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च दुर्निवारत्वात्, किन्तु केवलं दर्शनमात्रस्वभावत्वात् तत्सर्वं केवलमेव पश्यति; तथा ज्ञानमपि स्वयं
द्रष्टृत्वात् कर्मणोऽत्यन्तविभक्त त्वेन निश्चयतस्तत्करणवेदनयोरसमर्थत्वात्कर्म न करोति न वेदयते च,
किन्तु केवलं ज्ञानमात्रस्वभावत्वात्कर्मबन्धं मोक्षं वा कर्मोदयं निर्जरां वा केवलमेव जानाति
अवेदक है, [च ] और [बन्धमोक्षं ] बन्ध, मोक्ष, [कर्मोदयं ] क र्मोदय [निर्जरां च एव ] तथा
निर्जराको [जानाति ] जानता ही है
(अर्थात् यदि नेत्र दृश्य पदार्थको करता और भोगता हो तो नेत्रके द्वारा अग्नि जलनी चाहिए और
नेत्रको अग्निकी उष्णताका अनुभव होना चाहिए; किन्तु ऐसा नहीं होता, इसलिये नेत्र दृश्य पदार्थका
कर्ता-भोक्ता नहीं है)
कारण निश्चयसे उसके करने-वेदने-(भोगने) में असमर्थ होनेसे, कर्मको न तो करता है और न
वेदता (भोगता) है, किन्तु केवल ज्ञानमात्रस्वभाववाला (
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सकता है ?’’ उसका समाधान :
स्वतन्त्रतया तो किसीका कर्ता-भोक्ता नहीं होता, तथा अपनी निर्बलतासे कर्मके उदयकी
बलवत्तासे जो कार्य होता है उसका परमार्थदृष्टिसे वह कर्ता-भोक्ता नहीं कहा जाता
ही भेद है
होगा
अज्ञानभाव कहा है
तथापि [सामान्यजनवत् ] सामान्य (लौकि क ) जनोंकी भाँति [तेषां मोक्षः न ] उनकी भी मुक्ति
नहीं होती
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कायके जीवोंको [आत्मा ] आत्मा [करोति ] क रता हो, [यदि लोकश्रमणानाम् ] तो लोक और
श्रमणोंका [एकः सिद्धान्तः ] एक सिद्धांत हो गया, [विशेषः न दृश्यते ] उनमें कोई अन्तर दिखाई
नहीं देता; (क्योंकि) [लोकस्य ] लोक के मतमें [विष्णुः ] विष्णु [करोति ] क रता है और
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समत्वात्
मान्यतामें दोनों समान हुए)
प्रवर्तमान) ऐसे [लोकश्रमणानां द्वयेषाम् अपि ] उन लोक और श्रमण
और उन (
है
क र्मत्वके सम्बन्धका अभाव होनेसे, [तत्कर्तृता कुतः ] आत्माके परद्रव्यका क र्तृत्व क हाँसे हो
सकता है ?
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परद्रव्यका कर्तृत्व कैसे हो सकता है ? २००
इत्यादि अर्थकी सूचक गाथायें दृष्टान्त सहित कहते हैं :
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[भणन्ति ] ऐसा क हते हैं, [तु ] परन्तु ज्ञानीजन [निश्चयेन जानन्ति ] निश्चयसे जानतेे हैं कि
‘[किञ्चित् ] कोई [परमाणुमात्रम् अपि ] परमाणुमात्र भी [न च मम ] मेरा नहीं है’
उसके [न च भवन्ति ] नहीं हैं, [मोहेन च ] मोहसे [सः आत्मा ] वह आत्मा [भणति ] ‘मेरे हैं’
इसप्रकार क हता है; [एवम् एव ] इसीप्रकार [यः ज्ञानी ] जो ज्ञानी भी [परद्रव्यं मम ] ‘परद्रव्य मेरा
है’ [इति जानन् ] ऐसा जानता हुआ [आत्मानं करोति ] परद्रव्यको निजरूप क रता है, [एषः ] वह
[निःसंशयं ] निःसंदेह अर्थात् निश्चयतः [मिथ्यादृष्टिः ] मिथ्यादृष्टि [भवति ] होता है
व्यवसाय सम्यग्दर्शनसे रहित पुरुषोंका है
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कुर्वाणो मिथ्या
इति सुनिश्चितं जानीयात्
सम्बन्ध एव सकलोऽपि यतो निषिद्धः
पश्यन्त्वकर्तृ मुनयश्च जनाश्च तत्त्वम्
किया गया है, [तत् ] इसलिये [वस्तुभेदे ] जहाँ वस्तुभेद है अर्थात् भिन्न वस्तुएँ हैं वहाँ
[कर्तृकर्मघटना अस्ति न ] क र्ताक र्मघटना नहीं होती
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मज्ञानमग्नमहसो बत ते वराकाः
कर्ता स्वयं भवति चेतन एव नान्यः
[अज्ञानमग्नमहसः ] जिनका (पुरुषार्थरूप
भावक र्मका क र्ता चेतन ही स्वयं होता है, [अन्यः न ] अन्य कोई नहीं
हैं :
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[तस्मात् ] तो [ते ] तुम्हारे मतमें [अचेतना प्रकृतिः ] अचेतन प्रकृ ति [ननु कारका प्राप्ता ]
(मिथ्यात्वभावकी) क र्ता हो गई ! (इसलिये मिथ्यात्वभाव अचेतन सिद्ध हुआ!)
द्रव्य मिथ्यादृष्टि सिद्ध होगा!
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पुद्गलद्रव्यस्य चेतनानुषंगात्
तो [द्वाभ्यां कृतं तत् ] जो दोनोंके द्वारा किया [तस्य फलम् ] उसका फल [द्वौ अपि भुञ्जाते ]
दोनों भोगेंगे !
मिथ्यात्वभावरूप सिद्ध होगा ! [तत् तु न खलु मिथ्या ] क्या यह वास्तवमें मिथ्या नहीं है ?
करे तो पुद्गलद्रव्यको चेतनत्वका प्रसंग आ जायेगा
प्रकृतिको भी उस (-भावकर्म)का फल भोगनेका प्रसंग आ जायेगा
स्वभावसे ही पुद्गलद्रव्यको मिथ्यात्वादि भावका प्रसंग आ जायेगा
अपना भावकर्म अपना कार्य है)
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रज्ञायाः प्रकृतेः स्वकार्यफलभुग्भावानुषंगात्कृतिः
जीवस्यैव च कर्म तच्चिदनुगं ज्ञाता न यत्पुद्गलः
होता है
परिणामीकी भेददृष्टिमें अपने अज्ञानभावरूप परिणामोंका कर्ता जीव ही है
दोनोंकी कृ ति हो, [अज्ञायाः प्रकृतेः स्व-कार्य-फल-भुग्-भाव-अनुषंगात् ] क्योंकि यदि वह
दोनोंका कार्य हो तो ज्ञानरहित (जड़) प्रकृ तिको भी अपने कार्यका फल भोगनेका प्रसंग आ
जायेगा
अन्वयरूप (
पुद्गलका क र्म नहीं हो सकता)
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कर्तात्मैष कथंचिदित्यचलिता कैश्चिच्छ्रुतिः कोपिता
स्याद्वादप्रतिबन्धलब्धविजया वस्तुस्थितिः स्तूयते
क र्तृत्वको उड़ाकर, ‘[एषः आत्मा कथंचित् क र्ता ] यह आत्मा क थंचित् क र्ता है’ [इति
अचलिता श्रुतिः कोपिता ] ऐसा क हनेवाली अचलित श्रुतिको कोपित क रते हैं (
बुद्धि तीव्र मोहसे मुद्रित हो गई है ऐसे उन आत्मघातकोंके ज्ञानकी संशुद्धिके लिये
(निम्नलिखित गाथाओं द्वारा) [वस्तुस्थितिः स्तूयते ] वस्तुस्थिति क ही जाती है
जो वस्तुस्थिति स्याद्वादरूप नियमसे निर्बाधतया सिद्ध होती है)
कहती है
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हैं [तथा एव ] उसी तरह [कर्मभिः जागर्यते ] क र्म जगाते हैं, [कर्मभिः सुखी क्रियते ] क र्म सुखी
क रते हैं [तथा एव ] उसी तरह [कर्मभिः दुःखी क्रियते ] क र्म दुःखी क रते हैं, [कर्मभिः च
मिथ्यात्वं नीयते ] क र्म मिथ्यात्वको प्राप्त कराते हैं [च एव ] और [असंयमं नीयते ] क र्म
असंयमको प्राप्त कराते हैं, [कर्मभिः ] क र्म [ऊ र्ध्वम् अधः च अपि तिर्यग्लोकं च ] ऊ र्ध्वलोक ,
अधोलोक और तिर्यग्लोक में [भ्राम्यते ] भ्रमण कराते हैं, [यत्किञ्चित् यावत् शुभाशुभं ] जो कुछ
भी जितना शुभ और अशुभ है वह सब [कर्मभिः च एव क्रियते ] क र्म ही क रते हैं
[सर्वजीवाः ] सभी जीव [अकारकाः आपन्नाः भवन्ति ] अकारक (अक र्ता) सिद्ध होते हैं
तु ] हमारे उपदेशमें [कः अपि जीवः ] कोई भी जीव [अब्रह्मचारी न ] अब्रह्मचारी नहीं है,
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[इति भणितम् ] ऐसा कहा है
[कः अपि जीवः ] कोई भी जीव [उपघातकः न अस्ति ] उपघातक (मारनेवाला) नहीं है,
[यस्मात् ] क्योंकि [कर्म च एव हि ] क र्म ही [कर्म हन्ति ] क र्मको मारता है [इति भणितम् ]
ऐसा कहा है
उनके मतमें [प्रकृतिः करोति ] प्रकृ ति ही क रती है [आत्मानः च सर्वे ] और आत्मा तो सब
[अकारकाः ] अकारक हैं ऐसा सिद्ध होता है !
[करोति ] क रता है’, [एतत् जानतः तव ] तो ऐसा जाननेवालेका
तु ] बताया गया है, [ततः ] उससे [सः ] वह [हीनः अधिकः च ] हीन या अधिक [कर्तुं न
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जीवरूप [खलु ] निश्चयसे [लोकमात्रं जानीहि ] लोक मात्र जानो; [ततः ] उससे [किं सः हीनः
अधिकः वा ] क्या वह हीन अथवा अधिक होता है ? [द्रव्यम् कथं करोति ] तब फि र (आत्मा)
द्रव्यको (अर्थात् द्रव्यरूप आत्माको) कैसे क रता है ?
आत्मा स्वयं [आत्मनः आत्मानं तु ] अपने आत्माको [न करोति ] नहीं करता यह सिद्ध होगा !
जिससे स्याद्वादके साथ विरोध नहीं आता
अनुपपत्ति है; कर्म ही सुलाता है, क्योंकि निद्रा नामक कर्मके उदयके बिना उसकी अनुपपत्ति
है; कर्म ही जगाता है, क्योंकि निद्रा नामक कर्मके क्षयोपशमके बिना उसकी अनुपपत्ति है; कर्म
ही सुखी करता है, क्योंकि सातावेदनीय नामक कर्मके उदयके बिना उसकी अनुपपत्ति है; कर्म
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निश्चिनुमः
प्रतिषेधात्, तथा यत्परं हन्ति, येन च परेण हन्यते तत्परघातकर्मेति वाक्येन कर्मण एव
कर्मघातकर्तृत्वसमर्थनेन जीवस्य घातकर्तृत्वप्रतिषेधाच्च सर्वथैवाकर्तृत्वज्ञापनात्
कर्म ही मिथ्यादृष्टि करता है, क्योंकि मिथ्यात्वकर्मके उदयके बिना उसकी अनुपपत्ति है; कर्म
ही असंयमी करता है, क्योंकि चारित्रमोह नामक कर्मके उदयके बिना उसकी अनुपपत्ति है;
कर्म ही ऊ र्ध्वलोकमें, अधोलोकमें और तिर्यग्लोकमें भ्रमण कराता है, क्योंकि आनुपूर्वी नामक
कर्मके उदयके बिना उसकी अनुपपत्ति है; दूसरा भी जो कुछ जितना शुभ
है
कर्म स्त्रीकी अभिलाषा करता है और स्त्रीवेद नामक कर्म पुरुषकी अभिलाषा करता है’ इस
वाक्यसे कर्मको ही कर्मकी अभिलाषाके कर्तृत्वके समर्थन द्वारा जीवको अब्रह्मचर्यके कर्तृत्वका
निषेध करती है, तथा ‘जो परको हनता है और जो परके द्वारा हना जाता है वह परघातकर्म
है’ इस वाक्यसे कर्मको ही कर्मके घातका कर्तृत्व होनेके समर्थन द्वारा जीवको घातके
कर्तृत्वका निषेध करती है, और इसप्रकार (अब्रह्मचर्यके तथा घातके कर्तृत्वके निषेध द्वारा)
जीवका सर्वथा अकर्तृत्व बतलाती है
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परिहर्तुम्
कार्यत्वं, प्रदेशसंकोचनविकाशनयोरपि शुष्कार्द्रचर्मवत्प्रतिनियतनिजविस्ताराद्धीनाधिकस्य तस्य
कर्तुमशक्यत्वात्
वाणीकी विराधना होती है)
है
आकर्षण द्वारा भी कार्यत्व नहीं बन सकता, क्योंकि प्रदेशोंका प्रक्षेपण तथा आकर्षण हो तो
उसके एकत्वका व्याघात हो जायेगा
प्रदेशवाला एक ही द्रव्य है, इसलिये वह अपने प्रदेशोंको निकाल नहीं सकता तथा अधिक
प्रदेशोंको ले नहीं सकता
संकोच-विकास द्वारा भी कार्यत्व नहीं बन सकता, क्योंकि प्रदेशोंके संकोच-विस्तार होने पर भी,
सूखे-गीले चमड़ेकी भाँति, निश्चित निज विस्तारके कारण उसे (
है और इसप्रकार स्थित रहता हुआ, ज्ञायकत्व और कर्तृत्वके अत्यन्त विरुद्धता होनेसे,
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भवति, भवन्ति च मिथ्यात्वादिभावाः, ततस्तेषां कर्मैव कर्तृ प्ररूप्यत इति वासनोन्मेषः
स तु नितरामात्मात्मानं करोतीत्यभ्युपगममुपहन्त्येव
त्वज्ञानरूपस्य ज्ञानपरिणामस्य करणात्कर्तृत्वमनुमन्तव्यं; तावद्यावत्तदादिज्ञेयज्ञानभेदविज्ञान-
पूर्णत्वादात्मानमेवात्मेति जानतो विशेषापेक्षयापि ज्ञानरूपेणैव ज्ञानपरिणामेन परिणममानस्य केवलं
ज्ञातृत्वात्साक्षादकर्तृत्वं स्यात्
कर्म ही है, इसप्रकार प्ररूपित किया जाता है’’
ही है (क्योंकि सदा ही ज्ञायक माननेसे आत्मा अकर्ता ही सिद्ध हुआ)
होनेसे, परको आत्माके रूपमें जानता हुआ वह (ज्ञायकभाव) विशेष अपेक्षासे अज्ञानरूप
ज्ञानपरिणामको करता है (
तक की जब तक भेदविज्ञानके प्रारम्भसे ज्ञेय और ज्ञानके भेदविज्ञानसे पूर्ण (अर्थात् भेदविज्ञान
सहित) होनेके कारण आत्माको ही आत्माके रूपमें जानता हुआ वह (ज्ञायकभाव), विशेष
अपेक्षासे भी ज्ञानरूप ही ज्ञानपरिणामसे परिणमित होता हुआ (
जागना, सुख, दुःख, मिथ्यात्व, असंयम, चार गतियोंमें भ्रमण