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कर्तारं कलयन्तु तं किल सदा भेदावबोधादधः
पश्यन्तु च्युतकर्तृभावमचलं ज्ञातारमेकं परम्
इन मुनियोंकी भी ऐसी ही ऐकान्तिक मान्यता हुई
कहते हैं, इसलिये वाणीका कोप नहीं होता;’’ तो उनका यह कथन भी मिथ्या ही है
है; और जो भावकर्मरूप पर्यायें हैं उनका कर्ता तो वे मुनि कर्मको ही कहते हैं; इसलिये आत्मा
तो अकर्ता ही रहा ! तब फि र वाणीका कोप कैसे मिट गया ? इसलिये आत्माके कर्तृत्व-
अकर्तृत्वकी विवक्षाको यथार्थ मानना ही स्याद्वादको यथार्थ मानना है
आत्माके रूपमें जानता है, इसलिये इसप्रकार विशेष अपेक्षासे अज्ञानरूप ज्ञानपरिणामको करनेसे
कर्ता है; और जब भेदविज्ञान होनेसे आत्माको ही आत्माके रूपमें जानता है, तब विशेष अपेक्षासे
भी ज्ञानरूप ज्ञानपरिणाममें ही परिणमित होता हुआ मात्र ज्ञाता रहनेसे साक्षात् अकर्ता
है
अक र्ता मत मानो; [भेद-अवबोधात् अधः ] भेदज्ञान होनेसे पूर्व [तं किल ] उसे [सदा ]
निरन्तर [कर्तारं कलयन्तु ] क र्ता मानो, [तु ] और [ऊ र्ध्वं ] भेदज्ञान होनेके बाद [उद्धत-बोध-
धाम-नियतं स्वयं प्रत्यक्षम् एनम् ] उद्धत
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निजमनसि विधत्ते कर्तृभोक्त्रोर्विभेदम्
स्वयमयमभिषिंचंश्चिच्चमत्कार एव
[पश्यन्तु ] देखो
नहीं है, तो उसे संसार कैसा ? ऐसे अनेक दोष एकान्त मान्यतामें आते हैं
वस्तुस्वरूप अर्थात् कर्ताभोक्तापन है उसप्रकार कहेंगे
करके [निज-मनसि ] अपने मनमें [कर्तृ-भोक्त्रोः विभेदम् विधत्ते ] क र्ता और भोक्ताका भेद
क रते हैं (
[नित्य-अमृत-ओघैः ] नित्यतारूप अमृतके ओघ(
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स्मरणपूर्वक प्रत्यभिज्ञान आत्माकी नित्यता बतलाता है
दूर हो तो तत्त्व सिद्ध हो, और समस्त क्लेश मिटे
है या संपूर्ण तर्क पूर्ण होने तक अनेक आत्मा बदल जाते हैं, ऐसा मानकर तर्क करता है ? यदि
अनेक आत्मा बदल जाते हैं, तो तेरे संपूर्ण तर्कको तो कोई आत्मा सुनता नहीं है; तब फि र तर्क
करनेका क्या प्रयोजन है ?
क ल्पनाके द्वारा [अन्यः करोति ] ‘अन्य क रता है और [अन्यः भुंक्ते ] अन्य भोगता है’ [इति
एकान्तः मा चकास्तु ] ऐसा एकान्त प्रकाशित मत क रो
नहीं है; यदि आत्मा नष्ट हो जाये तो आधारके बिना संस्कार कैसे रह सकता है ? और यदि कदाचित्
एक आत्मा संस्कार छोड़ता जाये, तो भी उस आत्माके संस्कार दूसरे आत्मामें प्रविष्ट हो जायें
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शून्यका प्रसंग आता है
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जीवस्वभावः
नहीं होता, [तस्मात् ] इसलिये [सः वा करोति ] ‘(जो भोगता है) वही क रता है’ [अन्यः वा ]
अथवा ‘दूसरा ही क रता है’ [न एकान्तः ] ऐसा एकान्त नहीं है (
[तस्मात् ] इसलिये [सः वा वेदयते ] ‘(जो क रता है) वही भोगता है’ [अन्यः वा ] अथवा
‘दूसरा ही भोगता है’ [न एकान्तः ] ऐसा एकान्त नहीं है (
[अनार्हतः ] अनार्हत (
[अनार्हतः ] अनार्हत (
प्राप्त होता है और कितनी ही पर्यायोंसे विनाशको नहीं प्राप्त होता है
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अन्यः करोति अन्यो वेदयते इति पश्यति स मिथ्या
इसप्रकार वस्तुके अंशमें वस्तुत्वका अध्यास करके शुद्धनयके लोभसे ऋजुसूत्रनयके एकान्तमें
रहकर जो यह देखता
क्षणिकत्व होने पर भी, वृत्तिमान (पर्यायमान) जो चैतन्यचमत्कार (आत्मा) है, वह तो टंकोत्कीर्ण
(नित्य) ही अन्तरंगमें प्रतिभासित होता है
है
अनुभवगोचर नित्य है; प्रत्यभिज्ञानसे ज्ञात होता है कि ‘जो मैं बालक अवस्थामें था, वहीं मैं तरुण
अवस्थामें था और वही मैं वृद्ध अवस्थामें हूँ
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कालोपाधिबलादशुद्धिमधिकां तत्रापि मत्वा परैः
रात्मा व्युज्झित एष हारवदहो निःसूत्रमुक्ते क्षिभिः
मानकर [अतिव्याप्तिं प्रपद्य ] अतिव्याप्तिको प्राप्त होकर, [शुद्ध-ऋजुसूत्रे रतैः ] शुद्ध ऋजुसूत्रनयमें
रत होते हुए [चैतन्यं क्षणिकं प्रकल्प्य ] चैतन्यको क्षणिक क ल्पित करके, [अहो एषः आत्मा
व्युज्झितः ] इस आत्माको छोड़ दिया; [निःसूत्र-मुक्ता-ईक्षिभिः हारवत् ] जैसे हारके सूत्र(डोरे)को
न देखकर मोतियोंको ही देखनेवाले हारको छोड़ देते हैं
कालकी उपाधि लगनेसे आत्माको बहुत बड़ी अशुद्धि लग जायेगी और इससे अतिव्याप्ति दोष
लगेगा
प्रवृत्तिको देखकर आत्माको अनित्य कल्पित करके, ऋजुसूत्रनयका विषय जो वर्तमान-समयमात्र
क्षणिकत्व है, उतना मात्र ही आत्माको मानते हैं (अर्थात् जो जीव आत्माको द्रव्यपर्यायस्वरूप नहीं
मानते
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कर्ता वेदयिता च मा भवतु वा वस्त्वेव संचिन्त्यताम्
च्चिच्चिन्तामणिमालिकेयमभितोऽप्येका चकास्त्वेव नः
कर्तृ कर्म च सदैकमिष्यते
क र्ता और भोक्ता दोनों न हों; [वस्तु एव संचिन्त्यताम् ] वस्तुका ही अनुभव करो
डोरेमें पिरोई गई मणियोंकी माला भेदी नहीं जा सकती, उसीप्रकार आत्मामें पिरोई गई चैतन्यरूप
चिन्तामणिकी माला भी कभी किसीसे भेदी नहीं जा सकती; [इयम् एका ] ऐसी यह आत्मारूप
माला एक ही, [नः अभितः अपि चकास्तु एव ] हमें समस्ततया प्रकाशमान हो (अर्थात् नित्यत्व,
अनित्यत्व आदिके विक ल्प छूटकर हमें आत्माका निर्विक ल्प अनुभव हो)
भेद नहीं है; इसप्रकार भेद-अभेद हो
पर भेदाभेद-विकल्प नहीं है, इसीप्रकार आत्मामें पर्यायोंकी और द्रव्यकी विवक्षासे भेद-अभेद
है, परन्तु आत्मवस्तुमात्रका अनुभव करने पर विकल्प नहीं है
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एक माना जाता है
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तन्मय (उस-मय, कुण्डलादिमय) नहीं होता, [तथा ] उसीप्रकार [जीवः अपि च ] जीव भी [कर्म ]
पुण्यपापादि पुद्गलक र्म [करोति ] क रता है, [न च तन्मयः भवति ] परन्तु तन्मय (पुद्गलक र्ममय)
नहीं होता
क रणमय) नहीं होता, [तथा ] उसीप्रकार [जीवः ] जीव [करणैः ] (मन-वचन-कायरूप)
क रणोंके द्वारा [करोति ] (क र्म) क रता है, [न च तन्मयः भवति ] परंतु तन्मय (मन-वचन-
कायरूप क रणमय) नहीं होता
उसीप्रकार [जीवः ] जीव [करणानि तु ] क रणोंको [गृह्णाति ] ग्रहण क रता है, [न च तन्मयः भवति ]
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तन्मय (खान-पानादिमय) नहीं होता, [तथा ] उसीप्रकार [जीवः ] जीव [कर्मफलं ] पुण्यपापादि
पुद्गलक र्मके फलको (पुद्गलपरिणामरूप सुखदुःखादिको) [भुंक्ते ] भोगता है, [न च तन्मयः
भवति ] परन्तु तन्मय (पुद्गलपरिणामरूप सुखदुःखादिमय) नहीं होता
[जीवः अपि च ] जीव भी [क र्म क रोति ] (अपने परिणामरूप) क र्मको क रता है [च ] और
[तस्मात् अनन्यः भवति ] उससे अनन्य है
उससे (दुःखसे) [अनन्यः स्यात् ] अनन्य है, [तथा ] उसीप्रकार [चेष्टमानः ] चेष्टा क रता हुआ
(अपने परिणामरूप क र्मको क रता हुआ) [जीवः ] जीव [दुःखी ] दुःखी होता है (और दुःखसे
अनन्य है)
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करणानि गृह्णाति, ग्रामादिपरद्रव्यपरिणामात्मकं कुण्डलादिकर्मफलं भुंक्ते च, नत्वनेकद्रव्यत्वेन
ततोऽन्यत्वे सति तन्मयो भवति; ततो निमित्तनैमित्तिकभावमात्रेणैव तत्र कर्तृकर्मभोक्तृ-
भोग्यत्वव्यवहारः; तथात्मापि पुण्यपापादि पुद्गलद्रव्यपरिणामात्मकं कर्म करोति, कायवाङ्मनोभिः
पुद्गलद्रव्यपरिणामात्मकैः करणैः करोति, कायवाङ्मनांसि पुद्गलद्रव्यपरिणामात्मकानि करणानि
गृह्णाति, सुखदुःखादि पुद्गलद्रव्यपरिणामात्मकं पुण्यपापादिकर्मफलं भुंक्ते च, न त्वनेकद्रव्यत्वेन
ततोऽन्यत्वे सति तन्मयो भवति; ततो निमित्तनैमित्तिकभावमात्रेणैव तत्र
कर्तृकर्मभोक्तृभोग्यत्वव्यवहारः
तन्मयश्च भवति; ततः परिणामपरिणामिभावेन तत्रैव कर्तृकर्मभोक्तृभोग्यत्वनिश्चयः; तथात्मापि
चिकीर्षुश्चेष्टारूपमात्मपरिणामात्मकं कर्म करोति, दुःखलक्षणमात्मपरिणामात्मकं चेष्टारूपकर्मफलं
परद्रव्यपरिणामात्मक फल भोगता है, किन्तु अनेकद्रव्यत्वके कारण उनसे (कर्म, करण आदिसे)
अन्य होनेसे तन्मय (कर्मकरणादिमय) नहीं होता; इसलिये निमित्त-नैमित्तिकभावमात्रसे ही वहाँ
कर्तृकर्मत्वका और भोक्तृभोग्यत्वका व्यवहार है; इसीप्रकार
पुद्गलद्रव्यपरिणामात्मक करण उनको ग्रहण करता है और पुण्यपापादि कर्मका जो सुख-दुःखादि
पुद्गलद्रव्यपरिणामात्मक फल उसको भोगता है, परंतु अनेकद्रव्यत्वके कारण उनसे अन्य होनेसे
तन्मय नहीं होता; इसलिये निमित्त-नैमित्तिकभावमात्रसे ही वहाँ कर्तृ-कर्मत्वका और भोक्तृ-
भोग्यत्वका व्यवहार है
करता है, तथा दुःखस्वरूप ऐसा जो चेष्टारूप कर्मका स्वपरिणामात्मक फल उसको भोगता है
और एकद्रव्यत्वके कारण उनसे (कर्म और कर्मफलसे) अनन्य होनेसे तन्मय (कर्ममय और
कर्मफलमय) है; इसलिये परिणाम-परिणामीभावसे वहीं कर्ता-कर्मपनका और भोक्ता
-भोग्यपनका निश्चय है; उसीप्रकार
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कर्तृकर्मभोक्तृभोग्यत्वनिश्चयः
स भवति नापरस्य परिणामिन एव भवेत्
स्थितिरिह वस्तुनो भवतु कर्तृ तदेव ततः
तथाप्यपरवस्तुनो विशति नान्यवस्त्वन्तरम्
स्वभावचलनाकुलः किमिह मोहितः क्लिश्यते
एकद्रव्यत्वके कारण उनसे अनन्य होनेसे तन्मय है; इसलिये परिणाम-परिणामीभावसे वहीं कर्ता-
कर्मपनका और भोक्ता-भोग्यपनका निश्चय है
आश्रयभूत परिणामीका ही होता है, अन्यका नहीं (क्योंकि परिणाम अपने अपने द्रव्यके आश्रित
हैं, अन्यके परिणामका अन्य आश्रय नहीं होता); [इह कर्म कर्तृशून्यम् न भवति ] और क र्म
क र्ताके बिना नहीं होता, [च वस्तुनः एकतया स्थितिः इह न ] तथा वस्तुकी एकरूप
(कूटस्थ) स्थिति नहीं होती (क्योंकि वस्तु द्रव्यपर्यायस्वरूप होनेसे सर्वथा नित्यत्व बाधासहित
है); [ततः तद् एव कर्तृ भवतु ] इसलिये वस्तु स्वयं ही अपने परिणामरूप क र्मकी क र्ता है
(
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येन तेन खलु वस्तु वस्तु तत्
किं करोति हि बहिर्लुठन्नपि
सकलम् एव वस्तु स्वभाव-नियतम् इष्यते ] क्योंकि समस्त वस्तुएँ अपने अपने स्वभावमें निश्चित
हैं, ऐसा माना जाता है
क्लिश्यते ] क्यों क्लेश पाता है ?
क्लेश पाता है, यह महा अज्ञान है
तब फि र पुद्गलने चेतनका क्या किया ? कुछ भी नहीं
नहीं कर सकता
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किंचनापि परिणामिनः स्वयम्
(अर्थात् एक वस्तुको अन्य वस्तुके साथ कुछ भी सम्बन्ध नहीं) है
द्रव्यने कुछ भी नहीं किया है
सकते
यह कहना भी व्यवहारकथन है
व्यवहारकथन है
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तु ] ज्ञायक (जाननेवाला, आत्मा) [परस्य न ] परका (परद्रव्यका) नहीं है, [ज्ञायकः ] ज्ञायक
[सः तु ज्ञायकः ] वह तो ज्ञायक ही है
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तु दर्शकः ] वह तो दर्शक ही है
(
यह तो कलई ही है, [तथा ] उसीप्रकार [दर्शनं तु ] दर्शन अर्थात् श्रद्धान [परस्य न ] परका नहीं
है, [दर्शनं तत् तु दर्शनम् ] दर्शन वह तो दर्शन ही है अर्थात् श्रद्धान वह तो श्रद्धान ही है
भावेन ] अपने स्वभावसे [परद्रव्यं ] परद्रव्यको [जानाति ] जानता है
[तथा ] उसीप्रकार [जीवः अपि ] जीव भी [स्वकेन भावेन ] अपने स्वभावसे [परद्रव्यं ] परद्रव्यको
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जीवति सेटिका कुडयादेर्भवन्ती कुडयादिरेव भवेत्; एवं सति सेटिकायाः
स्वद्रव्योच्छेदः
[स्वकेन भावेन ] अपने स्वभावसे [परद्रव्यं ] परद्रव्यको [विजहाति ] त्यागता है
क रती है, [तथा ] उसीप्रकार [सम्यग्दृष्टिः ] सम्यग्दृष्टि [स्वभावेन ] अपने स्वभावसे [परद्रव्यं ]
परद्रव्यको [श्रद्धत्ते ] श्रद्धान करता है
अन्य पर्यायोंमें भी [एवम् एव ज्ञातव्यः ] इसीप्रकार जानना चाहिए
है)
आदिसे पृथक् द्रव्य नहीं होना चाहिए); ऐसा होने पर, कलईके स्वद्रव्यका उच्छेद (नाश) हो
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सम्बन्धो मीमांस्यते
पुद्गलादेर्भवन् पुद्गलादिरेव भवेत्; एवं सति चेतयितुः स्वद्रव्योच्छेदः
चेतयिता भवति
कलईकी ही कलई है
ही हैं
ही है; ‘
पुद्गलादिसे भिन्न द्रव्य नहीं होना चाहिए); ऐसा होने पर, चेतयिताके स्वद्रव्यका उच्छेद हो
जायेगा