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श्लोकार्थ : — [एकः अपि ] आत्मा एक है, तथापि [व्यवहारेण ] व्यवहारदृष्टिसे देखा जाय तो [त्रिस्वभावत्वात् ] तीन-स्वभावरूपताके कारण [मेचकः ] अनेकाकाररूप (‘मेचक’) है, [दर्शन-ज्ञान-चारित्रैः त्रिभिः परिणतत्वतः ] क्योंकि वह दर्शन, ज्ञान और चारित्र — इन तीन भावोंरूप परिणमन करता है ।
भावार्थ : — शुद्धद्रव्यार्थिक नयसे आत्मा एक है; जब इस नयको प्रधान करके कहा जाता है तब पर्यायार्थिक नय गौण हो जाता है, इसलिए एकको तीनरूप परिणमित होता हुआ कहना सो व्यवहार हुआ, असत्यार्थ भी हुआ । इसप्रकार व्यवहारनयसे आत्माको दर्शन, ज्ञान, चारित्ररूप परिणामोंके कारण ‘मेचक’ कहा है ।१७।
श्लोकार्थ : — [परमार्थेन तु ] शुद्ध निश्चयनयसे देखा जाये तो [व्यक्त -ज्ञातृत्व-ज्योतिषा ] प्रगट ज्ञायकत्वज्योतिमात्रसे [एककः ] आत्मा एकस्वरूप है, [सर्व-भावान्तर-ध्वंसि-स्वभावत्वात् ] क्योंकि शुद्धद्रव्यार्थिक नयसे सर्व अन्यद्रव्यके स्वभाव तथा अन्यके निमित्तसे होनेवाले विभावोंको दूर करनेरूप उसका स्वभाव है, इसलिये वह [अमेचकः ] ‘अमेचक’ है — शुद्ध एकाकार है ।
भावार्थ : — भेददृष्टिको गौण करके अभेददृष्टिसे देखा जाये तो आत्मा एकाकार ही है, वही अमेचक है ।१८।
आत्माको प्रमाण-नयसे मेचक, अमेचक कहा है, उस चिन्ताको मिटाकर जैसे साध्यकी सिद्धि हो वैसा करना चाहिए, यह आगेके श्लोकमें कहते हैं : —
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भावार्थ : — आत्माके शुद्ध स्वभावकी साक्षात् प्राप्ति अथवा सर्वथा मोक्ष वह साध्य है । आत्मा मेचक है या अमेचक, ऐसे विचार ही मात्र करते रहनेसे वह साध्य सिद्ध नहीं होता; परन्तु दर्शन अर्थात् शुद्ध स्वभावका अवलोकन, ज्ञान अर्थात् शुद्ध स्वभावका प्रत्यक्ष जानना और चारित्र अर्थात् शुद्ध स्वभावमें स्थिरतासे ही साध्यकी सिद्धि होती है । यही मोक्षमार्ग है, अन्य नहीं ।
व्यवहारीजन पर्यायमें – भेदमें समझते हैं, इसलिये यहां ज्ञान, दर्शन, चारित्रके भेदसे समझाया है ।१९।
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यथा हि कश्चित्पुरुषोऽर्थार्थी प्रयत्नेन प्रथममेव राजानं जानीते, ततस्तमेव श्रद्धत्ते, ततस्तमेवानुचरति, तथात्मना मोक्षार्थिना प्रथममेवात्मा ज्ञातव्यः, ततः स एव श्रद्धातव्यः, ततः स एवानुचरितव्यश्च, साध्यसिद्धेस्तथान्यथोपपत्त्यनुपपत्तिभ्याम् । तत्र यदात्मनोऽनुभूयमानानेक- भावसंक रेऽपि परमविवेककौशलेनायमहमनुभूतिरित्यात्मज्ञानेन संगच्छमानमेव तथेतिप्रत्ययलक्षणं श्रद्धानमुत्प्लवते तदा समस्तभावान्तरविवेकेन निःशंक मवस्थातुं शक्यत्वादात्मानुचरण- मुत्प्लवमानमात्मानं साधयतीति साध्यसिद्धेस्तथोपपत्तिः । यदा त्वाबालगोपालमेव सकलकालमेव पुरुष [राजानं ] राजाको [ज्ञात्वा ] जानकर [श्रद्दधाति ] श्रद्धा करता है, [ततः पुनः ] तत्पश्चात् [तं प्रयत्नेन अनुचरति ] उसका प्रयत्नपूर्वक अनुचरण करता है अर्थात् उसकी सुन्दर रीतिसे सेवा करता है, [एवं हि ] इसीप्रकार [मोक्षकामेन ] मोक्षके इच्छुकको [जीवराजः ] जीवरूपी राजाको [ज्ञातव्यः ] जानना चाहिए, [पुनः च ] और फि र [तथा एव ] इसीप्रकार [श्रद्धातव्यः ] उसका श्रद्धान करना चाहिए [तु च ] और तत्पश्चात् [ स एव अनुचरितव्यः ] उसीका अनुसरण करना चाहिए अर्थात् अनुभवके द्वारा तन्मय हो जाना चाहिये
टीका : — निश्चयसे जैसे कोई धनका अर्थी पुरुष बहुत उद्यमसे पहले तो राजाको जाने कि यह राजा है, फि र उसीका श्रद्धान करे कि ‘यह अवश्य राजा ही है, इसकी सेवा करनेसे अवश्य धनकी प्राप्ति होगी’ और तत्पश्चात् उसीका अनुचरण करे, सेवा करे, आज्ञामें रहे, उसे प्रसन्न करे; इसीप्रकार मोक्षार्थी पुरुषको पहले तो आत्माको जानना चाहिए, और फि र उसीका श्रद्धान करना चाहिये कि ‘यही आत्मा है, इसका आचरण करनेसे अवश्य कर्मोंसे छूटा जा सकेगा’ और तत्पश्चात् उसीका अनुचरण करना चाहिए — अनुभवके द्वारा उसमें लीन होना चाहिए; क्योंकि साध्य जो निष्कर्म अवस्थारूप अभेद शुद्धस्वरूप उसकी सिद्धिकी इसीप्रकार उपपत्ति है, अन्यथा अनुपपत्ति है (अर्थात् इसीप्रकारसे साध्यकी सिद्धि होती है, अन्य प्रकारसे नहीं) ।
(इसी बातको विशेष समझाते हैं : — ) जब आत्माको, अनुभवमें आनेवाले अनेक पर्यायरूप भेदभावोंके साथ मिश्रितता होने पर भी सर्व प्रकारसे भेदज्ञानमें प्रवीणतासे ‘जो यह अनुभूति है सो ही मैं हूँ’ ऐसे आत्मज्ञानसे प्राप्त होनेवाला, यह आत्मा जैसा जाना वैसा ही है इसप्रकारकी प्रतीति जिसका लक्षण है ऐसा, श्रद्धान उदित होता है तब समस्त अन्यभावोंका भेद होनेसे निःशंक स्थिर होनेमें समर्थ होनेसे आत्माका आचरण उदय होता हुआ आत्माको साधता है । ऐसे साध्य आत्माकी सिद्धिकी इसप्रकार उपपत्ति है ।
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स्वयमेवानुभूयमानेऽपि भगवत्यनुभूत्यात्मन्यात्मन्यनादिबन्धवशात् परैः सममेकत्वाध्यवसायेन विमूढस्यायमहमनुभूतिरित्यात्मज्ञानं नोत्प्लवते, तदभावादज्ञातखरशृंगश्रद्धानसमानत्वात् श्रद्धानमपि नोत्प्लवते, तदा समस्तभावान्तरविवेकेन निःशंक मवस्थातुमशक्यत्वादात्मानुचरणमनुत्प्लवमानं नात्मानं साधयतीति साध्यसिद्धेरन्यथानुपपत्तिः ।
अपतितमिदमात्मज्योतिरुद्गच्छदच्छम् ।
न खलु न खलु यस्मादन्यथा साध्यसिद्धिः ।।२०।।
अज्ञातका श्रद्धान गधेके सींगके श्रद्धान समान है इसलिए, श्रद्धान भी उदित नहीं होता तब
समस्त अन्यभावोंके भेदसे आत्मामें निःशंक स्थिर होनेकी असमर्थताके कारण आत्माका आचरण
उदित न होनेसे आत्माको नहीं साध सकता । इसप्रकार साध्य आत्माकी सिद्धिकी अन्यथा
भावार्थ : — साध्य आत्माकी सिद्धि दर्शन-ज्ञान-चारित्रसे ही है, अन्य प्रकारसे नहीं । क्योंकि : — पहले तो आत्माको जाने कि यह जो जाननेवाला अनुभवमें आता है सो मैं हूँ । इसके बाद उसकी प्रतीतिरूप श्रद्धान होता है; क्योंकि जाने बिना किसका श्रद्धान करेगा ? तत्पश्चात् समस्त अन्यभावोंसे भेद करके अपनेमें स्थिर हो । — इसप्रकार सिद्धि होती है । किन्तु यदि जाने ही नहीं, तो श्रद्धान भी नहीं हो सकता; और ऐसी स्थितिमें स्थिरता कहाँ करेगा ? इसलिये यह निश्चय है कि अन्य प्रकारसे सिद्धि नहीं होती ।।१७-१८।।
श्लोकार्थ : — आचार्य कहते हैं कि — [अनन्तचैतन्यचिह्नं ] अनन्त (अविनश्वर) चैतन्य जिसका चिह्न है ऐसी [इदम् आत्मज्योतिः ] इस आत्मज्योतिका [सततम् अनुभवामः ] हम निरन्तर अनुभव करते हैं, [यस्मात् ] क्योंकि [अन्यथा साध्यसिद्धिः न खलु न खलु ] उसके अनुभवके बिना अन्य प्रकारसे साध्य आत्माकी सिद्धि नहीं होती । वह आत्मज्योति ऐसी है कि [कथम् अपि समुपात्तत्रित्वम् अपि एकतायाः अपतितम् ] जिसने किसी प्रकारसे त्रित्व अङ्गीकार
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ननु ज्ञानतादात्म्यादात्मा ज्ञानं नित्यमुपास्त एव, कुतस्तदुपास्यत्वेनानुशास्यत इति चेत्, तन्न, यतो न खल्वात्मा ज्ञानतादात्म्येऽपि क्षणमपि ज्ञानमुपास्ते, स्वयम्बुद्धबोधितबुद्धत्वकारण- पूर्वकत्वेन ज्ञानस्योत्पत्तेः । तर्हि तत्कारणात्पूर्वमज्ञान एवात्मा नित्यमेवाप्रतिबुद्धत्वात् ? एवमेतत् ।
किया है तथापि जो एकत्वसे च्युत नहीं हुई और [अच्छम् उद्गच्छत् ] जो निर्मलतासे उदयको प्राप्त हो रही है ।
भावार्थ : — आचार्य कहते हैं कि जिसे किसी प्रकार पर्यायदृष्टिसे त्रित्व प्राप्त है तथापि शुद्धद्रव्यदृष्टिसे जो एकत्वसे रहित नहीं हुई तथा जो अनन्त चैतन्यस्वरूप निर्मल उदयको प्राप्त हो रही है ऐसी आत्मज्योतिका हम निरन्तर अनुभव करते हैं । यह कहनेका आशय यह भी जानना चाहिए कि जो सम्यग्दृष्टि पुरुष हैं वे, जैसा हम अनुभव करते हैं वैसा अनुभव करें ।२०।
टीका : — अब, कोई तर्क करे कि आत्मा तो ज्ञानके साथ तादात्म्यस्वरूप है, अलग नहीं है, इसलिये वह ज्ञानका नित्य सेवन करता ही है; तब फि र उसे ज्ञानकी उपासना करनेकी शिक्षा क्यों दी जाती है ? उसका समाधान यह है : — ऐसा नहीं है । यद्यपि आत्मा ज्ञानके साथ तादात्म्यस्वरूप है तथापि वह एक क्षणमात्र भी ज्ञानका सेवन नहीं करता; क्योंकि स्वयंबुद्धत्व (स्वयं स्वतः जानना) अथवा बोधितबुद्धत्व (दूसरेके बतानेसे जानना) — इन कारणपूर्वक ज्ञानकी उत्पत्ति होती है । (या तो काललब्धि आये तब स्वयं ही जान ले अथवा कोई उपदेश देनेवाला मिले तब जाने — जैसे सोया हुआ पुरुष या तो स्वयं ही जाग जाये अथवा कोई जगाये तब जागे ।) यहां पुनः प्रश्न होता है कि यदि ऐसा है तो जाननेके कारणसे पूर्व क्या आत्मा अज्ञानी ही है, क्योंकि उसे सदैव अप्रतिबुद्धत्व है ? उसका उत्तर : — ऐसा ही है, वह अज्ञानी ही है ।
अब यहां पुनः पूछते हैं कि — यह आत्मा कितने समय तक (कहाँ तक) अप्रतिबुद्ध रहता है वह कहो । उसके उत्तररूप गाथासूत्र कहते हैं : —
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यथा स्पर्शरसगन्धवर्णादिभावेषु पृथुबुध्नोदराद्याकारपरिणतपुद्गलस्कन्धेषु घटोऽयमिति, घटे च स्पर्शरसगन्धवर्णादिभावाः पृथुबुध्नोदराद्याकारपरिणतपुद्गलस्कन्धाश्चामी इति वस्त्वभेदेनानु- भूतिस्तथा कर्मणि मोहादिष्वन्तरंगेषु नोकर्मणि शरीरादिषु बहिरङ्गेषु चात्मतिरस्कारिषु पुद्गल- परिणामेष्वहमित्यात्मनि च कर्म मोहादयोऽन्तरंगा नोकर्म शरीरादयो बहिरङ्गाश्चात्मतिरस्कारिणः पुद्गलपरिणामा अमी इति वस्त्वभेदेन यावन्तं कालमनुभूतिस्तावन्तं कालमात्मा भवत्यप्रतिबुद्धः । यदा कदाचिद्यथा रूपिणो दर्पणस्य स्वपराकारावभासिनी स्वच्छतैव वह्नेरौष्ण्यं ज्वाला च तथा नीरूपस्यात्मनः स्वपराकारावभासिनी ज्ञातृतैव पुद्गलानां कर्म नोकर्म चेति स्वतः परतो वा भेदविज्ञानमूलानुभूतिरुत्पत्स्यते तदैव प्रतिबुद्धो भविष्यति ।
गाथार्थ : — [यावत् ] जब तक इस आत्माकी [कर्मणि ] ज्ञानावरणादि द्रव्यकर्म, भावकर्म [च ] और [नोकर्मणि ] शरीरादि नोकर्ममें [अहं ] ‘यह मैं हूँ’ [च ] और [अहकं कर्म नोकर्म इति ] मुझमें (-आत्मामें) ‘यह कर्म-नोकर्म हैं’ — [एषा खलु बुद्धिः ] ऐसी बुद्धि है, [तावत् ] तब तक [अप्रतिबुद्धः ] यह आत्मा अप्रतिबुद्ध [भवति ] है ।
टीका : — जैसे स्पर्श, रस, गंध, वर्ण आदि भावोंमें तथा चौड़ा तल, बड़ा उदर आदिके आकार परिणत हुये पुद्गलके स्कन्धोंमें ‘यह घट है’ इसप्रकार, और घड़ेमें ‘यह स्पर्श, रस, गंध, वर्ण आदि भाव तथा चौड़ा तल, बड़ा उदर आदिके आकाररूप परिणत पुद्गल-स्कंध हैं ’ इसप्रकार वस्तुके अभेदसे अनुभूति होती है, इसीप्रकार कर्म – मोह आदि अन्तरङ्ग (परिणाम) तथा नोकर्म — शरीरादि बाह्य वस्तुयें — कि जो (सब) पुद्गलके परिणाम हैं और आत्माका तिरस्कार करनेवाले हैं — उनमें ‘यह मैं हूँ’ इसप्रकार और आत्मामें ‘यह कर्म — मोह आदि अन्तरङ्ग तथा नोकर्म — शरीरादि बहिरङ्ग, आत्म-तिरस्कारी (आत्माका तिरस्कार करनेवाले) पुद्गल-परिणाम हैं’ इसप्रकार वस्तुके अभेदसे जब तक अनुभूति है तब तक आत्मा अप्रतिबुद्ध है; और जब कभी, जैसे रूपी दर्पणकी स्व-परके आकारका प्रतिभास करनेवाली स्वच्छता ही है और उष्णता तथा ज्वाला अग्निकी है इसीप्रकार अरूपी आत्माकी तो अपनेको और परको जाननेवाली ज्ञातृता ही है और कर्म तथा नोकर्म पुद्गलके हैं, इसप्रकार स्वतः अथवा परोपदेशसे जिसका मूल भेदविज्ञान है ऐसी अनुभूति उत्पन्न होगी तब ही (आत्मा) प्रतिबुद्ध होगा
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मचलितमनुभूतिं ये स्वतो वान्यतो वा ।
र्मुकुरवदविकाराः सन्ततं स्युस्त एव ।।२१।।
भावार्थ : — जैसे स्पर्शादिमें पुदगलका और पुद्गलमें स्पर्शादिका अनुभव होता है अर्थात् दोनों एकरूप अनुभवमें आते हैं, उसीप्रकार जब तक आत्माको, कर्म-नोकर्ममें आत्माकी और आत्मामें कर्म-नोकर्मकी भ्रान्ति होती है अर्थात् दोनों एकरूप भासित होते हैं, तब तक तो वह अप्रतिबुद्ध है : और जब वह यह जानता है कि आत्मा तो ज्ञाता ही है और कर्म-नोकर्म पुद्गलके ही हैं तभी वह प्रतिबुद्ध होता है । जैसे दर्पणमें अग्निकी ज्वाला दिखाई देती है वहां यह ज्ञात होता है कि ‘‘ज्वाला तो अग्निमें ही है, वह दर्पणमें प्रविष्ट नहीं है, और जो दर्पणमें दिखाई दे रही है वह दर्पणकी स्वच्छता ही है’’; इसीप्रकार ‘‘कर्म-नोकर्म अपने आत्मामें प्रविष्ट नहीं हैं; आत्माकी ज्ञान-स्वच्छता ऐसी ही है कि जिसमें ज्ञेयका प्रतिबिम्ब दिखाई दे; इसीप्रकार कर्म-नोकर्म ज्ञेय हैं, इसलिये वे प्रतिभासित होते हैं’’ — ऐसा भेदज्ञानरूप अनुभव आत्माको या तो स्वयमेव हो अथवा उपदेशसे हो तभी वह प्रतिबुद्ध होता है ।।१९।।
श्लोकार्थ : — [ये ] जो पुरुष [स्वतः वा अन्यतः वा ] अपनेसे ही अथवा परके उपदेशसे [कथम् अपि हि ] किसी भी प्रकारसे [भेदविज्ञानमूलाम् ] भेदविज्ञान जिसका मूल उत्पत्तिकारण है ऐसी अपने आत्माकी [अचलितम् ] अविचल [अनुभूतिम् ] अनुभूतिको [लभन्ते ] प्राप्त करते हैं, [ते एव ] वे ही पुरुष [मुकुरवत् ] दर्पणकी भांति [प्रतिफलन- निमग्न-अनन्त-भाव-स्वभावैः ] अपनेमें प्रतिबिम्बित हुए अनन्त भावोंके स्वभावोंसे [सन्ततं ] निरन्तर [अविकाराः ] विकाररहित [स्युः ] होते हैं, — ज्ञानमें जो ज्ञेयोंके आकार प्रतिभासित होते हैं उनसे रागादि विकारको प्राप्त नहीं होते ।२१।
अब शिष्य प्रश्न करता है कि अप्रतिबुद्धको कैसे पहिचाना जा सकता है उसका चिह्न बताइये; उसके उत्तररूप गाथा कहते हैं : —
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गाथार्थ : — [अन्यत् यत् परद्रव्यं ] जो पुरुष अपनेसे अन्य जो परद्रव्य — [सचित्ताचित्तमिश्रं वा ] सचित्त स्त्रीपुत्रादिक, अचित्त धनधान्यादिक अथवा मिश्र ग्रामनगरादिक हैं — उन्हें यह समझता है कि [अहं एतत् ] मैं यह हूँ, [एतत् अहम् ] यह द्रव्य मुझ-स्वरूप है, [अहम् एतस्य अस्मि ] मैं इसका हूँ, [एतत् मम अस्ति ] यह मेरा है, [एतत् मम पूर्वम् आसीत् ] यह मेरा पहले था, [एतस्य अहम् अपि पूर्वम् आसम् ] इसका मैं भी पहले था, [एतत् मम पुनः भविष्यति] यह मेरा भविष्यमें होगा, [अहम् अपि एतस्य भविष्यामि ] मैं भी इसका भविष्यमें
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यथाग्निरिन्धनमस्तीन्धनमग्निरस्त्यग्नेरिन्धनमस्तीन्धनस्याग्निरस्ति, अग्नेरिन्धनं पूर्वमासीदि- न्धनस्याग्निः पूर्वमासीत्, अग्नेरिन्धनं पुनर्भविष्यतीन्धनस्याग्निः पुनर्भविष्यतीतीन्धन एवा- सद्भूताग्निविकल्पत्वेनाप्रतिबुद्धः कश्चिल्लक्ष्येत, तथाहमेतदस्म्येतदहमस्ति ममैतदस्त्येतस्याहमस्मि, ममैतत्पूर्वमासीदेतस्याहं पूर्वमासं, ममैतत्पुनर्भविष्यत्येतस्याहं पुनर्भविष्यामीति परद्रव्य एवासद्भूतात्मविकल्पत्वेनाप्रतिबुद्धो लक्ष्येतात्मा । नाग्निरिंधनमस्ति नेन्धनमग्निरस्त्यग्नि- रग्निरस्तीन्धनमिन्धनमस्ति नाग्नेरिन्धनमस्ति नेन्धनस्याग्निरस्त्यग्नेरग्निरस्तीन्धनस्येन्धनमस्ति, नाग्नेरिन्धनं पूर्वमासीन्नेन्धनस्याग्निः पूर्वमासीदग्नेरग्निः पूर्वमासीदिन्धनस्येन्धनं पूर्वमासीत्, नाग्नेरिन्धनं पुनर्भविष्यति नेन्धनस्याग्निः पुनर्भविष्यत्यग्नेरग्निः पुनर्भविष्यतीन्धनस्येन्धनं पुनर्भविष्यतीति कस्यचिदग्नावेव सद्भूताग्निविकल्पवन्नाहमेतदस्मि नैतदहमस्त्य- हमहमस्म्येतदेतदस्ति, न ममैतदस्ति नैतस्याहमस्मि ममाहमस्म्येतस्यैतदस्ति, न होऊँगा, — [एतत् तु असद्भूतम् ] ऐसा झूठा [आत्मविकल्पं ] आत्मविकल्प [करोति ] करता है वह [सम्मूढः ] मूढ है, मोही है, अज्ञानी है; [तु ] और जो पुरुष [भूतार्थं ] परमार्थ वस्तुस्वरूपको [जानन् ] जानता हुआ [तम् ] वैसा झूठा विकल्प [न करोति ] नहीं करता वह [असम्मूढः ] मूढ नहीं, ज्ञानी है ।
टीका : — (दृष्टान्तसे समझाते हैंः) जैसे कोई पुरुष ईंधन और अग्निको मिला हुआ देखकर ऐसा झूठा विकल्प करे कि ‘‘अग्नि है सो ईंधन है और ईंधन है सो अग्नि है; अग्निका ईंधन है, ईंधनकी अग्नि है; अग्निका ईंधन पहले था, ईंधनकी अग्नि पहले थी; अग्निका ईंधन भविष्यमें होगा, ईंधनकी अग्नि भविष्यमें होगी;’’ — ऐसा ईंधनमें ही अग्निका विकल्प करता है वह झूठा है, उससे अप्रतिबुद्ध (अज्ञानी) कोई पहिचाना जाता है, इसीप्रकार कोई आत्मा परद्रव्यमें ही असत्यार्थ आत्मविकल्प (आत्माका विकल्प) करे कि ‘‘मैं यह परद्रव्य हूँ, यह परद्रव्य मुझस्वरूप है; यह मेरा परद्रव्य है, इस परद्रव्यका मैं हूँ; मेरा यह पहले था, मैं इसका पहले था; मेरा यह भविष्यमें होगा; मैं इसका भविष्यमें होऊँगा’’; — ऐसे झूठे विकल्पोंसे अप्रतिबुद्ध (अज्ञानी) पहिचाना जाता है ।
और, ‘‘अग्नि है वह ईन्धन नहीं है, ईंधन है वह अग्नि नहीं है, — अग्नि है वह अग्नि ही है, ईंधन है वह ईंधन ही है; अग्निका ईंधन नहीं, ईंधनकी अग्नि नहीं, — अग्निकी ही अग्नि है, ईंधनका ईंधन है; अग्निका ईंधन पहले नहीं था, ईंधनकी अग्नि पहले नहीं थी, — अग्निकी अग्नि पहले थी ईंधनका ईंधन पहले था; अग्निका ईंधन भविष्यमें नहीं होगा, ईंधनकी अग्नि भविष्यमें नहीं होगी, — अग्निकी अग्नि ही भविष्यमें होगी, ईंधनका ईंधन ही भविष्यमें होगा’’;
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ममैतत्पूर्वमासीन्नैतस्याहं पूर्वमासं ममाहं पूर्वमासमेतस्यैतत्पूर्वमासीत्, न ममैतत्पुनर्भविष्यति नैतस्याहं पुनर्भविष्यामि ममाहं पुनर्भविष्याम्येतस्यैतत्पुनर्भविष्यतीति स्वद्रव्य एव सद्भूतात्मविकल्पस्य प्रतिबुद्धलक्षणस्य भावात् ।
रसयतु रसिकानां रोचनं ज्ञानमुद्यत् ।
किल कलयति काले क्वापि तादात्म्यवृत्तिम् ।।२२।।
होऊँगा, — मैं अपना ही भविष्यमें होऊँगा, इस (परद्रव्य)का यह (परद्रव्य) भविष्यमें होगा’’ ।
भावार्थ : — जो परद्रव्यमें आत्माका विकल्प करता है वह तो अज्ञानी है और जो अपने आत्माको ही अपना मानता है वह ज्ञानी है — यह अग्नि-ईंधनके दृष्टान्तसे दृढ़ किया है ।।२०से२२।।
श्लोकार्थ : — [जगत् ] जगत् अर्थात् जगत्के जीवो ! [आजन्मलीढं मोहम् ] अनादि संसारसे लेकर आज तक अनुभव किये गये मोहको [इदानीं त्यजतु ] अब तो छोड़ो और [रसिकानां रोचनं ] रसिक जनोंको रुचिकर, [उद्यत् ज्ञानम् ] उदय हुआ जो ज्ञान उसका [रसयतु ] आस्वादन करो; क्योंकि [इह ] इस लोकमें [आत्मा ] आत्मा [किल ] वास्तवमें [कथम् अपि ] किसीप्रकार भी [अनात्मना साकम् ] अनात्मा(परद्रव्य)के साथ [क्व अपि काले ] कदापि [तादात्म्यवृत्तिम् कलयति न ] तादात्म्यवृत्ति (एकत्व)को प्राप्त नहीं होता, क्योंकि [एकः ] आत्मा एक है वह अन्य द्रव्यके साथ एकतारूप नहीं होता
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आस्वादन करो; मोह वृथा है, झूठा है, दुःखका कारण है ।२२।
‘ये बद्ध और अबद्ध पुद्गलद्रव्य मेरा’ वो कहै ।।२३।।
वो कैसे पुद्गल हो सके जो, तू कहे मेरा अरे ! ।।२४।।
तू तब हि ऐसा कह सके, ‘है मेरा’ पुद्गलद्रव्यको ।।२५।।
गाथार्थ : — [अज्ञानमोहितमति: ] जिसकी मति अज्ञानसे मोहित है और [बहुभावसंयुक्त: ] जो मोह, राग, द्वेष आदि अनेक भावोंसे युक्त है ऐसा [जीव: ] जीव
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युगपदनेकविधस्य बन्धनोपाधेः सन्निधानेन प्रधावितानामस्वभावभावानां संयोगवशाद्विचित्रो- पाश्रयोपरक्तः स्फ टिकोपल इवात्यन्ततिरोहितस्वभावभावतया अस्तमितसमस्तविवेकज्योतिर्महता स्वयमज्ञानेन विमोहितहृदयो भेदमकृ त्वा तानेवास्वभावभावान् स्वीकुर्वाणः पुद्गलद्रव्यं ममेदमित्यनुभवति किलाप्रतिबुद्धो जीवः । अथायमेव प्रतिबोध्यते — रे दुरात्मन्, आत्मपंसन्, जहीहि जहीहि परमाविवेकघस्मरसतृणाभ्यवहारित्वम् । दूरनिरस्तसमस्तसन्देहविपर्यासानध्यवसायेन [भणति ] कहता है कि [इदं ] यह [बद्धम् तथा च अबद्धं ] शरीरादिक बद्ध तथा धनधान्यादिक अबद्ध [पुद्गलं द्रव्यम् ] पुद्गलद्रड्डव्य [मम ] मेरा है । आचार्य कहते हैं कि — [सर्वज्ञज्ञानदृष्ट: ] सर्वज्ञके ज्ञान द्वारा देखा गया जो [नित्यम् ] सदा [उपयोगलक्षण: ] उपयोगलक्षणवाला [जीवः ] जीव है [स: ] वह [पुद्गलद्रव्यीभूतः ] पुद्गलद्रड्डव्यरूप [कथं ] कैसे हो सकता है [यत् ] जिससे कि [भणसि ] तू कहता है कि [इदं मम ] यह पुद्गलद्रड्डव्य मेरा है ? [यदि ] यदिे [स: ] जीवद्रव्य [पुद्गलद्रव्यीभूत: ] पुद्गलद्रड्डव्यरूप हो जाय और [इतरत् ] पुद्गलद्रड्डव्य [जीवत्वम् ] जीवत्वको [आगतम् ] प्राप्त करे [तत् ] तो [वक्तुं शक्त: ] तू कह सकता है [यत् ] कि [इदं पुद्गलं द्रव्यम् ] यह पुद्गलद्रड्डव्य [मम ] मेरा है । (किन्तु ऐसा तो नहीं होता ।)
टीका : — एक ही साथ अनेक प्रकारकी बन्धनकी उपाधिकी अति निकटतासे वेगपूर्वक बहते हुये अस्वभावभावोंके संयोगवश जो (अप्रतिबुद्ध – अज्ञानी जीव) अनेक प्रकारके वर्णवाले १आश्रयकी निकटतासे रंगे हुए स्फ टिक पाषाण जैसा है, अत्यन्त तिरोभूत (ढँके हुये) अपने स्वभावभावत्वसे जो जिसकी समस्त भेदज्ञानरूप ज्योति अस्त हो गई है ऐसा है, और महा अज्ञानसे जिसका हृदय स्वयं स्वतः ही विमोहित है-ऐसा अप्रतिबुद्ध (-अज्ञानी) जीव स्व-परका भेद न करके, उन अस्वभावभावोंको ही (जो अपने स्वभाव नहीं हैं ऐसे विभावोंको ही) अपना करता हुआ, पुद्गलद्रव्यको ‘यह मेरा है’ इसप्रकार अनुभव करता है । (जैसे स्फ टिकपाषाणमें अनेक प्रकारके वर्णोंकी निकटतासे अनेकवर्णरूपता दिखाई देती है, स्फ टिकका निज श्वेत-निर्मलभाव दिखाई नहीं देता, इसीप्रकार अप्रतिबुद्धको कर्मकी उपाधिसे आत्माका शुद्ध स्वभाव आच्छादित हो रहा है — दिखाई नहीं देता, इसलिए पुद्गलद्रव्यको अपना मानता है त्) ऐसे अप्रतिबुद्धको अब समझाया जा रहा है कि : — रे दुरात्मन् ! आत्मघात करनेवाले ! जैसे परम अविवेकपूर्वक खानेवाले १आश्रय = जिसमें स्फ टिकमणि रखा हुआ हो वह वस्तु ।
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विश्वैकज्योतिषा सर्वज्ञज्ञानेन स्फु टीकृतं किल नित्योपयोगलक्षणं जीवद्रव्यं तत्कथं पुद्गलद्रव्यीभूतं येन पुद्गलद्रव्यं ममेदमित्यनुभवसि, यतो यदि कथंचनापि जीवद्रव्यं पुद्गलद्रव्यीभूतं स्यात् पुद्गलद्रव्यं च जीवद्रव्यीभूतं स्यात् तदैव लवणस्योदकमिव ममेदं पुद्गलद्रव्यमित्यनुभूतिः किल घटेत, तत्तु न कथंचनापि स्यात् । तथा हि — यथा क्षारत्वलक्षणं लवणमुदकीभवत् द्रवत्वलक्षणमुदकं च लवणीभवत् क्षारत्वद्रवत्वसहवृत्त्यविरोधादनुभूयते, न तथा नित्योपयोगलक्षणं जीवद्रव्यं पुद्गलद्रव्यीभवत् नित्यानुपयोगलक्षणं पुद्गलद्रव्यं च जीवद्रव्यीभवत् उपयोगानुपयोगयोः प्रकाशतमसोरिव सहवृत्तिविरोधादनुभूयते । तत्सर्वथा प्रसीद, विबुध्यस्व, स्वद्रव्यं ममेदमित्यनुभव । हाथी आदि पशु सुन्दर आहारको तृण सहित खा जाते हैं उसीप्रकार खानेके स्वभावको तू छोड़, छोड़ । जिसने समस्त संदेह, विपर्यय, अनध्यवसाय दूर कर दिये हैं और जो विश्वको (समस्त वस्तुओंको) प्रकाशित करनेके लिए एक अद्वितीय ज्योति है ऐसे सर्वज्ञज्ञानसे स्फु ट (प्रगट) किया गया जो नित्य उपयोगस्वभावरूप जीवद्रव्य वह पुद्गलद्रव्यरूप कैसे हो गया कि जिससे तू यह अनुभव करता है कि ‘यह पुद्गलद्रव्य मेरा है’ ? क्योंकि यदि किसी भी प्रकारसे जीवद्रव्य पुद्गलद्रव्यरूप हो और पुद्गलद्रव्य जीवद्रव्यरूप हो तभी ‘नमकका पानी’ इसप्रकारके अनुभवकी भांति ऐसी अनुभूति वास्तवमें ठीक हो सकती है कि ‘यह पुद्गलद्रव्य मेरा है’; किन्तु ऐसा तो किसी भी प्रकारसे नहीं बनता
दृष्टान्त देकर इसी बातको स्पष्ट करते हैं : — जैसे खारापन जिसका लक्षण है ऐसा नमक पानीरूप होता हुआ दिखाई देता है और द्रवत्व (प्रवाहीपन) जिसका लक्षण है ऐसा पानी नमकरूप होता दिखाई देता है, क्योंकि खारेपन और द्रवत्वका एक साथ रहनेमें अविरोध है, अर्थात् उसमें कोई बाधा नहीं आती, इसप्रकार नित्य उपयोगलक्षणवाला जीवद्रव्य पुद्गलद्रव्य होता हुआ दिखाई नहीं देता और नित्य अनुपयोग (जड़) लक्षणवाला पुद्गलद्रव्य जीवद्रव्य होता हुआ देखनेमें नहीं आता, क्योंकि प्रकाश और अन्धकारकी भाँति उपयोग और अनुपयोगका एक ही साथ रहनेमें विरोध है; जड़ और चेतन कभी भी एक नहीं हो सकते । इसलिये तू सर्व प्रकारसे प्रसन्न हो, (अपने चित्तको उज्जवल करके) सावधान हो और स्वद्रव्यको ही ‘यह मेरा है’ इसप्रकार अनुभव कर । (इसप्रकार श्री गुरुओंका उपदेश है ।)
भावार्थ : — यह अज्ञानी जीव पुद्गलद्रव्यको अपना मानता है; उसे उपदेश देकर सावधान किया है कि जड़ और चेतनद्रव्य — दोनों सर्वथा भिन्न-भिन्न हैं, कभी भी किसी भी प्रकारसे एकरूप नहीं होते ऐसा सर्वज्ञ भगवानने देखा है; इसलिये हे अज्ञानी ! तू परद्रव्यको एकरूप मानना छोड़ दे; व्यर्थकी मान्यतासे बस कर ।।२३-२४-२५।।
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त्यजसि झगिति मूर्त्या साकमेकत्वमोहम् ।।२३।।
श्लोकार्थ : — [अयि ] ‘अयि’ यह कोमल सम्बोधनका सूचक अव्यय है । आचार्यदेव कोमल सम्बोधनसे कहते हैं कि हे भाई ! तू [कथम् अपि ] किसीप्रकार महा कष्टसे अथवा [मृत्वा ] मरकर भी [तत्त्वकौतूहली सन् ] तत्त्वोंका कौतूहली होकर [मूर्तेः मुहूर्तम् पार्श्ववर्ती भव ] इस शरीरादि मूर्त द्रव्यका एक मुहूर्त (दो घड़ी) पड़ौसी होकर [अनुभव ] आत्माका अनुभव कर [अथ येन ] कि जिससे [स्वं विलसन्तं ] अपने आत्माको विलासरूप, [पृथक् ] सर्व परद्रव्योंसे भिन्न [समालोक्य ] देखकर [मूर्त्या साकम् ] इस शरीरादि मूर्तिक पुद्गलद्रव्यके साथ [एकत्वमोहम् ] एकत्वके मोहको [झगिति त्यजसि ] तू शीघ्र ही छोड़ देगा
भावार्थ : — यदि यह आत्मा दो घड़ी पुद्गलद्रव्यसे भिन्न अपने शुद्ध स्वरूपका अनुभव करे (उसमें लीन हो), परीषहके आने पर भी डिगे नहीं, तो घातियाकर्मका नाश करके, केवलज्ञान उत्पन्न करके, मोक्षको प्राप्त हो । आत्मानुभवकी ऐसी महिमा है तब मिथ्यात्वका नाश करके सम्यग्दर्शनकी प्राप्ति होना तो सुगम है; इसलिये श्री गुरुओंने प्रधानतासे यही उपदेश दिया है ।२३।
मिथ्या बने स्तवना सभी, सो एकता जीवदेहकी ! ।।२६।।
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धामोद्दाममहस्विनां जनमनो मुष्णन्ति रूपेण ये ।
वन्द्यास्तेऽष्टसहस्रलक्षणधरास्तीर्थेश्वराः सूरयः ।।२४।।
— इत्यादिका तीर्थकराचार्यस्तुतिः समस्तापि मिथ्या स्यात् । ततो य एवात्मा तदेव शरीरं पुद्गलद्रव्यमिति ममैकान्तिकी प्रतिपत्तिः ।
गाथार्थ : — अप्रतिबुद्ध जीव कहता है कि — [यदि ] यदि [जीवः ] जीव [शरीरं न ] शरीर नहीं है तो [तीर्थकराचार्यसंस्तुतिः ] तीर्थंकर-आचार्योंकी जो स्तुति की गई है वह [सर्वा अपि ] सभी [मिथ्या भवति ] मिथ्या (झूठी) होती है; [तेन तु ] इसलिये हम समझते हैं कि [आत्मा ] जो आत्मा है वह [देहः च एव ] देह ही [भवति ] है ।
टीका : — जो आत्मा है वही पुद्गलद्रव्यस्वरूप यह शरीर है । यदि ऐसा न हो तो तीर्थंकर-आचार्योंकी जो स्तुति की गई है वह सब मिथ्या सिद्ध होगी । वह स्तुति इसप्रकार है : —
श्लोकार्थ : — [ते तीर्थेश्वराः सूरयः वन्द्याः ] वे तीर्थंकर-आचार्य वन्दनीय हैं । कैसे हैं वे ? [ये कान्त्या एव दशदिशः स्नपयन्ति ] अपने शरीरकी कान्तिसे दसों दिशाओंको धोते हैं — निर्मल करते हैं, [ये धाम्ना उद्दाम-महस्विनां धाम निरुन्धन्ति ] अपने तेजसे उत्कृष्ट तेजवाले सूर्यादिके तेजको ढक देते हैं, [ये रूपेण जनमनः मुष्णन्ति ] अपने रूपसे लोगोंके मनको हर लेते हैं, [दिव्येन ध्वनिना श्रवणयोः साक्षात् सुखं अमृतं क्षरन्तः ] दिव्यध्वनिसे (भव्योंके) कानोंमें साक्षात् सुखामृत बरसाते हैं और वे [अष्टसहस्रलक्षणधराः ] एक हजार आठ लक्षणोंके धारक हैं ।२४।
— इत्यादिरूपसे तीर्थंकर-आचार्योंकी जो स्तुति है वह सब ही मिथ्या सिद्ध होती है । इसलिये हमारा तो यही एकान्त निश्चय है कि जो आत्मा है वही शरीर है, पुद्गलद्रव्य है । इसप्रकार अप्रतिबुद्धने कहा ।।२६।।
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इह खलु परस्परावगाढावस्थायामात्मशरीरयोः समावर्तितावस्थायां कनककलधौतयोरेक- स्कन्धव्यवहारवद्वयवहारमात्रेणैवैकत्वं, न पुनर्निश्चयतः, निश्चयतो ह्यात्मशरीरयोरुपयोगानुपयोग- स्वभावयोः कनककलधौतयोः पीतपाण्डुरत्वादिस्वभावयोरिवात्यन्तव्यतिरिक्तत्वेनैकार्थत्वानुपपत्तेः नानात्वमेवेति । एवं हि किल नयविभागः । ततो व्यवहारनयेनैव शरीरस्तवनेनात्मस्तवनमुपपन्नम् ।
आचार्यदेव कहते हैं कि ऐसा नहीं है; तू नयविभागको नहीं जानता । वह नयविभाग इसप्रकार है ऐसा गाथा द्वारा कहते हैं : —
गाथार्थ : — [व्यवहारनयः ] व्यवहारनय तो [भाषते ] यह कहता है कि [जीवः देहः च ] जीव और शरीर [एकः खलु ] एक ही [भवति ] है; [तु ] किन्तु [निश्चयस्य ] निश्चयनयके अभिप्रायसे [जीवः देहः च ] जीव और शरीर [कदा अपि ] कभी भी [एकार्थः ] एक पदार्थ [न ] नहीं हैं ।
टीका : — जैसे इस लोकमें सोने और चांदीको गलाकर एक कर देनेसे एकपिण्डका व्यवहार होता है उसीप्रकार आत्मा और शरीरकी परस्पर एक क्षेत्रमें रहनेकी अवस्था होनेसे एकपनेका व्यवहार होता है । यों व्यवहारमात्रसे ही आत्मा और शरीरका एकपना है, परन्तु निश्चयसे एकपना नहीं है; क्योंकि निश्चयसे देखा जाये तो, जैसे पीलापन आदि और सफे दी आदि जिनका स्वभाव है ऐसे सोने और चांदीमें अत्यन्त भिन्नता होनेसे उनमें एकपदार्थपनेकी असिद्धि है, इसलिए अनेकत्व ही है, इसीप्रकार उपयोग और अनुपयोग जिनका स्वभाव है ऐसे आत्मा और शरीरमें अत्यन्त भिन्नता होनेसे उनमें एकपदार्थपनेकी असिद्धि है, इसलिये अनेकत्व ही है । ऐसा यह प्रगट नयविभाग है ।
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यथा कलधौतगुणस्य पाण्डुरत्वस्य व्यपदेशेन परमार्थतोऽतत्स्वभावस्यापि कार्तस्वरस्य व्यवहारमात्रेणैव पाण्डुरं कार्तस्वरमित्यस्ति व्यपदेशः, तथा शरीरगुणस्य शुक्ललोहितत्वादेः स्तवनेन परमार्थतोऽतत्स्वभावस्यापि तीर्थकरकेवलिपुरुषस्य व्यवहारमात्रेणैव शुक्ललोहितस्तीर्थकरकेवलि-
भावार्थ : — व्यवहारनय तो आत्मा और शरीरको एक कहता है और निश्चयनय भिन्न कहता है । इसलिये व्यवहारनयसे शरीरका स्तवन करनेसे आत्माका स्तवन माना जाता है ।।२७।।
माने मुनी जो केवली वन्दन हुआ, स्तवना हुई ।।२८।।
गाथार्थ : — [जीवात् अन्यत् ] जीवसे भिन्न [इदम् पुद्गलमयं देहं ] इस पुद्गलमय देहकी [स्तुत्वा ] स्तुति करके [मुनिः ] साधु [मन्यते खलु ] ऐसा मानते हैं कि [मया ] मैंने [केवली भगवान् ] केवली भगवानकी [स्तुतः ] स्तुति की और [वन्दितः ] वन्दना की ।
टीका : — जैसे, परमार्थसे सफे दी सोनेका स्वभाव नहीं है, फि र भी चांदीका जो श्वेत गुण है, उसके नामसे सोनेका नाम ‘श्वेत स्वर्ण’ कहा जाता है यह व्यवहारमात्रसे ही कहा जाता है; इसीप्रकार, परमार्थसे शुक्ल-रक्तता तीर्थंकर-केवलीपुरुषका स्वभाव न होने पर भी, शरीरके गुण जो शुक्ल-रक्तता इत्यादि हैं, उनके स्तवनसे तीर्थंकर-केवलीपुरुषका ‘शुक्ल-रक्त तीर्थंकर-केवलीपुरुष’ के रूपमें स्तवन किया जाता है वह व्यवहारमात्रसे ही किया जाता है । किन्तु निश्चयनयसे शरीरका स्तवन करनेसे आत्माका स्तवन नहीं हो सकता ।
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पुरुष इत्यस्ति स्तवनम् । निश्चयनयेन तु शरीरस्तवनेनात्मस्तवनमनुपपन्नमेव ।
यथा कार्तस्वरस्य कलधौतगुणस्य पाण्डुरत्वस्याभावान्न निश्चयतस्तद्वयपदेशेन व्यपदेशः, कार्तस्वरगुणस्य व्यपदेशेनैव कार्तस्वरस्य व्यपदेशात्; तथा तीर्थकरकेवलिपुरुषस्य शरीरगुणस्य
भावार्थ : — यहाँ कोई प्रश्न करे कि — व्यवहारनय तो असत्यार्थ कहा है और शरीर जड़ है तब व्यवहाराश्रित जड़की स्तुतिका क्या फल है ? उसका उत्तर यह है : — व्यवहारनय सर्वथा असत्यार्थ नहीं है, उसे निश्चयको प्रधान करके असत्यार्थ कहा है । और छद्मस्थको अपना, परका आत्मा साक्षात् दिखाई नहीं देता, शरीर दिखाई देता है, उसकी शान्तरूप मुद्राको देखकर अपनेको भी शान्त भाव होते हैं । ऐसा उपकार समझकर शरीरके आश्रयसे भी स्तुति करता है; तथा शान्त मुद्राको देखकर अन्तरङ्गमें वीतराग भावका निश्चय होता है यह भी उपकार है ।।२८।।
जो केवलीगुणको स्तवे परमार्थ केवलि वो स्तवे ।।२९।।
गाथार्थ : — [तत् ] वह स्तवन [निश्चये ] निश्चयमें [न युज्यते ] योग्य नहीं है, [हि ] क्योंकि [शरीरगुणाः ] शरीरके गुण [केवलिनः ] केवलीके [न भवन्ति ] नहीं होते; [यः ] जो [केवलिगुणान् ] केवलीके गुणोंकी [स्तौति ] स्तुति करता है [सः ] वह [तत्त्वं ] परमार्थसे [केवलिनं ] केवलीकी [स्तौति ] स्तुति करता है ।
टीका : — जैसे चांदीका गुण जो सफे दपना, उसका सुवर्णमें अभाव है, इसलिये निश्चयसे सफे दीके नामसे सोनेका नाम नहीं बनता, सुवर्णके गुण जो पीलापन आदि हैं उनके नामसे ही सुवर्णका नाम होता है; इसीप्रकार शरीरके गुण जो शुक्ल-रक्तता इत्यादि हैं उनका तीर्थंकर- केवलीपुरुषमें अभाव है, इसलिये निश्चयसे शरीरके शुक्ल-रक्तता आदि गुणोंका स्तवन करनेसे
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शुकॢलोहितत्वादेरभावान्न निश्चयतस्तत्स्तवनेन स्तवनं, तीर्थकरकेवलिपुरुषगुणस्य स्तवनेनैव तीर्थकरकेवलिपुरुषस्य स्तवनात् ।
तीर्थंकर-केवलीपुरुषका स्तवन नहीं होता है, तीर्थंकर-केवलीपुरुषके गुणोंका स्तवन करनेसे ही तीर्थंकर-केवलीपुरुषका स्तवन होता है ।।२९।।
अब शिष्य प्रश्न करता है कि आत्मा तो शरीरका अधिष्ठाता है, इसलिये शरीरके स्तवनसे आत्माका स्तवन निश्चयसे क्यों युक्त नहीं है ? उसके उत्तररूप दृष्टान्त सहित गाथा कहते हैं : —
त्यों देहगुणके स्तवनसे नहिं केवलीगुण स्तवन हो ।।३०।।
गाथार्थ : — [यथा ] जैसे [नगरे ] नगरका [वर्णिते अपि ] वर्णन करने पर भी [राज्ञः वर्णना ] राजाका वर्णन [न कृता भवति ] नहीं किया जाता, इसीप्रकार [देहगुणे स्तूयमाने ] शरीरके गुणका स्तवन करने पर [केवलिगुणाः ] केवलीके गुणोंका [स्तुताः न भवन्ति ] स्तवन नहीं होता ।
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– इति नगरे वर्णितेऽपि राज्ञः तदधिष्ठातृत्वेऽपि प्राकारोपवनपरिखादिमत्त्वाभावाद्वर्णनं न स्यात् ।
– इति शरीरे स्तूयमानेऽपि तीर्थकरकेवलिपुरुषस्य तदधिष्ठातृत्वेऽपि सुस्थितसर्वांगत्व- लावण्यादिगुणाभावात्स्तवनं न स्यात् ।
अथ निश्चयस्तुतिमाह । तत्र ज्ञेयज्ञायकसंक रदोषपरिहारेण तावत् — -अम्बरम् ] कोटके द्वारा आकाशको ग्रसित कर रखा है (अर्थात् इसका कोट बहुत ऊँचा है), [उपवन-राजी-निर्गीर्ण-भूमितलम् ] बगीचोंकी पंक्तियोंसे जिसने भूमितलको निगल लिया है (अर्थात् चारों ओर बगीचोंसे पृथ्वी ढक गई है) और [परिखावलयेन पातालम् पिबति इव ] कोटके चारों ओरकी खाईके घेरेसे मानों पातालको पी रहा है (अर्थात् खाई बहुत गहरी है) ।२५।
इसप्रकार नगरका वर्णन करने पर भी उससे राजाका वर्णन नहीं होता क्योंकि, यद्यपि राजा उसका अधिष्ठाता है तथापि, वह राजा कोट-बाग-खाई-आदिवाला नहीं है ।
इसीप्रकार शरीरका स्तवन करने पर तीर्थङ्करका स्तवन नहीं होता यह भी श्लोक द्वारा कहते हैं : —
श्लोकार्थ : — [जिनेन्द्ररूपं परं जयति ] जिनेन्द्रका रूप उत्कृष्टतया जयवन्त वर्तता है, [नित्यम्-अविकार-सुस्थित-सर्वांगम् ] जिसमें सभी अंग सदा अविकार और सुस्थित हैं, [अपूर्व -सहज-लावण्यम् ] जिसमें (जन्मसे ही) अपूर्व और स्वाभाविक लावण्य है (जो सर्वप्रिय है) और [समुद्रं इव अक्षोभम् ] जो समुद्रकी भांति क्षोभरहित है, चलाचल नहीं है ।२६।
इसप्रकार शरीरका स्तवन करने पर भी उससे तीर्थंकर-केवलीपुरुषका स्तवन नहीं होता क्योंकि, यद्यपि तीर्थंकर-केवलीपुरुषके शरीरका अधिष्ठातृत्व है तथापि, सुस्थित सर्वांगता, लावण्य आदि आत्माके गुण नहीं हैं, इसलिये तीर्थंकर-केवलीपुरुषके उन गुणोंका अभाव है ।।३०।।
अब, (तीर्थंकर-केवलीकी) निश्चयस्तुति कहते हैं । उसमें पहले ज्ञेय-ज्ञायकके संकरदोषका परिहार करके स्तुति कहते हैं : —