके निमित्तसे) ललाई-आदिरूप
परिणमता है
[आत्मा आत्मनः रागादिनिमित्तभावम् जातु न याति ] आत्मा अपनेको रागादिका निमित्त क भी
भी नहीं होता, [तस्मिन् निमित्तं परसंगः एव ] उसमें निमित्त परसंग ही (
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रागद्वेषमोहादिभावानामकर्तैवेति प्रतिनियमः
[अतः कारकः न भवति ] अतः वह (रागादिका) क र्ता नहीं है
इसलिये [सः ] वह, [तेषां भावानाम् ] उन भावोंका [कारकः न ] कारक अर्थात् क र्ता नहीं है
होता और दूसरेके द्वारा भी परिणमित नहीं किया जाता, इसलिये टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायकभावस्वरूप
ज्ञानी राग-द्वेष-मोह आदि भावोंका अकर्ता ही है
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एवेति प्रतिनियमः
परिणमित होता हुआ अज्ञानी [रागादीन् ] रागादिको [पुनः अपि ] पुनः पुनः [बध्नाति ] बाँधता है
रागद्वेषमोहादि भावोंका कर्ता होता हुआ (कर्मोंसे) बद्ध होता ही है
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कर्मोंको बाँधता है
परिणमता हुआ [चेतयिता ] आत्मा [रागादीन् ] रागादिको [बध्नाति ] बाँधता है
बन्धके कारण है
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नैमित्तिकभावं प्रथयन्, अकर्तृत्वमात्मनो ज्ञापयति
नित्यकर्तृत्वानुषंगान्मोक्षाभावः प्रसजेच्च
तब तक [सः ] वह [कर्ता भवति ] क र्ता होता है, [ज्ञातव्यः ] ऐसा जानना चाहिए
अप्रत्याख्यानकी द्विविधताका उपदेश नहीं हो सकता
निमित्त-नैमित्तिकत्वको प्रगट करता हुआ, आत्माके अकर्तृत्वको ही बतलाता है
होगा, और वह निरर्थक होने पर एक ही आत्माको रागादिभावोंका निमित्तत्व आ जायेगा,
जिससे नित्य-कर्तृत्वका प्रसंग आ जायेगा, जिससे मोक्षका अभाव सिद्ध होगा
वह निमित्तभूत द्रव्यका प्रतिक्रमण तथा प्रत्याख्यान करता है तभी नैमित्तिकभूत भावका
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तब वह साक्षात् अकर्ता ही है
परद्रव्योंके निमित्तसे जो रागादिभाव हुए थे उन्हें वर्तमानमें अच्छा जानना, उनके संस्कार रहना,
उनके प्रति ममत्व रहना, भाव-अप्रतिक्रमण है
होनेवाले रागादिभावोंकी इच्छा रखना, ममत्व रखना, भाव अप्रत्याख्यान है
बतलाता है
परद्रव्यके अप्रतिक्रमण-अप्रत्याख्यान हैं तब तक उसके रागादिभावोंके अप्रतिक्रमण-अप्रत्याख्यान
हैं, और जब तक रागादिभावोंके अप्रतिक्रमण-अप्रत्याख्यान हैं तब तक वह रागादिभावोंका कर्ता
ही है; जब वह निमित्तभूत परद्रव्यके प्रतिक्रमण-प्रत्याख्यान करता है तब उसके नैमित्तिक
रागादिभावोंके भी प्रतिक्रमण-प्रत्याख्यान हो जाते हैं, और जब रागादिभावोंके प्रतिक्रमण-
प्रत्याख्यान हो जाते हैं तब वह साक्षात् अकर्ता ही है
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प्रत्याचष्टे
अर्थात् आत्मा [कथं करोति ] कैसे क रे [ये तु ] कि जो [नित्यम् ] सदा [परद्रव्यगुणाः ]
परद्रव्यके गुण है ?
भवति ] कैसे हो [यत् ] कि जो [नित्यम् ] सदा [अचेतनम् उक्त म् ] अचेतन क हा गया है ?
उसके निमित्तसे होनेवाले भावको नहीं त्यागता
अभाव है; अतः अधःकर्म और उद्देशिक पुद्गलद्रव्य मेरा कार्य नहीं है, क्योंकि वह नित्य अचेतन
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तन्मूलां बहुभावसन्ततिमिमामुद्धर्तुकामः समम्
येनोन्मूलितबन्ध एष भगवानात्मात्मनि स्फू र्जति
है उसने उसके निमित्तसे होनेवाले भावका प्रत्याख्यान किया है
तब उसे कुछ ग्रहण करनेका राग नहीं होता, इसलिये रागादिरूप परिणमन भी नहीं होता और इसलिये
आगामी बन्ध भी नहीं होता
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कार्यं बन्धं विविधमधुना सद्य एव प्रणुद्य
तद्वद्यद्वत्प्रसरमपरः कोऽपि नास्यावृणोति
समग्रं परद्रव्यं बलात् विवेच्य ] उस समस्त परद्रव्यको बलपूर्वक (
है, ऐसा यह भगवान आत्मा [आत्मनि ] अपनेमें ही (
तब आत्मा अपना ही अनुभव करता हुआ कर्मबन्धनको काटकर अपनेमें ही प्रकाशित होता
है
बन्धं ] उस रागादिके कार्यरूप (ज्ञानावरणादि) अनेक प्रकारके बन्धको [अधुना ] अब [सद्यः
एव ] तत्काल ही [प्रणुद्य ] दूर क रके, [एतत् ज्ञानज्योतिः ] यह ज्ञानज्योति
ही रहता है
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त्यों मतिहीन जु रागविरोध लिये विचरे तब बन्धन बाढै;
पाय समै उपदेश यथारथ रागविरोध तजै निज चाटै,
नाहिं बँधै तब कर्मसमूह जु आप गहै परभावनि काटै
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नयन्मोक्षं साक्षात्पुरुषमुपलम्भैकनियतम्
परं पूर्णं ज्ञानं कृतसकलकृत्यं विजयते
योग्य समस्त कार्य क र लिये हैं (
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नहीं करता :
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स्वभावको [कालं च ] और कालको (अर्थात् यह बन्धन इतने कालसे है इसप्रकार) [विजानाति ]
जानता है, [यदि ] किन्तु यदि [न अपि छेदं करोति ] उस बन्धनको स्वयं नहीं काटता [तेन न
मुच्यते ] तो वह उससे मुक्त नहीं होता [तु ] और [बन्धनवशः सन् ] बन्धनवश रहता हुआ
[बहुकेन अपि कालेन ] बहुत कालमें भी [सः नरः ] वह पुरुष [विमोक्षम् न प्राप्नोति ] बन्धनसे
छूटनेरूप मुक्तिको प्राप्त नहीं करता; [इति ] इसीप्रकार जीव [कर्मबन्धनानां ] क र्म-बन्धनोंके
[प्रदेशस्थितिप्रकृतिम् एवम् अनुभागम् ] प्रदेश, स्थिति, प्रकृ ति और अनुभागको [जानन् अपि ]
जानता हुआ भी [न मुच्यते ] (क र्मबन्धसे) नहीं छूटता, [च यदि सः एव शुद्धः ] किन्तु यदि
वह स्वयं (रागादिको दूर क रके) शुद्ध होता है [मुच्यते ] तभी छूटता है-मुक्त होता है
हुए (जीव)को बन्धके स्वरूपका ज्ञानमात्र मोक्षका कारण नहीं है, क्योंकि जैसे बेड़ी आदिसे बँधे
हुए (जीव)को बन्धके स्वरूपका ज्ञानमात्र बन्धसे मुक्त होनेका कारण नहीं है
ज्ञानमात्रसे सन्तुष्ट हो रहे हैं
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छूटता), [तथा ] इसीप्रकार [जीवः अपि ] जीव भी [बन्धान् चिन्तयन् ] बन्धोंके विचार क रनेसे
[विमोक्षम् न प्राप्नोति ] मोक्षको प्राप्त नहीं करता
मोक्षका कारण नहीं है, क्योंकि जैसे बेड़ी आदिसे बँधे हुए (पुरुष)को उस बन्ध सम्बन्धी
विचारश्रृङ्खला (
बताते हैं :