Samaysar (Hindi). Kalash: 215-221 ; Gatha: 366-382.

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खल्वन्यश्चेतयिता चेतयितुः, किन्तु स्वस्वाम्यंशावेवान्यौ किमत्र साध्यं स्वस्वाम्यंश-
व्यवहारेण ? न किमपि तर्हि न कस्यापि ज्ञायकः, ज्ञायको ज्ञायक एवेति निश्चयः
किंच सेटिकात्र तावच्छवेतगुणनिर्भरस्वभावं द्रव्यम् तस्य तु व्यवहारेण श्वैत्यं
कुडयादि परद्रव्यम् अथात्र कुडयादेः परद्रव्यस्य श्वैत्यस्य श्वेतयित्री सेटिका किं भवति
किं न भवतीति तदुभयतत्त्वसम्बन्धो मीमांस्यतेयदि सेटिका कुडयादेर्भवति तदा
यस्य यद्भवति तत्तदेव भवति यथात्मनो ज्ञानं भवदात्मैव भवतीति तत्त्वसम्बन्धे जीवति
सेटिका कुडयादेर्भवन्ती कुडयादिरेव भवेत्; एवं सति सेटिकायाः स्वद्रव्योच्छेदः
न च द्रव्यान्तरसंक्र मस्य पूर्वमेव प्रतिषिद्धत्वाद्द्रव्यस्यास्त्युच्छेदः ततो न भवति सेटिका
कुडयादेः यदि न भवति सेटिका कुडयादेस्तर्हि कस्य सेटिका भवति ? सेटिकाया
एव सेटिका भवति ननु कतराऽन्या सेटिका सेटिकायाः यस्याः सेटिका भवति ? न खल्वन्या
नहीं है (अब आगे और विचार करते हैं :) यदि चेतयिता पुद्गलादिका नहीं है तो चेतयिता
किसका है ? चेतयिताका ही चेतयिता है (इस) चेतयितासे भिन्न ऐसा दूसरा कौनसा चेतयिता
है कि जिसका (यह) चेतयिता है ? (इस) चेतयितासे भिन्न अन्य कोई चेतयिता नहीं है, किन्तु
वे दो स्व-स्वामिरूप अंश ही हैं
यहाँ स्व-स्वामिरूप अंशोंके व्यवहारसे क्या साध्य है ? कुछ
भी साध्य नहीं है तब फि र ज्ञायक किसीका नहीं है, ज्ञायक ज्ञायक ही हैयह निश्चय है
(इसप्रकार यहाँ यह बताया है कि : ‘आत्मा परद्रव्यको जानता है’यह व्यवहारकथन
हैं; ‘आत्मा अपनेको जानता है’इस कथनमें भी स्व-स्वामिअंशरूप व्यवहार है; ‘ज्ञायक ज्ञायक
ही है’यह निश्चय है )
और (जिसप्रकार ज्ञायकके सम्बन्धमें दृष्टान्त-दार्ष्टान्तपूर्वक कहा है) इसीप्रकार दर्शकके
सम्बन्धमें कहा जाता है :इस जगतमें कलई है वह श्वेतगुणसे परिपूर्ण स्वभाववाला द्रव्य है
दीवार-आदि परद्रव्य व्यवहारसे उस कलईका श्वैत्य (कलईके द्वारा श्वेत किये जाने योग्य पदार्थ)
है
अब, ‘श्वेत करनेवाली कलई, श्वेत कराने योग्य दीवार-आदि परद्रव्यकी है या नहीं ?’
इसप्रकार उन दोनोंके तात्त्विक सम्बन्धका यहाँ विचार किया जाता है :यदि कलई दीवार आदि
परद्रव्यकी हो तो क्या हो यह प्रथम विचार करते हैं :‘जिसका जो होता है वह वही होता है,
जैसे आत्माका ज्ञान होनेसे ज्ञान वह आत्मा ही है;ऐसा तात्त्विक सम्बन्ध जीवन्त (विद्यमान)
होनेसे, कलई यदि दीवारआदिकी हो तो कलई उन दीवार-आदि ही होनी चाहिए (अर्थात् कलई
दीवार-आदि स्वरूप ही होनी चाहिए); ऐसा होने पर, कलईके स्वद्रव्यका उच्छेद हो जायगा
किन्तु द्रव्यका उच्छेद तो नहीं होता, क्योंकि एक द्रव्यका अन्य द्रव्यरूपमें संक्रमण होनेका तो

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सेटिका सेटिकायाः, किन्तु स्वस्वाम्यंशावेवान्यौ किमत्र साध्यं स्वस्वाम्यंशव्यवहारेण ? न
किमपि तर्हि न कस्यापि सेटिका, सेटिका सेटिकैवेति निश्चयः यथायं
द्रष्टान्तस्तथायं दार्ष्टान्तिकःचेतयितात्र तावद्दर्शनगुणनिर्भरस्वभावं द्रव्यम् तस्य तु
व्यवहारेण द्रश्यं पुद्गलादि परद्रव्यम् अथात्र पुद्गलादेः परद्रव्यस्य द्रश्यस्य दर्शकश्चेतयिता
किं भवति किं न भवतीति तदुभयतत्त्वसम्बन्धो मीमांस्यतेयदि चेतयिता पुद्गलादेर्भवति
तदा यस्य यद्भवति तत्तदेव भवति यथात्मनो ज्ञानं भवदात्मैव भवतीति तत्त्वसम्बन्धे
जीवति चेतयिता पुद्गलादेर्भवन् पुद्गलादिरेव भवेत्; एवं सति चेतयितुः स्वद्रव्योच्छेदः
न च द्रव्यान्तरसंक्र मस्य पूर्वमेव प्रतिषिद्धत्वाद्द्रव्यस्यास्त्युच्छेदः ततो न भवति चेतयिता
पुद्गलादेः यदि न भवति चेतयिता पुद्गलादेस्तर्हि कस्य चेतयिता भवति ? चेतयितुरेव
चेतयिता भवति ननु कतरोऽन्यश्चेतयिता चेतयितुर्यस्य चेतयिता भवति ? न खल्वन्यश्चेतयिता
चेतयितुः, किन्तु स्वस्वाम्यंशावेवान्यौ किमत्र साध्यं स्वस्वाम्यंशव्यवहारेण ? न किमपि
पहले ही निषेध किया गया है इसलिये (यह सिद्ध हुआ कि) कलई दीवार-आदिकी नहीं है
(आगे और विचार करते हैं :) यदि कलई दीवार-आदिकी नहीं है तो कलई किसकी है ?
कलईकी ही कलई है
(इस) कलईसे भिन्न ऐसी दूसरी कौनसी कलई है कि जिसकी (यह)
कलई है ? (इस) कलईसे भिन्न अन्य कोई कलई नहीं है, किन्तु वे दो स्व-स्वामिरूप अंश
ही हैं
यहाँ स्व-स्वामिरूप अंशोंके व्यवहारसे क्या साध्य है ? कुछ भी साध्य नहीं है तब फि र
कलई किसीकी नहीं है, कलई कलई ही हैयह निश्चय है जैसे यह दृष्टान्त है, उसीप्रकार यह
दार्ष्टान्त है :इस जगतमें चेतयिता है वह दर्शनगुणसे परिपूर्ण स्वभाववाला द्रव्य है पुद्गलादि
परद्रव्य व्यवहारसे उसे चेतयिताका दृश्य है अब, ‘दर्शक (देखनेवाला या श्रद्धान करनेवाला)
चेतयिता, दृश्य (देखने योग्य या श्रद्धान करने योग्य) जो पुद्गलादिका परद्रव्य उसका है या
नहीं ?’
इसप्रकार उन दोनोंके तात्त्विक सम्बन्धका यहाँ विचार करते हैं :यदि चेतयिता
पुद्गलादिका हो तो क्या हो यह पहले विचार करते हैं :‘जिसका जो होता है वह वही होता
है, जैसे आत्माका ज्ञान होनेसे ज्ञान वह आत्मा ही है;’ऐसा तात्त्विक सम्बन्ध जीवन्त होनेसे,
चेतयिता यदि पुद्गलादि हो तो चेतयिता पुद्गलादि ही होना चाहिये (अर्थात् चेतयिता
पुद्गलादिस्वरूप ही होना चाहिए); ऐसा होने पर, चेतयिताके स्वद्रव्यका उच्छेद हो जायगा किन्तु
द्रव्यका उच्छेद तो नहीं होता, क्योंकि एक द्रव्यका अन्य द्रव्यरूपमें संक्रमण होनेका तो पहले
ही निषेध कर दिया है
इससे (यह सिद्ध हुआ कि) चेतयिता पुद्गलादिका नहीं है (आगे और
विचार करते हैं :) चेतयिता यदि पुद्गलादिका नहीं है तो चेतयिता किसका है ? चेतयिताका ही

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तर्हि न कस्यापि दर्शकः, दर्शको दर्शक एवेति निश्चयः
अपि च सेटिकात्र तावच्छवेतगुणनिर्भरस्वभावं द्रव्यम् तस्य तु व्यवहारेण
श्वैत्यं कुडयादि परद्रव्यम् अथात्र कुडयादेः परद्रव्यस्य श्वैत्यस्य श्वेतयित्री सेटिका किं भवति
किं न भवतीति तदुभयतत्त्वसम्बन्धो मीमांस्यतेयदि सेटिका कुडयादेर्भवति तदा
यस्य यद्भवति तत्तदेव भवति यथात्मनो ज्ञानं भवदात्मैव भवतीति तत्त्वसम्बन्धे जीवति
सेटिका कुडयादेर्भवन्ती कुडयादिरेव भवेत्, एवं सति सेटिकायाः स्वद्रव्योच्छेदः
न च
द्रव्यान्तरसंक्र मस्य पूर्वमेव प्रतिषिद्धत्वाद्द्रव्यस्यास्त्युच्छेदः ततो न भवति सेटिका कुडयादेः
यदि न भवति सेटिका कुडयादेस्तर्हि कस्य सेटिका भवति ? सेटिकाया एव सेटिका
भवति
ननु कतराऽन्या सेटिका सेटिकाया यस्याः सेटिका भवति ? न खल्वन्या
चेतयिता है (इस) चेतयितासे भिन्न दूसरा ऐसा कौनसा चेतयिता है कि जिसका (यह) चेतयिता
है ? (इस) चेतयितासे भिन्न अन्य कोई चेतयिता नहीं है, किन्तु वे दो स्व-स्वामिरूप अंश ही
हैं
यहाँ स्व-स्वामिरूप अंशोंके व्यवहारसे क्या साध्य है? कुछ भी साध्य नहीं है तब फि र दर्शक
किसीका नहीं है, दर्शक दर्शक ही हैयह निश्चय है
(इसप्रकार यहाँ यह बताया गया है कि : ‘आत्मा परद्रव्यको देखता है अथवा श्रद्धा करता
है’यह व्यवहारकथन है ‘आत्मा अपनेको देखता है अथवा श्रद्धा करता है’इस कथनमें
भी स्व-स्वामि-अंशरूप व्यवहार है; ‘दर्शक दर्शक ही है’यह निश्चय है )
और (जिसप्रकार ज्ञायक तथा दर्शकके सम्बन्धमें दृर्ष्टान्त-दार्ष्टान्तसे कहा है) इसीप्रकार
अपोहक (त्याग करनेवाले)के सम्बन्धमें कहा जाता है;इस जगतमें कलई है वह श्वेतगुणसे
परिपूर्ण स्वभाववाला द्रव्य है दीवार-आदि परद्रव्य व्यवहारसे उस कलईका श्वैत्य है (अर्थात्
कलई द्वारा श्वेत किये जाने योग्य पदार्थ है) अब, श्वेत करनेवाली कलई, श्वेत की जाने योग्य
जो दीवार-आदि परद्रव्य उसकी है या नहीं ?’इसप्रकार उन दोनोंके तात्त्विक सम्बन्धका यहाँ
विचार किया जाता है :यदि कलई दीवार-आदि परद्रव्यकी हो तो क्या हो सो पहले विचार
करते हैं :‘जिसका जो होता है वह वही होता है, जैसे आत्माका ज्ञान होनेसे वह आत्मा ही है;’
ऐसा तात्त्विक सम्बन्ध जीवन्त (विद्यमान) होनेसे, कलई यदि दीवार-आदिकी हो तो कलई वह
दीवार-आदि ही होनी चाहिए (अर्थात् कलई दीवार-आदि स्वरूप ही होनी चाहिए); ऐसा होने
पर, कलईके स्वद्रव्यका उच्छेद हो जायेगा
परन्तु द्रव्यका उच्छेद तो नहीं होता, क्योंकि एक
द्रव्यका अन्य द्रव्यरूपमें संक्रमण होनेका तो पहले ही निषेध किया गया है इसलिये (यह सिद्ध
हुआ कि) कलई दीवार-आदिकी नहीं है (आगे और विचार करते हैं :) यदि कलई दीवार-

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सेटिका सेटिकायाः, किन्तु स्वस्वाम्यंशावेवान्यौ किमत्र साध्यं स्वस्वाम्यंशव्यवहारेण ? न
किमपि तर्हि न कस्यापि सेटिका, सेटिका सेटिकैवेति निश्चयः यथायं
द्रष्टान्तस्तथायं दार्ष्टान्तिक :चेतयितात्र तावद् ज्ञानदर्शनगुणनिर्भरपरापोहनात्मक-
स्वभावं द्रव्यम् तस्य तु व्यवहारेणापोह्यं पुद्गलादि परद्रव्यम् अथात्र पुद्गलादेः परद्रव्यस्या-
पोह्यस्यापोहकश्चेतयिता किं भवति किं न भवतीति तदुभयतत्त्वसम्बन्धो मीमांस्यते
यदि चेतयिता पुद्गलादेर्भवति तदा यस्य यद्भवति तत्तदेव भवति यथात्मनो ज्ञानं
भवदात्मैव भवतीति तत्त्वसम्बन्धे जीवति चेतयिता पुद्गलादेर्भवन् पुद्गलादिरेव भवेत्; एवं
सति चेतयितुः स्वद्रव्योच्छेदः
न च द्रव्यान्तरसंक्र मस्य पूर्वमेव प्रतिषिद्धत्वाद्द्रव्यस्यास्त्युच्छेदः
ततो न भवति चेतयिता पुद्गलादेः यदि न भवति चेतयिता पुद्गलादेस्तर्हि कस्य
चेतयिता भवति ? चेतयितुरेव चेतयिता भवति ननु कतरोऽन्यश्चेतयिता चेतयितुर्यस्य
चेतयिता भवति ? न खल्वन्यश्चेतयिता चेतयितुः, किन्तु स्वस्वाम्यंशावेवान्यौ किमत्र
आदिकी नहीं है तो कलई किसकी है ? कलईकी ही कलई है (इस) कलईसे भिन्न ऐसी दूसरी
कौनसी कलई है कि जिसकी (यह) कलई है ? (इस) कलईसे भिन्न अन्य कोई कलई नहीं
है, किन्तु वे दो स्व-स्वामिरूप अंश ही हैं
यहाँ स्व-स्वामिरूप अंशोंके व्यवहारसे क्या साध्य
है ? कुछ भी साध्य नहीं है तब फि र कलई किसीकी नहीं है, कलई कलई ही हैयह निश्चय
है जैसे यह दृष्टान्त है, उसीप्रकार यह दार्ष्टान्त दिया जाता है :इस जगतमें जो चेतयिता है वह,
जिसका ज्ञानदर्शनगुणसे परिपूर्ण, परके अपोहनस्वरूप (त्यागस्वरूप) स्वभाव है ऐसा द्रव्य है
पुद्गलादिका परद्रव्य व्यवहारसे उस चेतयिताका अपोह्य (त्याज्य) है अब, ‘अपोहक (त्याग
करनेवाला) चेतयिता, अपोह्य (त्याज्य) जो पुद्गलादिका परद्रव्य उसका है या नहीं ?’इसप्रकार
उन दोनोंके तात्त्विक सम्बन्धका यहाँ विचार किया जाता है :यदि चेतयिता पुद्गलादिका हो
तो क्या हो यह पहले विचार करते हैं : ‘जिसका जो होता है वह वही होता है, जैसे आत्माका
ज्ञान होनेसे ज्ञान वह आत्मा ही है :’
ऐसा तात्त्विक सम्बन्ध जीवन्त होनेसे, चेतयिता यदि
पुद्गलादिका हो तो चेतयिता पुद्गलादि ही होना चाहिए (अर्थात् चेतयिता पुद्गलादिस्वरूप ही
होना चाहिए); ऐसा होने पर, चेतयिताके स्वद्रव्यका उच्छेद हो जायेगा
परन्तु द्रव्यका उच्छेद तो
नहीं होता, क्योंकि एक द्रव्यका अन्य द्रव्यरूपमें संक्रमण होनेका पहले ही निषेध किया है
इसलिये (यह सिद्ध हुआ कि) चेतयिता पुद्गलादिका नहीं है (आगे और विचार करते हैं :)
यदि चेतयिता पुद्गलादिका नहीं है तो चेतयिता किसका है ? चेतयिताका ही चेतयिता है (इस)
चेतयितासे भिन्न ऐसा दूसरा कौनसा चेतयिता है कि जिसका (यह) चेतयिता है ? (इस) चेतयितासे
भिन्न अन्य कोई चेतयिता नहीं है, किन्तु वे दो स्व-स्वामिरूप अंश ही हैं
यहाँ स्वस्वामिरूप

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साध्यं स्वस्वाम्यंशव्यवहारेण ? न किमपि तर्हि न कस्याप्यपोहकः, अपोहकोऽपोहक
एवेति निश्चयः
अथ व्यवहारव्याख्यानम्
यथा च सैव सेटिका श्वेतगुणनिर्भरस्वभावा स्वयं कुडयादिपरद्रव्यस्वभावेनापरिणममाना
कुडयादिपरद्रव्यं चात्मस्वभावेनापरिणमयन्ती कुडयादिपरद्रव्यनिमित्तकेनात्मनः श्वेतगुणनिर्भर-
स्वभावस्य परिणामेनोत्पद्यमाना कुडयादिपरद्रव्यं सेटिकानिमित्तकेनात्मनः स्वभावस्य
परिणामेनोत्पद्यमानमात्मनः स्वभावेन श्वेतयतीति व्यवह्रियते, तथा चेतयितापि ज्ञानगुण-
निर्भरस्वभावः स्वयं पुद्गलादिपरद्रव्यस्वभावेनापरिणममानः पुद्गलादिपरद्रव्यं चात्मस्वभावेना-
परिणमयन् पुद्गलादिपरद्रव्यनिमित्तकेनात्मनो ज्ञानगुणनिर्भरस्वभावस्य परिणामेनोत्पद्यमानः
पुद्गलादिपरद्रव्यं चेतयितृनिमित्तकेनात्मनः स्वभावस्य परिणामेनोत्पद्यमानमात्मनः स्वभावेन
जानातीति व्यवह्रियते
अंशोंके व्यवहारसे क्या साध्य है ? कुछ भी साध्य नहीं है तब फि र अपोहक (त्याग करनेवाला)
किसीका नहीं है, अपोहक अपोहक ही हैयह निश्चय है
(इसप्रकार यहाँ यह बताया गया है कि : ‘आत्मा परद्रव्यको त्यागता है’यह व्यवहार
कथन है ; ‘आत्मा ज्ञानदर्शनमय ऐसे निजको ग्रहण करता है’ऐसा कहनेमें भी स्व-
स्वामिअंशरूप व्यवहार है; ‘अपोहक अपोहक ही है’यह निश्चय है )
अब, व्यवहारका विवेचन किया जाता है :
जिसप्रकार श्वेतगुणसे परिपूर्ण स्वभाववाली वही कलई, स्वयं दीवार-आदि परद्रव्यके
स्वभावरूप परिणमित न होती हुई और दीवार-आदि परद्रव्यको अपने स्वभावरूप परिणमित न
करती हुई, दीवार-आदि परद्रव्य जिसको निमित्त हैं ऐसे अपने श्वेतगुणसे परिपूर्ण स्वभावके
परिणाम द्वारा उत्पन्न होती हुई, कलई जिसको निमित्त है ऐसे अपने (
दीवार-आदिके)
स्वभावके परिणाम द्वारा उत्पन्न होते हुए दीवार-आदि परद्रव्यको, अपने (कलईके) स्वभावसे
श्वेत करती है, ऐसा व्यवहार किया जाता है; इसीप्रकार ज्ञानगुणसे परिपूर्ण स्वभाववाला
चेतयिता भी, स्वयं पुद्गलादि परद्रव्यके स्वभावरूप परिणमित न होता हुआ और पुद्गलादि
परद्रव्यको अपने स्वभावरूप परिणमित न कराता हुआ, पुद्गलादि परद्रव्य जिसको निमित्त हैं ऐसे
अपने ज्ञानगुणसे परिपूर्ण स्वभावके परिणाम द्वारा उत्पन्न होता हुआ, चेतयिता जिसको निमित्त है
ऐसे अपने (
पुद्गलादिके) स्वभावके परिणाम द्वारा उत्पन्न होते हुए पुद्गलादि परद्रव्यको,
अपने (चेतयिताके) स्वभावसे जानता हैऐसा व्यवहार किया जाता है

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किंचयथा च सैव सेटिका श्वेतगुणनिर्भरस्वभावा स्वयं कुडयादिपरद्रव्यस्वभावेना-
परिणममाना कुडयादिपरद्रव्यं चात्मस्वभावेनापरिणमयन्ती कुडयादिपरद्रव्यनिमित्तकेनात्मनः
श्वेतगुणनिर्भरस्वभावस्य परिणामेनोत्पद्यमाना कुडयादिपरद्रव्यं सेटिकानिमित्तकेनात्मनः स्वभावस्य
परिणामेनोत्पद्यमानमात्मनः स्वभावेन श्वेतयतीति व्यवह्रियते, तथा चेतयितापि दर्शनगुण-
निर्भरस्वभावः स्वयं पुद्गलादिपरद्रव्यस्वभावेनापरिणममानः पुद्गलादिपरद्रव्यं चात्मस्वभावेना-
परिणमयन् पुद्गलादिपरद्रव्यनिमित्तकेनात्मनो दर्शनगुणनिर्भरस्वभावस्य परिणामेनोत्पद्यमानः
पुद्गलादिपरद्रव्यं चेतयितृनिमित्तकेनात्मनः स्वभावस्य परिणामेनोत्पद्यमानमात्मनः स्वभावेन
पश्यतीति व्यवह्रियते
अपि चयथा च सैव सेटिका श्वेतगुणनिर्भरस्वभावा स्वयं कुडयादिपरद्रव्य-
स्वभावेनापरिणममाना कुडयादिपरद्रव्यं चात्मस्वभावेनापरिणमयन्ती कुडयादिपरद्रव्यनिमित्त-
केनात्मनः श्वेतगुणनिर्भरस्वभावस्य परिणामेनोत्पद्यमाना कुडयादिपरद्रव्यं सेटिकानिमित्तकेनात्मनः
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और (जिसप्रकार ज्ञानगुणका व्यवहार कहा है) इसीप्रकार दर्शनगुणका व्यवहार कहा
जाता है :जिसप्रकार श्वेतगुणसे परिपूर्ण स्वभाववाली वही कलई, स्वयं दीवार-आदि परद्रव्यके
स्वभावरूप परिणमित न होती हुई और दीवार-आदि परद्रव्यको अपने स्वभावरूप परिणमित न
कराती हुई, दीवार-आदि परद्रव्य जिसको निमित्त हैं ऐसे अपने श्वेतगुणसे परिपूर्ण स्वभावके
परिणाम द्वारा उत्पन्न हुई, कलई जिसको निमित्त है ऐसे अपने (
दिवार-आदिके) स्वभावसे
परिणाम द्वारा उत्पन्न होनेवाले दीवार-आदि परद्रव्यको अपने (कलईके) स्वभावसे श्वेत करती
हैऐसा व्यवहार किया जाता है; इसीप्रकार दर्शनगुणसे परिपूर्ण स्वभाववाला चेतयिता भी, स्वयं
पुद्गलादि परद्रव्यके स्वभावरूप परिणमित न होता हुआ, और पुद्गलादि परद्रव्यको अपने
स्वभावरूप परिणमित न कराता हुआ, पुद्गलादि परद्रव्य जिसको निमित्त हैं ऐसे अपने
दर्शनगुणसे परिपूर्ण स्वभावके परिणाम द्वारा उत्पन्न होता हुआ, चेतयिता जिसको निमित्त है ऐसे
अपने (
पुद्गलादिके) स्वभावके परिणाम द्वारा उत्पन्न होनेवाले पुद्गलादि परद्रव्यको अपने
(चेतयिताके) स्वभावसे देखता है अथवा श्रद्धा करता हैऐसा व्यवहार किया जाता है
और (जिसप्रकार ज्ञान-दर्शन गुणका व्यवहार कहा है) इसीप्रकार चारित्रगुणका व्यवहार
कहा जाता है :जैसे श्वेतगुणसे परिपूर्ण स्वभाववाली वही कलई, स्वयं दीवार-आदि परद्रव्यके
स्वभावरूप परिणमित न होती हुई और दीवार-आदि परद्रव्यको अपने स्वभावरूप परिणमित न
कराती हुई, दीवार-आदि परद्रव्य जिसको निमित्त है ऐसे अपने श्वेतगुणसे परिपूर्ण स्वभावके परिणाम
द्वारा उत्पन्न होती हुई, कलई जिसको निमित्त है ऐसे अपने (
दीवार-आदिके) स्वभावके

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स्वभावस्य परिणामेनोत्पद्यमानमात्मनः स्वभावेन श्वेतयतीति व्यवह्रियते, तथा चेतयितापि
ज्ञानदर्शनगुणनिर्भरपरापोहनात्मकस्वभावः स्वयं पुद्गलादिपरद्रव्यस्वभावेनापरिणममानः पुद्गलादि-
परद्रव्यं चात्मस्वभावेनापरिणमयन् पुद्गलादिपरद्रव्यनिमित्तकेनात्मनो ज्ञानदर्शनगुणनिर्भर-
परापोहनात्मकस्वभावस्य परिणामेनोत्पद्यमानः पुद्गलादिपरद्रव्यं चेतयितृनिमित्तकेनात्मनः स्वभावस्य
परिणामेनोत्पद्यमानमात्मनः स्वभावेनापोहतीति व्यवह्रियते
एवमयमात्मनो ज्ञानदर्शनचारित्रपर्यायाणां निश्चयव्यवहारप्रकारः एवमेवान्येषां सर्वेषामपि
पर्यायाणां द्रष्टव्यः
परिणाम द्वारा उत्पन्न होनेवाले दीवार-आदि परद्रव्यको अपने (कलई)के स्वभावसे श्वेत करती
हैऐसा व्यवहार किया जाता है; इसीप्रकार जिसका ज्ञानदर्शनगुणसे परिपूर्ण, परके अपोहनस्वरूप
स्वभाव है ऐसा चेतयिता भी, स्वयं पुद्गलादि परद्रव्यके स्वभावरूप परिणमित नहीं होता हुआ
और पुद्गलादि परद्रव्यको अपने स्वभावरूप परिणमित न कराता हुआ, पुद्गलादि परद्रव्य जिसको
निमित्त है ऐसे अपने ज्ञानदर्शनगुणसे परिपूर्ण पर-अपोहनात्मक (
परके त्यागस्वरूप) स्वभावके
परिणाम द्वारा उत्पन्न होता हुआ, चेतयिता जिसको निमित्त है ऐसे अपने (पुद्गलादिके)
स्वभावके परिणाम द्वारा उत्पन्न होनेवाले पुद्गलादि परद्रव्यको अपने (चेतयिताके) स्वभावसे
अपोहता है अर्थात् त्याग करता हैइसप्रकार व्यवहार किया जाता है
इसप्रकार यह, आत्माके ज्ञान-दर्शन-चारित्र पर्यायोंका निश्चय-व्यवहार प्रकार है
इसीप्रकार अन्य समस्त पर्यायोंका भी निश्चय-व्यवहार प्रकार समझना चाहिए
भावार्थ :शुद्धनयसे आत्माका एक चेतनामात्र स्वभाव है उसके परिणाम जानना,
देखना, श्रद्धा करना, निवृत्त होना इत्यादि हैं वहाँ निश्चयनयसे विचार किया जाये तो आत्माको
परद्रव्यका ज्ञायक नहीं कहा जा सकता, दर्शक नहीं कहा जा सकता, श्रद्धान करनेवाला नहीं कहा
जा सकता, त्याग करनेवाला नहीं कहा जा सकता; क्योंकि परद्रव्यके और आत्माके निश्चयसे कोई
भी सम्बन्ध नहीं है
जो ज्ञान, दर्शन, श्रद्धान, त्याग इत्यादि भाव हैं, वे स्वयं ही हैं; भाव-भावकका
भेद कहना वह भी व्यवहार है, निश्चयसे भाव और भाव करनेवाला भेद नहीं है
अब, व्यवहारनयके सम्बन्धमें व्यवहारनयसे आत्माको परद्रव्यका ज्ञाता, द्रष्टा, श्रद्धान
करनेवाला, त्याग करनेवाला कहा जाता है; क्योंकि परद्रव्य और आत्माके निमित्त-नैमित्तिकभाव है
ज्ञानादि भावोंका परद्रव्य निमित्त होता है, इसलिये व्यवहारीजन कहते हैं किआत्मा परद्रव्यको
जानता है, परद्रव्यको देखता है, परद्रव्यका श्रद्धान करता है, परद्रव्यका त्याग करता है
इसप्रकार निश्चय-व्यवहारके प्रकारको जानकर यथावत् (जैसा कहा है उसीप्रकार) श्रद्धान
करना ।।३५६ से ३६५।।

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(शार्दूलविक्रीडित)
शुद्धद्रव्यनिरूपणार्पितमतेस्तत्त्वं समुत्पश्यतो
नैकद्रव्यगतं चकास्ति किमपि द्रव्यान्तरं जातुचित्
ज्ञानं ज्ञेयमवैति यत्तु तदयं शुद्धस्वभावोदयः
किं द्रव्यान्तरचुम्बनाकुलधियस्तत्त्वाच्च्यवन्ते जनाः
।।२१५।।
(मन्दाक्रान्ता)
शुद्धद्रव्यस्वरसभवनात्किं स्वभावस्य शेष-
मन्यद्द्रव्यं भवति यदि वा तस्य किं स्यात्स्वभावः
ज्योत्स्नारूपं स्नपयति भुवं नैव तस्यास्ति भूमि-
र्ज्ञानं ज्ञेयं कलयति सदा ज्ञेयमस्यास्ति नैव
।।२१६।।
अब, इस अर्थका कलशरूप काव्य कहते हैं :
श्लोकार्थ :[शुद्ध-द्रव्य-निरूपण-अर्पित-मतेः तत्त्वं समुत्पश्यतः ] जिसने शुद्ध
द्रव्यके निरूपणमें बुद्धिको लगाया है, और जो तत्त्वका अनुभव करता है, उस पुरुषको [एक-
द्रव्य-गतं किम्-अपि द्रव्य-अन्तरं जातुचित् न चकास्ति ]
एक द्रव्यके भीतर कोई भी अन्य द्रव्य
रहता हुआ क दापि भासित नहीं होता
[यत् तु ज्ञानं ज्ञेयम् अवैति तत् अयं शुद्ध-स्वभाव-उदयः ]
ज्ञान ज्ञेयको जानता है वह तो यह ज्ञानके शुद्ध स्वभावका उदय है [जनाः ] जब कि ऐसा है
तब फि र लोग [द्रव्य-अन्तर-चुम्बन-आकुल-धियः ] ज्ञानको अन्य द्रव्यके साथ स्पर्श होनेकी
मान्यतासे आकुल बुद्धिवाले होते हुए [तत्त्वात् ] तत्त्वसे (शुद्ध स्वरूपसे) [किं च्यवन्ते ] क्यों
च्युत होते हैं ?
भावार्थ :शुद्धनयकी दृष्टिसे तत्त्वका स्वरूप विचार करने पर अन्य द्रव्यका अन्य
द्रव्यमें प्रवेश दिखाई नहीं देता ज्ञानमें अन्य द्रव्य प्रतिभासित होते हैं सो तो यह ज्ञानकी
स्वच्छताका स्वभाव है; कहीं ज्ञान उन्हें स्पर्श नहीं करता अथवा वे ज्ञानको स्पर्श नहीं करते ऐसा
होने पर भी, ज्ञानमें अन्य द्रव्योंका प्रतिभास देखकर यह लोग ऐसा मानते हुए ज्ञानस्वरूपसे च्युत
होते हैं कि ‘ज्ञानको परज्ञेयोंके साथ परमार्थ सम्बन्ध है’; यह उनका अज्ञान है
उन पर करुणा
करके आचार्यदेव कहते हैं कियह लोग तत्त्वसे क्यों च्युत हो रहे हैं ? ।२१५।
पुनः इसी अर्थको दृढ़ करते हुए कहते हैं :
श्लोकार्थ :[शुद्ध-द्रव्य-स्वरस-भवनात् ] शुद्ध द्रव्यका (आत्मा आदि द्रव्यका)

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(मन्दाक्रान्ता)
रागद्वेषद्वयमुदयते तावदेतन्न यावद्
ज्ञानं ज्ञानं भवति न पुनर्बोध्यतां याति बोध्यम्
ज्ञानं ज्ञानं भवतु तदिदं न्यक्कृताज्ञानभावं
भावाभावौ भवति तिरयन् येन पूर्णस्वभावः
।।२१७।।
निजरसरूप (-ज्ञानादि स्वभावरूप) परिणमन होता है इसलिये, [शेषम् अन्यत्-द्रव्यं किं
स्वभावस्य भवति ]
क्या शेष कोई अन्यद्रव्य उस (
ज्ञानादि) स्वभावका हो सकता है ?
(नहीं ) [यदि वा स्वभावः किं तस्य स्यात् ] अथवा क्या वह (ज्ञानादि)स्वभाव किसी
अन्यद्रव्यका हो सकता है ? (नहीं परमार्थसे एक द्रव्यका अन्य द्रव्यके साथ सम्बन्ध नहीं
है ) [ज्योत्स्नारूपं भुवं स्नपयति ] चाँंदनीका रूप पृथ्वीको उज्ज्वल क रता है [भूमिः तस्य
न एव अस्ति ] तथापि पृथ्वी चाँदनीकी कदापि नहीं होती; [ज्ञानं ज्ञेयं सदा कलयति ]
इसप्रकार ज्ञान ज्ञेयको सदा जानता है [ज्ञेयम् अस्य अस्ति न एव ] तथापि ज्ञेय ज्ञानका
कदापि नहीं होता
भावार्थ :शुद्धनयकी दृष्टिसे देखा जाये तो किसी द्रव्यका स्वभाव किसी अन्य
द्रव्यरूप नहीं होता जैसे चाँदनी पृथ्वीको उज्ज्वल करती है, किन्तु पृथ्वी चाँदनीकी
किंचित्मात्र भी नहीं होती, इसीप्रकार ज्ञान ज्ञेयको जानता है, किन्तु ज्ञेय ज्ञानका किंचित्मात्र
भी नहीं होता
आत्माका ज्ञानस्वभाव है, इसलिये उसकी स्वच्छतामें ज्ञेय स्वयमेव झलकता
है, किन्तु ज्ञानमें उन ज्ञेयोंका प्रवेश नहीं होता ।२१६।
अब, आगेकी गाथाओंका सूचक काव्य कहते हैं :
श्लोकार्थ :[तावत् राग-द्वेष-द्वयम् उदयते ] राग-द्वेषका द्वन्द्व तब तक उदयको
प्राप्त होता है [यावद् एतत् ज्ञानं ज्ञानं न भवति ] कि जब तक यह ज्ञान ज्ञानरूप न हो
[पुनः बोध्यम् बोध्यतां न याति ] और ज्ञेय ज्ञेयत्वको प्राप्त न हो
[तत् इदं ज्ञानं न्यक्कृत-
अज्ञानभावं ज्ञानं भवतु ] इसलिये यह ज्ञान, अज्ञान-भावको दूर क रके, ज्ञानरूप हो[येन
भाव-अभावौ तिरयन् पूर्णस्वभावः भवति ] कि जिससे भाव-अभाव(राग-द्वेष)को रोकता हुआ
पूर्णस्वभाव (प्रगट) हो जाये
भावार्थ :जब तक ज्ञान ज्ञानरूप न हो, ज्ञेय ज्ञेयरूप न हो, तब तक राग-द्वेष
उत्पन्न होता है; इसलिये यह ज्ञान, अज्ञानभावको दूर करके, ज्ञानरूप होओ, कि जिससे
ज्ञानमें जो भाव और अभावरूप दो अवस्थाऐं होती हैं वे मिट जायें और ज्ञान पूर्णस्वभावको
प्राप्त हो जाये
यह प्रार्थना है ।२१७।

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दंसणणाणचरित्तं किंचि वि णत्थि दु अचेदणे विसए
तम्हा किं घादयदे चेदयिदा तेसु विसएसु ।।३६६।।
दंसणणाणचरित्तं किंचि वि णत्थि दु अचेदणे कम्मे
तम्हा किं घादयदे चेदयिदा तम्हि कम्मम्हि ।।३६७।।
दंसणणाणचरित्तं किंचि वि णत्थि दु अचेदणे काए
तम्हा किं घादयदे चेदयिदा तेसु काएसु ।।३६८।।
णाणस्स दंसणस्स य भणिदो घादो तहा चरित्तस्स
ण वि तहिं पोग्गलदव्वस्स को वि घादो दु णिद्दिट्ठो ।।३६९।।
जीवस्स जे गुणा केइ णत्थि खलु ते परेसु दव्वेसु
तम्हा सम्मादिट्ठिस्स णत्थि रागो दु विसएसु ।।३७०।।
‘ज्ञान और ज्ञेय सर्वथा भिन्न है, आत्माके दर्शनज्ञानचारित्रादि कोई गुण परद्रव्योंमें नहीं है’
ऐसा जाननेके कारण सम्यग्दृष्टिको विषयोंके प्रति राग नहीं होता; और रागद्वेषादि जड़ विषयोंमें भी
नहीं होते; वे मात्र अज्ञानदशामें प्रवर्तमान जीवके परिणाम हैं
इस अर्थकी गाथाएँ अब कहते
हैं :
चारित्र-दर्शन-ज्ञान किञ्चित् नहिं अचेतन विषयमें
इस हेतुसे यह आतमा क्या हन सके उन विषयमें ? ।।३६६।।
चारित्र-दर्शन-ज्ञान किञ्चित् नहिं अचेतन कर्ममें
इस हेतुसे यह आतमा क्या हन सके उन कर्ममें ? ।।३६७।।
चारित्र-दर्शन-ज्ञान किञ्चित् नहिं अचेतन कायमें
इस हेतुसे यह आतमा क्या हन सके उन कायमें ? ।।३६८।।
है ज्ञानका, सम्यक्तका, उपघात चारितका कहा
वहाँ और कुछ भी नहिं कहा उपघात पुद्गलद्रव्यका ।।३६९।।
जो जीवके गुण हैं नियत वे कोई नहिं परद्रव्यमें
इस हेतुसे सद्दृष्टि जीवको राग नहिं है विषयमें ।।३७०।।

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रागो दोसो मोहो जीवस्सेव य अणण्णपरिणामा
एदेण कारणेण दु सद्दादिसु णत्थि रागादी ।।३७१।।
दर्शनज्ञानचारित्रं किञ्चिदपि नास्ति त्वचेतने विषये
तस्मात्किं हन्ति चेतयिता तेषु विषयेषु ।।३६६।।
दर्शनज्ञानचारित्रं किञ्चिदपि नास्ति त्वचेतने कर्मणि
तस्मात्किं हन्ति चेतयिता तत्र कर्मणि ।।३६७।।
दर्शनज्ञानचारित्रं किञ्चिदपि नास्ति त्वचेतने काये
तस्मात्किं हन्ति चेतयिता तेषु कायेषु ।।३६८।।
ज्ञानस्य दर्शनस्य च भणितो घातस्तथा चारित्रस्य
नापि तत्र पुद्गलद्रव्यस्य कोऽपि घातस्तु निर्दिष्टः ।।३६९।।
अरु राग, द्वेष, विमोह तो जीवके अनन्य परिणाम हैं
इस हेतुसे शब्दादि विषयोंमें नहीं रागादि हैं ।।३७१।।
गाथार्थ :[दर्शनज्ञानचारित्रम् ] दर्शन-ज्ञान-चारित्र [अचेतने विषये तु ] अचेतन
विषयमें [किञ्चित् अपि ] किंचित् मात्र भी [न अस्ति ] नहीं है, [तस्मात् ] इसलिये [चेतयिता ]
आत्मा [तेषु विषयेषु ] उन विषयोंमें [किं हन्ति ] क्या घात करेगा ?
[दर्शनज्ञानचारित्रम् ] दर्शन-ज्ञान-चारित्र [अचेतने कर्मणि तु ] अचेतन कर्ममें [किञ्चित्
अपि ] किंचित् मात्र भी [न अस्ति ] नहीं है, [तस्मात् ] इसलिये [चेतयिता ] आत्मा [तत्र
कर्मणि ]
उन क र्ममें [किं हन्ति ] क्या घात करेगा ? (कुछ भी घात नहीं कर सकता
)
[दर्शनज्ञानचारित्रम् ] दर्शन-ज्ञान-चारित्र [अचेतने काये तु ] अचेतन कायमें [किञ्चित्
अपि ] किंचित् मात्र भी [न अस्ति ] नहीं है, [तस्मात् ] इसलिये [चेतयिता ] आत्मा [तेषु
कायेषु ]
उन कायोंमें [किं हन्ति ] क्या घात करेगा ? (कुछ भी घात नहीं कर सकता
)
[ज्ञानस्य ] ज्ञानका, [दर्शनस्य च ] दर्शनका [तथा चारित्रस्य ] तथा चारित्रका [घातः
भणितः ] घात क हा है, [तत्र ] वहाँ [पुद्गलद्रव्यस्य ] पुद्गलद्रव्यका [घातः तु ] घात [कः अपि ]
किंचित्मात्र भी [न अपि निर्दिष्टः ] नहीं कहा है
(अर्थात् दर्शन-ज्ञान-चारित्रके घात होने पर
पुद्गलद्रव्यका घात नहीं होता )

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जीवस्य ये गुणाः केचिन्न सन्ति खलु ते परेषु द्रव्येषु
तस्मात्सम्यग्द्रष्टेर्नास्ति रागस्तु विषयेषु ।।३७०।।
रागो द्वेषो मोहो जीवस्यैव चानन्यपरिणामाः
एतेन कारणेन तु शब्दादिषु न सन्ति रागादयः ।।३७१।।
यद्धि यत्र भवति तत्तद्घाते हन्यत एव, यथा प्रदीपघाते प्रकाशो हन्यते; यत्र च
यद्भवति तत्तद्घाते हन्यत एव, यथा प्रकाशघाते प्रदीपो हन्यते यत्तु यत्र न भवति
तत्तद्घाते न हन्यते, यथा घटघाते घटप्रदीपो न हन्यते; यत्र च यन्न भवति तत्तद्घाते
न हन्यते, यथा घटप्रदीपघाते घटो न हन्यते
अथात्मनो धर्मा दर्शनज्ञानचारित्राणि
पुद्गलद्रव्यघातेऽपि न हन्यन्ते, न च दर्शनज्ञानचारित्राणां घातेऽपि पुद्गलद्रव्यं हन्यते;
एवं दर्शनज्ञानचारित्राणि पुद्गलद्रव्ये न भवन्तीत्यायाति; अन्यथा तद्घाते पुद्गलद्रव्य-
(इसप्रकार) [ये केचित् ] जो कोई [जीवस्य गुणाः ] जीवके गुण हैं, [ते खलु ] वे
वास्तवमें [परेषु द्रव्येषु ] पर द्रव्यमें [न सन्ति ] नहीं हैं; [तस्मात् ] इसलिये [सम्यग्दृष्टेः ]
सम्यग्दृष्टिके [विषयेषु ] विषयोंके प्रति [रागः तु ] राग [न अस्ति ] नहीं है
[च ] और [रागः द्वेषः मोहः ] राग, द्वेष और मोह [जीवस्य एव ] जीवके ही
[अनन्यपरिणामाः ] अनन्य (एक रूप) परिणाम हैं, [एतेन कारणेन तु ] इस कारणसे [रागादयः ]
रागादिक [शब्दादिषु ] शब्दादि विषयोंमें (भी) [न सन्ति ] नहीं हैं
(रागद्वेषादि न तो सम्यग्दृष्टि आत्मामें हैं और न जड़ विषयोंमें, वे मात्र अज्ञानदशामें
रहनेवाले जीवके परिणाम हैं )
टीका :वास्तवमें जो जिसमें होता है वह उसका घात होने पर नष्ट होता ही है (अर्थात्
आधारका घात होने पर आधेयका घात हो ही जाता है), जैसे दीपकके घात होने पर (उसमें
रहनेवाला) प्रकाश नष्ट हो जाता है; तथा जिसमें जो होता है वह उसका नाश होने पर अवश्य
नष्ट हो जाता है (अर्थात् आधेयका घात होने पर आधारका घात हो जाता ही है), जैसे प्रकाशका
घात होने पर दीपकका घात हो जाता है
और जो जिसमें नहीं होता वह उसका घात होने पर
नष्ट नहीं होता, जैसे घड़ेका नाश होने पर घट-प्रदीपका नाश नहीं होता; तथा जिसमें जो नहीं
होता वह उसका घात होने पर नष्ट नहीं होता, जैसे घट-प्रदीपका घात होने पर घटका नाश नहीं
होता
(इसप्रकारसे न्याय कहा है ) अब, आत्माके धर्मदर्शन, ज्ञान और चारित्र
पुद्गलद्रव्यका घात होने पर भी नष्ट नहीं होते और दर्शन-ज्ञान-चारित्रका घात होने पर भी
घट-प्रदीप = घड़ेमें रखा हुआ दीपक (परमार्थतः दीपक घड़ेमें नहीं है, घड़ेमें तो घड़ेके ही गुण हैं)

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घातस्य, पुद्गलद्रव्यघाते तद्घातस्य दुर्निवारत्वात् यत एवं ततो ये यावन्तः
केचनापि जीवगुणास्ते सर्वेऽपि परद्रव्येषु न सन्तीति सम्यक् पश्यामः, अन्यथा
अत्रापि जीवगुणघाते पुद्गलद्रव्यघातस्य, पुद्गलद्रव्यघाते जीवगुणघातस्य च दुर्निवारत्वात्
यद्येवं तर्हि कुतः सम्यग्द्रष्टेर्भवति रागो विषयेषु ? न कुतोऽपि तर्हि रागस्य कतरा
खानिः ? रागद्वेषमोहा हि जीवस्यैवाज्ञानमयाः परिणामाः, ततः परद्रव्यत्वाद्विषयेषु न
सन्ति, अज्ञानाभावात्सम्यग्
द्रष्टौ तु न भवन्ति एवं ते विषयेष्वसन्तः सम्यग्द्रष्टेर्न भवन्तो,
न भवन्त्येव
पुद्गलद्रव्यका नाश नहीं होता (यह तो स्पष्ट है); इसलिये इसप्रकार यह सिद्ध होता है कि
‘दर्शन-ज्ञान-चारित्र पुद्गलद्रव्यमें नहीं हैं’ क्योंकि, यदि ऐसा न हो तो दर्शन-ज्ञान-चारित्रका घात
होने पर पुद्गलद्रव्यका घात, और पुद्गलद्रव्यके घात होने पर दर्शन-ज्ञान-चारित्रका अवश्य ही
घात होना चाहिये
ऐसा होनेसे जीवके जो जितने गुण हैं वे सब परद्रव्योंमें नहीं हैं यह इस
भलीभांति देखते-मानते हैं; क्योंकि, यदि ऐसा न हो तो, यहाँ भी जीवके गुणोंका घात होने पर
पुद्गलद्रव्यका घात, और पुद्गलद्रव्यके घात होने पर जीवके गुणका घात होना अनिवार्य हो जाय
(किन्तु ऐसा नहीं होता, इससे सिद्ध हुआ कि जीवके कोई गुण पुद्गलद्रव्यमें नहीं हैं)
प्रश्न :यदि ऐसा है तो सम्यग्दृष्टिको विषयोंमें राग किस कारणसे होता है ? उत्तर :
किसी भी कारणसे नहीं होता (प्रश्न :) तब फि र रागकी खान (उत्पत्ति स्थान) कौनसी है ?
(उत्तर :) राग-द्वेष-मोह, जीवके ही अज्ञानमय परिणाम हैं (अर्थात् जीवका अज्ञान ही
रागादिको उत्पन्न करनेकी खान है); इसलिये वे राग-द्वेष-मोह, विषयोंमें नहीं हैं, क्योंकि विषय
परद्रव्य हैं, और वे सम्यग्दृष्टिमें (भी) नहीं हैं क्योंकि उसके अज्ञानका अभाव है; इसप्रकार राग-
द्वेष-मोह, विषयोंमें न होनेसे और सम्यग्दृष्टिके (भी) न होनेसे, (वे) हैं ही नहीं
भावार्थ :आत्माके अज्ञानमय परिणामरूप राग-द्वेष-मोह उत्पन्न होने पर आत्माके
दर्शन-ज्ञान-चारित्रादि गुणोंका घात होता है, किन्तु गुणोंके घात होने पर भी अचेतन पुद्गलद्रव्यका
घात नहीं होता; और पुद्गलद्रव्यके घात होने पर दर्शन-ज्ञान-चारित्रादिका घात नहीं होता; इसलिये
जीवके कोई भी गुण पुद्गलद्रव्यमें नहीं हैं
ऐसा जानते हुए सम्यग्दृष्टिको अचेतन विषयोंमें
रागादिक नहीं होते राग-द्वेष-मोह, पुद्गलद्रव्यमें नहीं हैं, वे जीवके ही अस्तित्वमें अज्ञानसे उत्पन्न
होते हैं; जब अज्ञानका अभाव हो जाता है अर्थात् सम्यग्दृष्टि होता है, तब राग-द्वेषादि उत्पन्न होते
हैं
इसप्रकार राग-द्वेष-मोह न तो पुद्गलद्रव्यमें हैं और न सम्यग्दृष्टिमें भी होते हैं, इसलिये
शुद्धद्रव्यदृष्टिसे देखने पर वे हैं ही नहीं, और पर्यायदृष्टिसे देखने पर वे जीवको अज्ञान अवस्थामें
हैं
ऐसा जानना चाहिये।।३६६ से ३७१।।

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(मन्दाक्रान्ता)
रागद्वेषाविह हि भवति ज्ञानमज्ञानभावात्
तौ वस्तुत्वप्रणिहित
द्रशा द्रश्यमानौ न किंचित्
सम्यग्द्रष्टिः क्षपयतु ततस्तत्त्वद्रष्टया स्फु टं तौ
ज्ञानज्योतिर्ज्वलति सहजं येन पूर्णाचलार्चिः ।।२१८।।
(शालिनी)
रागद्वेषोत्पादकं तत्त्वद्रष्टया
नान्यद्द्रव्यं वीक्ष्यते किंचनापि
सर्वद्रव्योत्पत्तिरन्तश्चकास्ति
व्यक्तात्यन्तं स्वस्वभावेन यस्मात्
।।२१९।।
66
अब, इस अर्थका कलशरूप काव्य कहते हैं :
श्लोकार्थ :[इह ज्ञानम् हि अज्ञानभावात् राग-द्वेषौ भवति ] इस जगतमें ज्ञान ही
अज्ञानभावसे रागद्वेषरूप परिणमित होता है; [वस्तुत्व-प्रणिहित-दशा दृश्यमानौ तो किंचित् न ]
वस्तुत्वमें स्थापित (
एकाग्र की गई) दृष्टिसे देखने पर (अर्थात् द्रव्यदृष्टिसे देखने पर), वे राग
-द्वेष कुछ भी नहीं हैं (द्रव्यरूप पृथक् वस्तु नहीं हैं) [ततः सम्यग्दृष्टिः तत्त्वदृष्टया तौ स्फु टं
क्षपयतु ] इसलिये (आचार्यदेव प्रेरणा करते हैं कि) सम्यग्दृष्टि पुरुष तत्त्वदृष्टिसे उन्हें (राग-द्वेषको)
स्पष्टतया क्षय करो, [येन पूर्ण-अचल-अर्चिः सहजं ज्ञानज्योतिः ज्वलति ] कि जिससे, पूर्ण और
अचल जिसका प्रकाश है ऐसी (दैदीप्यमान) सहज ज्ञानज्योति प्रकाशित हो
भावार्थ :राग-द्वेष कोई पृथक् द्रव्य नहीं है, वे (राग-द्वेषरूप परिणाम) जीवके
अज्ञानभावसे होते हैं; इसलिये सम्यग्दृष्टि होकर तत्त्वदृष्टिसे देखा जाये तो वे (राग-द्वेष) कुछ भी
वस्तु नहीं हैं ऐसा दिखाई देता है, और घातिकर्मोंका नाश होकर केवलज्ञान उत्पन्न होता है
।।२१८।।
अब, आगेकी गाथामें यह कहेंगे कि ‘अन्य द्रव्य अन्य द्रव्यको गुण उत्पन्न नहीं कर
सकता’ इसका सूचक काव्य कहते हैं :
श्लोकार्थ :[तत्त्वदृष्टया ] तत्त्वदृष्टिसे देखा जाये तो, [राग-द्वेष-उत्पादकं अन्यत् द्रव्यं
किंचन अपि न वीक्ष्यते ] राग-द्वेषको उत्पन्न करनेवाला अन्य द्रव्य किंचित्मात्र भी दिखाई नहीं
देता, [यस्मात् सर्व-द्रव्य-उत्पत्तिः स्वस्वभावेन अन्तः अत्यन्तं व्यक्ता चकास्ति ] क्योंकि सर्व
द्रव्योंकी उत्पत्ति अपने स्वभावसे ही होती हुई अन्तरंगमें अत्यन्त प्रगट (स्पष्ट) प्रकाशित होती है

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अण्णदविएण अण्णदवियस्स णो कीरए गुणुप्पाओ
तम्हा दु सव्वदव्वा उप्पज्जंते सहावेण ।।३७२।।
अन्यद्रव्येणान्यद्रव्यस्य न क्रियते गुणोत्पादः
तस्मात्तु सर्वद्रव्याण्युत्पद्यन्ते स्वभावेन ।।३७२।।
न च जीवस्य परद्रव्यं रागादीनुत्पादयतीति शंक्यम्; अन्यद्रव्येणान्यद्रव्यगुणोत्पाद-
करणस्यायोगात्; सर्वद्रव्याणां स्वभावेनैवोत्पादात् तथा हिमृत्तिका कुम्भभावेनोत्पद्यमाना
किं कुम्भकारस्वभावेनोत्पद्यते, किं मृत्तिकास्वभावेन ? यदि कुम्भकारस्वभावेनोत्पद्यते तदा
कुम्भकरणाहंकारनिर्भरपुरुषाधिष्ठितव्यापृतकरपुरुषशरीराकारः कुम्भः स्यात्
न च तथास्ति,
भावार्थ :राग-द्वेष चेतनके ही परिणाम हैं अन्य द्रव्य आत्माको राग-द्वेष उत्पन्न नहीं
करा सकता; क्योंकि सर्व द्रव्योंकी उत्पत्ति अपने अपने स्वभावसे ही होती है, अन्य द्रव्यमें अन्य
द्रव्यके गुणपर्यायोंकी उत्पत्ति नहीं होती
।।२१९।।
अब, इसी अर्थको गाथा द्वारा कहते हैं :
को द्रव्य दूसरे द्रव्यमें उत्पाद नहिं गुणका करे
इस हेतुसे सब ही दरब उत्पन्न आप स्वभावसे।।३७२।।
गाथार्थ :[अन्यद्रव्येण ] अन्य द्रव्यसे [अन्यद्रव्यस्य ] अन्य द्रव्यके [गुणोत्पादः ]
गुणकी उत्पत्ति [न क्रियते ] नहीं की जा सकती; [तस्मात् तु ] इससे (यह सिद्धान्त हुआ कि)
[सर्वद्रव्याणि ] सर्व द्रव्य [स्वभावेन ] अपने अपने स्वभावसे [उत्पद्यंते ] उत्पन्न होते हैं
टीका :और भी ऐसी शंका नहीं करनी चाहिये किपरद्रव्य जीवको रागादि उत्पन्न
करते हैं; क्योंकि अन्य द्रव्यके द्वारा अन्य द्रव्यके गुणोंको उत्पन्न करनेकी अयोग्यता है; क्योंकि
सर्व द्रव्योंका स्वभावसे ही उत्पाद होता है
यह बात दृष्टान्तपूर्वक समझाई जा रही है :
मिट्टी घटभावरूपसे उत्पन्न होती हुई कुम्हारके स्वभावसे उत्पन्न होती है या मिट्टीके ?
यदि कुम्हारके स्वभावसे उत्पन्न होती हो तो जिसमें घटको बनानेके अहंकारसे भरा हुआ
पुरुष विद्यमान है और जिसका हाथ (घड़ा बनानेका) व्यापार करता है, ऐसे पुरुषके
शरीराकार घट होना चाहिये
परन्तु ऐसा तो नहीं होता, क्योंकि अन्यद्रव्यके स्वभावसे किसी
द्रव्यके परिणामका उत्पाद देखनेमें नहीं आता यदि ऐसा है तो फि र मिट्टी कुम्हारके

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द्रव्यान्तरस्वभावेन द्रव्यपरिणामोत्पादस्यादर्शनात् यद्येवं तर्हि मृत्तिका कुम्भकारस्वभावेन
नोत्पद्यते, किन्तु मृत्तिकास्वभावेनैव, स्वस्वभावेन द्रव्यपरिणामोत्पादस्य दर्शनात् एवं च
सति मृत्तिकायाः स्वस्वभावानतिक्रमान्न कुम्भकारः कुम्भस्योत्पादक एव; मृत्तिकैव
कुम्भकारस्वभावमस्पृशन्ती स्वस्वभावेन कुम्भभावेनोत्पद्यते
एवं सर्वाण्यपि द्रव्याणि
स्वपरिणामपर्यायेणोत्पद्यमानानि किं निमित्तभूतद्रव्यान्तरस्वभावेनोत्पद्यन्ते, किं स्वस्वभावेन ?
यदि निमित्तभूतद्रव्यान्तरस्वभावेनोत्पद्यन्ते तदा निमित्तभूतपरद्रव्याकारस्तत्परिणामः स्यात्
च तथास्ति, द्रव्यान्तरस्वभावेन द्रव्यपरिणमोत्पादस्यादर्शनात् यद्येवं तर्हि न सर्वद्रव्याणि
निमित्तभूतपरद्रव्यस्वभावेनोत्पद्यन्ते, किन्तु स्वस्वभावेनैव, स्वस्वभावेन द्रव्यपरिणामोत्पादस्य
दर्शनात्
एवं च सति सर्वद्रव्याणां स्वस्वभावानतिक्रमान्न निमित्तभूतद्रव्यान्तराणि
स्वपरिणामस्योत्पादकान्येव; सर्वद्रव्याण्येव निमित्तभूतद्रव्यान्तरस्वभावमस्पृशन्ति स्वस्वभावेन
स्वपरिणामभावेनोत्पद्यन्ते
अतो न परद्रव्यं जीवस्य रागादीनामुत्पादकमुत्पश्यामो यस्मै
कुप्यामः
स्वभावसे उत्पन्न नहीं होती; परन्तु मिट्टीके स्वभावसे ही उत्पन्न होती है, क्योंकि (द्रव्यके)
अपने स्वभावरूपसे द्रव्यके परिणामका उत्पाद देखा जाता है
ऐसा होनेसे, मिट्टी अपने
स्वभावको उल्लंघन नहीं करती इसलिये, कुम्हार घड़ेका उत्पादक है ही नहीं; मिट्टी
ही, कुम्हारके स्वभावको स्पर्श न करती हुई अपने स्वभावसे कुम्भभावरूपसे उत्पन्न
होती है
इसीप्रकारसभी द्रव्य स्वपरिणामपर्यायसे (अर्थात् अपने परिणामभावरूपसे) उत्पन्न
होते हुए, निमित्तभूत अन्यद्रव्योंके स्वभावसे उत्पन्न होते हैं कि अपने स्वभावसे ? यदि
निमित्तभूत अन्यद्रव्योंके स्वभावसे उत्पन्न होते हों तो उनके परिणाम निमित्तभूत अन्यद्रव्योंके
आकारके होने चाहिए
परन्तु ऐसा तो नहीं होता, क्योंकि अन्यद्रव्यके स्वभावरूपसे किसी
द्रव्यके परिणामका उत्पाद दिखाई नहीं देता जब कि ऐसा है तो सर्व द्रव्य
निमित्तभूत अन्यद्रव्योंके स्वभावसे उत्पन्न नहीं होते, परन्तु अपने स्वभावसे ही उत्पन्न होते
हैं, क्योंकि (द्रव्यके) अपने स्वभावरूपसे द्रव्यके परिणामका उत्पाद देखनेमें आता है
ऐसा होनेसे, सर्व द्रव्य अपने स्वभावको उल्लंघन न करते होनेसे, निमित्तभूत अन्य द्रव्य
अपने (अर्थात् सर्व द्रव्योंके) परिणामोंके उत्पादक हैं ही नहीं; सर्व द्रव्य ही, निमित्तभूत
अन्यद्रव्यके स्वभावको स्पर्श न करते हुए, अपने स्वभावसे अपने परिणामभावरूपसे उत्पन्न
होते हैं

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(मालिनी)
यदिह भवति रागद्वेषदोषप्रसूतिः
कतरदपि परेषां दूषणं नास्ति तत्र
स्वयमयमपराधी तत्र सर्पत्यबोधो
भवतु विदितमस्तं यात्वबोधोऽस्मि बोधः
।।२२०।।
इसलिये (आचार्यदेव कहते हैं कि) हम जीवके रागादिका उत्पादक परद्रव्यको नहीं
देखते (मानते) कि जिस पर कोप करें
भावार्थ :आत्माको रागादि उत्पन्न होते हैं सो वे अपने ही अशुद्ध परिणाम हैं
यदि निश्चयनयसे विचार किया जाये तो अन्यद्रव्य रागादिका उत्पन्न करनेवाला नहीं है,
अन्यद्रव्य उनका निमित्तमात्र है; क्योंकि अन्य द्रव्यके अन्य द्रव्य गुणपर्याय उत्पन्न नहीं
करता, यह नियम है
जो यह मानते हैंऐसा एकान्त ग्रहण करते हैं कि‘परद्रव्य ही मुझमें
रागादिक उत्पन्न करते हैं’, वे नयविभागको नहीं समझते, वे मिथ्यादृष्टि हैं यह रागादिक
जीवके सत्त्वमें उत्पन्न होते हैं, परद्रव्य तो निमित्तमात्र हैऐसा मानना सम्यग्ज्ञान है इसलिये
आचार्यदेव कहते हैं किहम राग-द्वेषकी उत्पत्तिमें अन्य द्रव्य पर क्यों कोप करें ? राग-
द्वेषका उत्पन्न होना तो अपना ही अपराध है।।३७२।।
अब, इस अर्थका कलशरूप काव्य कहते हैं :
श्लोकार्थ :[इह ] इस आत्मामें [यत् राग-द्वेष-दोष-प्रसूतिः भवति ] जो
रागद्वेषरूप दोषोंकी उत्पत्ति होती है [तत्र परेषां कतरत् अपि दूषणं नास्ति ] उसमें परद्रव्यका
कोई भी दोष नहीं है, [तत्र स्वयम् अपराधी अयम् अबोधः सर्पति ] वहाँ तो स्वयं अपराधी
यह अज्ञान ही फै लता है;
[विदितम् भवतु ] इसप्रकार विदित हो और [अबोधः अस्तं
यातु ] अज्ञान अस्त हो जाये; [बोधः अस्मि ] मैं तो ज्ञान हूँ
भावार्थ :अज्ञानी जीव परद्रव्यसे रागद्वेषकी उत्पत्ति होती हुई मानकर परद्रव्य पर
क्रोध करता है कि‘यह परद्रव्य मुझे राग-द्वेष उत्पन्न कराता है, उसे दूर करूँ’ ऐसे
अज्ञानी जीवको समझानेके लिये आचार्यदेव उपदेश देते हैं किराग-द्वेषकी उत्पत्ति अज्ञानसे
आत्मामें ही होती है और वे आत्माके ही अशुद्ध परिणाम हैं इसलिये इस अज्ञानको नाश
करो, सम्यग्ज्ञान प्रगट करो, आत्मा ज्ञानस्वरूप है ऐसा अनुभव करो; परद्रव्यको राग-द्वेषका
उत्पन्न करनेवाला मानकर उस पर कोप न करो
।।२२०।।

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(रथोद्धता)
रागजन्मनि निमित्ततां पर-
द्रव्यमेव कलयन्ति ये तु ते
उत्तरन्ति न हि मोहवाहिनीं
शुद्धबोधविधुरान्धबुद्धयः
।।२२१।।
अब, इसी अर्थको दृढ़ करनेके लिये और आगामी कथनका सूचक काव्य कहते हैंः
श्लोकार्थ :[ये तु राग-जन्मनि परद्रव्यम् एव निमित्ततां कलयन्ति ] जो रागकी
उत्पत्तिमें परद्रव्यका ही निमित्तत्व (कारणत्व) मानते हैं, (अपना कुछ भी कारणत्व नहीं
मानते,) [ते शुद्ध-बोध-विधुर-अन्ध-बुद्धयः ] वेजिनकी बुद्धि शुद्धज्ञानसे रहित अंध है
ऐसे (अर्थात् जिनकी बुद्धि शुद्धनयके विषयभूत शुद्ध आत्मस्वरूपके ज्ञानसे रहित अंध है
ऐसे)
[मोह-वाहिनीं न हि उत्तरन्ति ]मोहनदीको पार नहीं कर सकते
भावार्थ :शुद्धनयका विषय आत्मा अनन्त शक्तिवान, चैतन्यचमत्कारमात्र, नित्य,
अभेद, एक है वह अपने ही अपराधसे रागद्वेषरूप परिणमित होता है ऐसा नहीं है कि
जिसप्रकार निमित्तभूत परद्रव्य परिणमित करता है उसीप्रकार आत्मा परिणमित होता है, और
उसमें आत्माका कोई पुरुषार्थ ही नहीं है
जिन्हें आत्माके ऐसे स्वरूपका ज्ञान नहीं है वे
यह मानते हैं कि परद्रव्य आत्माको जिसप्रकार परिणमन कराता है उसीप्रकार आत्मा
परिणमित होता है
ऐसा माननेवाले मोहरूपी नदीको पार नहीं कर सकते (अथवा मोह-
सैन्यको नहीं हरा सकते), उनके राग-द्वेष नहीं मिटते; क्योंकि राग-द्वेष करनेमें यदि अपना
पुरुषार्थ हो तो वह उनके मिटानेमें भी हो सकता है, किन्तु यदि दूसरेके कराये ही राग-
द्वेष होता हो तो पर तो राग-द्वेष कराया ही करे, तब आत्मा उन्हें कहाँसे मिटा सकेगा?
इसलिये राग-द्वेष अपने किये होते हैं और अपने मिटाये मिटते हैं
इसप्रकार कथंचित्
मानना सो सम्यग्ज्ञान है।।२२१।।
स्पर्श, रस, गंध, वर्ण और शब्दादिरूप परिणमते पुद्गल आत्मासे कहीं यह नहीं
कहते हैं कि ‘तू हमें जान’, और आत्मा भी अपने स्थानसे छूटकर उन्हें जाननेको नहीं
जाता
दोनों सर्वथा स्वतंत्रतया अपने अपने स्वभावसे ही परिणमित होते हैं इसप्रकार आत्मा
परके प्रति उदासीन (सम्बन्ध रहित, तटस्थ) है, तथापि अज्ञानी जीव स्पर्शादिको अच्छे-
बुरे मानकर रागी-द्वेषी होता है, यह उसका अज्ञान है
इस अर्थकी गाथा कहते हैं :

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णिंदिदसंथुदवयणाणि पोग्गला परिणमंति बहुगाणि
ताणि सुणिदूण रूसदि तूसदि य पुणो अहं भणिदो ।।३७३।।
पोग्गलदव्वं सद्दत्तपरिणदं तस्स जदि गुणो अण्णो
तम्हा ण तुमं भणिदो किंचि वि किं रूससि अबुद्धो ।।३७४।।
असुहो सुहो व सद्दो ण तं भणदि सुणसु मं ति सो चेव
ण य एदि विणिग्गहिदुं सोदविसयमागदं सद्दं ।।३७५।।
असुहं सुहं व रूवं ण तं भणदि पेच्छ मं ति सो चेव
ण य एदि विणिग्गहिदुं चक्खुविसयमागदं रूवं ।।३७६।।
असुहो सुहो व गंधो ण तं भणदि जिग्घ मं ति सो चेव
ण य एदि विणिग्गहिदुं घाणविसयमागदं गंधं ।।३७७।।
असुहो सुहो व रसो ण तं भणदि रसय मं ति सो चेव
ण य एदि विणिग्गहिदुं रसणविसयमागदं तु रसं ।।३७८।।
पुद्गलदरब बहु भाँति निंदा-स्तुतिवचनरूप परिणमे
सुनकर उन्हें ‘मुझको कहा’ गिन रोष तोष जु जीव करे।।३७३।।
पुद्गलदरब शब्दत्वपरिणत, उसका गुण जो अन्य है
तो नहिं कहा कुछ भी तुझे, हे अबुध ! रोष तूं क्यों करे ?।।३७४।।
शुभ या अशुभ जो शब्द वह ‘तूँ सुन मुझे’ न तुझे कहे
अरु जीव भी नहिं ग्रहण जावे कर्णगोचर शब्दको।।३७५।।
शुभ या अशुभ जो रूप वह ‘तू देख मुझको’ नहिं कहे
अरु जीव भी नहिं ग्रहण जावे चक्षुगोचर रूपको।।३७६।।
शुभ या अशुभ जो गन्ध वह ‘तू सूंघ मुझको’ नहिं कहे
अरु जीव भी नहिं ग्रहण जावे ध्राणगोचर गन्धको।।३७७।।
शुभ या अशुभ रस कोई भी, ‘तू चाख मुझको’ नहिं कहे
अरु जीव भी नहिं ग्रहण जावे रसनगोचर स्वादको।।३७८।।

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असुहो सुहो व फासो ण तं भणदि फु ससु मं ति सो चेव
ण य एदि विणिग्गहिदुं कायविसयमागदं फासं ।।३७९।।
असुहो सुहो व गुणो ण तं भणदि बुज्झ मं ति सो चेव
ण य एदि विणिग्गहिदुं बुद्धिविसयमागदं तु गुणं ।।३८०।।
असुहं सुहं व दव्वं ण तं भणदि बुज्झ मं ति सो चेव
ण य एदि विणिग्गहिदुं बुद्धिविसयमागदं दव्वं ।।३८१।।
एयं तु जाणिऊणं उवसमं णेव गच्छदे मूढो
णिग्गहमणा परस्स य सयं च बुद्धिं सिवमपत्तो ।।३८२।।
निन्दितसंस्तुतवचनानि पुद्गलाः परिणमन्ति बहुकानि
तानि श्रुत्वा रुष्यति तुष्यति च पुनरहं भणितः ।।३७३।।
पुद्गलद्रव्यं शब्दत्वपरिणतं तस्य यदि गुणोऽन्यः
तस्मान्न त्वं भणितः किञ्चिदपि किं रुष्यस्यबुद्धः ।।३७४।।
शुभ या अशुभ जो स्पर्श वह ‘तू स्पर्श मुझको’ नहिं कहे
अरु जीव भी नहिं ग्रहण जावे कायगोचर स्पर्शको।।३७९।।
शुभ या अशुभ गुण कोई भी ‘तू जान मुझको’ नहिं कहे
अरु जीव भी नहिं ग्रहण जावे बुद्धिगोचर गुण अरे।।३८०।।
शुभ या अशुभ जो द्रव्य वह ‘तू जान मुझको’ नहिं कहे
अरु जीव भी नहिं ग्रहण जावे बुद्धिगोचर द्रव्य रे।।३८१।।
यह जानकर भी मूढ जीव पावे नहिं उपशम अरे !
शिव बुद्धिको पाया नहीं वह पर ग्रहण करना चहे
।।३८२।।
गाथार्थ :[बहुकानि ] बहुत प्रकारके [निन्दितसंस्तुतवचनानि ] निन्दाके और स्तुतिके
वचनरूपमें [पुद्गलाः ] पुद्गल [परिणमन्ति ] परिणमित होते हैं; [तानि श्रुत्वा पुनः ] उन्हें सुनकर
अज्ञानी जीव [अहं भणितः ] ‘मुझसे कहा’ ऐसा मानकर [रुष्यति तुष्यति च ] रोष और संतोष
करता है (अर्थात् क्रोध करता है और प्रसन्न होता है)