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बुद्धि सम्भवित है)
एव ] और [अशुद्धिः ] अशुद्धि
अपराधरूप होनेसे विषकुम्भ ही है; उनका विचार करनेका क्या प्रयोजन है ? (क्योंकि वे तो प्रथम
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प्रतिक्रमणादिरूपां तार्तीयीकीं भूमिमपश्यतः स्वकार्यकरणासमर्थत्वेन विपक्षकार्यकारित्वाद्विषकुम्भ
एव स्यात्
साधयति
प्रतिक्रमणाप्रतिक्रमणाद्यगोचराप्रतिक्रमणादिरूपं शुद्धात्मसिद्धिलक्षणमतिदुष्करं किमपि कारयति
प्रतिक्रमण
(अर्थात् बन्धका) कार्य करते होनेसे विषकुम्भ ही हैं
करनेवाली होनेसे, साक्षात् स्वयं अमृतकुम्भ है और इसप्रकार (वह तीसरी भूमि) व्यवहारसे
द्रव्यप्रतिक्रमणादिको भी अमृतकुम्भत्व साधती है
आत्माकी सिद्धि जिसका लक्षण है ऐसा, अति दुष्कर कुछ करवाता है
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प्रलीनं चापलमुन्मूलितमालम्बनम्
मासम्पूर्णविज्ञानघनोपलब्धेः
क्या प्रयोजन है ? शुद्ध होनेके बाद उसका आलम्बन होगा; पहलेसे ही आलम्बनका खेद
निष्फल है
तो द्रव्यप्रतिक्रमणादिक दोषस्वरूप ही हैं, वे दोषोंके मिटानेमें समर्थ नहीं हैं; क्योंकि निश्चयकी
अपेक्षासे युक्त ही व्यवहारनय मोक्षमार्गमें है, केवल व्यवहारका ही पक्ष मोक्षमार्गमें नहीं है,
बन्धका ही मार्ग है
कहे हैं वे भी निश्चयनयसे विषकुम्भ ही हैं, क्योंकि आत्मा तो प्रतिक्रमणादिसे रहित, शुद्ध,
अप्रतिक्रमणादिस्वरूप ही है
अनधिकारी क हा है), [चापलम् प्रलीनम् ] चापल्यका (
उन्मूलितम् ] आलंबनको उखाड़ फें का है (अर्थात् सम्यग्दृष्टिके द्रव्यप्रतिक्र मण इत्यादिको भी
निश्चयसे बन्धका कारण मानकर हेय क हा है), [आसम्पूर्ण-विज्ञान-घन-उपलब्धेः ] जब तक
सम्पूर्ण विज्ञानघन आत्माकी प्राप्ति न हो तब तक [आत्मनि एव चित्तम् आलानितं च ]
(शुद्ध) आत्मारूप स्तम्भसे ही चित्तको बाँध रखा है (
क्योंकि वही मोक्षका कारण है)
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तत्राप्रतिक्रमणमेव सुधा कुतः स्यात्
किं नोर्ध्वमूर्ध्वमधिरोहति निष्प्रमादः
समझानेके लिए कलशरूप काव्य कहते हैं :
क हाँसे हो सकता है ? (अर्थात् नहीं हो सक ता
निष्प्रमादी होते हुए [ऊ र्ध्वम् ऊ र्ध्वम् किं न अधिरोहति ] ऊ पर ही ऊ पर क्यों नहीं चढ़ते ?
(द्रव्यप्रतिक्रमणादिको) तो निश्चयनयकी प्रधानतासे विषकुम्भ कहा है, क्योंकि वे कर्मबन्धके
ही कारण हैं, और प्रतिक्रमण-अप्रतिक्रमणादिसे रहित ऐसी तीसरी भूमि, जो कि शुद्ध
आत्मस्वरूप है तथा प्रतिक्रमणादिसे रहित होनेसे अप्रतिक्रमणादिरूप है, उसे अमृतकुम्भ कहा
है अर्थात् वहाँके अप्रतिक्रमणादिको अमृतकुम्भ कहा है
है वहाँ निषेधरूप अप्रतिक्रमण ही अमृतकुम्भ हो सकता है, अज्ञानीका नहीं
तीसरी भूमिके शुद्ध आत्मामय जानने चाहिए
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कषायभरगौरवादलसता प्रमादो यतः
मुनिः परमशुद्धतां व्रजति मुच्यते वाऽचिरात्
स्वद्रव्ये रतिमेति यः स नियतं सर्वापराधच्युतः
च्चैतन्यामृतपूरपूर्णमहिमा शुद्धो भवन्मुच्यते
प्रमादयुक्त आलस्यभाव शुद्धभाव कैसे हो सकता है ? [अतः स्वरसनिर्भरे स्वभावे नियमितः भवन्
मुनिः ] इसलिये निज रससे परिपूर्ण स्वभावमें निश्चल होनेवाला मुनि [परमशुद्धतां व्रजति ] परम
शुद्धताको प्राप्त होता है [वा ] अथवा [अचिरात् मुच्यते ] शीघ्र
स्वद्रव्यमें लीन होता है, [सः ] वह पुरुष [नियतम् ] नियमसे [सर्व-अपराध-च्युतः ] सर्व
अपराधोंसे रहित होता हुआ, [बन्ध-ध्वंसम् उपेत्य नित्यम् उदितः ] बन्धके नाशको प्राप्त होकर
नित्य-उदित (सदा प्रकाशमान) होता हुआ, [स्व-ज्योतिः-अच्छ-उच्छलत्-चैतन्य-अमृत-पूर-
पूर्ण-महिमा ] अपनी ज्योतिसे (आत्मस्वरूपके प्रकाशसे) निर्मलतया उछलता हुआ जो
चैतन्यरूप अमृतका प्रवाह उसके द्वारा जिसकी पूर्ण महिमा है ऐसा [शुद्धः भवन् ] शुद्ध होता
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न्नित्योद्योतस्फु टितसहजावस्थमेकान्तशुद्धम्
पूर्णं ज्ञानं ज्वलितमचले स्वस्य लीनं महिम्नि
बन्धका नाश करता है और नित्य उदयस्वरूप केवलज्ञानको प्राप्त करके, शुद्ध होकर समस्त
कर्मोंका नाश करके, मोक्षको प्राप्त करता है
अवस्थम् ] नित्य उद्योतवाली (जिसका प्रकाश नित्य है ऐसी) सहज अवस्था जिसकी खिल
उठी है ऐसा, [एकान्त-शुद्धम् ] एकान्त शुद्ध (
परिणमित) निजरसकी अतिशयतासे जो अत्यन्त गम्भीर और धीर है ऐसा, [एतत् पूर्णं ज्ञानम् ]
यह पूर्ण ज्ञान [ज्वलितम् ] प्रकाशित हो उठा है (सर्वथा शुद्ध आत्मद्रव्य जाज्वल्यमान प्रगट
हुआ है); और [स्वस्य अचले महिम्नि लीनम् ] अपनी अचल महिमामें लीन हुआ है
नहीं है ऐसा) और धीर (आकुलता रहित)
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चिन्त करै निति कैम कटे यह तौऊ छिदै नहि नैक टिकारी
यों बुध बुद्धि धसाय दुधा करि कर्म रु आतम आप गहारी
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दूरीभूतः प्रतिपदमयं बन्धमोक्षप्रक्लृप्तेः
ष्टंकोत्कीर्णप्रकटमहिमा स्फू र्जति ज्ञानपुंजः
(अर्थात् क र्मोंके क्षयोपशमके निमित्तसे होनेवाली प्रत्येक पर्यायमें) [बन्ध-मोक्ष-प्रक्लृप्तेः दूरीभूतः ]
बन्ध-मोक्षकी रचनासे दूर वर्तता हुआ, [शुद्धः शुद्धः ] शुद्ध
(
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शुद्ध है, निजरसके प्रवाहसे पूर्ण देदीप्यमान ज्योतिरूप है और टंकोत्कीर्ण महिमामय है
है
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[कटकादिभिः पर्यायैः तु ] क ड़ा इत्यादि पर्यायोंसे [कनकम् ] सुवर्ण [अनन्यत् ] अनन्य है वैसे
अजीवको [अनन्यं विजानीहि ] अनन्य जानो
किसीको [न उत्पादयति ] उत्पन्न नहीं करता, [तेन ] इसलिये [सः ] वह [कारणम् अपि ]
(किसीका) कारण भी [न भवति ] नहीं है
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कंक णादिपरिणामैः कांचनवत्
चाजीवस्य जीवकर्मत्वं न सिध्यति; तदसिद्धौ च कर्तृकर्मणोरनन्यापेक्षसिद्धत्वात् जीवस्याजीवकर्तृत्वं
न सिध्यति
उत्पद्यन्ते ] क र्म उत्पन्न होते हैं; [अन्या तु ] अन्य किसी प्रकारसे [सिद्धिः ] क र्ताक र्मकी
सिद्धि [न दृश्यते ] नहीं देखी जाती ।
ही है, जीव नहीं; क्योंकि जैसे (कंकण आदि परिणामोंसे उत्पन्न होनेवाले ऐसे) सुवर्णका
कंकण आदि परिणामोंके साथ तादात्म्य है, उसी प्रकार सर्व द्रव्योंका अपने परिणामोंके साथ
तादात्म्य है
उत्पादकभावका अभाव है; उसके (कार्यकारणभावके) सिद्ध न होने पर, अजीवके जीवका
कर्मत्व सिद्ध नहीं होता; और उसके (
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स्फु रच्चिज्जयोतिर्भिश्छुरितभुवनाभोगभवनः
स खल्वज्ञानस्य स्फु रति महिमा कोऽपि गहनः
लोक का समस्त विस्तार व्याप्त हो जाता है ऐसा जिसका स्वभाव है, [अयं जीवः ] ऐसा यह जीव
[इति ] पूर्वोक्त प्रकारसे (परद्रव्यका तथा परभावोंका) [अकर्ता स्थितः ] अक र्ता सिद्ध हुआ,
[तथापि ] तथापि [अस्य ] उसे [इह ] इस जगतमें [प्रकृतिभिः ] क र्मप्रकृ तियोंके साथ [यद् असौ
बन्धः किल स्यात् ] जो यह (प्रगट) बन्ध होता है, [सः खलु अज्ञानस्य कः अपि गहनः महिमा
स्फु रति ] सो वह वास्तवमें अज्ञानकी कोई गहन महिमा स्फु रायमान है
अरु प्रकृतिका जीवके निमित्त, विनाश अरु उत्पाद है
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विनाशावासादयति
भी [चेतकार्थम् ] चेतक अर्थात् आत्माके निमित्तसे [उत्पद्यते ] उत्पन्न होती है [विनश्यति ]
तथा नष्ट होती है
कर्ता होता हुआ, प्रकृतिके निमित्तसे उत्पत्ति-विनाशको प्राप्त होता है; प्रकृति भी आत्माके
निमित्तसे उत्पत्ति-विनाशको प्राप्त होती है (अर्थात् आत्माके परिणामानुसार परिणमित होती है),
इसप्रकार
और प्रकृतिके) कर्ता-कर्मका व्यवहार है
संसार है और इसीसे कर्ताकर्मपनेका व्यवहार है
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[अज्ञायकः ] अज्ञायक है, [मिथ्यादृष्टिः ] मिथ्यादृष्टि है, [असंयतः भवेत् ] असंयत है
भवति ]
श्रद्धानसे) मिथ्यादृष्टि है और स्व-परकी एकत्वपरिणतिसे असंयत है; और तब तक ही परके तथा
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स्वपरयोर्विभागपरिणत्या च संयतो भवति; तदैव च परात्मनोरेकत्वाध्यासस्याकरणादकर्ता भवति
और तभी स्व-परके एकत्वका अध्यास न करनेसे अकर्ता है
अज्ञानी, असंयमी होकर, कर्ता होकर, कर्मका बन्ध करता है
अभोक्त है
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वेदयते
कर्मफलमुदितं ज्ञेयमात्रत्वात् जानात्येव, न पुनः तस्याहंतयाऽनुभवितुमशक्यत्वाद्वेदयते
तो [उदितं कर्मफलं ] उदित (उदयागत) क र्मफलको [जानाति ] जानता है, [न वेदयते ]
भोगता नहीं
प्रकृतिके स्वभावको भी ‘अहं’रूपसे अनुभव करता हुआ (अर्थात् प्रकृतिके स्वभावको भी
‘यह मैं हूँ’ इसप्रकार अनुभव करता हुआ) कर्मफलको वेदता
स्व-परकी विभागपरिणतिसे प्रकृतिके स्वभावसे निवृत्त (
ज्ञेयमात्रताके कारण, जानता ही है, किन्तु उसका ‘अहं’रूपसे अनुभवमें आना अशक्य होनेसे,
(उसे) नहीं भोगता
गया है, इसलिए वह उस प्रकृतिके उदयको अपना स्वभाव नहीं जानता हुआ उसका मात्र
ज्ञाता ही रहता है, भोक्ता नहीं होता
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ज्ञानी तु प्रकृतिस्वभावविरतो नो जातुचिद्वेदकः
शुद्धैकात्ममये महस्यचलितैरासेव्यतां ज्ञानिता
(
तेजमें [अचलितैः ] निश्चल होकर [ज्ञानिता आसेव्यताम् ] ज्ञानीपनेका सेवन करो
छोड़ता, [गुडदुग्धम् ] जैसे मीठे दूधको [पिबन्तः अपि ] पीते हुए [पन्नगाः ] सर्प [निर्विषाः ]
निर्विष [न भवन्ति ] नहीं होते
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समर्थद्रव्यश्रुतज्ञानाच्च न मुंचति, नित्यमेव भावश्रुतज्ञानलक्षणशुद्धात्मज्ञानाभावेनाज्ञानित्वात्
प्रकृतिस्वभावको अपने आप नहीं छोड़ता और प्रकृतिस्वभावको छुड़ानेमें समर्थ ऐसे द्रव्यश्रुतके
ज्ञानसे भी नहीं छोड़ता; क्योंकि उसे सदा ही, भावश्रुतज्ञानस्वरूप शुद्धात्मज्ञानके (-शुद्ध आत्माके
ज्ञानके) अभावके कारण, अज्ञानीपन है
कारण, कर्मोदयको भोगनेके स्वभावको नहीं बदलता; इसलिये इस उदाहरणसे स्पष्ट हुआ कि
शास्त्रोंका ज्ञान इत्यादि होने पर भी जब तक जीवको शुद्ध आत्माका ज्ञान नहीं है अर्थात् अज्ञानीपन
है तब तक वह नियमसे भोक्ता ही है
जानता है, [तेन ] इसलिये [सः ] वह [अवेदकः भवति ] अवेदक है
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पुनर्ज्ञाने सति परद्रव्यस्याहंतयाऽनुभवितुमयोग्यत्वाद्वेदयते
जानाति केवलमयं किल तत्स्वभावम्
च्छुद्धस्वभावनियतः स हि मुक्त एव
कर्मफलको ज्ञातापनेके कारण मात्र जानता ही है, किन्तु ज्ञानके होने पर (
है तो उसे परमार्थसे भोक्ता नहीं कहा जा सकता, व्यवहारसे भोक्ता कहलाता है
जानता ही है
निश्चल ऐसा वह वास्तवमें मुक्त ही है
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शुभमशुभं वा केवलमेव जानाति
च पापं च ] पुण्य और पापरूप [बन्धं ] क र्मबन्धको [कर्मफलं ] तथा क र्मफलको [जानाति ]
जानता है
कर्मफलको मात्र जानता ही है
जाने हि कर्मोदय, निरजरा, बन्ध त्यों ही मोक्षको