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जीव [बन्धान् छित्वा ] बन्धोंको छेदकर [विमोक्षम् सम्प्राप्नोति ] मोक्षको प्राप्त करता है
कर्मबन्धसे छूटनेका कारण है
जाता है
होता है, [सः ] वह [कर्मविमोक्षणं करोति ] क र्मोंसे मुक्त होता है
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होता है
कारण है ऐसा निर्णीत किया जाता है)
प्रज्ञारूप छेनीके द्वारा [छिन्नौ तु ] छेदे जाने पर [नानात्वम् आपन्नौ ] वे नानापनको प्राप्त होते
हैं अर्थात् अलग हो जाते हैं
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लक्षणसूक्ष्मान्तःसन्धिसावधाननिपातनादिति बुध्येमहि
समस्तसहक्रमप्रवृत्तानन्तपर्यायाविनाभावित्वाच्चैतन्यस्य चिन्मात्र एवात्मा निश्चेतव्यः, इति यावत्
आत्मा और बन्धको द्विधा किया जाता है (अर्थात् प्रज्ञारूप करण द्वारा ही आत्मा और बन्ध जुदे
किये जाते हैं)
व्यवहारमें माना जाता है) उन्हें प्रज्ञाके द्वारा वास्तवमें कैसे छेदा जा सकता है ?
(
क्रमवर्ती पर्यायें आत्मा हैं, इसप्रकार लक्षित करना (
क्योंकि आत्मा उसी एक लक्षणसे लक्ष्य है (अर्थात् चैतन्यलक्षणसे ही पहिचाना जाता है)
आत्मा है ऐसा निश्चय करना चाहिए
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चैतन्यस्यात्मलाभसम्भावनात्
चेतकतामेव प्रथयेत्, न पुना रागादिताम्
प्रतिभासित नहीं होते, क्योंकि रागादिके बिना भी चैतन्यका आत्मलाभ संभव है (अर्थात् जहाँ
रागादि न हों वहाँ भी चैतन्य होता है)
नहीं; जैसे (दीपकके द्वारा) प्रकाशित किये जानेवाले घटादिक (पदार्थ) दीपकके प्रकाशकत्वको
ही प्रसिद्ध करते हैं
हैं
व्यामोह (भ्रम) है; वह व्यामोह प्रज्ञा द्वारा ही अवश्य छेदा जाता है
पिण्डरूप दिखाई देते हैं ) इसलिये अनादि अज्ञान है
रागादिक बन्धका लक्षण है, तथापि मात्र ज्ञेयज्ञायकभावकी अति निकटतासे वे एक जैसे ही
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सूक्ष्मेऽन्तःसन्धिबन्धे निपतति रभसादात्मकर्मोभयस्य
बन्धं चाज्ञानभावे नियमितमभितः कुर्वती भिन्नभिन्नौ
और क र्म
आत्माको तो जिसका तेज अन्तरंगमें स्थिर और निर्मलतया देदीप्यमान है, ऐसे चैतन्यप्रवाहमें
मग्न क रती हुई [च ] और [बन्धम् अज्ञानभावे नियमितम् ] बन्धको अज्ञानभावमें निश्चल
(नियत) क रती हुई
रखना सो यही (आत्मा और बन्धको) भिन्न करना है
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[गृहीतव्यः ] ग्रहण क रना चाहिए
छोड़ना चाहिए तथा उपयोग जिसका लक्षण है ऐसे शुद्ध आत्माको ही ग्रहण करना चाहिए
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ग्रहण करना चाहिए
एक करण है
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व्यापकस्य व्याप्यत्वमनायान्तोऽत्यंतं मत्तो भिन्नाः
चेतयमानमेव चेतये
सर्वविशुद्धचिन्मात्रो भावोऽस्मि
ऐसा जानना चाहिए
अतिरिक्त अन्य लक्षणोंसे जानने योग्य) जो यह शेष व्यवहाररूप भाव हैं, वे सभी, चेतकत्वरूप
व्यापकके व्याप्य नहीं होते इसलिये, मुझसे अत्यन्त भिन्न हैं
ही चेतता हूँ, चेतते हुएके लिए ही चेतता हूँ, चेतते हुयेसे चेतता हूँ, चेततेमें ही चेतता हूँ, चेततेको
ही चेतता हूँ
चेतता हूँ; किन्तु सर्वविशुद्ध चिन्मात्र (
मुझे ही ग्रहण करता हूँ
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चिन्मुद्रांकि तनिर्विभागमहिमा शुद्धश्चिदेवास्म्यहम्
भिद्यन्तां न भिदास्ति काचन विभौ भावे विशुद्धे चिति
शुद्धः चिद् एव अहम् अस्मि ] जिसकी चिन्मुद्रासे अंकि त निर्विभाग महिमा है (अर्थात्
चैतन्यकी मुद्रासे अंकित विभाग रहित जिसकी महिमा है) ऐसा शुद्ध चैतन्य ही मैं हूँ
या गुणोंके भेद हों तो भले हों; [विभौ विशुद्धे चिति भावे काचन भिदा न अस्ति ] किन्तु
गुणभेद यदि कथंचित् हों तो भले हों, परन्तु शुद्ध चैतन्यमात्र भावमें तो कोई भेद नहीं है
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शेष [ये भावाः ] जो भाव हैं [ते ] वे [मम पराः ] मुझसे पर हैं, [इति ज्ञातव्याः ] ऐसा जानना
चाहिए
जो भाव हैं [ते ] वे [मम पराः ] मुझसे पर हैं, [इति ज्ञातव्याः ] ऐसा जानना चाहिए
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पश्यामि
जानामि
भावोऽस्मि
हूँ, देखते हुयेको ही देखता हूँ
हूँ, न देखते हुएको देखता हूँ; किन्तु मैं सर्वविशुद्ध दर्शनमात्र भाव हूँ
जानता हूँ, जानते हुएमें ही जानता हूँ, जानते हुएको ही जानता हूँ
जानते हुएसे जानता हूँ, न जानते हुएमें जानता हूँ, न जानते हुएको जानता हूँ; किन्तु मैं सर्वविशुद्ध
ज्ञप्ति (
तत्पश्चात् कारकभेदोंका निषेध करके आत्माको अर्थात् अपनेको दर्शनमात्र भावरूप तथा ज्ञानमात्र
भावरूप करना चाहिये अर्थात् अभेदरूपसे अनुभव करना चाहिये
अनुभव करना ही आत्माका ‘ग्रहण करना’ है
चैतन्यमात्र कहा गया है
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दात्मा चान्तमुपैति तेन नियतं
उल्लंघन नहीं करती
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भावाः परे ये किल ते परेषाम्
भावाः परे सर्वत एव हेयाः
छोड़ देगी; और [तत्-त्यागे ] इसप्रकार चेतना अपने अस्तित्वको छोड़ने पर, (१) [चितः अपि
जडता भवति ] चेतनके जड़त्व आ जायेगा अर्थात् आत्मा जड़ हो जाय, [च ] और (२)
[व्यापकात् विना व्याप्यः आत्मा अन्तम् उपैति ] व्यापक (चेताना)के बिना व्याप्य जो आत्मा
वह नष्ट हो जायेगा (
(अपने चेतना गुणका अभाव होने पर) जड़त्व आ जायगा, अथवा तो व्यापकके अभावसे
व्याप्य ऐसे आत्माका अभाव हो जायेगा
‘वस्तुका स्वरूप सामान्यविशेषरूप है, इसलिए चेतनाको सामान्यविशेषरूप अंगीकार करना
चाहिए’
दूसरोंके भाव हैं; [तत : ] इसलिए [चिन्मयः भावः एव ग्राह्यः ] (एक) चिन्मय भाव ही ग्रहण
क रने योग्य है, [परे भावाः सर्वतः एव हेयाः ] अन्य भाव सर्वथा त्याज्य हैं
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[इदम् मम ] ‘यह मेरा है’ (
भावोंको दूसरोंके जानता है
हैं
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शुद्धं चिन्मयमेकमेव परमं ज्योतिः सदैवास्म्यहम्
स्तेऽहं नास्मि यतोऽत्र ते मम परद्रव्यं समग्रा अपि
एक परम ज्योति ही हूँ; [तु] और [एते ये पृथग्लक्षणाः विविधाः भावाः समुल्लसन्ति ते अहं न अस्मि ]
जो यह भिन्न लक्षणवाले विविध प्रकारके भाव प्रगट होते हैं वे मैं नहीं हूँ, [यतः अत्र ते समग्राः
अपि मम परद्रव्यम्
संवृत है (अर्थात् जो अपने द्रव्यमें ही गुप्त है
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चोर समझकर [मा बध्ये ] पकड़ न ले’, इसप्रकार [शङ्कितः भ्रमति ] शंकि त होता हुआ घूमता
है; [यः ] जो पुरुष [अपराधान् ] अपराध [न करोति ] नहीं क रता [सः तु ] वह [जनपदे ]
लोक में [निश्शङ्कः भ्रमति ] निःशंक घूमता है, [यद् ] क्योंकि [तस्य ] उसे [बद्धुं चिन्ता ]
बँधनेकी चिन्ता [कदाचित् अपि ] क भी भी [न उत्पद्यते ] उत्पन्न नहीं होती
बँधूँगा’ इसप्रकार [शङ्कितः ] शंकि त होता है, [यदि पुनः ] और यदि [निरपराधः ] अपराध रहित
(आत्मा) हो तो ‘[अहं न बध्ये ] मैं नहीं बँधूँगा’ इसप्रकार [निश्शंङ्कः ] निःशंक होता है
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करोति तस्यैव बन्धशंका सम्भवति, यस्तु शुद्धः संस्तं न करोति तस्य सा न सम्भवतीति
नियमः
करता है उसीको बन्धकी शँका होती है, तथा जो शुद्ध वर्तता हुआ अपराध नहीं करता उसे बन्धकी
शँका नहीं होती
निरपराधता होती है
अवश्य होगी; यदि अपनेको शुद्ध अनुभव करे, परका ग्रहण न करे, तो बन्धकी शँका क्यों होगी ?
इसलिए परद्रव्यको छोड़कर शुद्ध आत्माका ग्रहण करना चाहिए
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अपराध [भवति ] है
हूँ ’ ऐसा जानता हुआ [आराधनया ] आराधनासे [नित्यं वर्तते ] सदा वर्तता है
वर्तता हो वह आत्मा सापराध है
अनाराधक ही है
लक्षण है ऐसा एक शुद्ध आत्मा ही मैं हूँ’ इसप्रकार निश्चय करता हुआ शुद्ध आत्माकी सिद्धि
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स्पृशति निरपराधो बन्धनं नैव जातु
भवति निरपराधः साधु शुद्धात्मसेवी
होता हुआ अपने उपयोगमें लीन होता है, इसलिये उसे बन्धकी शंका नहीं होती, इसलिये ‘जो
शुद्ध आत्मा है वही मैं हूँ’ ऐसे निश्चयपूर्वक वर्तता हुआ सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तपके
एक भावरूप निश्चय आराधनाका आराधक ही है
बन्धनको [जातु ] क दापि [स्पृशति न एव ] स्पर्श नहीं करता
[सापराधः ] सापराध है; [निरपराधः ] निरपराध आत्मा तो [साधु ] भलीभाँति [शुद्धात्मसेवी
भवति ] शुद्ध आत्माका सेवन करनेवाला होता है
हैं वे, अपराधको दूर करनेवाले न होनेसे, विषकुम्भ हैं, इसलिये जो प्रतिक्रमणादि हैं वे,
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