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सेटिका कुडयादेर्भवन्ती कुडयादिरेव भवेत्; एवं सति सेटिकायाः स्वद्रव्योच्छेदः
वे दो स्व-स्वामिरूप अंश ही हैं
है
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जीवति चेतयिता पुद्गलादेर्भवन् पुद्गलादिरेव भवेत्; एवं सति चेतयितुः स्वद्रव्योच्छेदः
कलईकी ही कलई है
ही हैं
नहीं ?’
ही निषेध कर दिया है
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सेटिका कुडयादेर्भवन्ती कुडयादिरेव भवेत्, एवं सति सेटिकायाः स्वद्रव्योच्छेदः
भवति
हैं
दीवार-आदि ही होनी चाहिए (अर्थात् कलई दीवार-आदि स्वरूप ही होनी चाहिए); ऐसा होने
पर, कलईके स्वद्रव्यका उच्छेद हो जायेगा
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भवदात्मैव भवतीति तत्त्वसम्बन्धे जीवति चेतयिता पुद्गलादेर्भवन् पुद्गलादिरेव भवेत्; एवं
सति चेतयितुः स्वद्रव्योच्छेदः
है, किन्तु वे दो स्व-स्वामिरूप अंश ही हैं
ज्ञान होनेसे ज्ञान वह आत्मा ही है :’
होना चाहिए); ऐसा होने पर, चेतयिताके स्वद्रव्यका उच्छेद हो जायेगा
भिन्न अन्य कोई चेतयिता नहीं है, किन्तु वे दो स्व-स्वामिरूप अंश ही हैं
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स्वभावस्य परिणामेनोत्पद्यमाना कुडयादिपरद्रव्यं सेटिकानिमित्तकेनात्मनः स्वभावस्य
परिणामेनोत्पद्यमानमात्मनः स्वभावेन श्वेतयतीति व्यवह्रियते, तथा चेतयितापि ज्ञानगुण-
निर्भरस्वभावः स्वयं पुद्गलादिपरद्रव्यस्वभावेनापरिणममानः पुद्गलादिपरद्रव्यं चात्मस्वभावेना-
परिणमयन् पुद्गलादिपरद्रव्यनिमित्तकेनात्मनो ज्ञानगुणनिर्भरस्वभावस्य परिणामेनोत्पद्यमानः
पुद्गलादिपरद्रव्यं चेतयितृनिमित्तकेनात्मनः स्वभावस्य परिणामेनोत्पद्यमानमात्मनः स्वभावेन
जानातीति व्यवह्रियते
करती हुई, दीवार-आदि परद्रव्य जिसको निमित्त हैं ऐसे अपने श्वेतगुणसे परिपूर्ण स्वभावके
परिणाम द्वारा उत्पन्न होती हुई, कलई जिसको निमित्त है ऐसे अपने (
परद्रव्यको अपने स्वभावरूप परिणमित न कराता हुआ, पुद्गलादि परद्रव्य जिसको निमित्त हैं ऐसे
अपने ज्ञानगुणसे परिपूर्ण स्वभावके परिणाम द्वारा उत्पन्न होता हुआ, चेतयिता जिसको निमित्त है
ऐसे अपने (
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श्वेतगुणनिर्भरस्वभावस्य परिणामेनोत्पद्यमाना कुडयादिपरद्रव्यं सेटिकानिमित्तकेनात्मनः स्वभावस्य
परिणामेनोत्पद्यमानमात्मनः स्वभावेन श्वेतयतीति व्यवह्रियते, तथा चेतयितापि दर्शनगुण-
निर्भरस्वभावः स्वयं पुद्गलादिपरद्रव्यस्वभावेनापरिणममानः पुद्गलादिपरद्रव्यं चात्मस्वभावेना-
परिणमयन् पुद्गलादिपरद्रव्यनिमित्तकेनात्मनो दर्शनगुणनिर्भरस्वभावस्य परिणामेनोत्पद्यमानः
पुद्गलादिपरद्रव्यं चेतयितृनिमित्तकेनात्मनः स्वभावस्य परिणामेनोत्पद्यमानमात्मनः स्वभावेन
पश्यतीति व्यवह्रियते
केनात्मनः श्वेतगुणनिर्भरस्वभावस्य परिणामेनोत्पद्यमाना कुडयादिपरद्रव्यं सेटिकानिमित्तकेनात्मनः
कराती हुई, दीवार-आदि परद्रव्य जिसको निमित्त हैं ऐसे अपने श्वेतगुणसे परिपूर्ण स्वभावके
परिणाम द्वारा उत्पन्न हुई, कलई जिसको निमित्त है ऐसे अपने (
स्वभावरूप परिणमित न कराता हुआ, पुद्गलादि परद्रव्य जिसको निमित्त हैं ऐसे अपने
दर्शनगुणसे परिपूर्ण स्वभावके परिणाम द्वारा उत्पन्न होता हुआ, चेतयिता जिसको निमित्त है ऐसे
अपने (
कराती हुई, दीवार-आदि परद्रव्य जिसको निमित्त है ऐसे अपने श्वेतगुणसे परिपूर्ण स्वभावके परिणाम
द्वारा उत्पन्न होती हुई, कलई जिसको निमित्त है ऐसे अपने (
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ज्ञानदर्शनगुणनिर्भरपरापोहनात्मकस्वभावः स्वयं पुद्गलादिपरद्रव्यस्वभावेनापरिणममानः पुद्गलादि-
परद्रव्यं चात्मस्वभावेनापरिणमयन् पुद्गलादिपरद्रव्यनिमित्तकेनात्मनो ज्ञानदर्शनगुणनिर्भर-
परापोहनात्मकस्वभावस्य परिणामेनोत्पद्यमानः पुद्गलादिपरद्रव्यं चेतयितृनिमित्तकेनात्मनः स्वभावस्य
परिणामेनोत्पद्यमानमात्मनः स्वभावेनापोहतीति व्यवह्रियते
और पुद्गलादि परद्रव्यको अपने स्वभावरूप परिणमित न कराता हुआ, पुद्गलादि परद्रव्य जिसको
निमित्त है ऐसे अपने ज्ञानदर्शनगुणसे परिपूर्ण पर-अपोहनात्मक (
जा सकता, त्याग करनेवाला नहीं कहा जा सकता; क्योंकि परद्रव्यके और आत्माके निश्चयसे कोई
भी सम्बन्ध नहीं है
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नैकद्रव्यगतं चकास्ति किमपि द्रव्यान्तरं जातुचित्
किं द्रव्यान्तरचुम्बनाकुलधियस्तत्त्वाच्च्यवन्ते जनाः
मन्यद्द्रव्यं भवति यदि वा तस्य किं स्यात्स्वभावः
र्ज्ञानं ज्ञेयं कलयति सदा ज्ञेयमस्यास्ति नैव
द्रव्य-गतं किम्-अपि द्रव्य-अन्तरं जातुचित् न चकास्ति ] एक द्रव्यके भीतर कोई भी अन्य द्रव्य
रहता हुआ क दापि भासित नहीं होता
मान्यतासे आकुल बुद्धिवाले होते हुए [तत्त्वात् ] तत्त्वसे (शुद्ध स्वरूपसे) [किं च्यवन्ते ] क्यों
च्युत होते हैं ?
होते हैं कि ‘ज्ञानको परज्ञेयोंके साथ परमार्थ सम्बन्ध है’; यह उनका अज्ञान है
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ज्ञानं ज्ञानं भवति न पुनर्बोध्यतां याति बोध्यम्
भावाभावौ भवति तिरयन् येन पूर्णस्वभावः
स्वभावस्य भवति ] क्या शेष कोई अन्यद्रव्य उस (
इसप्रकार ज्ञान ज्ञेयको सदा जानता है [ज्ञेयम् अस्य अस्ति न एव ] तथापि ज्ञेय ज्ञानका
कदापि नहीं होता
भी नहीं होता
[पुनः बोध्यम् बोध्यतां न याति ] और ज्ञेय ज्ञेयत्वको प्राप्त न हो
पूर्णस्वभाव (प्रगट) हो जाये
ज्ञानमें जो भाव और अभावरूप दो अवस्थाऐं होती हैं वे मिट जायें और ज्ञान पूर्णस्वभावको
प्राप्त हो जाये
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नहीं होते; वे मात्र अज्ञानदशामें प्रवर्तमान जीवके परिणाम हैं
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आत्मा [तेषु विषयेषु ] उन विषयोंमें [किं हन्ति ] क्या घात करेगा ?
कर्मणि ] उन क र्ममें [किं हन्ति ] क्या घात करेगा ? (कुछ भी घात नहीं कर सकता
कायेषु ] उन कायोंमें [किं हन्ति ] क्या घात करेगा ? (कुछ भी घात नहीं कर सकता
किंचित्मात्र भी [न अपि निर्दिष्टः ] नहीं कहा है
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न हन्यते, यथा घटप्रदीपघाते घटो न हन्यते
एवं दर्शनज्ञानचारित्राणि पुद्गलद्रव्ये न भवन्तीत्यायाति; अन्यथा तद्घाते पुद्गलद्रव्य-
सम्यग्दृष्टिके [विषयेषु ] विषयोंके प्रति [रागः तु ] राग [न अस्ति ] नहीं है
रागादिक [शब्दादिषु ] शब्दादि विषयोंमें (भी) [न सन्ति ] नहीं हैं
रहनेवाला) प्रकाश नष्ट हो जाता है; तथा जिसमें जो होता है वह उसका नाश होने पर अवश्य
नष्ट हो जाता है (अर्थात् आधेयका घात होने पर आधारका घात हो जाता ही है), जैसे प्रकाशका
घात होने पर दीपकका घात हो जाता है
होता
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अत्रापि जीवगुणघाते पुद्गलद्रव्यघातस्य, पुद्गलद्रव्यघाते जीवगुणघातस्य च दुर्निवारत्वात्
सन्ति, अज्ञानाभावात्सम्यग्
होने पर पुद्गलद्रव्यका घात, और पुद्गलद्रव्यके घात होने पर दर्शन-ज्ञान-चारित्रका अवश्य ही
घात होना चाहिये
पुद्गलद्रव्यका घात, और पुद्गलद्रव्यके घात होने पर जीवके गुणका घात होना अनिवार्य हो जाय
परद्रव्य हैं, और वे सम्यग्दृष्टिमें (भी) नहीं हैं क्योंकि उसके अज्ञानका अभाव है; इसप्रकार राग-
द्वेष-मोह, विषयोंमें न होनेसे और सम्यग्दृष्टिके (भी) न होनेसे, (वे) हैं ही नहीं
घात नहीं होता; और पुद्गलद्रव्यके घात होने पर दर्शन-ज्ञान-चारित्रादिका घात नहीं होता; इसलिये
जीवके कोई भी गुण पुद्गलद्रव्यमें नहीं हैं
हैं
हैं
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तौ वस्तुत्वप्रणिहित
व्यक्तात्यन्तं स्वस्वभावेन यस्मात्
वस्तुत्वमें स्थापित (
स्पष्टतया क्षय करो, [येन पूर्ण-अचल-अर्चिः सहजं ज्ञानज्योतिः ज्वलति ] कि जिससे, पूर्ण और
अचल जिसका प्रकाश है ऐसी (दैदीप्यमान) सहज ज्ञानज्योति प्रकाशित हो
वस्तु नहीं हैं ऐसा दिखाई देता है, और घातिकर्मोंका नाश होकर केवलज्ञान उत्पन्न होता है
देता, [यस्मात् सर्व-द्रव्य-उत्पत्तिः स्वस्वभावेन अन्तः अत्यन्तं व्यक्ता चकास्ति ] क्योंकि सर्व
द्रव्योंकी उत्पत्ति अपने स्वभावसे ही होती हुई अन्तरंगमें अत्यन्त प्रगट (स्पष्ट) प्रकाशित होती है
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कुम्भकरणाहंकारनिर्भरपुरुषाधिष्ठितव्यापृतकरपुरुषशरीराकारः कुम्भः स्यात्
द्रव्यके गुणपर्यायोंकी उत्पत्ति नहीं होती
[सर्वद्रव्याणि ] सर्व द्रव्य [स्वभावेन ] अपने अपने स्वभावसे [उत्पद्यंते ] उत्पन्न होते हैं
सर्व द्रव्योंका स्वभावसे ही उत्पाद होता है
पुरुष विद्यमान है और जिसका हाथ (घड़ा बनानेका) व्यापार करता है, ऐसे पुरुषके
शरीराकार घट होना चाहिये
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कुम्भकारस्वभावमस्पृशन्ती स्वस्वभावेन कुम्भभावेनोत्पद्यते
यदि निमित्तभूतद्रव्यान्तरस्वभावेनोत्पद्यन्ते तदा निमित्तभूतपरद्रव्याकारस्तत्परिणामः स्यात्
दर्शनात्
स्वपरिणामभावेनोत्पद्यन्ते
अपने स्वभावरूपसे द्रव्यके परिणामका उत्पाद देखा जाता है
ही, कुम्हारके स्वभावको स्पर्श न करती हुई अपने स्वभावसे कुम्भभावरूपसे उत्पन्न
होती है
निमित्तभूत अन्यद्रव्योंके स्वभावसे उत्पन्न होते हों तो उनके परिणाम निमित्तभूत अन्यद्रव्योंके
आकारके होने चाहिए
हैं, क्योंकि (द्रव्यके) अपने स्वभावरूपसे द्रव्यके परिणामका उत्पाद देखनेमें आता है
अपने (अर्थात् सर्व द्रव्योंके) परिणामोंके उत्पादक हैं ही नहीं; सर्व द्रव्य ही, निमित्तभूत
अन्यद्रव्यके स्वभावको स्पर्श न करते हुए, अपने स्वभावसे अपने परिणामभावरूपसे उत्पन्न
होते हैं
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कतरदपि परेषां दूषणं नास्ति तत्र
भवतु विदितमस्तं यात्वबोधोऽस्मि बोधः
अन्यद्रव्य उनका निमित्तमात्र है; क्योंकि अन्य द्रव्यके अन्य द्रव्य गुणपर्याय उत्पन्न नहीं
करता, यह नियम है
कोई भी दोष नहीं है, [तत्र स्वयम् अपराधी अयम् अबोधः सर्पति ] वहाँ तो स्वयं अपराधी
यह अज्ञान ही फै लता है;
उत्पन्न करनेवाला मानकर उस पर कोप न करो
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द्रव्यमेव कलयन्ति ये तु ते
शुद्धबोधविधुरान्धबुद्धयः
ऐसे)
उसमें आत्माका कोई पुरुषार्थ ही नहीं है
परिणमित होता है
पुरुषार्थ हो तो वह उनके मिटानेमें भी हो सकता है, किन्तु यदि दूसरेके कराये ही राग-
द्वेष होता हो तो पर तो राग-द्वेष कराया ही करे, तब आत्मा उन्हें कहाँसे मिटा सकेगा?
इसलिये राग-द्वेष अपने किये होते हैं और अपने मिटाये मिटते हैं
जाता
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शिव बुद्धिको पाया नहीं वह पर ग्रहण करना चहे
अज्ञानी जीव [अहं भणितः ] ‘मुझसे कहा’ ऐसा मानकर [रुष्यति तुष्यति च ] रोष और संतोष
करता है (अर्थात् क्रोध करता है और प्रसन्न होता है)