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[पुद्गलद्रव्यं ] पुद्गलद्रव्य [शब्दत्वपरिणतं ] शब्दरूपसे परिणमित हुआ है; [तस्य गुणः ] उसका गुण [यदि अन्यः ] यदि (तुझसे) अन्य है, [तस्मात् ] तो हे अज्ञानी जीव ! [त्वं न किञ्चित् अपि भणितः ] तुझसे कुछ भी नहीं कहा है; [अबुद्धः ] तू अज्ञानी होता हुआ [किं रुष्यसि ] क्यों रोष करता है ?
[अशुभः वा शुभः शब्दः ] अशुभ अथवा शुभ शब्द [त्वां न भणति ] तुझसे यह नहीं कहता कि [माम् शृणु इति ] ‘तू मुझे सुन’; [सः एव च ] और आत्मा भी (अपने स्थानसे च्युत होकर), [श्रोत्रविषयम् आगतं शब्दम् ] श्रोत्र-इन्द्रियके विषयमें आये हुए शब्दको [विनिर्ग्रहीतुं न एति ] ग्रहण करनेको ( – जाननेको) नहीं जाता।
[अशुभं वा शुभं रूपं ] अशुभ अथवा शुभ रूप [त्वां न भणति ] तुझसे यह नहीं कहता कि [माम् पश्य इति ] ‘तू मुझे देख’; [सः एव च ] और आत्मा भी (अपने स्थानसे छूटकर), [चक्षुर्विषयम् आगतं ] चक्षु-इन्द्रियके विषयमें आये हुए [रूपम् ] रूपको [विनिर्ग्रहीतुं न एति ] ग्रहण करनेको नहीं जाता।
[अशुभः वा शुभः गन्धः ] अशुभ अथवा शुभ गन्ध [त्वां न भणति ] तुझसे यह नहीं कहती कि [माम् जिघ्र इति ] ‘तू मुझे सूंघ’; [सः एव च ] और आत्मा भी [घ्राणविषयम् आगतं गंधम् ] ध्राणइन्द्रियके विषयमें आई हुई गंधको [विनिर्ग्रहीतुं न एति ] (अपने स्थानसे च्युत होकर) ग्रहण करने नहीं जाता।
[अशुभः वा शुभः रसः ] अशुभ अथवा शुभ रस [त्वां न भणति ] तुझसे यह नहीं कहता कि [माम् रसय इति ] ‘तू मुझे चख’; [सः एव च ] और आत्मा भी [रसनविषयम् आगतं तु रसम् ] रसना-इन्द्रियके विषयमें आये हुये रसको (अपने स्थानसे च्युत होकर), [विनिर्ग्रहीतुं न एति ] ग्रहण करने नहीं जाता।
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यथेह बहिरर्थो घटपटादिः, देवदत्तो यज्ञदत्तमिव हस्ते गृहीत्वा, ‘मां प्रकाशय’ इति स्वप्रकाशने न प्रदीपं प्रयोजयति, न च प्रदीपोऽप्ययःकान्तोपलकृष्टायःसूचीवत् स्वस्थानात्प्रच्युत्य
[अशुभः वा शुभः स्पर्शः ] अशुभ अथवा शुभ स्पर्श [त्वां न भणति ] तुझसे यह नहीं कहता कि [माम् स्पर्श इति ] ‘तू मुझे स्पर्श कर’; [सः एव च ] और आत्मा भी, [कायविषयम् आगतं स्पर्शम् ] कायके (-स्पर्शेन्द्रियके) विषयमें आये हुए स्पर्शको (अपने स्थानसे च्युत होकर), [विनिर्ग्रहीतुं न एति ] ग्रहण करने नहीं जाता।
[अशुभः वा शुभः गुणः ] अशुभ अथवा शुभ गुण [त्वां न भणति ] तुझसे यह नहीं कहता कि [माम् बुध्यस्व इति ] ‘तू मुझे जान’; [सः एव च ] और आत्मा भी (अपने स्थानसे च्युत होकर), [बुद्धिविषयम् आगतं तु गुणम् ] बुद्धिके विषयमें आये हुए गुणको [विनिर्ग्रहीतुं न एति ] ग्रहण करने नहीं जाता।
[अशुभं वा शुभं द्रव्यं ] अशुभ अथवा शुभ द्रव्य [त्वां न भणति ] तुझसे यह नहीं कहता कि [माम् बुध्यस्व इति ] ‘तू मुझे जान’; [सः एव च ] और आत्मा भी (अपने स्थानसे च्युत होकर), [बुद्धिविषयम् आगतं द्रव्यम् ] बुद्धिके विषयमें आये हुए द्रव्यको [विनिर्ग्रहीतुं न एति ] ग्रहण करने नहीं जाता।
[एतत् तु ज्ञात्वा ] ऐसा जानकर भी [मूढः ] मूढ जीव [उपशमं न एव गच्छति ] उपशमको प्राप्त नहीं होता; [च ] और [शिवाम् बुद्धिं अप्राप्तः च स्वयं ] शिव बुद्धिको (कल्याणकारी बुद्धिको, सम्यग्ज्ञानको) न प्राप्त हुआ स्वयं [परस्य विनिर्ग्रहमनाः ] परको ग्रहण करनेका मन करता है।
टीका : — प्रथम दृष्टान्त कहते हैं : इस जगतमें बाह्यपदार्थ – घटपटादि – , जैसे देवदत्त नामक पुरुष यज्ञदत्त नामक पुरुषको हाथ पकड़कर किसी कार्यमें लगाता है इसीप्रकार,
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तं प्रकाशयितुमायाति; किन्तु वस्तुस्वभावस्य परेणोत्पादयितुमशक्यत्वात् परमुत्पादयितुमशक्तत्वाच्च यथा तदसन्निधाने तथा तत्सन्निधानेऽपि स्वरूपेणैव प्रकाशते । स्वरूपेणैव प्रकाशमानस्य चास्य वस्तुस्वभावादेव विचित्रां परिणतिमासादयन् कमनीयोऽकमनीयो वा घटपटादिर्न मनागपि विक्रियायै कल्प्यते । तथा बहिरर्थाः शब्दो, रूपं, गन्धो, रसः, स्पर्शो, गुणद्रव्ये च, देवदत्तो यज्ञदत्तमिव हस्ते गृहीत्वा, ‘मां शृणु, मां पश्य, मां जिघ्र, मां रसय, मां स्पृश, मां बुध्यस्व’ इति स्वज्ञाने नात्मानं प्रयोजयन्ति, न चात्माप्ययःकान्तोपलकृष्टायःसूचीवत् स्वस्थानात्प्रच्युत्य तान् ज्ञातुमायाति; किन्तु वस्तुस्वभावस्य परेणोत्पादयितुमशक्यत्वात् परमुत्पादयितुमशक्त त्वाच्च यथा तदसन्निधाने तथा तत्सन्निधानेऽपि स्वरूपेणैव जानीते । स्वरूपेणैव जानतश्चास्य वस्तुस्वभावादेव विचित्रां परिणतिमासादयन्तः कमनीया अकमनीया वा शब्दादयो बहिरर्था न मनागपि विक्रियायै दीपकको स्वप्रकाशनमें (अर्थात् बाह्यपदार्थको प्रकाशित करनेके कार्यमें) नहीं लगाता कि ‘तू मुझे प्रकाशित कर’, और दीपक भी लोहचुम्बक – पाषाणसे खींची गई लोहेकी सुईकी भांति अपने स्थानसे च्युत होकर उसे ( – बाह्यपदार्थको) प्रकाशित करने नहीं जाता; परन्तु, वस्तुस्वभाव दूसरेसे उत्पन्न नहीं किया जा सकता, इसलिये तथा वस्तुस्वभाव परको उत्पन्न नहीं कर सकता इसलिये, दीपक जैसे बाह्यपदार्थकी असमीपतामें अपने स्वरूपसे ही प्रकाशता है। उसीप्रकार बाह्यपदार्थकी समीपतामें भी अपने स्वरूपसे ही प्रकाशता है (इसप्रकार) अपने स्वरूपसे ही प्रकाशता है ऐसे दीपकको, वस्तुस्वभावसे ही विचित्र परिणतिको प्राप्त होता हुआ मनोहर या अमनोहर घटपटादि बाह्यपदार्थ किंचित्मात्र भी विक्रिया उत्पन्न नहीं करता।
इसीप्रकार दार्ष्टान्त कहते हैं : बाह्य पदार्थ — शब्द, रूप, गंध, रस, स्पर्श तथा गुण और द्रव्य — , जैसे देवदत्त यज्ञदत्तको हाथ पकड़कर किसी कार्यमें लगाता है उसीप्रकार, आत्माको स्वज्ञानमें (बाह्यपदार्थोंके जाननेके कार्यमें) नहीं लगाते कि ‘तू मुझे सुन, तू मुझे देख, तू मुझे सूंघ, तू मुझे चख, तू मुझे स्पर्श कर, तू मुझे जान,’ और आत्मा भी लोहचुम्बक-पाषाणसे खींची गई लोहेकी सुईकी भाँति अपने स्थानसे च्युत होकर उन्हें ( – बाह्यपदार्थोंको) जाननेको नहीं जाता; परन्तु वस्तुस्वभाव परके द्वारा उत्पन्न नहीं किया जा सकता, इसलिये तथा वस्तुस्वभाव परको उत्पन्न नहीं कर सकता इसलिये, आत्मा जैसे बाह्य पदार्थोंकी असमीपतामें (अपने स्वरूपसे ही जानता है) उसीप्रकार बाह्यपदार्थोंकी समीपतामें भी अपने स्वरूपसे ही जानता है। (इसप्रकार) अपने स्वरूपसे ही जानते हुए उस (आत्मा) को, वस्तुस्वभावसे ही विचित्र परिणतिको प्राप्त मनोहर अथवा अमनोहर शब्दादि बाह्यपदार्थ किंचित्मात्र भी विक्रिया उत्पन्न नहीं करते।
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कल्प्येरन् । एवमात्मा प्रदीपवत् परं प्रति उदासीनो नित्यमेवेति वस्तुस्थितिः, तथापि यद्रागद्वेषौ तदज्ञानम् ।
यायात्कामपि विक्रियां तत इतो दीपः प्रकाश्यादिव ।
रागद्वेषमयीभवन्ति सहजां मुंचन्त्युदासीनताम् ।।२२२।।
इसप्रकार आत्मा दीपककी भांति परके प्रति सदा उदासीन (अर्थात् सम्बन्धरहित; तटस्थ) है — ऐसी वस्तुस्थिति है, तथापि जो राग-द्वेष होता है सो अज्ञान है।
भावार्थ : — शब्दादिक जड़ पुद्गलद्रव्यके गुण हैं। वे आत्मासे कहीं यह नहीं कहते, कि ‘तू हमें ग्रहण कर (अर्थात् तू हमें जान)’; और आत्मा भी अपने स्थानसे च्युत होकर उन्हें ग्रहण करनेके लिये ( – जाननेके लिये) उनकी ओर नहीं जाता। जैसे शब्दादिक समीप न हों तब आत्मा अपने स्वरूपसे ही जानता है, इसप्रकार शब्दादिक समीप हों तब भी आत्मा अपने स्वरूपसे ही जानता है। इसप्रकार अपने स्वरूपसे ही जाननेवाले ऐसे आत्माको अपने अपने स्वभावसे ही परिणमित होते हुए शब्दादिक किंचित्मात्र भी विकार नहीं करते, जैसे कि अपने स्वरूपसे ही प्रकाशित होनेवाले दीपकको घटपटादि पदार्थ विकार नहीं करते। ऐसा वस्तुस्वभाव है, तथापि जीव शब्दको सुनकर, रूपको देखकर, गंधको सूंघकर, रसका स्वाद लेकर, स्पर्शको छूकर, गुण- द्रव्यको जानकर, उन्हें अच्छा बुरा मानकर राग-द्वेष करता है, वह अज्ञान ही है।।३७३ से ३८२।।
श्लोकार्थ : — [पूर्ण-एक-अच्युत-शुद्ध-बोध-महिमा अयं बोधो ] पूर्ण, एक, अच्युत और ( – निर्विकार) ज्ञान जिसकी महिमा है ऐसा यह ज्ञायक आत्मा [ततः इतः बोध्यात् ] उन (असमीपवर्ती) या इन (समीपवर्ती) ज्ञेय पदार्थोंसे [काम् अपि विक्रियां न यायात् ] किंचित् मात्र भी विक्रियाको प्राप्त नहीं होता, [दीपः प्रकाश्यात् इव ] जैसे दीपक प्रकाश्य ( – प्रकाशित होने योग्य घटपटादि) पदार्थोंसे विक्रियाको प्राप्त नहीं होता। तब फि र [तद्-वस्तुस्थिति-बोध-वन्ध्य- धिषणाः एते अज्ञानिनः ] जिनकी बुद्धि ऐसी वस्तुस्थितिके ज्ञानसे रहित है, ऐसे यह अज्ञानी जीव [किम् सहजाम् उदासीनताम् मुंचन्ति, रागद्वेषमयीभवन्ति ] अपनी सहज उदासीनताको क्यों छोड़ते हैं तथा रागद्वेषमय क्यों होते हैं ? (इसप्रकार आचार्यदेवने सोच किया है।)
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पूर्वागामिसमस्तकर्मविकला भिन्नास्तदात्वोदयात् ।
विन्दन्ति स्वरसाभिषिक्त भुवनां ज्ञानस्य संचेतनाम् ।।२२३।।
भावार्थ : — जैसे दीपकका स्वभाव घटपटादिको प्रकाशित करनेका है, उसीप्रकार ज्ञानका स्वभाव ज्ञेयको जाननेका ही है। ऐसा वस्तुस्वभाव है। ज्ञेयको जाननेमात्रसे ज्ञानमें विकार नहीं होता। ज्ञेयोंको जानकर, उन्हें अच्छा-बुरा मानकर, आत्मा रागीद्वेषी – विकारी होता है जो कि अज्ञान है। इसलिये आचार्यदेवने सोच किया है कि — ‘वस्तुका स्वभाव तो ऐसा है, फि र भी यह आत्मा अज्ञानी होकर रागद्वेषरूप क्यों परिणमित होता है ? अपनी स्वाभाविक उदासीन-अवस्थारूप क्यों नहीं रहता ?’ इस प्रकार आचार्यदेवने जो सोच किया है सो उचित ही है, क्योंकि जब तक शुभ राग है तब तक प्राणियोंको अज्ञानसे दुःखी देखकर करुणा उत्पन्न होती है और उससे सोच भी होता है।२२२।
श्लोकार्थ : — [राग-द्वेष-विभाव-मुक्त-महसः ] जिनका तेज रागद्वेषरूपी विभावसे रहित है, [नित्यं स्वभाव-स्पृशः ] जो सदा (अपने चैतन्यचमत्कारमात्र) स्वभावको स्पर्श करनेवाले हैं, [पूर्व-आगामि-समस्त-कर्म-विकलाः ] जो भूतकालके तथा भविष्यकालके समस्त कर्मोंसे रहित हैं और [तदात्व-उदयात् भिन्नाः ] जो वर्तमान कालके कर्मोदयसे भिन्न हैं, [दूर-आरूढ-चरित्र- वैभव-बलात् ज्ञानस्य सञ्चेतनाम् विन्दन्ति ] वे ( – ऐसे ज्ञानी – ) अति प्रबल चारित्रके वैभवके बलसे ज्ञानकी संचेतनाका अनुभव करते हैं – [चंचत्-चिद्-अर्चिर्मयीं ] जो ज्ञानचेतना-चमकती हुई चैतन्यज्योतिमय है और [स्व-रस-अभिषिक्त-भुवनाम् ] जिसने अपने (ज्ञानरूपी) रससे समस्त लोकको सींचा है।
भावार्थ : — जिनका राग-द्वेष दूर हो गया, अपने चैतन्यस्वभावको जिन्होंने अंगीकार किया और अतीत, अनागत तथा वर्तमान कर्मका ममत्व दूर हो गया है ऐसे ज्ञानी सर्व परद्रव्योंसे अलग होकर चारित्र अंगीकार करते हैं। उस चारित्रके बलसे, कर्मचेतना और कर्मफलचेतनासे भिन्न जो अपनी चैतन्यकी परिणमनस्वरूप ज्ञानचेतना है उसका अनुभव करते हैं।
यहाँ यह तात्पर्य समझना चाहिए कि : – जीव पहले तो कर्मचेतना और कर्मफलचेतनासे भिन्न अपनी ज्ञानचेतनाका स्वरूप आगम-प्रमाण, अनुमान-प्रमाण और स्वसंवेदनप्रमाणसे जानता है और उसका श्रद्धान (प्रतीति) दृढ़ करता है; यह तो अविरत, देशविरत, और प्रमत्त अवस्थामें
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भी होता है। और जब अप्रमत्त अवस्था होती है तब जीव अपने स्वरूपका ही ध्यान करता है; उस समय, उसने जिस ज्ञानचेतनाका प्रथम श्रद्धान किया था उसमें वह लीन होता है और श्रेणि चढ़कर, केवलज्ञान उत्पन्न करके, साक्षात् १ज्ञानचेतनारूप हो जाता है।।२२३।।
जो अतीत कर्मके प्रति ममत्वको छोड़ दे वह आत्मा प्रतिक्रमण है, जो अनागतकर्म न करनेकी प्रतिज्ञा करे (अर्थात् जिन भावोंसे आगामी कर्म बँधे उन भावोंका ममत्व छोड़े) वह आत्मा प्रत्याख्यान है और जो उदयमें आये हुए वर्तमान कर्मका ममत्व छोड़े वह आत्मा आलोचना है; सदा ऐसे प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान और आलोचनापूर्वक प्रवर्तमान आत्मा चारित्र है। — ऐसे चारित्रका विधान इन गाथाओं द्वारा करते हैं : —
परिणमन ज्ञानके स्वामित्वभावसे होता है, कर्मके और कर्मफलके स्वामित्वभावसे नहीं होता।
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गाथार्थ : — [पूर्वकृतं ] पूर्वकृत [यत् ] जो [अनेकविस्तरविशेषम् ] अनेक प्रकारके विस्तारवाला [शुभाशुभम् कर्म ] (ज्ञानावरणीय आदि) शुभाशुभ कर्म है; [तस्मात् ] उससे [यः ] जो आत्मा [आत्मानं तु ] अपनेको [निवर्तयति ] दूर रखता है [सः ] वह आत्मा [प्रतिक्रमणम् ] प्रतिक्रमण करता है।
[भविष्यत् ] भविष्यकालका [यत् ] जो [शुभम् अशुभं कर्म ] शुभ-अशुभ कर्म [यस्मिन् भावे च ] जिस भावमें [बध्यते ] बँधता है। [तस्मात् ] उस भावसे [यः ] जो आत्मा [निवर्तते ] निवृत्त होता है, [सः चेतयिता ] वह आत्मा [प्रत्याख्यानं भवति ] प्रत्याख्यान है।
[सम्प्रति च ] वर्तमान कालमें [उदीर्णं ] उदयागत [यत् ] जो [अनेकविस्तरविशेषम् ] अनेक प्रकारके विस्तारवाला [शुभम् अशुभम् ] शुभ और अशुभ कर्म है [तं दोषं ] उस दोषको [यः ] जो आत्मा [चेतयते ] चेतता है — अनुभव करता है — ज्ञाताभावसे जान लेता है (अर्थात् उसके स्वामित्व — कर्तृत्वको छोड़ देता है), [सः चेतयिता ] वह आत्मा [खलु ] वास्तवमें [आलोचनं ] आलोचना है।
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यः खलु पुद्गलकर्मविपाकभवेभ्यो भावेभ्यश्चेतयितात्मानं निवर्तयति, स तत्कारणभूतं पूर्वं कर्म प्रतिक्रामन् स्वयमेव प्रतिक्रमणं भवति । स एव तत्कार्यभूतमुत्तरं कर्म प्रत्याचक्षाणः प्रत्याख्यानं भवति । स एव वर्तमानं कर्मविपाकमात्मनोऽत्यन्तभेदेनोपलभमानः आलोचना भवति । एवमयं नित्यं प्रतिक्रामन्, नित्यं प्रत्याचक्षाणो, नित्यमालोचयंश्च, पूर्वकर्मकार्येभ्य उत्तरकर्मकारणेभ्यो भावेभ्योऽत्यन्तं निवृत्तः, वर्तमानं कर्मविपाकमात्मनोऽत्यन्तभेदेनोपलभमानः, स्वस्मिन्नेव खलु ज्ञानस्वभावे निरन्तरचरणाच्चारित्रं भवति । चारित्रं तु भवन् स्वस्य ज्ञानमात्रस्य चेतनात् स्वयमेव ज्ञानचेतना भवतीति भावः । च ] सदा प्रतिक्रमण करता है और [नित्यम् आलोचयति ] सदा आलोचना करता है, [सः चेतयिता ] वह आत्मा [खलु ] वास्तवमें [चरित्रं भवति ] चारित्र है।
टीका : — जो आत्मा पुद्गलकर्मके विपाक (उदय) से हुये भावोंसे अपनेको छुड़ाता है ( – दूर रखता है), वह आत्मा उन भावोंके कारणभूत पूर्वकर्मोंको (भूतकालके कर्मोंको) प्रतिक्रमता हुआ स्वयं ही प्रतिक्रमण है; वही आत्मा, उन भावोंके कार्यभूत उत्तरकर्मोंको (भविष्यकालके कर्मोंको) प्रत्याख्यानरूप करता हुआ प्रत्याख्यान है; वही आत्मा, वर्तमान कर्मविपाकको अपनेसे ( – आत्मासे) अत्यन्त भेदपूर्वक अनुभव करता हुआ, आलोचना है। इसप्रकार वह आत्मा सदा प्रतिक्रमण करता हुआ, सदा प्रत्याख्यान करता हुआ और सदा आलोचना करता हुआ, पूर्वकर्मोंके कार्यरूप और उत्तरकर्मोंके कारणरूप भावोंसे अत्यन्त निवृत्त होता हुआ, वर्तमान कर्मविपाकको अपनेसे (आत्मासे) अत्यन्त भेदपूर्वक अनुभव करता हुआ, अपनेमें ही — ज्ञानस्वभावमें ही — निरन्तर चरनेसे (-आचरण करनेसे) चारित्र है (अर्थात् स्वयं ही चारित्रस्वरूप है)। और चारित्रस्वरूप होता हुआ अपनेको – ज्ञानमात्रको – चेतता (अनुभव करता) है, इसलिये (वह आत्मा) स्वयं ही ज्ञानचेतना है, ऐसा आशय है।
भावार्थ : — चारित्रमें प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान और आलोचनाका विधान है। उसमें, पहले लगे हुए दोषोंसे आत्माको निवृत्त करना सो प्रतिक्रमण है, भविष्यमें दोष लगानेका त्याग करना सो प्रत्याख्यान है और वर्तमान दोषसे आत्माको पृथक् करना सो आलोचना है। यहाँ निश्चयचारित्रको प्रधान करके कथन है; इसलिये निश्चयसे विचार करने पर, जो आत्मा त्रिकालके कर्मोंसे अपनेको भिन्न जानता है, श्रद्धा करता है और अनुभव करता है, वह आत्मा स्वयं ही प्रतिक्रमण है, स्वयं ही प्रत्याख्यान है और स्वयं ही आलोचना है। इसप्रकार प्रतिक्रमणस्वरूप, प्रत्याख्यानस्वरूप और आलोचनास्वरूप आत्माका निरंतर अनुभवन ही निश्चयचारित्र है। जो यह निश्चयचारित्र है, वही ज्ञानचेतना (अर्थात् ज्ञानका अनुभवन) है। उसी
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प्रकाशते ज्ञानमतीव शुद्धम् ।
बोधस्य शुद्धिं निरुणद्धि बन्धः ।।२२४।।
होता है।।३८३ से ३८६।।
अब, आगेकी गाथाओंका सूचक काव्य कहते हैं; जिसमें ज्ञानचेतना और अज्ञानचेतना (अर्थात् कर्मचेतना और कर्मफलचेतना) का फल प्रगट करते हैं —
श्लोकार्थ : — [नित्यं ज्ञानस्य संचेतनया एव ज्ञानम् अतीव शुद्धम् प्रकाशते ] निरन्तर ज्ञानकी संचेतनासे ही ज्ञान अत्यन्त शुद्ध प्रकाशित होता है; [तु ] और [अज्ञानसंचेतनया ] अज्ञानकी संचेतनासे [बन्धः धावन् ] बंध दौड़ता हुआ [बोधस्य शुद्धिं निरुणद्धि ] ज्ञानकी शुद्धताको रोकता है, अर्थात् ज्ञानकी शुद्धता नहीं होने देता।
भावार्थ : — किसी (वस्तु) के प्रति एकाग्र होकर उसीका अनुभवरूप स्वाद लिया करना वह उसका संचेतन कहलाता है। ज्ञानके प्रति ही एकाग्र उपयुक्त होकर उस ओर ही ध्यान रखना वह ज्ञानका संचेतन अर्थात् ज्ञानचेतना है। उससे ज्ञान अत्यन्त शुद्ध होकर प्रकाशित होता है अर्थात् केवलज्ञान उत्पन्न होता है। केवलज्ञान उत्पन्न होने पर सम्पूर्ण ज्ञानचेतना कहलाती है।
अज्ञानरूप (अर्थात् कर्मरूप और कर्मफलरूप) उपयोगको करना, उसीकी ओर ( – कर्म और कर्मफलकी ओर ही – ) एकाग्र होकर उसीका अनुभव करना, वह अज्ञानचेतना है। उससे कर्मका बन्ध होता है, जो बन्ध ज्ञानकी शुद्धताको रोकता है।।२२४।।
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गाथार्थ : — [कर्मंफलम् वेदयमानः ] कर्मके फलका वेदन करता हुआ [यः तु ] जो आत्मा [कर्मफलम् ] कर्मफलको [आत्मानं करोति ] निजरूप करता ( – मानता) है, [सः ] वह [पुनः अपि ] फि रसे भी [अष्टविधम् तत् ] आठ प्रकारके कर्मको — [दुःखस्य बीजं ] दुःखके बीजको — [बध्नाति ] बांधता है।
[कर्मफलं वेदयमानः ] कर्मके फलका वेदन करता हुआ [यः तु ] जो आत्मा [कर्मफलम् मया कृतं जानाति ] यह जानता (मानता) है कि ‘कर्मफल मैंने किया है,’ [सः ] वह [पुनः अपि ] फि रसे भी [अष्टविधम् तत् ] आठ प्रकारके कर्मको — [दुःखस्य बीजं ] दुःखके बीजको — [बध्नाति ] बांधता है।
[कर्मफलं वेदयमानः ] कर्मफलको वेदन करता हुआ [यः चेतयिता ] जो आत्मा [सुखितः दुःखितः च ] सुखी और दुःखी [भवति ] होता है, [सः ] वह [पुनः अपि ] फि रसे भी [अष्टविधम् तत् ] आठ प्रकारके कर्मको — [दुःखस्य बीजं ] दुःखके बीजको — [बध्नाति ] बांधता है।
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ज्ञानादन्यत्रेदमहमिति चेतनम् अज्ञानचेतना । सा द्विधा — कर्मचेतना कर्मफलचेतना च । तत्र ज्ञानादन्यत्रेदमहं करोमीति चेतनं कर्मचेतना; ज्ञानादन्यत्रेदं वेदयेऽहमिति चेतनं कर्मफलचेतना । सा तु समस्तापि संसारबीजं; संसारबीजस्याष्टविधकर्मणो बीजत्वात् । ततो मोक्षार्थिना पुरुषेणाज्ञानचेतनाप्रलयाय सकलकर्मसंन्यासभावनां सकलकर्मफलसंन्यासभावनां च नाटयित्वा स्वभावभूता भगवती ज्ञानचेतनैवैका नित्यमेव नाटयितव्या ।
टीका : — ज्ञानसे अन्यमें (-ज्ञानके सिवा अन्य भावोंमें) ऐसा चेतना (-अनुभव करना) कि ‘यह मैं हूँ,’ सो अज्ञानचेतना है। वह दो प्रकारकी है — कर्मचेतना और कर्मफलचेतना। उसमें, ज्ञानसे अन्यमें (अर्थात् ज्ञानके सिवा अन्य भावोंमें) ऐसा चेतना कि ‘इसको मैं करता हूँ’, वह कर्मचेतना है; और ज्ञानसे अन्यमें ऐसा चेतना कि ‘इसे मैं भोगता हूँ’, वह कर्मफलचेतना है। (इसप्रकार अज्ञानचेतना दो प्रकारसे है।) वह समस्त अज्ञानचेतना संसारका बीज है; क्योंकि संसारके बीज जो आठ प्रकारके (ज्ञानावरणादि) कर्म, उनका बीज वह अज्ञानचेतना है (अर्थात् उससे कर्मोका बन्ध होता है)। इसलिये मोक्षार्थी पुरुषको अज्ञानचेतनाका प्रलय करनेके लिये सकल कर्मोके संन्यास ( – त्याग)की भावनाको तथा सकल कर्मफलके संन्यासकी भावनाको नचाकर, स्वभावभूत ऐसी भगवती ज्ञानचेतनाको ही एकको सदैव नचाना चाहिए।।३८७ से ३८९।।
श्लोकार्थ : — [त्रिकालविषयं ] त्रिकालके (अर्थात् अतीत, वर्तमान और अनागत काल संबंधी) [सर्व कर्म ] समस्त कर्मको [कृत-कारित-अनुमननैः ] कृत-कारित-अनुमोदनासे और — [मनः-वचन-कायैः ] मन-वचन-कायसे [परिहृत्य ] त्याग करके [परमं नैष्कर्म्यम् अवलम्बे ] मैं परम नैष्कर्म्यका ( – उत्कृष्ट निष्कर्म अवस्थाका) अवलम्बन करता हूँ। (इसप्रकार, समस्त कर्मोंका त्याग करनेवाला ज्ञानी प्रतिज्ञा करता है।)।।२२५।।
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यदहमकार्षं, यदचीकरं, यत्कुर्वन्तमप्यन्यं समन्वज्ञासिषं, मनसा च वाचा च कायेन च, तन्मिथ्या मे दुष्कृतमिति १ । यदहमकार्षं, यदचीकरं, यत्कुर्वन्तमप्यन्यं समन्वज्ञासिषं, मनसा च वाचा च, तन्मिथ्या मे दुष्कृतमिति २ । यदहमकार्षं, यदचीकरं, यत्कुर्वन्तमप्यन्यं समन्वज्ञासिषं, मनसा च कायेन च, तन्मिथ्या मे दुष्कृतमिति ३ । यदहमकार्षं, यदचीकरं, यत्कुर्वन्तमप्यन्यं समन्वज्ञासिषं, वाचा च कायेन च, तन्मिथ्या मे दुष्कृतमिति ४ । यदहमकार्षं, यदचीकरं, यत्कुर्वन्तमप्यन्यं समन्वज्ञासिषं, मनसा च, तन्मिथ्या मे दुष्कृतमिति ५ । यदहमकार्षं, यदचीकरं, यत्कुर्वन्तमप्यन्यं समन्वज्ञासिषं, वाचा च, तन्मिथ्या मे दुष्कृतमिति ६ । यदहमकार्षं, यदचीकरं, यत्कुर्वन्तमप्यन्यं समन्वज्ञासिषं, कायेन च, तन्मिथ्या मे दुष्कृतमिति ७ । यदहमकार्षं, यदचीकरं, मनसा च वाचा च कायेन च, तन्मिथ्या मे दुष्कृतमिति ८ । यदहमकार्षं, यत्कुर्वन्तमप्यन्यं समन्वज्ञासिषं, मनसा च वाचा च कायेन च, तन्मिथ्या मे दुष्कृतमिति ९ । यदहमचीकरं, यत्कुर्वन्तमप्यन्यं समन्वज्ञासिषं, मनसा च वाचा च
जो मैंने (अतीतकालमें कर्म) किया, कराया और दूसरे करते हुएका अनुमोदन किया, मनसे, वचनसे, तथा कायसे, यह मेरा दुष्कृत मिथ्या हो। (कर्म करना, कराना और अन्य करनेवालेका अनुमोदन करना वह संसारका बीज है, यह जानकर उस दुष्कृतके प्रति हेयबुद्धि आई तब जीवने उसके प्रतिका ममत्व छोड़ा, यही उसका मिथ्या करना है)।१।
जो मैंने (अतीत कालमें कर्म) किया, कराया और अन्य करते हुएका अनुमोदन किया, मनसे तथा वचनसे, वह मेरा दुष्कृत मिथ्या हो।२। जो मैंने (पूर्वमें) किया, कराया और अन्य करते हुएका अनुमोदन किया, मनसे तथा कायसे, वह मेरा दुष्कृत मिथ्या हो।३। जो मैंने (पूर्वमें) किया, कराया और अन्य करते हुएका अनुमोदन किया, वचनसे तथा कायसे, वह मेरा दुष्कृत मिथ्या हो।४।
जो मैंने (अतीत कालमें) किया, कराया और अन्य करते हुएका अनुमोदन किया, मनसे, वह मेरा दुष्कृत मिथ्या हो।५। जो मैंने (पूर्वमें) किया, कराया और अन्य करते हुएका अनुमोदन किया, वचनसे, वह मेरा दुष्कृत मिथ्या हो।६। जो मैंने (पूर्वमें) किया, कराया और अन्य करते हुएका अनुमोदन किया, कायसे, वह मेरा दुष्कृत मिथ्या हो।७।
जो मैंने (पूर्वमें) किया और कराया मनसे, वचनसे तथा कायसे, वह मेरा दुष्कृत मिथ्या हो।८। जो मैंने (पूर्वमें) किया और अन्य करते हुएका अनुमोदन किया मनसे, वचनसे और कायसे, वह मेरा दुष्कृत मिथ्या हो।९। जो मैंने (पूर्वमें) कराया और अन्य करते हुएका अनुमोदन
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कायेन च, तन्मिथ्या मे दुष्कृतमिति १० । यदहमकार्षं, यदचीकरं, मनसा च वाचा च, तन्मिथ्या मे दुष्कृतमिति ११ । यदहमकार्षं, यत्कुर्वन्तमप्यन्यं समन्वज्ञासिषं, मनसा च वाचा च, तन्मिथ्या मे दुष्कृतमिति १२ । यदहमचीकरं, यत्कुर्वन्तमप्यन्यं समन्वज्ञासिषं, मनसा च वाचा च, तन्मिथ्या मे दुष्कृतमिति १३ । यदहमकार्षं, यदचीकरं, मनसा च कायेन च, तन्मिथ्या मे दुष्कृतमिति १४ । यदहमकार्षं, यत्कुर्वन्तमप्यन्यं समन्वज्ञासिषं, मनसा च कायेन च, तन्मिथ्या मे दुष्कृतमिति १५ । यदहमचीकरं यत्कुर्वन्तमप्यन्यं समन्वज्ञासिषं मनसा च कायेन च, तन्मिथ्या मे दुष्कृतमिति १६ । यदहमकार्षं, यदचीकरं, वाचा च कायेन च, तन्मिथ्या मे दुष्कृतमिति १७ । यदहमकार्षं, यत्कुर्वन्तमप्यन्यं समन्वज्ञासिषं, वाचा च कायेन च, तन्मिथ्या मे दुष्कृतमिति १८ । यदहमचीकरं, यत्कुर्वन्तमप्यन्यं समन्वज्ञासिषं, वाचा च कायेन च, तन्मिथ्या मे दुष्कृतमिति १९ । यदहमकार्षं, यदचीकरं, मनसा च, तन्मिथ्या मे दुष्कृतमिति २० । यदहमकार्षं, यत्कुर्वन्तमप्यन्यं समन्वज्ञासिषं, मनसा च, तन्मिथ्या मे दुष्कृतमिति २१ । यदहमचीकरं, यत्कुर्वन्तमप्यन्यं समन्वज्ञासिषं, मनसा च, तन्मिथ्या मे दुष्कृतमिति २२ । किया मनसे वचनसे तथा कायसे, वह मेरा दुष्कृत मिथ्या हो।१०।
जो मैंने (अतीत कालमें) किया और कराया मनसे तथा वचनसे, वह मेरा दुष्कृत मिथ्या हो।११। जो मैंने (पूर्वमें) किया और अन्य करते हुएका अनुमोदन किया मनसे तथा वचनसे, वह मेरा दुष्कृत मिथ्या हो।१२। जो मैंने (पूर्वमें) कराया और अन्य करते हुएका अनुमोदन किया मनसे तथा वचनसे, वह मेरा दुष्कृत मिथ्या हो।१३। जो मैंने (पूर्वमें) किया और कराया मनसे तथा कायसे, वह मेरा दुष्कृत मिथ्या हो।१४। जो मैंने (पूर्वमें) किया तथा अन्य करते हुएका अनुमोदन किया मनसे तथा कायासे, वह मेरा दुष्कृत मिथ्या हो।१५। जो मैंने (पूर्वमें) कराया और अन्य करते हुएका अनुमोदन किया मनसे तथा कायासे, वह मेरा दुष्कृत मिथ्या हो।१६। जो मैंने (पूर्वमें) किया और कराया वचनसे तथा कायासे, वह मेरा दुष्कृत मिथ्या हो।१७। जो मैंने (पूर्वमें) किया तथा अन्य करते हुएका अनुमोदन किया वचनसे तथा कायासे, वह मेरा दुष्कृत मिथ्या हो।१८। जो मैंने (पूर्वमें) कराया तथा अन्य करते हुएका अनुमोदन किया वचनसे तथा कायासे, वह मेरा दुष्कृत मिथ्या हो।१९।
जो मैंने (अतीत कालमें) किया और कराया, मनसे, वह मेरा दुष्कृत मिथ्या हो।२०। जो मैंने (पूर्वंमें) किया और कराया तथा अन्य करते हुएका अनुमोदन किया मनसे, वह मेरा दुष्कृत मिथ्या हो।२१। जो मैंने (पूर्वमें) कराया और अन्य करते हुएका अनुमोदन किया
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यदहमकार्षं, यदचीकरं, वाचा च, तन्मिथ्या मे दुष्कृतमिति २३ । यदहमकार्षं, यत्कुर्वन्तमप्यन्यं समन्वज्ञासिषं, वाचा च, तन्मिथ्या मे दुष्कृतमिति २४ । यदहम- चीकरं, यत्कुर्वन्तमप्यन्यं समन्वज्ञासिषं, वाचा च, तन्मिथ्या मे दुष्कृतमिति २५ । यदहमकार्षं, यदचीकरं, कायेन च, तन्मिथ्या मे दुष्कृतमिति २६ । यदहमकार्षं, यत्कुर्वन्तमप्यन्यं समन्वज्ञासिषं, कायेन च, तन्मिथ्या मे दुष्कृतमिति २७ । यदहमचीकरं, यत्कुर्वन्तमप्यन्यं समन्वज्ञासिषं, कायेन च, तन्मिथ्या मे दुष्कृतमिति २८ । यदहमकार्षं मनसा च वाचा च कायेन च, तन्मिथ्या मे दुष्कृतमिति २९ । यदहमचीकरं मनसा च वाचा च कायेन च, तन्मिथ्या मे दुष्कृतमिति ३० । यत्कुर्वन्तमप्यन्यं समन्वज्ञासिषं मनसा च वाचा च कायेन च, तन्मिथ्या मे दुष्कृतमिति ३१ । यदहमकार्षं मनसा च वाचा च, तन्मिथ्या मे दुष्कृतमिति ३२ । यदहमचीकरं मनसा च वाचा च, तन्मिथ्या मे दुष्कृतमिति ३३ । यत्कुर्वन्तमप्यन्यं समन्वज्ञासिषं मनसा च वाचा च, तन्मिथ्या मे दुष्कृतमिति ३४ । यदहमकार्षं मनसा च कायेन च, तन्मिथ्या मे दुष्कृतमिति ३५ । मनसे, वह मेरा दुष्कृत मिथ्या हो।२२। जो मैंने (पूर्वमें) किया और कराया वचनसे, वह मेरा दुष्कृत मिथ्या हो।२३। जो मैंने (पूर्वमें) किया और अन्य करते हुएका अनुमोदन किया वचनसे, वह मेरा दुष्कृत मिथ्या हो।२४। जो मैंने (पूर्वमें) कराया तथा अन्य करते हुएका अनुमोदन किया वचनसे, वह मेरा दुष्कृत मिथ्या हो।२५। जो मैंने (पूर्वमें) किया और कराया कायासे, वह मेरा दुष्कृत मिथ्या हो।२६। जो मैंने (पूर्वमें) किया और अन्य करते हुएका अनुमोदन किया कायासे, वह मेरा दुष्कृत मिथ्या हो।२७। जो मैंने (पूर्वमें) कराया और अन्य करते हुएका अनुमोदन किया कायासे, वह मेरा दुष्कृत मिथ्या हो।२८।
जो मैंने (अतीत कालमें) किया मनसे, वचनसे तथा कायासे, वह मेरा दुष्कृत मिथ्या हो।२९। जो मैंने (पूर्वमें) कराया मनसे, वचनसे तथा कायासे, वह मेरा दुष्कृत मिथ्या हो।३०। जो मैंने अन्य करते हुएका अनुमोदन किया मनसे, वचनसे तथा कायासे, वह मेरा दुष्कृत मिथ्या हो।३१।
जो मैंने (अतीत कालमें) किया मनसे तथा वचनसे, वह मेरा दुष्कृत मिथ्या हो।३२। जो मैंने (पूर्वमें) कराया मनसे तथा वचनसे, वह मेरा दुष्कृत मिथ्या हो।३३। जो मैंने (पूर्वमें) अन्य करते हुएका अनुमोदन किया मनसे तथा वचनसे, वह मेरा दुष्कृत मिथ्या हो।३४। जो मैंने (पूर्वमें) किया मनसे तथा कायासे, वह मेरा दुष्कृत मिथ्या हो।३५।
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यदहमचीकरं मनसा च कायेन च, तन्मिथ्या मे दुष्कृतमिति ३६ । यत्कुर्वन्त- मप्यन्यं समन्वज्ञासिषं मनसा च कायेन च, तन्मिथ्या मे दुष्कृतमिति ३७ । यदहमकार्षं वाचा च कायेन च, तन्मिथ्या मे दुष्कृतमिति ३८ । यदहमचीकरं वाचा च कायेन च, तन्मिथ्या मे दुष्कृतमिति ३९ । यत्कुर्वन्तमप्यन्यं समन्वज्ञासिषं वाचा च कायेन च, तन्मिथ्या मे दुष्कृतमिति ४० । यदहमकार्षं मनसा च, तन्मिथ्या मे दुष्कृतमिति ४१ । यदहमचीकरं मनसा च, तन्मिथ्या मे दुष्कृतमिति ४२ । यत्कुर्वन्तमप्यन्यं समन्वज्ञासिषं मनसा च, तन्मिथ्या मे दुष्कृतमिति ४३ । यदहमकार्षं वाचा च, तन्मिथ्या मे दुष्कृतमिति ४४ । यदहमचीकरं वाचा च, तन्मिथ्या मे दुष्कृतमिति ४५ । यत्कुर्वन्तमप्यन्यं समन्वज्ञासिषं वाचा च, तन्मिथ्या मे दुष्कृतमिति ४६ । यदहमकार्षं कायेन च, तन्मिथ्या मे दुष्कृतमिति ४७ । यदहमचीकरं कायेन च, तन्मिथ्या मे दुष्कृतमिति ४८ । यत्कुर्वन्तमप्यन्यं समन्वज्ञासिषं कायेन च, तन्मिथ्या मे दुष्कृतमिति ४९ । जो मैंने (पूर्वमें) कराया मनसे तथा कायासे, वह मेरा दुष्कृत मिथ्या हो।३६। जो मैंने (पूर्वमें) अन्य करते हुएका अनुमोदन किया मनसे तथा कायासे, वह मेरा दुष्कृत मिथ्या हो।३७। जो मैंने (पूर्वमें) किया वचनसे तथा कायासे, वह मेरा दुष्कृत मिथ्या हो।३८। जो मैंने (पूर्वमें) कराया वचनसे तथा कायासे, वह मेरा दुष्कृत मिथ्या हो।३९। जो मैंने (पूर्वमें) अन्य करते हुएका अनुमोदन किया वचनसे तथा कायासे, वह मेरा दुष्कृत मिथ्या हो।४०।
जो मैंने (अतीत कालमें) किया मनसे, वह मेरा दुष्कृत मिथ्या हो।४१। जो मैंने (पूर्वमें) कराया मनसे, वह मेरा दुष्कृत मिथ्या हो।४२। जो मैंने (पूर्वमें) अन्य करते हुएका अनुमोदन किया मनसे, वह मेरा दुष्कृत मिथ्या हो।४३। जो मैंने (पूर्वमें) किया वचनसे, वह मेरा दुष्कृत मिथ्या हो।४४। जो मैंने (पूर्वमें) कराया वचनसे, वह मेरा दुष्कृत मिथ्या हो।४५। जो मैंने (पूर्वमें) अन्य करते हुएका अनुमोदन किया वचनसे, वह मेरा दुष्कृत मिथ्या हो।४६। जो मैंने (पूर्वमें) किया कायासे, वह मेरा दुष्कृत मिथ्या हो।४७। जो मैंने (पूर्वमें) कराया कायासे, वह मेरा दुष्कृत मिथ्या हो।४८। जो मैंने (पूर्वमें) अन्य करते हुएका अनुमोदन किया कायासे, वह मेरा दुष्कृत मिथ्या हो।४९।
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पर मन, वचन, काय – ये तीन लगाये हैं। इसप्रकार बने हुए इस एक भंगको१ ‘३३’ की समस्यासे – संज्ञासे – पहिचाना जा सकता है। २ से ४ तकके भंगोंमें कृत, कारित, अनुमोदनाके तीनों लेकर उन पर मन, वचन, कायमेंसे दो दो लगाए है। इसप्रकार बने हुए इन तीनों भंगोंको२ ‘३२’ की संज्ञासे पहिचाना जा सकता है। ५ से ७ तकके भंगोंमें कृत, कारित, अनुमोदनाके तीनों लेकर उन पर मन, वचन, कायमेंसे एक एक लगाया है। इन तीनों भंगोंको ‘३१’ की संज्ञासे पहिचाना जा सकता है। ८ से १० तकके भंगोंमें कृत, कारित, अनुमोदनामेंसे दो-दो लेकर उन पर मन, वचन, काय तीनों लगाए हैं। इन तीनों भंगोंको ‘२३’ की संज्ञावाले भंगोंके रूपमें पहिचाना जा सकता है। ११ से १९ तकके भंगोंमें कृत, कारित, अनुमोदनामेंसे दो-दो लेकर उन पर मन, वचन, कायमेंसे दो दो लगाये हैं। इन नौ भंगोंको ‘२२’ की संज्ञावाले पहिचाना जा सकता है। २० से २८ तकके भंगोंमें कृत, कारित, अनुमोदनामेंसे दो-दो लेकर उन पर मन, वचन, कायमेंसे एक एक लगाया है। इन नौ भंगोंको ‘२१’ की संज्ञावाले भंगोंके रूपमें पहिचाना जा सकता है। २९ से ३१ तकके भंगोंमें कृत, कारित, अनुमोदनामेंसे एक एक लेकर उन पर मन, वचन, काय तीनों लगाये हैं। इन तींनों भंगोंको ‘१३’ की संज्ञासे पहिचाना जा सकता है। ३२ से ४० तकके भंगोंमें कृत, कारित, अनुमोदनामेंसे एक-एक लेकर उन पर मन, वचन, कायमेंसे दो दो लगाये हैं। इन नौ भंगोंको ‘१२’ की संज्ञासे पहिचाना जा सकता है। ४१ से ४९ तकके भंगोंके कृत, कारित, अनुमोदनामेंसे एक एक लेकर उन पर मन, वचन, कायमेंसे एक एक लगाया है। इन नौ भंगोंको ‘११’ की संज्ञासे पहिचाना जा सकता है। इसप्रकार सब मिलाकर ४९ भंग हुये।)
श्लोकार्थ : — [यद् अहम् मोहात् अकार्षम् ] मैंने जो मोहसे अथवा अज्ञानसे (भूतकालमें) कर्म किये हैं, [तत् समस्तम् अपि कर्म प्रतिक्रम्य ] उन समस्त कर्मोंका प्रतिक्रमण १कृत, कारित, अनुमोदना – यह तीनों लिये गये हैं सो उन्हें बतानेके लिये पहले ‘३’ का अंक रखना
२कृत, कारित, अनुमोदना तीनों लिये हैं, यह बतानेके लिये पहले ‘३’ का अंक रखना चाहिए; और फि र मन, वचन, कायमेंसे दो लिये हैं यह बतानेके लिये ‘३’ के पास ‘२’ का अंक रखना चाहिए।
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न करोमि, न कारयामि, न कुर्वन्तमप्यन्यं समनुजानामि, मनसा च वाचा च कायेन चेति १ । न करोमि, न कारयामि, न कुर्वन्तमप्यन्यं समनुजानामि, मनसा च वाचा चेति २ । न करोमि, न कारयामि, न कुर्वन्तमप्यन्यं समनुजानामि, मनसा च कायेन चेति ३ । न करोमि, न कारयामि, न कुर्वन्तमप्यन्यं समनुजानामि, वाचा च कायेन चेति ४ । न करोमि, न कारयामि, न कुर्वन्तमप्यन्यं समनुजानामि, मनसा चेति ५ । न करोमि, करके [निष्कर्मणि चैतन्य-आत्मनि आत्मनि आत्मना नित्यम् वर्ते ] मैं निष्कर्म (अर्थात् समस्त कर्मोसें रहित) चैतन्यस्वरूप आत्मामें आत्मासे ही ( – निजसे ही – ) निरन्तर वर्त रहा हूँ (इसप्रकार ज्ञानी अनुभव करता है)।
भावार्थ : — भूत कालमें किये गये कर्मको ४९ भंगपूर्वक मिथ्या करनेवाला प्रतिक्रमण करके ज्ञानी ज्ञानस्वरूप आत्मामें लीन होकर निरन्तर चैतन्यस्वरूप आत्माका अनुभव करे, इसकी यह विधि है। ‘मिथ्या’ कहनेका प्रयोजन इसप्रकार है : — जैसे, किसीने पहले धन कमाकर घरमें रख छोड़ा था; और फि र जब उसके प्रति ममत्व छोड़ दिया तब उसे भोगनेका अभिप्राय नहीं रहा; उस समय, भूत कालमें जो धन कमाया था वह नहीं कमानेके समान ही है; इसीप्रकार, जीवने पहले कर्म बन्ध किया था; फि र जब उसे अहितरूप जानकर उसके प्रति ममत्व छोड़ दिया और उसके फलमें लीन न हुआ, तब भूतकालमें जो कर्म बाँधा था वह नहीं बाँधनेके समान मिथ्या ही है।२२६।
अनुमोदन करता हूँ, मनसे, वचनसे तथा कायसे।१।
मैं (वर्तमानमें कर्म) न तो करता हूँ, न कराता हूँ, न अन्य करते हुएका अनुमोदन करता हूँ, मनसे तथा वचनसे।२। मैं (वर्तमानमें) न तो करता हूँ, न कराता हूँ, न अन्य करते हुएका अनुमोदन करता हूँ, मनसे, तथा कायसे।३। मैं न तो करता हूँ, न कराता हूँ, न अन्य करते हुएका अनुमोदन करता हूँ, वचनसे तथा कायसे।४।
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न कारयामि, न कुर्वन्तमप्यन्यं समनुजानामि, वाचा चेति ६ । न करोमि, न कारयामि, न कुर्वन्तमप्यन्यं समनुजानामि, कायेन चेति ७ । न करोमि, न कारयामि, मनसा च वाचा च कायेन चेति ८ । न करोमि, न कुर्वन्तमप्यन्यं समनुजानामि, मनसा च वाचा च कायेन चेति ९ । न कारयामि, न कुर्वन्तमप्यन्यं समनुजानामि, मनसा च वाचा च कायेन चेति १० । न करोमि, न कारयामि, मनसा च वाचा चेति ११ । न करोमि, न कुर्वन्तमप्यन्यं समनुजानामि, मनसा च वाचा चेति १२ । न कारयामि, न कुर्वन्तमप्यन्यं समनुजानामि, मनसा च वाचा चेति १३ । न करोमि, न कारयामि, मनसा च कायेन चेति १४ । न करोमि, न कुर्वन्तमप्यन्यं समनुजानामि, मनसा च कायेन चेति १५ । न कारयामि, न कुर्वन्तमप्यन्यं समनुजानामि, मनसा च कायेन चेति १६ । न करोमि, न कारयामि, वाचा च कायेन चेति १७ । न करोमि, न कुर्वन्तमप्यन्यं समनुजानामि, वाचा च कायेन चेति १८ । न कारयामि, न कुर्वन्तमप्यन्यं समनुजानामि, वाचा च कायेन चेति १९ । न करोमि, न कारयामि, मनसा चेति २० । न करोमि, न कुर्वन्तमप्यन्यं समनुजानामि, न तो करता हूँ, न कराता हूँ, न अन्य करते हुएका अनुमोदन करता हूँ, वचनसे।६। मैं न तो करता हूँ, न कराता हूँ, न अन्य करते हुएका अनुमोदन करता हूँ, कायासे।७।
न मैं करता हूँ, न कराता हूँ, मनसे, वचनसे तथा कायासे।८। न तो मैं करता हूँ, न अन्य करते हुएका अनुमोदन करता हूँ, मनसे, वचनसे तथा कायासे।९। न मैं कराता हूँ, न अन्य करते हुएका अनुमोदन करता हूँ, मनसे, वचनसे तथा कायासे।१०।
न मैं करता हूँ, न कराता हूँ, मनसे तथा वचनसे।११। न मैं करता हूँ, न अन्य करते हुएका अनुमोदन करता हूँ, मनसे तथा वचनसे।१२। न तो मैं कराता हूँ, न अन्य करते हुएका अनुमोदन करता हूँ, मनसे तथा वचनसे।१३। न मैं करता हूँ, न कराता हूँ, मनसे तथा कायासे।१४। न मैं करता हूँ, न अन्य करते हुएका अनुमोदन करता हूँ, मनसे तथा कायासे।१५। न मैं करता हूँ, न अन्य करते हुएका अनुमोदन करता हूँ, मनसे तथा कायासे।१६। न मैं करता हूँ, न कराता हूँ, वचनसे तथा कायासे।१७। न मैं करता हूँ, न अन्य करते हुएका अनुमोदन करता हूँ, वचनसे तथा कायासे।१८। न मैं कराता हूँ, न अन्य करते हुएका अनुमोदन करता हूँ, वचनसे तथा कायासे।१९।
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मनसा चेति २१ । न कारयामि, न कुर्वन्तमप्यन्यं समनुजानामि, मनसा चेति २२ । न करोमि, न कारयामि, वाचा चेति २३ । न करोमि, न कुर्वन्तमप्यन्यं समनुजानामि, वाचा चेति २४ । न कारयामि, न कुर्वन्तमप्यन्यं समनुजानामि, वाचा चेति २५ । न करोमि, न कारयामि, कायेन चेति २६ । न करोमि, न कुर्वन्तमप्यन्यं समनुजानामि, कायेन चेति २७ । न कारयामि, न कुर्वन्तमप्यन्यं समनुजानामि, कायेन चेति २८ । न करोमि मनसा च वाचा च कायेन चेति २९ । न कारयामि मनसा च वाचा च कायेन चेति ३० । न कुर्वन्तमप्यन्यं समनुजानामि मनसा च वाचा च कायेन चेति ३१ । न करोमि मनसा च वाचा चेति ३२ । न कारयामि मनसा च वाचा चेति ३३ । न कुर्वन्तमप्यन्यं समनुजानामि मनसा च वाचा चेति ३४ । न करोमि मनसा च कायेन चेति ३५ । न कारयामि मनसा च कायेन चेति ३६ । न कुर्वन्तमप्यन्यं समनुजानामि मनसा च कायेन चेति ३७ । न करोमि वाचा च कायेन चेति ३८ । न कारयामि वाचा च कायेन चेति ३९ । न कुर्वन्तमप्यन्यं समनुजानामि वाचा च कायेन चेति ४० । न करोमि मनसा चेति ४१ । न कारयामि मनसा अनुमोदन करता हूँ, मनसे।२१। न मैं कराता हूँ, न अन्य करते हुएका अनुमोदन करता हूँ, मनसे।२२। न मैं करता हूँ, न कराता हूँ, वचनसे।२३। न मैं करता हूँ, न अन्य करते हुएका अनुमोदन करता हूँ, वचनसे।२४। न मैं कराता हूँ, न अन्य करते हुएका अनुमोदन करता हूँ, वचनसे।२५। न मैं करता हूँ, न कराता हूँ, कायासे।२६। न मैं करता हूँ, न अन्य करते हुएका अनुमोदन करता हूँ, कायासे।२७। न मैं कराता हूँ, न अन्य करते हुएका अनुमोदन करता हूँ, कायासे।२८।
न मैं करता हूँ, मनसे, वचनसे तथा कायासे।२९। न मैं कराता हूँ मनसे, वचनसे तथा कायासे।३०। मैं अन्य करते हुएका अनुमोदन नहीं करता मनसे, वचनसे तथा कायासे।३१।
न तो मैं करता हूँ मनसे तथा वचनसे।३२। न मैं कराता हूँ मनसे तथा वचनसे।३३। न मैं अन्य करते हुएका अनुमोदन करता हूँ, मनसे तथा वचनसे।३४। न मैं करता हूँ मनसे तथा कायासे।३५। न मैं कराता हूँ मनसे तथा कायासे।३६। न मैं अन्य करते हुएका अनुमोदन करता हूँ मनसे तथा कायासे।३७। न मैं करता हूँ वचनसे तथा कायासे।३८। न मैं कराता हूँ वचनसे तथा कायासे।३९। न मैं अन्य करते हुएका अनुमोदन करता हूँ वचनसे तथा कायासे।४०।
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चेति ४२ । न कुर्वन्तमप्यन्यं समनुजानामि मनसा चेति ४३ । न करोमि वाचा चेति ४४ । न कारयामि वाचा चेति ४५ । न कुर्वन्तमप्यन्यं समनुजानामि वाचा चेति ४६ । न करोमि कायेन चेति ४७ । न कारयामि कायेन चेति ४८ । न कुर्वन्तमप्यन्यं समनुजानामि कायेन चेति ४९ ।
अनुमोदन करता हूँ।४३। न मैं करता हूँ वचनसे।४४। न मैं कराता हूँ वचनसे।४५। न मैं अन्य करते हुएका अनुमोदन करता हूँ वचनसे।४६। न मैं करता हूँ कायासे।४७। न मैं कराता हूँ कायासे।४८। न मैं अन्य करते हुएका अनुमोदन करता हूँ कायासे।४९।
श्लोकार्थ : — (निश्चय चारित्रको अंगीकार करनेवाला कहता है कि – ) [मोह-विलास- विजृम्भितम् इदम् उदयत् कर्म ] मोहके विलाससे फै ला हुआ जो यह उदयमान (उदयमें आता हुआ) कर्म [सकलम् आलोच्य ] उस सबकी आलोचना करके ( – उन सर्व कर्मोंकी आलोचना करके – ) [निष्कर्मणि चैतन्य-आत्मनि आत्मनि आत्मना नित्यम् वर्ते ] मैं निष्कर्म (अर्थात् सर्व कर्मोंसे रहित) चैतन्यस्वरूप आत्मामें आत्मासे ही निरन्तर वर्त रहा हूँ।
भावार्थ : — वर्तमान कालमें कर्मका उदय आता है, उसके विषयमें ज्ञानी यह विचार करता है कि — पहले जो कर्म बांधा था उसका यह कार्य है, मेरा तो यह कार्य नहीं। मैं इसका कर्ता नहीं हूँ, मै तो शुद्धचैतन्यमात्र आत्मा हूँ। उसकी दर्शनज्ञानरूप प्रवृत्ति है। उस दर्शनज्ञानरूप प्रवृत्तिके द्वारा मैं इस उदयागत कर्मका देखने-जाननेवाला हूँ। मैं अपने स्वरूपमें ही प्रवर्तमान हूँ। ऐसा अनुभव करना ही निश्चयचारित्र है।२२७।