Samaysar (Hindi). Kalash: 228-234 ; Gatha: 390-395.

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न करिष्यामि, न कारयिष्यामि, न कुर्वन्तमप्यन्यं समनुज्ञास्यामि, मनसा च वाचा
च कायेन चेति १ न करिष्यामि, न कारयिष्यामि, न कुर्वन्तमप्यन्यं समनुज्ञास्यामि, मनसा
च वाचा चेति २ न करिष्यामि, न कारयिष्यामि, न कुर्वन्तमप्यन्यं समनुज्ञास्यामि, मनसा
च कायेन चेति ३ न करिष्यामि, न कारयिष्यामि, न कुर्वन्तमप्यन्यं समनुज्ञास्यामि, वाचा
च कायेन चेति ४ न करिष्यामि, न कारयिष्यामि, न कुर्वन्तमप्यन्यं समनुज्ञास्यामि, मनसा
चेति ५ न करिष्यामि, न कारयिष्यामि, न कुर्वन्तमप्यन्यं समनुज्ञास्यामि, वाचा चेति ६
न करिष्यामि, न कारयिष्यामि, न कुर्वन्तमप्यन्यं समनुज्ञास्यामि, कायेन चेति ७
न करिष्यामि, न कारयिष्यामि, मनसा च वाचा च कायेन चेति ८ न करिष्यामि,
न कुर्वन्तमप्यन्यं समनुज्ञास्यामि, मनसा च वाचा च कायेन चेति ९ न कारयिष्यामि,
न कुर्वन्तमप्यन्यं समनुज्ञास्यामि, मनसा च वाचा च कायेन चेति १० न करिष्यामि,
न कारयिष्यामि, मनसा च वाचा चेति ११ न करिष्यामि, न कुर्वन्तमप्यन्यं
समनुज्ञास्यामि, मनसा च वाचा चेति १२ न कारयिष्यामि, न कुर्वन्तमप्यन्यं
मैं (भविष्यमें कर्म) न तो करूँगा, न कराऊँगा, न अन्य करते हुएका अनुमोदन
करूँगा, मनसे, वचनसे तथा कायसे।१। मैं (भविष्यमें कर्म) न तो करूँगा, न कराऊँगा,
न अन्य करते हुएका अनुमोदन करूँगा, मनसे तथा वचनसे।२। मैं न तो करूँगा, न
कराऊँगा, न अन्य करते हुएका अनुमोदन करूँगा, मनसे तथा कायसे।३। मैं न तो करूँगा,
न कराऊँगा, न अन्य करते हुएका अनुमोदन करूँगा, वचनसे तथा कायसे।४।
मैं न तो करूँगा, न कराऊँगा, न अन्य करते हुएका अनुमोदन करूँगा, मनसे।५।
मैं न तो करूँगा, न कराऊँगा, न अन्य करते हुएका अनुमोदन करूँगा, वचनसे।६। मैं न
तो करूँगा, न कराऊँगा, न अन्य करते हुएका अनुमोदन करूँगा, कायसे।७।
मैं न तो करूँगा, न कराऊँगा, मनसे, वचनसे तथा कायसे।८। मैं न तो करूँगा,
न अन्य करते हुएका अनुमोदन करूँगा, मनसे, वचनसे तथा कायसे।९। मैं न तो कराऊँगा,
न अन्य करते हुएका अनुमोदन करूँगा, मनसे, वचनसे तथा कायसे।१०।
मैं न तो करूँगा, न कराऊँगा, मनसे तथा वचनसे।११। मैं न तो करूँगा, न अन्य
करते हुएका अनुमोदन करूँगा, मनसे तथा वचनसे।१२। मैं न तो कराऊँगा, न अन्य करते

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समनुज्ञास्यामि, मनसा च वाचा चेति १३ न करिष्यामि, न कारयिष्यामि,
मनसा च कायेन चेति १४ न करिष्यामि, न कुर्वन्तमप्यन्यं समनुज्ञास्यामि, मनसा
च कायेन चेति १५ न कारयिष्यामि, न कुर्वन्तमप्यन्यं समनुज्ञास्यामि, मनसा चग
कायेन चेति १६ न करिष्यामि, न कारयिष्यामि, वाचा च कायेन चेति १७
न करिष्यामि, न कुर्वन्तमप्यन्यं समनुज्ञास्यामि, वाचा च कायेन चेति १८
न कारयिष्यामि, न कुर्वन्तमप्यन्यं समनुज्ञास्यामि, वाचा च कायेन चेति १९
न करिष्यामि, न कारयिष्यामि, मनसा चेति २० न करिष्यामि, न कुर्वन्तमप्यन्यं
समनुज्ञास्यामि, मनसा चेति २१ न कारयिष्यामि, न कुर्वन्तमप्यन्यं समनुज्ञास्यामि,
मनसा चेति २२ न करिष्यामि, न कारयिष्यामि, वाचा चेति २३ न करिष्यामि,
न कुर्वन्तमप्यन्यं समनुज्ञास्यामि, वाचा चेति २४ न कारयिष्यामि, न
कुर्वन्तमप्यन्यं समनुज्ञास्यामि, वाचा चेति २५ न करिष्यामि, न कारयिष्यामि, कायेन
चेति २६ न करिष्यामि, न कुर्वन्तमप्यन्यं समनुज्ञास्यामि, कायेन चेति २७
न कारयिष्यामि, न कुर्वन्तमप्यन्यं समनुज्ञास्यामि, कायेन चेति २८ न करिष्यामि,
हुएका अनुमोदन करूँगा, मनसे तथा वचनसे।१३। मैं न तो करूँगा, न कराऊँगा, मनसे तथा
कायसे।१४। मैं न तो करूँगा, न अन्य करते हुएका अनुमोदन करूँगा, मनसे तथा
कायसे।१५। मैं न तो कराऊँगा, न अन्य करते हुएका अनुमोदन करूँगा, मनसे तथा
कायसे।१६। मैं न तो करूँगा, न कराऊँगा, वचनसे तथा कायसे१७ मैं न तो करूँगा,
न अन्य करते हुएका अनुमोदन करूँगा, वचनसे तथा कायसे।१८। मैं न तो कराऊँगा, न
अन्य करते हुएका अनुमोदन करूँगा, वचनसे तथा कायसे।१९।
मैं न तो करूँगा, न कराऊँगा, मनसे।२०। मैं न तो करूँगा, न अन्य करते हुएका
अनुमोदन करूँगा, मनसे।२१। मैं न तो कराऊँगा, न अन्य करते हुएका अनुमोदन करूँगा,
मनसे।२२। मैं न तो करूँगा, न कराऊँगा, वचनसे२३ मैं न तो करूँगा, न अन्य करते
हुएका अनुमोदन करूँगा, वचनसे।२४। मैं न तो कराऊँगा, न अन्य करते हुएका अनुमोदन
करूँगा, वचनसे।२५। मैं न तो करूँगा, न कराऊँगा, कायसे२६ मैं न तो करूँगा, न अन्य
करते हुएका अनुमोदन करूँगा, कायसे।२७। मैं न तो कराऊँगा, न अन्य करते हुएका
अनुमोदन करूँगा, कायसे।२८।

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मनसा च वाचा च कायेन चेति २९ न कारयिष्यामि, मनसा च वाचा च कायेन
चेति ३० न कुर्वन्तमप्यन्यं समनुज्ञास्यामि, मनसा च वाचा च कायेन चेति ३१
करिष्यामि, मनसा च वाचा चेति ३२ न कारयिष्यामि, मनसा च वाचा चेति ३३
न कुर्वन्तमप्यन्यं समनुज्ञास्यामि मनसा च वाचा चेति ३४ न करिष्यामि, मनसा च
कायेन चेति ३५ न कारयिष्यामि, मनसा च कायेन चेति ३६ न कुर्वन्तमप्यन्यं
समनुज्ञास्यामि मनसा च कायेन चेति ३७ न करिष्यामि, वाचा च कायेन चेति ३८
न कारयिष्यामि वाचा च कायेन चेति ३९ न कुर्वन्तमप्यन्यं समनुज्ञास्यामि, वाचा च
कायेन चेति ४० न करिष्यामि मनसा चेति ४१ न कारयिष्यामि, मनसा चेति ४२
न कुर्वन्तमप्यन्यं समनुज्ञास्यामि मनसा चेति ४३ न करिष्यामि, वाचा चेति ४४
कारयिष्यामि वाचा चेति ४५ न कुर्वन्तमप्यन्यं समनुज्ञास्यामि वाचा चेति ४६
करिष्यामि कायेन चेति ४७ न कारयिष्यामि कायेन चेति ४८ न कुर्वन्तमप्यन्यं
समनुज्ञास्यामि कायेन चेति ४९
मैं न तो करूँगा मनसे, वचनसे तथा कायसे।२९। मैं न तो कराऊँगा मनसे, वचनसे
तथा कायसे।३०। मैं न तो अन्य करते हुएका अनुमोदन करूँगा मनसे, वचनसे तथा
कायसे।३१।
मैं न तो करूँगा मनसे तथा वचनसे।३२। मैं न तो कराऊँगा मनसे तथा
वचनसे।३३। मैं न अन्य करते हुएका अनुमोदन करूँगा मनसे तथा वचनसे३४ मैं न तो
करूँगा मनसे तथा कायसे।३५। मैं न तो कराऊँगा मनसे तथा कायसे३६ मैं न तो अन्य
करते हुएका अनुमोदन करूँगा मनसे तथा कायसे।३७। मैं न तो करूँगा वचनसे तथा
कायसे।३८। मैं न तो कराऊँगा वचनसे तथा कायसे३९ मैं न तो अन्य करते हुएका
अनुमोदन करूँगा वचनसे तथा कायसे।४०।
मैं न तो करूँगा मनसे।४१। मैं न तो कराऊँगा मनसे४२ मैं न अन्य करते हुएका
अनुमोदन करूँगा मनसे।४३। मैं न तो करूँगा वचनसे४४ मैं न तो कराऊँगा वचनसे४५
मैं न तो अन्य करते हुएका अनुमोदन करूँगा वचनसे।४६। मैं न तो करूँगा कायसे४७
मैं न तो कराऊँगा कायसे।४८। मैं न अन्य करते हुएका अनुमोदन करूँगा कायसे४९
(इसप्रकार, प्रतिक्रमणके समान ही प्रत्याख्यानमें भी ४९ भंग कहे)
अब, इस अर्थका कलशरूप काव्य कहते हैं :

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(आर्या)
प्रत्याख्याय भविष्यत्कर्म समस्तं निरस्तसम्मोहः
आत्मनि चैतन्यात्मनि निष्कर्मणि नित्यमात्मना वर्ते ।।२२८।।
इति प्रत्याख्यानकल्पः समाप्तः
(उपजाति)
समस्तमित्येवमपास्य कर्म
त्रैकालिकं शुद्धनयावलम्बी
विलीनमोहो रहितं विकारै-
श्चिन्मात्रमात्मानमथावलम्बे
।।२२९।।
श्लोकार्थ :(प्रत्याख्यान करनेवाला ज्ञानी कहता है कि :) [भविष्यत् समस्तं कर्म
प्रत्याख्याय ] भविष्यके समस्त कर्मोंका प्रत्याख्यान (त्याग) करके, [निरस्त-सम्मोहः निष्क र्मणि
चैतन्य-आत्मनि आत्मनि आत्मना नित्यम् वर्ते ] जिसका मोह नष्ट हो गया है ऐसा मैं निष्कर्म
(अर्थात् समस्त कर्मोसे रहित) चैतन्यस्वरूप आत्मामें आत्मासे ही (
अपनेसे ही) निरन्तर वर्त
रहा हूँ
भावार्थ :निश्चयचारित्रमें प्रत्याख्यान विधान ऐसा है किसमस्त आगामी कर्मोंसे रहित,
चैतन्यकी प्रवृत्तिरूप (अपने) शुद्धोपयोगमें रहना सो प्रत्याख्यान है इससे ज्ञानी आगामी समस्त
कर्मोंका प्रत्याख्यान करके अपने चैतन्यस्वरूपमें रहता है
यहाँ तात्पर्य इसप्रकार जानना चाहिएःव्यवहारचारित्रमें तो प्रतिज्ञामें जो दोष लगता है
उसका प्रतिक्रमण, आलोचना तथा प्रत्याख्यान होता है यहाँ निश्चयचारित्रकी प्रधानतासे कथन है
इसलिये शुद्धोपयोगसे विपरीत सर्व कर्म आत्माके दोष स्वरूप हैं उन समस्त कर्मचेतनास्वरूप
परिणामोंकातीनों कालके कर्मोंकाप्रतिक्रमण, आलोचना तथा प्रत्याख्यान करके ज्ञानी सर्व
कर्मचेतनासे भिन्न अपने शुद्धोपयोगरूप आत्माके ज्ञानश्रद्धान द्वारा और उसमें स्थिर होनेके विधान
द्वारा निष्प्रमाद दशाको प्राप्त होकर श्रेणी चढ़कर, केवलज्ञान उत्पन्न करनेके सन्मुख होता है
यह,
ज्ञानीका कार्य है।२२८।
इसप्रकार प्रत्याख्यानकल्प समाप्त हुआ
अब, समस्त कर्मोके संन्यास (त्याग) की भावनाको नचानेके सम्बन्धका कथन समाप्त
करते हुए, कलशरूप काव्य कहते हैं :
श्लोकार्थ :(शुद्धनयका अवलंबन करनेवाला कहता है कि) [इति एवम् ] पूर्वोक्त

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अथ सकलकर्मफलसंन्यासभावनां नाटयति
(आर्या)
विगलन्तु कर्मविषतरुफलानि मम भुक्ति मन्तरेणैव
संचेतयेऽहमचलं चैतन्यात्मानमात्मानम् ।।२३०।।
नाहं मतिज्ञानावरणीयकर्मफलं भुंजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये १ नाहं
प्रकारसे [त्रैकालिकं समस्तम् कर्म ] तीनोंकालके समस्त कर्मोंको [अपास्य ] दूर करकेछोड़कर,
[शुद्धनय-अवलंबी ] शुद्धनयावलंबी (अर्थात् शुद्धनयका अवलंबन करनेवाला) और [विलीन-
मोहः ] विलीन मोह (अर्थात् जिसका मिथ्यात्व नष्ट हो गया है) ऐसा मैं [अथ ] अब [विकारैः
रहितं चिन्मात्रम् आत्मानम् ]
(सर्व) विकारोंसे रहित चैतन्यमात्र आत्माका [अवलम्बे ] अवलम्बन
करता हूँ
।२२९।
अब, समस्त कर्मफल संन्यासकी भावनाको नचाते हैं :
(उसमें प्रथम, उस कथनके समुच्चय-अर्थका काव्य कहते हैं :)
श्लोकार्थ :(समस्त कर्मफलकी संन्यासभावनाका करनेवाला कहता है कि)
[कर्म-विष-तरु-फलानि ] कर्मरूपी विषवृक्षके फल [मम भुक्तिम् अन्तरेण एव ] मेरे द्वारा भोगे
बिना ही, [विगलन्तु ] खिर जायें; [अहम् चैतन्य-आत्मानम् आत्मानम् अचलं सञ्चेतये ] मैं
(अपने) चैतन्यस्वरूप आत्माका निश्चलतया संचेतन
अनुभव करता हूँ
भावार्थ :ज्ञानी कहता है किजो कर्म उदयमें आता है उसके फलको मैं
ज्ञाताद्रष्टारूपसे जानता-देखता हूँ, उसका भोक्ता नहीं होता, इसलिये मेरे द्वारा भोगे बिना ही वे कर्म
खिर जायें; मैं अपने चैतन्यस्वरूप आत्मामें लीन होता हुआ उसका ज्ञाता-द्रष्टा ही होऊँ
यहाँ इतना विशेष जानना चाहिए किअविरत, देशविरत तथा प्रमत्तसंयत दशामें तो ऐसा
ज्ञान-श्रद्धान ही प्रधान है, और जब जीव अप्रमत्त दशाको प्राप्त होकर श्रेणि चढ़ता है तब यह
अनुभव साक्षात् होता है
।।२३०।।
(अब, टीकामें समस्त कर्मफलके संन्यासकी भावनाको नचाते हैं :)
मैं (ज्ञानी होनेसे) मतिज्ञानावरणीयकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही
संचेतन करता हूँ अर्थात् एकाग्रतया अनुभव करता हूँ (यहाँ ‘चेतना’ अर्थात् अनुभव करना,
वेदना, भोगना ‘सं’ उपसर्ग लगनेसे, ‘संचेतना’ अर्थात् ‘एकाग्रतया अनुभव करना’ ऐसा अर्थ
यहाँ समस्त पाठोंमें समझना चाहिये)।१। मैं श्रुतज्ञानावरणीयकर्मके फलको नहीं भोगता,

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श्रुतज्ञानावरणीयकर्मफलं भुंजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये २ नाहमवधिज्ञानावरणीयकर्मफलं
भुंजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये ३ नाहं मनःपर्ययज्ञानावरणीयकर्मफलं भुंजे,
चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये ४ नाहं केवलज्ञानावरणीयकर्मफलं भुंजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव
संचेतये ५
नाहं चक्षुर्दर्शनावरणीयकर्मफलं भुंजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये ६
नाहमचक्षुर्दर्शनावरणीयकर्मफलं भुंजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये ७ नाहमवधिदर्शना-
वरणीयकर्मफलं भुंजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये ८ नाहं केवलदर्शनावरणीय-
कर्मफलं भुंजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये ९ नाहं निद्रादर्शनावरणीयकर्मफलं
भुंजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये १० नाहं निद्रानिद्रादर्शनावरणीयकर्मफलं भुंजे,
चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये ११ नाहं प्रचलादर्शनावरणीयकर्मफलं भुंजे, चैतन्यात्मा-
नमात्मानमेव संचेतये १२ नाहं प्रचलाप्रचलादर्शनावरणीयकर्मफलं भुंजे, चैतन्यात्मा-
नमात्मानमेव संचेतये १३ नाहं स्त्यानगृद्धिदर्शनावरणीयकर्मफलं भुंजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव
संचेतये १४
70
चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतनअनुभव करता हूँ।२। मैं अवधिज्ञानावरणीयकर्मके फलको नहीं
भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ।३। मैं मनःपर्यय- ज्ञानावरणीयकर्मके फलको
नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ।४। मैं केवलज्ञानावरणीयकर्मके फलको
नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ।५।
मैं चक्षुर्दर्शनावरणीयकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन
करता हूँ।६। मैं अचक्षुर्दर्शनावरणीयकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही
संचेतन करता हूँ।७। मैं अवधिदर्शनावरणीयकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप
आत्माका ही संचेतन करता हूँ ।८। मैं केवलदर्शनावरणीयकर्मके फलको नहीं भोगता,
चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ ।९। मैं निद्रादर्शनावरणीयकर्मके फलको नहीं
भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ ।१०। मैं निद्रानिद्रादर्शनावरणीयकर्मके
फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ ।११। मैं
प्रचलादर्शनावरणीयकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता
हूँ
।१२। मैं प्रचलाप्रचलादर्शनावरणीयकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही
संचेतन करता हूँ।१३। मैं स्त्यानगृद्धिदर्शनावरणीयकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप
आत्माका ही संचेतन करता हूँ।१४।

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नाहं सातवेदनीयकर्मफलं भुंजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये १५ नाहंसातवेदनीय-
कर्मफलं भुंजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये १६
नाहं सम्यक्त्वमोहनीयकर्मफलं भुंजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये १७
नाहं मिथ्यात्वमोहनीयकर्मफलं भुंजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये १८ नाहं
सम्यक्त्वमिथ्यात्वमोहनीयकर्मफलं भुंजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये १९
नाहमनन्तानुबन्धिक्रोधकषायवेदनीयमोहनीयकर्मफलं भुंजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव
संचेतये २०
नाहमप्रत्याख्यानावरणीयक्रोधकषायवेदनीयमोहनीयकर्मफलं भुंजे,
चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये २१ नाहं प्रत्याख्यानावरणीयक्रोधकषायवेदनीयमोहनीय-
कर्मफलं भुंजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये २२ नाहं संज्वलनक्रोधकषाय-
वेदनीयमोहनीयकर्मफलं भुंजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये २३ नाहमनन्तानु-
बन्धिमानकषायवेदनीयमोहनीयकर्मफलं भुंजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये २४ नाह-
मप्रत्याख्यानावरणीयमानकषायवेदनीयमोहनीयकर्मफलं भुंजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये
मैं सातावेदनीयकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता
हूँ।१५। मैं असातावेदनीयकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता
हूँ।१६।
मैं सम्यक्त्वमोहनीयकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता
हूँ।१७। मैं मिथ्यात्वमोहनीयकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता
हूँ।१८। मैं सम्यक्त्वमिथ्यात्वमोहनीयकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही
संचेतन करता हूँ।१९। मैं अनन्तानुबन्धिक्रोधकषायवेदनीयमोहनीयकर्मके फलको नहीं भोगता,
चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ।२०। मैं अप्रत्याख्यानावरणीय-
क्रोधकषायवेदनीयमोहनीयकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता
हूँ
।२१। मैं प्रत्याख्यानावरणीयक्रोधकषायवेदनीयमोहनीयकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप
आत्माका ही संचेतन करता हूँ।२२। मैं संज्वलनक्रोधकषायवेदनीयमोहनीयकर्मके फलको नहीं
भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ।२३। मैं अनन्तानुबन्धिमान-
कषायवेदनीयमोहनीयकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता
हूँ
।२४। मैं अप्रत्याख्यानावरणीयमानकषायवेदनीयमोहनीयकर्मके फलको नहीं भोगता,
चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ।२५। मैं प्रत्याख्यानावरणीयमानकषाय-

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२५ नाहं प्रत्याख्यानावरणीयमानकषायवेदनीयमोहनीयकर्मफलं भुंजे, चैतन्यात्मान-
मात्मानमेव संचेतये २६ नाहं संज्वलनमानकषायवेदनीयमोहनीयकर्मफलं भुंजे,
चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये २७ नाहमनन्तानुबन्धिमायाकषायवेदनीयमोहनीयकर्मफलं भुंजे,
चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये २८ नाहमप्रत्याख्यानावरणीयमायाकषायवेदनीय-
मोहनीयकर्मफलं भुंजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये २९ नाहं प्रत्याख्यानावरणीय-
मायाकषायवेदनीयमोहनीयकर्मफलं भुंजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये ३० नाहं
सञ्ज्वलनमायाकषायवेदनीयमोहनीयकर्मफलं भुंजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये ३१
नाहमनन्तानुबन्धिलोभकषायवेदनीयमोहनीयकर्मफलंं भुंजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव
संचेतये ३२
नाहमप्रत्याख्यानावरणीयलोभकषायवेदनीयमोहनीयकर्मफलं भुंजे,
चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये ३३ नाहं प्रत्याख्यानावरणीयलोभकषायवेदनीय-
मोहनीयकर्मफलं भुंजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये ३४ नाहं संज्वलन-
लोभकषायवेदनीयमोहनीयकर्मफलं भुंजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये ३५ नाहं
हास्यनोकषायवेदनीयमोहनीयकर्मफलं भुंजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये ३६
नाहं रतिनोकषायवेदनीयमोहनीयकर्मफलं भुंजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये ३७ नाह-
वेदनीयमोहनीयकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ।२६। मैं
संज्वलनमानकषायवेदनीयमोहनीयकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन
करता हूँ
।२७। मैं अनन्तानुबन्धिमायाकषायवेदनीयमोहनीयकर्मके फलको नहीं भोगता,
चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ।२८। मैं अप्रत्याख्यानावरणीयमायाकषाय-
वेदनीयमोहनीयकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ।२९। मैं
प्रत्याख्यानावरणीयमायाकषायवेदनीयमोहनीयकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका
ही संचेतन करता हूँ
।३०। मैं संज्वलनमायाकषायवेदनीयमोहनीयकर्मके फलको नहीं भोगता,
चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ।३१। मैं अनन्तानुबन्धिलोभकषायवेदनीय-
मोहनीयकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ।३२। मैं
अप्रत्याख्यानावरणीयलोभकषायवेदनीयमोहनीयकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका
ही संचेतन करता हूँ
।३३। मैं प्रत्याख्यानावरणीयलोभकषायवेदनीयमोहनीयकर्मके फलको नहीं
भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ।३४। मैं संज्वलनलोभकषाय-
वेदनीयमोहनीयकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ।३५। मैं
हास्यनोकषायवेदनीयमोहनीयकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता
हूँ
।३६। मैं रतिनोकषायवेदनीयमोहनीयकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही

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मरतिनोकषायवेदनीयमोहनीयकर्मफलं भुंजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये ३८ नाहं
शोकनोकषायवेदनीयमोहनीयकर्मफलं भुंजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये ३९ नाहं
भयनोकषायवेदनीयमोहनीयकर्मफलं भुंजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये ४० नाहं
जुगुप्सानोकषायवेदनीयमोहनीयकर्मफलं भुंजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये ४१ नाहं
स्त्रीवेदनोकषायवेदनीयमोहनीयकर्मफलं भुंजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये ४२ नाहं
पुंवेदनोकषायवेदनीयमोहनीयकर्मफलं भुंजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये ४३ नाहं
नपुंसकवेदनोकषायवेदनीयमोहनीयकर्मफलं भुंजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये ४४
नाहं नरकायुःकर्मफलं भुंजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये ४५ नाहं
तिर्यगायुःकर्मफलं भुंजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये ४६ नाहं मानुषायुःकर्मफलं
भुंजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये ४७ नाहं देवायुःकर्मफलं भुंजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव
संचेतये ४८
नाहं नरकगतिनामकर्मफलं भुंजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये ४९
संचेतन करता हूँ।३७। मैं अरतिनोकषायवेदनीयमोहनीयकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप
आत्माका ही संचेतन करता हूँ।३८। मैं शोकनोकषायवेदनीयमोहनीयकर्मके फलको नहीं भोगता,
चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ।३९। मैं भयनोकषायवेदनीयमोहनीयकर्मके फलको
नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ।४०। मैं जुगुप्सानोकषाय-
वेदनीयमोहनीयकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ।४१। मैं
स्त्रीवेदनोकषायवेदनीयमोहनीयकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन
करता हूँ
।४२। मैं पुरुषवेदनोकषायवेदनीयमोहनीयकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप
आत्माका ही संचेतन करता हूँ।४३। मैं नपुंसकवेदनोकषायवेदनीयमोहनीयकर्मके फलको नहीं
भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ।४४।
मैं नरकआयुकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ।४५।
मैं तिर्यंचआयुकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ।४६। मैं
मनुष्यआयुकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन
करता हूँ
।४७। मैं देवआयुकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता
हूँ।४८।
मैं नरकगतिनामकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता

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नाहं तिर्यग्गतिनामकर्मफलं भुंजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये ५० नाहं
मनुष्यगतिनामकर्मफलं भुंजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये ५१ नाहं देवगति-
नामकर्मफलं भुंजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये ५२ नाहमेकेन्द्रियजातिनाम-
कर्मफलं भुंजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये ५३ नाहं द्वीन्द्रियजातिनामकर्मफलं
भुंजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये ५४ नाहं त्रीन्द्रियजातिनामकर्मफलं भुंजे,
चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये ५५ नाहं चतुरिन्द्रियजातिनामकर्मफलं भुंजे, चैतन्यात्मा-
नमात्मानमेव संचेतये ५६ नाहं पंचेन्द्रियजातिनामकर्मफलं भुंजे, चैतन्यात्मान-
मात्मानमेव संचेतये ५७ नाहमौदारिकशरीरनामकर्मफलं भुंजे, चैतन्यात्मानमा-
त्मानमेव संचेतये ५८ नाहं वैक्रियिकशरीरनामकर्मफलं भुंजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव
संचेतये ५९ नाहमाहारकशरीरनामकर्मफलं भुंजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये ६०
नाहं तैजसशरीरनामकर्मफलं भुंजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये ६१ नाहं कार्मण-
शरीरनामकर्मफलं भुंजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये ६२ नाहमौदारिक-
शरीरांगोपांगनामकर्मफलं भुंजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये ६३ नाहं वैक्रियिक-
हूँ।४९। मैं तिर्यंचगतिनामकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता
हूँ।५०। मैं मनुष्यगतिनामकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता
हूँ।५१। मैं देवगतिनामकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता
हूँ।५२। मैं एकेन्द्रियजातिनामकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता
हूँ।५३। मैं द्वीन्द्रियजातिनामकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता
हूँ।५४। मैं त्रीन्द्रियजातिनामकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता
हूँ।५५। मैं चतुरिन्द्रियजातिनामकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन
करता हूँ।५६। मैं पंचेन्द्रियजातिनामकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन
करता हूँ।५७। मैं औदारिकशरीरनामकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन
करता हूँ।५८। मैं वैक्रियिकशरीरनामकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही
संचेतन करता हूँ।५९। मैं आहारकशरीरनामकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका
ही संचेतन करता हूँ।६०। मैं तैजसशरीरनामकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका
ही संचेतन करता हूँ।६१। मैं कार्मणशरीरनामकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका
ही संचेतन करता हूँ।६२। मैं औदारिकशरीरअंगोपांगनामकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप
आत्माका ही संचेतन करता हूँ।६३। मैं वैक्रियिकशरीरअंगोपांगनामकर्मके फलको नहीं भोगता,

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शरीरांगोपांगनामकर्मफलं भुंजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये ६४
नाहमाहारकशरीरांगोपांगनामकर्मफलं भुंजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये ६५
नाहमौदारिकशरीरबन्धननामकर्मफलं भुंजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये ६६
नाहं वैक्रियिकशरीरबन्धननामकर्मफलं भुंजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये ६७
नाहमाहारकशरीरबन्धननामकर्मफलं भुंजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये ६८
नाहं तैजसशरीरबन्धननामकर्मफलं भुंजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये ६९
नाहं कार्मणशरीरबन्धननामकर्मफलं भुंजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये ७०
नाहमौदारिकशरीरसंघातनामकर्मफलं भुंजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये ७१
नाहं वैक्रियिकशरीरसंघातनामकर्मफलं भुंजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये ७२
नाहमाहारकशरीरसंघातनामकर्मफलं भुंजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये ७३
नाहं तैजसशरीरसंघातनामकर्मफलं भुंजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये ७४
नाहं कार्मणशरीरसंघातनामकर्मफलं भुंजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये ७५
नाहं समचतुरस्रसंस्थाननामकर्मफलं भुंजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये ७६
नाहं न्यग्रोधपरिमण्डलसंस्थाननामकर्मफलं भुंजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये ७७
चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ।६४। मैं आहारकशरीर-अंगोपांगनामकर्मके फलको
नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ।६५। मैं औदारिकशरीरबंधननामकर्मके
फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ।६६। मैं
वैक्रियिकशरीरबन्धननामकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता
हूँ
।६७। मैं आहारकशरीरबन्धननामकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन
करता हूँ।६८। मैं तैजसशरीरबन्धननामकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही
संचेतन करता हूँ।६९। मैं कार्मणशरीरबन्धननामकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप
आत्माका ही संचेतन करता हूँ।७०। मैं औदारिकशरीरसंघातनामकर्मके फलको नहीं भोगता,
चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ।७१। मैं वैक्रियिकशरीरसंघातनामकर्मके फलको नहीं
भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ।७२। मैं आहारकशरीरसंघातनामकर्मके
फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ।७३। मैं
तैजसशरीरसंघातनामकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ।७४।
मैं कार्मणशरीरसंघातनामकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता
हूँ
।७५। मैं समचतुरस्रसंस्थाननामकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन
करता हूँ।७६। मैं न्यग्रोधपरिमण्डलसंस्थाननामकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका

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नाहं स्वातिसंस्थाननामकर्मफलं भुंजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये ७८ नाहं कुब्ज-
संस्थाननामकर्मफलं भुंजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये ७९ नाहं वामनसंस्थाननामकर्मफलं
भुंजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये ८० नाहं हुण्डकसंस्थाननामकर्मफलं भुंजे,
चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये ८१ नाहं वज्रर्षभनाराचसंहनननामकर्मफलं भुंजे,
चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये ८२ नाहं वज्रनाराचसंहनननामकर्मफलं भुंजे,
चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये ८३ नाहं नाराचसंहनननामकर्मफलं भुंजे,
चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये ८४ नाहमर्धनाराचसंहनननामकर्मफलं भुंजे,
चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये ८५ नाहं कीलिकासंहनननामकर्मफलं भुंजे,
चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये ८६ नाहमसम्प्राप्तासृपाटिकासंहनननामकर्मफलं भुंजे,
चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये ८७ नाहं स्निग्धस्पर्शनामकर्मफलं भुंजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव
संचेतये ८८ नाहं रूक्षस्पर्शनामकर्मफलं भुंजे, चैतन्यात्मा-
नमात्मानमेव संचेतये ८९ नाहं शीतस्पर्शनामकर्मफलं भुंजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये
९० नाहमुष्णस्पर्शनामकर्मफलं भुंजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये ९१ नाहं
ही संचेतन करता हूँ।७७। मैं सातिकसंस्थाननामकर्मके फलको नहीं भोगता,
चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ७८मैं कुब्जकसंस्थाननामकर्मके फलको नहीं
भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ।७९। मैं वामनसंस्थाननामकर्मके फलको नहीं
भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ।८०। मैं हुंडकसंस्थाननामकर्मके फलको नहीं
भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ।८१। मैं वज्रर्षभनाराचसंहनननामकर्मके
फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ।८२।
मैं वज्रनाराचसंहनननामकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन
करता हूँ
।८३। मैं नाराचसंहनननामकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन
करता हूँ।८४। मैं अर्धनाराचसंहनननामकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप
आत्माका ही संचेतन करता हूँ।८५। मैं कीलिकासंहनननामकर्मके फलको नहीं भोगता,
चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ।८६। मैं असंप्राप्तासृपाटिकासंहनननामकर्मके
फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ।८७। मैं स्निग्धस्पर्शनामकर्मके
फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ।८८। मैं रूक्षस्पर्शनामकर्मके
फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ।८९। मैं शीतस्पर्शनामकर्मके
फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ।९०। मैं उष्णस्पर्शनामकर्मके
फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ।९१। मैं गुरुस्पर्शनामकर्मके

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गुरुस्पर्शनामकर्मफलं भुंजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये ९२ नाहं लघुस्पर्शनाम-
कर्मफलं भुंजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये ९३ नाहं मृदुस्पर्शनामकर्मफलं
भुंजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये ९४ नाहं कर्कशस्पर्शनामकर्मफलं भुंजे,
चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये ९५ नाहं मधुररसनामकर्मफलं भुंजे, चैतन्यात्मा-
नमात्मानमेव संचेतये ९६ नाहमाम्लरसनामकर्मफलं भुंजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव
संचेतये ९७ नाहं तिक्त रसनामकर्मफलं भुंजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये ९८
नाहं कटुकरसनामकर्मफलं भुंजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये ९९ नाहं
कषायरसनामकर्मफलं भुंजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये १०० नाहं सुरभिगन्धनामकर्मफलं
भुंजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये १०१ नाहमसुरभिगन्धनामकर्मफलं
भुंजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये १०२ नाहं शुक्लवर्णनामकर्मफलं भुंजे,
चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये १०३ नाहं रक्त वर्णनामकर्मफलं भुंजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव
संचेतये १०४ नाहं पीतवर्णनामकर्मफलं भुंजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव
संचेतये १०५ नाहं हरितवर्णनामकर्मफलं भुंजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये १०६ नाहं
फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ।९२। मैं लघुस्पर्शनामकर्मके
फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ।९३। मैं मृदुस्पर्शनामकर्मके
फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ।९४। मैं कर्कशस्पर्शनामकर्मके
फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ।९५। मैं मधुररसनामकर्मके
फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ।९६। मैं आम्लरसनामकर्मके
फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ।९७। मैं तिक्तरसनामकर्मके
फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ।९८। मैं कटुकरसनामकर्मके
फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ।९९। मैं कषायरसनामकर्मके
फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ।१००। मैं सुरभिगंधनामकर्मके
फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ।१०१। मैं असुरभिगंधनामकर्मके
फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ।१०२। मैं शुक्लवर्णनामकर्मके
फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ।१०३। मैं रक्तवर्णनामकर्मके
फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ।१०४। मैं पीतवर्णनामकर्मके
फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ।१०५। मैं हरितवर्णनामकर्मके
फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ।१०६। मैं कृष्णवर्णनामकर्मके

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कृष्णवर्णनामकर्मफलं भुंजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये १०७ नाहं
नरकगत्यानुपूर्वीनामकर्मफलं भुंजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये १०८ नाहं
तिर्यग्गत्यानुपूर्वीनामकर्मफलं भुंजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये १०९ नाहं
मनुष्यगत्यानुपूर्वीनामकर्मफलं भुंजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये ११० नाहं
देवगत्यानुपूर्वीनामकर्मफलं भुंजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये १११ नाहं निर्माणनामकर्मफलं
भुंजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये ११२ नाहमगुरुलघुनाम-
कर्मफलं भुंजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये ११३ नाहमुपघातनामकर्मफलं भुंजे,
चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये ११४ नाहं परघातनामकर्मफलं भुंजे, चैतन्यात्मा-
नमात्मानमेव संचेतये ११५ नाहमातपनामकर्मफलं भुंजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव
संचेतये ११६ नाहमुद्योतनामकर्मफलं भुंजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये ११७
नाहमुच्छ्वासनामकर्मफलं भुंजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये ११८ नाहमप्रशस्तविहायोग-
तिनामकर्मफलं भुंजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये ११९ नाहमप्रशस्तविहायोगतिनामकर्मफलं
भुंजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये १२० नाहं साधारणशरीरनामकर्मफलं भुंजे,
71
फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ।१०७। मैं
नरकगत्यानुपूर्वीनामकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता
हूँ
।१०८। मैं तिर्यंचगत्यानुपूर्वीनामकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन
करता हूँ।१०९। मैं मनुष्यगत्यानुपूर्वीनामकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही
संचेतन करता हूँ।११०। मैं देवगत्यानुपूर्वीनामकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका
ही संचेतन करता हूँ।१११। मैं निर्माणनामकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही
संचेतन करता हूँ।११२। मैं अगुरुलघुनामकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही
संचेतन करता हूँ।११३। मैं उपघातनामकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही
संचेतन करता हूँ।११४। मैं परघातनामकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही
संचेतन करता हूँ।११५। मैं आतपनामकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही
संचेतन करता हूँ।११६। मैं उद्योतनामकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही
संचेतन करता हूँ।११७। मैं उच्छवासनामकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही
संचेतन करता हूँ।११८। मैं प्रशस्तविहायोगतिनामकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप
आत्माका ही संचेतन करता हूँ।११९। मैं अप्रशस्तविहायोगतिनामकर्मके फलको नहीं भोगता,
चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ।१२०। मैं साधारणशरीरनामकर्मके फलको नहीं

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चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये १२१ नाहं प्रत्येकशरीरनामकर्मफलं भुंजे,
चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये १२२ नाहं स्थावरनामकर्मफलं भुंजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव
संचेतये १२३ नाहं त्रसनामकर्मफलं भुंजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये १२४
नाहं सुभगनामकर्मफलं भुंजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये १२५ नाहं दुर्भगनामकर्मफलं
भुंजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये १२६ नाहं सुस्वरनामकर्मफलं भुंजे, चैतन्यात्मा-
नमात्मानमेव संचेतये १२७ नाहं दुःस्वरनामकर्मफलं भुंजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव
संचेतये १२८ नाहं शुभनामकर्मफलं भुंजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये १२९
नाहमशुभनामकर्मफलं भुंजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये १३० नाहं सूक्ष्मशरीरनामकर्मफलं
भुंजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये १३१ नाहं बादरशरीरनामकर्मफलं
भुंजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये १३२ नाहं पर्याप्तनामकर्मफलं भुंजे,
चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये १३३ नाहमपर्याप्तनामकर्मफलं भुंजे, चैतन्यात्मा-
नमात्मानमेव संचेतये १३४ नाहं स्थिरनामकर्मफलं भुंजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव
संचेतये १३५ नाहमस्थिरनामकर्मफलं भुंजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये १३६
भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ।१२१। मैं प्रत्येकशरीरनामकर्मके फलको नहीं
भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ।१२२। मैं स्थावरनामकर्मके फलको नहीं
भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ।१२३। मैं त्रसनामकर्मके फलको नहीं भोगता,
चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ।१२४। मैं सुभगनामकर्मके फलको नहीं भोगता,
चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ।१२५। मैं दुर्भगनामकर्मके फलको नहीं भोगता,
चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ।१२६। मैं सुस्वरनामकर्मके फलको नहीं भोगता,
चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ।१२७। मैं दुःस्वरनामकर्मके फलको नहीं भोगता,
चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ।१२८। मैं शुभनामकर्मके फलको नहीं भोगता,
चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ।१२९। मैं अशुभनामकर्मके फलको नहीं भोगता,
चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ।१३०। मैं सूक्ष्मशरीरनामकर्मके फलको नहीं भोगता,
चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ।१३१। मैं बादरशरीरनामकर्मके फलको नहीं भोगता,
चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ।१३२। मैं पर्याप्तनामकर्मके फलको नहीं भोगता,
चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ।१३३। मैं अपर्याप्तनामकर्मके फलको नहीं भोगता,
चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ।१३४। मैं स्थिरनामकर्मके फलको नहीं भोगता,
चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ।१३५। मैं अस्थिरनामकर्मके फलको नहीं भोगता,

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नाहमादेयनामकर्मफलं भुंजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये १३७ नाहमनादेयनाम-
कर्मफलं भुंजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये १३८ नाहं यशःकीर्तिनामकर्मफलं
भुंजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये १३९ नाहमयशःकीर्तिनामकर्मफलं भुंजे,
चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये १४० नाहं तीर्थकरत्वनामकर्मफलं भुंजे, चैतन्यात्मा-
नमात्मानमेव संचेतये १४१
नाहमुच्चैर्गोत्रकर्मफलं भुंजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये १४२ नाहं नीचैर्गोत्रकर्मफलं
भुंजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये १४३
नाहं दानान्तरायकर्मफलं भुंजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये १४४ नाहं
लाभान्तरायकर्मफलं भुंजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये १४५ नाहं भोगान्तराय-
कर्मफलं भुंजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये १४६ नाहमुपभोगान्तरायकर्मफलं भुंजे,
चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये १४७ नाहं वीर्यान्तरायकर्मफलं भुंजे, चैतन्यात्मा-
नमात्मानमेव संचेतये १४८
चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ।१३६। मैं आदेयनामकर्मके फलको नहीं भोगता,
चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ।१३७। मैं अनादेयनामकर्मके फलको नहीं भोगता,
चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ।१३८। मैं यशःकीर्तिनामकर्मके फलको नहीं भोगता,
चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ।१३९। मैं अयशःकीर्तिनामकर्मंके फलको नहीं भोगता,
चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ।१४०। मैं तीर्थंकरनामकर्मके फलको नहीं भोगता,
चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ।१४१।
मैं उच्चगोत्रकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता
हूँ।१४२। मैं नीचगोत्रकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता
हूँ।१४३।
मैं दानांतरायकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता
हूँ।१४४। मैं लाभांतरायकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता
हूँ।१४५। मैं भोगान्तरायकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता
हूँ।१४६। मैं उपभोगांतरायकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता
हूँ।१४७। मैं वीर्यांतरायकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता
हूँ।१४८। (इसप्रकार ज्ञानी सकल कर्मोंके फलके संन्यासकी भावना करता है)

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(वसन्ततिलका)
निश्शेषकर्मफलसंन्यसनान्ममैवं
सर्वक्रियान्तरविहारनिवृत्तवृत्तेः
चैतन्यलक्ष्म भजतो भृशमात्मतत्त्वं
कालावलीयमचलस्य वहत्वनन्ता
।।२३१।।
(यहाँ भावनाका अर्थ बारम्बार चिंतवन करके उपयोगका अभ्यास करना है जब जीव
सम्यग्दृष्टिज्ञानी होता है तब इसे ज्ञान-श्रद्धान तो हुआ ही है कि ‘मैं शुद्धनयसे समस्त कर्म और
कर्मके फलसे रहित हूँ परन्तु पूर्वबद्ध कर्म उदयमें आने पर उनसे होनेवाले भावोंका कर्तृत्व
छोड़कर, त्रिकाल सम्बन्धी ४९-४९ भंगोंके द्वारा कर्मचेतनाके त्यागकी भावना करके तथा समस्त
कर्मोंका फल भोगनेके त्यागकी भावना करके, एक चैतन्यस्वरूप आत्माको ही भोगना शेष रह
जाता है
अविरत, देशविरत और प्रमत्तअवस्थावाले जीवके ज्ञानश्रद्धानमें निरन्तर यह भावना तो
है ही; और जब जीव अप्रमत्तदशाको प्राप्त करके एकाग्र चित्तसे ध्यान करे, केवल चैतन्यमात्र
आत्मामें उपयोग लगाये और शुद्धोपयोगरूप हो, तब निश्चयचारित्ररूप शुद्धोपयोगभावसे श्रेणि
चढ़कर केवलज्ञान उत्पन्न करता है
उस समय इस भावनाका फल जो कर्मचेतना और
कर्मफलचेतनासे रहित साक्षात् ज्ञानचेतनारूप परिणमन है वह होता है पश्चात् आत्मा अनन्तकाल
तक ज्ञानचेतनारूप ही रहता हुआ परमानन्दमें मग्न रहता है)
अब, इसी अर्थका कलशरूप काव्य कहते हैं :
श्लोकार्थ :(सकल कर्मोंके फलका त्याग करके ज्ञानचेतनाकी भावना करनेवाला
ज्ञानी कहता है किः[एवं ] पूर्वोक्त प्रकारसे [निःशेष-कर्म-फल-संन्यसनात् ] समस्त कर्मके
फलका संन्यास करनेसे [चैतन्य-लक्ष्म आत्मतत्त्वं भृशम् भजतः सर्व-क्रियान्तर-विहारनिवृत्त-
वृत्तेः ]
मैं चैतन्यलक्षण आत्मतत्त्वको अतिशयतया भोगता हूँ और उसके अतिरिक्त अन्य सर्व
क्रियामें विहारसे मेरी वृत्ति निवृत्त है (अर्थात् आत्मतत्त्वके उपभोगसे अतिरिक्त अन्य जो उपयोगकी
क्रिया
विभावरूप क्रिया उसमें मेरी परिणति विहारप्रवृत्ति नहीं करती); [अचलस्य मम ]
इसप्रकार आत्मतत्त्वके उपभोगमें अचल ऐसे मुझे, [इयम् काल-आवली ] यह कालकी आवली
जो कि [अनन्ता ] प्रवाहरूपसे अनन्त है वह, [वहतु ] आत्मतत्त्वके उपभोगमें ही बहती रहे
(उपयोगकी प्रवृत्ति अन्यमें कभी भी न जाये)
भावार्थ :ऐसी भावना करनेवाला ज्ञानी ऐसा तृप्त हुआ है कि मानों भावना करता हुआ
साक्षात् केवली ही हो गया हो; इससे वह अनन्तकाल तक ऐसा ही रहना चाहता है और यह

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(वसन्ततिलका)
यः पूर्वभावकृतकर्मविषद्रुमाणां
भुंक्ते फलानि न खलु स्वत एव तृप्तः
आपातकालरमणीयमुदर्करम्यं
निष्कर्मशर्ममयमेति दशान्तरं सः
।।२३२।।
(स्रग्धरा)
अत्यन्तं भावयित्वा विरतिमविरतं कर्मणस्तत्फलाच्च
प्रस्पष्टं नाटयित्वा प्रलयनमखिलाज्ञानसंचेतनायाः
पूर्णं कृत्वा स्वभावं स्वरसपरिगतं ज्ञानसंचेतनां स्वां
सानन्दं नाटयन्तः प्रशमरसमितः सर्वकालं पिबन्तु
।।२३३।।
योग्य ही है; क्योंकि इसी भावनासे केवली हुआ जाता है केवलज्ञान उत्पन्न करनेका परमार्थ
उपाय यही है बाह्य व्यवहारचारित्र इसीका साधनरूप है; और इसके बिना व्यवहारचारित्र
शुभकर्मको बाँधता है, वह मोक्षका उपाय नहीं है।२३१।
अब, पुनः काव्य कहते हैं :
श्लोकार्थ :[पूर्व-भाव-कृत-कर्म-विषद्रुमाणां फलानि यः न भुङ्क्ते ] पहले
अज्ञानभावसे उपार्जित कर्मरूपी विषवृक्षोंके फलको जो पुरुष (उसका स्वामी होकर) नहीं भोगता
और [खलु स्वतः एव तृप्तः ] वास्तवमें अपनेसे ही (
आत्मस्वरूपसे ही) तृप्त है, [सः आपात-
काल-रमणीयम् उदर्क-रम्यम् निष्कर्म-शर्ममयम् दशान्तरम् एति ] वह पुरुष, जो वर्तमानकालमें
रमणीय है और भविष्यकालमें भी जिसका फल रमणीय है ऐसे निष्कर्म
सुखमय दशांतरको प्राप्त
होता है (अर्थात् जो पहले संसार अवस्थामें कभी नहीं हुई थी, ऐसी भिन्न प्रकारकी कर्म रहित
स्वाधीन सुखमयदशाको प्राप्त होता है)
भावार्थ :ज्ञानचेतनाकी भावनाका फल यह है उस भावनासे जीव अत्यन्त तृप्त रहता
हैअन्य तृष्णा नहीं रहती, और भविष्यमें केवलज्ञान उत्पन्न करके समस्त कर्मोंसे रहित मोक्ष-
अवस्थाको प्राप्त होता है।२३२।
‘पूर्वोक्त रीतिसे कर्मचेतना और कर्मफलचेतनाके त्यागकी भावना करके अज्ञानचेतनाके
प्रलयको प्रगटतया नचाकर, अपने स्वभावको पूर्ण करके, ज्ञानचेतनाको नचाते हुए ज्ञानीजन
सदाकाल आनन्दरूप रहो’
इस उपदेशका दर्शक काव्य कहते हैं :
श्लोकार्थ :[अविरतं कर्मणः तत्फलात् च विरतिम् अत्यन्तं भावयित्वा ] ज्ञानीजन,

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(वंशस्थ)
इतः पदार्थप्रथनावगुण्ठनाद्
विना कृतेरेकमनाकुलं ज्वलत्
समस्तवस्तुव्यतिरेकनिश्चयाद्
विवेचितं ज्ञानमिहावतिष्ठते
।।२३४।।
अविरतपनेसे कर्मसे और कर्मफलसे विरतिको अत्यन्त भाकर, (अर्थात् कर्म और कर्मफलके प्रति
अत्यन्त विरक्त भावको निरन्तर भा कर, [अखिल-अज्ञान-संचेतनायाः प्रलयनम् प्रस्पष्टं नाटयित्वा ]
(इस भाँति) समस्त अज्ञानचेतनाके नाशको स्पष्टतया नचाकर, [स्व-रस-परिगतं स्वभावं पूर्णं
कृत्वा ]
निजरससे प्राप्त अपने स्वभावको पूर्ण करके, [स्वां ज्ञानसञ्चेतनां सानन्दं नाटयन्तः इतः
सर्व-कालं प्रशमरसम् पिबन्तु ]
अपनी ज्ञानचेतनाको आनन्द पूर्वक नचाते हुए अबसे सदाकाल
प्रशमरसको पिओ अर्थात् कर्मके अभावरूप आत्मिकरसको
अमृतरसकोअभीसे लेकर
अनन्तकाल तक पिओ इसप्रकार ज्ञानीजनोंको प्रेरणा की है)
भावार्थ :पहले तो त्रिकाल सम्बन्धी कर्मके कर्तृत्वरूप कर्मचेतनाके त्यागकी भावना
(४९ भंगपूर्वक) कराई और फि र १४८ कर्म प्रकृतियोंके उदयरूप कर्मफलके त्यागकी भावना
कराई इसप्रकार अज्ञानचेतनाका प्रलय कराकर ज्ञानचेतनामें प्रवृत्त होनेका उपदेश दिया है यह
ज्ञानचेतना सदा आनन्दरूप अपने स्वभावकी अनुभवरूप है ज्ञानीजन सदा उसका उपभोग
करोऐसा श्रीगुरुओंका उपदेश है।२३३।
यह सर्वविशुद्धज्ञान अधिकार है, इसलिये ज्ञानको कर्तृत्वभोक्तृत्वसे भिन्न बताया; अब
आगेकी गाथाओंमें अन्य द्रव्य और अन्य द्रव्योंके भावोंसे ज्ञानको भिन्न बतायेंगे पहले उन
गाथाओंका सूचक काव्य कहते हैं :
श्लोकार्थ :[इतः इह ] यहाँसे अब (इस सर्वविशुद्धज्ञान अधिकारमें आगेकी
गाथाओंमें यह कहते हैं कि) [समस्त-वस्तु-व्यतिरेक-निश्चयात् विवेचितं ज्ञानम् ] समस्त
वस्तुओंके भिन्नत्वके निश्चय द्वारा पृथक् किया गया ज्ञान, [पदार्थ-प्रथन-अवगुण्ठनात् कृतेः
विना ]
पदार्थके विस्तारके साथ गुथित होनेसे (
अनेक पदार्थोंके साथ, ज्ञेय-ज्ञान सम्बन्धके
कारण; एक जैसा दिखाई देनेसे) उत्पन्न होनेवाली (अनेक प्रकारकी) क्रिया उनसे रहित [एकम्
अनाकुलं ज्वलत् ]
एक ज्ञानक्रियामात्र, अनाकुल (
सर्व आकुलतासे रहित) और देदीप्यमान होता
हुआ, [अवतिष्ठते ] निश्चल रहता है
भावार्थ :आगामी गाथाओंमें ज्ञानको स्पष्टतया सर्व वस्तुओंसे भिन्न बतलाते हैं।२३४।
अब, इसी अर्थकी गाथाएँ कहते हैं :

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सत्थं णाणं ण हवदि जम्हा सत्थं ण याणदे किंचि
तम्हा अण्णं णाणं अण्णं सत्थं जिणा बेंति ।।३९०।।
सद्दो णाणं ण हवदि जम्हा सद्दो ण याणदे किंचि
तम्हा अण्णं णाणं अण्णं सद्दं जिणा बेंति ।।३९१।।
रूवं णाणं ण हवदि जम्हा रूवं ण याणदे किंचि
तम्हा अण्णं णाणं अण्णं रूवं जिणा बेंति ।।३९२।।
वण्णो णाणं ण हवदि जम्हा वण्णो ण याणदे किंचि
तम्हा अण्णं णाणं अण्णं वण्णं जिणा बेंति ।।३९३।।
गंधो णाणं ण हवदि जम्हा गंधो ण याणदे किंचि
तम्हा अण्णं णाणं अण्णं गंधं जिणा बेंति ।।३९४।।
ण रसो दु हवदि णाणं जम्हा दु रसो ण याणदे किंचि
तम्हा अण्णं णाणं रसं च अण्णं जिणा बेंति ।।३९५।।
रे ! शास्त्र है नहिं ज्ञान, क्योंकि शास्त्र कुछ जाने नहीं
इस हेतु से है ज्ञान अन्य रु शास्त्र अन्यप्रभू कहे ।।३९०।।
रे ! शब्द है नहिं ज्ञान, क्योंकि शब्द कुछ जाने नहीं
इस हेतुसे है ज्ञान अन्य रु शब्द अन्यप्रभू कहे ।।३९१।।
रे ! रूप है नहिं ज्ञान, क्योंकि रूप कुछ जाने नहीं
इस हेतु से है ज्ञान अन्य रु रूप अन्यप्रभू कहे ।।३९२।।
रे ! वर्ण है नहिं ज्ञान, क्योंकि वर्ण कुछ जाने नहीं
इस हेतुसे है ज्ञान अन्य रु वर्ण अन्यप्रभू कहे ।।३९३।।
रे ! गंध है नहिं ज्ञान, क्योंकि गंध कुछ जाने नहीं
इस हेतुसे है ज्ञान अन्य रु गंध अन्यप्रभू कहे ।।३९४।।
रे ! रस नहीं है ज्ञान, क्योंकि रस जु कुछ जाने नहीं
इस हेतुसे है ज्ञान अन्य रु अन्य रसजिनवर कहे ।।३९५।।