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न किञ्चित् अपि भणितः ] तुझसे कुछ भी नहीं कहा है; [अबुद्धः ] तू अज्ञानी होता हुआ [किं
रुष्यसि ] क्यों रोष करता है ?
होकर), [श्रोत्रविषयम् आगतं शब्दम् ] श्रोत्र-इन्द्रियके विषयमें आये हुए शब्दको [विनिर्ग्रहीतुं न
एति ] ग्रहण करनेको (
[चक्षुर्विषयम् आगतं ] चक्षु-इन्द्रियके विषयमें आये हुए [रूपम् ] रूपको [विनिर्ग्रहीतुं न एति ]
ग्रहण करनेको नहीं जाता
गंधम् ] ध्राणइन्द्रियके विषयमें आई हुई गंधको [विनिर्ग्रहीतुं न एति ] (अपने स्थानसे च्युत होकर)
ग्रहण करने नहीं जाता
रसम् ] रसना-इन्द्रियके विषयमें आये हुये रसको (अपने स्थानसे च्युत होकर), [विनिर्ग्रहीतुं न
एति ] ग्रहण करने नहीं जाता
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आगतं स्पर्शम् ] कायके (-स्पर्शेन्द्रियके) विषयमें आये हुए स्पर्शको (अपने स्थानसे च्युत
होकर), [विनिर्ग्रहीतुं न एति ] ग्रहण करने नहीं जाता
होकर), [बुद्धिविषयम् आगतं तु गुणम् ] बुद्धिके विषयमें आये हुए गुणको [विनिर्ग्रहीतुं न एति ]
ग्रहण करने नहीं जाता
होकर), [बुद्धिविषयम् आगतं द्रव्यम् ] बुद्धिके विषयमें आये हुए द्रव्यको [विनिर्ग्रहीतुं न एति ]
ग्रहण करने नहीं जाता
(कल्याणकारी बुद्धिको, सम्यग्ज्ञानको) न प्राप्त हुआ स्वयं [परस्य विनिर्ग्रहमनाः ] परको ग्रहण
करनेका मन करता है
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यथा तदसन्निधाने तथा तत्सन्निधानेऽपि स्वरूपेणैव प्रकाशते
विक्रियायै कल्प्यते
इति स्वज्ञाने नात्मानं प्रयोजयन्ति, न चात्माप्ययःकान्तोपलकृष्टायःसूचीवत् स्वस्थानात्प्रच्युत्य तान्
ज्ञातुमायाति; किन्तु वस्तुस्वभावस्य परेणोत्पादयितुमशक्यत्वात् परमुत्पादयितुमशक्त त्वाच्च यथा
तदसन्निधाने तथा तत्सन्निधानेऽपि स्वरूपेणैव जानीते
मुझे प्रकाशित कर’, और दीपक भी लोहचुम्बक
इसलिये, दीपक जैसे बाह्यपदार्थकी असमीपतामें अपने स्वरूपसे ही प्रकाशता है
प्रकाशता है ऐसे दीपकको, वस्तुस्वभावसे ही विचित्र परिणतिको प्राप्त होता हुआ मनोहर या
अमनोहर घटपटादि बाह्यपदार्थ किंचित्मात्र भी विक्रिया उत्पन्न नहीं करता
सूंघ, तू मुझे चख, तू मुझे स्पर्श कर, तू मुझे जान,’ और आत्मा भी लोहचुम्बक-पाषाणसे
खींची गई लोहेकी सुईकी भाँति अपने स्थानसे च्युत होकर उन्हें (
वस्तुस्वभाव परको उत्पन्न नहीं कर सकता इसलिये, आत्मा जैसे बाह्य पदार्थोंकी असमीपतामें
(अपने स्वरूपसे ही जानता है) उसीप्रकार बाह्यपदार्थोंकी समीपतामें भी अपने स्वरूपसे ही
जानता है
उत्पन्न नहीं करते
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यायात्कामपि विक्रियां तत इतो दीपः प्रकाश्यादिव
रागद्वेषमयीभवन्ति सहजां मुंचन्त्युदासीनताम्
करनेके लिये (
जानता है
प्रकाशित होनेवाले दीपकको घटपटादि पदार्थ विकार नहीं करते
द्रव्यको जानकर, उन्हें अच्छा बुरा मानकर राग-द्वेष करता है, वह अज्ञान ही है
भी विक्रियाको प्राप्त नहीं होता, [दीपः प्रकाश्यात् इव ] जैसे दीपक प्रकाश्य (
[किम् सहजाम् उदासीनताम् मुंचन्ति, रागद्वेषमयीभवन्ति ] अपनी सहज उदासीनताको क्यों छोड़ते
हैं तथा रागद्वेषमय क्यों होते हैं ? (इसप्रकार आचार्यदेवने सोच किया है
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पूर्वागामिसमस्तकर्मविकला भिन्नास्तदात्वोदयात्
विन्दन्ति स्वरसाभिषिक्त भुवनां ज्ञानस्य संचेतनाम्
रहता ?’ इस प्रकार आचार्यदेवने जो सोच किया है सो उचित ही है, क्योंकि जब तक शुभ राग है तब
तक प्राणियोंको अज्ञानसे दुःखी देखकर करुणा उत्पन्न होती है और उससे सोच भी होता है
[पूर्व-आगामि-समस्त-कर्म-विकलाः ] जो भूतकालके तथा भविष्यकालके समस्त कर्मोंसे रहित
हैं और [तदात्व-उदयात् भिन्नाः ] जो वर्तमान कालके कर्मोदयसे भिन्न हैं, [दूर-आरूढ-चरित्र-
वैभव-बलात् ज्ञानस्य सञ्चेतनाम् विन्दन्ति ] वे (
लोकको सींचा है
होकर चारित्र अंगीकार करते हैं
है और उसका श्रद्धान (प्रतीति) दृढ़ करता है; यह तो अविरत, देशविरत, और प्रमत्त अवस्थामें
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चढ़कर, केवलज्ञान उत्पन्न करके, साक्षात्
आत्मा प्रत्याख्यान है और जो उदयमें आये हुए वर्तमान कर्मका ममत्व छोड़े वह आत्मा आलोचना
है; सदा ऐसे प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान और आलोचनापूर्वक प्रवर्तमान आत्मा चारित्र है
परिणमन ज्ञानके स्वामित्वभावसे होता है, कर्मके और कर्मफलके स्वामित्वभावसे नहीं होता
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जो आत्मा [आत्मानं तु ] अपनेको [निवर्तयति ] दूर रखता है [सः ] वह आत्मा [प्रतिक्रमणम् ]
प्रतिक्रमण करता है
[यः ] जो आत्मा [चेतयते ] चेतता है
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उत्तरकर्मकारणेभ्यो भावेभ्योऽत्यन्तं निवृत्तः, वर्तमानं कर्मविपाकमात्मनोऽत्यन्तभेदेनोपलभमानः,
स्वस्मिन्नेव खलु ज्ञानस्वभावे निरन्तरचरणाच्चारित्रं भवति
चेतयिता ] वह आत्मा [खलु ] वास्तवमें [चरित्रं भवति ] चारित्र है
(भविष्यकालके कर्मोंको) प्रत्याख्यानरूप करता हुआ प्रत्याख्यान है; वही आत्मा, वर्तमान
कर्मविपाकको अपनेसे (
करता हुआ, पूर्वकर्मोंके कार्यरूप और उत्तरकर्मोंके कारणरूप भावोंसे अत्यन्त निवृत्त होता हुआ,
वर्तमान कर्मविपाकको अपनेसे (आत्मासे) अत्यन्त भेदपूर्वक अनुभव करता हुआ, अपनेमें ही
करना सो प्रत्याख्यान है और वर्तमान दोषसे आत्माको पृथक् करना सो आलोचना है
त्रिकालके कर्मोंसे अपनेको भिन्न जानता है, श्रद्धा करता है और अनुभव करता है, वह आत्मा
स्वयं ही प्रतिक्रमण है, स्वयं ही प्रत्याख्यान है और स्वयं ही आलोचना है
निश्चयचारित्र है
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प्रकाशते ज्ञानमतीव शुद्धम्
बोधस्य शुद्धिं निरुणद्धि बन्धः
होता है
संचेतनासे [बन्धः धावन् ] बंध दौड़ता हुआ [बोधस्य शुद्धिं निरुणद्धि ] ज्ञानकी शुद्धताको रोकता
है, अर्थात् ज्ञानकी शुद्धता नहीं होने देता
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फि रसे भी [अष्टविधम् तत् ] आठ प्रकारके कर्मको
तत् ] आठ प्रकारके कर्मको
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कर्मफलचेतना
नाटयित्वा स्वभावभूता भगवती ज्ञानचेतनैवैका नित्यमेव नाटयितव्या
कर्मचेतना है; और ज्ञानसे अन्यमें ऐसा चेतना कि ‘इसे मैं भोगता हूँ’, वह कर्मफलचेतना है
उससे कर्मोका बन्ध होता है)
और
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७
मे दुष्कृतमिति ९
तब जीवने उसके प्रतिका ममत्व छोड़ा, यही उसका मिथ्या करना है)
मिथ्या हो
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दुष्कृतमिति १९
मेरा दुष्कृत मिथ्या हो
मेरा दुष्कृत मिथ्या हो
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हो
हो
हो
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हो
हो
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एक लगाया है
लगाये हैं
फि र मन, वचन, कायमेंसे दो लिये हैं यह बतानेके लिये ‘३’ के पास ‘२’ का अंक रखना चाहिए
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कर्मोसें रहित) चैतन्यस्वरूप आत्मामें आत्मासे ही (
अनुभव करे, इसकी यह विधि है
उसे भोगनेका अभिप्राय नहीं रहा; उस समय, भूत कालमें जो धन कमाया था वह नहीं
कमानेके समान ही है; इसीप्रकार, जीवने पहले कर्म बन्ध किया था; फि र जब उसे
अहितरूप जानकर उसके प्रति ममत्व छोड़ दिया और उसके फलमें लीन न हुआ, तब
भूतकालमें जो कर्म बाँधा था वह नहीं बाँधनेके समान मिथ्या ही है
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हुआ) कर्म [सकलम् आलोच्य ] उस सबकी आलोचना करके (