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त्रैकालिकं शुद्धनयावलम्बी
श्चिन्मात्रमात्मानमथावलम्बे
(अर्थात् समस्त कर्मोसे रहित) चैतन्यस्वरूप आत्मामें आत्मासे ही (
द्वारा निष्प्रमाद दशाको प्राप्त होकर श्रेणी चढ़कर, केवलज्ञान उत्पन्न करनेके सन्मुख होता है
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मोहः ] विलीन मोह (अर्थात् जिसका मिथ्यात्व नष्ट हो गया है) ऐसा मैं [अथ ] अब [विकारैः
रहितं चिन्मात्रम् आत्मानम् ] (सर्व) विकारोंसे रहित चैतन्यमात्र आत्माका [अवलम्बे ] अवलम्बन
करता हूँ
बिना ही, [विगलन्तु ] खिर जायें; [अहम् चैतन्य-आत्मानम् आत्मानम् अचलं सञ्चेतये ] मैं
(अपने) चैतन्यस्वरूप आत्माका निश्चलतया संचेतन
खिर जायें; मैं अपने चैतन्यस्वरूप आत्मामें लीन होता हुआ उसका ज्ञाता-द्रष्टा ही होऊँ
अनुभव साक्षात् होता है
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हूँ
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संचेतये २०
हूँ
हूँ
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संचेतये ३२
करता हूँ
ही संचेतन करता हूँ
ही संचेतन करता हूँ
हूँ
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करता हूँ
करता हूँ
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हूँ
हूँ
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करता हूँ
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हूँ
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सर्वक्रियान्तरविहारनिवृत्तवृत्तेः
कालावलीयमचलस्य वहत्वनन्ता
कर्मोंका फल भोगनेके त्यागकी भावना करके, एक चैतन्यस्वरूप आत्माको ही भोगना शेष रह
जाता है
आत्मामें उपयोग लगाये और शुद्धोपयोगरूप हो, तब निश्चयचारित्ररूप शुद्धोपयोगभावसे श्रेणि
चढ़कर केवलज्ञान उत्पन्न करता है
वृत्तेः ] मैं चैतन्यलक्षण आत्मतत्त्वको अतिशयतया भोगता हूँ और उसके अतिरिक्त अन्य सर्व
क्रियामें विहारसे मेरी वृत्ति निवृत्त है (अर्थात् आत्मतत्त्वके उपभोगसे अतिरिक्त अन्य जो उपयोगकी
क्रिया
जो कि [अनन्ता ] प्रवाहरूपसे अनन्त है वह, [वहतु ] आत्मतत्त्वके उपभोगमें ही बहती रहे
(उपयोगकी प्रवृत्ति अन्यमें कभी भी न जाये)
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भुंक्ते फलानि न खलु स्वत एव तृप्तः
निष्कर्मशर्ममयमेति दशान्तरं सः
प्रस्पष्टं नाटयित्वा प्रलयनमखिलाज्ञानसंचेतनायाः
पूर्णं कृत्वा स्वभावं स्वरसपरिगतं ज्ञानसंचेतनां स्वां
सानन्दं नाटयन्तः प्रशमरसमितः सर्वकालं पिबन्तु
और [खलु स्वतः एव तृप्तः ] वास्तवमें अपनेसे ही (
रमणीय है और भविष्यकालमें भी जिसका फल रमणीय है ऐसे निष्कर्म
स्वाधीन सुखमयदशाको प्राप्त होता है)
सदाकाल आनन्दरूप रहो’
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विना कृतेरेकमनाकुलं ज्वलत्
विवेचितं ज्ञानमिहावतिष्ठते
अत्यन्त विरक्त भावको निरन्तर भा कर, [अखिल-अज्ञान-संचेतनायाः प्रलयनम् प्रस्पष्टं नाटयित्वा ]
(इस भाँति) समस्त अज्ञानचेतनाके नाशको स्पष्टतया नचाकर, [स्व-रस-परिगतं स्वभावं पूर्णं
कृत्वा ] निजरससे प्राप्त अपने स्वभावको पूर्ण करके, [स्वां ज्ञानसञ्चेतनां सानन्दं नाटयन्तः इतः
सर्व-कालं प्रशमरसम् पिबन्तु ] अपनी ज्ञानचेतनाको आनन्द पूर्वक नचाते हुए अबसे सदाकाल
प्रशमरसको पिओ अर्थात् कर्मके अभावरूप आत्मिकरसको
विना ] पदार्थके विस्तारके साथ गुथित होनेसे (
अनाकुलं ज्वलत् ] एक ज्ञानक्रियामात्र, अनाकुल (
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